Tuesday, May 21, 2019

अमेरिका इराक की तरह ईरान का विध्वंस करेगा क्या ?




                       राष्ट्र-चिंतन

अमेरिका इराक की तरह ईरान का विध्वंस करेगा क्या ?
          
     
                            विष्णुगुप्त



अमेरिका-ईरान के बीच युद्धक तनातनी में भारत की भूमिका क्या होनी चाहिए? क्या ईरान का हाल भी इराक की तरह ही होगा? क्या जार्ज बुश की तरह डोनाल्ड ट्रम्प भी युद्धक मानसिकता पर सवार हैं? अगर अमेरिका और ईरान के बीच कोई युद्ध हुआ और युद्ध लंबा खिंचा तो फिर दुनिया की अर्थव्यवस्था कैसी होगी, क्या दुनिया की अर्थव्यवस्था गतिमान रहेगी या फिर दुनिया की अर्थव्यवस्था पर मंदी की छाया रहेगी? अमेरिका और ईरान के बीच युद्ध हुआ तो फिर चीन-रूस जैसी युद्धक शक्तियां निष्पक्ष बनी रहेंगी या फिर सीरिया की तरह ईरान का साथ देगी? क्या ईरान के पास ऐसी सामरिक शक्ति है जो अमेरिका की युद्धक मानसिकता और अमेरिका द्वारा थोपी जाने वाले युद्ध का सफलतापूर्वक साामना कर सके? अगर ईरान के पास युद्धक क्षमता नहीं है तो फिर ईरान भी इराक की श्रेणी में खडा हो सकता है क्या? ईरान अमेरिकी प्रतिबंधों से फिलहाल किस प्रकार की समस्याओं से धिरा हुआ है? जब भारत और अन्य दुनिया के देश ईरान से तेल खरीदना बंद कर देंगे तो फिर ईरान की आंतरिक अर्थव्यवस्था कैसे और किस प्रकार से गतिमान होगी? अगर ईरान की अर्थव्यवस्था पर मंदी छायी रही और तेल के खरीददार भाग खडे हुए तो फिर ईरान की जनता अपनी जरूरत के चीजों के लिए किस प्रकार से संधर्ष करेंगे? क्या ईरान ने अमेरिकी प्रतिबंधों से लडने की कोई चाकचैबंद योजनाएं बनायी हैं? क्या ईरान ने अमेरिकी युद्धक हमलों से बचाव और सामना करने के लिए कोई युद्धक योजनाएं बनायी हैं या नहीं? क्या अमेरिकी बहकावे में सउदी अरब का आना सही है? क्या सउदी अरब का ईरान के खिलाफ संभावित अमेरिकी युद्ध में कूदना अरब महादेश के लिए सही होगा या गलत? अगर सउदी अरब भी अमेरिका का पिछलग्गू बन कर युद्ध में कूदा तो फिर अरब देशों की मुस्लिम एकता टूटेगी या नहीं? क्या शिया-सुन्नी युद्ध की भी कोई आशंका दिख रही है? जानना यह जरूरी है कि ईरान एक शिया बहुलता और अस्मिता वाला देश है जबकि सउदी अरब सुन्नी बहुलता और सुन्नी अस्मिता वाला देश है। सउदी अरब और ईरान के बीच हमेशा युद्ध की आशंका बनी रहती है, अरब में अपनी सर्वश्रेष्ठता और वर्चस्व के लिए सउदी अरब और ईरान तलवारें भाजंते रहे हैं।
अमेरिका की अभी-अभी ताजी धमकी आयी है, अमेिरका ने सीधे तौर पर कहा है कि ईरान युद्ध लडा तो फिर ईरान का अंत हो जायेगा। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प उसी तरह की धमकी पिला रहे हैं जिस तरह की धमकी जार्ज बुश इराक को दिया करते थे। उल्लेखनीय है कि रसायनिक हथियारों के प्रोपगंडा के आधार पर जार्ज बुश जूनियर ने इराक पर हमला किया था। बाद में इराक में रसायनिक हथियारों की बात झूठी साबित हुई थी फिर भी जार्ज बुश जूनियर ने इराक में सदाम हुसैन के पतन को अपनी जीत बतायी थी। अभी-अभी जो अमरिका की ईरान विरोधी युद्धक मानसिकताएं सामने आयी है उससे पूरी दुनिया सकते हैं, पूरी दुनिया का जनमानस इसे पागलपन समझता है या फिर सनकी भरा ही नहीं बल्कि दुनिया की मानवता के लिए खतरनाक, हानिकारक समझता है। पर दुनिया के जनमानस का कद्र कभी अमरिका करता ही नहीं है। सबसे बडी बात यह है कि दुनिया के जनमानस या फिर दुनिया की जनभावना का सम्मान कोई भी वीटो धारी देश नहीं करते हैं। वीटोधारी देश हमेशा से दुनिया की जनभावना को कुचलते हैं, वीटोधारी देश दुनिया के गरीब देशों के हितों पर कैंची चलाते हैं, दुनिया के वीटोधारी देश दुनिया के गरीब देशों के प्राकृतिक संसााधनों पर बलपूर्वक कब्जा करते हैं। कभी चीन ने संयुक्त राष्ट्रसंध के चार्टर की धज्जियां उडाते हुए भारत पर हमला किया था, अमेरिका का हाथ सीरिया, वियतनाम और इराक सहित अन्य देशों के खून से रंगे हुए हैं, कभी सोवियत संघ ने भी अफगानिस्तान पर कब्जा कर संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर का विध्वंस किया था। जानना यह भी जरूरी है कि अमेरिका, चीन, ब्रिटेन, फंास और रूस के पास वीटो का अधिकार है और ये पांचों देश सुरक्षा परिषद के सदस्य हैं। अनिवार्य तौर पर वीटो देशों की इच्छाएं संयुक्त राष्ट्र में सिर चढ कर बोलती हैं और गरीब और अविकसित देशों की इच्छाएं और हित संयुक्त राष्ट्रसंध में बेमौत मरती रही हैं।
