अफजल गुरू की फांसी, कानून व्यवस्था और तुष्टिकरण की सत्ता
कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण से लहूलुहान राष्ट्र की संप्रभुता
विष्णुगुप्त
विश्व में भारत एक मात्र ऐसा देश है जहां पर राष्ट्रहित-सुरक्षा पर तुष्टिकरण की राजनीति होती है। आतंकवाद जैसी आंच को बुझाने में भी वोट की राजनीति आड़े आती है। सत्ता ही नहीं बल्कि तथाकथित बुद्धीजीवी वर्ग भी देशद्रोहियों और आतंकवादियों के साथ खड़ा हो जाती है। अगर ऐसा नही ंतो फिर संसद हमले के दोषी अफजल गुरू की फांसी चार सालों से क्यों लटकी पड़ी हुई है। अफजल गुरू की फांसी पर क्या कांग्रेस तुष्टिकरण की राजनीतिक खेल खेल नहीं रही है? खासकर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने अफजल गुरू की फांसी पर कानून व्यवस्था का सवाल उठाकर रोड़ा डाल दिया है। शीला दीक्षित ने अफजल गुरू की फांसी पर उप राज्यपाल तेजेन्द्र खन्ना को भेजे अपनी सिफारिश में कहा कि फांसी देने से पहले कानून व्यवस्था की स्थिति का आकलन किया जाना चाहिए। शीला दीक्षित के सिफारिश के दो अर्थ निकलते हैं। एक अर्थ में अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने का समर्थन है तो दूसरे अर्थ में विरोध भी है। दूसरे अर्थ ने अपना कमाल दिखाया। इसका परिणाम देखिये। दिल्ली के उप राज्यपाल तेजेन्द्र खन्ना फांसी की फाइल को वापस भेजने के लिए मजबूर हुए। फिर वापस फांसी की फाइल शीला दीक्षित के पास आ गयी। अब शीला दीक्षित दुबारा कब फांसी की फाइल को उप राज्यपाल के पास भेजेगी, इस संबंध मे कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। ऐसे भी शीला दीक्षित के सामने कोई संवैधानिक मजबूरी भी नहीं है। दिल्ली और केन्द्र में दोनों जगह कांग्रेस की सरकार है। इसलिए शीला दीक्षित के सामने कोई राजनीतिक संकट भी सामने नहीं आयेगा। कांग्रेस प्रारंभ से ही अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने के प्रसंग पर ईमानदार नहीं रही है। तीखे आलोचनाओं और राजनीतिक विरोध के निशाने पर कांग्रेस के रहने के बाद भी अभी तक अफजल गुरू की फांसी स्थायी रूप से स्थगित होने की स्थिति में रखने का सीधा मकसद मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति है। कांग्रेस सत्ता नीति और मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति एक-दूसरे से गंभीरता के साथ जुड़ी हुई है। बाबरी मस्जिद के ढ़ाचे के ध्वस्तीकरण के बाद मुस्लिम जनमत कांग्रेस से अलग हो गया था। पिछले दो लोकसभा चुनावों में फिर से मुस्लिम जनमत कांग्रेस के साथ मजबूती के साथ जुड़ा। कांग्रेस को डर है कि अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने में उसका मुस्लिम समर्थन दूर हो जायेगा। अफजल गुरू संसद हमले का दोषी है और उसे देश का सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी की सजा दी है। राष्ट्रहित और राष्ट्र की सुरक्षा के मद्देनजर अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने में देरी नहीं होनी चाहिए। सबसे बड़ी बात तो यह है कि अफजल गुरू के फांसी पर लटकाने पर आतंकवादियों और उसके आका पाकिस्तान को एक कड़ा संदेश व सबक मिलेगा। भारत के नरम राष्ट्र होने की गलत फहमी भी टूटती।
अफजल गुरू की फांसी वाली फाइल चार सालों तक किस मकसद से कांग्रेस दबा कर रखी। क्या यह जानने का अधिकार देश की जनता को नहीं है। इंदिरा गाधी के हत्यारों का नजीर हमारे सामने मौजूद है। शीला दीक्षित जैसा ही तर्क दिया जा रहा था कि सिख हत्यारों को फांसी पर लटकाने से देश की संप्रभुता खतरे में होगी, सिख फिर से पाकिस्तान के मोहरे बनेंगे, पंजाब में आयी शांति दूर हो जायेगी, पंजाब में फिर से आतंकवाद चरम पर होगा। विदेशों में बसे सिखों की धममियां अलग से थीं। इन सभी अशांकाओं से अलग हटकर इंदिरा गांधी के हत्यारों को फांसी दी गयी। कहीं से भी राष्ट्र की संप्रभुता पर कोई आंच नहीं आयी। इसी तरह अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने पर शीला दीक्षत की चिंताएं कोई पहाड़ नहीं तोड़ पायेगी। कश्मीर जैसे जगहों पर कुछ विरोध चिंगारियां जरूर फुटेंगी। वहां पर ऐसे भी शांति कब रही है। देश के सभी भागों से मुस्लिम संवर्ग इस सवाल से आंदोलित होगा, ऐसा भी नहीं है।
चार साल बनाम 16 रिमाइंडर -
अफजल गुरू की फांसी की फाइल चार सालों तक दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की अलमारियों की धूल फांकती रही। चार साल पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने संसद हमले में अफजल गुरू को फांसी की सजा सुनायी थी। जिस समय सुप्रीम कोर्ट ने अफजल गुरू को फांसी की सजा सुनायी थी उस समय भी अफजल गुरू देश की संप्रभुता के खिलाफ सरेआम आग उगला था। संसद हमले में अफजग गुरू के साथ ही साथ दिल्ली के एक कश्मीरी मूल के प्राध्यापक की भी संलिप्तता थी पर पुलिस की लचर जांच व्यवस्था का लाभ उसे मिला था। सुप्रीम कोर्ट ने उस प्राध्यापक को तो बरी किया था पर यह भी कहा था कि उस प्राध्यापक की भूमिका संदिग्ध जरूर थी। संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार अफजल गुरू ने फांसी की सजा पर माफी की मांग राष्ट्रपति से की थी। राष्ट्रपति ने केन्द्र सरकार से अफजल गुरू की फांसी पर राय मांगी। केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने दिल्ली सरकार को फांसी वाली फाइल भेजी। फांसी की फाइल पर शीला दीक्षित कुंडली मार कर बैठ गयी। कोई एक दो दिन नहीं बल्कि पूरे चार सालों तक वह फाइल को दबाये बैठी। इस दौरान गृहमंत्रालय ने 16 बार रिमाइंडर भेजी। 16 रिमाइंडरों पर शीला दीक्षित ने फांसी वाली फाइल दबाये जाने का कोई कारण नहीं बतायी। शीला दीक्षित की सिफारिश के कुछ दिन पूर्व ही केन्द्रीय गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने इस पर नाखुशी जतायी थी। इस नाखुशी पर स्वयं शीला दीक्षित ने केन्द्रीय गृहमंत्री पी चिदम्बरम से मुलाकात की थी। जाहिर तौर पर पी चिदम्बरम ने शीला दीक्षित को फांसी की फाइल की सक्रियता बढ़ाने का निर्णायक सलाह दी होगी। शीला दीक्षित मजबूरी में फांसी वाली फाइल उप राज्य पाल को भेजी। यह राजनीतिक तौर पर प्रमाणित बात है।
कानूनी अड़चनों से घबरायी सरकार-
कानूनी प्रावधानों का भी सवाल उठ खड़ा था। खासकर केन्द्रीय गृहमंत्रालय की परेशानी इस प्रसंग पर बढ़ी थी। विपक्षी दल भाजपा की बौखलाहट भी कम नहीं थी। भाजपा लोकसभा और राज्य सभा में कई बार तीखे प्रश्न उठा कर अफजल गुरू पर मुस्लिम तुष्टिकारण का कार्ड खेलने का आरोप लगायी थी। राष्ट्रपति जैसे गरिमापूर्ण पद पर लांछन लग रहा था। सुप्रीम कोर्ट मे भी अफजल गुरू की फांसी पर दया की मांग का प्रसंग जा सकता था। आखिर कितने दिनों तक कोई सरकार अपने सत्ता नीति और स्वार्थ में एक राष्ट्रद्रोही और आतंकवादी को फांसी पर चढ़ाने से रोक सकती है। कानून और संविधान में समयबद्धता का बंधन नहीं है पर सर्वोच्च न्यायालय का संविधान पीठ इस प्रसंग पर नयी व्याख्या दे सकती है। कई ऐसे मामले पहले भी आये जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने नयी व्यवस्था दी है। अगर यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में जाता तो यूपीए सरकार की फजीहत होती और उस पर मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति अपनाने जैसे आरोप लगते। ऐसी स्थिति से बचने के लिए ही कांग्रेस ने अफजल गुरू की फांसी वाली फाइल को सक्रिय करने के लिए तैयार हुई है। यह सही माना जाना चाहिए कि शीला दीक्षित ने जो कानून व्यवस्था का अड़चन डाला है वह भी कांग्रेस की एक सोची समझी नीति का हिस्सा है। ऐसा इसलिए कि कांग्रेस को अफजल की फांसी को अधर में लटकाने का और समय मिल जायेगा।
