राष्ट्र-चिंतन
यूरोप में खडी हो रही इस्लामीकरण और
देशज संस्कृति की खतरनाक दीवार
विष्णुगुप्त
यूरोप के बढते इस्लामीकरण अब एक विस्फोटक राजनीतिक प्रश्न बन गया है और इस प्रश्न ने यूरोप की बहुलतावादी संस्कृति और उदारतावाद को लेकर एक नहीं बल्कि अनेकानेक आशंकाएं और चिंताएं खडी कर दी हैं। संकेत बडे ही विस्फोटक है, घृणात्मक है, अमानवीय है और भविष्य के प्रति असहिष्णुता प्रदर्शित करता है। जब इस्लामिक करण को लेकर यूरोप की मुस्लिम आबादी खतरनाक तौर अपनी भूमिका सक्रिय रखेगी और यूरोप की मूल आबादी अपनी संस्कृति के प्रति सहिष्णुता प्रकट करते हुए प्रतिक्रिया में हिंसक होगी, तकरार और राजनीतिक बवाल खडा करेगी तो फिर यूरोप राजनीति, कूटनीति और अर्थव्यवस्था की स्थिति कितनी अराजक होगी, कितनी हिंसक होगी, इसकी उम्मीद की जा सकती है। यूरोप के सिर्फ एकाद देश ही नहीं बल्कि कई देश इस्लामीकरण के चपेट में खडे है और यूरोप की पुरातन संस्कृति खतरे में पडी हुई है। यूरोप ने विगत में दो-दो विश्व युद्धों का सामना किया है, यूरोप के लाखों लोग दोनों विश्व युद्धों में मारे गये थे। दो विश्व युद्धों का सबक लेकर यूरोप ने शांति का वातावरण कायम रखने की बडी कोशिश की थी। यूरोप में लोकतंत्र सक्रिय रहा, शांति और सदभाव भी विकसित हुआ। धार्मिक आधार पर भी यूरोप सहिष्णुता ही प्रदर्शित करता रहा है। धार्मिक आधार पर भेदभाव यूरोप में नीचले कम्र पर ही रहा। मुस्लिम देशों और अफीका से पलायन कर गयी आबादी को यूरोप में पलने-फूलने का अवसर दिया गया, उन्हें लोकतांत्रिक अधिकार प्रदान किये गये। इसका सुखद परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम देशों और अफ्रीका से गयी आबादी भी गोरी आबादी के सामने खडी हो गयी, उनकी समृद्धि भी उल्लेखनीय हो गयी, उनकी आबादी भी लोकतंत्र को प्रभावित करने की शक्ति हासिल करने लगी। स्थिति विस्फोटक तो तब हो गयी जब मुस्लिम आतंकवादी संगठन एक साजिश के तहत मुस्लिम आबादी को शरणार्थी के तौर पर यूरोप में घुसाने और यूरोप के लोकतंत्र पर कब्जा करने के लिए सक्रिय हो गये। आज पूरा यूरोप मुस्लिम आतंकवाद और इस्लामीकरण की आग में जल रहा है।
वर्तमान में विस्फोटक स्थिति नार्वे में खडी हुई है, नार्वे की विस्फोटक स्थिति ने पूरी दुनिया का ध्यान खीचा है, पूरी दुनिया नार्वे की स्थिति को लेकर चिंतित हुई है और नार्वे की घटना का यथार्थ खोजा जा रहा है और यह चिंता व्यक्त की जा रही है कि नार्वे की विस्फोटक घटना की पुनरावृति ने केवल नार्वे में फिर से हो सकती है बल्कि इसकी आग यूरेाप के अन्य देशों तक पहुंच सकती है। समय - समय पर नार्वे जैसी स्थिति फ्रांस में भी हुई है, इटली में भी हुई है, जर्मनी में भी हुई है और मुस्लिम शरणार्थियो को लेकर नयी-नयाी विस्फोटक, खतरनाक और घृणात्मक सोच विकसित हो रही है जो किसी भी तरह शांति व सदभाव के लिए सकारात्मक नहीं माना जा सकता है। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि नार्वे की घटना किस प्रकार से विस्फोटक है, नार्वे की घटना क्या है, नार्वे की घटना को लेकर मुस्लिम देशों की गोलबंदी के यथार्थ क्या है, नार्वे की घटना को लेकर मुस्लिम देशों की गोलबंदी को क्या इस्लामीकरण की पक्षधर नीति मानी जानी चाहिए, पाकिस्तान जैसे असफल और मुस्लिम आतंकवाद की शरण स्थली बना पाकिस्तान नार्वे के विवाद में क्यों कूदा, क्या पाकिस्तान इस विवाद में कूद कर मुस्लिम आतंकवाद, मुस्लिम अतिवाद को बढावा दे रहा है?
