Monday, September 28, 2020

कुशासन जीतेगा या जंगलराज की होगी वापसी

 


 

     राष्ट्र-चिंतन

बिहार विधान सभा चुंनाव/ लालू जंगलराज तो नीतीश कुशासन के प्रतीक बन गये

कुशासन जीतेगा या जंगलराज की होगी वापसी
        
                     विष्णुगुप्त   




बिहार में राजनीति के निर्णायक दो ही पात्र हैं। एक राजनीतिक पात्र हैं नीतीश कुमार और दूसरे राजनीतिक  पात्र हैं लालू प्रसाद यादव। इन्ही दो राजनीतिक पात्रों के बीच बिहार की राजनीति घूमती-फिरती है, उफान मारती है, नैतिकता और अनैतिकता की कहानी लिखती है। दोनो राजनीतिक पात्रों की तुलना बदबूदार और अप्रिय तथा लोमहर्षक् प्रतीकों से होती है। बिहार की जनता ने इन दोनों राजनीतिक पात्रों के लिए लोमहर्षक्, अप्रिय और अपमानजन प्रतीक गढे हैं। जहां नीतीश कुमार को कुशासन के प्रतीक के तौर पर जाना जाता है वहीं लालू प्रसाद यादव को जंगलराज के प्रतीक के तौर पर जाना जाता है। ऐसा भी नहीं है कि ये दोनों प्रतीकें हवाहवाई हैं, या तथ्य से परे हैं, या फिर इन प्रतीको को गढने में बिहार की जनता ने कोई चूक की है। नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव ने ऐसे प्रतीकों को गढने के लिए बिहार की जनता को एक तरह से बाध्य किया है।
                                           इस बिहार विधान सभा चुनाव में आज भी वहीं राजनीतिक प्रश्न खडे हैं जो राजनीतिक प्रश्न लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के राजनीतिक उदय काल से खड़े हैं और ये दोनों राजनीतिक बदबूदारों ने इन्ही प्रश्नों की शक्ति से अपनी-अपनी सत्ता कायम की थी, अपनी-अपनी राजनीतिक स्थापित की थी। अब यहां यह प्रश्न खडा होगा कि ये राजनीतिक प्रश्न क्या थे जिन पर लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने अपनी-अपनी सत्ता कायम की थी और बिहार की जनता के भाग्यविधाता बने थे। एक प्रश्न यह है कि बिहार की जनता इन दोनों बदबूदार और अप्रिय तथा लोमहर्षक राजनीतिक प्रतीकों से छूटकारा क्यों नहीं लेना चाहती है, बिहार की जनता कोई नया राजनीतिक विकल्प क्यों नहीं खोजती है? इस विधान सभा में कोई तीसरी शक्ति का उदय और तीसरा विकल्प बनने की कोई संभावना है या नहीं?
                                               बैरोजगारी, काम का अभाव, बाढ की समस्या का समाधान, सुखाड़ की समस्या का समाधान, उधोग धंधे विकसित नहीं होने का दर्द, पलायन का दर्द, जातीय गोलबंदी, अपराध, शिक्षा में अराजकता और भ्रष्टचार जैसे प्रश्न ही आज बिहार की जनता की जबान पर हैं। अपनी-अपनी विजय के लिए राजनीतिक पार्टियां भी इन्हीे प्रश्नों पर अपनी राजनीतिक शक्ति का प्रदर्शन कर रही हैं। यह प्रश्न तो उस काल स ेअब तक खड़ा है जिस काल में बिहार के उपर कांग्रेस का शासन होता था और कांग्रेस के नेता जगरन्नाथ मिश्र बिहार की जनता का चेहरा होते थे। सबसे बडी समस्या पलायन की हैं। बिहार ही क्यों बल्कि पूरे देश की जनता यह जानती है कि बिहार मे पलायन की समस्या प्रमुख है, पलायन करने वाले मजदूर और छात्र बिहार से बाहर रोज-रोज प्रताड़ित होते हैं, अपमान सहते हैं, तिरस्कार का पात्र बनते हैं। अगर बिहार में ही मजदूरों को काम मिलता, बिहार में ही छात्रों की सभी प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था होती तो फिर मजदूर या छात्र बिहार से पलायन कर दूसरे राज्यों में क्यो जाने के लिए विवश होते? लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की पार्टी कहती है कि हम रोजगार देंगे, नौकरियां देगे, सम्मान देंगे पर जब ये प्रश्न खडा किया जायेगा कि पिछली सरकार जब आपकी थी तब आपने हजारों-लाखों बिहारी समाज को रोजगार क्यों नहीं दिया, नौकरियां क्यों नहीं दिया, सम्मान क्यों नहीं दिया? ऐसे प्रश्नों पर आपको पिछड़ा विरोधी या फिर सांप्रदायिक कह कर अपमानित कर दिया जायेगा, किसी राजनीतिक दल का एजेंट घोषित कर दिया जायेगा।
                                          लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने कोई एक, दो साल नहीं बल्कि पूरे तीस साल बर्बाद किये है, इन तीस सालों में बिहार की जनता के सपनों को न केवल कुचला गया है बल्कि उनके सपनों को कब्र में दफनाया भी गया है। बिहार में 15 सालों तक लालू प्रसाद यादव के परिवार का शासन रहा है तो फिर पन्द्रह साल तक नीतीश कुमार का शासन रहा है। दोनों जनता के मसीहा होने के नाम पर सत्ता स्थापित की थीं। पर लालू प्रसाद यादव का राज जंगलराज में तब्दील हो गया। यादव और मुस्लिम गुंडागर्दी सरेआम नंगा नाच करती थी। शिक्षा जगत अराजक हो गया था, विश्वविद्यालयों का सत्र तीन से पांच-पांच साल तक पीछे हो गये थे, इस कारण बिहार के छात्रों का भविष्य चैपट हुआ, विश्वविद्यालयों के कुलपति और प्रचार्य के पदों पर बोली लगती थी। बिहार को जातीय गोलबंदी में कैद कर दिया गया था, पिछड़ा उत्थान की बात छलावा थी। दुष्परिणाम स्वरूप यादव विरोधी पिछडी