इंदिरा गांधी के हत्यारों की फांसी एक नजीर-
इंदिरा गाधी के हत्यारों का नजीर हमारे सामने मौजूद है। इंदिरा गांधी के हत्यारों को फांसी देने के समय भी कानून व्यवस्था का सवाल उठा था। सिख हत्यारों को फांसी पर लटकाने का देश भर में विरोध हुआ था। शीला दीक्षित जैसा ही तर्क दिया जा रहा था कि सिख हत्यारों को फांसी पर लटकाने से देश की संप्रभुता खतरे में होगी, सिख फिर से पाकिस्तान के मोहरे बनेंगे, पंजाब में आयी शांति दूर हो जायेगी, पंजाब में फिर से आतंकवाद चरम पर होगा। इत्यादि-इत्यादि। विदेशों में बसे सिखों की धममियां अलग से थीं। राजनीतिक बहादुरी दिखायी गयीं। इन सभी अशांकाओं से अलग हटकर इंदिरा गांधी के हत्यारों को फांसी दी गयी। कहीं से भी राष्ट्र की संप्रभुता पर कोई आंच नहीं आयी। संदेश गहरे थे और सबके कड़े थे। इस गहरे संदेश और सबक को सिख समाज ने सकारात्मक रूप से लिया। सिख समाज ने खुद आतंकवाद से लड़ने का काम किया। सिख समाज की बहादुरी से आज पंजाब फिर से देश का सिरमौर है। इसी तरह अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने पर शीला दीक्षत की चिंताएं कोई पहाड़ नहीं तोड़ पायेगी। कश्मीर जैसे जगहों पर कुछ विरोध चिंगारियां जरूर फुटेंगी। वहां पर ऐसे भी शांति कब रही है। देश के सभी भागों से मुस्लिम संवर्ग इस सवाल से आंदोलित होगा, ऐसा भी नहीं है।
कड़े सबक-संदेश की जरूरत
भारत की छवि एक नरम राष्ट्र की है। पाकिस्तान और आतंकवादी यह समझते हैं कि भारत एक कायर और डरपोक राष्ट्र है। भारत सिर्फ बयानों और कागजों में ही वीरता दिखा सकता है। इस छवि छुटकारा पाना निहायत ही जरूरी है। हमने विगत मे आतंकवादियो को छोड़कर और उनसे समझौते कर एक राष्ट्र की सबलता-जीवंतता पर कुल्हाड़ी मारी है। खूखांर आतंकवादियों को काबूल ले जाकर छोड़ना हमारे राष्ट्र के उपर एक कंलक के समान है। इसीलिए हम आतंकवाद का आसान शिकार है और हमारी संप्रभुता लहूलुहान भी है। आतंक के बल पर कश्मीर छीनने की कोशिश जारी है। आतंकवादी यह मान बैठे हैं कि भारत की राजनीतिक स्थितियां और कमजोर कानून से उनका कुछ भी नहीं बिगड़ सकता है। आतंकवादियों के आका पाकिस्तान भी कुछ ऐसे दिलासे और आश्वासन आतंकवादियों को देता रहा है। अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने से आतंकवादियों के बीच डर कायम होगा। भारत के खिलाफ अघोषित युद्ध और खूनी राजनीति पर अंकुश लगेगा। सही यह भी है कि हमें अपने घर के तथाकथित बुद्धीजीवियों का प्रबंधन करना होगा। देश का तथाकथित बुद्धीजीवी संवर्ग हमेशा राष्ट्रहित की कीमत परहित की फसल लहलहहाते हैं। आतंकवाद का समर्थन करने में भी इन्हें गुरेज नहीं होता। देश में आतंकवाद और पाकिस्तान समर्थक बुद्धीजीवियों की एक बड़ी फौज खड़ी हो गयी। बुद्धीजीवियों की इस फौज को उर्जा कहां से मिलती है। सिगरेट कहां से मिलती है? कीमती गाड़िया, जीन्स और पंचसितारा सुविधाएं कहां से मिलती हैं। अब इस पर भी गौर करना होगा। क्या कांग्रेस अफजल गुरू को फांसी पर लटकायेगी? असली सवाल यही है। कांग्रेस और यूपीए सरकार को इस प्रसंग में दबाव बनाने के लिए जनमत की सक्रियता की जरूरत होगी।
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Friday, May 21, 2010
Wednesday, May 5, 2010
प्रेमी प्रियभांषु को सजा कौन दिलायेगा?
राष्ट्र-चिंतन
प्रेमी प्रियभांषु को सजा कौन दिलायेगा?
ऑनर किलिंग से बच सकती थी महिला पत्रकार निरूपमा
विष्णुगुप्त
सिर्फ प्रियभांषु को मालूम था कि निरूपमा ऑनर किलिंग का ग्रास बनने जा रही है। क्या उसने निरूपमा की जान बचाने के लिए पुलिस और हाईकोर्ट में गुहार लगायी ? वह चुपचाप निरूपमा को ऑनर किलिंग के ग्रास में जाते देखता रहा। कब चिल्लाया? वह महिला आयोग और पत्रकार संगठनों का दरवाजा कब खट-खटकाया? मीडिया में अपनी खतरनाक प्रेम कहानी कब खोली? जब निरूपमा की हत्या हो चुकी थी। निरूपमा के परिजनों को सजा हो ही जायेगी पर निरूपमा की जान वापस आयेगी क्या? विवाह पूर्व असुरक्षित-खतरनाक यौन संबंध का ी दोषी है प्रियभांषु।
ऑनर किलिंग से महिला पत्रकार निरूपमा बच सकती थी। निरूपमा पाठक और प्रियभांषु रंजन की खतरनाक, असुरक्षित, लापरवाह और गैरजिम्मवार प्रेम कहानी के कई ऐसे पत्रडाव थे जहां पर दिल नहीं दिमाग और नैतिकता सक्रिय होती तो ऑनर किलिंग की नौबत आती नहीं या फिर ऑनर किलिंग के रास्ते अपनाने से पहले ही उसके परिजनों को कानून का पाठ पत्रढाया जा सकता था। परिजनों के चुंगुल से निरूपमा मुक्त ी हो सकती थी। खतरनाक, असुरक्षित, लापरवाह, गैरजिम्मेदार और नैतिकहीन प्रेम कहानी की संज्ञा देने में यहां कोई पूर्वाग्रह नहीं है बल्कि यर्थाथ है, सच्चाई है। इस सच्चाई और यथार्थ में निरूपमा के प्रेमी पत्रकार प्रियभांषु ी कहीं न कहीं दोषी के रूप में खत्रडा है। हालांकि अ ी तक सच्चाई और यथार्थ के दृष्टिकोण से प्रेमी प्रिय ाषु रंजन ी दोषी है, मीडिया या अन्य चिंतक वर्ग ने ंिचंतन ही नहीं किया है। जबकि पूरे तथ्य इस प्रकरण में सूक्षमता और गहणता के साथ चिंतन की माग जरूर करता है। क्या महिला पत्रकार निरूपमा गर् वती नहीं थी। उसके गर् में एक-दो नहीं बल्कि चार माह से अधिक का शिशु पल रहा था। यह गर् जाहिरतौर पर असुरक्षित यौन संबध का परिणाम था। क्या नैतिकता शादी के पूर्व असुरक्षित यौन संबंध की इजाजत देती है?प्रियभांषु रंजन यह कहकर इस दोष से बच नहीं सकते हैं कि वह अज्ञानी था, मजदूर या अन्य अशिक्षित वर्ग का प्रतिनिधित्व करता था। प्रियभांषु रंजन देश का सबसे बत्रडी समाचार एजेन्सी में पत्रकार है। इसलिए वह समाज का सबसे बत्रडा जागरूक वर्ग से जुत्रडा हुआ है। रेडियो, टेलीविजन और अखबारों में असुरक्षित यौन संबंधों से संबंधित विज्ञापन और उसके परिणामों की चेतावनी सालों-साल से जारी है। यहां तक कि दीवार और होल्डिंगों पर ी ी यह चेतावनी नियमित प्रसारित होती है,अंकित होती है। क्या ऐसे विज्ञापन और चेतावनी एक पत्रकार के लिए कोई मायने नहीं रख्ता है तब हम समाज के अन्य कम जागरूक वर्ग से उम्मीद क्या कर सकते हैं? चार माह के गर् के बाद ी शादी का विकल्प क्यों नहीं चुना गया। यह कह देने मात्र से कि वह दोष से बरी नहीं हो सकता है कि निरूपमा के परिजन तैयार नहीं थे। कोर्ट मैरेज का विकल्प क्यो नहीं चुना गया। निरूपमा की जान खतरे में थी और वह धीरे-धीरे ऑनरकिलिंग की परिस्थितियों से धिर रही थी तब पुलिस और न्यायालय सहित मीडिया संस्थानों की सहायता क्यों नहीं ली गयी। पुलिस, न्यायालय और मीडिया संस्थानों के हस्तक्षेप से ऑनर किलिंग से निरूपमा बच सकती थी और वापस दिल्ली आ सकती थी।
निरूपमा अब इस दुनिया में नहीं है। इसलिए उसके प्रति प्रियभांषु कितना समर्पित था और ईमानादार था, इसे भी शक की निगाह से देखी जानी चाहिए। कही प्रियभांषु निरूपमा के साथ दोहरा खेल तो नहीं खेल रहा था। मोहरे से मोहरे लडाने में तो वह नहीं लगा था। निरूपमा के गर् को वह उसके घर वालों के माध्यम से ही निपटाना चाहता था क्या? क्योंकि गर् का प्रश्न हल हो जाने के बाद प्रियभांषु शादी के झमेले में पडने से ी बच सकता था। अगर ऐसी धारणा सही हो सकती है तो निरूपमा अपने परिजनों के साथ ही साथ अपने प्रेमी प्रियभांषु की भी साजिश का शिकार हुई है?
