Tuesday, October 27, 2020

पागलपन के समर्थन में पागलपन की मुस्लिम गोलबंदी

  


     राष्ट्र-चिंतन
पागलपन के समर्थन में पागलपन की मुस्लिम गोलबंदी

       
                             विष्णुगुप्त





‘ बायकाट ‘ भी एक हिंसक प्रवृति है और इस हिंसक प्रवृति का सीधा दुष्प्रभाव शांति, सदभाव और सांमजस्य पर पड़ता है। अगर बायकाट की प्रवृति में गोलबंदी शामिल है, कोई हिंसक और नकारात्मक पहलू शामिल है तथा पर्दे के पीछे का उद्देश्य शामिल हो तो फिर यह गोलबंदी और भी खतरनाक हो जाती है। बायकाट के साथ ही साथ हिंसक प्रवृति भी देखी जाती है। अभी-अभी पूरी दुनिया में एक बायकाट न केवल कुचर्चित हो रहा है बल्कि उसके दुष्परिणामों को लेकर भी दुनिया की शांति, सदभाव और सहचरता में विश्वास रखने वाले लोग चिंतित हैं और उसके दुष्परिणामों का साक्षात दर्शन भी कर रहे हैं। पूरी अरब दुनिया ही नहीं बल्कि अरब दुनिया से बाहर के देशों जैसे पाकिस्तान, मलेशिया और अजरबैजान आदि मुस्लिम देशों के साथ ही साथ भारत और यूरोप की मुस्लिम आबादी भी इस बायकाट से जुड़ चुके हैं। यह बायकाट उस फ्रांस के खिलाफ है जिस फ्रांस ने अपनी संप्रभुत्ता और बहुलतावाद की संस्कृति के रक्षण के लिए कुछ अहर्ताएं तय करने की कोशिश की है और जिसने अपनी संप्रभुत्ता को प्रभावित करने वालों के खिलाफ तथा हिंसक ढंग से फ्रांस की संप्रभुत्ता के खिलाफ करने वालों के विरोध आवाज उठायी है। सिर्फ आवाज देने मात्र से ही अरब, यूरोप, अमेरिका और भारत की मुस्लिम दुनिया बायकाट की हिसंक और खतरनाक प्रवृति पर सवार हो गयी। खासकर मुस्लिम देशों में फ्रांस के उत्पादित वस्तुओं पर प्रतिबंध लगाने और बहिष्कार करने की गोलबंदी सुनिश्चित हो रही है। खतरनाक बात यह है कि बायकाट कोई लोकतांत्रिक ढंग से नहीं हो रहा है बल्कि बायकाट मजहबी आधार पर हो रहा है। कुबैत, जार्डन, कतर और तुर्की में फ्रांस के उत्पादित वस्तुुओं को माॅल और दुकानों से हटा दिये गये। जबकि तुर्की, ईरान और पाकिस्तान के शासकों ने सीधे तौर पर फ्रांस को धमकी पिलायी है उसके संप्रभुत्ता संपन्न कार्यक्रमों और अभिव्यक्ति से इस्लाम की तौहीन होती है, इसकी कीमत फ्रांस को चुकाना होगा।
                                 धीरे-धीरे यह बायकाट का हथकंडा खतरनाक हो रहा है और दुनिया की शांति व सदभाव के लिए एक खतरनाक चुनौती भी बन रहा है। धीरे-धीरे यह बायकाट का हथकंडा घृणा में भी तब्दील हो रहा है। खासकर इस्लाम और गैर इस्लामिक समुदाय के बीच में एक विभाजन रेखा बन रही है। गैर इस्लामिक समुदाय में वैसे ही इस्लाम को लेकर बहुत सारी चिंताएं और प्रवृतियां पहले से ही बैठी हुई हैं। खासकर यूरोपीय देशों में और अमेरिका में इस्लाम और गैर इस्लामिक आबादी के बीच विभाजन की तलवारें खिंची हुई हैं, आपस में अविश्वास, घृणा और वर्चस्व की प्रवृतियां टकरा रही हैं, युद्धोन्माद पैदा कर रही हैं। निश्चित तौर पर मुस्लिम दुनिया की इस बायकाट के हथकंडे ने इस्लाम को लेकर एक और डर-भय का वातावरण बनाया है।
