Monday, November 25, 2019

यूरोप में खडी हो रही इस्लामीकरण और देशज संस्कृति की खतरनाक दीवार




राष्ट्र-चिंतन

यूरोप में खडी हो रही इस्लामीकरण और
देशज संस्कृति की खतरनाक दीवार


      विष्णुगुप्त



यूरोप के बढते इस्लामीकरण अब एक विस्फोटक राजनीतिक प्रश्न बन गया है और इस प्रश्न ने यूरोप की बहुलतावादी संस्कृति और उदारतावाद को लेकर एक नहीं बल्कि अनेकानेक आशंकाएं और चिंताएं खडी कर दी हैं। संकेत बडे ही विस्फोटक है, घृणात्मक है, अमानवीय है और भविष्य के प्रति असहिष्णुता प्रदर्शित करता है। जब इस्लामिक करण को लेकर यूरोप की मुस्लिम आबादी खतरनाक तौर अपनी भूमिका सक्रिय रखेगी और यूरोप की मूल आबादी अपनी संस्कृति के प्रति सहिष्णुता प्रकट करते हुए प्रतिक्रिया में हिंसक होगी, तकरार और राजनीतिक बवाल खडा करेगी तो फिर यूरोप राजनीति, कूटनीति और अर्थव्यवस्था की स्थिति कितनी अराजक होगी, कितनी हिंसक होगी, इसकी उम्मीद की जा सकती है। यूरोप के सिर्फ एकाद देश ही नहीं बल्कि कई देश इस्लामीकरण के चपेट में खडे है और यूरोप की पुरातन संस्कृति खतरे में पडी हुई है। यूरोप ने विगत में दो-दो विश्व युद्धों का सामना किया है, यूरोप के लाखों लोग दोनों विश्व युद्धों में मारे गये थे। दो विश्व युद्धों का सबक लेकर यूरोप ने शांति का वातावरण कायम रखने की बडी कोशिश की थी। यूरोप में लोकतंत्र सक्रिय रहा, शांति और सदभाव भी विकसित हुआ। धार्मिक आधार पर भी यूरोप सहिष्णुता ही प्रदर्शित करता रहा है। धार्मिक आधार पर भेदभाव यूरोप में नीचले कम्र पर ही रहा। मुस्लिम देशों और अफीका से पलायन कर गयी आबादी को यूरोप में पलने-फूलने का अवसर दिया गया, उन्हें लोकतांत्रिक अधिकार प्रदान किये गये। इसका सुखद परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम देशों और अफ्रीका से गयी आबादी भी गोरी आबादी के सामने खडी हो गयी, उनकी समृद्धि भी उल्लेखनीय हो गयी, उनकी आबादी भी लोकतंत्र को प्रभावित करने की शक्ति हासिल करने लगी। स्थिति विस्फोटक तो तब हो गयी जब मुस्लिम आतंकवादी संगठन एक साजिश के तहत मुस्लिम आबादी को शरणार्थी के तौर पर यूरोप में घुसाने और यूरोप के लोकतंत्र पर कब्जा करने के लिए सक्रिय हो गये। आज पूरा यूरोप मुस्लिम आतंकवाद और इस्लामीकरण की आग में जल रहा है।
                                   वर्तमान में विस्फोटक स्थिति नार्वे में खडी हुई है, नार्वे की विस्फोटक स्थिति ने पूरी दुनिया का ध्यान खीचा है, पूरी दुनिया नार्वे की स्थिति को लेकर चिंतित हुई है और नार्वे की घटना का यथार्थ खोजा जा रहा है और यह चिंता व्यक्त की जा रही है कि नार्वे की विस्फोटक घटना की पुनरावृति ने केवल नार्वे में फिर से हो सकती है बल्कि इसकी आग यूरेाप के अन्य देशों तक पहुंच सकती है। समय - समय पर नार्वे जैसी स्थिति फ्रांस में भी हुई है, इटली में भी हुई है, जर्मनी में भी हुई है और मुस्लिम शरणार्थियो को लेकर नयी-नयाी विस्फोटक, खतरनाक और घृणात्मक सोच विकसित हो रही है जो किसी भी तरह शांति व सदभाव के लिए सकारात्मक नहीं माना जा सकता है। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि नार्वे की घटना किस प्रकार से विस्फोटक है, नार्वे की घटना क्या है, नार्वे की घटना को लेकर मुस्लिम देशों की गोलबंदी के यथार्थ क्या है, नार्वे की घटना को लेकर मुस्लिम देशों की गोलबंदी को क्या इस्लामीकरण की पक्षधर नीति मानी जानी चाहिए, पाकिस्तान जैसे असफल और मुस्लिम आतंकवाद की शरण स्थली बना पाकिस्तान नार्वे के विवाद में क्यों कूदा, क्या पाकिस्तान इस विवाद में कूद कर मुस्लिम आतंकवाद, मुस्लिम अतिवाद को बढावा दे रहा है?
                                      