अमेरिका और ईरान के बीच ताजा विवाद क्या है और अमेरिका ईरान से क्या चाहता है, किस प्रकार की इच्छाओं को लेकर अमेरिका आग बबूला है? क्या कोई पुरानी मानसिकताएं भी उकसा रही हैं, क्या कोई पुरानी ग्रथियां भी अमेरिका और ईरान के बीच झगडे का कारण रही हैं? जबसे ईरान में इस्लामिक क्रांति हुई है तब से अमेरिका और ईरान के बीच में संबध कटूतापूर्ण रहे हैं, ईरान की इस्लामिक क्रांति को अमेरिका कभी-भी पचा नहीं सका। इस्लामिक क्रांति के पूर्व ईरान की राजतांत्रिक व्यवस्था से अमेरिका के संबध बहुत अच्छे थे और ईरान भी प्रगति के रास्ते पर था, ईरान में सामाजिक खुला पन दुनिया में चर्चित था। इस्लामिक क्रांति से इस्लामिक रूढियों को विस्तार हुआ और इस्लामिक रूढियों ने अन्य धर्मा और पंथों पर खूनी और दंगाई समस्याएं थोपी थी। अमेरिका अपने आप को दुनिया के धार्मिक अधिकारों का रखवाला समझता है, अपने आप को अमेरिका दुनिया के मानवता का रखवाला समझता है। ऐसे में इस्लामिक ईरान और अमेरिका के बीच कैसे मधुर सबंध विकसित हो सकते थे? सटनेश वर्शेज के लेखक सलमान रूशदी की हत्या के लिए जारी ईरान का फतवा भी अमेरिका के ईरान विरोधी होने का कारण रहा है। 
तत्कालीक कारण ईरान का अंतर्राष्ट्रीय परमाणु समझौते से हटना है। ईरान ने 2015 के अंतर्राष्ट्रीय परमाणु समझौते की प्रतिबंद्धताओं से हटने की घोषणा की थी। 2015 में ईरान और अमेरिका के नेतृत्व में अंतर्राष्ट्रीय परमाणु समझौता हुआ था। इस अंतर्राष्ट्रीय समझौते में अमेरिका के साथ ब्रिटेन और फ्रांस भी थे। ईरान के साथ यह परमाणु समझौता बराक ओबामा की देन थी। इस समझौते के तहत ईरान को अपने परमाणु कार्यक्रम में पारदर्शिता लाने की प्रतिबद्धता थी, ईरान के परमाणु धरों और ईरान के सभी प्रकार की परमाणु योजनाओं का निरिक्षण करने का अधिकार अमेरिका और समझौते में शामिल देशों के पास था। अमेरिकी कूटनीति यह आरेाप लगाती रही थी कि ईरान ने अपनी प्रतिबद्धता का पालन नहीं किया और परमाणु हथियार विकसित कर रहा है। डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने चुनाव के दौरान ईरान के साथ परमाणु समझौता से हटने का वायदा किया था। डोनाल्ड ट्रम्प राष्ट्रपति बनने के बाद ईरान के साथ परमाणु समझौते से हटने की घोषणा कर डाली थी। ईरान के साथ परमाणु समझौते पर ब्रिटेन और फ्रांस भी हस्ताक्षर किये थे। ब्रिटेन और फ्रांस ईरान के साथ परमाणु समझौते से हटने के खिलाफ थे। पर डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने मित्र देश ब्रिटेन और फ्रांस की भी परवाह नहीं की थी। डोनाल्ड ट्रम्प का तब कहना था कि उसे सिर्फ अपने देश के हित चाहिए। अमेरिका ने ईरान के आस-पास अपने घातक हथियार तैनात कर दिये हैं। अमेरिका का कहना है कि अगर उसके प्रतिबंधों का तोडा गया और नजरअंदात किया गया तो फिर उसके हथियार जवाब देंगे।
इधर सउदी अरब भी ईरान के खिलाफ कूद चुका है। सउदी अरब का कहना है कि वह ईरान के खिलाफ कोई भी युद्ध लडने के लिए तैयार है। अरब क्षेत्र में चल रहे आतंकवाद की कई लडाइयों को लेकर सउदी अरब और ईरान के बीच तलवारें खिंची हुई हैं। सउदी अरब अमेरिका का विश्वसीनय साझीदार है। अमेरिका स्वयं युद्ध करेगा या नहीं, इस पर संदेह है। पर सउदी अरब को अमेरिका ईरान के खिलाफ खडा कर सकता है। जहां तक भारत का प्रश्न है तो भारत के सामने कुएं और खाई की स्थिति उत्पन्न है। भारत को अभी तय करना है कि उसे ईरान से तेल खरीदना है या नहीं। अगर भारत ईरान से तेल खरीदना जारी रखा तो फिर अमेरिका से नाराजगी मोल लेनी होगी। भारत के लिए सउदी अरब ही नहीं बल्कि ईरान भी अच्छे दोस्त हैं और आर्थिक संबंध भी दोनों देशों के बीच है। भारत को ईरान और अमेरिका के बीच तनातनी को कम करने की भूमिका निभानी चाहिए। ईरान को भी फिर से परमाणु कार्यक्रमों पर विचार करना चाहिए। ईरान को परमाणु मिसाइलों और अन्य परमाणु हथियारों का उन्नयन बंद कर देना चाहिए। अगर ईरान ने समझदारी नहीं दिखायी तो फिर उसे विध्वंस का सामना करना पडेगा। अमेरिका इराक की तरह ईरान को बर्बाद कर देगा। पर प्रश्न यह है कि क्या ईरान भी समझदारी दिखाने के लिए तैयार है।


