Monday, November 25, 2019

यूरोप में खडी हो रही इस्लामीकरण और देशज संस्कृति की खतरनाक दीवार




राष्ट्र-चिंतन

यूरोप में खडी हो रही इस्लामीकरण और
देशज संस्कृति की खतरनाक दीवार


      विष्णुगुप्त



यूरोप के बढते इस्लामीकरण अब एक विस्फोटक राजनीतिक प्रश्न बन गया है और इस प्रश्न ने यूरोप की बहुलतावादी संस्कृति और उदारतावाद को लेकर एक नहीं बल्कि अनेकानेक आशंकाएं और चिंताएं खडी कर दी हैं। संकेत बडे ही विस्फोटक है, घृणात्मक है, अमानवीय है और भविष्य के प्रति असहिष्णुता प्रदर्शित करता है। जब इस्लामिक करण को लेकर यूरोप की मुस्लिम आबादी खतरनाक तौर अपनी भूमिका सक्रिय रखेगी और यूरोप की मूल आबादी अपनी संस्कृति के प्रति सहिष्णुता प्रकट करते हुए प्रतिक्रिया में हिंसक होगी, तकरार और राजनीतिक बवाल खडा करेगी तो फिर यूरोप राजनीति, कूटनीति और अर्थव्यवस्था की स्थिति कितनी अराजक होगी, कितनी हिंसक होगी, इसकी उम्मीद की जा सकती है। यूरोप के सिर्फ एकाद देश ही नहीं बल्कि कई देश इस्लामीकरण के चपेट में खडे है और यूरोप की पुरातन संस्कृति खतरे में पडी हुई है। यूरोप ने विगत में दो-दो विश्व युद्धों का सामना किया है, यूरोप के लाखों लोग दोनों विश्व युद्धों में मारे गये थे। दो विश्व युद्धों का सबक लेकर यूरोप ने शांति का वातावरण कायम रखने की बडी कोशिश की थी। यूरोप में लोकतंत्र सक्रिय रहा, शांति और सदभाव भी विकसित हुआ। धार्मिक आधार पर भी यूरोप सहिष्णुता ही प्रदर्शित करता रहा है। धार्मिक आधार पर भेदभाव यूरोप में नीचले कम्र पर ही रहा। मुस्लिम देशों और अफीका से पलायन कर गयी आबादी को यूरोप में पलने-फूलने का अवसर दिया गया, उन्हें लोकतांत्रिक अधिकार प्रदान किये गये। इसका सुखद परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम देशों और अफ्रीका से गयी आबादी भी गोरी आबादी के सामने खडी हो गयी, उनकी समृद्धि भी उल्लेखनीय हो गयी, उनकी आबादी भी लोकतंत्र को प्रभावित करने की शक्ति हासिल करने लगी। स्थिति विस्फोटक तो तब हो गयी जब मुस्लिम आतंकवादी संगठन एक साजिश के तहत मुस्लिम आबादी को शरणार्थी के तौर पर यूरोप में घुसाने और यूरोप के लोकतंत्र पर कब्जा करने के लिए सक्रिय हो गये। आज पूरा यूरोप मुस्लिम आतंकवाद और इस्लामीकरण की आग में जल रहा है।
                                   वर्तमान में विस्फोटक स्थिति नार्वे में खडी हुई है, नार्वे की विस्फोटक स्थिति ने पूरी दुनिया का ध्यान खीचा है, पूरी दुनिया नार्वे की स्थिति को लेकर चिंतित हुई है और नार्वे की घटना का यथार्थ खोजा जा रहा है और यह चिंता व्यक्त की जा रही है कि नार्वे की विस्फोटक घटना की पुनरावृति ने केवल नार्वे में फिर से हो सकती है बल्कि इसकी आग यूरेाप के अन्य देशों तक पहुंच सकती है। समय - समय पर नार्वे जैसी स्थिति फ्रांस में भी हुई है, इटली में भी हुई है, जर्मनी में भी हुई है और मुस्लिम शरणार्थियो को लेकर नयी-नयाी विस्फोटक, खतरनाक और घृणात्मक सोच विकसित हो रही है जो किसी भी तरह शांति व सदभाव के लिए सकारात्मक नहीं माना जा सकता है। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि नार्वे की घटना किस प्रकार से विस्फोटक है, नार्वे की घटना क्या है, नार्वे की घटना को लेकर मुस्लिम देशों की गोलबंदी के यथार्थ क्या है, नार्वे की घटना को लेकर मुस्लिम देशों की गोलबंदी को क्या इस्लामीकरण की पक्षधर नीति मानी जानी चाहिए, पाकिस्तान जैसे असफल और मुस्लिम आतंकवाद की शरण स्थली बना पाकिस्तान नार्वे के विवाद में क्यों कूदा, क्या पाकिस्तान इस विवाद में कूद कर मुस्लिम आतंकवाद, मुस्लिम अतिवाद को बढावा दे रहा है?
                                      नार्वे में अभी ‘ स्टाॅप इस्लामीकरण आॅफ नार्वे ‘ नामक अभियान और आंदोलन गंभीर रूप से सक्रिय है, यह अभियान और आंदोलन धीरे-धीरे हिंसक हो रहा है और असहिष्णुता को प्रदर्शित कर रहे हैं। नार्वे की स्थिति तो उस समय विस्फोटक हो गयी जब नार्वे के एक शहर में कुरान जलाने की अप्रिय और असहिष्णु घटना घटी। स्टाॅप इस्लामीकरण आॅफ नार्वे अभियान के नेता लार्स थार्सन ने कृश्चयनस्टेंड शहर में सैकडों प्रदर्शनकारियों के सामने कुरान जलाने जैसी अप्रिय घटना को अंजाम दे दिया। कुरान जलाने की घटना के खिलाफ नार्वे की मुस्लिम आबादी भी सक्रिय हो गयी। हम सबों को मालूम है कि मुस्लिम आबादी के लिए कुरान का महत्व कितना है। कुरान का अपमान मुस्लिम आबादी किसी भी परिस्थिति में स्वीकार नहीं करती हैं। दुनिया में जिसने भी कुरान का अपमान किया या फिर इस्लाम के प्रेरक पुरूषों के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणियां की, उसकी बर्बरता से हत्या कर दी गयी। इतिहास में दर्ज घटना के अनुसार इस्लाम पर आधारित कार्टून छापने वाली पत्रिका के पत्रकारों को मार डाला गया, अभी-अभी भारत में घटी एक घटना को भी संज्ञान में लिया जा सकता है। लखनउ के हिन्दू नेता कमलेश तिवारी ने विवादित टिप्पणी की थी, उस टिप्पणी को लेकर तत्कालीन अखिलेश यादव की सरकार ने कमलेश तिवारी को रासुका लगा कर जेलों में डाल दिया था। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार में बर्बरता पूर्ण ढंग से कमलेश तिवारी की हत्या हो गयी, हत्या तालिबानी और आईएस की शैली में हुई थी।
                                 कुरान का अपमान करने वाले लार्स थार्सन के खिलाफ भी पूरी दुनिया की मुस्लिम आबादी खडी हो गयी है, लार्स थार्सन को दंडित करने की मांग खतरनाक तौर पर उठी है। कई मुस्लिम देश भी इस विवाद मे कूद चूके है। खासकर तुर्की और पाकिस्तान आग में घी का काम कर रहे हैं। पाकिस्तान में इस घटना को लेकर खतरनाक विरोध शुरू हो गया है। पाकिस्तान में कई प्रदर्शन हो चुके हैं, प्रदर्शन कारी लार्स थार्सन की मौत की मांग कर रहे हैं, फतवे पर फतवे जारी हैं। पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने नार्वे के राजदूत को बुला कर कुरान का अपमान करने वाले लार्स थार्सन पर कार्यवाही करने की मांग ही नहीं की बल्कि चेतावनी भी दी कि ऐसी घटना नार्वे के लिए ठीक नहीं होगी। पाकिस्तान और तुर्की अभी दो ऐेसे देश है जो मुस्लिम दुनिया का नेता बनने के लिए मुस्लिम अतिवाद को न केवल बढावा देते हैं बल्कि मुस्लिम आबादी को आतंकवादी गतिविधियों के लिए प्रेरित करने के लिए इंधन का भी काम आते हैं। पाकिस्तान और तुर्की जैसे देश यह नहीं सोचते कि उनके खतरनाक और विस्फोटक समर्थन से यूरोप में निवास कर रही मुस्लिम आबादी के प्रति असहिष्णुता की खाई बढेगी?
                         इसके विपरीत दुनिया की जनमत और फतवा विरोधी शक्तियां भी सक्रिय हो गयी है, सलमान रूशदी जैसी हस्तियां भी हतप्रभ हैं। सलमान रूश्दी जैसी हस्तियो की चिंता लार्स थार्सन के सुरक्षित जीवन को लेकर है। एक विचार यह भी सक्रिय हो रहा है कि आखिर लार्स थार्सन ने ऐसी घटना को अंजाम देने के लिए बाध्य क्यों हुए हैं, ऐसी स्थितियां तो रातो रात उत्पन्न नहीं हुई, ऐसी स्थितियों के लिए किसी न किसी रूप से मुस्लिम आबादी भी जिम्मेदार है। नार्वे की यह आग ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देशों तक पहुंच रही है। देशज शक्तियां भी इस्लामीकरण के खिलाफ गोलबंदी शुरू कर रही हैं। अगर ऐसा हुआ तो फिर यूरोप की स्थिति कितनी भयानक होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। एक तरफ मुस्लिम आबादी होगी तौर दूसरे तरफ ईसाई आबादी होगी। दोनों आबादी एक-दूसरे के खिलाफ मार-काट पर उतारू हो सकती है।
                                सिर्फ नार्वे की ही बात नहीं है बल्कि पूरे यूरोप की बात है। यूरोप का अति मानववाद अब गंभीर दुष्परिणम भुगतने की कसौटी पर खडा है। अति मानवतावाद के चक्कर में यूरोप की संस्कृति खतरे में हैं। यूरोप ने विगत में यह सोचा-समझा ही नहीं कि वे जिस आबादी का स्वागत कर रहे हैं वह आबादी उनके अस्तित्व और उनकी अस्मिता के लिए ही भस्मासुर बन जायेगी। मुस्लिम शरणार्थी सिर्फ स्वयं ही नहीं आते हैं बल्कि अपने साथ फतवा और कट्टरता की संस्कृति भी लेकर आते हैं, ऐसी आबादी जब तक कमजोर होती है तब तक इन्हें लोकतंत्र चाहिए, इन्हें शांति चाहिए। लेकिन समस्या तब शुरू होती है जब ऐसी आबादी अपने आप को सपूर्ण तौर पर शक्तिशाली समझ लेती है और लोकतंत्र को प्रभावित करने की शक्ति हासिल कर लेती है तब वह शरण देने वाली आबादी और देशों के लिए काल बन जाती है, फिर इन्हें लोकतंत्र नहीं चाहिए, इन्हें तो सिर्फ और सिर्फ मजहबी शासन चाहिए, इस्लामिक देश चाहिए। हर संभव मुस्लिम आबादी और ईसाई आबादी के बीच बढती खाई रोकी जानी चाहिए। यूरोप को इस्लामीकरण और देशज संस्कृति की खतरनाक दीवार नहीं बनने दिया जाना चाहिए।

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Monday, November 11, 2019

वह पागल साढ तो लोकतंत्र का रखवाला था

 


                           राष्ट्र-चिंतन

       भारतीय लोकतंत्र के हीरो थे टीएन शेषणवह पागल साढ तो लोकतंत्र का रखवाला था


        विष्णुगुप्त



टीएन शेषण की मृत्यु पर मीडिया और राजनीतिक हलकों में सीमित जगह ही क्यों मिली, क्या उन्हें विशेष जगह नहीं मिलनी चाहिए थी, उनकी लोकतात्रिक सुधार की वीरता पर विस्तृत चर्चा नहीं होनी चाहिए थी? देश की वर्तमान पीढी को यह नहीं बताया जाना चाहिए था कि टीएन शेषण की लोकतांत्रिक वीरता क्या थी, लोकतंत्र को उन्होंने कैसे समृद्ध बनाया था, वोट के महत्व को उन्होने कैसे समझाया था, वोट लूट को उन्होंने कैसे रोका था, बूथ कब्जा की राजनीतिक संस्कृति को उन्होंने कैसे जमींदोज की थी, लोकतंत्र का हरण कर राजनीतिक सत्ता पर विराज मान होने वाले लठैत-अपराधी किस्म के राजनीतिज्ञों की आंख के किरकिरी वे कैसे बने थे, फिर भी वे हार नही मानी थी, आज चुनाव सुधार की जितनी भी प्रक्रिया चल रही है, आज चुनाव सुधार के जितने भी कानून अस्तित्व में आये हैं, उसकी बुनियाद में टीएन शेषण की ही वीरता रही है। उसके पूर्व चुनाव आयोग को रीढविहीन, दंत विहीन संस्थान का दर्जा प्राप्त था, जिसके पास न तो कोई विशेष अधिकार थे और न ही चुनाव आयोग के सिर पर पर बैठे अधिकारियों की कोई अपनी पैनी दृष्टि होती थी, ये सिर्फ और सिर्फ सरकार के गुलाम के तौर पर खडा होते थे, सरकार की इच्छाओं को ही सर्वोपरि मान लेते थे। खास कर सत्ता धारी दल यह नहीं चाहता था कि चुनाव आयोग रीढशील बने, दंतशील बने, अगर ऐसा होता तो फिर सत्ताधारी दल के लिए फिर से सत्ता में लौटने की सभी आशाएं चुनाव से पूर्व ही समाप्त हो जाते। हथकंडों को अपना कर चुनाव जीतना सत्ताधारी पार्टी का प्रमुख राजनीतिक एजेंडा होता था। हथकंडों में विरोधी वर्ग और विरोधी क्षेत्रों में वोटर पंजीकरण में धांधली कराना, फर्जी वोटर पंजीकरण कराना, बुथ कब्जा कराना और कमजोर वर्ग के लोगों को मतदान केन्द्रों से दूर रहने के लिए षडयंत्र रचना शामिल थे।
                                        टीएन शेषण ने गुमनामी में शेष जिंदगी क्यों गुजारी, यह भी एक प्रश्न है? इस प्रश्न पर भी गंभीरता के साथ चर्चा करना जरूरी है। देखा यह गया है कि शीर्ष नौकरशाही के पद पर बैठा शख्त सेवा निवृति के बाद भी गुमनामी मे नहीं जाता है, ख्यात जिंदगी में ही वह सक्रिय होता है, कोई नौकरशाह राज्यपाल बन जाता है, कोई नौकरशाह प्राधिकरणों में जज हो जाते हैं, तो कोई नौकरशाह राज्य सभा और लोकसभा के सदस्य बन जाते हैं। इसके अतिरिक्त भी नौकरशाह खेल खेलते रहते है। कोई नौकरशाह रिलायंस का सलाहकार बन जाता है तो कोई नौकरशाह अडानी का सलाहकार बन जाता है, इनके बनाये संस्थानों का चीफ बन जाता है। इस प्रकार नौकरशाह शेष जिंदगी भी आराम और धाक के साथ गुजारता है। अब यहां यह प्रश्न भी उठता है कि सेवानिवृति के बाद भारत सरकार या फिर राज्य सरकारे भी टीएन शेषण की सेवाएं वैसी जगह क्यों नहीं ली जहां पर उनकी ईमानदारी, उनकी कर्मठता और उनके समर्पण की जरूरत थी और उनकी ईमानदारी, उनकी कर्मठता और उनके समर्पण से आम जनता को लाभ होता, आम जनता को न्याय मिलता? सेवा निवृति के बाद टीएन शेषण एक तरह से गुमनामी की जिंदगी जीने के लिए विवश थे। एक तरह से वे अकेलापन के शिकार थे। वे दिल्ली छोडकर चेन्नई चले गये थे। दिल्ली का पंच सितारा संस्कृति और लूट-खसौट की दुनिया उन्हें पंसद नहीं थी, उनकी ईमानदारी ये सब पंसद नहीं करती थी। चेन्नई में भी वे अकेला ही महसूस करते थे। उनका कोई परिवार नहीं था। उनके बच्चे नहीं थे। परिवार से भी उनका विशेष लगाव नहीं था। शायद उनका अपना कोई आवास भी नहीं था। अनाथालय में वे रहते थे, सेवानिवृति से मिलने वाली अंशराशि से उनका जीवन चलता था। जब आप ईमानदार होंगे, जब आप सिद्धातशील होंगे, जब आप लूट-खसौट की संस्कृति से दूर रहेंगे, किसी को वर्जित ढंग से लाभ नहीं करायेंगे तो फिर आपका इस दुनिया में कोई मित्र भी नहीं होगा, आपको पंसद करने वाला सीमित लोग होंगे। सीमित लोग भी आस पास नहीं होते हैं वे दूर-दूर रहकर ही प्रेरणा लेते हैं। ऐसी श्रेणी के वीर शख्त को भी लोग पागल कह कर अपनानित करते हैं। लूटेरे वर्ग और राजनीतिक हलका भी टीएन शेषण को पागल ही कहा करते थे।
                                           लेकतांत्रिक सेनानी होने के कारण मैंने ही नहीं बल्कि टीएन शेषण की वीरता को देखने वाली पीढी यह जानती थी कि लोकतांत्रिक पद्धति हमारी कितनी दुरूह और मकडजाल और फेरब से भरी पडी थी। कमजोर वर्ग चुनाव लडने का साहस नही कर सकता था, चुनाव पर बडे लोगों, बडी जातियों, धन पशुओं और अपराधियों का राज रहता था, ये जिसे चाहते थे वही चुनाव लड सकते थे, इनकी इच्छा के बिना कोई चुनाव नहीं लड सकता था। कोई चुनाव लडने का साहस करता तो उसकी हत्या होती , उसके प्रताडना निश्चित था, नामंकन प्रक्रिया को दोषपूर्ण ठहरा कर नामंकन रद करा दिया जाता था। सबसे बडी बात यह थी कि दलित, आदिवासी और कमजोर जातियों के क्षेत्र में मतदान प्रक्रिया में अपराधी हावी होते थे, बूथ कब्जा आम होता था। दलित, आदिवासियों और कमजोर जातियों को वोट देने के अधिकार से वंचित कर दिया जाता था। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि चुनाव जीत चुके उम्र्मीदवारों को भी चुनाव जीतने के प्रमाण पत्र मिलने के पूर्व हेराफेरी में हरा दिया जाता था और हारे हुए प्रत्याशी को जीता दिया जाता था। इस अपराध क्रम की कहीं कोई सुनवाई नहीं होती थी, न्यायिक प्रक्रिया लंबी होने के कारण सब बअर्थ हो जाती थी। लोमहर्षक बात यह थी कि चुनाव कर्मचारी बेलगाम होते थे, उनकी मर्जी ही चुनाव नियम होती थी। इनकी मर्जी अनियंत्रित हुआ करती थी। इनके खिलाफ सुनवाई कहीं नहीं होती थी। केन्द्रीय चुनाव पूरे देश में एक ही दिन हुआ करते थे, राज्य चुनाव भी एक ही दिन हुआ करते थे। ऐसी स्थिति में चुनाव सुरक्षा नाम की कोई चीज नहीं हुआ करती थी।
                                    टीएन शेषण ने चुनाव आयुक्त के पद पर बैठते ही अपनी वीरता दिखायी। खास कर बिहार के जातिवादी राजनीति के उदाहरण लालू प्रसाद यादव से टकरा बैठे। उन्होने बिहार में चुनाव अधिकारियों को अपने हथियारों का डर दिखाया, पक्षपात करने पर दंड के भागीदार बनाने का हस्र दिखाया, कई चरणों में चुनाव प्रक्रिया करने की नियम बना डाला। कई चरणों में चुनाव होने की खबर सुनते ही बिहार ही क्यों देश भर में तहलका मच गया। लालू अपने व्यवहार के अनुसार प्रतिक्रिया दी थी, लालू ने कहा था कि इ शेषणवा पगला गया है, इ शेषणवा पागल सांढ हैं, इस पागल साढ को हम पकड कर कमरे में बंद कर देंगे या फिर गंगा में बहा देगे। पर टीएन शेषण पर इसका कोई प्रभाव नहीं पडा। टीएन शेषण ने चुनाव प्रक्रिया के दौरान अपराधियों को जेल भेजवाने का फरमान सुना दिया, चुनाव प्रक्रिया के दौरान अधिकारियों का स्थानंतरण या पदोन्नति को रोक दिया। लालू ही नहीं बल्कि अनेकानेक राजनीतिज्ञ टीएन शेषण के चुनाव सुधार दंड प्रक्रिया के शिकार हुए थे। हिमाचल प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल गुलशेर अहमद को अपना इस्तीफा सौंपना पडा था। उनका दोष था कि वे चुनाव के दौरान मध्य प्रदेश के सतना जाकर अपने पुत्र के लिए चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने की कोशिश की थी। राजनीतिज्ञ और केन्द्रीय मंत्री रहे कल्पनाथ राय को भी टीएन शेषण का कोपभाजना बनना पडा था। उस दौरान राजनीति में टीएन शेषण भयभीत करने वाले शख्त के तौर पर विराजमान थे। राजनीति में एक चर्चा आम थी कि राजनीतिज्ञ सिर्फ भगवान और टीएन शेषण से ही डरते हैं। एक नौकरशाह के रूप में भी उनकी ख्याति गजब की थी। मंत्री उनसे पीछा छुडाना चाहते थे और उनके अंदर काम करने वाले अधिकारी व कर्मचारी मुक्ति का मार्ग तलाशते थे।
                           हमें घोर आश्चर्य है कि टीएन शेषण की सेवाएं सरकारें उनकी सेवानिवृति के बाद भी क्यों नहीं ली उनकी सेवाएं ली जानी चाहिए थी। खास कर देश की अकादमियां उनकी सेवा ले सकती थी। टीएन शेषण देश की भावी पीढी को सजग, कर्मठ और ईमानदार बनाने की शिक्षा दे सकते हैं, उन्हें प्रेरक राह दिखा सकते थे। दुखद यह है कि उन्हें गुमनामी में जिंदगी गुजारने के लिए छोड दिया गया। अगर हम ईमानदारी और कर्मठता का सम्मान नहीं करेंगे तो फिर देश में भ्रष्टचार, बईमानी और वर्जित कार्य की बढती प्रवृति को कैसे रोक पायेंगे? यह एक यक्ष प्रश्न है। टीएन शेषण की लोकतांत्रिक वीरता को बच्चों के पाठय पुस्तक में शामिल किया जाना चाहिए।