सिर्फ प्रियभांषु को मालूम था कि निरूपमा ऑनर किलिंग का ग्रास बनने जा रही है। क्या उसने निरूपमा की जान बचाने के लिए पुलिस और हाईकोर्ट में गुहार लगायी ? वह चुपचाप निरूपमा को ऑनर किलिंग के ग्रास में जाते देखता रहा। प्रियभांषु कब चिल्लाया? वह महिला आयोग और पत्रकार संगठनों का दरवाजा कब खट-खटकाया? मीडिया में अपनी खतरनाक प्रेम कहानी कब खोली? जब निरूपमा की हत्या हो चुकी थी। निरूपमा के परिजनों को सजा हो ही जायेगी पर निरूपमा की जान वापस आयेगी क्या? विवाह पूर्व असुरक्षित-खतरनाक यौन संबंध का ी दोषी है प्रियभांषु।
प्रेमी प्रियभांषु रंजन पर एक और गं ीर लापरवाही सामने आती है। प्रियभांषु के शब्दों में निरूपमा पाठक के परिजन किसी ी परिस्थिति में शादी नहीं होने देने के लिए कटिबद्ध थे। इसके लिए निरूपमा के परिजन प्यार, लोकलाज से लेकर इज्जत का ी हवाला देकर निरूपमा को प्रियभांषु से अलग करने की कोशिश हुई थी। निरूपमा पर उसके परिजनों ने कठोरता ी बरती थी।प्रियभांषु रंजन की ये स ी बातें सही हैं। ऐसी प्रक्रिया चली होगी। ऑनर किलिंग से पहले निरूपमा के परिजन ये स ी हथकंडे जरूर अपनाये होंगे। जो परिवार और जो घराना ऑनर किलिंग कर सकता है वह परिवार और घराना उसके पहले अपनी इज्जत का हवाला देकर कुछ ी कर सकता है। पिता द्वारा निरूपमा पाठक को लिखी गयी चिट्ठी ी इसकी गवाही देती है। यह सब यहां यह जताने के लिए तथ्य और ऑनर किलिंग की स्थितियां बतायी जा रही है ताकि यह स्पष्ट हो सके कि निरूपमा खतरे से घिरी हुई थी। खतरा उसके परिजनों से ही था। यह ी ज्ञात हुआ है कि वह कई महीनों से घर नहीं गयी थी। इस खतरे को देखते हुए ी निरूपमा अपने मां-पिता से मिलने झारखंड की कोडरमा शहर अपने घर गयी और जाने दिया गया। आम समझ यह है कि जब निरूपमा पर खतरा था वह ी ऑनर किलिंग की स्थितियां उत्पन्न होने या फिर उसके ग्रास बनाये जाने की तब निरूपमा को दिल्ली से कडोरमा जाने ही क्यों दिया गया। तर्क यह दिया जा रहा है कि उसकी मां ने अपनी बीमारी की झूठी खबर देकर बुलायी थी। यह तो पहले से ही स्पष्ट था कि उसके परिजन किसी ी खतरनाक और लोमहर्षक प्रक्रिया को अपना सकते हैं। ऐसी स्थिति में प्रिय ांषु रंजन को निरूपमा को कोडरमा जाने से रोकना चाहिए था। यह ी स्पष्ट हुआ है कि निरूपमा के प्रिय ाषु के साथ प्यार और शादी के लिए जिद करने की जानकारी परिजनों को थी पर वह चार महीने की गर् वती थी यह जानकारी निरूपमा के घर आने पर ही उसके परिजनो को हुई होगी। गांवों और कस्बायी महिलाओं को एक-दो दिन के गर् के लकक्षण ी पता चल जाता है। वह तो चार माह की गर् वती थी।
निरूपमा ऑनर किलिंग की ग्रास बनने की ओर अग्रसर हो रही है। ऐसी जानकारियां निरूपमा अपने प्रेमी प्रियभांषु रंजन को देती रही थी। एसएमएस और मोबाइल कॉल के द्वारा। टेलीविजनों और प्रिंट मीडिया में ी निरूपमा द्वारा प्रिय ांषु रंजन को ेजे गये एसएमएस दिखाया गया। एसएमएस में निरूपमा लिखती है कि कोई एक्सटीम एक्शन मत लेना। यानी निरूपमा को अपनी हत्या की आशंका ही नहीं बल्कि पूरा विश्वास हो गया था। वह जान रही थी कि अब उसका बचना मुश्किल है। उसके ाई और ाई के दोस्त उस पर नजर रखे हुए थे। मां और पिता वापस दिल्ली आने देने के लिए किसी ी परिस्थिति में तैयार नहीं थे। जबकि निरूपमा दिल्ली आना चाहती थी और अपना कैरियर जारी रखना चाहती थी। ऐसी सूचना मिलने पर तत्काल उसे सहायता की जरूरत थी। पर निरूपमा को सहायता मिली नहीं। निरूपमा की जान खतरे में है यह जानकारी सिर्फ और सिर्फ प्रियभांषु रंजन को थी। प्रियभांषु ने निरूपमा को सुरक्षा दिलाने और उसकी जान बचाने की कोई कार्रवाई नहीं की। प्रियभांषु रंजन झा रंजनरखंड ओर कोडरमा पुलिस से निरूपमा की जान बचाने की गुहार लगा सकता था। प्रत्रकार संगठनों को एक महिला पत्रकार की जान बचाने के लिए तत्काल मुहिम शुरू करने के लिए कह सकता था। इसके अलावा वह हाईकोर्ट जैसे जगह पर प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर कर निरूपमा को उसके परिजनों के चंगुल से मुक्त कराने का सफलतम प्रयास कर सकता था। क्या प्रियभांषु ने निरूपमा की जान बचाने के लिए पुलिस और हाईकोर्ट में गुहार लगायी? वह चुपचाप निरूपमा को ऑनर किलिंग के ग्रास में जाते देखता रहा। ऐसा मानो उसका निरूपमा से कोई वास्ता ही नहीं था।
प्रियभांषु कब चिल्लाया? वह महिला आयोग और पत्रकार संगठनों का दरवाजा कब खट-खटकाया? मीडिया कब अपनी खतरनाक प्रेम कहानी कब खोली? जब निरूपमा की हत्या हो चुकी थी। जब निरूपमा इस दुनिया में रही नहीं। ऐसी मुहिम का अब निरूपमा के लिए क्या मतलब? निरूपमा के परिजनों को सजा हो ही जायेगी पर निरूपमा की जान वापस आयेगी क्या? यह लापरवाही प्रियभांषु जान कर की है या अनजाने में। इस तथ्य का पता लगाना मुश्किल है। पर उसने खतरनाक त्रढग से लापरवाही बरती ही है।
जब घर वाले शादी के लिए राजी नहीं थे तब दोनों के पास कोर्ट मैरेज का विकल्प खुला था। हमारे जैसे अनेक लोगों का इस प्रकरण में राय यही बनी है कि अगर प्रियभांषु ने निरूपमा के साथ कोर्ट मैरेज कर लिया होता तो शायद यह हत्या नहीं होती। दिल्ली में आकर हत्या करने के लिए निरूपमा के परिजन सौ बार सोचते। ज्यादा से ज्यादा परिजन निरूपमा से नाता तोत्रड लेते। कई ऐसे उदाहरण सामने हैं जिसमें परिजनों के खिलाफ जाकर कोर्ट मैरिज हुई है और परिजनों से सुरक्षा के लिए कोर्ट ी खत्रडा हुआ है। अंतरजातीय ही नहीं बल्कि अंतधार्मिक शादियां धत्रडडले के साथ हो रही हैं और न्यायालय-प्रशासन सुरक्षा कवज के रूप में खत्रडा है। यह एक संवैधानिक जिम्मेदारी ी है।निरूपमा और प्रियभांषु दोनो वर्किग पत्रकार थे। दोनों अपने पैरों पर खत्रडे थे। इसके बाद ी यह विकल्प नहीं चुना जाना हैरतअंग्रेज बात है। जबकि दोनों के बीच 2007 से ही असुरक्षित प्रेम संबंध थे।