नार्वे में अभी ‘ स्टाॅप इस्लामीकरण आॅफ नार्वे ‘ नामक अभियान और आंदोलन गंभीर रूप से सक्रिय है, यह अभियान और आंदोलन धीरे-धीरे हिंसक हो रहा है और असहिष्णुता को प्रदर्शित कर रहे हैं। नार्वे की स्थिति तो उस समय विस्फोटक हो गयी जब नार्वे के एक शहर में कुरान जलाने की अप्रिय और असहिष्णु घटना घटी। स्टाॅप इस्लामीकरण आॅफ नार्वे अभियान के नेता लार्स थार्सन ने कृश्चयनस्टेंड शहर में सैकडों प्रदर्शनकारियों के सामने कुरान जलाने जैसी अप्रिय घटना को अंजाम दे दिया। कुरान जलाने की घटना के खिलाफ नार्वे की मुस्लिम आबादी भी सक्रिय हो गयी। हम सबों को मालूम है कि मुस्लिम आबादी के लिए कुरान का महत्व कितना है। कुरान का अपमान मुस्लिम आबादी किसी भी परिस्थिति में स्वीकार नहीं करती हैं। दुनिया में जिसने भी कुरान का अपमान किया या फिर इस्लाम के प्रेरक पुरूषों के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणियां की, उसकी बर्बरता से हत्या कर दी गयी। इतिहास में दर्ज घटना के अनुसार इस्लाम पर आधारित कार्टून छापने वाली पत्रिका के पत्रकारों को मार डाला गया, अभी-अभी भारत में घटी एक घटना को भी संज्ञान में लिया जा सकता है। लखनउ के हिन्दू नेता कमलेश तिवारी ने विवादित टिप्पणी की थी, उस टिप्पणी को लेकर तत्कालीन अखिलेश यादव की सरकार ने कमलेश तिवारी को रासुका लगा कर जेलों में डाल दिया था। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार में बर्बरता पूर्ण ढंग से कमलेश तिवारी की हत्या हो गयी, हत्या तालिबानी और आईएस की शैली में हुई थी।
                                 कुरान का अपमान करने वाले लार्स थार्सन के खिलाफ भी पूरी दुनिया की मुस्लिम आबादी खडी हो गयी है, लार्स थार्सन को दंडित करने की मांग खतरनाक तौर पर उठी है। कई मुस्लिम देश भी इस विवाद मे कूद चूके है। खासकर तुर्की और पाकिस्तान आग में घी का काम कर रहे हैं। पाकिस्तान में इस घटना को लेकर खतरनाक विरोध शुरू हो गया है। पाकिस्तान में कई प्रदर्शन हो चुके हैं, प्रदर्शन कारी लार्स थार्सन की मौत की मांग कर रहे हैं, फतवे पर फतवे जारी हैं। पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने नार्वे के राजदूत को बुला कर कुरान का अपमान करने वाले लार्स थार्सन पर कार्यवाही करने की मांग ही नहीं की बल्कि चेतावनी भी दी कि ऐसी घटना नार्वे के लिए ठीक नहीं होगी। पाकिस्तान और तुर्की अभी दो ऐेसे देश है जो मुस्लिम दुनिया का नेता बनने के लिए मुस्लिम अतिवाद को न केवल बढावा देते हैं बल्कि मुस्लिम आबादी को आतंकवादी गतिविधियों के लिए प्रेरित करने के लिए इंधन का भी काम आते हैं। पाकिस्तान और तुर्की जैसे देश यह नहीं सोचते कि उनके खतरनाक और विस्फोटक समर्थन से यूरोप में निवास कर रही मुस्लिम आबादी के प्रति असहिष्णुता की खाई बढेगी?
                         इसके विपरीत दुनिया की जनमत और फतवा विरोधी शक्तियां भी सक्रिय हो गयी है, सलमान रूशदी जैसी हस्तियां भी हतप्रभ हैं। सलमान रूश्दी जैसी हस्तियो की चिंता लार्स थार्सन के सुरक्षित जीवन को लेकर है। एक विचार यह भी सक्रिय हो रहा है कि आखिर लार्स थार्सन ने ऐसी घटना को अंजाम देने के लिए बाध्य क्यों हुए हैं, ऐसी स्थितियां तो रातो रात उत्पन्न नहीं हुई, ऐसी स्थितियों के लिए किसी न किसी रूप से मुस्लिम आबादी भी जिम्मेदार है। नार्वे की यह आग ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देशों तक पहुंच रही है। देशज शक्तियां भी इस्लामीकरण के खिलाफ गोलबंदी शुरू कर रही हैं। अगर ऐसा हुआ तो फिर यूरोप की स्थिति कितनी भयानक होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। एक तरफ मुस्लिम आबादी होगी तौर दूसरे तरफ ईसाई आबादी होगी। दोनों आबादी एक-दूसरे के खिलाफ मार-काट पर उतारू हो सकती है।
                                सिर्फ नार्वे की ही बात नहीं है बल्कि पूरे यूरोप की बात है। यूरोप का अति मानववाद अब गंभीर दुष्परिणम भुगतने की कसौटी पर खडा है। अति मानवतावाद के चक्कर में यूरोप की संस्कृति खतरे में हैं। यूरोप ने विगत में यह सोचा-समझा ही नहीं कि वे जिस आबादी का स्वागत कर रहे हैं वह आबादी उनके अस्तित्व और उनकी अस्मिता के लिए ही भस्मासुर बन जायेगी। मुस्लिम शरणार्थी सिर्फ स्वयं ही नहीं आते हैं बल्कि अपने साथ फतवा और कट्टरता की संस्कृति भी लेकर आते हैं, ऐसी आबादी जब तक कमजोर होती है तब तक इन्हें लोकतंत्र चाहिए, इन्हें शांति चाहिए। लेकिन समस्या तब शुरू होती है जब ऐसी आबादी अपने आप को सपूर्ण तौर पर शक्तिशाली समझ लेती है और लोकतंत्र को प्रभावित करने की शक्ति हासिल कर लेती है तब वह शरण देने वाली आबादी और देशों के लिए काल बन जाती है, फिर इन्हें लोकतंत्र नहीं चाहिए, इन्हें तो सिर्फ और सिर्फ मजहबी शासन चाहिए, इस्लामिक देश चाहिए। हर संभव मुस्लिम आबादी और ईसाई आबादी के बीच बढती खाई रोकी जानी चाहिए। यूरोप को इस्लामीकरण और देशज संस्कृति की खतरनाक दीवार नहीं बनने दिया जाना चाहिए।