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विष्णुगुप्त
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Thursday, November 7, 2019

भाजपा के पैरासूट नेताओं ने झारखंड को तबाह किया

 
राष्ट्र-चिंतन

भाजपा के पैरासूट नेताओं ने झारखंड को तबाह किया
 

     विष्णुगुप्त





झारखंड राज्य भाजपा की देन है, सर्वाधिक समय तक सत्ता की चाभी भाजपा के हाथों में रही है, इसलिए यह कहना सही होगा कि झारखंड को एक विकसित राज्य बनाना, झारखंड के नागरिको के भविष्य को सुंदर और प्रेरणादायी बनाना, वनांचल आंदोलन के महारथियों व संघर्षरत योद्धाओं का सम्मान करना ,खनिज संपदाओं का अंधाधुध दोहन रोकना, पर्यावरण की सुरक्षा करना, भ्रष्टचार का दमन करना, मूल निवासियों के अधिकारों और हितों को संरक्षित करने जैसै जिम्मेदारियां भाजपा की ही थी। अब यहां यह प्रश्न खडा किया जाना चाहिए कि भाजपा इन सभी जिम्मेदारियों का निर्वाहन ईमानदारी और वैज्ञानिक तथा नैतिकता की कसौटियों पर किया है या नहीं? अगर नहीं तो फिर भाजपा अंनत काल तक सत्ता में रहने की वीरता कैसे और क्यों दिखाती रहेगी?
                          निश्चित तौर पर झारखंड एक पूर्ण विकसित राज्य नहीं बन सका है, आदर्श और प्रेरक राज्य भी नहीं बन सका। मूल निवासियों की कल्पना-इच्छा की कसौटी पर झारखंड की कोई अच्छी तस्वीर खडी नहीं हुई है, विकास एक छलावा है, भ्रमित करने वाला है, झारखंड में बाहरी संस्कृति की घुसपैठ खतरनाक तौर पर हुई है, बाहरी संस्कृति का अर्थ झारखंड की मूल संस्कृति की घेराबंदी, लुटेरी संस्कृति का खतरनाक तौर पर उपस्थिति, भ्रष्टाचार का बोलबला, भष्टचार से आम जीवन का त्राहीमाम करना, झारखंड के मूल निवासियों का जीवन कठिन बना कर लहूलुहान करना, नौकरशाही को शासक का रूप देना, खनिज संपदाओं का अंधाधुध दोहन करना, झारखंड के खनिज संपदाओं की तस्करी को संरक्षित करना, जैसे अनेकानेक वर्जित कार्यों को प्राथमिकता मिली है।
लोमहर्षक,खतरनाक व तेजाबी संस्कृति का राजनीतिक प्रत्यारोपण है। बाहरी और पैरासूट नेताओं को सत्ता और पार्टी संगठन के केन्द्र विन्दु मे उपस्थित करना, प्रत्यारोपित करने का खेल खेला गया। इस खेल ने सबसे ज्यादा नकरात्मक प्रभाव झारखंड के मूल नेताओं पर पडा। सत्ता और पार्टी के केन्द्र में लुटरी और बाहरी तथा पैरासूट संस्कृति के नेताओं के प्रत्यारोपण के कारण झारखंड के मूल नेताओ की ईमानादारी, नैतिकता, कर्मठता और समर्पण निरर्थक बन गयी, उनकी राजनीतिक संभावनाओं को पूर्ण अवस्था में पहुंचने से पूर्व ही निरर्थक बना दिया गया, एक साजिश पूर्ण राजनीतिक कुकृत्य है। झारखंड की सत्ता पर इनके कब्जे स्पष्ट तौर देखा जा सकता है।
झारखंड-वनांचल आंदोलन में एक पर एक नेता थे जो ईमानदारी, कर्मठता और देशज संस्कृति के वाहक थे, जिन्होंने अलग झारखंड राज्य बनवाने में अपनी भूमिका निभायी थी। पर दो तरह के संकटों ने झारखंड और वनांचल आंदोलन के नेताओ को निरर्थक बनाया है। झारखंड आंदोलन के जो नेता थे, वे आपसी फूट के शिकार हो गये, भ्रष्टचार के आंकठ में डूब गये, वंशवाद के आंकठ में डूब गये। भ्रष्टचार के आरोप में शिबू सोरेन बार-बार जेल गये। मुख्यमंत्री रहते हुए शिबू सोरेन विधान सभा के चुनाव हार गये। शिबू सोरेन को उंचाइयों तक पहुंचाने वाले सूरज मंडल वंशवाद के मोह में निपटा दिये गये। शिबू सोरेन ने अपने बेटों के कारण सूरज मंडल को पार्टी से निकाल कर हाशिये पर चढा दिया। दुष्परिणाम यह हुआ कि सूरज मंडल तो निपट ही गये, इसके साथ ही साथ शिबू सोरेन का परिवार और झारखंड मुक्ति मोर्चा भी अपनी पुरानी शक्ति से हाथ धो बैठे। फलस्वरूप झारखंड की राजगद्दी पर भाजपा को बार-बार बैठने का अवसर प्रदान हुआ।
                                जहां तक भाजपा के मूल नेताओं की बात है तो उन्हें भाजपा के केन्द्रीय कृत और झारखंड की लुटेरी मानसिकता से ग्रस्त नेताओं ने ही निरर्थक और कमजोर बना कर हाशिये पर खडा कर दिया गया। कडिया मुंडा जैसे वरिष्ठ, ईमानदारी और राजनीति में विरले नेता को छोडकर , उन्हें दरकिनार कर बाबू लाल मरांडी को प्रथम मुख्य मंत्री बना दिया गया? कडिया मंुडा जैसे वरिष्ठ, ईमानदार और राजनीति के प्रेरक पुरूष को नजरअंदाज क्यों किया गया, उन्हें हाशिये पर क्यों ढकेला गया, उनकी प्रशासनिक और देशज संस्कृति की विशेषज्ञता क्यों नहीं सत्ता का साथ मिला ? इस प्रश्न का कोई जवाब आज की राजनीति में कोई खोजने की कोशिश ही नहीं करता? सच्चाई बडी ही खतरनाक है, साजिश की सुई भाजपा के बिहारी संस्कृति के नेताओं और भाजपा के केन्द्रीयकृत नेताओ की ओर घूमती है। बिहार से जब झारखंड अलग हुआ था तब भी बिहार के नेताओं ने अपनी लुटेरी मानसिकता को जारी रखने के लिए न केवल साजिश रची थी बल्कि मकडजाल भी बूने थे। इसकी पीछे की कहानी भी कम राजनीतिक लोमहर्षक नहीं है। भाजपा की बिहारी संस्कृति के नेताओं और केन्द्रीय नेताओं ने यह सोच विकसित की थी कि अगर झारखंड की सत्ता पर कोई मूल संस्कृति के समर्पित नेता या फिर कडिया मुंडा जैसे नेता की ताजपोशी हुई तो फिर उनकी लुटेरी मानसिकताएं जमीन पर नहीं उतर सकती हैं? झारखंड के पर्यावरण और खनिज संपदाओं के दोहन करने का अवसर नहीं मिलेगा, टाटा जैसी तमाम निजी कंपनियों की लूट की संस्कृति जारी नहीं रखी जा सकती है। इसी उददेश्य से बाबू लाल मरांडी की ताजपोशी हुई थी और कडिया मुंडा जैसे नेताओं को सत्ता से दूर रखा गया था। बाद में बाबू लाल मरांडी की कहानी भी सबके दृष्टांत में है ही। एक समय भाजपा में इन्दर सिंह नामधारी जैसे नेताओं की धाक होती थी जो भाजपा से बाहर जाने के लिए विवश हुए थे।
                                  भाजपा की सत्ता और पार्टी पर विराजमान प्रथम श्रेणी के नेताओं का आकलन कर लीजिये, आपको ज्ञात हो जायेगा कि झारखंड के साथ कितना अन्याय हुआ है और झारखंड की आज तो दुर्गति है, झारखंड देश का सबसे प्रेरक और आदर्श स्टेट क्यों नहीं बन पाया, इसकी पूरी कहानी, पूरी साजिश और पूरी लुटेरी मानसिकताएं आपको समझ में आ जायेगी? आज स्थिति यह है कि भाजपा में या तो मोहरे संस्कृति के नेता है या फिर बाहरी यानी पैरासूट संस्कृति के नेता है। अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बनाया गया था और आज केन्द्र में अर्जुन मुंडा मंत्री भी है, पर उनका वनांचल आंदोलन में कोई भूमिका नहीं थी, भाजपा को गांव-गांव तक ले जाने में उनकी कोई भूमिका नहीं थी, ये झारखंड मुक्ति मोर्चा में थे और दलबदल कर भाजपा में आ गये। झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास बाहरी है, ये जमशेदपुर में टाटा कंपनी में नौकरी करने आये थे और भाजपा के शिखर तक पहुंच गये। सरयू राय की कहानी और भी राजनीतिक बर्बर है, सरयू राय एक समय लालू के किचन कैबिनेट के सदस्य हुआ करते थे, ये भाजपा विरोधी थे, बिहारी संस्कृति के बाहुबली है। सरयू राय अचानक बिहार छोड कर झारखंड की राजनीति में आ गये, झारखंड की जातीय और झारखंड की लुटेरी मानसिकताओं पर सवार लोगों ने सरयू राय को चमका दिया। आज सरयू राय की झारखंड की राजनीति में मजबूत और सत्ता निर्धारण में भूमिका निभाने वाले नेता के रूप में गिनती होती है, बिहार में यही सरयू राय कोई चुनाव जीतता या नहीं पर आज झारखंड में इनकी धाक है।
                           झारखंड की मूल राजनीतिक संस्कृति की कसौटी पर भाजपा के सांसदों और विधायकों की पृष्ठभूमि जांच कर लीजिये, राजनीतिक लोमहर्षक कहानियां सामने आयेंगी। अनेकानेक झारखंड के भाजपा सांसद और विधायक बाहरी है। उदाहरण देख लीजिये। पलामू से सांसद बीडी राम मूल रूप से कांग्रेसी और बाहरी हैं, गोडा से सांसद निशिकांत दुबे, रांची से सांसद संजय सेठ, हजारीबाग के सांसद यशवंत सिंन्हा का बेटा, धनबाद का सांसद पशुपति नाथ सिंह, चतरा के सांसद सुनील सिंह, आदि बाहरी हैं। झारखंड में भाजपा को स्थापित करने वाले सूरज मनि सिंह, प्रवीण ंिसंह श्रवण कुमार, निर्भय कुमार सिंह जैसे सैकडो नेता आज हाशिये पर खडे हैं, इन्हें कभी विधायक और सांसद बनने का अवसर ही नहीं दिया गया। पार्टी के लिए चंदाखोरी करने वाले नेता गुलशन आजमानी भी गुमनामी में कैद हैं।
                            झारखंड राज्य बनाने का जो उद्देश्य था वह तो शायद अब कभी पूरा होगा? अगर झारखंड की सत्ता पर
झारखंड के लिए लडने वाले शिबू सोरेन जैसे नेता अपनी ईमानदारी नहीं छोडते और वीरता के साथ समर्पण प्रदर्शित करते रहते तो फिर झारखंड में भाजपा के बाहरी और पेरासूट नेताओं की सत्ता पर पहुंच बन ही नहीं सकती थी। झारखंड आंदोलनकारियों की विफलता और बईमानी ने भाजपा के बाहरी और पैरासूट नेताओं को झारखंड लुटने की गारंटी प्रदान की है। इसका दुष्परिणाम तो झारखंड आंदोलन के नेताओं ने भी झेला है। आज झारखंड मुक्ति मोर्चा स्वयं के बल पर सत्ता स्थापित करने की शक्ति ही प्रदान नहीं कर सकता है। आजसू भाजपा के पिछलग्गू बन गया। बाबू लाल मरांडी टिटही पंक्षी की तरह खुशफहमी के शिकार हो गये, बाबू लाल मरांडी लोकसभा से लेकर विधान सभा चुनाव हार गये पर अभी भी बाबू लाल मरांडी स्वयं के बल पर झारखंड की सत्ता पर स्थापित होने का दुस्वपन देखना बंद नहीं किये है।
                           भाजपा भी दीर्धकालिक तौर पर झारखंड की जनता को मूर्ख नहीं बना सकती है, जनता को लोकलुभावन नारे के साथ ही साथ विकास और उन्नति भी चाहिए। हिन्दुत्व हमेशा सत्ता की चाभी नही बन सकता है। नरेन्द्र मोदी का चमत्कार तो लोकसभा चुनाव में चल सकता है पर विधान सभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी के चत्मकार की बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं होनी चाहिए। विकास और उन्नति की कसौटी पर भाजपा का भुतहा चेहरा ही है। विकास और उन्नति के नाम पर सिर्फ भवन खडे कर दिये गये हैं, सरकारी कर्मचारी और नौकरशाही जनता के लिए यमराज बन गये हैं। शिक्षा की स्थिति चैपट है, स्कूल हैं पर शिक्षक पढाने जाते नहीं हैं, अस्पताल है पर डाॅक्टर बैठते नहीं, पूरा वन विभाग है पर वन का सर्वानाश हो चुका है, खनिज संपदाओं के लिए निजी सेना खडी कर दी गयी है, खनिज संपदाओं की लूट रोकने वालों को देशद्रोही बनाकर जेलों में डाल दिया जा रहा है, झारखंड के निवासी होने के बावजूद इस तरह के संघर्षरथियों को झारखंड में रहने पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है।
                         आंदोलन से सत्ता जब कोई निकलती है, आंदोलन से जब कोई राज्य निकलता है तो फिर सत्ता की चाभी आंदोलनकारियों के हाथो में ही होनी चाहिए। झारखंड राज्य आंदोलन की उपज है पर झारखंड राज्य की स्वतंत्र चाभी आंदोलनकारियों के हाथों में नहीं रही है। अगर भाजपा में कडिया मुंडा जैसे नेता हाशिये पर खडे नहीं होते और झारखंड में भाजपा को स्थापित करने वाले नेताओं को साजिशपूर्ण ढंग से जमींदोज नहीं किया गया होता तो फिर आज झारखंड राज्य की तस्वीर कुछ अलग ही होती। झारखंड के पास देश के अनुपातिक तौर पर 46 प्रतिशत मिनरल है, यहां के खनिज और वन पर पूरा देश राज करता है, झारखंड अपने पैसों से एक आदर्श और प्रेरक राज्य बन सकता था। अगर भाजपा फिर भी मूल संस्कृति को खारिज करती रहेगी, मूल नेताओं को हाशिये पर भेजती रहेगी तो फिर भाजपा अंनत काल तक सत्ता की चाभी हासिल करने की वीरता नहीं दिखा सकती है।


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VISHNU GUPT
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Sunday, November 3, 2019

क्यों सुरक्षित है इमरान खान की सत्ता ?