ऑनर किलिंग जैसी धटनाओ के लिए ारतीय समाज की विंसगतियां जिम्मेवार रही है। जातीय आधारित ारतीय समाज आज ी अपने को बदलने के लिए तैयार नहीं है। निरूपमा प्रकरण अकेली घटना नहीं है। अ ी हाल ही में न्यायालय ने हरियाणा में ऑनर किलिंग पर कत्रडी सजा सुनायी है। निरूपमा के हत्यारे परिजनों को कत्रडी सजा मिलनी चाहिए। इसके लिए पत्रकार संगठनों की सक्रियता जरूरी है। पत्रकार संगठनों और मीडिया ने निरूपमा को न्याय दिलाने के लिए सुर्खियां पर सुर्खियां बना रही है। इसी का परिणाम हुआ कि निरूपमा की मां जेल के अंदर हुई और उसके अन्य परिजन ी जेल जाने की प्रक्रिया में खत्रडे है। निरूपमा प्रकरण से ऑनर किलिंग मानसिकता को सबक मिलना चाहिए। पर हमें लापरवाह, गैर जिम्मेदार, असुरक्षित-खतरनाक यौन संबंध पर ी गौर करना चाहिए। लापरवाह, गैर जिम्मेदार, असुरक्षित-खतरनाक यौन संबंधों की प्रेम कहानी ने निरूपमा को मौत के मुंह में धकेला है और इसके लिए उसके प्रेमी प्रियभांषु रंजन ी जिम्मेदार है। इस गैर जिम्मेदार, लापरवाह, असुरक्षित और खतरनाक यौन संबंध की सजा क्या प्रियभांषु रंजन को मिलेगी।
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प्रेमी प्रियभांषु को सजा कौन दिलायेगा?
ऑनर किलिंग से बच सकती थी महिला पत्रकार निरूपमा
विष्णुगुप्त
सिर्फ प्रियभांषु को मालूम था कि निरूपमा ऑनर किलिंग का ग्रास बनने जा रही है। क्या उसने निरूपमा की जान बचाने के लिए पुलिस और हाईकोर्ट में गुहार लगायी ? वह चुपचाप निरूपमा को ऑनर किलिंग के ग्रास में जाते देखता रहा। कब चिल्लाया? वह महिला आयोग और पत्रकार संगठनों का दरवाजा कब खट-खटकाया? मीडिया में अपनी खतरनाक प्रेम कहानी कब खोली? जब निरूपमा की हत्या हो चुकी थी। निरूपमा के परिजनों को सजा हो ही जायेगी पर निरूपमा की जान वापस आयेगी क्या? विवाह पूर्व असुरक्षित-खतरनाक यौन संबंध का ी दोषी है प्रियभांषु।
ऑनर किलिंग से महिला पत्रकार निरूपमा बच सकती थी। निरूपमा पाठक और प्रियभांषु रंजन की खतरनाक, असुरक्षित, लापरवाह और गैरजिम्मवार प्रेम कहानी के कई ऐसे पत्रडाव थे जहां पर दिल नहीं दिमाग और नैतिकता सक्रिय होती तो ऑनर किलिंग की नौबत आती नहीं या फिर ऑनर किलिंग के रास्ते अपनाने से पहले ही उसके परिजनों को कानून का पाठ पत्रढाया जा सकता था। परिजनों के चुंगुल से निरूपमा मुक्त ी हो सकती थी। खतरनाक, असुरक्षित, लापरवाह, गैरजिम्मेदार और नैतिकहीन प्रेम कहानी की संज्ञा देने में यहां कोई पूर्वाग्रह नहीं है बल्कि यर्थाथ है, सच्चाई है। इस सच्चाई और यथार्थ में निरूपमा के प्रेमी पत्रकार प्रियभांषु ी कहीं न कहीं दोषी के रूप में खत्रडा है। हालांकि अ ी तक सच्चाई और यथार्थ के दृष्टिकोण से प्रेमी प्रिय ाषु रंजन ी दोषी है, मीडिया या अन्य चिंतक वर्ग ने ंिचंतन ही नहीं किया है। जबकि पूरे तथ्य इस प्रकरण में सूक्षमता और गहणता के साथ चिंतन की माग जरूर करता है। क्या महिला पत्रकार निरूपमा गर् वती नहीं थी। उसके गर् में एक-दो नहीं बल्कि चार माह से अधिक का शिशु पल रहा था। यह गर् जाहिरतौर पर असुरक्षित यौन संबध का परिणाम था। क्या नैतिकता शादी के पूर्व असुरक्षित यौन संबंध की इजाजत देती है?प्रियभांषु रंजन यह कहकर इस दोष से बच नहीं सकते हैं कि वह अज्ञानी था, मजदूर या अन्य अशिक्षित वर्ग का प्रतिनिधित्व करता था। प्रियभांषु रंजन देश का सबसे बत्रडी समाचार एजेन्सी में पत्रकार है। इसलिए वह समाज का सबसे बत्रडा जागरूक वर्ग से जुत्रडा हुआ है। रेडियो, टेलीविजन और अखबारों में असुरक्षित यौन संबंधों से संबंधित विज्ञापन और उसके परिणामों की चेतावनी सालों-साल से जारी है। यहां तक कि दीवार और होल्डिंगों पर ी ी यह चेतावनी नियमित प्रसारित होती है,अंकित होती है। क्या ऐसे विज्ञापन और चेतावनी एक पत्रकार के लिए कोई मायने नहीं रख्ता है तब हम समाज के अन्य कम जागरूक वर्ग से उम्मीद क्या कर सकते हैं? चार माह के गर् के बाद ी शादी का विकल्प क्यों नहीं चुना गया। यह कह देने मात्र से कि वह दोष से बरी नहीं हो सकता है कि निरूपमा के परिजन तैयार नहीं थे। कोर्ट मैरेज का विकल्प क्यो नहीं चुना गया। निरूपमा की जान खतरे में थी और वह धीरे-धीरे ऑनरकिलिंग की परिस्थितियों से धिर रही थी तब पुलिस और न्यायालय सहित मीडिया संस्थानों की सहायता क्यों नहीं ली गयी। पुलिस, न्यायालय और मीडिया संस्थानों के हस्तक्षेप से ऑनर किलिंग से निरूपमा बच सकती थी और वापस दिल्ली आ सकती थी।
निरूपमा अब इस दुनिया में नहीं है। इसलिए उसके प्रति प्रियभांषु कितना समर्पित था और ईमानादार था, इसे भी शक की निगाह से देखी जानी चाहिए। कही प्रियभांषु निरूपमा के साथ दोहरा खेल तो नहीं खेल रहा था। मोहरे से मोहरे लडाने में तो वह नहीं लगा था। निरूपमा के गर् को वह उसके घर वालों के माध्यम से ही निपटाना चाहता था क्या? क्योंकि गर् का प्रश्न हल हो जाने के बाद प्रियभांषु शादी के झमेले में पडने से ी बच सकता था। अगर ऐसी धारणा सही हो सकती है तो निरूपमा अपने परिजनों के साथ ही साथ अपने प्रेमी प्रियभांषु की भी साजिश का शिकार हुई है?