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Monday, November 11, 2019

वह पागल साढ तो लोकतंत्र का रखवाला था

 


                           राष्ट्र-चिंतन

       भारतीय लोकतंत्र के हीरो थे टीएन शेषणवह पागल साढ तो लोकतंत्र का रखवाला था


        विष्णुगुप्त



टीएन शेषण की मृत्यु पर मीडिया और राजनीतिक हलकों में सीमित जगह ही क्यों मिली, क्या उन्हें विशेष जगह नहीं मिलनी चाहिए थी, उनकी लोकतात्रिक सुधार की वीरता पर विस्तृत चर्चा नहीं होनी चाहिए थी? देश की वर्तमान पीढी को यह नहीं बताया जाना चाहिए था कि टीएन शेषण की लोकतांत्रिक वीरता क्या थी, लोकतंत्र को उन्होंने कैसे समृद्ध बनाया था, वोट के महत्व को उन्होने कैसे समझाया था, वोट लूट को उन्होंने कैसे रोका था, बूथ कब्जा की राजनीतिक संस्कृति को उन्होंने कैसे जमींदोज की थी, लोकतंत्र का हरण कर राजनीतिक सत्ता पर विराज मान होने वाले लठैत-अपराधी किस्म के राजनीतिज्ञों की आंख के किरकिरी वे कैसे बने थे, फिर भी वे हार नही मानी थी, आज चुनाव सुधार की जितनी भी प्रक्रिया चल रही है, आज चुनाव सुधार के जितने भी कानून अस्तित्व में आये हैं, उसकी बुनियाद में टीएन शेषण की ही वीरता रही है। उसके पूर्व चुनाव आयोग को रीढविहीन, दंत विहीन संस्थान का दर्जा प्राप्त था, जिसके पास न तो कोई विशेष अधिकार थे और न ही चुनाव आयोग के सिर पर पर बैठे अधिकारियों की कोई अपनी पैनी दृष्टि होती थी, ये सिर्फ और सिर्फ सरकार के गुलाम के तौर पर खडा होते थे, सरकार की इच्छाओं को ही सर्वोपरि मान लेते थे। खास कर सत्ता धारी दल यह नहीं चाहता था कि चुनाव आयोग रीढशील बने, दंतशील बने, अगर ऐसा होता तो फिर सत्ताधारी दल के लिए फिर से सत्ता में लौटने की सभी आशाएं चुनाव से पूर्व ही समाप्त हो जाते। हथकंडों को अपना कर चुनाव जीतना सत्ताधारी पार्टी का प्रमुख राजनीतिक एजेंडा होता था। हथकंडों में विरोधी वर्ग और विरोधी क्षेत्रों में वोटर पंजीकरण में धांधली कराना, फर्जी वोटर पंजीकरण कराना, बुथ कब्जा कराना और कमजोर वर्ग के लोगों को मतदान केन्द्रों से दूर रहने के लिए षडयंत्र रचना शामिल थे।
                                        टीएन शेषण ने गुमनामी में शेष जिंदगी क्यों गुजारी, यह भी एक प्रश्न है? इस प्रश्न पर भी गंभीरता के साथ चर्चा करना जरूरी है। देखा यह गया है कि शीर्ष नौकरशाही के पद पर बैठा शख्त सेवा निवृति के बाद भी गुमनामी मे नहीं जाता है, ख्यात जिंदगी में ही वह सक्रिय होता है, कोई नौकरशाह राज्यपाल बन जाता है, कोई नौकरशाह प्राधिकरणों में जज हो जाते हैं, तो कोई नौकरशाह राज्य सभा और लोकसभा के सदस्य बन जाते हैं। इसके अतिरिक्त भी नौकरशाह खेल खेलते रहते है। कोई नौकरशाह रिलायंस का सलाहकार बन जाता है तो कोई नौकरशाह अडानी का सलाहकार बन जाता है, इनके बनाये संस्थानों का चीफ बन जाता है। इस प्रकार नौकरशाह शेष जिंदगी भी आराम और धाक के साथ गुजारता है। अब यहां यह प्रश्न भी उठता है कि सेवानिवृति के बाद भारत सरकार या फिर राज्य सरकारे भी टीएन शेषण की सेवाएं वैसी जगह क्यों नहीं ली जहां पर उनकी ईमानदारी, उनकी कर्मठता और उनके समर्पण की जरूरत थी और उनकी ईमानदारी, उनकी कर्मठता और उनके समर्पण से आम जनता को लाभ होता, आम जनता को न्याय मिलता? सेवा निवृति के बाद टीएन शेषण एक तरह से गुमनामी की जिंदगी जीने के लिए विवश थे। एक तरह से वे अकेलापन के शिकार थे। वे दिल्ली छोडकर चेन्नई चले गये थे। दिल्ली का पंच सितारा संस्कृति और लूट-खसौट की दुनिया उन्हें पंसद नहीं थी, उनकी ईमानदारी ये सब पंसद नहीं करती थी। चेन्नई में भी वे अकेला ही महसूस करते थे। उनका कोई परिवार नहीं था। उनके बच्चे नहीं थे। परिवार से भी उनका विशेष लगाव नहीं था। शायद उनका अपना कोई आवास भी नहीं था। अनाथालय में वे रहते थे, सेवानिवृति से मिलने वाली अंशराशि से उनका जीवन चलता था। जब आप ईमानदार होंगे, जब आप सिद्धातशील होंगे, जब आप लूट-खसौट की संस्कृति से दूर रहेंगे, किसी को वर्जित ढंग से लाभ नहीं करायेंगे तो फिर आपका इस दुनिया में कोई मित्र भी नहीं होगा, आपको पंसद करने वाला सीमित लोग होंगे। सीमित लोग भी आस पास नहीं होते हैं वे दूर-दूर रहकर ही प्रेरणा लेते हैं। ऐसी श्रेणी के वीर शख्त को भी लोग पागल कह कर अपनानित करते हैं। लूटेरे वर्ग और राजनीतिक हलका भी टीएन शेषण को पागल ही कहा करते थे।