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Saturday, May 18, 2019

कांग्रेस का किसान प्रेम एक छलावा था






                       राष्ट्र-चिंतन
कांग्रेस का किसान प्रेम एक छलावा था
किसानों की नाराजगी कांग्रेस के लिए पडे़गी भारी

            विष्णुगुप्त

मध्य प्रदेश के किसान अब अपने आप को छले- ठगे महसूस कर रहे हैं, यह मान रहें हैं, कि उनके साथ वायदा खिलाफी हुई है, वोट लेकर अब कर्ज माफी योजना पर पैंतरेबाजी हो रही है। मध्य प्रदेश के किसानों को छलने वाली, ठगने वाली राजनीतिक पार्टी कौन है? मध्य प्रदेश के किसानों को छलने वाले और ठगने वाले नेता कौन-कौन हैं? जाहिर तौर पर कांग्रेस मध्य प्रदेश के किसानों को छली है, ठगी है, राहुल गांधी, दिग्विजय सिंह, कमलनाथ ने मध्य प्रदेश के किसानों के साथ वायदा खिलाफी की है। क्या यह नहीं मान लिया जाना चाहिए कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस का किसान प्रेम सिर्फ एक छलावा था, किसानों को मूर्ख बनाने का हथकंडा था? राजनीतिक पार्टियां तो किसानों को बार-बार ठगती ही हैं।
            अब हम यहां यह देखे कि कांग्रेस ने मध्य प्रदेश के किसानों के साथ कैसे-कैसे वायदे किये थे, कितने दिनों के अंदर पूर्ण कर्ज माफी योजना को सफल बनाने की हुंकार भरी गयी थी, खासकर कांग्रेस के राष्टीय अध्यक्ष राहुल गांधी और वर्तमान में मध्य प्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री कमलनाथ के वायदे और बोल क्या थे। राहुल गांधी के वायदे और बोल को पहले देख लीजिये। राहुल गांधी ने मध्य प्रदेश में किसानों के बीच जाकर कहे थे कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और शिवराज सिंह चैहान झूठे हैं, किसान विरोधी हैं, मोदी और शिवराज के राज में किसानों का भला नहीं होने वाला है, इसलिए देश से मोदी और मध्य प्रदेश से शिवराज सिंह चैहान की सरकार की विदाई होनी चाहिए, राहुल गांधी ने कांग्रेस को किसानों की हितैषी बताया था और कहा था कि अगर मध्य प्रदेश मे कांग्रेस की सरकार आयी तो फिर किसानों को आत्महत्याएं करने के लिए बाध्य नहीं होना पडेगा, सिर्फ दस दिन के अंदर किसानों का पूर्ण कर्ज माफ किया जायेगा, अगर कांग्रेस के मुख्य मंत्री किसानों के कर्ज दस दिनों में माफ नहीं किये तो फिर दंड स्वरूप मुख्यमंत्री को बदल दिया जायेगा। कांग्रेस के मध्य प्रदेश के अध्यक्ष के रूप में कमलनाथ ने सभी प्रकार के कर्ज तुरंत माफ करने का वायदा किया था। 
किसानों को मूर्ख बना कर कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में चुनाव जीत लिया, पर क्या राहुल गांधी और कमलनाथ को अपने अपने वायदे याद हैं, यह एक यक्ष प्रश्न हैं, क्या राहुल गांधी ने अपने वायदे के अनुसार किसानों के कर्ज 10 दिन के अंदर माफ नहीं करने पर अपने मुख्यमंत्री कमलनाथ को हटा पाये? प्रमाणित तौर पर राहुल गांधी और कमलनाथ को अपने वायदे अब मालूम नहीं है, किसानों के लिए राहुल गांधी और कमलनाथ झूठे साबित हुए हैं, ठग साबित हुए हैं। किसानों की कर्ज माफी योजना पर अब पैंतरेबाजी हो रही है, यह कहना गलत नहीं होगा कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस किसानों के साथ अन्याय पर उतर आयी है तो फिर कोई गलत बात नहीं होगी। अब यहां यह प्रश्न भी है कि किसानों की कर्ज माफी योजना को लागू करने में कांग्रेस किस प्रकार की पैंतरेबाजी कर रही है, किसानों के खिलाफ कांग्रेस किस प्रकार के खेल खेल रही है। अब कांग्रेस की मध्य प्रदेश की सरकार किसानों की कर्ज माफी के लिए वर्गीकरण पर वर्गीगरण कर रही है, कह रही है कि टैक्टर और टाॅली पर कर्ज लेने वाले किसानों का कर्ज माफी नहीं होगा। कर्जमाफी योजना को सीमा में बांध चुकी है। कमलनाथ सरकार अब कहती है कि सिर्फ 31 मार्च 2018 के पहले के कर्ज ही माफी योजना के अंतगर्त आयेंगे। कमलनाथ सरकार के इस सीमा वर्गीकरण का शिकार बडी संख्या में किसान होंगे और किसानों के एक बडे वर्ग की समस्याएं जरूर बढेंगी। सिफ्र इतना ही नहीं बल्कि कर्ज माफी योजना में छल भी बहुत हो रहा है। बहुत सारे किसानों के हजार-दो हजार रूपये ही माफ हुए हैं। जबकि कांग्रेस का वायदा था कि दो लाख तक के कर्ज में डूबे सभी किसानों के कर्ज माफ कर दिये जायेंगे। अब कांग्रेस यह बताने के लिए तैयार नहीं है कि दो लाख की सीमा को वह क्यों नहीं स्वीकार कर रही है?
सबसे बडी बात यह है कि कांग्रेस कर्जमाफी योजना पर गलत आंकडे प्रस्तुत कर रही है, बैंक की रिपोर्ट और सरकार की घोषणा में कोई समानता नहीं है। जब तक कमलनाथ सरकारी बैंकों को कर्ज माफी का पैसा नहीं देगी तब तक बैंक कर्ज माफी योजना को कैसे स्वीकार कर सकते हैं। मध्य प्रदेश का खजाना खाली है, मध्य प्रदेश सरकार के  किसानों के कर्ज माफ करने के लिए पैसे जुटाने के अन्य स्रोत भी अभी तक सामने नहीं आये हैं। केन्द्रीय चुनाव कांग्रेस के लिए एक हथकंडा बन गया। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि कांग्रेस ने केन्द्रीय चुनाव को एक हथकंडा के तौर पर अपना लिया। कांग्रेस की सरकार कहती है कि चुनाव अचार संहिता लग जाने के कारण उनके हाथ बंधे हुए हैं, चुनाव आयेग ने हाथ बांध रखे हैं। पर चुनाव अचार संहिता लगने से पहले भी काफी समय था। अगर मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार ईमानदार होती और किसानों की पीडा से जुडी होती तो फिर मध्य प्रदेश की सरकार केन्द्रीय चुनाव अचार संहिता लगने से पहले ही किसानों की कर्ज माफी कर सकती थी, पूर्ण कर्ज माफी का सर्टिफिकेट किसानों को सौंप सकती थी। निश्चित तौर पर मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार ऐसा नहीं कर सकी। मध्य प्रदेश सरकार स्वयं दोषी रही है, सरकारी खजाना खाली होने के कारण लाचार भी रही है पर दोष केन्द्रीय चुनाव अचार संहिता को देती है।
मध्य प्रदेश ही क्यों बल्कि पूरे देश के किसान बार-बार ठगे जाते हैं, चुनाव के समय किसान प्रेम उमडता है, किसानों की राजनीतिक शक्ति सभी को चाहिए, जब किसानों की राजनीतिक शक्ति राजनीतिक पार्टियों को चाहिए तो फिर किसानों को ठगने के लिए झूठी वायदे भी किये जाते हैं, ऐसे-ऐसे वायदे भी किये जाते हैं, जिनकी पूर्ति संभव ही नहीं हो सकती है। किसान भी बार-बार झूठे वायदों में फंस जाते हैं, बहकावे में आ जाते हैं। किसान यह नहीं सोचते हैं कि जिस राजनीतिक पार्टी ने वायदे किये हैं, वह अपने वायदे किस प्रकार से पूरे कर सकती है। मध्य प्रदेश के किसानों ने पिछली शिवराज सिंह सरकार के समय बडे-बडे आंदोलन किये थे, बडी-बडी सभाएं की थी। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि किसान अपने उत्पाद को सरेआम सडको पर फेका था, दूध भी सडकों पर फेका था। दूध, सब्जियां सडकों पर फेकने पर शिवराज सिंह चैहान सरकार की बदनामी बडी हुई थी। सिर्फ मध्य प्रदेश मे ही नहीं बल्कि पूरे देश में यह संदेश गया था कि सही में मध्य प्रदेश के किसानों की समस्याएं जटिल है, मध्य प्रदेश के किसान भूखमरी के शिकार है, मघ्य प्रदेश की शिवराज सिंह चैहान सरकार  सही में किसान विरोधी है। जबकि सच्चाई यह थी कि किसानों के वेश में कांग्रेसी कार्यकर्ता आंदोलन कर रहे थे। कांग्रेसी कार्यकर्ता मार्केट से सब्जियां और दूध आदि खरीद कर सडकों पर फेंक रहे थे। किसानों के उपर जो गोलियां चली थी, किसानों के उपर जो पुलिस की लाठियां बरसी थी वह भी कांग्रेसी कार्यकर्ताओ के हथकंडे के कारण चली थी। कांग्रेसी कार्यकर्ताओ ने किसानों के वेश में आकर किसान आंदेालन में पेट्रोल डालने का कार्य किये थे। हिंसा करने और कानून तोडने के लिए कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने किसानों को उकसाये थे। 
          मध्य प्रदेश के किसानों में कांग्रेस के प्रति गुस्सा भी कम नहीं है। इस केन्द्रीय चुनाव में किसान कांग्रेसी नेताओं को आईना दिखा रहे हैं, पूर्ण कर्ज माफ नहीं करने पर प्रश्न कर रहे हैं। अब किसानों की नाराजगी कांग्रेस के लिए भारी पडने वाली है। मध्य प्रदेश में किसानों की नाराजगी के कारण कांग्रेस को केन्द्रीय चुनाव वैसी सफलता नहीं मिलेगी जैसी सफलता की उम्मीद राहुल गांधी और कमलनाथ ने पाल रखी है।