जातियों की जागरूकता बढी और जंगलराज का पतन हुआ। जंगलराज के पतन के लिए सुशासन का नारा दिया गया था। कुछ समय तक नीतीश कुमार सुशासन के प्रतीक जरूर बनें पर उनका सुशाासन भी धीरे-धीरे कुशासन में तब्दील हो गया। नीतीश कुमार जैसा अनैतिकबाज भारतीय राजनीति में खोजने से भी नहीं मिलेगा। जिस जंगलराज और लालू के विरोध के नाम पर सत्ता पायी थी उसी जंगलराज और लालू की गोद मे जा बैठे। फिर वे लालू से धोखाधडी कर भाजपा को फिर से गले लगा लिया। नीतीश कुमार ने जिस भाजपा को लात मारी थी उसी भाजपा ने नीतीश कुमार की चरणवंदना करने के लिए तैयार हो गयी। आज का बिहार भी जंगलराज के आस-पास ही खडा है जहां पर अपराध चरम पर है, जातीय गोलंबदी भी उसी प्रकार की है, भ्रष्टचार चरमपर है, नोकरशाही बैलगाम है। केन्द्रीय मद से आने वाली राशि से सड़कें जरूर बनी हैं पर शिक्षक स्कूल नहीं जाते, अस्पतालो का बुरा हाल है। हर सरकारी कार्यालयों में बिना भ्रष्टचार का कोई काम होता नहीं। बिहार को नाॅलेज हब बना कर बिहार की छवि चमकायी जा सकती थी, नाॅलेज हब से बिहार में लाखों रोजगार सृजित होते, बिहार की अर्थव्यवस्था भी नाॅलेब हब से गुड फील करती। सिर्फ और सिर्फ नशाबंदी के भरोसे नीतीश कुमार अपनी गाल बजा रहे हैं।
                                           बिहार में औद्योगिक निवेश क्यों नहीं होता, कोई बडी-बडी कंपनी बिहार क्यों नहीं आती। जबकि बिहार में सस्ता और मेहनती मजदूर हैं। बिहार में इजीनियर और प्रबंधन क्षेत्र के विशेषज्ञों की कोई कमी नहीं है। अगर बिहार में औद्योगिक क्रांति होती तो फिर बिहार की जनता दूसरे राज्यो में अपमानित होने क्यों जाती? लालू प्रसाद यादव हों या फिर नीतीश कुमार, ये दोनों अपनी मूर्खता और अंहकार से एक तरह से बिहार को बर्बाद करने का काम किया। औद्योगिक क्रांति के लिए और वर्तमान समय के अनुसार निवेश के लिए जरूरी प्राथमिकताओं के प्रति उदासनीता टूटती नहीं है। कानून व्यवस्था की स्थिति कभी भी ठीक नहीं हुई, राजनीतिक स्थिरता की गारंटी भी नहीं मिली। राजनीतिक हस्पक्षेप की कुप्रथा से कोई बिहार की ओर देखने का अपराध क्यों करेगा?
                                              निश्चित तौर तीन हस्तियां बिहार की बर्बादी के कारण रही हैं। लालू, नीतीश और जगरन्नाथ मिश्रा। जगरन्नाथ मिश्रा अब स्वर्गीय हो गये। जगरन्नाथ मिश्रा भी लंबे समय तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे थे। लालू को जंगलराज और नीतीश कुमार के कुशासन की तरह जगरन्नाथ मिज्ञा को भी नकद नारायण मिज्ञा की कुपदवि हासिल थी। जगरन्नाथ मिश्रा को बईमान राजनीतिज्ञ के तौर पर देखा जाता था। जगरन्नाथ मिश्रा ही बिहार की राजनीति मे जातिवाद के बीज रोपण के दोषी है। जगरन्नाथ मिश्रा ने बिहार की राजनीति को अगडी जातियो की रखैल बना दिया था। जगरन्नाथ मिश्रा की ही फसल लालू प्रसाद यादव ने काटी थी। जगरन्नाथ मिश्रा के अगडीवाद की जगह पर लालू का पिछडावाद की विजय हुई थी।
                                        बिहार की जनता की मजबूरी समझी जा सकती है। बिहार की जनता के पास विकल्प कहां हैं। लालू प्रसाद यादव के परिवार या फिर नीतीश कुमार के गठबंधन में ही से किसी का चुनाव करना है। अब यहां यह भी प्रश्न है तीसरा विकल्प क्यो नहीं बन सकता है। तीसरा कोई विकल्प ही नहीं है। कथित सांप्रदायिकता के नाम पर वामपंथी और कांग्रेस लालू परिवार की गोद में ही बैठे हुए हैं। कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों का अति मुस्लिम प्रेम भी बिहार के चुनावी राजनीतिक फैसले को प्रभावित करेगा। खास कर कम्युनिस्ट पार्टियां जैसे ही अपना जनाधार बढाने की कोशिश करती है वैसे ही उन पर राष्ट्रवाद का बुलडोजर चल जाता है। राष्ट्रवादी ताकतें कम्युनिस्टों को टूकडे-टूकडे गिरोह कह कर हिन्दू विरोधी साबित कर देती हैं। कांग्रेस तो हमेशा अति मुस्लिम वाद की चपेट में खडी रहती है। लालू खुद यह कह कर अपनी मिट्टी खोद लिये थे कि उन्होंने अडवाणियां को गिरफतार कर सांप्रदायिकता का कान मरोड दिया था। आडवाणी को आडवाणियां कहना और रथयात्रा को रोकने का दंभ भरना आत्मघाती हैं। अब हिन्दू समर्थक वोटर लालू के ऐसे वचणों के प्रति चरणंवदना करने वाले नहीं हैं। प्रतिक्रिया भी नुकसानदायक होती है। बिहार में जिधर मुस्लिम वोटर जायेंगे उधर हिन्दू वोटर जायेंगे नहीं। ऐसा रूख अब आम हो चला है। ऐसी राजनीतिक प्रतिक्रिया में नुकसान किसको होगा, आप अनुमान लगा सकते हैं।
                                                                                                                  दुर्भाग्य बिहार की जनता का ही है। चाहे जीत जंगलराज की होगी या फिर चाहे जीत कुशासन की होगी, नुकसान तो बिहार की जनता का ही होना है। बिहार एक बार फिर वर्षो से पीछे चला जायेगा। बिहार के लोग आगे भी पलायन और अपमान का दंश झेलने के लिए विवश होंगे, बिहार में विकास छलावा ही साबित होगा।