                                           लेकतांत्रिक सेनानी होने के कारण मैंने ही नहीं बल्कि टीएन शेषण की वीरता को देखने वाली पीढी यह जानती थी कि लोकतांत्रिक पद्धति हमारी कितनी दुरूह और मकडजाल और फेरब से भरी पडी थी। कमजोर वर्ग चुनाव लडने का साहस नही कर सकता था, चुनाव पर बडे लोगों, बडी जातियों, धन पशुओं और अपराधियों का राज रहता था, ये जिसे चाहते थे वही चुनाव लड सकते थे, इनकी इच्छा के बिना कोई चुनाव नहीं लड सकता था। कोई चुनाव लडने का साहस करता तो उसकी हत्या होती , उसके प्रताडना निश्चित था, नामंकन प्रक्रिया को दोषपूर्ण ठहरा कर नामंकन रद करा दिया जाता था। सबसे बडी बात यह थी कि दलित, आदिवासी और कमजोर जातियों के क्षेत्र में मतदान प्रक्रिया में अपराधी हावी होते थे, बूथ कब्जा आम होता था। दलित, आदिवासियों और कमजोर जातियों को वोट देने के अधिकार से वंचित कर दिया जाता था। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि चुनाव जीत चुके उम्र्मीदवारों को भी चुनाव जीतने के प्रमाण पत्र मिलने के पूर्व हेराफेरी में हरा दिया जाता था और हारे हुए प्रत्याशी को जीता दिया जाता था। इस अपराध क्रम की कहीं कोई सुनवाई नहीं होती थी, न्यायिक प्रक्रिया लंबी होने के कारण सब बअर्थ हो जाती थी। लोमहर्षक बात यह थी कि चुनाव कर्मचारी बेलगाम होते थे, उनकी मर्जी ही चुनाव नियम होती थी। इनकी मर्जी अनियंत्रित हुआ करती थी। इनके खिलाफ सुनवाई कहीं नहीं होती थी। केन्द्रीय चुनाव पूरे देश में एक ही दिन हुआ करते थे, राज्य चुनाव भी एक ही दिन हुआ करते थे। ऐसी स्थिति में चुनाव सुरक्षा नाम की कोई चीज नहीं हुआ करती थी।
                                    टीएन शेषण ने चुनाव आयुक्त के पद पर बैठते ही अपनी वीरता दिखायी। खास कर बिहार के जातिवादी राजनीति के उदाहरण लालू प्रसाद यादव से टकरा बैठे। उन्होने बिहार में चुनाव अधिकारियों को अपने हथियारों का डर दिखाया, पक्षपात करने पर दंड के भागीदार बनाने का हस्र दिखाया, कई चरणों में चुनाव प्रक्रिया करने की नियम बना डाला। कई चरणों में चुनाव होने की खबर सुनते ही बिहार ही क्यों देश भर में तहलका मच गया। लालू अपने व्यवहार के अनुसार प्रतिक्रिया दी थी, लालू ने कहा था कि इ शेषणवा पगला गया है, इ शेषणवा पागल सांढ हैं, इस पागल साढ को हम पकड कर कमरे में बंद कर देंगे या फिर गंगा में बहा देगे। पर टीएन शेषण पर इसका कोई प्रभाव नहीं पडा। टीएन शेषण ने चुनाव प्रक्रिया के दौरान अपराधियों को जेल भेजवाने का फरमान सुना दिया, चुनाव प्रक्रिया के दौरान अधिकारियों का स्थानंतरण या पदोन्नति को रोक दिया। लालू ही नहीं बल्कि अनेकानेक राजनीतिज्ञ टीएन शेषण के चुनाव सुधार दंड प्रक्रिया के शिकार हुए थे। हिमाचल प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल गुलशेर अहमद को अपना इस्तीफा सौंपना पडा था। उनका दोष था कि वे चुनाव के दौरान मध्य प्रदेश के सतना जाकर अपने पुत्र के लिए चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने की कोशिश की थी। राजनीतिज्ञ और केन्द्रीय मंत्री रहे कल्पनाथ राय को भी टीएन शेषण का कोपभाजना बनना पडा था। उस दौरान राजनीति में टीएन शेषण भयभीत करने वाले शख्त के तौर पर विराजमान थे। राजनीति में एक चर्चा आम थी कि राजनीतिज्ञ सिर्फ भगवान और टीएन शेषण से ही डरते हैं। एक नौकरशाह के रूप में भी उनकी ख्याति गजब की थी। मंत्री उनसे पीछा छुडाना चाहते थे और उनके अंदर काम करने वाले अधिकारी व कर्मचारी मुक्ति का मार्ग तलाशते थे।
                           हमें घोर आश्चर्य है कि टीएन शेषण की सेवाएं सरकारें उनकी सेवानिवृति के बाद भी क्यों नहीं ली उनकी सेवाएं ली जानी चाहिए थी। खास कर देश की अकादमियां उनकी सेवा ले सकती थी। टीएन शेषण देश की भावी पीढी को सजग, कर्मठ और ईमानदार बनाने की शिक्षा दे सकते हैं, उन्हें प्रेरक राह दिखा सकते थे। दुखद यह है कि उन्हें गुमनामी में जिंदगी गुजारने के लिए छोड दिया गया। अगर हम ईमानदारी और कर्मठता का सम्मान नहीं करेंगे तो फिर देश में भ्रष्टचार, बईमानी और वर्जित कार्य की बढती प्रवृति को कैसे रोक पायेंगे? यह एक यक्ष प्रश्न है। टीएन शेषण की लोकतांत्रिक वीरता को बच्चों के पाठय पुस्तक में शामिल किया जाना चाहिए।