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विष्णुगुप्त
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Tuesday, May 14, 2019

आज के पत्रकार शिखंडी बन गए हैं

आज के पत्रकार शिखंडी बन गए हैं
जावेद अख्तर की मजहबी बातो पर तालियां बजा रहे थे
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भोपाल मे जावेद अख्तर के प्रेस कॉन्फ्रेंस में पत्रकारों की भूमिका देखकर मै ढंग था, पत्रकार शिखण्डी बन गए थे, इस्लाम से ग्रसित बातो पर भी जमकर तालियां बजा रहे थे, घूँघट को बुर्का से जोड़कर देखने और एक तरह से बुर्का का समर्थन करने पर भी पत्रकार समर्थन कर रहे थे। बहुत सारे पत्रकार तो कांग्रेस के वर्कर की भूमिका मे थे। जब जब जावेद अख्तर प्रज्ञा ठाकुर की खिल्ली उडाता था तब तब पत्रकार अशोभनीय कॉमेंट करते थे। प्रज्ञा ठाकुर के श्राप वाली बात पर पत्रकार कह रहे थे कि प्रज्ञा ठाकुर पाकिस्तान के आतंकवादियो को श्राप इसलिये नही देना चाहती क़ि वह एलओसी पास नही करना चाहती। प्रज्ञा ठाकुर का जमकर उपहास भी उडा रहे थे। लगता था क़ि प्रेस कांफ्रेंस कि स्क्रिप्ट पहले से ही लीखी गयी थी, पत्रकार जावेद अख्तर को असहज, परेशानी मे डालने वाले या फिर आईना दिखाने वाले प्रश्न नही कर रहे थे। बहुत सारे पत्रकारों की आस्था बदली हुई दिखी, भाजपा की सत्ता जाते ही लाभ लेने वाले पत्रकार कांग्रेसी हो गए। जावेद अख्तर का प्रेस कॉन्फ्रेंस दिग्विजय सिंह द्वारा प्रायोजित था। जावेद अख्तर दिग्विजय सिंह को जीताने के अभियान पर ही भोपाल आया था।



  विष्णुगुप्त
9315206123

पर ‘ जसोदा बेन ‘ तो गर्व की देवी हैं



          राष्ट्र-चिंतन
पर ‘ जसोदा बेन ‘ तो गर्व की देवी हैं

जसोदा बेन तो प्रेरणा के स्रोत हैं, वह तो गर्व की देवी हैं, लोभ, लालच से परे, लोकप्रियता भी उन्हें नहीं चाहिए, अपने परिवार को भी नियंत्रण में रखी हैं, इसीलिए विपक्ष असफल है