सिर्फ प्रियभांषु को मालूम था कि निरूपमा ऑनर किलिंग का ग्रास बनने जा रही है। क्या उसने निरूपमा की जान बचाने के लिए पुलिस और हाईकोर्ट में गुहार लगायी ? वह चुपचाप निरूपमा को ऑनर किलिंग के ग्रास में जाते देखता रहा। प्रियभांषु कब चिल्लाया? वह महिला आयोग और पत्रकार संगठनों का दरवाजा कब खट-खटकाया? मीडिया में अपनी खतरनाक प्रेम कहानी कब खोली? जब निरूपमा की हत्या हो चुकी थी। निरूपमा के परिजनों को सजा हो ही जायेगी पर निरूपमा की जान वापस आयेगी क्या? विवाह पूर्व असुरक्षित-खतरनाक यौन संबंध का ी दोषी है प्रियभांषु।
प्रेमी प्रियभांषु रंजन पर एक और गं ीर लापरवाही सामने आती है। प्रियभांषु के शब्दों में निरूपमा पाठक के परिजन किसी ी परिस्थिति में शादी नहीं होने देने के लिए कटिबद्ध थे। इसके लिए निरूपमा के परिजन प्यार, लोकलाज से लेकर इज्जत का ी हवाला देकर निरूपमा को प्रियभांषु से अलग करने की कोशिश हुई थी। निरूपमा पर उसके परिजनों ने कठोरता ी बरती थी।प्रियभांषु रंजन की ये स ी बातें सही हैं। ऐसी प्रक्रिया चली होगी। ऑनर किलिंग से पहले निरूपमा के परिजन ये स ी हथकंडे जरूर अपनाये होंगे। जो परिवार और जो घराना ऑनर किलिंग कर सकता है वह परिवार और घराना उसके पहले अपनी इज्जत का हवाला देकर कुछ ी कर सकता है। पिता द्वारा निरूपमा पाठक को लिखी गयी चिट्ठी ी इसकी गवाही देती है। यह सब यहां यह जताने के लिए तथ्य और ऑनर किलिंग की स्थितियां बतायी जा रही है ताकि यह स्पष्ट हो सके कि निरूपमा खतरे से घिरी हुई थी। खतरा उसके परिजनों से ही था। यह ी ज्ञात हुआ है कि वह कई महीनों से घर नहीं गयी थी। इस खतरे को देखते हुए ी निरूपमा अपने मां-पिता से मिलने झारखंड की कोडरमा शहर अपने घर गयी और जाने दिया गया। आम समझ यह है कि जब निरूपमा पर खतरा था वह ी ऑनर किलिंग की स्थितियां उत्पन्न होने या फिर उसके ग्रास बनाये जाने की तब निरूपमा को दिल्ली से कडोरमा जाने ही क्यों दिया गया। तर्क यह दिया जा रहा है कि उसकी मां ने अपनी बीमारी की झूठी खबर देकर बुलायी थी। यह तो पहले से ही स्पष्ट था कि उसके परिजन किसी ी खतरनाक और लोमहर्षक प्रक्रिया को अपना सकते हैं। ऐसी स्थिति में प्रिय ांषु रंजन को निरूपमा को कोडरमा जाने से रोकना चाहिए था। यह ी स्पष्ट हुआ है कि निरूपमा के प्रिय ाषु के साथ प्यार और शादी के लिए जिद करने की जानकारी परिजनों को थी पर वह चार महीने की गर् वती थी यह जानकारी निरूपमा के घर आने पर ही उसके परिजनो को हुई होगी। गांवों और कस्बायी महिलाओं को एक-दो दिन के गर् के लकक्षण ी पता चल जाता है। वह तो चार माह की गर् वती थी।
निरूपमा ऑनर किलिंग की ग्रास बनने की ओर अग्रसर हो रही है। ऐसी जानकारियां निरूपमा अपने प्रेमी प्रियभांषु रंजन को देती रही थी। एसएमएस और मोबाइल कॉल के द्वारा। टेलीविजनों और प्रिंट मीडिया में ी निरूपमा द्वारा प्रिय ांषु रंजन को ेजे गये एसएमएस दिखाया गया। एसएमएस में निरूपमा लिखती है कि कोई एक्सटीम एक्शन मत लेना। यानी निरूपमा को अपनी हत्या की आशंका ही नहीं बल्कि पूरा विश्वास हो गया था। वह जान रही थी कि अब उसका बचना मुश्किल है। उसके ाई और ाई के दोस्त उस पर नजर रखे हुए थे। मां और पिता वापस दिल्ली आने देने के लिए किसी ी परिस्थिति में तैयार नहीं थे। जबकि निरूपमा दिल्ली आना चाहती थी और अपना कैरियर जारी रखना चाहती थी। ऐसी सूचना मिलने पर तत्काल उसे सहायता की जरूरत थी। पर निरूपमा को सहायता मिली नहीं। निरूपमा की जान खतरे में है यह जानकारी सिर्फ और सिर्फ प्रियभांषु रंजन को थी। प्रियभांषु ने निरूपमा को सुरक्षा दिलाने और उसकी जान बचाने की कोई कार्रवाई नहीं की। प्रियभांषु रंजन झा रंजनरखंड ओर कोडरमा पुलिस से निरूपमा की जान बचाने की गुहार लगा सकता था। प्रत्रकार संगठनों को एक महिला पत्रकार की जान बचाने के लिए तत्काल मुहिम शुरू करने के लिए कह सकता था। इसके अलावा वह हाईकोर्ट जैसे जगह पर प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर कर निरूपमा को उसके परिजनों के चंगुल से मुक्त कराने का सफलतम प्रयास कर सकता था। क्या प्रियभांषु ने निरूपमा की जान बचाने के लिए पुलिस और हाईकोर्ट में गुहार लगायी? वह चुपचाप निरूपमा को ऑनर किलिंग के ग्रास में जाते देखता रहा। ऐसा मानो उसका निरूपमा से कोई वास्ता ही नहीं था।
प्रियभांषु कब चिल्लाया? वह महिला आयोग और पत्रकार संगठनों का दरवाजा कब खट-खटकाया? मीडिया कब अपनी खतरनाक प्रेम कहानी कब खोली? जब निरूपमा की हत्या हो चुकी थी। जब निरूपमा इस दुनिया में रही नहीं। ऐसी मुहिम का अब निरूपमा के लिए क्या मतलब? निरूपमा के परिजनों को सजा हो ही जायेगी पर निरूपमा की जान वापस आयेगी क्या? यह लापरवाही प्रियभांषु जान कर की है या अनजाने में। इस तथ्य का पता लगाना मुश्किल है। पर उसने खतरनाक त्रढग से लापरवाही बरती ही है।
जब घर वाले शादी के लिए राजी नहीं थे तब दोनों के पास कोर्ट मैरेज का विकल्प खुला था। हमारे जैसे अनेक लोगों का इस प्रकरण में राय यही बनी है कि अगर प्रियभांषु ने निरूपमा के साथ कोर्ट मैरेज कर लिया होता तो शायद यह हत्या नहीं होती। दिल्ली में आकर हत्या करने के लिए निरूपमा के परिजन सौ बार सोचते। ज्यादा से ज्यादा परिजन निरूपमा से नाता तोत्रड लेते। कई ऐसे उदाहरण सामने हैं जिसमें परिजनों के खिलाफ जाकर कोर्ट मैरिज हुई है और परिजनों से सुरक्षा के लिए कोर्ट ी खत्रडा हुआ है। अंतरजातीय ही नहीं बल्कि अंतधार्मिक शादियां धत्रडडले के साथ हो रही हैं और न्यायालय-प्रशासन सुरक्षा कवज के रूप में खत्रडा है। यह एक संवैधानिक जिम्मेदारी ी है।निरूपमा और प्रियभांषु दोनो वर्किग पत्रकार थे। दोनों अपने पैरों पर खत्रडे थे। इसके बाद ी यह विकल्प नहीं चुना जाना हैरतअंग्रेज बात है। जबकि दोनों के बीच 2007 से ही असुरक्षित प्रेम संबंध थे।
ऑनर किलिंग जैसी धटनाओ के लिए ारतीय समाज की विंसगतियां जिम्मेवार रही है। जातीय आधारित ारतीय समाज आज ी अपने को बदलने के लिए तैयार नहीं है। निरूपमा प्रकरण अकेली घटना नहीं है। अ ी हाल ही में न्यायालय ने हरियाणा में ऑनर किलिंग पर कत्रडी सजा सुनायी है। निरूपमा के हत्यारे परिजनों को कत्रडी सजा मिलनी चाहिए। इसके लिए पत्रकार संगठनों की सक्रियता जरूरी है। पत्रकार संगठनों और मीडिया ने निरूपमा को न्याय दिलाने के लिए सुर्खियां पर सुर्खियां बना रही है। इसी का परिणाम हुआ कि निरूपमा की मां जेल के अंदर हुई और उसके अन्य परिजन ी जेल जाने की प्रक्रिया में खत्रडे है। निरूपमा प्रकरण से ऑनर किलिंग मानसिकता को सबक मिलना चाहिए। पर हमें लापरवाह, गैर जिम्मेदार, असुरक्षित-खतरनाक यौन संबंध पर ी गौर करना चाहिए। लापरवाह, गैर जिम्मेदार, असुरक्षित-खतरनाक यौन संबंधों की प्रेम कहानी ने निरूपमा को मौत के मुंह में धकेला है और इसके लिए उसके प्रेमी प्रियभांषु रंजन ी जिम्मेदार है। इस गैर जिम्मेदार, लापरवाह, असुरक्षित और खतरनाक यौन संबंध की सजा क्या प्रियभांषु रंजन को मिलेगी।
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Saturday, May 1, 2010
ललित मोदी क्यों बने बलि का बकरा?