राष्ट्र-चिंतन
विपक्ष के राजनीति बंवडर से भी खतरे मे नहीं है इमरान सरकार

क्यों सुरक्षित है इमरान खान की सत्ता ?

         विष्णुगुप्त


इमरान खान प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा देने के लिए क्यों नहीं बाध्य होंगे? पाकिस्तान की इमरान खान की सरकार के भविष्य को क्यों सुरक्षित माना जा रहा है? इमरान खान की सरकार के खिलाफ विपक्ष का उठा राजनीतिक बवंडर को निरर्थक या फिर लक्ष्यविहीन क्यो माना जा रहा है? विपक्ष के राजनीतिक बंवडर को पाकिस्तान की सेना का साथ क्यों नहीं मिला? क्या पाकिस्तान की राजनीति में अति कट्टरवादी धारा की जमीन तैयार हो रही है? क्या मुख्य विपक्षी दल पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और नवाज शरीफ की पार्टी की अब सत्ता में लौटने की उम्मीद समाप्त हो गयी है? इमरान सरकार के खिलाफ कट्टरवादी और आतंकवाद के समर्थक मजहबी नेता फजलूर रहमान को इतना समर्थन क्यों मिल रहा है? नवाज शरीफ और विलाल भुट्टों की पार्टी इस मजहबी नेता के पिछलग्गू क्यों बन गयी है? अगर फजलूर रहमान के पक्ष मे कोई राजनीतिक गोलबंदी सुनिश्चित होती है तो फिर पाकिस्तान में आतंकवादी संगठन मजबूत हो सकते है क्या? इमरान खान की सरकार कायम रखने में पाकिस्तान की सेना की क्या मजबूरी है? पाकिस्तान के अंदर में उठे राजनीतिक बंवडर को लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इमरान सरकार की कितनी विश्वसनीयता बची रहेगी? क्या फजलूर रहमान का यह राजनीतिक बवंडर इमरान सरकार की कश्मीर प्रसंग की विफलता का दुष्परिणाम माना जाना चााहिए? पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था इस राजनीतिक बंवडर से और कितना प्रभावित होगी? अर्थव्यवस्था की कसौटी पर ऐसे राजनीतिक बंवडर का समर्थन करना क्या आत्मघाती कदम नही माना जाना चाहिए? पाकिस्तान के अंदर में अर्थव्यवस्था की कसौटी सर्वोच्च स्थान पर रहती हैं क्या? अगर अर्थव्यवस्था की कसौटी सर्वोच्च स्थान पर रहती तो फिर पाकिस्तान के अंदर में आतंकवाद, कट्टरतावाद, मजहबी हिसा, अल्पसंख्यकों के प्रति उदासीनता की न तो काई नींव होती और न ही कोई ऐसी फसल लहलहाती? क्या यह सही नही है कि आतंकवाद, कट्टरवाद और मजहबी हिंसा जैसी नकारात्मक राजनीति अर्थव्यवस्था को मजबूत नहीं होने देती? फजलूर रहमान के इस राजनीतिक बंवडर से पाकिस्तान की साख एक बार फिर दुनिया के अंदर अविश्वसनीयता का शिकार हुई है, कमजोर हुई है। सुनिश्चित तौर पर पाकिस्तान की वर्तमान अर्थव्यवस्था और भी चैपट होगी?
                                                  फजलूर रहमान का यह राजनीतिक बंवडर कितनी शक्ति निर्मित कर पायी, इमरान खान की सरकार को कितनी डरा पायी? इमरान खान क्या भविष्य में इस्तीफा देने के लिए मजबूर होंगे? ऐसे प्रश्न दुनिया के लिए महत्वपूर्ण होंगे पर पाकिस्तान के लिए ऐसे प्रश्न कोई अर्थ नहीं रखते है? पाकिस्तान का यही इतिहास है कि वहां पर अंधेरगर्दी पंसद की जाती है, अराजकता को समर्थन मिलता है, शक्ति मिलती है। भारत जैसी जनक्रांति पाकिस्तान कें अंदर न तो हो सकती है और भविष्य में भी न होने की उम्मीद हो सकती है। भारत में आजादी के बाद भी कई राजनीतिक जनक्रातियां हुई है, इमरजेंसी के दौरान इन्दिरा गांधी जैसी तानाशाही राजनीतिज्ञ का पतन जनक्रांति से हुई थी, अराजक और  भ्रष्ट सरकारें वोट की जनक्रांति से जमींदोज होती रही हैं। पर पाकिस्तान में एक भी ऐसी क्रांति नहीं हुई है और वोट क्रांति पर भी पाकिस्तान की सेना का पहरा रहा है, पाकिस्तान की सेना जिधर चाहती है उधर वोट की क्रांति का मुंह मोड देती है। यह भी सही है कि आंदोलन तभी कोई सफल होता है जब उस आंदोलन का व्यापक समर्थन हासिल होता है और आंदोलन कर्ता का जनाधार व्यापक होता है। अब यहां यह भी देखना होगा कि इमरान खान को इस्तीफा देने के लिए मजबूर करने के उद्देश्य से आंदोलन कर रही फजलूर रहमान की पार्टी का समर्थन और जनाधार व्यापक है या नहीं, इस पार्टी का जनाधार दो प्रमुख प्रदेशों और प्रमुख सत्ता के केन्द्र में खडी जातियों में है या नहीं? उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान के अंदर कई जातीय और कई क्षेत्रो की अस्मिताएं राजनीति को नियंत्रित करती रही हैं। इनमे से दो प्रमुख जातीय और क्षेत्रीय अस्मिताएं हैं जो पाकिस्तान की सत्ता पर राज करती रही हैं और जिनका पाकिस्तान के सभी क्षेत्रों पर पकड मजबूत हैं। ये दोनों अस्मिताओं के नाम पंजाबी और सिंधी अस्मिताएं हैं। पंजाबी अस्मिाओं का प्रतिनिधित्व नवाज शरीफ करते हैं और उनकी पार्टी करती है जबकि सिंघी अस्मिता का प्रतिनिधित्व भुट्टों परिवार करता है। भुट्टों परिवार का प्रतिनिधित्व अभी विलाल भुट्टों कर रहे हैं जो पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति आसिफ जरदारी और पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टों के बेटे हैं। फजलूर रहमान न तो पंजाबी मूल का प्रतिनिधित्व करते है और न ही फजलूर रहमान सिंघी मूल का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए उपर्युक्त तथ्यों के अवलोकन से साफ होता है कि पूरे पाकिस्तान में न तो फजलूर रहमान का कोई खास वजूद है और न ही पूरे पाकिस्तान से उसे व्यापक समर्थन हासिल हो रहा है। अगर ऐसा  है तो फिर फजलूर रहमान का आंदोलन भी कोई लक्ष्य कैसे प्राप्त कर सकता है?
                                 पाकिस्तान की सेना की सर्वोपरीयता को अभी तक किसी ने चुनौती देने का सरेआम साहस नहीं किया है, उडने के लिए जो राजनीतिक पंख फडफडाये वह राजनीतिक पंख उडान भरने के पूर्व ही काट डाले गये। पाकिस्तान के राजनीतिक शासक फंासी के फंदों पर टांग दिये गये, सेना की जेलो में डाल कर सडा दिये गये। नवाज शरीफ ने सेना के खिलाफ अपने पंख फडफडाने की कोशिश की थी। दुष्परिणाम क्या निकला, यह देख लीजिये। पाकिस्तान की सेना ने अपनी बर्वरता और संहारक प्रवृति को हथियार बना कर न्यायपालिका को अपने चंगुल में ले लिया। न्यायपालिका ने नवाज शरीफ सहित बहुत सारे राजनीतिज्ञों को भ्रष्टाचार का दोषी ठहरा कर जेलों में डाल दिया और इनसबों की छवि बिगाड डाली। आज नवाज शरीफ जेल में मिले उत्पीडन के कारण जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं। जब नवाज शरीफ और आसिफ जरदारी-बिलाल भुट्टो सहित लगभग सभी नेता चुनाव लडने से अयोग्य हो गये, जनता के बीच इनकी छवि खराब कर दी गयी तो फिर पाकिस्तान की जनता के बीच विकल्प ही क्या था? ऐसी परिस्थितियों मेें पाकिस्तान की सेना की कोख से इमरान खान जैसे गैर राजनीतिक किस्म के शासक का जन्म होता है और इमरान खान सेना के मोहरा के तौर पर पाकिस्तान की सत्ता पर कायम हो जाते हैं।
                             इमरान खान निश्चित तौर पर पाकिस्तान की सेना का मोहरा है। पाकिस्तान की सेना अपने इस मोहरा को कभी खोना नहीं चाहेगी। इमरान खान जैसा हां में हा मिलाने वाला राजनीतिज्ञ और कहां मिलेगा? पाकिस्तान की सेना यह सच्चाई जानती है। पाकिस्तान की सेना यह जानती है कि इमरान खान की ऐसा राजनीतिज्ञ हो सकता है जो सेना की सर्वोच्चता को बनाये रख सकता है। पाकिस्तान की सेना को यह विश्वास है कि जब तक उसके पास इमरान खान जैसा मोहरा है तब तक पंजाबी और सिंघी राजनीतिक अस्मिाएं भी नियंत्रित है। फजलूर रहमान जैसे नेताओं के आंदोलन से कोई खास प्रभाव नहीं पडने वाला है। जबकि पाकिस्तान की जनभावनाएं इमरान सरकार के खिलाफ खडी है। पाकिस्तान की जनभावनाएं यह मानती है कि कश्मीर के प्रश्न पर इमरान खान की विफलता घातक है, पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए आत्मघाती है, अगर इमरान खान की जगह कोई और प्रधानमंत्री होता तो फिर कश्मीर के प्रश्न पर दुनिया के अंदर में व्यापक समर्थन हासिल कर सकता था। इसके अलावा भी इमरान खान के अलोकप्रिय होने के कारण है। सबसे बडी बात आतंकवादियों और मजहबी जमात का नियंत्रण है। आतंकवादियों और मजहबी जमात के नियंत्रण की कोई कोशिश ही नहीं हुई। सेना अपने पाले हुए आतंकवादियों और मजहबी जमात को समाप्त नहीं होने देना चाहती है। इस कारण पाकिस्तान की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनामी रूकती नहीं है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इमरान खान की अविश्वसनीयता जारी रहेगी।
                                        अर्थव्यवस्था गत विकास के लिए और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इमरान सरकार की विश्वसनीयता के लिए शांति और हिंसा से मुक्ति जरूरी है। ऐसी राजनीतिक तकरार और बाधाओं से पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था से मजबूत नहीं होगी, दुनिया के निवेशक भी पाकिस्तान में निवेश करने की रूचि नहीं रखेंगे। अंतराष्ट्रीय स्तर पर कर्ज देने वाले देश और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं भी निवेश करने या फिर कर्ज देने से डरेंगे। आतंकवादी संगठनों के भी मजबूत होने के खतरे हैं। इसलिए कि फजलूर रहमान के आंदोलन में आतंकवादी संगठन और मजहबी कट्टरपंथी लोग ही शामिल हैं, अगर ऐसे लोग राजनीतिक समर्थन हासिल करते हैं तो आतंकवाद और हिंसा की कसौटी पर पाकिस्तान की स्थिति और भी विस्फोटक होगी। इमरान खान ही नहीं बल्कि पाकिस्तान की सेना को राजनीतिक सर्वानूमति बना कर चलने की जरूरत है।

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Monday, October 14, 2019

आदर्श व प्रेरक मोदी परिवार



        राष्ट्र-चितन
आदर्श व प्रेरक मोदी परिवार

       विष्णुगुप्त


नरेन्द्र मोदी परिवार से जुड़ी हुई एक प्रेरक, सुखद,आदर्श, घटना और दृष्टांत है, जिसकी उम्मीद अनेकानेकों को ही नही सकती है। घटना 2012 के गुजरात विधान सभा के चुनाव के समय की है। मैं उस घटना का साक्षात किया था। तब मैं गुजरात विधान सभा चुनाव की रिपोर्टिंग करने गुजरात गया था। नरेन्द्र मोदी के विधान सभा चुनाव क्षेत्र मणिनगर की घटना है। मणिनगर विधान सभा के भाजपा कार्यालय के सामने रोड पर एक व्यकित अति साधारण वेश-भूषा में खडे थे, वे आटोवालों को कहीं जाने के लिए हाथ दे रहे थे। उसी समय प्रसिद्ध व चर्चित समाजवादी नेता राजनारायण जिन्होंने इन्दिरा गांधी को चुनाव में हराने का पराक्रम दिखाया था के शिष्य और समाजवादी नेता क्रांति प्रकाश मुझे आवाज देते हैं, कहते है कि इन्हें पहचानिये ये कौन है? शाम का समय था , थोड़ा अंधेरा भी हो चुका था, इसलिए मैं उन्हें पहचान नहीं सका, फिर क्रांति प्रकाश बोलते हैं कि ये मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के भाई हैं, विश्वास ही नहीं हुआ। पर बात तो सच्ची थी। हम दोनों उनके पास पहुंचे और पूछे कि आपको जाना कहां हैं तो उन्होंने जवाब दिया कि घर जाना है, फिर हमलोगों ने पूछा कि आपके पास गाडी नहीं है, उन्होंने सादगीपूर्ण जवाब दिया कि उनके पास धन कहां है जो गाडी खरीदे और गाडी की जरूरत भी नहीं है। उनके इस जवाब को सुनकर हम दंग रह गये, हम नेताओं और वह भी सत्ता में बैठे नेताओ के परिजनों की ठसक, अंहकार, सत्ता का दुरूपयोग और सरकारी धन की लूट करते हुए देखा सुना है, हम लोगों की मानसिकताएं भी कुछ ऐसी विकसित हो गयी है कि हम लोग उसी को बडा नेता मानते है या फिर बडा होने का अहसास करते हैं जिनकी जिंदगी ठसक भरी होती है, जिसकी जिंदगी और दिनचर्या में अहंकार भरा होता है, जिसकी जिंदगी सत्ता के दुरूपयोग से चलती फिरती है, जिसकी जिंदगी कानूनों को तोडने और कानूनो को निरर्थक बना कर लाभार्थी बनने से चलती है, जिसकी जिंदगी सरकारी धन की लूट से गुलजार होती है। बहुतायत की जिंदगी और मानसिकता में सादगीपूर्ण जिंदगी, निष्पक्ष और ईमानदार व्यक्ति कही से भी स्वीकार ही नही होते है, बल्कि इस संस्कृकि के लोगों को नकरात्मक या फिर पागल घोषित कर देते हैं।
                      अभी-अभी फिर मोदी परिवार की एक ओर आदर्श व प्रेरक घटना से पूरा देश अवगत हुआ है। यह घटना उस दिल्ली में घटी जहां पर खुद नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री के पद पर बैठे हैं। नरेन्द्र मोदी के अपने भाई प्रहलाद मोदी की पुत्री दमयंत्री के साथ पर्स लूट की घटना होती है। वह प्रधानमंत्री की भतीजी होने जैसा कोई भी हंगामा खडी नहीं करती है, कोई हायतौबा नहीं मचाती है। साधारण नागरिक की हैसियत से थाना पहुचती है और अपनी एफआइआर दर्ज कराती है। वह यह भी नहीं कहती है कि उनके चाचा नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री हैं। जब पुलिस वाले दमयंत्री का पता एफआइआर में देखते है तो तब पुलिस और मीडिया में हडकम्प मच जाता है। थोडे समय में ही पर्स लुटेरे पकडे जाते हैं, रूपये और जरूरी कागजात वापस मिल जाते हैं। आदर्श और प्रेरक वाली बात इसके आगे हैं। दमयंत्री अमृतसर से दिल्ली आई थी। वह कोई सरकारी गेस्ट हाउस या फाइव स्टार होटल में भी नहीं ठहरी थी, वह एक गुजराती धर्मशाला में ठहरी थी और सार्वजनिक वाहन का प्रयोग की थी। धर्मशाला में ठहरने का अर्थ क्या होता है, धर्मशाला में कौन लोग ठहरते हैं? यह कौन नहीं जानता है? धर्मशाला में कोई साधन सम्पन्न व्यक्ति नहीं ठहरते हैं, धर्मशाला में कोई अंबानी-अडानी संस्कृति के लोग नहीं ठहरते हैं, धर्मशाला में कोई विधायक-सांसद और उनके परिवार नहीं ठहरते हैं, धर्मशाला में कोई मंत्री या उनका परिवार नहीं ठहरता है, धर्मशाला में कोई प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का परिवार नहीं ठहरता है, ऐसे लोग तो फाइव स्टार होटलों के सहचर होते हैं या फिर ऐसे लोग सरकारी संस्थानों के एयर कडिश्न संस्कृति के गेस्ट हाउसों में ठहरने के सहचर होते हैं। धर्मशाला मे तो सांधन विहीन और गरीब संस्कृति के लोग ठहरते हैं जो किसी तरह अपनी जिंदगी सक्रिय रखते हैं। लेकिन प्रधानमंत्री भतीजी दमयंती ने धर्मशाला में ठहर कर और सार्वजनिक परिवहन का सहचर बन कर जो सीख दी है वह प्रेरक है, एक सीख है और आदर्श स्थिति है।
                             नरेन्द्र मोदी की मां और पत्नी का यहां पर वर्णण न करना बईमानी होगी। हालांकि अपनी पत्नी को लेकर नरेन्द्र मोदी सहिष्णंुता नहीं रखते हैं, इस कसौटी पर नरेन्द्र मोदी हमेशा आलोचना के शिकार रहे हैं पर नरेन्द्र मोदी की पत्नी जशोदा बेन का जीवन और नरेन्द्र मोदी के प्रति सहिष्णुता,त्याग की चरम स्थिति है। जशोदा बेन अभी भी कानूनी तौर पर नरेन्द्र मोदी की पत्नी हैं। कानूनी तौर पर नरेन्द्र मोदी की पत्नी होने के कारण जशोदा बेन कई सरकारी सुविधाओं की हकदार हैं, उन्हें कई छूट भी मिली हुई है, उन्हें हाई लेबल की सुरक्षा निहित है। पर यह जानकार हर्ष होता है, यह जानकार सीख मिलती है, यह जानकर आदर्श स्थिति खडी होती है कि जशोदाबेन ने कोई सरकारी सुविधा नहीं ली है, कोई छूट हासिल नहीं की है या फिर सरकारी छूट के लिए कोई इच्छा कभी भी व्यक्त नहीं की है। सबसे बडी बात यह है कि जशोदाबेन को हाई लेबल की सुरक्षा भी नहीं चाहिए। जशोदा बेन एक शिक्षिका थी। सेवा निवृति के बाद मिलने वाले पेंशन पर ही अपनी जिंदगी सक्रिय रखी है। विरोधी लोगों ने खूब भडकाने की कोशिश की थी, विरोधी लोगों ने खूब मोहरा बनाने और लालच देने की कोशिश की थी पर जशोदा बेन कभी भी नरेन्द्र मोदी के लिए असहिष्णुता नहीं बनी। नरेन्द्र मोदी की माता जब टूटे हुए चश्मे में रस्सी बांध कर पहनती है, पैसे निकालने के लिए बैक की लाइन में खडी होती है तो यह देख कर हर कोई को गर्व होता है, वह अपने प्रधानमंत्री बेटे पर कभी भी यह दबाव नहीं डालती कि वह उनके अन्य बेटों के लिए कुछ करें जो साधारण जिंदगी जीने के संकट राह पर खडे हैं। नरेन्द्र मोदी के भाई, उनकी बहने भी कभी ऐसा कोई कार्य नही करते हैं जिससे नरेन्द मोदी की छवि पर कोई आंच आये या फिर सत्ता का दुरूपयोग का आरोप लगे। यह सुखद स्थिति नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से निर्मित नहीं हुई है। कहने वाले कहते हैं कि यह आदर्श, सुखद, प्रेरक लक्ष्मण रेखा नरेन्द्र मोदी उसी दिन छीच दी थी जिस दिन नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे।
                         नरेन्द्र मोदी परिवार का कोई सदस्य राजनीति में है क्या? क्या नरेन्द्र मोदी ने अपने किसी परिजनों को राजनीति में आगे किया है? इसका उत्तर नहीं ही हो सकता है। इसकी उलट स्थिति देख लीजिये। भारतीय राजनीति में जब कोई बडा नेता बनता है तब वह वंशवादी परिवार खडा कर लेता है। उदाहरण कोई एक नहीं है बल्कि अनेकानेक है। जवाहर लाल नेहरू से लेकर लालू, मुलायम, पासवान, मायावती, चैटाला, हुडा, करूणानिधि, बादल, नायडू आदि वंशवादी राजनीति किस कदर लोकतंत्र की मुंह चिढा रही हैं, यह कौन नहीं जानता है? वंशवादी परिवार के कारण लोकतंत्र हमारा कितना कमजोर हुआ है, यह भी कौन नहीं जानता है। वंशवादी परिवार की उभरी और स्थापित हुई राजनीति के कारण आम आदमी की राजनीति में प्रवेश और पहुंच लगातार कमजोर हो रही है। आज स्थिति यह है कि सांसद का बेटा ही सांसद बन रहा है, विधायक का बेटा ही विधायक बन रहा है। दिल्ली में बाप-दादे के नाम पर ऐसे राजनीतिज्ञ लोग भर पडे हैं जो बडी-बडी कोठियां कब्जा रखी है, बडी-बडी छूट हासिल कर रखी हैं, विशेषाधिकार हासिल कर रखे हैं। कोई एसपीजी की सुरक्षा ले रखी है तो कोई जेड प्लस की सुरक्षा ले रखी हैं। जिन पैसों से गरीबों का विकास किया जाना चाहिए, गरीब क्षेत्रों की उन्नति होनी चाहिए उन पैसों से वंशवादी परिजनों की सुरक्षा दी जाती है। ऐसे कोई परिवार खुद विशेषताएं, छूट और सुरक्षा छोडने के लिए तैयार नहीं हैं। यह भी सही है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में ऐसे वंशवादी परिवार राजनीतिक तौर तेजी के साथ सीमित हो रहे हैं, हाशिये पर खडे हो रहे हैं। ऐसे वंशवादी राजनीति परिवारों पर नरेन्द मोदी का परिवार लोकतंत्र की सही और प्रेरक राह दिखा रहा है।
                 देश की आम जनता को ऐसी सुखद, प्रेरक, आदर्श स्थिति पर गर्व करना चाहिए। अगर देश की जनता ऐसे आदर्श, सुखद, प्रेरक परिवार पर गर्व नहीं करेगी तो फिर देश की राजनीति पर लूटेरे, वंशवादी, सरकारी सुविधा खोर लोगों का कब्जा कैसे समाप्त होगा। हमें अगर लोकतंत्र को मजबूत करना है और आम आदमी की तकदीर बनानी है तो नरेन्द्र मोदी जैसे आदर्श, प्रेरक और सुखद स्थिति वाले राजनीतिक परिवारों पर हमें गर्व करना ही नहीं चाहिए बल्कि अपने जीवन में भी सीख लेनी चाहिए।