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Sunday, September 20, 2020

सिखों और हिन्दुओं के अस्तित्व पर लव जिहाद की कील

 


 

राष्ट्र-चिंतन

एक और सिख लड़की का अपहरण कर धर्म परिवर्तन कराकर निकाह

सिखों और हिन्दुओं के अस्तित्व पर लव जिहाद की कील
       
                       विष्णुगुप्त




पाकिस्तान अपने आप को इस्लामिक रिपब्लिक कहता है। इस्लामिक रिपब्लिक का अर्थ इस्लाम का शासन, कुरान का शासन, लोकतंत्र का कब्र, काफिरों के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह होता है। कुरान में गैर मुस्लिमों को काफिर कहा गया है और काफिरों के अस्तित्व नाश का फरमान दिया गया है। दुनिया में जो भी देश अपने आप को इस्लामिक रिपब्लिक कहता है वह देश काफिरों के लिए एक बर्बर, अमानवीय है, हिंसक और लहूलुहान वाली मानसिकताओं का सहचर होता है। जाहिरतौर पर पाकिस्तान अपने आप को न केवल इस्लामिक रिपब्लिक कहता है बल्कि कुरान के शासन के प्रति भी अपने आप को समर्पित करता है, सिर्फ पाकिस्तान में स्थापित सरकारें ही नहीं बल्कि वहां की सेना और गुप्तचर एजेंसी आईएसआई तो कुरान के एकमेव शासन को कड़ाई और हिंसक तौर पर लागू करने के लिए समर्पित ही है, इससे आगे बढकर एक पर एक ऐसे इस्लामिक संगठन भी हैं जो हिंसक तौर पर कुरान के शासन लागू कराने के लिए सक्रिय रहते हैं, इस्लामिक संगठन न केवल सक्रिय रहते हैं बल्कि कुरान के शासन लागू करने के लिए हिंसा और आतंकवाद का सहारा लेते हैं। कौन नहीं जानता है कि पाकिस्तान के अंदर में कुरान के शासन को लागू करने के लिए अलकायदा, तालिबान जैसे सैकडों इस्लामिक संगठन हैं जो सरेआम काफिर यानी हिन्दुओं और सिखों को जबरदस्ती मुसलमान बनने या फिर पलायन करने का विकल्प देते हैं। होशियार और सक्षम हिन्दू-सिख पाकिस्तान जैसे इस्लामिक रिपब्लिक देश से पलायन करना ही बेहतर समझता है। पाकिस्तान के हजारों सिख और हिन्दू भारत आकर अपनी व्यथा बताते हैं और स्थायी शरण के लिए विवश होते हैं। पाकिस्तान से आये हिन्दू और सिख जिस तरह से अपनी संवेदनाएं रखते हैं, अपनी उत्पीड़न की कहानी बताते हैं, पाकिस्तान की सरकार, सेना और आईएसआई सहित इस्लामिक आतंकवादी संगठनों की करतूत बताते हैं, उसे सुनकर रोंगटें खडे हो जाते हैं।
                                  आतंकवाद, हिंसा और अपमान से भी पाकिस्तान के हिन्दू और सिख नहीं टूटे तथा मुसलमान बनना स्वीकार नहीं किये तो फिर एक अलग तरह का हथकंडा अपना लिया गया। वह हथकंडा है लव जिहाद का। अभी-अभी पाकिस्तान के अंदर में एक सिख लडकी का प्रश्न दुनिया में चर्चित हुआ है और दुनिया भर में यह भी प्रश्न उठा है कि एक इस्लामिक रिपब्लिक देश में गैर मुस्लिम लड़कियों को लव जिहाद से कैसे बचाया जाये और उनके मानवाधिकार को कैसे सुरक्षित किया जाये। सिख लडकी का अपहरण और जबरदस्ती निकाह की घटना लोमहर्षक है, बर्बर है और सिखों के अस्तित्व पर कुठाराघात है, सिखों के अस्तित्व पर कील ठोकने जैसा है। घटना पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के नजदीक हासन अब्दाल क्षेत्र की है। सिख लडकी किसी काम से घर से निकली थी। एक आतंकवादी मानसिकता का मुस्लिम युवक ने अपने साथियों के साथ उसका अपहरण कर लिया। इसके बाद उसका धर्म परिवर्तन कराया जाता है, फिर उसका निकाह पढाया जाता है। सिख लडकी को उसके परिवार सहित हत्या करने की धमकी दी जाती है। सिख लडकी के परिजन पुलिस के पास जाते हैं, प्रांतीय सरकार के मंत्रियों के पास जाते है फिर भी कोई सुनवाई नहीं होती है। पिछले साल भी गुरूद्वारा के एक ज्ञाणी की पुत्री का अपहरण कर निकाह पढाया गया था। उस घटना को लेकर पूरे पाकिस्तान में प्रदर्शन हुए थे, भारत सहित कई यूरोपीय देशों में प्रदर्शन हुए थे। अंतर्राष्ट्रीय दबाबों के बाद पाकिस्तान की सरकार ने न्याय की बात कही थी। पर उस ज्ञानी को न्याय नहीं मिला। उस सिख लडकी को एक साल तक पुलिस और इस्लामिक संगठनों की अभिरक्षा में रखा गया था। फिर उस लडकी को उसके कथित शौहर के साथ रहने के लिए भेज दिया गया।