ललित मोदी क्यों बने बलि का बकरा?
विष्णुगुप्त
सरकार की एजेंसियां अगर चाकचौबंद,निष्पक्ष-दबावहीन जांच करें तो बड़े-बडे राजनीतिज्ञ, अधिकारी और उझोगपतियो की जगह जेलों में होगी। ललित मोदी को आनन-फानन में इसलिए चलता किया गया ताकि काली और बेनामी संपतियों के उजागर होने से बचाया जा सके और बीसीसीआई के खिलाफ उठा राजनीतिक तूफान को शांत किया जा सके। बीसीसीआई ने एक तरह से देश में सामानंतर सत्ता व्यवस्था कायम कर रखी थी।यह भी छानबीन करना होगा कि फ्रैचायजी टीमों में लगी संपत्तियां कहीं राष्ट्रविरोधी तो नहीं हैं?े बीसीसीआई-आईपीएल का पूरा तंत्र अलोकतांत्रिक और फर्जीवाड़ा से जकड़ा हुआ है।
आईपीएल के कमिशनर ललित मोदी दोषी हैं या नहीं? उस स्थिति में जब ललित मोदी अपने बयानों मे बार-बार दोहरा रहे हैं कि अब तक जितने फैसले हुए हैं वे सभी सामूहिम जिम्मेदारी के तहत ही लिये गये हैं और आईपीएल गवर्निंग बोर्ड की स्वीकृति उनके पास है। ललित मोदी कितना सच बोल रहे है-कितना झूठ बोल रहे है? इस पर तत्काल कुछ भी कहना संभव नहीं है। पर सच यह है कि ललित मोदी को जिस तरह से आनन-फानन में निलम्बित किया गया उसके निहितार्थ गंभीर है और बीसीसीआई की नीयत पर प्रश्न चिन्ह खड़ा होता है। बीसीसीआर्इ्र न सिर्फ लीपापोती के माध्सम से उठा तूफान को शांत करने के फिराक में है बल्कि बड़े खेलबाजों को बचाने की नीतियां बुन रही है। यह जाहिर हो चुका है कि फ्रैचायजी टीमों के शेयरों में बड़े-बड़े घोटाले हुए हैं, बेनामी सम्पतियां लगी हुई है और वे सम्पतियां राष्ट्रविरोधी भी हो सकती है? बीसीसीआई से जुड़े अधिकारियों और नेताओं की भी ब्लैकमनी फ्रैचायजी टीमो में लगी हुई है। नेताओं और अध्किारियों के पजिजनों की पहले शेयरों से सबंधित इनकार की सफाई और उसके बाद चुप्पी साध लेने पर शक की सुई और नुकुली हुई है। बीसीसीआई अब तक क्रिकेट के विकास के नाम पर आयकर, सर्विस टैक्स सहित अन्य करो का लाभ उठाता रहा है। क्रिकेट के विकास के नाम पर बीसीसीआई के खेलबाज अपनी-अपनी झोलियां ही भरी हैं। क्रिकेट गुलामीकाल की देन है और देशी खेलों के विकास पर कील। सरकार के पास अवसर है। सरकार बीसीसीआई की पूरी अनियमिताएं और फर्जीबाड़ा को सामने लाये और देश के कानूनो के घेरे में बीसीसीआई-आईपीएल की पूरी सक्रियता रहे। सरकार की एजेसिंया बड़े खेलबाजो की गर्दन मरोड़ सकेंगी? असली सवाल यही है?
बीसीसीआई-आईपीएल को सामानंतर सत्ता व्यवस्था बनाने की पूरी छूट मिली ही क्यों? क्या यूपीए-मनमोहन सिंह सरकार ने बीसीसीआई-आईपीएल को देश के कानूनाों से खेलने और राष्ट्रवाद की भावना को दफन बरने की छूट नहीं दी थी। क्या बीसीसीआई-आईपीएल ने देश में एक तरह से सामानंतर सत्ता व्यवस्था कायम नहीं कर रखी थी। बीसीसीआई ने यह नहीं कहा था कि खिलाड़ी भारत के लिए नही बल्कि बीसीसीआई के लिए खेलते है? क्या पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान भारत सरकार के सुरक्षा मुहैया कराने पर मना करने पर आईपीएल-2 को दक्षिण अफ्रीका नहीं ले जाया गया था। आईपीएल-2 को दक्षिण अफ्रीका ले जाने का अर्थ भारत सरकार को आईना दिखाना था। यह भी अहसास करना था कि हम भारत सरकार के दया पर निर्भर नहीं है। सार्वजनिक जगहो पर धूम्रपान करना मना है। इसके अलावा सार्वजनिक जगहों पर अश्लीलता फैलना भी कानूनी तौर पर अपराध है। आईपीएल मैचों के दौरान स्टेडियमो में खुलकर शराब बेची गयी। चीयर्स रीडरों ने अश्लीलता आधारित कानूनों को धजियां उड़ाने की कोई कसर नहीं छोड़ी। स्टेडियमों में सरेआम शराब परोसने और चीयर्स रीडरों के अश्लील नाच से देश भर में आक्रोश पनपा था। पर बीसीसीआई-आईपीएल ने भारतीय कानूनों की धजियां उड़ाने से बाज नहीं आयी और न ही सरकार ने बीसीसीआई-आईपीएल को ऐसा करने से रोका। ऐसे में बीसीसीआई-आईपीएल को ममनर्जी फैलाने और अराजक होने में प्रोत्साहन ही मिला।
बीसीसीआई और आईपीएल का पूरा तंत्र अलोकतांत्रिक और फर्जी बाड़ा पर निर्भर है। आईपीएल चैयरमैन ललित मोदी का निलंबन का प्रश्न भी कम गंभीर नहीं है? जाहिरतौर पर ललित मोदी पर पहले इस्तीफा देने का दबाव बनाया गया। ललित मोदी के इस्तीफा नहीं देने पर सीधेतौर पर उन्हें निलम्बित कर दिया गया। जबकि ललित मोदी को निलम्बन के पहले नोटिस दिया जाना चाहिए था। नोटिस दिया नहीं गया। खुद ललित मोदी ने अपने उपर अलिखित तौर पर उठाये गये आरोपों के जबाव के लिए पांच दिन का समय मांगा था। वे आईपीएल के गवर्निंग बोर्ड की बैठक में हिस्सा लेने के लिए तैयार थे। आईपीएल के चैयरमैन की हैसियत से ललित मोदी ने बैठक का एजेन्डा भी जारी कर दिया था। आधी रात में ही बिना कोई बैठक किये ही निलम्बन का ईमेल भेज दिया गया। अब यहां सवाल यह उठता है कि आईपीएल की गवर्निंग बोर्ड की बैठक में मोदी को हिस्सा लेने से क्यो रोका गया? बीसीसीआई और अन्य आईपीएल बोर्ड के सदस्यों की परेशानी क्या थी। जबकि फ्रैचायजी टीमें सीधे तौर पर मोदी के समर्थन में थी। जाहिरतौर पर मोदी अगर आईपीएल गवर्निंग बोर्ड की बैठक में होते तो अपने उपर लगे आरोपों का जवाब दे सकते थे और सबकी पोल खोल कर रख सकते थे। ऐसी स्थिति में बीसीसीआई की और बदनामी होती।