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Tuesday, October 1, 2019

घृणित और विखंडन युक्त इस्लामिक हथकंडा


राष्ट्र-चितन
घृणित और विखंडन युक्त इस्लामिक हथकंडा


इस्लाम के प्रति घृणा बढाने वाला इमरान खान का हथकंडा, फिर गैर मुस्लिम देशों के मुसलमानों की राष्ट्रीयता क्या होगी ?

       विष्णुगुप्त



इस्लामिक शासकों द्वारा इस्लाम का डर-भय दिखाना और इस्लाम को हथकंडा के तौर पर प्रस्तुत करना कोई नयी बात नहीं है। खासकर गैर इस्लामिक देशों और गैर इस्लामिक जनता को डराने-धमकाने के लिए इस्लाम के आधार पर मुस्लिम समुदाय की गोलबंदी की बात होती रहती है, कभी इस्लामिक देशों के शासक तो कभी इस्लामिक आतंकवादी संगठन ऐसी बात करते रहते हैं। कभी मिश्र, सीरिया जैसे मुस्लिम देश ने इस्राइल के खिलाफ मुसलमानों की गोलबंदी की बात की थी पर ये देश खुद इस्राइल से युद्ध में हार कर समझौते के लिए बाध्य हुए, कभी ईरान और मलेशिया जैसे मुस्लिम देश भी इस्राइल सहित अन्य काफिर देशों के खिलाफ मुसलमानों की एकता और गोलबंदी की बात की थी। पर उनकी बात भी अनसुनी हो गयी, इन सब की अपील पर कोई खतरनाक प्रक्रिया सामने नहीं आयी, इन सबों की दुनिया में जगहंसाई ही हुई। गैर मुस्लिम आबादी के बीच इनकी यह सोच एक कट्टरवादी और घृणात्मक की कसौटी पर देखी गयी। निश्चित तौर पर ऐसी अपील और ऐसी मजहबी प्रक्रिया से इस्लाम के प्रति कोई सहानुभूति सामने नहीं आती है बल्कि यह कहना जरूरी हो जाता है कि ऐसी अपील और ऐसी मजहबी प्रकिया से इस्लाम की ही छवि खराब होती है, इस्लाम के प्रति असहिष्णुता ही सामने आती है। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि यूरोपीय  और अमेरिकी उदार समाज में इस्लाम के प्रति घृणा और विखंडन ही उत्पन्न होती है।
                         अभी-अभी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने मुस्लिम शासकों की उर्पयुक्त हथकंडे और घृणात्मक मजहबी प्रक्रिया को आगे बढाया है, एक हथकंडे के तौर पर प्रस्तुत किया है। इसके संकेत और निष्कर्ष बहुत ही खतरनाक है। जाहिर तौर पर इमरान भारत को डराने-धमकाने के लिए हथकंडे के तौर पर इस्लाम को प्रस्तुत किया था, परमाणु युद्ध का खतरा दिखाया था, जेहाद को सही ठहराया था, पूरी दुनिया के मुस्लिम समुदाय को संगठित होकर खडा होने के लिए उकसाया था। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि इमरान खान के ऐसे हथकंडों से डर कौन रहा है, इमरान खान के ऐसे हथकंडों से क्या भारत डरने वाला है, ऐसे हथकंडों से दुनिया के अन्य देश भी सहानुभूति प्रकट करने के लिए सामने आयेंगे, क्या ऐसे हथकंडों से कश्मीर में जेहाद और आतंकवाद का नया दौर शुरू हो सकता है? क्या ऐसे हथकंडों का प्रभाव दुनिया के अन्य मुस्लिम देशों पर पडेगा, क्या ऐसे हथकंडो से दुनिया के अन्य मुस्लिम देश अपने हित छोड कर पाकिस्तान के हित रक्षक होने के लिए तैयार होंगे, क्या ऐसे हथकंडे से दुनिया के अन्य समुदाय के बीच कोई सकरात्मक सहानुभूति उत्पन्न होगी?
                           इन सभी प्रश्नों पर इमरान खान या फिर उनके देश की कूटनीति पहले या बाद में आत्म विश्लेषण नहीं किये होंगे। अगर इमरान खान और उनके देश की कूटनीति इन सभी प्रश्नों के आत्म विश्लेषण किये होते तो ये कभी भी इस्लाम का भय नहीं दिखाये होते, कश्मीर को इस्लाम से न जोडकर मानवता और मानवाधिकार से जोडे हुए होते। निश्चित तौर पर कश्मीर की वर्तमान राजनीतिक घटना को मानवता और मानवाधिकार के साथ जोडे हुए होते तो दुनिया के नियामकों और दुनिया के जनमत के बीच इस प्रश्न पर सहानुभूति प्रकट होती। पर यह कहना सही होगा कि इमरान खान ने यह अवसर खो दिया। इमरान खान कोई दक्ष राजनीतिज्ञ नही है, कोई दक्ष कूटनीतिकार नही है, इमरान खान मूलत’ क्रिकेटर हैं। कोई पक्के राजनीतिज्ञ ही इस मर्म को समझ सकता है। पाकिस्तान के लिए दुर्भाग्य यह है कि उनकी सत्ता पर विराजमान शख्त पक्के राजनीतिज्ञ और कूटनीतिकार नहीं हैं।
                    इमरान खान ने जिस पूरी मुस्लिम आबादी की जेहाद की बात की है वह भी एक प्रहसन है। पाकिस्तान के पक्ष में पूरी मुस्लिम आबादी उतर जायेगी, क्या यह संभव है? क्या पाकिस्तान को पूरी दुनिया की मुस्लिम समुदाय अपना खलीफा मानती है? पूरी मुस्लिम आबादी भी एक जुट कैसे होगी? मजहबी इस्लामिक देश में रहने वाली मुस्लिम आबादी एकजुट हो सकती है पर गैर मुस्लिम देश में रहने वाली मुस्लिम आबादी भी साथ जुड कर जेहाद क्यों और कैसे कर सकती है। राष्ट्रीयता का प्रश्न उठेगा? फिर भारत में रहने वाली मुस्लिम आबादी, अमेरिका में रहने वाली मुस्लिम आबादी या फिर यूरोप में रहने वाली मुस्लिम आबादी, जापान, कबोडिया जैसे बौद्ध देश में रहने वाली मुस्लिम आबादी की राष्ट्रीयता कौन सी होगी? क्या इनकी राष्ट्रीयता इस्लाम होगी? अगर इनकी राष्ट्रीयता इस्लाम होगी तो फिर ये संबंधित देश के नागरिक कैसे होंगे? इतना ही नहीं बल्कि ये मुस्लिम आबादी जिनकी राष्ट्रीयता इस्लाम होगी तो फिर संबंधित देश की नागरिक सुविधाओं का उपयोग मुस्लिम आबादी कैसे करेगी? क्या ऐसे हथकंडों से इनकी छवि खराब नहीं होगी, गैर मुस्लिम आबादी इनकी नागरिक सुविधाएं लुटने और इन्हें इस्लाम की राष्ट्रीयता के आधार पर इस्लामिक देशों में भेजने की मांग क्यो नहीं करेंगे? खास कर अमेरिका और यूरोप में मुसलमानो की राष्ट्रीयता पर प्रश्न खडा होता है, इस्लामिक राष्ट्रीयता पर राजनीति की लक्ष्मण रेखा भी खिची जाती है। कहा यह जाता है कि अमेरिकी, यूरोपीय या फिर जापानी जैसी राष्ट्रीयता से इन्हें दिक्तत है या फिर अस्वीकार है तो इन्हें इस्लामिक राष्ट्रीयता वाले देश मे ही चला जाना चाहिए। इसी प्रश्न पर अमेरिका में मुस्लिम और ईसाइयों के बीच लक्ष्मण रेखा खिची गयी है। खुद डोनाल्ड ट्रम्प कोई एक बार नहीं बल्कि कई बार कह चुके हैं कि इस्लामिक राष्ट्रीयता की बात करने वाले मुसलमानों को अमेरिकी कानून का पाठ पढाया जायेगा और उन्हें उनके मूल देश में भेज दिया जायेगा। अमेरिका में डोनल्ड ट्रम्प के शासन के दौरान इस प्रश्न पर बडी-बडी राजनीति, प्रशासनिक और सुरक्षात्मक कार्यवाहियां भी हुई है। डोनाल्ड ट्रम्प ने इसी दृष्टिकोण से कई देशों की मुस्लिम आबादी के अमेरिका में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा चुके हैं। मुस्लिम आबादी को वीजा देने मे अमेरिकी प्रशासन असहिष्णुता ही बरतता रहा है। यह सब इमरान खान जैसी सोच के दुष्परिणाम है।
                          अमेरिका की एक कूटनीतिज्ञ ने इमरान खान को आईना दिखाया है। अमेरिकी कूटनीतिज्ञ ने कहा है कि यह सब इमरान खान का एक स्वार्थ है। कश्मीर में मुसलमानों की चिंता तो उसे है पर चीन में मुसलमानों के उत्पीडन और संहार के प्रति इमरान खान की जबान क्यों नहीं खुलती है। चीन में कोई एक नहीं बल्कि कई लाख मुस्लिम चीनी जेलों या फिर चीनी यातना गृहों में कैद है। चीन के झिगजियाग प्रदेश मुस्लिम बहुल है। चीन के झिंगजियांग प्रदेश में अलग मुस्लिम राष्ट्र की मांग को लेकर जेहाद और आतंकवाद जारी है। मुस्लिम जेहाद और आतंकवाद को कुचलने के लिए चीन ने हिंसक और खौफनाक सैनिक नीति अपना रखी है। मजहबी कार्य से मनाही है। पर पाकिस्तान कभी भी चीने शिंगजियांग प्रदेश में रहने वाले मुस्लिम समुदाय के मानवाधिकार की बात नहीं करता है। इमरान खान भी चीन के खिलाफ बोलता नहीं है। इमरान खान की मुस्लिम कसौटी पर दोहरी नीति है और इमरान खान की इस दोहरी नीति से दुनिया कैसे अनभिज्ञ होगी।
                           दुनिया का समर्थन पाकिस्तान को क्यों नहीं मिल रहा है? मुस्लिम दुनिया का भी पूर्ण समर्थन पाकिस्तान के साथ नहीं है। सिर्फ मलेशिया और तुर्की जैसे एक्के-दुक्के देश ही पाकिस्तान की भाषा बोल रहे हैं। शेष मुस्लिम देश अपने-अपने हितों के साथ खडे हैं। दुनिया के सामने पाकिस्तान की कैसी छवि है, यह कौन नहीं जानता है? दुनिया के सामने पाकिस्तान की छवि एक आतंकवादी देश की है, दुनिया के सामने पाकिस्तान की छवि एक बर्बर इस्लामिक देश की है, दुनिया के सामने पाकिस्तान की छवि शांति के दुश्मन के रूप में है। सच यही है कि पाकिस्तान ने आतंकवाद और जेहाद का आउटसोर्सिंग कर दुनिया की शांति को हिंसा के रूप में तब्दील किया है, दुनिया की शांति में विष घोला है। पाकिस्तान के पोषित और प्रायोजित आतंकवाद और जेहाद से दुनिया में लाखों लोग मारे गये हैं।
                                       नये दौर का नया भारत है। नये दौर के नये भारत में पाकिस्तान का मुस्लिम हथकंडा कोई कारगर नहीं होगा। कश्मीर भारत का आतंरिक प्रश्न है। इमरान खान की मुस्लिम हथकंडे की चुनौती का प्रबंधन करने की शक्ति भारत के पास है। भारत ने कश्मीर के प्रशन का मुस्लिमकरण नहीं होने दिया, यह भारत का पराकर्म है। अब इमरान खान ही नहीं बल्कि पाकिस्तान जमात को भारत के पराकर्म को स्वीकार कर लेना चाहिए। इमरान खान ने दुनिया के मुसलमानों की एकता और जेहाद के जेहाद के लिए उकसा कर इस्लाम की ही छवि गिरायी है।


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Sunday, June 23, 2019

अंग्रेजी की गुलामी से कब मिलेगी आजादी ?

             
                      राष्ट्र-चिंतन
अंग्रेजी की गुलामी से कब मिलेगी आजादी  ?