                                          जब सरकार और शासन इस्लामिक रिपब्लिक का होगा तब न्याय के स्तंभ भी इस्लामिक दृष्टिकोण के ही होंगे, उन पर इस्लामिक संविधान और काफिर मानसिकता की कसौटी पर ही न्याय करने की बाध्यता होती हैं, न्याय करने वाला व्यक्ति भी इस्लामिक कानून और शासन का प्रशिक्षित होता हैं, उसका समर्पण भी कुरान की काफिर मानसिकताओं के प्रति होता है। यह पाकिस्तान के अंदर में ही नहीं बल्कि उन सभी मुस्लिम देशों में सरेआम परिलक्षित होता है जो मुस्लिम देश अपने आप को इस्लामिक रिपब्लिक कहते हैं और जहां पर कुरान की काफिर मानसिकताओं पर आधारित सरकारें होती हैं। सबसे पहले यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अभियोजन चलाने वाली पुलिस भी इस्लामिक रंग में रंगी होती हैं। इस्लामिक देश की पुलिस भी न तो उदारवाद होती है और न ही उसके लिए गैर मुस्लिम संवर्ग के लोगों के लिए कोई सम्मान। इस्लामिक न्यायपालिका अभिरक्षा में किसी हिन्दू, सिख या फिर ईसाई लड़की को भेजती है तो फिर इस्लामिक मानसिकता से स्थापित संस्थाओं में ही उसे रहने के लिए बाध्य किया जाता है। ऐसे अभिरक्षा इस्लामिक संस्थाओं में रखे जाने वाली हिन्दू, सिख और ईसाई लडकियों को इस्लाम की शिक्षा दी जाती है, इस्लाम की प्रशंसा बतायी जाती है, डर भी आतंकवाद और ंिहंसा की दिखायी जाती है। ऐसे में पीडित गैर मुस्लिम लडकियां अपनी नियति मान कर इस्लाम स्वीकार कर लेने के लिए बाध्य होती हैं और फिर न्याय की उम्मीद भी दफन हो जाती है। इस्लामिक न्याय व्यवस्था यह देखने तक कोशिश नहीं करती है कि पुलिस अभिरक्षा में इस्लामिक संस्थाओं में रखी गयी लडकी पर दबाव और भय का हथकंडा चलाया गया था।
                                    हिन्दू, सिख और ईसाई लडकियो का अपहरण, निकाह तथा धर्म परिवर्तन के आंकडे लोमहर्षक हैं। यूनाइटेड स्टेटस आॅन इंटरनेशनल रिलिजियस फ्रीडम के आंकडे कहते हैं कि हर साल एक हजार से अधिक हिन्दू, सिख और ईसाई लडकियों का अपहरण होता है, उसका धर्म परिवर्तन कराया जाता है फिर निकाह पढाया जाता है। सबसे बडी चिंता की बात यह है कि 12 साल की लडकियों का अपहरण, उसका धर्म परिवर्तन और निकाह को सही ठहराया जाता है। 15 साल से नीचे की लडकियों का अपहरण और जबरदस्ती निकाह की संख्या बढती जा रही है।
                                     इस्लामिक रिपब्लिक पाकिस्तान में सिखों, हिन्दुओं और ईसाइयों की संख्या निरंतर धट रही है। यह संख्या क्यों घट रही है? यह संख्या इसलिए घट रही है कि जबरन मुसलमान बनाया जा रहा है और मुसलमान नहीं बनने पर पाकिस्तान छांेडकर पलायन करने के लिए मजबूर किया जाता है। 96 प्रतिशत से अधिकतर आबादी मुस्लिमों की है जबकि हिन्दुओं, सिखों और ईसाइयों की आबादी चार प्रतिशत से भी कम है। पाकिस्तान के चुनाव आयोग ने 2017 में एक आंकडा जारी किया था जिसमें हिन्दुओं की संख्या 14 लाखर, 98 हजार बतायी थी, सिखों की संख्या 6 हजार 193 बतायी थी और ईसाईयों की संखा 13 लाख 25 हजार बतायी थी। अभी तक धर्म आधारित जनगणना के आंकडे पाकिस्तान प्रस्तुत ही नहीं करता है। सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि पाकिस्तान के हिन्दू, सिख और ईसाई किसी मुस्लिम उम्मीदवार को हराने-जीताने के लिए वोट नहीं कर सकते हैं सिर्फ अल्पसंख्यकों के लिए कुछ सीटें निर्धारित हैं, उन्हीं सीटों के उम्मीदवारों के लिए ये वोट कर सकते हैं। यही कारण है कि पाकिस्तान की राजनीतिक पार्टियां किसी भी स्थिति अल्पसंख्यकों की कोई खास चिंता नहीं करती है।
                                        लव जिहाद से हिन्दू, ईसाई और सिख लडकियों को न्या दिलाना एक मुश्किल काम है। जब तक कुरान की काफिर मानसिकता रहेगी तब तक मुस्लिम देशों में लव जिहाद से मुक्ति पाना या फिर गैर मुस्लिमों के मानवाधिकार से सुरक्षा की उम्मीद ही बेकार है। क्या दुनिया को यह पता नहीं है कि इसी काफिर मानसिकता से इराक में हजारों यजिदी लडकियों को इस्लामिक संगठन आईएस ने गुलाम नहीं बना रखा था? मुस्लिम आतंकवादी संगठन यह बार-बार कहते हैं कि काफिर लडकियों को गुलाम बनाना उनका मजहबी अधिकार है और सभी अच्छे मुसलमानों को इसका पालन करना अनिवार्य हैं। लव जिहाद के प्रश्न पर या फिर हिन्दू, ईसाई, खि लडकियों के मानवाधिकार के प्रश्न पर दुनिया के मानवाधिकार संगठन भी खामोश रहते है। पाकिस्तान के अंदर में अभिरक्षा में रखी जाने वाली हिन्दू , सिख और ईसाई लडकियों को इस्लामिक मानसिकता वाले संस्थाओं में रहने की अनिवार्य बाध्यता दूर होगी तो फिर भयमुक्त होकर हिन्दू, सिख और ईसाई लडकियां अपने आप की जिंदगी का निर्णय वीरता के साथ कर सकती हैं।
                                               