बीसीसीआई के अध्यक्ष शंशाक मनोहर का एक बयान काफी कुछ कह देता है। शंशाक मनोहर ने अपने एक बयान में कहा कि ललित मोदी ने शशि थरूर के शेयरों की बात उजागर कर गलती की है और आईपीएल के नियमों को तोड़ा है। शशि थरूर की अप्रत्यक्ष हिस्सेदारी की बात उजागर होने के बाद ही आईपीएल के खिलाफ देश की राजनीति में उफान उठा था और शथि थरूर को मंत्री पर गंवानी पड़ी थी। विदेश राज्य मंत्री जैसे जिम्मेवार पद पर रहने के बावजूद शशि थरूर द्वारा ललित मोदी पर दबाव डालना एक बड़ा अपराध था। अगर ललित मोदी चुप बैठ गये होते तो शायद आईपीएल के अंदर खाने में क्या कुछ हो रहा है यह बात भी सामने नहीं आती। शंशाक मनोहर के उक्त बयान का सीधा अर्थ यह है कि ललित मोदी ने शशि थरूर के कोच्चि टीम में अप्रत्यक्ष हिस्सेदारी का प्रश्न उठाकर बीसीसीआई को संकट में डाला है। इसलिए ललित मोदी दंड के अधिकारी हैं।
बीसीसीआई पर कब्जा किये लोगों पर आप एक नजर डाल लीजिये। शरद पवार जैसे राजनीतिज्ञ के कब्जे में पूरी तरह से बीसीसीआई है। शरद पवार ने अपनी राजनीतिक ताकत और फर्जीबाड़ा कर जगमोहन डालमिया से बीसीसीआई को कब्जे में लिया था। जगमोहन डालमियां ही वह शख्त थे जिन्होंने बीसीसीआई को मालोमाल किया। इतना ही नहीं बल्कि डालमिया ने क्र्रिकेट पर अग्रेजों के प्रभाव को महत्वहीन किया था। शरद पवार ने बीसीसीआई को अपने अनुसार जमकर नचाया और बाजारू बनाया। शरद पवार ने अपना टर्म पूरा होने पर बीसीसीआई को अपने लट्टु शंशाक मनोहर को सौंप दिया। शंशाक मनोहर पूरी तरह से शरद पवार के छत्रछाया में बीसीसीआई को संचालित कर रहे हैं। आईपीएल के गड़बड़ झाला में शरद पवार भी दूध को धोये हुए नहीं हैं। शरद पवार की बेटी सुप्रीया के पति पर आईपीएल की एक फ्रैचायजी टीम के शेयर होने के आरोप हैं। शरद पवार की पार्टी के मंत्री प्रफुल्ल पटेल पहले ही आईपीएल विवाद में फंस चुके हैं। प्रफुल्ल पटेल की बेटी पूर्णा पटेल ने अपने पिता के मंत्री पद का नाजायत लाभ उठाया है और अधिकारों का दुरूप्रयोग किया है।
ललित मोदी को आनन-फानन में इसलिए चलता किया गया ताकि बड़े खेलबाजों को बचाया जा सके। बड़े खेलबाज राजनीतिज्ञों, उघोगपतियों और अधिकारियों के कालेधन के उजागर होने से बचाया जा सके। शशि थरूर प्रकरण उठने के बाद आये राजनीतिक तूफान ने मनमोहन सरकार को घेरा। जन दबाव में आकर मनमोहन सिंह सरकार सक्रिय हुईं। सरकार की विभिन्न एजेसिंयों से जांच कराने की सक्रियता भी बढ़ी। आयकर विभाग, पर्वतन निदेशालय के साथ ही साथ गृह मंत्रालय की आईपीएल घोटाले की जांच कर रहा है। संसद में आईपीएल घपलेबाजी की पूरी तह खोलने की वायदा भी मनमोहन सरकार कर चुकी है। प्रारंभिक जांच में यह साबित हो चुका है कि आयकर की चोरी हुई है। सर्विस टैक्स सहित अन्य टैक्सों पर अनियमितता बरती गयी है। खिलाडियों के शर्तनामे भी विवादास्पद हैं। ललित मोदी के निलम्बन मात्र से मनमोहन सरकार को संतुष्ट नहीं होना चाहिए बल्कि बीसीसीआई और आईपीएल की फ्रैचायजी टीमों के बैनामी हिस्सेदारी और लगी ब्लैकमनी को उजागर करना चाहिए। यह भी छानबीन करना होगा कि फ्रैचायजी टीमों में लगी संपत्तियां कहीं राष्ट्रविरोधी तो नहीं हैं?े
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विष्णुगुप्त
सरकार की एजेंसियां अगर चाकचौबंद,निष्पक्ष-दबावहीन जांच करें तो बड़े-बडे राजनीतिज्ञ, अधिकारी और उझोगपतियो की जगह जेलों में होगी। ललित मोदी को आनन-फानन में इसलिए चलता किया गया ताकि काली और बेनामी संपतियों के उजागर होने से बचाया जा सके और बीसीसीआई के खिलाफ उठा राजनीतिक तूफान को शांत किया जा सके। बीसीसीआई ने एक तरह से देश में सामानंतर सत्ता व्यवस्था कायम कर रखी थी।यह भी छानबीन करना होगा कि फ्रैचायजी टीमों में लगी संपत्तियां कहीं राष्ट्रविरोधी तो नहीं हैं?े बीसीसीआई-आईपीएल का पूरा तंत्र अलोकतांत्रिक और फर्जीवाड़ा से जकड़ा हुआ है।
आईपीएल के कमिशनर ललित मोदी दोषी हैं या नहीं? उस स्थिति में जब ललित मोदी अपने बयानों मे बार-बार दोहरा रहे हैं कि अब तक जितने फैसले हुए हैं वे सभी सामूहिम जिम्मेदारी के तहत ही लिये गये हैं और आईपीएल गवर्निंग बोर्ड की स्वीकृति उनके पास है। ललित मोदी कितना सच बोल रहे है-कितना झूठ बोल रहे है? इस पर तत्काल कुछ भी कहना संभव नहीं है। पर सच यह है कि ललित मोदी को जिस तरह से आनन-फानन में निलम्बित किया गया उसके निहितार्थ गंभीर है और बीसीसीआई की नीयत पर प्रश्न चिन्ह खड़ा होता है। बीसीसीआर्इ्र न सिर्फ लीपापोती के माध्सम से उठा तूफान को शांत करने के फिराक में है बल्कि बड़े खेलबाजों को बचाने की नीतियां बुन रही है। यह जाहिर हो चुका है कि फ्रैचायजी टीमों के शेयरों में बड़े-बड़े घोटाले हुए हैं, बेनामी सम्पतियां लगी हुई है और वे सम्पतियां राष्ट्रविरोधी भी हो सकती है? बीसीसीआई से जुड़े अधिकारियों और नेताओं की भी ब्लैकमनी फ्रैचायजी टीमो में लगी हुई है। नेताओं और अध्किारियों के पजिजनों की पहले शेयरों से सबंधित इनकार की सफाई और उसके बाद चुप्पी साध लेने पर शक की सुई और नुकुली हुई है। बीसीसीआई अब तक क्रिकेट के विकास के नाम पर आयकर, सर्विस टैक्स सहित अन्य करो का लाभ उठाता रहा है। क्रिकेट के विकास के नाम पर बीसीसीआई के खेलबाज अपनी-अपनी झोलियां ही भरी हैं। क्रिकेट गुलामीकाल की देन है और देशी खेलों के विकास पर कील। सरकार के पास अवसर है। सरकार बीसीसीआई की पूरी अनियमिताएं और फर्जीबाड़ा को सामने लाये और देश के कानूनो के घेरे में बीसीसीआई-आईपीएल की पूरी सक्रियता रहे। सरकार की एजेसिंया बड़े खेलबाजो की गर्दन मरोड़ सकेंगी? असली सवाल यही है?