      
            
                विष्णुगुप्त



चुनावी अभियान में भाषा की मर्यादा छिन्न-भिन्न हुई है, नैतिकता और सभ्यता का घोर अभाव है, यह लगता नहीं है कि सभ्य या नैतिक लोग जय-पराजय की चुनावी लडाई लड रहे हैं, सिर्फ यही लगता है कि पशुतापूर्ण लडाई चल रही है, यह कहना भी गलत नहीं होगा कि चुनावी राजनीति में पशुता से भी आगे बढ गये हैं। कोई चैकीदार चोर कह रहा है तो कोई मरे हुए व्यक्ति को चुनावी अभियान में लाभ लेने की कोशिश कर रहा है, कोई प्रधानमंत्री को प्रधानमंत्री नहीं मानने की बात कह रहा है, कोई प्रधान मंत्री को चाटा मारने की बात कर रहा है, कोई 1984 के सिख दंगे को जस्टीफाई करने के लिए कह रहा है कि हुआ सो हुआ, कोई चुनाव के बाद अपने विरोधियों को जेल भेजने की बात कर रहा है, कोई कह रहा है कि जो पूरा परिवार जमानत है पर उसे भ्रष्टचार-कदाचार पर बोलने का अधिकार नहीं है। उर्पयुक्त सभी अनावश्यक और अमान्य बातें सिद्ध करती है कि आज की हमारी राजनीति कितनी असभ्य और कितनी भयानक हो गयी है, हथकंडों और असभ्य भाषा के प्रयोग कर अपने लिए सत्ता अर्जित का खेल खेला जा राह है।
                             लेकिन इस चुनाव में और  भी उल्लेखनीय बातें हैं जिस पर नजर होनी चाहिए, जिस पर विमर्श होना चाहिए और यह भी देखा जाना चाहिए कि वे बातें विपक्ष के लिए यानी नरेन्द्र मोदी के विरोधियों के लिए शक्ति क्यों नहीं बन पाती है, हथकंडा क्यों नहीं बन पाती है, उस बात पर मोदी को घेरने के लिए राजनीतिक सफलता क्यों नहीं मिल पाती हैं। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि वह बात कौन सी है और उस बात से नरेन्द्र मोदी और नरेन्द्र मोदी के विरोधियों के बीच किस प्रकार से शह-मात का खेल जारी रहता है? यह बात नरेन्द्र मोदी की पत्नी जसोदा बेन से जुडी हुई है। अभी-अभी कि चुनावी राजनीति की ही बात नहीं है बल्कि बात अभी-अभी से भी पुरानी बात है, बात तो तब शुरू हुई थी जब नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्य मंत्री बने थे। जब नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे तब उनके विरोधियों ने जसोदा बेन को लेकर राजनीतिक हमले करते रहे थे, जासोदा बेन को राजनीतिक मोहरा बनाने की कोशिश करते रहे थे। पर इसमें नरेन्द्र मोदी के विरोधियों को कोई सफलता नहीं मिली थी, सबसे बडी विशेषता की बात यह थी कि खुद जसोदा बेन मोहरा या फिर राजनीतिक हथकंडा बनने के लिए तैयार नहीं हुई थी। जब नरेन्द्र मोदी 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री के उम्मीदवार घोषित किये गये थे तब भी जसोदा बेन का प्रशंग उछाला गया था, खासकर कांग्रेस के नेता रेनुका चैधरी ने कहा था कि जो अपनी पत्नी को न्याय नहीं दे सका वह व्यक्ति प्रधानमंत्री के रूप में देश के साथ न्याय कर सकता है क्या? कई अन्य विरोधी नेताओं के भी इससे भी बढ कर आलोचनाएं थी। फिर भी जनता के उपर कोई प्रभव नहीं पड सका और नरेन्द्र मोदी बहुमत के साथ सत्ता में आये और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे।
                    अभी-अभी के चुनावी वातावरण में जसोदा बेन को लेकर किस प्रकार के चुनावी राजनीति हो रही है, जसोदा बेन को लेकर किस प्रकार की आलोचनाएं जारी हैं, उसके कुछ उदाहरण यहां प्रस्तुत है। मायावती कहती है कि नरेन्द्र मोदी ने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए पत्नी जसोदा बेन को छोड दिया, दूसरों की मां-बहन और बेटियों की पीडा और इज्जत को ये कैसे समझ पायेंगे, ये खुद अपनी पत्नी की पीडा को समझ नहीं सके, सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि मायावती ने वोटरों से जसोदा बेन की कसौटी पर मोदी के पक्ष में मतदान नहीं करने की अपील तक कर डाली। विपक्षी एकता के सूत्रधार बनने की राह पर चलने वाले चन्द्रबाबू नायडू का जसौदा बेन की कसौटी पर राजनीतिक हमले को देख लीजिये। चन्द्रबाबू नायडू ने कहा कि आप अपनी पत्नी से अलग रहते हैं, क्या परिवार के मूल्यों के प्रति आपने मन में कोई जगह भी है, नरेन्द्र मोदी का न तो कोई परिवार है और न ही कोई बेटा। अखिलेश यादव ने नरेन्द्र मोदी को पत्नी छोड़वा तक कह डाला था। चारा घोटाले में जेल की सजा काट रहे लालू का बेटा तेजस्वी यादव ने भी जसोदा बेन को लेकर काफी तीखी और अस्वीकार बाते की हैं।