            विष्णुगुप्त



त्रिभाषा फाॅर्मूले से केन्द्रीय सरकार पीछे हट गयी। कारण सर्वविदित है। दक्षिण के राज्यों में अति विरोध के स्वर सामने आये, कहीं तमिल तो कहीं कन्नड पर हिन्दी थोपने के आरोप लगे,आरोप लगाने वाले वही राजनीतिज्ञ थे, वही समूह थे जो अंग्रेजी की गुलामी मानसिकता के सहचर रहे हैं, अंग्रेजी की अनिवार्यता और सर्वश्रेष्ठता कायम करने के गुनाहगार रहे हैं, सिर्फ इतना ही नही बल्कि किसी न किसी प्रकार से तमिल और कन्नड जैसी अन्य भारतीय भाषाओं के विकास और अस्तित्व के भी दुश्मन रहे है। दुनिया में कई भाषाओं के फाॅर्मूले और सामंजस्य से राजकाज चलता है, शिक्षा प्रणाली संचालित होती है, न्याय व रोजगार दिया जाता है। संयुक्त राष्टसंघ कोई एक नहीं बल्कि छह भाषाओं में संचालित होता है, इसी तरह यूरोपीय यूनियन तीन भाषाओं में संचालित होती है, स्वीटजरलैंड में चार भाषाएं एक साथ राज करती है, कनाडा जैसे देश दो भाषाओं में संचालित होता है तो फिर भारत त्रिभाषा फाॅमूंले या फिर भारतीय भाषाओं में संचालित क्यों नहीं हो सकता है, जब तुर्की का आधुनिक निर्माता मोहम्मद कमाला पासा रातोरात अपनी संस्कृति निष्ट भाषा को लागू कर गुलामी की प्रतीक अरबी भाषा और अरबी मजहबी कट्टरपंथी संस्कृति से छुटकारा पा सकता है तो फिर भारत गुलामी की प्रतीक अंग्रेजी भाषा  से छुटकारा क्यों नहीं पा सकता है? पर भारतीय राजनीति में कभी भी संस्कृति निष्ट वीरता सामने आती नहीं फिर गुलामी की प्रतीक अंग्रेजी की मानसिकताएं कैसे समाप्त होंगी?
                                   हालांकि केन्द्रीय सरकार के त्रिभाषा फाॅर्मूले से भी अंग्रेजी की अनिवार्यता व सर्वश्रेष्ठता पर कोई आंच नहीं आने वाली थी, इस त्रिभाषा फाॅर्मूले में भी अंग्रेजी के सामने भारतीय भाषाओं की सर्वश्रेष्ठता-अनिवार्यता सुनिश्चित होने वाली नहीं थी। क्योंकि यह फाॅर्मूला अंग्रेजी मानसिकता को दूर करने के लिए नहीं थी। यह सही है कि इस फाॅर्मूले में सिर्फ हिन्दी ही नहीं बल्कि अन्य भारतीय भाषाओ के विकास व संरक्षण की बात जरूर थी। सबसे पहले तो यह जानना चाहिए कि त्रिभाषा फाॅर्मूले है क्या और इस फाॅर्मूले के विरोध करने वाले कौन हैं और विरोध करने वालों की कौन सी मानसिकताएं काम करती हैं? त्रिभाषा फाॅर्मूले के तहत स्कूली छात्रों को तीन भाषाओं में शिक्षा दी जानी चाहिए, इनमें हिन्दी, अंग्रेजी और एक आधुनिक भाषा। आधुनिक भारतीय भाषाओं में बांग्ला, तमिल, तेलूगू, कन्नड, असमिया, मराठी, पंजाबी आदि भाषाएं है। गैर हिन्दी भाषी राज्यों में मातृभाषा के साथ ही साथ हिन्दी और अंग्रेजी पढायी जाने की व्यवस्था थी। अगर गैर हिन्दी राज्यों में हिन्दी और हिन्दी राज्यों में बांग्ला, तमिल, तेलूगू, कन्नड, असमिया, मराठी और पंजाबी आदि भाषाएं बढती है तो इसमें बुराई क्या है, विरोध का औचित्य क्या है?
                                   शाजिशन अंग्रेजी की गुलामी मानसिकता देश के उपर थोपी गयी थी, अंग्रेजी की गुलामी मानसिकताएं थोपने वालों का तर्क था कि अंग्रेजी ही ज्ञान-विज्ञान की भाषा है, इसलिए इनकी अनिवार्यता और सर्वश्रेष्ठता सुनिश्चित होनी चाहिए। यह तर्क सिर्फ और सिर्फ झूठ पर आधारित था, यह तर्क सिर्फ और सिर्फ गुलामी मानसिकता की उपज थी, यह तर्क उन अंग्रेजी शासकों की साजिश थी जिन्होने देश छोडने के बाद भी अपने मोहरे छोड गये थे। लार्ड मैकेले की शिक्षा नीति भारतीयों को अंग्रेज बनाने की थी। आजादी के समय अंग्रेजी कितने लोगों की मातृभाषा थी? गिने-चुने लोगों की ही अंग्रेजी मातृभाषा थी। पर अंग्रेजी बोलने वाले नाम मात्र के लोग लार्ड मैकाले कि शिक्षा नीति और अंग्रेजों का न केवल पिछलग्गू थे बल्कि करोडों-करोड भारतीय पर शासन करते थे। आज भी अंग्रेजी नाम मात्र लोगों की ही भाषा है, वह भी राजकाज, शिक्षा और रोजगार और न्याय की भाषा होने के कारण। कुछ नाम मात्र लोगों की भाषा अंग्रेजी देश की भाषा बन पायी है। फिर भी देश के 125 करोड लोगों पर अंग्रेजी राज करती है। यह शर्म की बात मानी ही जानी चाहिए?
                               देश की भाषा संस्कृति निष्ट होती है। जो भाषा संस्कृति और संभ्यता को परिलक्षित करती है, प्रतिनिधित्व करती है, वही भाषा देश की भाषा बनती है। संस्कृत हमारी संस्कृति और सभ्यता निष्ट भाषा रही है। संस्कृत दुनिया की सबसे प्राचीन भाषा रही है, संस्कृत को देव की भाषा भी कही जाती है। संस्कृत को आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर सबसे सटीक भाषा माना गया है। जब संस्कृत हमारी प्राचीन और संस्कृति-सभ्यतानिष्ट भाषा रही है तो फिर देश की भाषा संस्कृत ही होनी चाहिए थी। पर संस्कृत के विकास और संरक्षण की जगह संस्कृत भाषा को ही समाप्त करने के लिए राजनीतिक अभियान चले हैं। आज तो संस्कृत की बात करना सांप्रदायिक मान लिया जाता है, जबकि अंग्रेजी और अन्य विखंडनयुक्त भाषाओं की बात करना प्रगतिशील माना जाता है।  दुर्भाग्य यह रहा कि आजादी मिलने के बावजूद भी देश की संस्कृति आधारित और मातृ आधारित भाषा की अनिवार्यता और सर्वश्रेष्ठता सुनिश्चत नहीं की गयी, इसकी जगह अंग्रेजी को राजकाज की भाषा बना दिया गया और भारतीय भाषाओं को मझदार में छोड दिया गया। जबकि हर देश में मातृभाषा ही सर्वश्रेष्ठ होती है, मातृभाषा ही राजकाज की भाषा होती है, मातृभाषा ही रोजगार की भाषा होती है। जब मातृभाषा राजकाज और रोजगार दायनी होगी तब मातृभाषा का विकास और उन्नति स्वयं होती है। दुनिया की भाषाएं इसके उदाहरण के तौर पर हमारे सामने हैं।
                             मातृभाषा का सबसे बडे पैरोकार महात्मा गांधी थे। अंग्रेजी शासन के दौरान कह दिया था कि ब्रिटेन के अंग्रेजी शासन को कह दो कि गांधी अंग्रेजी नहीं जानता। कौन नहीं जानता कि गांधी अंग्रेजी जानते थे, ब्रिटेन में गांधी ने अंग्रेजी माध्यम से लाॅ कि शिक्षा हासिल की थी, ब्रिटेन से दक्षिण अफ्रीका जाकर अंग्रेजी में ही रंगभेदी सरकार की नीव हिलायी थी। गांधी जी की मातृभाषा हिन्दी नहीं थी, गांधी जी की मातृभाषा गुजराती थी। अंग्रेज को हटाने के लिए अंग्रेजी आधारित आंदोलन की उम्मीद नहीं थी। अंग्रेजी को आधार बना कर अंग्रेजों की गुलामी मानसिकता से आजादी नहीं मिल सकती थी। इसीलिए गांधी जी ने हिन्दी को प्राथमिकता दी थी, सिर्फ प्राथमिकता ही नहीं बल्कि अपने काम काज की भाषा भी हिन्दी को चुना था। महत्वपूर्ण काम गांधी हिन्दी में ही किया करते थे। हिन्दी आजादी के आंदोलन के समय भी और आज भी देश की सबसे बडी भाषा है। सबसे बडी भाषा होने के कारण गाधी जी ने हिन्दी को देश की मातृभाषा मानने को कहा था।
                     देश की भाषा तय करते समय भी विखंडनवाद चला था। विखंडनवादी जिन्होंने देश के दो टूकडे किये थे, मजहबी आधार पर हिन्दी के विरोध में खडे हो गये थे। विखंडवाद और गुलामी की मानसिकताएं चरम पर पहुंच गयी थी। खासकर उर्दू और अंग्रेजी के पक्ष में विखंडनकारी और गुलामी पूर्ण दलीलें दी गयी थी।  अंग्रेजों के गुलामों का तर्क था कि  अंग्रेजी को देश के कामकाज की भाषा बनाने से हमारे संबंध यूरोप और अमेरिका से अच्छे होंगे, एक  विखंडनकारी व आतातायी समूह ने उर्दू को देश के कामकाज की भाषा बनाने का यह कह कर तर्क दिया था, कि इससे अरब देशों से संबंध मजबूत होगे। अपनी संस्कृति और सभ्यता की चिंता न कर गुलाम बना कर रखने वालों और मजहबी तौर कट्टरपंथियों के हित का पोषण किया गया था। जबकि ये दोनो तर्क के काट भी प्रस्तुत किया गया था, उस समय देश की बहुमत की राय थी कि अंग्रेजी और उर्दू को काम काज की भाषा बनाने से देश की संस्कृति और सभ्यता का अनादर होगा। नेहरू की जिद के समाने सब झूक गये। हिन्दी तो सैद्धांतिक भारत की भाषा मानी गयी पर अंग्रेजी ही शासकों और रोजगार , शिक्षा तथा न्याय की भाषा मान लिया गया।
                    भारतीय भाषा आंदोलन के एक प्रमुख नेता और अंग्रेजी की गुलामी से आजादी दिलाने के लिए संघर्षरत सेनानी देवसिंह रावत अंग्रेजी की गुलामी की साजिश पर तर्कपूर्ण बात करते हैं। उनका कहना है कि आजादी के समय में हिन्दी के खिलाफ दक्षिण के राज्यों में खासकर तमिलनाडु में जो विरोध प्रदर्शन हुए थे वे सभी प्रायोजित थे। प्रायोजित विरोध के गुनहगार भी वहीं आक्रांता थे जिन्होंने हमें गुलाम बनाया था। इतिहास के पन्ने जब आप उलटेंगे तो इसकी साजिशें भी समाने आती जायेगी। अंग्रेजों ने भारत का ईसाई करण करने की कोई कोशिश नहीं छोडी थी। खासकर दक्षिण भारत में चर्च शक्तिमान हुआ था। तमिलनाडु में हिन्दी के खिलाफ विरोध अभियान के पीछे भी चर्च की शक्ति काम कर रही थी। आज भी त्रिभाषा फाॅर्मूले का विरोध कराने वाले लोग खुद तमिल और कन्नड सहित अन्य भारतीय भाषाओं के विरोधी हैं और अंग्रेजी के गुलाम हैं।
                                     अंग्रेजी एक उपनिवेशिक और लूटेरी मानसिकता है। अंग्रेजी का विकास और विस्तार की कहानी भी उपनिवेशिक मानसिकता है। ब्रिटेन ने अपने गुलाम देशों में अपने शासन की सुगमता और गुलाम देशों की मातृभाषाओं का विध्वंस करने के लिए अंग्रेजी का विस्तार दिया था। यूरोप और अमेरिका छोडकर अधिकतर उसी देश में अंग्रेजी की खनक है जो देश भारत की तरह गुलाम रहे हैं। फ्रांस, जर्मनी, रूस, इटली, स्वीटजरलैंड, स्वीडन आदि दर्जनों देश हैं जहां पर अंग्रेजी का वर्चस्व नहीं है, ये देश अपनी ही मातृभाषा में संचालित होते हैं।  फिर ये देश क्या दुनिया में अपनी धाक कामय करने में पीछे हैं? अंग्रेजी अधिकतम ब्रिटेन और अमेरिका में ही आर्कर्षित करती है। भारत में भी अंग्रेजी का जो वर्चस्व है उसके पीछे शासन, न्याय, शिक्षा और रोजगार में अंग्रेजी की अनिवार्यता ही कारण है। अगर भारतीय भाषाओं में शासन, न्याय, रोजगार और शिक्षा की व्यवस्था हो जाये तो फिर अंग्रेजी का वर्चस्व रहेगा ही नहीं। जिस तरह तुर्की में मोहम्मद कमाल पासा ने गुलामी की प्रतीक अरबी भाषा की जगह तुर्की की संस्कृति और सभ्यता से जुडी भाषा का विकास कर लागू किया था उसी तरह भारत में भी विदेशी मानसिकता की प्रतीक अंग्रेजी को हटा कर भारतीय भाषाओं में देश का शासन, न्याय, रोजगार और शिक्षा दिया जाना चाहिए। अंग्रेजी की गुलामी के खिलाफ देश में जनज्वार की जरूरत है तभी हमें अंग्रेजी की गुलामी से आजादी मिलेगी।



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Tuesday, May 21, 2019

अमेरिका इराक की तरह ईरान का विध्वंस करेगा क्या ?




                       राष्ट्र-चिंतन

अमेरिका इराक की तरह ईरान का विध्वंस करेगा क्या ?
          