बीसीसीआई-आईपीएल को सामानंतर सत्ता व्यवस्था बनाने की पूरी छूट मिली ही क्यों? क्या यूपीए-मनमोहन सिंह सरकार ने बीसीसीआई-आईपीएल को देश के कानूनाों से खेलने और राष्ट्रवाद की भावना को दफन बरने की छूट नहीं दी थी। क्या बीसीसीआई-आईपीएल ने देश में एक तरह से सामानंतर सत्ता व्यवस्था कायम नहीं कर रखी थी। बीसीसीआई ने यह नहीं कहा था कि खिलाड़ी भारत के लिए नही बल्कि बीसीसीआई के लिए खेलते है? क्या पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान भारत सरकार के सुरक्षा मुहैया कराने पर मना करने पर आईपीएल-2 को दक्षिण अफ्रीका नहीं ले जाया गया था। आईपीएल-2 को दक्षिण अफ्रीका ले जाने का अर्थ भारत सरकार को आईना दिखाना था। यह भी अहसास करना था कि हम भारत सरकार के दया पर निर्भर नहीं है। सार्वजनिक जगहो पर धूम्रपान करना मना है। इसके अलावा सार्वजनिक जगहों पर अश्लीलता फैलना भी कानूनी तौर पर अपराध है। आईपीएल मैचों के दौरान स्टेडियमो में खुलकर शराब बेची गयी। चीयर्स रीडरों ने अश्लीलता आधारित कानूनों को धजियां उड़ाने की कोई कसर नहीं छोड़ी। स्टेडियमों में सरेआम शराब परोसने और चीयर्स रीडरों के अश्लील नाच से देश भर में आक्रोश पनपा था। पर बीसीसीआई-आईपीएल ने भारतीय कानूनों की धजियां उड़ाने से बाज नहीं आयी और न ही सरकार ने बीसीसीआई-आईपीएल को ऐसा करने से रोका। ऐसे में बीसीसीआई-आईपीएल को ममनर्जी फैलाने और अराजक होने में प्रोत्साहन ही मिला।
बीसीसीआई और आईपीएल का पूरा तंत्र अलोकतांत्रिक और फर्जी बाड़ा पर निर्भर है। आईपीएल चैयरमैन ललित मोदी का निलंबन का प्रश्न भी कम गंभीर नहीं है? जाहिरतौर पर ललित मोदी पर पहले इस्तीफा देने का दबाव बनाया गया। ललित मोदी के इस्तीफा नहीं देने पर सीधेतौर पर उन्हें निलम्बित कर दिया गया। जबकि ललित मोदी को निलम्बन के पहले नोटिस दिया जाना चाहिए था। नोटिस दिया नहीं गया। खुद ललित मोदी ने अपने उपर अलिखित तौर पर उठाये गये आरोपों के जबाव के लिए पांच दिन का समय मांगा था। वे आईपीएल के गवर्निंग बोर्ड की बैठक में हिस्सा लेने के लिए तैयार थे। आईपीएल के चैयरमैन की हैसियत से ललित मोदी ने बैठक का एजेन्डा भी जारी कर दिया था। आधी रात में ही बिना कोई बैठक किये ही निलम्बन का ईमेल भेज दिया गया। अब यहां सवाल यह उठता है कि आईपीएल की गवर्निंग बोर्ड की बैठक में मोदी को हिस्सा लेने से क्यो रोका गया? बीसीसीआई और अन्य आईपीएल बोर्ड के सदस्यों की परेशानी क्या थी। जबकि फ्रैचायजी टीमें सीधे तौर पर मोदी के समर्थन में थी। जाहिरतौर पर मोदी अगर आईपीएल गवर्निंग बोर्ड की बैठक में होते तो अपने उपर लगे आरोपों का जवाब दे सकते थे और सबकी पोल खोल कर रख सकते थे। ऐसी स्थिति में बीसीसीआई की और बदनामी होती।
बीसीसीआई के अध्यक्ष शंशाक मनोहर का एक बयान काफी कुछ कह देता है। शंशाक मनोहर ने अपने एक बयान में कहा कि ललित मोदी ने शशि थरूर के शेयरों की बात उजागर कर गलती की है और आईपीएल के नियमों को तोड़ा है। शशि थरूर की अप्रत्यक्ष हिस्सेदारी की बात उजागर होने के बाद ही आईपीएल के खिलाफ देश की राजनीति में उफान उठा था और शथि थरूर को मंत्री पर गंवानी पड़ी थी। विदेश राज्य मंत्री जैसे जिम्मेवार पद पर रहने के बावजूद शशि थरूर द्वारा ललित मोदी पर दबाव डालना एक बड़ा अपराध था। अगर ललित मोदी चुप बैठ गये होते तो शायद आईपीएल के अंदर खाने में क्या कुछ हो रहा है यह बात भी सामने नहीं आती। शंशाक मनोहर के उक्त बयान का सीधा अर्थ यह है कि ललित मोदी ने शशि थरूर के कोच्चि टीम में अप्रत्यक्ष हिस्सेदारी का प्रश्न उठाकर बीसीसीआई को संकट में डाला है। इसलिए ललित मोदी दंड के अधिकारी हैं।
बीसीसीआई पर कब्जा किये लोगों पर आप एक नजर डाल लीजिये। शरद पवार जैसे राजनीतिज्ञ के कब्जे में पूरी तरह से बीसीसीआई है। शरद पवार ने अपनी राजनीतिक ताकत और फर्जीबाड़ा कर जगमोहन डालमिया से बीसीसीआई को कब्जे में लिया था। जगमोहन डालमियां ही वह शख्त थे जिन्होंने बीसीसीआई को मालोमाल किया। इतना ही नहीं बल्कि डालमिया ने क्र्रिकेट पर अग्रेजों के प्रभाव को महत्वहीन किया था। शरद पवार ने बीसीसीआई को अपने अनुसार जमकर नचाया और बाजारू बनाया। शरद पवार ने अपना टर्म पूरा होने पर बीसीसीआई को अपने लट्टु शंशाक मनोहर को सौंप दिया। शंशाक मनोहर पूरी तरह से शरद पवार के छत्रछाया में बीसीसीआई को संचालित कर रहे हैं। आईपीएल के गड़बड़ झाला में शरद पवार भी दूध को धोये हुए नहीं हैं। शरद पवार की बेटी सुप्रीया के पति पर आईपीएल की एक फ्रैचायजी टीम के शेयर होने के आरोप हैं। शरद पवार की पार्टी के मंत्री प्रफुल्ल पटेल पहले ही आईपीएल विवाद में फंस चुके हैं। प्रफुल्ल पटेल की बेटी पूर्णा पटेल ने अपने पिता के मंत्री पद का नाजायत लाभ उठाया है और अधिकारों का दुरूप्रयोग किया है।
ललित मोदी को आनन-फानन में इसलिए चलता किया गया ताकि बड़े खेलबाजों को बचाया जा सके। बड़े खेलबाज राजनीतिज्ञों, उघोगपतियों और अधिकारियों के कालेधन के उजागर होने से बचाया जा सके। शशि थरूर प्रकरण उठने के बाद आये राजनीतिक तूफान ने मनमोहन सरकार को घेरा। जन दबाव में आकर मनमोहन सिंह सरकार सक्रिय हुईं। सरकार की विभिन्न एजेसिंयों से जांच कराने की सक्रियता भी बढ़ी। आयकर विभाग, पर्वतन निदेशालय के साथ ही साथ गृह मंत्रालय की आईपीएल घोटाले की जांच कर रहा है। संसद में आईपीएल घपलेबाजी की पूरी तह खोलने की वायदा भी मनमोहन सरकार कर चुकी है। प्रारंभिक जांच में यह साबित हो चुका है कि आयकर की चोरी हुई है। सर्विस टैक्स सहित अन्य टैक्सों पर अनियमितता बरती गयी है। खिलाडियों के शर्तनामे भी विवादास्पद हैं। ललित मोदी के निलम्बन मात्र से मनमोहन सरकार को संतुष्ट नहीं होना चाहिए बल्कि बीसीसीआई और आईपीएल की फ्रैचायजी टीमों के बैनामी हिस्सेदारी और लगी ब्लैकमनी को उजागर करना चाहिए। यह भी छानबीन करना होगा कि फ्रैचायजी टीमों में लगी संपत्तियां कहीं राष्ट्रविरोधी तो नहीं हैं?े
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