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Monday, September 14, 2020

ऐसे मुस्लिम तो गद्दार ही हैं

  राष्ट्र-चिंतन


ऐसे मुस्लिम तो गद्दार ही हैं

        विष्णुगुप्त


देश में पहले मुस्लिम समुदाय द्वारा क्रिकेट मैचों में भारत के हारने और पाकिस्तान के जीतने पर मिठाइयां बांटना, बम-पठाखे छोड़ना तथा पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने जैसी घटनाएं होती थी। इन सभी घटनाओं में पाकिस्तान के प्रति प्यार और भारत के प्रति नफरत व्यक्त किया जाता था। लेकिन अब इससे आगे बढकर मुस्लिम समुदाय द्वारा पाकिस्तान परस्ती दिखायी जा रही है। खास कर शिक्षा जगत में पाकिस्तान परस्ती खतरनाक ढंग से परोसी जा रही है, सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि पाकिस्तान परस्ती ग्रहण नहीं करने पर खतरनाक परिणाम भुगतने के लिए धमकियां दिखायी जाती हैं, प्रोपगंडा कर छवि बिगाडने का भय दिखाया जाता है। शिक्षा जगत में सिर्फ मुस्लिम शिक्षकों ही नहीं बल्कि मुस्लिम छात्रों की पाकिस्तान परस्ती, मजहबी अंधेरगर्दी और आतंकवादी मानसिकताएं उत्पन्न करना एक जिहाद का रूप धारण करते जा रहा है।  
                               पाकिस्तान परस्ती को अस्वीकार करने, इस्लाम के प्रति सहचर होने से इनकार करने, मजहबी अंधेरगर्दी-आतंकवादी मानसिकताओं के साथ नहीं जुड़ने पर गैर मुस्लिम छात्रों और छात्राओं का जीवन बरबाद करने की सरेआम कोशिश होती है, इसके लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाये जाते हैं। सरकारी स्कूलों-कालेजो के इस्लामीकरण करने की सरेआम करतूतें होती हैं। सरकारी स्कूलो के हिन्दी-अंग्रेजी नाम को बदल कर मजहबी-इस्लामिक नाम रखने के लिए दबाव बनाया जाता है। कई सरकारी स्कूलों के हिन्दी और अंग्रेजी नाम सरेआम बदलकर मजहबी-इस्लामिक नाम भी रख दिये गये, स्कूल भवन को इस्लामिक रंग में रंग दिये गये। जहां पर अधिकतर बच्चे मुस्लिम होते हैं वहां पर पाकिस्तान परस्ती जमकर चलती है, पाकिस्तान हमारा अपना देश है, इस्लाम सबसे प्यारा धर्म है, आदि सरेआम पढाया जाता है। देश विरोधी ये करतूतें अब कोई एक-दो जगह नहीं बल्कि देश में कई जगहों पर देखी जा रही है। इन मुस्लिम समुदाय को कानून और संविधान का भी डर नहीं होता है। राजनीतिक पार्टियां इनकी ऐसी राष्ट्रविरोधी करतूतो पर संरक्षण देती है, पर्दा डालती हैं।
                                 उदाहरण देख-देख कर राष्ट्रभक्त आश्चर्यचकित हो सकते हैं और सोचने के लिए बाध्य हो सकते हैं कि ये देश के नागरिक नहीं हैं बल्कि दुश्मन देश के हितैषी हैं, खाते देश के हैं, देश के संसाधनों पर विकास करते हैं पर देशभक्ति दिखाने की जगह देशद्रोही करतूत को अंजाम देते हैं, क्या ऐसे लोगों को देश में रहना खतरनाक नहीं हैं, क्या इन्हें देशद्रोही नहीं कहा जाना चाहिए? आखिर देश की राजनीतिक पार्टियां इन देशद्रोहियों को कब तक पालती रहेगी, कब तक इनकी देश द्रोही करतूतों पर संरक्षक की भूमिका निभाती रहेगी, क्या ऐेसे लोगों को देशभक्ति का पाठ नहीं पढाया जाना चाहिए? सच तो यह है कि मुस्लिम समुदाय की पाकिस्तान परस्ती की जब भी बातें आती है, मुस्लिम समुदाय द्वारा शिक्षा जगत में जब भी सरेआम इस्लाम को थोपने की बातें आती है, मुस्लिम युवकों द्वारा जब भी पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाये जाने की बातें सामने आती है तब एक तरह से उदासीनता पसार दिया जाता है, इन सभी राष्टद्रोही करतूतों पर कोई राजनीतिक चर्चा तक नहीं होती है, इन्हें कोई राजनीतिक सबक नहीं दिया जाता है। पुलिस अगर कोई मुकदमा दर्ज करती है तो भी उन मुस्लिम गद्दारों का कुछ नहीं बिगड़ पाता है। पुलिस पर राजनीतिक दबाव हावी हो जाता है। पुलिस जांच में उदासीन बरत लेती है। इस प्रकार मुस्लिम देशद्र्रोही कानून की सजा पाने से सरेआम बच जाते हैं।
                                   लाॅकडाउन में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के एक स्कूल में एक मुस्लिम क्षिक्षिका ने सरेआम पाकिस्तान परस्ती दिखायी, पाकिस्तान के पक्ष में खडी हो गयी, उसने सरेआम बच्चों से कहा कि पाकिस्तान हमारा अपना देश है, पाकिस्तान एक प्यारा देश है, पाकिस्तान आर्मी का जवान राशिद मिन्हास हमारा आईकाॅन है। उस मुस्लिम शिक्षिका का नाम शादाब खान है। उसने बच्चो को पाकिस्तान हमारा प्यारा देश पर एक लेख लिखने के लिए कहा और प्रजेंट टेन्स का उदाहरण पाकिस्तानी सैनिक जवान राशिद मिन्हास के रूप में देने को कहा। बच्चे डर कर अपनी शिक्षिका शादाब खानम के खिलाफ नहीं बोल सके। पर यह करतूत उड़ती हुई कई अभिभावकों तक पहुंच गयी। अभिभावको के पास यह करतूत जब पहुंची तो अभिभावकों के पैरों के नीचे जमीन खिसक गयी। उन्हें यह मालूम हो गया कि उनके बच्चों को पाकिस्तान प्रेम सिखाया जा रहा है, धीरे-घीरे उन्हें मुस्लिम बनाया जा रहा है। अभिभावकों ने साहस दिखाया। स्कूल प्रबंधन के खिलाफ आवाज उठायी। लाॅकडाउन के कारण स्कूल प्रबंधन को भी ऐसी जानकारी नहीं थी कि उनकी क्षिक्षिका इस तरह की जिहाद में लगी हुई है और उनकी शिक्षिका की मानसिकताएं पाकिस्तान और जिहाद से जुडी हुई है। स्कूल प्रबंधन ने जब नोटिस जारी किया तब वह मुस्लिम शिक्षिका चोरी और सीनाजोरी पर उतर आयी।                                        