     
                            विष्णुगुप्त



अमेरिका-ईरान के बीच युद्धक तनातनी में भारत की भूमिका क्या होनी चाहिए? क्या ईरान का हाल भी इराक की तरह ही होगा? क्या जार्ज बुश की तरह डोनाल्ड ट्रम्प भी युद्धक मानसिकता पर सवार हैं? अगर अमेरिका और ईरान के बीच कोई युद्ध हुआ और युद्ध लंबा खिंचा तो फिर दुनिया की अर्थव्यवस्था कैसी होगी, क्या दुनिया की अर्थव्यवस्था गतिमान रहेगी या फिर दुनिया की अर्थव्यवस्था पर मंदी की छाया रहेगी? अमेरिका और ईरान के बीच युद्ध हुआ तो फिर चीन-रूस जैसी युद्धक शक्तियां निष्पक्ष बनी रहेंगी या फिर सीरिया की तरह ईरान का साथ देगी? क्या ईरान के पास ऐसी सामरिक शक्ति है जो अमेरिका की युद्धक मानसिकता और अमेरिका द्वारा थोपी जाने वाले युद्ध का सफलतापूर्वक साामना कर सके? अगर ईरान के पास युद्धक क्षमता नहीं है तो फिर ईरान भी इराक की श्रेणी में खडा हो सकता है क्या? ईरान अमेरिकी प्रतिबंधों से फिलहाल किस प्रकार की समस्याओं से धिरा हुआ है? जब भारत और अन्य दुनिया के देश ईरान से तेल खरीदना बंद कर देंगे तो फिर ईरान की आंतरिक अर्थव्यवस्था कैसे और किस प्रकार से गतिमान होगी? अगर ईरान की अर्थव्यवस्था पर मंदी छायी रही और तेल के खरीददार भाग खडे हुए तो फिर ईरान की जनता अपनी जरूरत के चीजों के लिए किस प्रकार से संधर्ष करेंगे? क्या ईरान ने अमेरिकी प्रतिबंधों से लडने की कोई चाकचैबंद योजनाएं बनायी हैं? क्या ईरान ने अमेरिकी युद्धक हमलों से बचाव और सामना करने के लिए कोई युद्धक योजनाएं बनायी हैं या नहीं? क्या अमेरिकी बहकावे में सउदी अरब का आना सही है? क्या सउदी अरब का ईरान के खिलाफ संभावित अमेरिकी युद्ध में कूदना अरब महादेश के लिए सही होगा या गलत? अगर सउदी अरब भी अमेरिका का पिछलग्गू बन कर युद्ध में कूदा तो फिर अरब देशों की मुस्लिम एकता टूटेगी या नहीं? क्या शिया-सुन्नी युद्ध की भी कोई आशंका दिख रही है? जानना यह जरूरी है कि ईरान एक शिया बहुलता और अस्मिता वाला देश है जबकि सउदी अरब सुन्नी बहुलता और सुन्नी अस्मिता वाला देश है। सउदी अरब और ईरान के बीच हमेशा युद्ध की आशंका बनी रहती है, अरब में अपनी सर्वश्रेष्ठता और वर्चस्व के लिए सउदी अरब और ईरान तलवारें भाजंते रहे हैं।
अमेरिका की अभी-अभी ताजी धमकी आयी है, अमेिरका ने सीधे तौर पर कहा है कि ईरान युद्ध लडा तो फिर ईरान का अंत हो जायेगा। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प उसी तरह की धमकी पिला रहे हैं जिस तरह की धमकी जार्ज बुश इराक को दिया करते थे। उल्लेखनीय है कि रसायनिक हथियारों के प्रोपगंडा के आधार पर जार्ज बुश जूनियर ने इराक पर हमला किया था। बाद में इराक में रसायनिक हथियारों की बात झूठी साबित हुई थी फिर भी जार्ज बुश जूनियर ने इराक में सदाम हुसैन के पतन को अपनी जीत बतायी थी। अभी-अभी जो अमरिका की ईरान विरोधी युद्धक मानसिकताएं सामने आयी है उससे पूरी दुनिया सकते हैं, पूरी दुनिया का जनमानस इसे पागलपन समझता है या फिर सनकी भरा ही नहीं बल्कि दुनिया की मानवता के लिए खतरनाक, हानिकारक समझता है। पर दुनिया के जनमानस का कद्र कभी अमरिका करता ही नहीं है। सबसे बडी बात यह है कि दुनिया के जनमानस या फिर दुनिया की जनभावना का सम्मान कोई भी वीटो धारी देश नहीं करते हैं। वीटोधारी देश हमेशा से दुनिया की जनभावना को कुचलते हैं, वीटोधारी देश दुनिया के गरीब देशों के हितों पर कैंची चलाते हैं, दुनिया के वीटोधारी देश दुनिया के गरीब देशों के प्राकृतिक संसााधनों पर बलपूर्वक कब्जा करते हैं। कभी चीन ने संयुक्त राष्ट्रसंध के चार्टर की धज्जियां उडाते हुए भारत पर हमला किया था, अमेरिका का हाथ सीरिया, वियतनाम और इराक सहित अन्य देशों के खून से रंगे हुए हैं, कभी सोवियत संघ ने भी अफगानिस्तान पर कब्जा कर संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर का विध्वंस किया था। जानना यह भी जरूरी है कि अमेरिका, चीन, ब्रिटेन, फंास और रूस के पास वीटो का अधिकार है और ये पांचों देश सुरक्षा परिषद के सदस्य हैं। अनिवार्य तौर पर वीटो देशों की इच्छाएं संयुक्त राष्ट्र में सिर चढ कर बोलती हैं और गरीब और अविकसित देशों की इच्छाएं और हित संयुक्त राष्ट्रसंध में बेमौत मरती रही हैं।
अमेरिका और ईरान के बीच ताजा विवाद क्या है और अमेरिका ईरान से क्या चाहता है, किस प्रकार की इच्छाओं को लेकर अमेरिका आग बबूला है? क्या कोई पुरानी मानसिकताएं भी उकसा रही हैं, क्या कोई पुरानी ग्रथियां भी अमेरिका और ईरान के बीच झगडे का कारण रही हैं? जबसे ईरान में इस्लामिक क्रांति हुई है तब से अमेरिका और ईरान के बीच में संबध कटूतापूर्ण रहे हैं, ईरान की इस्लामिक क्रांति को अमेरिका कभी-भी पचा नहीं सका। इस्लामिक क्रांति के पूर्व ईरान की राजतांत्रिक व्यवस्था से अमेरिका के संबध बहुत अच्छे थे और ईरान भी प्रगति के रास्ते पर था, ईरान में सामाजिक खुला पन दुनिया में चर्चित था। इस्लामिक क्रांति से इस्लामिक रूढियों को विस्तार हुआ और इस्लामिक रूढियों ने अन्य धर्मा और पंथों पर खूनी और दंगाई समस्याएं थोपी थी। अमेरिका अपने आप को दुनिया के धार्मिक अधिकारों का रखवाला समझता है, अपने आप को अमेरिका दुनिया के मानवता का रखवाला समझता है। ऐसे में इस्लामिक ईरान और अमेरिका के बीच कैसे मधुर सबंध विकसित हो सकते थे? सटनेश वर्शेज के लेखक सलमान रूशदी की हत्या के लिए जारी ईरान का फतवा भी अमेरिका के ईरान विरोधी होने का कारण रहा है। 
तत्कालीक कारण ईरान का अंतर्राष्ट्रीय परमाणु समझौते से हटना है। ईरान ने 2015 के अंतर्राष्ट्रीय परमाणु समझौते की प्रतिबंद्धताओं से हटने की घोषणा की थी। 2015 में ईरान और अमेरिका के नेतृत्व में अंतर्राष्ट्रीय परमाणु समझौता हुआ था। इस अंतर्राष्ट्रीय समझौते में अमेरिका के साथ ब्रिटेन और फ्रांस भी थे। ईरान के साथ यह परमाणु समझौता बराक ओबामा की देन थी। इस समझौते के तहत ईरान को अपने परमाणु कार्यक्रम में पारदर्शिता लाने की प्रतिबद्धता थी, ईरान के परमाणु धरों और ईरान के सभी प्रकार की परमाणु योजनाओं का निरिक्षण करने का अधिकार अमेरिका और समझौते में शामिल देशों के पास था। अमेरिकी कूटनीति यह आरेाप लगाती रही थी कि ईरान ने अपनी प्रतिबद्धता का पालन नहीं किया और परमाणु हथियार विकसित कर रहा है। डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने चुनाव के दौरान ईरान के साथ परमाणु समझौता से हटने का वायदा किया था। डोनाल्ड ट्रम्प राष्ट्रपति बनने के बाद ईरान के साथ परमाणु समझौते से हटने की घोषणा कर डाली थी। ईरान के साथ परमाणु समझौते पर ब्रिटेन और फ्रांस भी हस्ताक्षर किये थे। ब्रिटेन और फ्रांस ईरान के साथ परमाणु समझौते से हटने के खिलाफ थे। पर डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने मित्र देश ब्रिटेन और फ्रांस की भी परवाह नहीं की थी। डोनाल्ड ट्रम्प का तब कहना था कि उसे सिर्फ अपने देश के हित चाहिए। अमेरिका ने ईरान के आस-पास अपने घातक हथियार तैनात कर दिये हैं। अमेरिका का कहना है कि अगर उसके प्रतिबंधों का तोडा गया और नजरअंदात किया गया तो फिर उसके हथियार जवाब देंगे।
इधर सउदी अरब भी ईरान के खिलाफ कूद चुका है। सउदी अरब का कहना है कि वह ईरान के खिलाफ कोई भी युद्ध लडने के लिए तैयार है। अरब क्षेत्र में चल रहे आतंकवाद की कई लडाइयों को लेकर सउदी अरब और ईरान के बीच तलवारें खिंची हुई हैं। सउदी अरब अमेरिका का विश्वसीनय साझीदार है। अमेरिका स्वयं युद्ध करेगा या नहीं, इस पर संदेह है। पर सउदी अरब को अमेरिका ईरान के खिलाफ खडा कर सकता है। जहां तक भारत का प्रश्न है तो भारत के सामने कुएं और खाई की स्थिति उत्पन्न है। भारत को अभी तय करना है कि उसे ईरान से तेल खरीदना है या नहीं। अगर भारत ईरान से तेल खरीदना जारी रखा तो फिर अमेरिका से नाराजगी मोल लेनी होगी। भारत के लिए सउदी अरब ही नहीं बल्कि ईरान भी अच्छे दोस्त हैं और आर्थिक संबंध भी दोनों देशों के बीच है। भारत को ईरान और अमेरिका के बीच तनातनी को कम करने की भूमिका निभानी चाहिए। ईरान को भी फिर से परमाणु कार्यक्रमों पर विचार करना चाहिए। ईरान को परमाणु मिसाइलों और अन्य परमाणु हथियारों का उन्नयन बंद कर देना चाहिए। अगर ईरान ने समझदारी नहीं दिखायी तो फिर उसे विध्वंस का सामना करना पडेगा। अमेरिका इराक की तरह ईरान को बर्बाद कर देगा। पर प्रश्न यह है कि क्या ईरान भी समझदारी दिखाने के लिए तैयार है।


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Saturday, May 18, 2019

कांग्रेस का किसान प्रेम एक छलावा था






                       राष्ट्र-चिंतन
कांग्रेस का किसान प्रेम एक छलावा था
किसानों की नाराजगी कांग्रेस के लिए पडे़गी भारी

            विष्णुगुप्त

मध्य प्रदेश के किसान अब अपने आप को छले- ठगे महसूस कर रहे हैं, यह मान रहें हैं, कि उनके साथ वायदा खिलाफी हुई है, वोट लेकर अब कर्ज माफी योजना पर पैंतरेबाजी हो रही है। मध्य प्रदेश के किसानों को छलने वाली, ठगने वाली राजनीतिक पार्टी कौन है? मध्य प्रदेश के किसानों को छलने वाले और ठगने वाले नेता कौन-कौन हैं? जाहिर तौर पर कांग्रेस मध्य प्रदेश के किसानों को छली है, ठगी है, राहुल गांधी, दिग्विजय सिंह, कमलनाथ ने मध्य प्रदेश के किसानों के साथ वायदा खिलाफी की है। क्या यह नहीं मान लिया जाना चाहिए कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस का किसान प्रेम सिर्फ एक छलावा था, किसानों को मूर्ख बनाने का हथकंडा था? राजनीतिक पार्टियां तो किसानों को बार-बार ठगती ही हैं।
            अब हम यहां यह देखे कि कांग्रेस ने मध्य प्रदेश के किसानों के साथ कैसे-कैसे वायदे किये थे, कितने दिनों के अंदर पूर्ण कर्ज माफी योजना को सफल बनाने की हुंकार भरी गयी थी, खासकर कांग्रेस के राष्टीय अध्यक्ष राहुल गांधी और वर्तमान में मध्य प्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री कमलनाथ के वायदे और बोल क्या थे। राहुल गांधी के वायदे और बोल को पहले देख लीजिये। राहुल गांधी ने मध्य प्रदेश में किसानों के बीच जाकर कहे थे कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और शिवराज सिंह चैहान झूठे हैं, किसान विरोधी हैं, मोदी और शिवराज के राज में किसानों का भला नहीं होने वाला है, इसलिए देश से मोदी और मध्य प्रदेश से शिवराज सिंह चैहान की सरकार की विदाई होनी चाहिए, राहुल गांधी ने कांग्रेस को किसानों की हितैषी बताया था और कहा था कि अगर मध्य प्रदेश मे कांग्रेस की सरकार आयी तो फिर किसानों को आत्महत्याएं करने के लिए बाध्य नहीं होना पडेगा, सिर्फ दस दिन के अंदर किसानों का पूर्ण कर्ज माफ किया जायेगा, अगर कांग्रेस के मुख्य मंत्री किसानों के कर्ज दस दिनों में माफ नहीं किये तो फिर दंड स्वरूप मुख्यमंत्री को बदल दिया जायेगा। कांग्रेस के मध्य प्रदेश के अध्यक्ष के रूप में कमलनाथ ने सभी प्रकार के कर्ज तुरंत माफ करने का वायदा किया था। 
किसानों को मूर्ख बना कर कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में चुनाव जीत लिया, पर क्या राहुल गांधी और कमलनाथ को अपने अपने वायदे याद हैं, यह एक यक्ष प्रश्न हैं, क्या राहुल गांधी ने अपने वायदे के अनुसार किसानों के कर्ज 10 दिन के अंदर माफ नहीं करने पर अपने मुख्यमंत्री कमलनाथ को हटा पाये? प्रमाणित तौर पर राहुल गांधी और कमलनाथ को अपने वायदे अब मालूम नहीं है, किसानों के लिए राहुल गांधी और कमलनाथ झूठे साबित हुए हैं, ठग साबित हुए हैं। किसानों की कर्ज माफी योजना पर अब पैंतरेबाजी हो रही है, यह कहना गलत नहीं होगा कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस किसानों के साथ अन्याय पर उतर आयी है तो फिर कोई गलत बात नहीं होगी। अब यहां यह प्रश्न भी है कि किसानों की कर्ज माफी योजना को लागू करने में कांग्रेस किस प्रकार की पैंतरेबाजी कर रही है, किसानों के खिलाफ कांग्रेस किस प्रकार के खेल खेल रही है। अब कांग्रेस की मध्य प्रदेश की सरकार किसानों की कर्ज माफी के लिए वर्गीकरण पर वर्गीगरण कर रही है, कह रही है कि टैक्टर और टाॅली पर कर्ज लेने वाले किसानों का कर्ज माफी नहीं होगा। कर्जमाफी योजना को सीमा में बांध चुकी है। कमलनाथ सरकार अब कहती है कि सिर्फ 31 मार्च 2018 के पहले के कर्ज ही माफी योजना के अंतगर्त आयेंगे। कमलनाथ सरकार के इस सीमा वर्गीकरण का शिकार बडी संख्या में किसान होंगे और किसानों के एक बडे वर्ग की समस्याएं जरूर बढेंगी। सिफ्र इतना ही नहीं बल्कि कर्ज माफी योजना में छल भी बहुत हो रहा है। बहुत सारे किसानों के हजार-दो हजार रूपये ही माफ हुए हैं। जबकि कांग्रेस का वायदा था कि दो लाख तक के कर्ज में डूबे सभी किसानों के कर्ज माफ कर दिये जायेंगे। अब कांग्रेस यह बताने के लिए तैयार नहीं है कि दो लाख की सीमा को वह क्यों नहीं स्वीकार कर रही है?
सबसे बडी बात यह है कि कांग्रेस कर्जमाफी योजना पर गलत आंकडे प्रस्तुत कर रही है, बैंक की रिपोर्ट और सरकार की घोषणा में कोई समानता नहीं है। जब तक कमलनाथ सरकारी बैंकों को कर्ज माफी का पैसा नहीं देगी तब तक बैंक कर्ज माफी योजना को कैसे स्वीकार कर सकते हैं। मध्य प्रदेश का खजाना खाली है, मध्य प्रदेश सरकार के  किसानों के कर्ज माफ करने के लिए पैसे जुटाने के अन्य स्रोत भी अभी तक सामने नहीं आये हैं। केन्द्रीय चुनाव कांग्रेस के लिए एक हथकंडा बन गया। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि कांग्रेस ने केन्द्रीय चुनाव को एक हथकंडा के तौर पर अपना लिया। कांग्रेस की सरकार कहती है कि चुनाव अचार संहिता लग जाने के कारण उनके हाथ बंधे हुए हैं, चुनाव आयेग ने हाथ बांध रखे हैं। पर चुनाव अचार संहिता लगने से पहले भी काफी समय था। अगर मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार ईमानदार होती और किसानों की पीडा से जुडी होती तो फिर मध्य प्रदेश की सरकार केन्द्रीय चुनाव अचार संहिता लगने से पहले ही किसानों की कर्ज माफी कर सकती थी, पूर्ण कर्ज माफी का सर्टिफिकेट किसानों को सौंप सकती थी। निश्चित तौर पर मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार ऐसा नहीं कर सकी। मध्य प्रदेश सरकार स्वयं दोषी रही है, सरकारी खजाना खाली होने के कारण लाचार भी रही है पर दोष केन्द्रीय चुनाव अचार संहिता को देती है।
मध्य प्रदेश ही क्यों बल्कि पूरे देश के किसान बार-बार ठगे जाते हैं, चुनाव के समय किसान प्रेम उमडता है, किसानों की राजनीतिक शक्ति सभी को चाहिए, जब किसानों की राजनीतिक शक्ति राजनीतिक पार्टियों को चाहिए तो फिर किसानों को ठगने के लिए झूठी वायदे भी किये जाते हैं, ऐसे-ऐसे वायदे भी किये जाते हैं, जिनकी पूर्ति संभव ही नहीं हो सकती है। किसान भी बार-बार झूठे वायदों में फंस जाते हैं, बहकावे में आ जाते हैं। किसान यह नहीं सोचते हैं कि जिस राजनीतिक पार्टी ने वायदे किये हैं, वह अपने वायदे किस प्रकार से पूरे कर सकती है। मध्य प्रदेश के किसानों ने पिछली शिवराज सिंह सरकार के समय बडे-बडे आंदोलन किये थे, बडी-बडी सभाएं की थी। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि किसान अपने उत्पाद को सरेआम सडको पर फेका था, दूध भी सडकों पर फेका था। दूध, सब्जियां सडकों पर फेकने पर शिवराज सिंह चैहान सरकार की बदनामी बडी हुई थी। सिर्फ मध्य प्रदेश मे ही नहीं बल्कि पूरे देश में यह संदेश गया था कि सही में मध्य प्रदेश के किसानों की समस्याएं जटिल है, मध्य प्रदेश के किसान भूखमरी के शिकार है, मघ्य प्रदेश की शिवराज सिंह चैहान सरकार  सही में किसान विरोधी है। जबकि सच्चाई यह थी कि किसानों के वेश में कांग्रेसी कार्यकर्ता आंदोलन कर रहे थे। कांग्रेसी कार्यकर्ता मार्केट से सब्जियां और दूध आदि खरीद कर सडकों पर फेंक रहे थे। किसानों के उपर जो गोलियां चली थी, किसानों के उपर जो पुलिस की लाठियां बरसी थी वह भी कांग्रेसी कार्यकर्ताओ के हथकंडे के कारण चली थी। कांग्रेसी कार्यकर्ताओ ने किसानों के वेश में आकर किसान आंदेालन में पेट्रोल डालने का कार्य किये थे। हिंसा करने और कानून तोडने के लिए कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने किसानों को उकसाये थे। 
          मध्य प्रदेश के किसानों में कांग्रेस के प्रति गुस्सा भी कम नहीं है। इस केन्द्रीय चुनाव में किसान कांग्रेसी नेताओं को आईना दिखा रहे हैं, पूर्ण कर्ज माफ नहीं करने पर प्रश्न कर रहे हैं। अब किसानों की नाराजगी कांग्रेस के लिए भारी पडने वाली है। मध्य प्रदेश में किसानों की नाराजगी के कारण कांग्रेस को केन्द्रीय चुनाव वैसी सफलता नहीं मिलेगी जैसी सफलता की उम्मीद राहुल गांधी और कमलनाथ ने पाल रखी है।


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Tuesday, May 14, 2019

आज के पत्रकार शिखंडी बन गए हैं

आज के पत्रकार शिखंडी बन गए हैं
जावेद अख्तर की मजहबी बातो पर तालियां बजा रहे थे
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भोपाल मे जावेद अख्तर के प्रेस कॉन्फ्रेंस में पत्रकारों की भूमिका देखकर मै ढंग था, पत्रकार शिखण्डी बन गए थे, इस्लाम से ग्रसित बातो पर भी जमकर तालियां बजा रहे थे, घूँघट को बुर्का से जोड़कर देखने और एक तरह से बुर्का का समर्थन करने पर भी पत्रकार समर्थन कर रहे थे। बहुत सारे पत्रकार तो कांग्रेस के वर्कर की भूमिका मे थे। जब जब जावेद अख्तर प्रज्ञा ठाकुर की खिल्ली उडाता था तब तब पत्रकार अशोभनीय कॉमेंट करते थे। प्रज्ञा ठाकुर के श्राप वाली बात पर पत्रकार कह रहे थे कि प्रज्ञा ठाकुर पाकिस्तान के आतंकवादियो को श्राप इसलिये नही देना चाहती क़ि वह एलओसी पास नही करना चाहती। प्रज्ञा ठाकुर का जमकर उपहास भी उडा रहे थे। लगता था क़ि प्रेस कांफ्रेंस कि स्क्रिप्ट पहले से ही लीखी गयी थी, पत्रकार जावेद अख्तर को असहज, परेशानी मे डालने वाले या फिर आईना दिखाने वाले प्रश्न नही कर रहे थे। बहुत सारे पत्रकारों की आस्था बदली हुई दिखी, भाजपा की सत्ता जाते ही लाभ लेने वाले पत्रकार कांग्रेसी हो गए। जावेद अख्तर का प्रेस कॉन्फ्रेंस दिग्विजय सिंह द्वारा प्रायोजित था। जावेद अख्तर दिग्विजय सिंह को जीताने के अभियान पर ही भोपाल आया था।



  विष्णुगुप्त
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पर ‘ जसोदा बेन ‘ तो गर्व की देवी हैं