नार्वे में अभी ‘ स्टाॅप इस्लामीकरण आॅफ नार्वे ‘ नामक अभियान और आंदोलन गंभीर रूप से सक्रिय है, यह अभियान और आंदोलन धीरे-धीरे हिंसक हो रहा है और असहिष्णुता को प्रदर्शित कर रहे हैं। नार्वे की स्थिति तो उस समय विस्फोटक हो गयी जब नार्वे के एक शहर में कुरान जलाने की अप्रिय और असहिष्णु घटना घटी। स्टाॅप इस्लामीकरण आॅफ नार्वे अभियान के नेता लार्स थार्सन ने कृश्चयनस्टेंड शहर में सैकडों प्रदर्शनकारियों के सामने कुरान जलाने जैसी अप्रिय घटना को अंजाम दे दिया। कुरान जलाने की घटना के खिलाफ नार्वे की मुस्लिम आबादी भी सक्रिय हो गयी। हम सबों को मालूम है कि मुस्लिम आबादी के लिए कुरान का महत्व कितना है। कुरान का अपमान मुस्लिम आबादी किसी भी परिस्थिति में स्वीकार नहीं करती हैं। दुनिया में जिसने भी कुरान का अपमान किया या फिर इस्लाम के प्रेरक पुरूषों के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणियां की, उसकी बर्बरता से हत्या कर दी गयी। इतिहास में दर्ज घटना के अनुसार इस्लाम पर आधारित कार्टून छापने वाली पत्रिका के पत्रकारों को मार डाला गया, अभी-अभी भारत में घटी एक घटना को भी संज्ञान में लिया जा सकता है। लखनउ के हिन्दू नेता कमलेश तिवारी ने विवादित टिप्पणी की थी, उस टिप्पणी को लेकर तत्कालीन अखिलेश यादव की सरकार ने कमलेश तिवारी को रासुका लगा कर जेलों में डाल दिया था। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार में बर्बरता पूर्ण ढंग से कमलेश तिवारी की हत्या हो गयी, हत्या तालिबानी और आईएस की शैली में हुई थी।
कुरान का अपमान करने वाले लार्स थार्सन के खिलाफ भी पूरी दुनिया की मुस्लिम आबादी खडी हो गयी है, लार्स थार्सन को दंडित करने की मांग खतरनाक तौर पर उठी है। कई मुस्लिम देश भी इस विवाद मे कूद चूके है। खासकर तुर्की और पाकिस्तान आग में घी का काम कर रहे हैं। पाकिस्तान में इस घटना को लेकर खतरनाक विरोध शुरू हो गया है। पाकिस्तान में कई प्रदर्शन हो चुके हैं, प्रदर्शन कारी लार्स थार्सन की मौत की मांग कर रहे हैं, फतवे पर फतवे जारी हैं। पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने नार्वे के राजदूत को बुला कर कुरान का अपमान करने वाले लार्स थार्सन पर कार्यवाही करने की मांग ही नहीं की बल्कि चेतावनी भी दी कि ऐसी घटना नार्वे के लिए ठीक नहीं होगी। पाकिस्तान और तुर्की अभी दो ऐेसे देश है जो मुस्लिम दुनिया का नेता बनने के लिए मुस्लिम अतिवाद को न केवल बढावा देते हैं बल्कि मुस्लिम आबादी को आतंकवादी गतिविधियों के लिए प्रेरित करने के लिए इंधन का भी काम आते हैं। पाकिस्तान और तुर्की जैसे देश यह नहीं सोचते कि उनके खतरनाक और विस्फोटक समर्थन से यूरोप में निवास कर रही मुस्लिम आबादी के प्रति असहिष्णुता की खाई बढेगी?
इसके विपरीत दुनिया की जनमत और फतवा विरोधी शक्तियां भी सक्रिय हो गयी है, सलमान रूशदी जैसी हस्तियां भी हतप्रभ हैं। सलमान रूश्दी जैसी हस्तियो की चिंता लार्स थार्सन के सुरक्षित जीवन को लेकर है। एक विचार यह भी सक्रिय हो रहा है कि आखिर लार्स थार्सन ने ऐसी घटना को अंजाम देने के लिए बाध्य क्यों हुए हैं, ऐसी स्थितियां तो रातो रात उत्पन्न नहीं हुई, ऐसी स्थितियों के लिए किसी न किसी रूप से मुस्लिम आबादी भी जिम्मेदार है। नार्वे की यह आग ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देशों तक पहुंच रही है। देशज शक्तियां भी इस्लामीकरण के खिलाफ गोलबंदी शुरू कर रही हैं। अगर ऐसा हुआ तो फिर यूरोप की स्थिति कितनी भयानक होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। एक तरफ मुस्लिम आबादी होगी तौर दूसरे तरफ ईसाई आबादी होगी। दोनों आबादी एक-दूसरे के खिलाफ मार-काट पर उतारू हो सकती है।
सिर्फ नार्वे की ही बात नहीं है बल्कि पूरे यूरोप की बात है। यूरोप का अति मानववाद अब गंभीर दुष्परिणम भुगतने की कसौटी पर खडा है। अति मानवतावाद के चक्कर में यूरोप की संस्कृति खतरे में हैं। यूरोप ने विगत में यह सोचा-समझा ही नहीं कि वे जिस आबादी का स्वागत कर रहे हैं वह आबादी उनके अस्तित्व और उनकी अस्मिता के लिए ही भस्मासुर बन जायेगी। मुस्लिम शरणार्थी सिर्फ स्वयं ही नहीं आते हैं बल्कि अपने साथ फतवा और कट्टरता की संस्कृति भी लेकर आते हैं, ऐसी आबादी जब तक कमजोर होती है तब तक इन्हें लोकतंत्र चाहिए, इन्हें शांति चाहिए। लेकिन समस्या तब शुरू होती है जब ऐसी आबादी अपने आप को सपूर्ण तौर पर शक्तिशाली समझ लेती है और लोकतंत्र को प्रभावित करने की शक्ति हासिल कर लेती है तब वह शरण देने वाली आबादी और देशों के लिए काल बन जाती है, फिर इन्हें लोकतंत्र नहीं चाहिए, इन्हें तो सिर्फ और सिर्फ मजहबी शासन चाहिए, इस्लामिक देश चाहिए। हर संभव मुस्लिम आबादी और ईसाई आबादी के बीच बढती खाई रोकी जानी चाहिए। यूरोप को इस्लामीकरण और देशज संस्कृति की खतरनाक दीवार नहीं बनने दिया जाना चाहिए।
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