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विष्णुगुप्त
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Thursday, November 7, 2019

भाजपा के पैरासूट नेताओं ने झारखंड को तबाह किया

 
राष्ट्र-चिंतन

भाजपा के पैरासूट नेताओं ने झारखंड को तबाह किया
 

     विष्णुगुप्त





झारखंड राज्य भाजपा की देन है, सर्वाधिक समय तक सत्ता की चाभी भाजपा के हाथों में रही है, इसलिए यह कहना सही होगा कि झारखंड को एक विकसित राज्य बनाना, झारखंड के नागरिको के भविष्य को सुंदर और प्रेरणादायी बनाना, वनांचल आंदोलन के महारथियों व संघर्षरत योद्धाओं का सम्मान करना ,खनिज संपदाओं का अंधाधुध दोहन रोकना, पर्यावरण की सुरक्षा करना, भ्रष्टचार का दमन करना, मूल निवासियों के अधिकारों और हितों को संरक्षित करने जैसै जिम्मेदारियां भाजपा की ही थी। अब यहां यह प्रश्न खडा किया जाना चाहिए कि भाजपा इन सभी जिम्मेदारियों का निर्वाहन ईमानदारी और वैज्ञानिक तथा नैतिकता की कसौटियों पर किया है या नहीं? अगर नहीं तो फिर भाजपा अंनत काल तक सत्ता में रहने की वीरता कैसे और क्यों दिखाती रहेगी?
                          निश्चित तौर पर झारखंड एक पूर्ण विकसित राज्य नहीं बन सका है, आदर्श और प्रेरक राज्य भी नहीं बन सका। मूल निवासियों की कल्पना-इच्छा की कसौटी पर झारखंड की कोई अच्छी तस्वीर खडी नहीं हुई है, विकास एक छलावा है, भ्रमित करने वाला है, झारखंड में बाहरी संस्कृति की घुसपैठ खतरनाक तौर पर हुई है, बाहरी संस्कृति का अर्थ झारखंड की मूल संस्कृति की घेराबंदी, लुटेरी संस्कृति का खतरनाक तौर पर उपस्थिति, भ्रष्टाचार का बोलबला, भष्टचार से आम जीवन का त्राहीमाम करना, झारखंड के मूल निवासियों का जीवन कठिन बना कर लहूलुहान करना, नौकरशाही को शासक का रूप देना, खनिज संपदाओं का अंधाधुध दोहन करना, झारखंड के खनिज संपदाओं की तस्करी को संरक्षित करना, जैसे अनेकानेक वर्जित कार्यों को प्राथमिकता मिली है।
लोमहर्षक,खतरनाक व तेजाबी संस्कृति का राजनीतिक प्रत्यारोपण है। बाहरी और पैरासूट नेताओं को सत्ता और पार्टी संगठन के केन्द्र विन्दु मे उपस्थित करना, प्रत्यारोपित करने का खेल खेला गया। इस खेल ने सबसे ज्यादा नकरात्मक प्रभाव झारखंड के मूल नेताओं पर पडा। सत्ता और पार्टी के केन्द्र में लुटरी और बाहरी तथा पैरासूट संस्कृति के नेताओं के प्रत्यारोपण के कारण झारखंड के मूल नेताओ की ईमानादारी, नैतिकता, कर्मठता और समर्पण निरर्थक बन गयी, उनकी राजनीतिक संभावनाओं को पूर्ण अवस्था में पहुंचने से पूर्व ही निरर्थक बना दिया गया, एक साजिश पूर्ण राजनीतिक कुकृत्य है। झारखंड की सत्ता पर इनके कब्जे स्पष्ट तौर देखा जा सकता है।
झारखंड-वनांचल आंदोलन में एक पर एक नेता थे जो ईमानदारी, कर्मठता और देशज संस्कृति के वाहक थे, जिन्होंने अलग झारखंड राज्य बनवाने में अपनी भूमिका निभायी थी। पर दो तरह के संकटों ने झारखंड और वनांचल आंदोलन के नेताओ को निरर्थक बनाया है। झारखंड आंदोलन के जो नेता थे, वे आपसी फूट के शिकार हो गये, भ्रष्टचार के आंकठ में डूब गये, वंशवाद के आंकठ में डूब गये। भ्रष्टचार के आरोप में शिबू सोरेन बार-बार जेल गये। मुख्यमंत्री रहते हुए शिबू सोरेन विधान सभा के चुनाव हार गये। शिबू सोरेन को उंचाइयों तक पहुंचाने वाले सूरज मंडल वंशवाद के मोह में निपटा दिये गये। शिबू सोरेन ने अपने बेटों के कारण सूरज मंडल को पार्टी से निकाल कर हाशिये पर चढा दिया। दुष्परिणाम यह हुआ कि सूरज मंडल तो निपट ही गये, इसके साथ ही साथ शिबू सोरेन का परिवार और झारखंड मुक्ति मोर्चा भी अपनी पुरानी शक्ति से हाथ धो बैठे। फलस्वरूप झारखंड की राजगद्दी पर भाजपा को बार-बार बैठने का अवसर प्रदान हुआ।
                                जहां तक भाजपा के मूल नेताओं की बात है तो उन्हें भाजपा के केन्द्रीय कृत और झारखंड की लुटेरी मानसिकता से ग्रस्त नेताओं ने ही निरर्थक और कमजोर बना कर हाशिये पर खडा कर दिया गया। कडिया मुंडा जैसे वरिष्ठ, ईमानदारी और राजनीति में विरले नेता को छोडकर , उन्हें दरकिनार कर बाबू लाल मरांडी को प्रथम मुख्य मंत्री बना दिया गया? कडिया मंुडा जैसे वरिष्ठ, ईमानदार और राजनीति के प्रेरक पुरूष को नजरअंदाज क्यों किया गया, उन्हें हाशिये पर क्यों ढकेला गया, उनकी प्रशासनिक और देशज संस्कृति की विशेषज्ञता क्यों नहीं सत्ता का साथ मिला ? इस प्रश्न का कोई जवाब आज की राजनीति में कोई खोजने की कोशिश ही नहीं करता? सच्चाई बडी ही खतरनाक है, साजिश की सुई भाजपा के बिहारी संस्कृति के नेताओं और भाजपा के केन्द्रीयकृत नेताओ की ओर घूमती है। बिहार से जब झारखंड अलग हुआ था तब भी बिहार के नेताओं ने अपनी लुटेरी मानसिकता को जारी रखने के लिए न केवल साजिश रची थी बल्कि मकडजाल भी बूने थे। इसकी पीछे की कहानी भी कम राजनीतिक लोमहर्षक नहीं है। भाजपा की बिहारी संस्कृति के नेताओं और केन्द्रीय नेताओं ने यह सोच विकसित की थी कि अगर झारखंड की सत्ता पर कोई मूल संस्कृति के समर्पित नेता या फिर कडिया मुंडा जैसे नेता की ताजपोशी हुई तो फिर उनकी लुटेरी मानसिकताएं जमीन पर नहीं उतर सकती हैं? झारखंड के पर्यावरण और खनिज संपदाओं के दोहन करने का अवसर नहीं मिलेगा, टाटा जैसी तमाम निजी कंपनियों की लूट की संस्कृति जारी नहीं रखी जा सकती है। इसी उददेश्य से बाबू लाल मरांडी की ताजपोशी हुई थी और कडिया मुंडा जैसे नेताओं को सत्ता से दूर रखा गया था। बाद में बाबू लाल मरांडी की कहानी भी सबके दृष्टांत में है ही। एक समय भाजपा में इन्दर सिंह नामधारी जैसे नेताओं की धाक होती थी जो भाजपा से बाहर जाने के लिए विवश हुए थे।