                           जसोदा बेन से जुडे हुए उर्पयुक्त तथ्य क्या कहते हैं, इसके पीछे का असली मकसद क्या है, चुरावी राजनीति मंशा क्या रही है? जहां तक राजनीतिक मंशा की बात है तो यह अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि जसोटा बेन को कसौटी बना कर नरेन्द्र मोदी की छवि को खराब करना, नरेन्द्र मोदी को परिवार के मूल्यों के विरूद्ध खडा करना, जब नरेन्द्र मोदी को परिवार के मूल्यों के खिलाफ खडा कर दिया जायेगा तब जनता के बीच छवि कैसे और क्यों नहीं खराब होगी, जब जनता के बीच छवि खराब होगी तब फिर जनता खिलाफ में वोट जरूर करेगी। अभी-अभी हम यह नहीं कह सकते हैं कि नरेन्द्र मोदी विरोधी राजनीतिक नेताओं की यह सिर्फ और सिर्फ खुशफहमी ही है। यह सही है कि गुजरात में 12 सालों तक यह कसौटी कोई नकरात्मक भूमिका नहीं निभा पायी थी, 2014 के लोकसभा चुनाव में भी इस कसौटी पर राजनीतिक गर्मी कोई भूमिका नहीं निभा पायी थी। हो सकता है कि इस लोकसभा चुनाव में यह कसौटी कोई नकारात्मक भूमिका निभायेगी? नरेन्द्र मोदी विरोधियों को ऐसी ही उम्मीद है। राजनीति में प्रत्येक कसौटी पर उम्मीद जागती है, विपक्ष की उम्मीद पर उंगली नहीं उठायी जानी चाहिए।
                    अब यहां यह भी प्रश्न है कि जसौदा बेन विपक्ष के मोहरे या फिर हथकंडे बनने के लिए तैयार क्यों नहीं होती है? नरेन्द्र मोदी विरोधी राजनीति दलों ने अपनी कोशिश कर देख चुके हैं, जसोदा बेन को नरेन्द्र मोदी के खिलाफ खडा करने की सारे हथकंडे अपना चुके हैं, लोभ-लालच का भी पाशा फेका गया। सिर्फ नरेन्द्र मोदी विरोधी राजनीतिक पार्टियों की ही बात नहीं है बल्कि मीडिया भी अपने प्रयास कर देख लिया है। मीडिया कोई एक दो साल नहीं बल्कि गुजरात में नरेन्द्र मोदी के 12 सालों के कार्यकाल के दौरान और नरेन्द्र मोदी के केन्द्रीय सत्ता के पांच साल यानी कुल 17 सालों तक प्रयास कर चुका है, जसोदा बेन का मुंह खुलवाने के हर संभव कोशिश कर चुका है। राजनीतिक नेताओं , राजनीतिक दलों की तरह ही मीडिया को भी नकामी मिली है। मीडिया आज तक जसौदा बेन का पूर्ण साक्षात्कार तक नहीं ले सका। मीडिया की यह नकामी बहुत बडी है।
            जसोदा बेन की पीडा को समझा जाना चाहिए, जसौदा बेन की पीडा को अस्वीकार नहीं की जा सकती है। जसौदा बेन और नरेन्द्र मोदी के बीच प्रारंभिक दौर में अलगाव के असली कारण भी अभी तक सामने नहीं आये हैं। सिर्फ और सिर्फ नरेन्द्र मोदी के अध्यात्मिक यात्रा ही सामने आयी है। शादी के प्रारभिक दैर में नरेन्द्र मोदी के अंदर अध्यात्मिक यात्रा जागृत हुई थी। स्पष्ट यह है कि नरेन्द्र मोदी करीब पांच साल तक हिमालय की गुफा और अन्य जगहों पर अध्यात्मिक शक्ति की खोज में लिन थे। उसके बाद नरेन्द्र मोदी संघ के जीवनदानी बने थे। अघ्यात्मिक यात्रा और संघ के जीवनदानी होने को ही जसोदा बेन और नरेन्द्र मोदी के बीच संबंध विच्छेद का कारण माना जा रहा है।
              निसंदेह तौर पर जसोदा बेन की दृढ इच्छा का सम्मान किया जाना चाहिए, निसंदेह तौर पर जसोदा बेन को लोभ-लालच से उपर स्वीकार किया जाना चाहिए, सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि जसोदा बेन को एक मिसाल और प्रेरणा के तौर पर देखा जाना चाहिए। अभी भी कानूनी तौर जसोदा बेन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पत्नी हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पत्नी के तौर पर जसोदा बेन का जीवन एक प्रेरणा से कम नहीं है। उनके अंदर कोई कुइच्दाएं नहीं हैं, उन्होंने सरकारी सुविधाएं भी नहीं ली है, अंहकार भी उनके अंदर नहीं है, लाभ और लोकप्रियता पाने की इच्छाओं से भी ये मुक्त हैं। अपने मायके के परिजनों को भी जसोदा बेन नियंत्रित कर रखी है, उनका परिवार भी कोई ऐसा कार्य अब तक नहीं किये हैं जिससे नरेन्द्र मोदी की छवि खराब हो सके। आज राजनीति में छवि खराब होने और कई आरोपों का समाना करने की कसौटी पर परिवार बन जाता है। भारतीय राजनीति में ऐसे हजारों उदाहरण सामने हैं। शायद नियति को वह अपना भाग्य मानती हैं। इसीलिए जसोदा बेन विपक्ष का मोहरा और हथकंडा बनने के लिए तैयार नहीं हैं।