          राष्ट्र-चिंतन
पर ‘ जसोदा बेन ‘ तो गर्व की देवी हैं

जसोदा बेन तो प्रेरणा के स्रोत हैं, वह तो गर्व की देवी हैं, लोभ, लालच से परे, लोकप्रियता भी उन्हें नहीं चाहिए, अपने परिवार को भी नियंत्रण में रखी हैं, इसीलिए विपक्ष असफल है

      
            
                विष्णुगुप्त



चुनावी अभियान में भाषा की मर्यादा छिन्न-भिन्न हुई है, नैतिकता और सभ्यता का घोर अभाव है, यह लगता नहीं है कि सभ्य या नैतिक लोग जय-पराजय की चुनावी लडाई लड रहे हैं, सिर्फ यही लगता है कि पशुतापूर्ण लडाई चल रही है, यह कहना भी गलत नहीं होगा कि चुनावी राजनीति में पशुता से भी आगे बढ गये हैं। कोई चैकीदार चोर कह रहा है तो कोई मरे हुए व्यक्ति को चुनावी अभियान में लाभ लेने की कोशिश कर रहा है, कोई प्रधानमंत्री को प्रधानमंत्री नहीं मानने की बात कह रहा है, कोई प्रधान मंत्री को चाटा मारने की बात कर रहा है, कोई 1984 के सिख दंगे को जस्टीफाई करने के लिए कह रहा है कि हुआ सो हुआ, कोई चुनाव के बाद अपने विरोधियों को जेल भेजने की बात कर रहा है, कोई कह रहा है कि जो पूरा परिवार जमानत है पर उसे भ्रष्टचार-कदाचार पर बोलने का अधिकार नहीं है। उर्पयुक्त सभी अनावश्यक और अमान्य बातें सिद्ध करती है कि आज की हमारी राजनीति कितनी असभ्य और कितनी भयानक हो गयी है, हथकंडों और असभ्य भाषा के प्रयोग कर अपने लिए सत्ता अर्जित का खेल खेला जा राह है।
                             लेकिन इस चुनाव में और  भी उल्लेखनीय बातें हैं जिस पर नजर होनी चाहिए, जिस पर विमर्श होना चाहिए और यह भी देखा जाना चाहिए कि वे बातें विपक्ष के लिए यानी नरेन्द्र मोदी के विरोधियों के लिए शक्ति क्यों नहीं बन पाती है, हथकंडा क्यों नहीं बन पाती है, उस बात पर मोदी को घेरने के लिए राजनीतिक सफलता क्यों नहीं मिल पाती हैं। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि वह बात कौन सी है और उस बात से नरेन्द्र मोदी और नरेन्द्र मोदी के विरोधियों के बीच किस प्रकार से शह-मात का खेल जारी रहता है? यह बात नरेन्द्र मोदी की पत्नी जसोदा बेन से जुडी हुई है। अभी-अभी कि चुनावी राजनीति की ही बात नहीं है बल्कि बात अभी-अभी से भी पुरानी बात है, बात तो तब शुरू हुई थी जब नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्य मंत्री बने थे। जब नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे तब उनके विरोधियों ने जसोदा बेन को लेकर राजनीतिक हमले करते रहे थे, जासोदा बेन को राजनीतिक मोहरा बनाने की कोशिश करते रहे थे। पर इसमें नरेन्द्र मोदी के विरोधियों को कोई सफलता नहीं मिली थी, सबसे बडी विशेषता की बात यह थी कि खुद जसोदा बेन मोहरा या फिर राजनीतिक हथकंडा बनने के लिए तैयार नहीं हुई थी। जब नरेन्द्र मोदी 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री के उम्मीदवार घोषित किये गये थे तब भी जसोदा बेन का प्रशंग उछाला गया था, खासकर कांग्रेस के नेता रेनुका चैधरी ने कहा था कि जो अपनी पत्नी को न्याय नहीं दे सका वह व्यक्ति प्रधानमंत्री के रूप में देश के साथ न्याय कर सकता है क्या? कई अन्य विरोधी नेताओं के भी इससे भी बढ कर आलोचनाएं थी। फिर भी जनता के उपर कोई प्रभव नहीं पड सका और नरेन्द्र मोदी बहुमत के साथ सत्ता में आये और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे।
                    अभी-अभी के चुनावी वातावरण में जसोदा बेन को लेकर किस प्रकार के चुनावी राजनीति हो रही है, जसोदा बेन को लेकर किस प्रकार की आलोचनाएं जारी हैं, उसके कुछ उदाहरण यहां प्रस्तुत है। मायावती कहती है कि नरेन्द्र मोदी ने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए पत्नी जसोदा बेन को छोड दिया, दूसरों की मां-बहन और बेटियों की पीडा और इज्जत को ये कैसे समझ पायेंगे, ये खुद अपनी पत्नी की पीडा को समझ नहीं सके, सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि मायावती ने वोटरों से जसोदा बेन की कसौटी पर मोदी के पक्ष में मतदान नहीं करने की अपील तक कर डाली। विपक्षी एकता के सूत्रधार बनने की राह पर चलने वाले चन्द्रबाबू नायडू का जसौदा बेन की कसौटी पर राजनीतिक हमले को देख लीजिये। चन्द्रबाबू नायडू ने कहा कि आप अपनी पत्नी से अलग रहते हैं, क्या परिवार के मूल्यों के प्रति आपने मन में कोई जगह भी है, नरेन्द्र मोदी का न तो कोई परिवार है और न ही कोई बेटा। अखिलेश यादव ने नरेन्द्र मोदी को पत्नी छोड़वा तक कह डाला था। चारा घोटाले में जेल की सजा काट रहे लालू का बेटा तेजस्वी यादव ने भी जसोदा बेन को लेकर काफी तीखी और अस्वीकार बाते की हैं।
                           जसोदा बेन से जुडे हुए उर्पयुक्त तथ्य क्या कहते हैं, इसके पीछे का असली मकसद क्या है, चुरावी राजनीति मंशा क्या रही है? जहां तक राजनीतिक मंशा की बात है तो यह अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि जसोटा बेन को कसौटी बना कर नरेन्द्र मोदी की छवि को खराब करना, नरेन्द्र मोदी को परिवार के मूल्यों के विरूद्ध खडा करना, जब नरेन्द्र मोदी को परिवार के मूल्यों के खिलाफ खडा कर दिया जायेगा तब जनता के बीच छवि कैसे और क्यों नहीं खराब होगी, जब जनता के बीच छवि खराब होगी तब फिर जनता खिलाफ में वोट जरूर करेगी। अभी-अभी हम यह नहीं कह सकते हैं कि नरेन्द्र मोदी विरोधी राजनीतिक नेताओं की यह सिर्फ और सिर्फ खुशफहमी ही है। यह सही है कि गुजरात में 12 सालों तक यह कसौटी कोई नकरात्मक भूमिका नहीं निभा पायी थी, 2014 के लोकसभा चुनाव में भी इस कसौटी पर राजनीतिक गर्मी कोई भूमिका नहीं निभा पायी थी। हो सकता है कि इस लोकसभा चुनाव में यह कसौटी कोई नकारात्मक भूमिका निभायेगी? नरेन्द्र मोदी विरोधियों को ऐसी ही उम्मीद है। राजनीति में प्रत्येक कसौटी पर उम्मीद जागती है, विपक्ष की उम्मीद पर उंगली नहीं उठायी जानी चाहिए।
                    अब यहां यह भी प्रश्न है कि जसौदा बेन विपक्ष के मोहरे या फिर हथकंडे बनने के लिए तैयार क्यों नहीं होती है? नरेन्द्र मोदी विरोधी राजनीति दलों ने अपनी कोशिश कर देख चुके हैं, जसोदा बेन को नरेन्द्र मोदी के खिलाफ खडा करने की सारे हथकंडे अपना चुके हैं, लोभ-लालच का भी पाशा फेका गया। सिर्फ नरेन्द्र मोदी विरोधी राजनीतिक पार्टियों की ही बात नहीं है बल्कि मीडिया भी अपने प्रयास कर देख लिया है। मीडिया कोई एक दो साल नहीं बल्कि गुजरात में नरेन्द्र मोदी के 12 सालों के कार्यकाल के दौरान और नरेन्द्र मोदी के केन्द्रीय सत्ता के पांच साल यानी कुल 17 सालों तक प्रयास कर चुका है, जसोदा बेन का मुंह खुलवाने के हर संभव कोशिश कर चुका है। राजनीतिक नेताओं , राजनीतिक दलों की तरह ही मीडिया को भी नकामी मिली है। मीडिया आज तक जसौदा बेन का पूर्ण साक्षात्कार तक नहीं ले सका। मीडिया की यह नकामी बहुत बडी है।
            जसोदा बेन की पीडा को समझा जाना चाहिए, जसौदा बेन की पीडा को अस्वीकार नहीं की जा सकती है। जसौदा बेन और नरेन्द्र मोदी के बीच प्रारंभिक दौर में अलगाव के असली कारण भी अभी तक सामने नहीं आये हैं। सिर्फ और सिर्फ नरेन्द्र मोदी के अध्यात्मिक यात्रा ही सामने आयी है। शादी के प्रारभिक दैर में नरेन्द्र मोदी के अंदर अध्यात्मिक यात्रा जागृत हुई थी। स्पष्ट यह है कि नरेन्द्र मोदी करीब पांच साल तक हिमालय की गुफा और अन्य जगहों पर अध्यात्मिक शक्ति की खोज में लिन थे। उसके बाद नरेन्द्र मोदी संघ के जीवनदानी बने थे। अघ्यात्मिक यात्रा और संघ के जीवनदानी होने को ही जसोदा बेन और नरेन्द्र मोदी के बीच संबंध विच्छेद का कारण माना जा रहा है।
              निसंदेह तौर पर जसोदा बेन की दृढ इच्छा का सम्मान किया जाना चाहिए, निसंदेह तौर पर जसोदा बेन को लोभ-लालच से उपर स्वीकार किया जाना चाहिए, सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि जसोदा बेन को एक मिसाल और प्रेरणा के तौर पर देखा जाना चाहिए। अभी भी कानूनी तौर जसोदा बेन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पत्नी हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पत्नी के तौर पर जसोदा बेन का जीवन एक प्रेरणा से कम नहीं है। उनके अंदर कोई कुइच्दाएं नहीं हैं, उन्होंने सरकारी सुविधाएं भी नहीं ली है, अंहकार भी उनके अंदर नहीं है, लाभ और लोकप्रियता पाने की इच्छाओं से भी ये मुक्त हैं। अपने मायके के परिजनों को भी जसोदा बेन नियंत्रित कर रखी है, उनका परिवार भी कोई ऐसा कार्य अब तक नहीं किये हैं जिससे नरेन्द्र मोदी की छवि खराब हो सके। आज राजनीति में छवि खराब होने और कई आरोपों का समाना करने की कसौटी पर परिवार बन जाता है। भारतीय राजनीति में ऐसे हजारों उदाहरण सामने हैं। शायद नियति को वह अपना भाग्य मानती हैं। इसीलिए जसोदा बेन विपक्ष का मोहरा और हथकंडा बनने के लिए तैयार नहीं हैं।

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Wednesday, May 8, 2019

आत्मघाती है दिग्विजय सिंह की मुस्लिम परस्त चुनावी राजनीति

 
         राष्ट्र चिंतन
आत्मघाती है दिग्विजय सिंह की मुस्लिम परस्त चुनावी राजनीति
        


           विष्णुगुप्त

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह के कैसे और क्यों चुनावी रास्ते कठिन होते जा रहे है,  दिग्विजय सिंह खुद अपना ही आत्मघात कर रहे हैं, दिग्विजय सिंह जाने-अनजाने में ऐसी चुनावी भूलें कर रहे हैं जिसके दुष्परिणाम हार के रूप में सामने आ सकते हैं, अपने पक्ष में भस्मासुरों को चुनावी अभियान में क्यों शामिल कर लिया, यह प्रश्न भोपाल के मतदाताओं के बीच गूंज रहा है। चुनावी सफलता दिलाने के अभियान से जुडे कुछ भस्मासुरों के विचार और बयान यहां प्रस्तुत है।
  रामायण और महाभारत हिंसक ग्रंथ हैं... सीताराम यचुरी
   हिन्दुत्व बहुत ही खतरनाक और घृणास्पद शब्द है... स्वामी अग्निवेश
   घूंघट पर भी प्रतिबंध लगना चाहिए, .. जावेद अख्तर
    देश में हिंदू आतंकवाद है, प्रज्ञा ठाकुर के जीतने से हिन्दू आतंकवाद मजबूत होगा... स्वरा भास्कर
         ये चार उन भस्मासुर नेताओं और भस्मासुर शख्सियतों के बयान हैं जो दिग्विजय सिंह को चुनावी जीत दिलाने के लिए भोपाल में सभा और रोड शो कर चुके हैं। दिग्विजस सिंह ने अपनी जीत पक्की करने के लिए और अपने पक्ष में जनता के बीच हवा बनाने के लिए इन चारों भस्मासुर नेताओं और  भस्मासुर  शख्सियतों को भोपाल आमंत्रित किये थे। कई अन्य चर्चित नेता और शख्सियतें भी दिग्विजय सिंह को चुनावी जीत दिलाने के लिए भोपाल में सभा और रोड शो कर चुके हैं।
        अब यहां यह प्रश्न खडा होता है कि इन चारों भस्मासुर नेताओं और भस्मासुर शख्सियतों की सभा से दिग्विजय सिंह को चुनावी लाभ हुआ है या फिर चुनावी हानि हुई है, कमजोर आंकी जाने वाली प्रज्ञा ठाकुर मजबूत हुई है? अगर इन प्रश्नों का उत्तर आप खोजेंगे तो यह समझेंगे कि दिग्विजय सिंह ने भारी चुनावी चूक की है, उनकी चुनावी चूक भारी पडने वाली है, दिग्विजय सिंह के चुनावी रास्ते बहुत ही कठिन हो गये हैं। सर्व प्रथम यह स्वीकार तथ्य है कि ये चारों भस्मासुर नेता और भस्मासुर शख्सियतों का परिचय हिन्दू विरोधी का है, हिन्दुओं को अपमानित करने के इन नेताओं  और शख्सियतों ने कोई कसर नहीं छोडी है। स्वामी अग्निवेश को हिन्दू विरोधी अभियान के कारण एक नहीं बल्कि दो बार पिटाई भी हो चुकी है, स्वामी अग्निवेश जहां भी जाते हैं, उन्हें वहां पर भारी सुरक्षा में रहने के लिए मजबूर होना पडता है, क्योंकि हिन्दू समर्थक उनके पीछे पडे रहते हैं। सीताराम येचुरी ही नहीं बल्कि पूरी कम्युनिस्ट जमात ही हिन्दू विरोधी अभियानों के लिए जानी जाती है, संस्कृति नष्ट करने के आरोप भी कम्युनिस्ट जमात पर लगते रहा है। जावेद अख्तार की हिन्दुओं के बीच छवि कोई समर्थक की नहीं रही है, हिन्दू विरोधी और मुस्लिम समर्थक की रही है, इनकी भूमिका फिल्मी हस्ती की कम और हिन्दुओं को कोसने तथा मुस्लिम रूढियों पर चुप्पी साधने की रही है। जब भोपाल में जावेद अख्तर से पूछा गया कि श्रीलंका सरकार ने सुरक्षा की दृष्टि से बुर्का पर प्रतिबंध लगाया है, आतंकवादी बुर्का का भी प्रयोग करते हैं, भारत में बुर्का पर प्रतिबंध की मांग हो रही है, इस पर जावेद अख्तर ने सीधे जवाब देने की जगह कह दिया कि घूंघट पर भी प्रतिबध लगना चाहिए। जावेद अख्तर की इस मांग पर हिन्दू मतदाताओं की बहुत ही जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई है, यह प्रतिक्रिया सोशल मीडिया पर खूबी देखी गयी थी, सोशल मीडिया का अभियान यह था कि घूंघट करने वाली महिलाएं आतंकवादी नहीं होती है, दुनिया भर में बुर्का में महिलाएं और मुस्लिम पुरूष आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिया है। घूंघट जहां समाप्ति की ओर है, पर बुर्का तो आज मुस्लिम दुनिया के लिए अनिवार्य है। जवेद अख्तर के बयान और चुनावी सभा का संदेश यह गया कि जान बुझ कर हिन्दुओं को अपमानित करने के लिए दिग्विजय सिंह ने जावेद अख्तर की सभा करायी थी। जावेद अख्तर ने मुस्लिम आबादी को पीडित के तौर पर प्रस्तुत की थी।
         टुकडे-टुकडे गैंग की भी भोपाल के चुनावी मैदान में सकियता जारी है। टुकडे-टुकडे गैंग जेएनयू के उन लोगों को कहा जाता है जिन्होंने भारत के टूकडे-टुकडे करने के नारे लगाये थे। दिग्विजय सिंह ने टुकडे-टुकडे गिरोह की हिरोइन स्वरा भास्कर को खास तौर पर भोपाल में उतारा था। स्वरा भास्कर तब चर्चा में आयी थी जब उसने भारतीय सेना को बेवकूफ कहा था और पाकिस्तान की तारीफ की थी। जब प्रतिक्रिया हुई तब फिर उसने झूठ बोल दिया कि उसके टिवटर एकाउंट को हैक कर लिया गया था। स्वरा भास्कर कन्हैया को जीताने के लिए बेगुसराय भी गयी थी। भोपाल में स्वरा भास्कर ने अपनी सभा में हिन्दू आतंकवाद के अस्तित्व को न केवल जाहिर किया बल्कि कहा कि अगर मुस्लिम आतंकवाद कहा जाता है तो फिर हिन्दू आतंकवाद क्यों नही कहा जा सकता है, प्रज्ञा ठाकुर कोई संत और साध्वी नहीं है, उसकी छवि एक आतंकवादी की है, ऐसे प्रत्याशी को खारिज किया जाना चाहिए, ऐसे प्रत्याशी से भोपाल की प्रतिष्ठा गिरती है। पर शारदा मिश्रा प्रकरण और एक वृद्ध महिला को हाशिये भेज कर, उसे मानसिक तौर पर प्रताडित कर एक युवा महिला से शादी करने के प्रकरण पर स्वरा भास्कर ने चुप्पी नहीं तोडी।
         भोपाल में आम आदमी और निष्पक्ष लोगों का मानना है कि दिग्विजय सिह भारी भूल की है, इनकी यह भूल हार के रूप में सामने आ सकती है, दिग्विजय सिंह को हिन्दुओं के गुस्से का शिकार होना पडेगा। मैं दो सप्ताह से भोपाल में हूं। जब मैं भोपाल से आया था तब दिग्विजय सिंह का ग्राफ बहुत उपर था, यह संकेत साफ था दिग्विजय सिंह को हराना मुश्किल है, एक पूर्व मुख्यमंत्री रहने का लाभ दिग्विजय सिह को मिल रहा है, भोपाल के लोग भी दिग्विजय सिंह का समर्थन कर रहे थे। यह भी सही है कि दिग्विजय सिंह की शख्सियत की तुलना प्रज्ञा ठाकुर से नहीं हो सकती है, प्रज्ञा ठाकुर मूल रूप से राजनीतिज्ञ भी नहीं है, वह तो राजनीतिक दांव-पेंच भी नही जानती है, प्रज्ञा ठाकुर के विरोधी नहीं है, यह भी अस्वीकार नहीं हो सकता है। जैसे-जैसे हिन्दू विरोधी शख्सियतें भोपाल में आने लगी और दिग्विजय सिंह के समर्थन में चुनावी मैदान में उतरती रहीं और हिन्दुओं के खिलाफ बोलना शुरू की और हिन्दुओं को अपमानित करना शुरू की, वैसे-वैसे दिग्विजय सिंह लगातार कमजोर पडते गये और प्रज्ञा ठाकुर मजबूत होती गयी।
          1990 के पहले का एक दौर था जब हिन्दुओं को गाली देकर और हिन्दुओ को अपमानित कर चुनाव जीता जाता था। उस दौर मे तथाकथित धर्म निरपेक्षता चरम पर थी। पर राम मंदिर आंदोलन हिन्दुओं के बीच पुर्नजागरण का काम किया था, राम मंदिर आंदोलन के बाद हिन्दुओं ने तथाकथित धर्म निरपेक्षता जो एंकाकी थी, मुस्लिम परस्त थी को समझा था और इसके खतरे को भी समझा था। अनिवार्य तौर पर हिन्दुओं की एकता और हिन्दुओं की गोलबंदी सुनिश्चित हुई थी। हिन्दुओं की एकता और हिन्दुओं की गोलबंद का ही परिणाम था कि दो सीटों पर सिमट जाने वाली भाजपा 89 सीटों पर पहुंची थी, सिर्फ इतना ही नही बल्कि पहले अटल बिहारी वाजपेयी और अब पूर्ण बहूमत की सरकार नरेन्द मोदी की बनी है। नरेन्द्र मोदी और भाजपा की शक्ति भी हिन्दुत्व है। हिन्दुत्व विरोध की कसौटी पर ही कांग्रेस की केन्द्रीय सरकार गयी थी। अब इस तथ्य को कांग्रेस स्वीकार करती है।
        दिग्विजय सिंह लाख कोशिश कर लें, झूठ पर झूठ बोल लें पर उन्हें हिन्दू आतंकवाद का प्रोपगंडा पीछे छोडेगा नहीं। अब दिग्विजय सिंह कह रहे हैं कि उन्होने हिन्दू आतंकवाद शब्द को जन्म नही दिया था। राजनीति में अपने बयानो और हरकतों से हटने का लंबा-चौडा इतिहास है। भोपाल की ही  की बात नहीं है बल्कि देश की जनता जानती है, कि हिन्दू आतंकवाद के प्रोपगंडा से दिग्विजय सिंह का कितना बडा रिश्ता रहा है। दिग्विजय सिंह ही नही बल्कि अब कांग्रेस 
भी अब हिन्दू आतंकवाद के प्रोपगंडा से पीछा छुडा रही है। पर तथ्य यह है कि पी चिदम्बरम ने सरकारी तौर पर पहली बार भगवा आतंकवाद शब्द का प्रयोग किया था जो संसद के रिकार्ड में है। कांग्रेस सरकार के तत्कालीन गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने जयपुर मेंं कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में हिन्दू आतंकवाद पर जम कर बोला था और राहुल गांधी खुद अमेरिकी अधिकारी से देश को हिन्दुओं से खतरा बताया था। यह सब मुस्लिम मतदाताओं को खुश करने के लिए हुआ था।
        मुस्लिम मतदाताओं के पास विकल्प क्या है? दिग्विजय सिंह के पक्ष में मतदान करने के अलावा मुस्लिम मतदाताओं के पास कोई अन्य विकल्प है नहीं। कहने का अर्थ यह है कि मुस्लिम मतदाता दिग्विजय िंसंह को वोट देने के लिए बाध्य है। यह बाध्यता उनकी अनिवार्य है। मुस्लिम मतदाता भाजपा को हराने वाले प्रत्याशी और पार्टी को अनिवार्य तौर पर मतदान करते हैं। भोपाल में भाजपा के खिलाफ दिग्विजय सिंह ही मुकाबले में हैं। अगर दिग्विजय सिंह मुस्लिम मतदाताओं के बीच कम प्रचार करेंगे तो भी मुस्लिम आबादी का समर्थन उन्हें मिलेगा। दिग्विजय सिंह को मुस्लिम परस्त और भस्मासुरों को अपने समर्थन में उतारने की जरूरत ही नहीं थी।
        जहां तक प्रज्ञा ठाकुर की बात है, तो उसने दिग्विजय सिंह को नींद हराम करने में कोई कसर नहीं छोड रही है। प्रज्ञा ठाकुर लगातार अपने आप को पीडित बता रही है, पीडित बताना ही प्रज्ञा ठाकुर की शक्ति है। अपनी प्रताड़ना के लिए प्रज्ञा ठाकुर दिग्विजय सिंह को जिम्मेदार और खलनायक तौर पर प्रस्तुत कर रही है। अगर दिग्विजय सिंह की हार हुई तो फिर भस्मासुर शख्सियते सीताराम यचुरी, स्वरा भास्कर, जावेद अख्तर और स्वामी अग्निवेश के हिन्दू विरोधी सक्रियता ही जिम्मेदार होगी।