                                  भाजपा की सत्ता और पार्टी पर विराजमान प्रथम श्रेणी के नेताओं का आकलन कर लीजिये, आपको ज्ञात हो जायेगा कि झारखंड के साथ कितना अन्याय हुआ है और झारखंड की आज तो दुर्गति है, झारखंड देश का सबसे प्रेरक और आदर्श स्टेट क्यों नहीं बन पाया, इसकी पूरी कहानी, पूरी साजिश और पूरी लुटेरी मानसिकताएं आपको समझ में आ जायेगी? आज स्थिति यह है कि भाजपा में या तो मोहरे संस्कृति के नेता है या फिर बाहरी यानी पैरासूट संस्कृति के नेता है। अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बनाया गया था और आज केन्द्र में अर्जुन मुंडा मंत्री भी है, पर उनका वनांचल आंदोलन में कोई भूमिका नहीं थी, भाजपा को गांव-गांव तक ले जाने में उनकी कोई भूमिका नहीं थी, ये झारखंड मुक्ति मोर्चा में थे और दलबदल कर भाजपा में आ गये। झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास बाहरी है, ये जमशेदपुर में टाटा कंपनी में नौकरी करने आये थे और भाजपा के शिखर तक पहुंच गये। सरयू राय की कहानी और भी राजनीतिक बर्बर है, सरयू राय एक समय लालू के किचन कैबिनेट के सदस्य हुआ करते थे, ये भाजपा विरोधी थे, बिहारी संस्कृति के बाहुबली है। सरयू राय अचानक बिहार छोड कर झारखंड की राजनीति में आ गये, झारखंड की जातीय और झारखंड की लुटेरी मानसिकताओं पर सवार लोगों ने सरयू राय को चमका दिया। आज सरयू राय की झारखंड की राजनीति में मजबूत और सत्ता निर्धारण में भूमिका निभाने वाले नेता के रूप में गिनती होती है, बिहार में यही सरयू राय कोई चुनाव जीतता या नहीं पर आज झारखंड में इनकी धाक है।
                           झारखंड की मूल राजनीतिक संस्कृति की कसौटी पर भाजपा के सांसदों और विधायकों की पृष्ठभूमि जांच कर लीजिये, राजनीतिक लोमहर्षक कहानियां सामने आयेंगी। अनेकानेक झारखंड के भाजपा सांसद और विधायक बाहरी है। उदाहरण देख लीजिये। पलामू से सांसद बीडी राम मूल रूप से कांग्रेसी और बाहरी हैं, गोडा से सांसद निशिकांत दुबे, रांची से सांसद संजय सेठ, हजारीबाग के सांसद यशवंत सिंन्हा का बेटा, धनबाद का सांसद पशुपति नाथ सिंह, चतरा के सांसद सुनील सिंह, आदि बाहरी हैं। झारखंड में भाजपा को स्थापित करने वाले सूरज मनि सिंह, प्रवीण ंिसंह श्रवण कुमार, निर्भय कुमार सिंह जैसे सैकडो नेता आज हाशिये पर खडे हैं, इन्हें कभी विधायक और सांसद बनने का अवसर ही नहीं दिया गया। पार्टी के लिए चंदाखोरी करने वाले नेता गुलशन आजमानी भी गुमनामी में कैद हैं।
                            झारखंड राज्य बनाने का जो उद्देश्य था वह तो शायद अब कभी पूरा होगा? अगर झारखंड की सत्ता पर
झारखंड के लिए लडने वाले शिबू सोरेन जैसे नेता अपनी ईमानदारी नहीं छोडते और वीरता के साथ समर्पण प्रदर्शित करते रहते तो फिर झारखंड में भाजपा के बाहरी और पेरासूट नेताओं की सत्ता पर पहुंच बन ही नहीं सकती थी। झारखंड आंदोलनकारियों की विफलता और बईमानी ने भाजपा के बाहरी और पैरासूट नेताओं को झारखंड लुटने की गारंटी प्रदान की है। इसका दुष्परिणाम तो झारखंड आंदोलन के नेताओं ने भी झेला है। आज झारखंड मुक्ति मोर्चा स्वयं के बल पर सत्ता स्थापित करने की शक्ति ही प्रदान नहीं कर सकता है। आजसू भाजपा के पिछलग्गू बन गया। बाबू लाल मरांडी टिटही पंक्षी की तरह खुशफहमी के शिकार हो गये, बाबू लाल मरांडी लोकसभा से लेकर विधान सभा चुनाव हार गये पर अभी भी बाबू लाल मरांडी स्वयं के बल पर झारखंड की सत्ता पर स्थापित होने का दुस्वपन देखना बंद नहीं किये है।
                           भाजपा भी दीर्धकालिक तौर पर झारखंड की जनता को मूर्ख नहीं बना सकती है, जनता को लोकलुभावन नारे के साथ ही साथ विकास और उन्नति भी चाहिए। हिन्दुत्व हमेशा सत्ता की चाभी नही बन सकता है। नरेन्द्र मोदी का चमत्कार तो लोकसभा चुनाव में चल सकता है पर विधान सभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी के चत्मकार की बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं होनी चाहिए। विकास और उन्नति की कसौटी पर भाजपा का भुतहा चेहरा ही है। विकास और उन्नति के नाम पर सिर्फ भवन खडे कर दिये गये हैं, सरकारी कर्मचारी और नौकरशाही जनता के लिए यमराज बन गये हैं। शिक्षा की स्थिति चैपट है, स्कूल हैं पर शिक्षक पढाने जाते नहीं हैं, अस्पताल है पर डाॅक्टर बैठते नहीं, पूरा वन विभाग है पर वन का सर्वानाश हो चुका है, खनिज संपदाओं के लिए निजी सेना खडी कर दी गयी है, खनिज संपदाओं की लूट रोकने वालों को देशद्रोही बनाकर जेलों में डाल दिया जा रहा है, झारखंड के निवासी होने के बावजूद इस तरह के संघर्षरथियों को झारखंड में रहने पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है।
                         आंदोलन से सत्ता जब कोई निकलती है, आंदोलन से जब कोई राज्य निकलता है तो फिर सत्ता की चाभी आंदोलनकारियों के हाथो में ही होनी चाहिए। झारखंड राज्य आंदोलन की उपज है पर झारखंड राज्य की स्वतंत्र चाभी आंदोलनकारियों के हाथों में नहीं रही है। अगर भाजपा में कडिया मुंडा जैसे नेता हाशिये पर खडे नहीं होते और झारखंड में भाजपा को स्थापित करने वाले नेताओं को साजिशपूर्ण ढंग से जमींदोज नहीं किया गया होता तो फिर आज झारखंड राज्य की तस्वीर कुछ अलग ही होती। झारखंड के पास देश के अनुपातिक तौर पर 46 प्रतिशत मिनरल है, यहां के खनिज और वन पर पूरा देश राज करता है, झारखंड अपने पैसों से एक आदर्श और प्रेरक राज्य बन सकता था। अगर भाजपा फिर भी मूल संस्कृति को खारिज करती रहेगी, मूल नेताओं को हाशिये पर भेजती रहेगी तो फिर भाजपा अंनत काल तक सत्ता की चाभी हासिल करने की वीरता नहीं दिखा सकती है।