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Wednesday, May 8, 2019

आत्मघाती है दिग्विजय सिंह की मुस्लिम परस्त चुनावी राजनीति

 
         राष्ट्र चिंतन
आत्मघाती है दिग्विजय सिंह की मुस्लिम परस्त चुनावी राजनीति
        


           विष्णुगुप्त

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह के कैसे और क्यों चुनावी रास्ते कठिन होते जा रहे है,  दिग्विजय सिंह खुद अपना ही आत्मघात कर रहे हैं, दिग्विजय सिंह जाने-अनजाने में ऐसी चुनावी भूलें कर रहे हैं जिसके दुष्परिणाम हार के रूप में सामने आ सकते हैं, अपने पक्ष में भस्मासुरों को चुनावी अभियान में क्यों शामिल कर लिया, यह प्रश्न भोपाल के मतदाताओं के बीच गूंज रहा है। चुनावी सफलता दिलाने के अभियान से जुडे कुछ भस्मासुरों के विचार और बयान यहां प्रस्तुत है।
  रामायण और महाभारत हिंसक ग्रंथ हैं... सीताराम यचुरी
   हिन्दुत्व बहुत ही खतरनाक और घृणास्पद शब्द है... स्वामी अग्निवेश
   घूंघट पर भी प्रतिबंध लगना चाहिए, .. जावेद अख्तर
    देश में हिंदू आतंकवाद है, प्रज्ञा ठाकुर के जीतने से हिन्दू आतंकवाद मजबूत होगा... स्वरा भास्कर
         ये चार उन भस्मासुर नेताओं और भस्मासुर शख्सियतों के बयान हैं जो दिग्विजय सिंह को चुनावी जीत दिलाने के लिए भोपाल में सभा और रोड शो कर चुके हैं। दिग्विजस सिंह ने अपनी जीत पक्की करने के लिए और अपने पक्ष में जनता के बीच हवा बनाने के लिए इन चारों भस्मासुर नेताओं और  भस्मासुर  शख्सियतों को भोपाल आमंत्रित किये थे। कई अन्य चर्चित नेता और शख्सियतें भी दिग्विजय सिंह को चुनावी जीत दिलाने के लिए भोपाल में सभा और रोड शो कर चुके हैं।
        अब यहां यह प्रश्न खडा होता है कि इन चारों भस्मासुर नेताओं और भस्मासुर शख्सियतों की सभा से दिग्विजय सिंह को चुनावी लाभ हुआ है या फिर चुनावी हानि हुई है, कमजोर आंकी जाने वाली प्रज्ञा ठाकुर मजबूत हुई है? अगर इन प्रश्नों का उत्तर आप खोजेंगे तो यह समझेंगे कि दिग्विजय सिंह ने भारी चुनावी चूक की है, उनकी चुनावी चूक भारी पडने वाली है, दिग्विजय सिंह के चुनावी रास्ते बहुत ही कठिन हो गये हैं। सर्व प्रथम यह स्वीकार तथ्य है कि ये चारों भस्मासुर नेता और भस्मासुर शख्सियतों का परिचय हिन्दू विरोधी का है, हिन्दुओं को अपमानित करने के इन नेताओं  और शख्सियतों ने कोई कसर नहीं छोडी है। स्वामी अग्निवेश को हिन्दू विरोधी अभियान के कारण एक नहीं बल्कि दो बार पिटाई भी हो चुकी है, स्वामी अग्निवेश जहां भी जाते हैं, उन्हें वहां पर भारी सुरक्षा में रहने के लिए मजबूर होना पडता है, क्योंकि हिन्दू समर्थक उनके पीछे पडे रहते हैं। सीताराम येचुरी ही नहीं बल्कि पूरी कम्युनिस्ट जमात ही हिन्दू विरोधी अभियानों के लिए जानी जाती है, संस्कृति नष्ट करने के आरोप भी कम्युनिस्ट जमात पर लगते रहा है। जावेद अख्तार की हिन्दुओं के बीच छवि कोई समर्थक की नहीं रही है, हिन्दू विरोधी और मुस्लिम समर्थक की रही है, इनकी भूमिका फिल्मी हस्ती की कम और हिन्दुओं को कोसने तथा मुस्लिम रूढियों पर चुप्पी साधने की रही है। जब भोपाल में जावेद अख्तर से पूछा गया कि श्रीलंका सरकार ने सुरक्षा की दृष्टि से बुर्का पर प्रतिबंध लगाया है, आतंकवादी बुर्का का भी प्रयोग करते हैं, भारत में बुर्का पर प्रतिबंध की मांग हो रही है, इस पर जावेद अख्तर ने सीधे जवाब देने की जगह कह दिया कि घूंघट पर भी प्रतिबध लगना चाहिए। जावेद अख्तर की इस मांग पर हिन्दू मतदाताओं की बहुत ही जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई है, यह प्रतिक्रिया सोशल मीडिया पर खूबी देखी गयी थी, सोशल मीडिया का अभियान यह था कि घूंघट करने वाली महिलाएं आतंकवादी नहीं होती है, दुनिया भर में बुर्का में महिलाएं और मुस्लिम पुरूष आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिया है। घूंघट जहां समाप्ति की ओर है, पर बुर्का तो आज मुस्लिम दुनिया के लिए अनिवार्य है। जवेद अख्तर के बयान और चुनावी सभा का संदेश यह गया कि जान बुझ कर हिन्दुओं को अपमानित करने के लिए दिग्विजय सिंह ने जावेद अख्तर की सभा करायी थी। जावेद अख्तर ने मुस्लिम आबादी को पीडित के तौर पर प्रस्तुत की थी।
         टुकडे-टुकडे गैंग की भी भोपाल के चुनावी मैदान में सकियता जारी है। टुकडे-टुकडे गैंग जेएनयू के उन लोगों को कहा जाता है जिन्होंने भारत के टूकडे-टुकडे करने के नारे लगाये थे। दिग्विजय सिंह ने टुकडे-टुकडे गिरोह की हिरोइन स्वरा भास्कर को खास तौर पर भोपाल में उतारा था। स्वरा भास्कर तब चर्चा में आयी थी जब उसने भारतीय सेना को बेवकूफ कहा था और पाकिस्तान की तारीफ की थी। जब प्रतिक्रिया हुई तब फिर उसने झूठ बोल दिया कि उसके टिवटर एकाउंट को हैक कर लिया गया था। स्वरा भास्कर कन्हैया को जीताने के लिए बेगुसराय भी गयी थी। भोपाल में स्वरा भास्कर ने अपनी सभा में हिन्दू आतंकवाद के अस्तित्व को न केवल जाहिर किया बल्कि कहा कि अगर मुस्लिम आतंकवाद कहा जाता है तो फिर हिन्दू आतंकवाद क्यों नही कहा जा सकता है, प्रज्ञा ठाकुर कोई संत और साध्वी नहीं है, उसकी छवि एक आतंकवादी की है, ऐसे प्रत्याशी को खारिज किया जाना चाहिए, ऐसे प्रत्याशी से भोपाल की प्रतिष्ठा गिरती है। पर शारदा मिश्रा प्रकरण और एक वृद्ध महिला को हाशिये भेज कर, उसे मानसिक तौर पर प्रताडित कर एक युवा महिला से शादी करने के प्रकरण पर स्वरा भास्कर ने चुप्पी नहीं तोडी।