                                झारखंड की सिहभूम की एक स्कूल की घटना तो और भी लोमहर्षक है। यह लोमहर्षक घटना पूर्वी सिंहभुम संत नंदलाल विद्यामंदिर स्कूल की है। शमा परवीन नाम की एक मुस्लिम शिक्षिका ने प्रथम क्लास के बच्चों को पाकिस्तान का राष्ट्रगान याद करने का टास्क दे दिया। यूटयूब का लिंक भी मोबाइल पर भेज दिया गया। प्रथम क्लास के बच्चे जब यूटयूब के लिंक के आॅपन कर पाकिस्तान के राष्ट्रगीत को याद करने लगे तब अभिभावकों को यह करतूत मालूम हुई। अभिभावकों के विरोध को शांत करने के लिए स्कूल प्रबंधन कह दिया कि जनरल नाॅलेज बढाने के लिए यह टास्क दिया गया था। जबकि बच्चों का यह आरोप था कि वह मुस्लिम शिक्षिका स्कूल क्लास में सरेआम इस्लाम को सबसे प्यारा मजहब बताती है और बच्चो को मुस्लिम बनने की सलाह देती है। बच्चे डर के कारण मुंह नहीं खोलते हैं। इस घटना पर राजनीतिक बवाल भी हुआ था। जिला प्रशासन और शिक्षा विभाग ने जांच भी बैठायी थी पर झारखंड की मुस्लिम परस्त सरकार ने कोई कारगर कारवाई नहीं होने दी।
                                    उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में चार सरकारी स्कूलों को सरेआम मजहबी-इस्लामिक स्कूल में तब्दील कर दिया गया। हिन्दी की जगह उर्दू स्कूल बना दिया गया। सरकारी प्राइमरी स्कूल का नाम बदल कर इस्लामियां प्राइमरी स्कूल कर दिया गया। इस तरह चार सरकारी प्राइमरी स्कूलो को निशाना बनाया गया। स्कूल भवनों को इस्लामिक रंग में रंग दिया गया। इन स्कूलों में हिन्दी पढने वाले बच्चों को डरा-धमका कर स्कूल छोडने के लिए बाध्य किया गया। स्कूल का प्रिंसपल खुर्शीद आलम बच्चों को पाकिस्तान परस्ती और इस्लाम की शिक्षा देता था। जब किसी ने विरोध करने की कोशिश की तो फिर विरोध करने वालों को मुख्तार अंसारी-अतीक अंसारी और अफजल अंसारी जैसें मुस्लिम गुडों से मरवाने की धमकियां मिली। उत्तर प्रदेश के खास क्षेत्र में इन मुस्लिम गुंडों की राज किस प्रकार से चलता है, यह भी उल्लेखनीय है। जब हिन्दी प्राइमरी स्कूलों को इस्लामिक स्कूल में तब्दील किया गया था तब उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और मायावती की सरकार होती थी। अखिलेश यादव और मायावती की सरकार में मुस्लिम हिंसा और गद्दारी का विरोध करने का अर्थ जान देना होता था। योगी आदित्यनाथ की सरकार जब आयी तब गुमनाम शिकायत पर जांच हुई फिर यह देशद्रोही करतूत की पोल खुली। फिर पाकिस्तान परस्ती और इस्लामीकरण करने वाले खुर्शीद आलम आदि के गिरोह पर सबक कारी कार्रवाई नहीं हुई।
                                    एक खतरनाक जिहाद पर चर्चा जरूरी है। सरकारी स्कूलों ही नहीं बल्कि प्राइवेट स्कूलों में मुस्लिम संगठन और जिहादी समूह इस्लामिक मानसिकता फैलाने की करतूत में सक्रिय है। एक मामला ईसाई स्कूल से जुडा हुआ हैं। बाराबंकी के आनन्द भवन स्कूल में एक मुस्लिम छात्रा अचानक पाकिस्तान का गीत गाने लगी, इस्लामिक जिहाद की बाते करती थी। उसकी शिकायत भी हुई। एक दिन वह मुस्लिम छात्रा स्कूल में बुर्का पहन कर आ गयी और कही कि यह मेरा मजहबी अधिकार है। चूंकि स्कूल ईसाई प्रबंधन का था। इसलिए स्कूल प्रबंधन ने हिम्मत दिखायी और उस मजहबी छात्रा को स्कूल में घुसने देने इनकार कर दिया। मुस्लिम छात्रा के पिता मौलाना मोहम्मद रजा रिजवी ने खूब पैंतरेबाजी की, मुस्लिम अधिकार की बात उठायी और स्कूल प्रबंधन पर कानूनी कार्यवाही करने की धमकियां दी। पर कोई फायदा नहीं हुआ। ईसाई स्कूल प्रबंधन ने कह दिया कि वह अपनी बच्ची का नामांकन किसी मदरसे में करा दे ताकि वह बुर्के में मदरसा जाने के लिए स्वतंत्र होगी। ईसाई प्रबंधन वाले स्कूलों में मुस्लिम बच्चों का नामांकन बडी मुश्किल से होता है। मुस्लिम बच्चों के नामांकन पर बहुत सावधानी बरती जाती है। कर्नाटक के हुबली के कालेजों में पाकिस्तान जिंदाबाद के सरेआम नारे लगे हैं। देश में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने की घटना कोई यदा-कदा नहीं बल्कि हमेशा और वह भी सरेआम घटती रही है। अभी -अभी मुहर्रम पर तिरंगे को इस्लामिक रूप देने की सैकडों घटनाएं प्रकाश में आयी हैं।
                      जब भी ऐसे मुस्लिम गद्दारो पर कार्रवाई होती है तो मुस्लिम संगठन पैंतरेबाजी पर उतर आते हैं और मुस्लिमों को पीडित बता देते हैं। आपने कभी भी किसी मुस्लिम संगठन को स्कूलों में मुस्लिम शिक्षिकों द्वारा पाकिस्तान परस्ती और जिहादी की देशद्रोही शिक्षा देने के खिलाफ करते हुए सुना है? कभी भी कोई मुस्लिम संगठन इस देशद्रोही करतूत का विरोध नहीं करता है। अब देश हित में ऐसे देशद्रोहियों पर कानून का सौटा चलना जरूरी है। ऐसे मुस्लिमों को सिर्फ और सिर्फ गद्दार ही कहा जाना चाहिए।
   