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VISHNU GUPT
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Sunday, November 3, 2019

क्यों सुरक्षित है इमरान खान की सत्ता ?

राष्ट्र-चिंतन
विपक्ष के राजनीति बंवडर से भी खतरे मे नहीं है इमरान सरकार

क्यों सुरक्षित है इमरान खान की सत्ता ?

         विष्णुगुप्त


इमरान खान प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा देने के लिए क्यों नहीं बाध्य होंगे? पाकिस्तान की इमरान खान की सरकार के भविष्य को क्यों सुरक्षित माना जा रहा है? इमरान खान की सरकार के खिलाफ विपक्ष का उठा राजनीतिक बवंडर को निरर्थक या फिर लक्ष्यविहीन क्यो माना जा रहा है? विपक्ष के राजनीतिक बंवडर को पाकिस्तान की सेना का साथ क्यों नहीं मिला? क्या पाकिस्तान की राजनीति में अति कट्टरवादी धारा की जमीन तैयार हो रही है? क्या मुख्य विपक्षी दल पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और नवाज शरीफ की पार्टी की अब सत्ता में लौटने की उम्मीद समाप्त हो गयी है? इमरान सरकार के खिलाफ कट्टरवादी और आतंकवाद के समर्थक मजहबी नेता फजलूर रहमान को इतना समर्थन क्यों मिल रहा है? नवाज शरीफ और विलाल भुट्टों की पार्टी इस मजहबी नेता के पिछलग्गू क्यों बन गयी है? अगर फजलूर रहमान के पक्ष मे कोई राजनीतिक गोलबंदी सुनिश्चित होती है तो फिर पाकिस्तान में आतंकवादी संगठन मजबूत हो सकते है क्या? इमरान खान की सरकार कायम रखने में पाकिस्तान की सेना की क्या मजबूरी है? पाकिस्तान के अंदर में उठे राजनीतिक बंवडर को लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इमरान सरकार की कितनी विश्वसनीयता बची रहेगी? क्या फजलूर रहमान का यह राजनीतिक बवंडर इमरान सरकार की कश्मीर प्रसंग की विफलता का दुष्परिणाम माना जाना चााहिए? पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था इस राजनीतिक बंवडर से और कितना प्रभावित होगी? अर्थव्यवस्था की कसौटी पर ऐसे राजनीतिक बंवडर का समर्थन करना क्या आत्मघाती कदम नही माना जाना चाहिए? पाकिस्तान के अंदर में अर्थव्यवस्था की कसौटी सर्वोच्च स्थान पर रहती हैं क्या? अगर अर्थव्यवस्था की कसौटी सर्वोच्च स्थान पर रहती तो फिर पाकिस्तान के अंदर में आतंकवाद, कट्टरतावाद, मजहबी हिसा, अल्पसंख्यकों के प्रति उदासीनता की न तो काई नींव होती और न ही कोई ऐसी फसल लहलहाती? क्या यह सही नही है कि आतंकवाद, कट्टरवाद और मजहबी हिंसा जैसी नकारात्मक राजनीति अर्थव्यवस्था को मजबूत नहीं होने देती? फजलूर रहमान के इस राजनीतिक बंवडर से पाकिस्तान की साख एक बार फिर दुनिया के अंदर अविश्वसनीयता का शिकार हुई है, कमजोर हुई है। सुनिश्चित तौर पर पाकिस्तान की वर्तमान अर्थव्यवस्था और भी चैपट होगी?
                                                  फजलूर रहमान का यह राजनीतिक बंवडर कितनी शक्ति निर्मित कर पायी, इमरान खान की सरकार को कितनी डरा पायी? इमरान खान क्या भविष्य में इस्तीफा देने के लिए मजबूर होंगे? ऐसे प्रश्न दुनिया के लिए महत्वपूर्ण होंगे पर पाकिस्तान के लिए ऐसे प्रश्न कोई अर्थ नहीं रखते है? पाकिस्तान का यही इतिहास है कि वहां पर अंधेरगर्दी पंसद की जाती है, अराजकता को समर्थन मिलता है, शक्ति मिलती है। भारत जैसी जनक्रांति पाकिस्तान कें अंदर न तो हो सकती है और भविष्य में भी न होने की उम्मीद हो सकती है। भारत में आजादी के बाद भी कई राजनीतिक जनक्रातियां हुई है, इमरजेंसी के दौरान इन्दिरा गांधी जैसी तानाशाही राजनीतिज्ञ का पतन जनक्रांति से हुई थी, अराजक और  भ्रष्ट सरकारें वोट की जनक्रांति से जमींदोज होती रही हैं। पर पाकिस्तान में एक भी ऐसी क्रांति नहीं हुई है और वोट क्रांति पर भी पाकिस्तान की सेना का पहरा रहा है, पाकिस्तान की सेना जिधर चाहती है उधर वोट की क्रांति का मुंह मोड देती है। यह भी सही है कि आंदोलन तभी कोई सफल होता है जब उस आंदोलन का व्यापक समर्थन हासिल होता है और आंदोलन कर्ता का जनाधार व्यापक होता है। अब यहां यह भी देखना होगा कि इमरान खान को इस्तीफा देने के लिए मजबूर करने के उद्देश्य से आंदोलन कर रही फजलूर रहमान की पार्टी का समर्थन और जनाधार व्यापक है या नहीं, इस पार्टी का जनाधार दो प्रमुख प्रदेशों और प्रमुख सत्ता के केन्द्र में खडी जातियों में है या नहीं? उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान के अंदर कई जातीय और कई क्षेत्रो की अस्मिताएं राजनीति को नियंत्रित करती रही हैं। इनमे से दो प्रमुख जातीय और क्षेत्रीय अस्मिताएं हैं जो पाकिस्तान की सत्ता पर राज करती रही हैं और जिनका पाकिस्तान के सभी क्षेत्रों पर पकड मजबूत हैं। ये दोनों अस्मिताओं के नाम पंजाबी और सिंधी अस्मिताएं हैं। पंजाबी अस्मिाओं का प्रतिनिधित्व नवाज शरीफ करते हैं और उनकी