         भोपाल में आम आदमी और निष्पक्ष लोगों का मानना है कि दिग्विजय सिह भारी भूल की है, इनकी यह भूल हार के रूप में सामने आ सकती है, दिग्विजय सिंह को हिन्दुओं के गुस्से का शिकार होना पडेगा। मैं दो सप्ताह से भोपाल में हूं। जब मैं भोपाल से आया था तब दिग्विजय सिंह का ग्राफ बहुत उपर था, यह संकेत साफ था दिग्विजय सिंह को हराना मुश्किल है, एक पूर्व मुख्यमंत्री रहने का लाभ दिग्विजय सिह को मिल रहा है, भोपाल के लोग भी दिग्विजय सिंह का समर्थन कर रहे थे। यह भी सही है कि दिग्विजय सिंह की शख्सियत की तुलना प्रज्ञा ठाकुर से नहीं हो सकती है, प्रज्ञा ठाकुर मूल रूप से राजनीतिज्ञ भी नहीं है, वह तो राजनीतिक दांव-पेंच भी नही जानती है, प्रज्ञा ठाकुर के विरोधी नहीं है, यह भी अस्वीकार नहीं हो सकता है। जैसे-जैसे हिन्दू विरोधी शख्सियतें भोपाल में आने लगी और दिग्विजय सिंह के समर्थन में चुनावी मैदान में उतरती रहीं और हिन्दुओं के खिलाफ बोलना शुरू की और हिन्दुओं को अपमानित करना शुरू की, वैसे-वैसे दिग्विजय सिंह लगातार कमजोर पडते गये और प्रज्ञा ठाकुर मजबूत होती गयी।
          1990 के पहले का एक दौर था जब हिन्दुओं को गाली देकर और हिन्दुओ को अपमानित कर चुनाव जीता जाता था। उस दौर मे तथाकथित धर्म निरपेक्षता चरम पर थी। पर राम मंदिर आंदोलन हिन्दुओं के बीच पुर्नजागरण का काम किया था, राम मंदिर आंदोलन के बाद हिन्दुओं ने तथाकथित धर्म निरपेक्षता जो एंकाकी थी, मुस्लिम परस्त थी को समझा था और इसके खतरे को भी समझा था। अनिवार्य तौर पर हिन्दुओं की एकता और हिन्दुओं की गोलबंदी सुनिश्चित हुई थी। हिन्दुओं की एकता और हिन्दुओं की गोलबंद का ही परिणाम था कि दो सीटों पर सिमट जाने वाली भाजपा 89 सीटों पर पहुंची थी, सिर्फ इतना ही नही बल्कि पहले अटल बिहारी वाजपेयी और अब पूर्ण बहूमत की सरकार नरेन्द मोदी की बनी है। नरेन्द्र मोदी और भाजपा की शक्ति भी हिन्दुत्व है। हिन्दुत्व विरोध की कसौटी पर ही कांग्रेस की केन्द्रीय सरकार गयी थी। अब इस तथ्य को कांग्रेस स्वीकार करती है।
        दिग्विजय सिंह लाख कोशिश कर लें, झूठ पर झूठ बोल लें पर उन्हें हिन्दू आतंकवाद का प्रोपगंडा पीछे छोडेगा नहीं। अब दिग्विजय सिंह कह रहे हैं कि उन्होने हिन्दू आतंकवाद शब्द को जन्म नही दिया था। राजनीति में अपने बयानो और हरकतों से हटने का लंबा-चौडा इतिहास है। भोपाल की ही  की बात नहीं है बल्कि देश की जनता जानती है, कि हिन्दू आतंकवाद के प्रोपगंडा से दिग्विजय सिंह का कितना बडा रिश्ता रहा है। दिग्विजय सिंह ही नही बल्कि अब कांग्रेस 
भी अब हिन्दू आतंकवाद के प्रोपगंडा से पीछा छुडा रही है। पर तथ्य यह है कि पी चिदम्बरम ने सरकारी तौर पर पहली बार भगवा आतंकवाद शब्द का प्रयोग किया था जो संसद के रिकार्ड में है। कांग्रेस सरकार के तत्कालीन गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने जयपुर मेंं कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में हिन्दू आतंकवाद पर जम कर बोला था और राहुल गांधी खुद अमेरिकी अधिकारी से देश को हिन्दुओं से खतरा बताया था। यह सब मुस्लिम मतदाताओं को खुश करने के लिए हुआ था।
        मुस्लिम मतदाताओं के पास विकल्प क्या है? दिग्विजय सिंह के पक्ष में मतदान करने के अलावा मुस्लिम मतदाताओं के पास कोई अन्य विकल्प है नहीं। कहने का अर्थ यह है कि मुस्लिम मतदाता दिग्विजय िंसंह को वोट देने के लिए बाध्य है। यह बाध्यता उनकी अनिवार्य है। मुस्लिम मतदाता भाजपा को हराने वाले प्रत्याशी और पार्टी को अनिवार्य तौर पर मतदान करते हैं। भोपाल में भाजपा के खिलाफ दिग्विजय सिंह ही मुकाबले में हैं। अगर दिग्विजय सिंह मुस्लिम मतदाताओं के बीच कम प्रचार करेंगे तो भी मुस्लिम आबादी का समर्थन उन्हें मिलेगा। दिग्विजय सिंह को मुस्लिम परस्त और भस्मासुरों को अपने समर्थन में उतारने की जरूरत ही नहीं थी।
        जहां तक प्रज्ञा ठाकुर की बात है, तो उसने दिग्विजय सिंह को नींद हराम करने में कोई कसर नहीं छोड रही है। प्रज्ञा ठाकुर लगातार अपने आप को पीडित बता रही है, पीडित बताना ही प्रज्ञा ठाकुर की शक्ति है। अपनी प्रताड़ना के लिए प्रज्ञा ठाकुर दिग्विजय सिंह को जिम्मेदार और खलनायक तौर पर प्रस्तुत कर रही है। अगर दिग्विजय सिंह की हार हुई तो फिर भस्मासुर शख्सियते सीताराम यचुरी, स्वरा भास्कर, जावेद अख्तर और स्वामी अग्निवेश के हिन्दू विरोधी सक्रियता ही जिम्मेदार होगी।

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