                                            बायकाट की जड़ क्या है? क्या सिर्फ तत्कालीन कारण से ही फ्रांस और मुस्लिम दुनिया आमने-सामने है? क्या मुस्लिम दुनिया की बायकाट की गोलबंदी खुद मुस्लिम दुनिया के संकट को बढायेगी? बायकाट की जड़ में कार्टून विवाद ही है। पैगम्बर का कार्टून विवाद के कारण फ्रांस की संप्रभुत्ता हिंसक तौर लहूलुहान है और फ्रांस के बहुलतावाद पर संकट के बादल छाये हुए हैं। फ्रंास की मशहूल पत्रिक शार्ली एब्दों ने कई साल पहले पैगम्बर का कार्टून प्रकाशित किया था। शार्ली एब्दों ने तब कहा था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए ऐसे कार्टून का प्रकाशन कर वह आतंकवादी मानसिकता का दमन करना चाहती है। उस कार्टून के प्रकाशन मात्र से मुस्लिम दुनिया तेजाबी तौर उफान पर थी, हिंसक अभियान पर थी, इस्लामिक संस्थाएं फतवे पर फतवें पढ रही थीं। फतवे का दुष्परिणाम कैसा होता है, यह भी उल्लेखनीय है। फतवे का दुष्परिणाम बहुत ही खतरनाक होता है, हिंसक होता है, घृणा और विखंडनपूर्ण होता है। शाब्दी एब्दों के खिलाफ फतवा भी हिंसक और विखंडनपूर्ण साबित हुआ। मजहबी तौर पर पागलपन का भूत सवार हुआ। शार्ली एब्दों पत्रिका के कार्यालय पर आतंकवादी हमला हुआ, कोई एक नहीं बल्कि पूरे एक दर्जन लोग मारे गये, शार्ली एब्दों पत्रिका के संपादक सहित पूरी संपादकीय टीम को मौत का घाट उतार दिया गया, शार्ली एब्दों पत्रिका के कार्यालय को जला कर राख कर दिया गया। इस हमले की जिम्मेदारी आईएस नामक खूंखार आंतकवादी संगठन ने ली थीं। सबसे चिन्हित करने वाली बाय यह है कि इस लोमहर्षक हत्या और हमले पर मुस्लिम दुनिया खुश थी, खासकर सोशल मीडिया पर खुशी मानने का एक तरह जिहादी अभियान देखा गया था।
                                                      शार्ली एब्दों प्रकरण ने फ्रांस की सिविल सोसाइटी को झकझोर कर रख दिया था। सिविल सोसाइटी ने यह देखा समझा कि वे जिस बहुलतावाद की संस्कृति के सहचर है और जिसके लिए वर्षो से समर्पण सुनिश्चित किये हैं वह तो खतरे में हैं, बहुलतावाद की जगह खतरनाक और हिंसक एंकाकी संस्कृति ले रही है जिसके लिए बहुंलतावाद कोई महत्व नहीं रखता हैं, इसमें अन्य विचारों के लिए भी कोई जगह नहीं हैं, संस्कृतिगत विरोधी विचारों का समाधान का रास्ता तो इसी तरह की हिंसा और आतंकवाद है। धीरे-धीरे यह सोच राष्ट्रीय सोच बन गयी। इस सोच के समर्थन में मूल संस्कृति आ गयी। जब मूल संस्कृति की वीरता जगती है, जब मूल संस्कृति का पुनर्जागरण शुरू होता है तो आयातित संस्कृति के साथ उसका टकराव बढ़ता है, यह टकराव धीरे धीरे वैचारिक रास्ते बंद कर हिंसक रास्ते पर गमन कर जाता है। फ्रांस में ऐसा ही हुआ है।
                                                 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कभी एंकाकी नहीं हो सकती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सपूर्णता में सुनिश्चित होती है। अगर आयातित संस्कृति के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है तो फिर मूल संस्कृति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्यो नहीं हो सकती है? मूल संस्कृति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आतंकवादी हमले का समर्थन कैसे हो सकता है? इसी प्रश्न को लेकर फ्रांस में चिंता पसरी, फ्रांस के लोग अभियानी बन गये। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिए फ्रांस के मूल संस्कृति के सहचर लोग शार्ली एब्दों पत्रिका के समर्थन में आ गये। बहसें शुरू हो गयी। फ्रांस के एक शिक्षक ने अपनी कक्षा में पैगम्बर के कार्टून की व्याख्या कर दी। विवादित काटून के व्याख्या मात्र से ही पागल मानसिकता के शिकार लोग हिंसक हो गये। यह बात आग की तरह पूरे फ्रांस में  फैल गयी। मुस्लिम संस्थाएं और मस्जिदों से फतवे शुरू हो गये। फांस सरकार का कहना है कि एक मस्जिद में नमाज के बाद कार्टून का विश्लेषण करने वाले शिक्षक और स्कूल का नाम उजागर किया गया और मस्जिद में एक सूचना लगायी गयी। इस सूचना से हिंसक घटनाएं घटने की आशंका थी। पर मस्जिद और मुस्लिम संस्थाओं ने जान बुझ कर शांति और सदभाव की अवहेलना करने के कार्य किये। जब मस्जिद और मुस्लिम संस्थाएं ही गैर जिम्मेदार होगी और अपने अनुयायी को हिंसा के लिए उकसायेगी तो फिर निशाने पर भी तो मस्जिद और मुस्ल्मि संस्थाएं ही आयेगी। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि एक पागलपन का शिकार मुस्लिम युवक ने कार्टून का विश्लेषण करने वाले शिक्षक की हत्या कर दी। बाद में पुलिस ने शिक्षक की हत्या करने वाले मुस्लिम युवक को गोलियों से उड़ा दिया था।
                                       शिक्षक की बर्बर हत्या से पूरा फ्रांस दहल गया। फंास के राष्ट्रपति इमैनुएल मैंक्रो ने सीधे तौर पर इस्लाम को निशाना बनाया और कहा कि इस्लाम का यह चेहरा घिनौना है, हिंसक है और अमानवीय है, फंास की बहुलतावाद की संस्कृति की जगह इस्लामिक हिंसक संस्कृति को खूली छूट नहीं मिलेगी, उसकी हिंसक प्रवृतियां हर हाल में रोकी जायेगी, इस्लामिक लोगों का अपना व्यवहार अहिंसक बनाना होगा और मजहबी एजेंडे को छोडना ही होगा। इमैनुएल मैंक्रों का बयान कहीं से भी न तो खतरनाक है और न ही इस्लाम का अपमान करने वाला है। इमैनुएल मैंक्रों एक शासक हैं, शासक के तौर पर उन्हें अपने राष्ट्र की संप्रभुत्ता की चिंता स्वाभाविक है, उन्हें हिंसक प्रवृतियों को कुचलने का दायित्व भी है। इसी दायित्व का निर्वाहन इमैनुएल मैक्रों कर रहे हैं। पिछले दस सालों में फ्रांस ने कोई एक नहीं बल्कि दर्जनों भीषण आतंकवादी हमले झेले हैं, दर्जनों इस्लामिक हिंसक प्रवृतियों से फ्रांस दो-चार हुआ है, सैकड़ों निर्दोष जिंदगियां मारी गयी हैं। अभी तक फंास में कोई खतरनाक अभियान नहीं चला है, इस्लामिक आतंकवादी हमले के बाद भी फ्रांस सयंम के साथ सक्रिय है।
                                     बायकाट के पागलपन से फांस में इस्लामिक हिंसक प्रवृतियों के खिलाफ अभियान रूक जायेगा, या फिर मुस्लिम आबादी के खिलाफ बैठ रही घृणा की प्रवृतियां कमजोर हो जायेंगी, ऐसा नहीं होगा। इस्लामिक दुनिया को स्वयं के आइने में अपना चेहरा देखना चाहिए। इस्लामिक दुनिया क्या वैसा ही सम्मान और अधिकार अपने यहां देती हैं जैसा सम्मान और अधिकार फंास सहित अन्य गैर इस्लामिक देशों में चाहती हैं। सच तो यह है कि इस्लामिक देशों में कोई लोकतांत्रिक कानून नहीं होते हैं, गैर इस्लामिक आबादी पर मजहबी कानूनों का बुलडोजर चलता है, गैर मजहबी आबादी को इस्लाम स्वीकार करने या फिर देश छोडने का ही विकल्प होता है। इस बायकाट की गोलबंदी से मजहबी पागलपन को ही खाद-पानी मिलेगा। फ्रांस अब 73 मस्जिदों पर ताला जडकर अपना इरादा जता चुका है। फंास में बुर्का पर प्रतिबंध पहले से ही है। इसलिए फांस डर कर अपना अभियान वापस ले लेगा या माफी मांग लेगा, यह खुशफहमी भी मुस्लिम दुनिया को छोड़ देनी चाहिए। इस तरह की मजहबी पागलपन के खिलाफ भी शेष दुनिया को सचेत होना होगा, इसके खतरे को समझना होगा।