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विष्णुगुप्त
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Tuesday, September 8, 2020

रक्तरंजित इस्लामिक सत्ता पर लोकतंत्र की जीत

  


राष्ट्र-चिंतन

देश छोटा, संदेश बड़ा, मुस्लिम-जिहादी हिंसा से मुक्ति का है यह रास्ता

रक्तरंजित इस्लामिक सत्ता पर लोकतंत्र की जीत

        विष्णुगुप्त


एक रक्तरंजित अवधारणा के विध्वंस होने की खुशी मनाया जाना चाहिए, मुस्लिम-जिहादी मानसिकता पर विजय के तौर देखा जाना चाहिए, मंुस्लिम-जिहादी हिंसा पर मानवाधिकार और लोकतंत्र की जीत के तौर पर देखा जाना चाहिए। दुनिया को यह एक ऐसा रास्ता हाथ लगा है जिस पर चलकर दुनिया मुस्लिम हिंसा, मुस्लिम आतंकवाद, इस्लाम एकमेव सिद्धांत के बर्बर और अमानवीय करतूतों पर रक्तहीन विजय हासिल कर सकती है। रक्तरंजित अवधारणा थी कि जिस देश में भी एक बार भी रक्तरंजित इस्लामिक शासन कायम हो गया तो फिर उस रक्तरंजित इस्लामिक शासन को बदला नहीं जा सकता है, उस पर लोकतंत्र और मानवाधिकार की जीत हो ही नहीं सकती है?
                             यह सही है कि इस्लाम में लोकतंत्र या फिर गैर मुस्लिम मानवाधिकार की अवधारणा है ही नहीं। अभी तक दुनिया को मुस्लिम-जिहादी हिंसा, आतंकवाद और इस्लाम की एकमेव करतूतों पर विजय प्राप्त करने का रास्ता नहीं मिल पाया है। अब तक जो रास्ते खोजे गये उस पर चलकर ऐसे तत्वों और रक्तरंजित अवधारणों को समाप्त करना मुश्किल काम ही साबित हुआ हैं। अमेरिका के नेतृत्व में नाटो देशों ने इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, सीरिया सूडान और अन्य देशों में सैनिक क्षमता के प्रदर्शन कर अलकायदा, आईएसआईएस और बोकोहरम, तालिबान जैसे मुस्लिम आतंकवादी संगठनों पर लगाम तो लगायी पर इनकी मानसिकताओं को पूरी तरह से जमींदोज नहीं किया जा सका हैं।
                           जहां पर सत्ता ही पूरी तरह से इस्लामिक रंग में रंगी होती है वहां पर बल प्रयोग करने या फिर हिंसा के खिलाफ प्रतिहिंसा से भी से भी ऐसी रक्तरंजित अवधारणाएं नहीं दबती है। इसलिए जरूरी यह है कि देश की सत्ता लोकतांत्रिक हो और धर्मनिरपेक्ष भी होनी चाहिए। लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष सत्ता में ही मुस्लिम-जिहादी हिंसा, आतंकवाद और इस्लाम को स्थापित कर अन्य धर्मो का रक्तरंजित विनाश करने की अवधारणा का समाप्त किया जा सकता है। पर हमें यह भी स्वीकार करना होेगा कि एक इस्लामिक बहुलतावादी मुस्लिम आबादी वाले देश में लोकतंत्र और मानवाधिकार की संरचना की उम्मीद भी बहुत कम होती है।
                              संदेश छोटे देश से निकला है, रक्तरंजित इस्लाम के शासन के खिलाफ यह रास्ता छोटे से देश से निकला है, इसलिए इस पर बहुत ज्यादा चर्चा नहीं हुई और ही इस घटना को बर्बर, अमानवीय और घृणा के प्रतीक इस्लामिक शासन व्यवस्था की मानसिकता पर अंतिम किल के तौर पर देखा गया। यह संदेश उस छोटे से देश से निकला है जो वर्षो से इस्लामिक हिंसा से त्रस्त था, गृहयुद्ध झेल रहा था और जहां पर हजारों-हजार बच्चियां हर साल खतना की बुराई के कारण दम तोड़ दिया करती थी। वह देश सूडान है। सूडान एक अफ्रीकी देश है। सूडान उन अफ्रीकी देशों में शामिल है जहां पर रक्तरंजित इस्लाम के कारण हिंसा, आतंकवाद और अमानवीय बर्बरता जारी हैं। अभी-अभी सूडान की सरकार और विद्रोही गुटों में एक समझौता हुआ है। सूडान के प्रधानमंत्री अब्दुला हमदोक और सूहान पीपुल्स लिबरेशन मूवमेंट नार्थ विद्रोही गुट के नेता अब्दुल अजीज अल हिलू की समझदारी सं यह समझौता सम्पन्न हो सका है। समझौते का आधार इस्लामिक शासन व्यवस्था की समाप्ति है। तीस सालो से चली आ रही बर्बर, अमानवीय और लोमहर्षक इस्लामिक सत्ता का अंत होगा, एक लोकतंत्र का उदय होगा, यह लोकतंत्र कोई इस्लामिक राज व्यवस्था पर कायम नहीं होगा? जैसा लोकतंत्र ईरान में है, जैसा लोकतंत्र पाकिस्तान में है, जैसा लोकतंत्र तुर्की में है वैसा लोकतंत्र नहीं होगा। घोर इस्लामिक के साथ ही साथ धामिक अल्पसंख्यकों पर रक्तरंजित हिंसा को अजाम देने वाली ही सत्ता इ्र्ररान, पाकिस्तान, तुर्की में आदि में है फिर ये अपनी सत्ता व्यवस्था को लोकतांत्रिक कहते है। ईरान, तुर्की, पाकिस्तान आदि मुस्लिम देशों के इसी फर्जीवाड़े के कारण ही इस्लामिक रक्तरंजित मानसिकताएं संरक्षित होती हैं और दुनिया की शांति को लहूलुहान करती है। सूडान का लोकतंत्र भारत की तरह होगा, सूडाल का लोकतंत्र ब्रिटेन की तरह होगा, सूडान का लोकतंत्र गृहयु़द्धों में फंसे अन्य अफ्रीकी मुस्लिम देशो के बीच एक आईकाॅन की तरह होगा? हमें यह भी सोचना चाहिए कि क्या ऐेसे लोकतंत्र की सफलता अन्य मुस्लिम देशों में प्रारंभ होगी?