पार्टी करती है जबकि सिंघी अस्मिता का प्रतिनिधित्व भुट्टों परिवार करता है। भुट्टों परिवार का प्रतिनिधित्व अभी विलाल भुट्टों कर रहे हैं जो पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति आसिफ जरदारी और पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टों के बेटे हैं। फजलूर रहमान न तो पंजाबी मूल का प्रतिनिधित्व करते है और न ही फजलूर रहमान सिंघी मूल का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए उपर्युक्त तथ्यों के अवलोकन से साफ होता है कि पूरे पाकिस्तान में न तो फजलूर रहमान का कोई खास वजूद है और न ही पूरे पाकिस्तान से उसे व्यापक समर्थन हासिल हो रहा है। अगर ऐसा  है तो फिर फजलूर रहमान का आंदोलन भी कोई लक्ष्य कैसे प्राप्त कर सकता है?
                                 पाकिस्तान की सेना की सर्वोपरीयता को अभी तक किसी ने चुनौती देने का सरेआम साहस नहीं किया है, उडने के लिए जो राजनीतिक पंख फडफडाये वह राजनीतिक पंख उडान भरने के पूर्व ही काट डाले गये। पाकिस्तान के राजनीतिक शासक फंासी के फंदों पर टांग दिये गये, सेना की जेलो में डाल कर सडा दिये गये। नवाज शरीफ ने सेना के खिलाफ अपने पंख फडफडाने की कोशिश की थी। दुष्परिणाम क्या निकला, यह देख लीजिये। पाकिस्तान की सेना ने अपनी बर्वरता और संहारक प्रवृति को हथियार बना कर न्यायपालिका को अपने चंगुल में ले लिया। न्यायपालिका ने नवाज शरीफ सहित बहुत सारे राजनीतिज्ञों को भ्रष्टाचार का दोषी ठहरा कर जेलों में डाल दिया और इनसबों की छवि बिगाड डाली। आज नवाज शरीफ जेल में मिले उत्पीडन के कारण जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं। जब नवाज शरीफ और आसिफ जरदारी-बिलाल भुट्टो सहित लगभग सभी नेता चुनाव लडने से अयोग्य हो गये, जनता के बीच इनकी छवि खराब कर दी गयी तो फिर पाकिस्तान की जनता के बीच विकल्प ही क्या था? ऐसी परिस्थितियों मेें पाकिस्तान की सेना की कोख से इमरान खान जैसे गैर राजनीतिक किस्म के शासक का जन्म होता है और इमरान खान सेना के मोहरा के तौर पर पाकिस्तान की सत्ता पर कायम हो जाते हैं।
                             इमरान खान निश्चित तौर पर पाकिस्तान की सेना का मोहरा है। पाकिस्तान की सेना अपने इस मोहरा को कभी खोना नहीं चाहेगी। इमरान खान जैसा हां में हा मिलाने वाला राजनीतिज्ञ और कहां मिलेगा? पाकिस्तान की सेना यह सच्चाई जानती है। पाकिस्तान की सेना यह जानती है कि इमरान खान की ऐसा राजनीतिज्ञ हो सकता है जो सेना की सर्वोच्चता को बनाये रख सकता है। पाकिस्तान की सेना को यह विश्वास है कि जब तक उसके पास इमरान खान जैसा मोहरा है तब तक पंजाबी और सिंघी राजनीतिक अस्मिाएं भी नियंत्रित है। फजलूर रहमान जैसे नेताओं के आंदोलन से कोई खास प्रभाव नहीं पडने वाला है। जबकि पाकिस्तान की जनभावनाएं इमरान सरकार के खिलाफ खडी है। पाकिस्तान की जनभावनाएं यह मानती है कि कश्मीर के प्रश्न पर इमरान खान की विफलता घातक है, पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए आत्मघाती है, अगर इमरान खान की जगह कोई और प्रधानमंत्री होता तो फिर कश्मीर के प्रश्न पर दुनिया के अंदर में व्यापक समर्थन हासिल कर सकता था। इसके अलावा भी इमरान खान के अलोकप्रिय होने के कारण है। सबसे बडी बात आतंकवादियों और मजहबी जमात का नियंत्रण है। आतंकवादियों और मजहबी जमात के नियंत्रण की कोई कोशिश ही नहीं हुई। सेना अपने पाले हुए आतंकवादियों और मजहबी जमात को समाप्त नहीं होने देना चाहती है। इस कारण पाकिस्तान की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनामी रूकती नहीं है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इमरान खान की अविश्वसनीयता जारी रहेगी।
                                        अर्थव्यवस्था गत विकास के लिए और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इमरान सरकार की विश्वसनीयता के लिए शांति और हिंसा से मुक्ति जरूरी है। ऐसी राजनीतिक तकरार और बाधाओं से पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था से मजबूत नहीं होगी, दुनिया के निवेशक भी पाकिस्तान में निवेश करने की रूचि नहीं रखेंगे। अंतराष्ट्रीय स्तर पर कर्ज देने वाले देश और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं भी निवेश करने या फिर कर्ज देने से डरेंगे। आतंकवादी संगठनों के भी मजबूत होने के खतरे हैं। इसलिए कि फजलूर रहमान के आंदोलन में आतंकवादी संगठन और मजहबी कट्टरपंथी लोग ही शामिल हैं, अगर ऐसे लोग राजनीतिक समर्थन हासिल करते हैं तो आतंकवाद और हिंसा की कसौटी पर पाकिस्तान की स्थिति और भी विस्फोटक होगी। इमरान खान ही नहीं बल्कि पाकिस्तान की सेना को राजनीतिक सर्वानूमति बना कर चलने की जरूरत है।

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