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Sunday, October 18, 2020

अमेरिका में भी ‘ हिन्दुत्व ‘ बन गया सत्ता की गारंटी

   राष्ट्र-चिंतन

         
       
 ‘हिन्दुत्व‘ बन गया अमेरिका की प्रेरणा प्रहरी

अमेरिका में भी ‘ हिन्दुत्व ‘ बन गया सत्ता की गारंटी  

        विष्णुगुप्त



‘ हिन्दुत्व ‘ एक स्वतंत्र विचार प्रवाह है।  ‘ हिन्दुत्व का मूल संस्कार और प्रचंड विचारधारा वसुधैव कुटुम्बकम् और ओम शांति है।  वसुधैव कुटुम्बकम् और ओम शांति हमारे उपनिषद सहित कई ग्रंथों में लिपिबद्ध है। वसुधैव कुटुम्बकम् का अर्थ धरती ही परिवार है, ओम शांति का अर्थ हिंसा और विकास से मुक्ति है, सदाचार और सह अस्तित्व का भाव है। कहने का स्पष्ट भाव है कि हिन्दुत्व पूरी धरती को अपना परिवार मानता है, इसमें भेदभाव निषेध है, हिंसा निषेध है, शांति, सदभाव और समरसता का सहज और सरल प्रवाह है। हिन्दुत्व किसी विकार, रूढी या फिर अंधविश्वास का गुलाम बनने के लिए प्रेरित नहीं करता है। सभी प्रतीकों और स्थापित विचारों को आधुनिक समय में काल-परिस्थितियों के अनुसार स्वतंत्र आंकलन और विश्लेषण के आधार पर स्वीकार करने की स्वीकृति है, स्वतंत्रता है, इसमें पुरातन विकृतियां, रूढियों और अंधविश्वासों का खारिज करने की सीख भी है। जब कोई संस्कृति और विचारधारा इतनी समृद्धशाली, विवेकशील होगी, उन्नत होगी, क्रांतिकारी होगी तो फिर उस संस्कृति और विचारधारा की स्वतः उन्नति होगी, स्वतः ग्रहण करने की प्रेरणा होगी। आज हम यह निश्चित तौर पर कह सकते हैं कि इन्ही विशेषताओं को लेकर दुनिया भर में हिन्दुत्व के प्रति जागरूकता बढी हैं, हिन्दुत्व को स्वीकार्य करने की क्रियाएं बढी है, मोक्ष की बात खारिज भी कर दे ंतो भी जीवन की सुखमय प्रक्रिया को आगे बढाने के लिए प्रेरणा दृष्टि मानी जा रही है, शांति और सदभाव के लिए जरूरी माना जा रहा है। ऐसा परिदृश्य दुनिया भर में देखी जा रही है। हिन्दुत्व की यह निधि आगे भी बढती ही जायेगी। ‘ हिन्दुत्व ‘ दुनिया की सबसे पूरानी जीवन शैली की शक्ति रहा है।
                            ‘ हिन्दुत्व ‘ का प्रंचड प्रवाह अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में भी स्पष्ट है। हाल के वर्षो में जिस प्रकार से भारत में हिन्दुत्व को चुनावी राजनीति के केन्द्र में विशाल शक्ति के तौर पर खड़ा हुआ देखा गया है उसी तरह से ‘हिन्दुत्व ‘ को अमेरिकी केन्द्रीय राजनीति में भी एक प्रभावकारी शक्ति के केन्द्र में देखा जा रहा है। हिन्दुत्व को भी जीत की गारंटी मानी जा रही है। जब हिन्दुत्व को जीत की गांरटी मान लिया जायेगा तब हिन्दुत्व में विश्वास रखने वालों को अपनी ओर खींचने, लुभाने और हिन्दुत्व के प्रतीक चिन्हों पर समर्थन जताने और उनको लेकर सम्मान दर्शाने की राजनीतिक प्रक्रियाएं भी तेज होंगी।