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विष्णुगुप्त
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Tuesday, April 23, 2019

श्रीलंका धमाके के दोषी तौहीद जमात की भारतीय कहानी


राष्ट्र-चिंतन

श्रीलंका धमाके के दोषी तौहीद जमात की भारतीय कहानी

भारत बन गया मुस्लिम आतंकवादियो की सुरक्षित शरणस्थली


विष्णुगुप्त




सैद्धांतिक तौर पर कोई भी भारतीय यह नहीं चाहेगा कि उसका देश मुस्लिम आतंकवादियों की शरणस्थली, ठिकाना या घर बन जाये और इस कारण भारत की दुनिया में उसी तरह बदनामी और तिरस्कार हासिल हो जिस तरह की बदनामी और तिरस्कार दुनिया में पाकिस्तान के प्रति उपस्थित है। पर सच को अस्वीकार करना मुश्किल है। चाहे कारण कुछ भी क्यों नहीं हो, पर सच तो यह है कि अब भारत मुस्लिम आतंकवादियों का सुरक्षित घर बन गया है, सुरक्षित ठिकाना बन गया है, सुरक्षित शरण स्थली बन गया है। इस्लामिक दुनिया की साजिश का हम आसान शिकार बन गये हैं, इस्लामिक दुनिया की साजिश क्या है? इस्लामिक दुनिया की साजिश भारत को एक इस्लामिक देश में तब्दील करना और भारत को मुस्लिम आतंकवाद की शरणस्थली, मुस्लिम आतंकवाद का सुरक्षित ठिकाना और मुस्लिम आतंकवाद का सुरक्षित घर के तौर पर तब्दील करना। मुस्लिम दुनिया अपनी इस साजिश में पूरी तरह से कामयाब दिखती है। यह भी एक बडा कारण है कि भारत का अति उदार रूप, भारत की तथाकथित उदारवादी पार्टियों की मुस्लिम पक्षी मानसिकताएं भी मुस्लिम आतंकवाद और मुस्लिम आतंकवादियों को संरक्षण देती है, समर्थन करती है। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि मुस्लिम आतंकवाद, मुस्लिम आतंकवादियों पर कानून का दमन कमजोर पड जाता है, सुरक्षा एजेंसियां अति न्यायिक और अति राजनीतिक परीक्षण से डर जाती है। कोई एक नहीं बल्कि दर्जनों ऐसे उदाहरण हैं कि सुरक्षा एजेंसियों को मुस्लिम आतंकवादियों के दमन में अति न्यायिक और अति राजनीतिक परीक्षण के भीषण पीडादायक दौर से गुजरना पडा है और कई वरिष्ठ अधिकारियों को महीनों जेलों में सडने के लिए बाध्य होना पडा है। ऐसी अति न्यायिक और अति राजनीतिक परीक्षण ही भारत को मुस्लिम आतंकवादियों की शरणस्थली बनने की ओर ढकेल रहा है। फिर हम सजग भी नहीं है।
     अभी-अभी श्रीलंका में जो निर्दोष जिंदगियां तबाह हुई है, तीन सौ से अधिक जो लोग मारे गये हैं, पांच सौ से अधिक जो लोग मारे गये हैं, उनके गुनाहगारों का न केवल लिंक भारत के साथ जुडे हुए हैं बल्कि उनके गुनहगार भारत से ही मुस्लिम आतंकवाद, मुस्लिम घृणा और मुस्लिम साम्राज्यवाद खडा करने के लिए जिहाद करते हैं। श्रीलंका में लोमहर्षक आतंकवाद और हिंसा की आग में निर्दोष जिंदगियां नष्ट करने के लिए जिस तौहीद जमात पर आरोप लगाया गया है उसकी शरण स्थली भारत मे ही है। अब तक जिन-जिन आतंकवादियों की गिरफ्तारी हुई है वे सभी आतंकवादी तौहीदन जमात से ही जुडे हुए हैं। तौहीद जमात का मुख्यालय तमिलनाडु में है। तमिलनाडु में तौहीद जमात की खतरनाक उपस्थिति है। तौहीद जमात ने तमिलनाडु की राजनीति को अपने आगोश में लेने की कोई कोशिश नहीं छोडी थी। तौहीद जमात पर ईसाइयों और बौद्धों का धर्म परिवर्तन कराने और हिन्दुओं की हत्या करने जैसे आरोप हैं। 
            तौहीद जमात की उपस्थिति और उसकी खतरनाक, हिंसक तथा अमानवीय इतिहास और लक्ष्य भी देख लीजिये। तौहीद जमात की स्थापना एक भारतीय तमिल मुसलमान की आतंकवादी दिमाग की देन थी। भारतीय तमिल मुसलमान अरिंगर कुझु ने तौहीद जमात की स्थापना की थी। अरिंगर कुझु के संबंध मे जो जानकारियां सामने आयी है वह बहुत ही खतरनाक है। अरिंगर कुझु के तार पाकिस्तान के साथ जुडे हुए हैं, पाकिस्तान के आतंकवादी संगठनों और पाकिस्तान के आतंकवादी सरगनाओं की तरह ही तौहीद जमात और अरिंगर कुझु व्यवहार करता है। अरिंगर कुझु भी ओसामा बिन लादेन की तरह ही काफिर मानसिकताएं रखता है, अरिंगर कुझु पर भी ओसामा बिन लादेन की तरह इस्लाम की कट्टर और खूनी मानसिकताएं हावी रहती हैं। अब यहां एक बडा प्रश्न यह है कि आखिर तौहीद जमात और अरिंगर कुझु के भारत मे लक्ष्य क्या है? आखिर तौहीद जमात और अरिंगर कुझु से भारत को कितना बडा खतरा है, आखिर क्या तौहीद जमात और अरिंगर कुझु भारत की एकता और अखंडता को खंडित करने जैसा है? सबसे बडी बात यह है कि तमिलनाडु और भारत सरकार अब तक तौहीद जमात और अरिंगर कुझु की आतंकवादी करतूत पर कानून का डंडा क्यों नही चला पायी थी, क्या सरकारों की ऐसी लापरवाही से भारत की एकता और अंखडता अक्षुण रह सकती है?
                   तौहीद जमात वहावी विचार धारा का प्रतिनिधित्व करता है, भारत में पहले वहावी विचारधारा प्रतिनिधित्व दारूल उलम देओबंद करता था। दारूल उलम देओबंद उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में स्थित है। तौहीद जमात, दारूल उलम देओबंद से भी खतरनाक है। तौहीद जमात का अर्थ ही घृणास्पद है। तौहीद जमात का अर्थ सिर्फ अल्लाह में विश्वास रखना और अल्लाह में जो विश्वास नहीं रखते हैं, उन्हें काफिर मानकर उनकी हत्या करना। तौहीद जमात ऐसे तो सभी गैर इस्लामी धर्म और समूह को काफिर मानता है पर वह ईसाइयों को लेकर कुछ ज्यादा ही घृणास्पद मानसिकताएं रखता है। ईसाइयो को वह भटका हुआ समूह मानते हैं। ईसाइयो को मुस्लिम बनाना या फिर ईसाइयों का सर्वनाश करना वह अल्लाह का कार्य मानता है। तमिलनाडु के अंदर भी तौहीद जमात ने ईसाइयों के खिलाफ घृणास्पद अपराध करने के अभियान पर चल रहा था। तौहीद जमात पर 2017 में तमिलनाडु में मुकदमा दर्ज हो चुका है।
                सिर्फ तमिलनाडु के अंदर ही नहीं बल्कि देश के अन्य क्षेत्रों में भी इस आतंवकादी संगठन ने अपने नेटवर्क कायम किये हैं और अपनी इस्लामिक घृणा और हिंसा का जाल विछाया है। खासकर योग गुरू रामदेव के प्रति यह आतंकवादी संगठन असहिष्णुता वाला घृणित विचार रखता है, आतंकवादी विचार रखता है। योग गुरू रामदेव के खिलाफ इसने मुस्लिम आबादी को भडकाने का कार्य किया है। तौहीद जमात ने योग गुरू रामदेव के योग और पंतजलि के उत्पादो के खिलाफ फतवा जारी किया था, मुस्लिम आबादी को अगाह किया था कि पंतजंलि के उत्पाद अल्लाह के उपदेश और आज्ञा का अनादर करते हैं, पंतजंलि के उत्पाद इस्लाम का अनादर करते हैं, इसलिए पंतजंलि के उत्पादों से दूर रहें। फतवा देने का काम पहले दारूल उलम देओबंद करता था पर अब देश के अंदर एक और खतरनाक मुस्लिम आतंकवादी संगठन की घुसपैठ हो गयी है। सिर्फ घुसपैठ ही नहीं हुई बल्कि वह आतंवादी संगठन अब मुस्लिम आबादी को अपने अुनसार चलने के लिए बाध्य करने में भी लगा हुआ है। 
              तमिलनाडु से इस संगठन की घुसपैठ श्रीलंका में हुई है और कुछ समय के अंदर ही यह संगठन श्रीलंका की मुस्लिम आबादी के बीच एक महत्वपूर्ण स्थान हासिल कर लेता है। घुसपैठ करते ही तौहीद जमात ने श्रीलंका में मस्जिद की एक बडी फेहरिस्त कायम की थी। तौहीद जमात ने अपने धन से श्रीलंका के अंदर सैकडों मस्जिदें बनायी हैं। मस्जिदें जब वह संगठन बना रहा था तभी उस पर नजर सुरक्षा एजेसियों की लगी थी। खासकर उसने स्कूल जाने वाली मुस्लिम लडकियों और अन्य मुस्लिम महिलाओं के बुर्काकरण की काफी कोशिशें की थी। 2013 में श्रीलंका के तत्कालीन रक्षा मंत्री तौहीद जमात को आईएस का संगठन बता कर तहलका मचा दिया था। तौहीद जमात ने अपने बचाव में मजहबी उत्पीडन का ढाल बना लिया था। तौहीद जमात के सचिव अब्दुल रैजिक ने 2014 में श्रीलंका के बौद्ध धर्म को इस्लाम के खिलाफ बता कर फतवा दिया था और कहा था कि बौद्ध धर्म का सफाया कर इस्लाम का विस्तार करना हर मुसलमान का काम है। अब्दुल रैजिक के बयान आते ही श्रीलंका में तूफान मच गया था। अब्दुल रैजिक और उसके संगठन को प्रतिबंधित करने की बडी आवाज उठी थी। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि श्रीलंका के अंदर बौद्ध मूर्तियो को खंडित करने के भी आरोप तौहीद जमात पर लगे हैं। बढते दबाव और घृणास्पद तथा आतंकवाद के खतरे को देख कर अब्दुल रेजिक की 2016 में गिरफतारी भी हुई थी। 
                   तौहीद जमात जैसे आतंकवादी संगठन को भारत में क्यों पाला-पोशा गया अब तक उस संगठन पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया गया? भारत की सरकारों को असहज स्थिति और खतरनाक संकटों का भान क्यों नहीं है। हम कभी क्या आज भी आतंकवाद की शरणस्थली के लिए पाकिस्तान को कोसते हैं, पाकिस्तान पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंधित करने की बात करते हैं, पाकिस्तान को कूटनीतिक मंच से अलग-थलग करने की कोशिश करते हैं। पर पाकिस्तान अपने बचाव में कहता है कि हम नहीं बल्कि भारत ही दुनिया में आतंकवाद फैलाता है। तौहीद जमात की करतूत पर अब पाकिस्तान भारत की घेराबंदी कर सकता है। मुस्लिम दुनिया भी भारत को बदनाम कर सकती है। मुस्लिम आतंकवादी संगठनों ने अपनी नीति बदली है, अपने संगठन भारत में ही स्थापित करने की नीति बनायी है। यही कारण है कि तौहीद जमात ने तमिलनाडु में अपनी शरण स्थली बनायी और श्रीलंका में धमाका काराया है। इस्लामिक स्टेट विभिन्न नामों से केरल, महाराष्ट्र और पूर्वोतर प्रदेशों में शरण स्थली बना कर बैठा है। जिस तरह भारत सरकार ने बांग्लादेश में आतंकवादी करतूत कराने के आरोप में जाकिर नाईक के मुस्लिम संगटन पर प्रतिबंध लगाया है उसी तरह तत्काल तौहीद जमात पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए और इसके सभी आतंकवादियों को जेलों में डाला जाना चाहिए।


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