                                       सूडान आखिर बर्बर और रक्तरंजित इस्लामिक शासन में फंसा ही क्यों था और इसके दुष्परिणामों से सूडान की आबादी कितनी बर्बर, हिंसक और अमानवीय कीमत चुकायी है? सूडान का दुर्भाग्य आज से तीस साल पूर्व शुरू हुआ था। 1989 में सूडान में तख्तापलट हुआ था और उमर अल बशीर ने सूडान की सत्ता पर कब्जा कर लिया था। वह घोर इस्लामिक मानसिकता का परिचायक था और इस्लामिक जिहादी से प्रेरित था। उसने सत्ता पर कब्जा करने के साथ ही साथ उदार कानूनों को समाप्त कर दिया और सूडान को एक घोर बर्बर, लोमहर्षक और अमानवीय कानूनों से लाद दिया। उसने सूडान पर इस्लामिक शासन लाद दिया। उसके इस्लामिक राज में बलपूर्वक मुस्लिम बनाने का काम शुरू हुआ था। कई हजार ईसाइयों को बलपूर्वक मुस्लिम बनाया गया। जिन ईसाइयों ने बलपूर्वक मुस्लिम बनाने का विरोध किया था उनकी हत्याएं कर दी गयी। यही कारण है कि सूडान के अंदर आज मात्र तीन प्रतिशत ही गैर मुस्लिम बचे हैं। उमर अल बशीर ने यह भी कानून बना दिया था कि जो एक बार भी मुसलमान बन गया वह फिर धर्म नहीं बदल सकता है, अगर वह धर्म बदलता है तो फिर उसकी सजा मौत होगी। इस बर्बर और अमानवीय कानून का प्रयोग भी खूब हुआ। मुसलमान छोडने वालों को सरेआम मौत की सजा दी गयी। ऐसी एक सजा दुनिया भर में चर्चित हुई थी। मरियम यहया इब्राहिम इशाग नाम की एक गर्भवती महिला को मौत की सजा इसलिए सुनायी गयी थी कि उसने इस्लाम छोडकर ईसाई पुरूष से शादी कर ली थी। नये लोकतंत्र में कोई भी मुस्लिम अपना मजहब छोडकर कोई अन्य धर्म स्वीकार करने के लिए स्वतंत्र होगा।
                           इस्लामिक शासन व्यवस्था की सबसे बडी कीमत अबोध बच्चियों ने चुकायी है। इस्लामिक शाासन में बच्चियों के लिए खतना अनिवार्य कर दिया गया था। खतना नहीं कराने पर बच्चियो के माता-पिता को जेल होती थी। बच्चियों का खतना इस्लामिक शासन का एक ऐसा हथियार है जिससे वह अपना खौफ भी कायम करता है और महिला अधिकार को भी गुलाम बना कर रखता है, महिलाएं सिर्फ भोग की वस्तु है, इस इस्लामिक मान्यताओं को भी संरक्षित करता है। बच्चियों का खतना एक ऐसा भयावह पीडा है जिससे बच्चियां जीवन भर नहीं भूल पाती हैं। सूडान में इस बर्बर करतूत से हजारों अबोध बच्चियों की मौत होती थी। अब नये लोकतांत्रिक शासन में बच्चियों के खतना पर प्रतिबंध लगा दिया जायेगा। सूडान की सरकार और विद्रोहियों के बीच हुए समझौते के अनुसार बच्चियों के खतना पर प्रतिबंध को कडायी के साथ लागू करने पर बल दिया गया है। इसके लिए सजा की भी व्यवस्था होगी। खतना के लिए जो डाॅक्टर, जो नर्स और जो नाई पकडे जायेंगे उन्हें तीन साल तक की कठोर जेल होगी और उनके लाइसेंस को जब्त कर लिया जायेगा। बच्चियों को खतना के लिए मजबूर करने वाले माता-पिता को भी दंडित करने का प्रावधान कानूम में किया जायेगा। खतना पर प्रतिबंध से सूडान में प्रतिवर्ष हजारों मुस्लिम बच्चियों की जान बचेगी। इसके अलावा महिलाएं अब घर के पुरूषो के बिना भी सामूहिक स्थलों पर जाने के लिए स्वतंत्र होगी।
                          सूडान ही क्यों बल्कि अरब और अफ्रीका महादेश के दर्जनों देश इस्लामिक शासन व्यवस्था के दंश को झेलने के लिए विवश हैं, अधिकतर देशों में गृहयुद्ध की स्थिति है। एक मुस्लिम आतंकवादी संगठन अपने इस्लाम की मान्यताओं को स्थापित कराने के लिए दूसरे मुस्लिम आतंकवादी संगठनों के समर्थकों को गाजर मूली की तरह काटता है। ऐसी स्थिति सूडान के साथ ही साथ नाइजीरिया, इथोपिया, इराक, सीरिया आदि देशो में आसानी से देखा जा सकता है। इसके अलावा अरब के कुछ देशों जैसे मिश्र, लेबनान, अफ्रीका महादेश के दर्जनांें देशों में मुसलमानांें और ईसाइयों के बीच गृहयुद्ध जारी है। इसमें ईसाई एक पीडित है। लाखो इसाइयों को मुस्लिम बनने के लिए बाध्य होना पडा थां। इसी पर आधारित एक फिल्म ‘‘ यूनोसेंट आफ मुस्लिम्स ‘‘ ने दुनिया भर में तहलका मचायी थी। इस फिल्म के खिलाफ अरब और अफ्रीका मे मुस्लिम आतंकवादी संगठनों ने बहुत बडी और रक्तरंजित प्रतिक्रिया दी थी।
                         अब दुनिया को सूडान के प्रस्तावित लोकतंत्र को मुस्लिम देशों के लिए एक आईकाॅन शासन प्रणाली के तौर पर प्रस्तुत करना चाहिए, प्रोत्साहित करना चाहिए। इस्लामिक शासन व्यवस्था पर लोकतंत्र की स्थापना से ही मुस्लिम आतंकवाद और घृणा पर विजयी हासिल हो सकती है। हमें इस बर्बर, लोमहर्षक, अमानवीय इस्लामिक शासन के पतन और नये लोकतंत्र की स्थापना पर खुशी मनाना ही चाहिए। उम्मीद भी यही है कि अन्य अर्फीकी और अरब के देश भी सूडान के प्रस्तावित लोकतंत्र का स्वागत करें। लोकतांत्रिककरण पर ही अरब और अफ्रीकी देशों की समृद्धि संभव होगी।

 


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