राजनीति प्रक्रियाएं तेज भी हुई हैं। अमेरिका में मुख्यतः दो दलीय राजनीति की उम्मीद होती है। एक रिपब्लिकन और दूसरा डेमोक्रेट। यही दोनों पार्टियों के बीच अमेरिका की केन्द्रीय राजनीति घूमती-फिरती है। वर्तमान में अमेरिका पर रिपब्लिकन की सत्ता है और डोनाल्ड ट्रम्प राष्ट्रपति है। रिपब्लिकन जहां घोर राष्ट्रवादी होते हैं और उनकी सोच भी भारत की भारतीय जनता पार्टी की तरह होती है जबकि डेमोक्रेट पार्टी को समाजवादी संस्कृति के परिचायक माना जाता है जिनपर वामपंथी समर्थक विचारधाराएं शासन करती हैं। ये दोनों विचारधाराओं ने अपनी-अपनी जीत के लिए हिन्दुत्व को प्रभावित करने की पूरी कोशिश की है। रिपब्लिकन उम्मीदवार और वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प तो पहले से ही हिन्दुत्व के समर्थक हैं, भारत में नरेन्द्र मोदी के हिन्दुत्ववाद की शक्ति से चमत्कृत है और नरेन्द्र मोदी को अपना मित्र मानने पर गर्व करते हैं। अमेरिका में लगभग एक करोड़ भारतीय हैं जिनमें से अधिकतर हिन्दू हैं। डेमोक्रेट ने भी अमरिकी हिन्दुओं को अपनी ओर करने के लिए डोनाल्ड ट्रम्प से दो कदम आगे बढ गये। उपराष्ट्रपति का उम्मीदवार उन्होंने एक भारतीय मूल की महिला को बना दिया जिनका नाम कमला हैरिस है। कमला हैरिस को उपराष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाने का सीधा अर्थ अमरिकी हिन्दुओं का वोट हासिल करना है। डेमोक्रेट के इस चुनावी नीति को कुछ लोग भारतीय कार्ड खेलना कहते हैं तो अधिकतर लोग इसे हिन्दू कार्ड के तौर पर देखते हैं।
                               अमरिकी राष्ट्रपति चुनावों में धर्म का दृष्टिकोण की बात अस्वीकार नहीं हो सकती है। धर्म का दृष्टिकोण की बात सौ प्रतिशत स्वीकार है। धर्म का हस्तक्षेप या फिर प्रभाव पूरी तरह से स्पष्ट और रेखांकित है। अब यहां यह प्रश्न खड़ा हो सकता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में धर्म के कोन-कोन दृष्टिकोण हैं? कोई एक दृष्टिकोण तो हो नहीं सकता है? धर्म के कई दृष्टिकोण है। इनमें ईसाई, इस्लाम, यहूदी और हिन्दुत्व दृष्टिकोण प्रमुख हैं।
                                     कुछ सालों पहले तक सिर्फ एक दृष्टिकोण था। उस दृष्टिकोण का नाम था ईसाई। यहूदी सत्ता के साथ सहचर थे और सभी सताएं यहूदी को आत्मसात करती थीं। यह सही है कि अमेरिका की सत्ता पर यहूदी की पकड मजबूत होती थी। यहूदी को विश्वसनीय माना जाता था। इजरायल के जन्म और यहूदियों के अस्तित्व के लिए अमेरिका एक प्रहरी के सम्मान में खडा रहा है। इसलिए यहूदी अमेरिका के अभिमान के साथ खड़ा होते रहे हैं। अमेरिका ने एक समय मानवाधिकार के नाम पर इस्लाम को आगे बढने का अवसर दिया। इस्लाम के मानने वालों को अपने यहां फलने-फंुलने की सभी आवश्यक सुविधाएं दी। पर अमेरिकी वल्र्ड ट्रेड संेंटर पर हुए मुस्लिम आतंकवादी हमले के बाद राजनीतिक स्थितियां बदली हैं। अब अमेरिका में मुस्लिमों के खिलाफ राष्ट्रवादी सोच का उदय हुआ है। यह राष्ट्रवादी सोच मुस्लिम आबादी के लिए कोई सकारात्मक नहीं है। यह सोच सही है या गलत? इस पर स्वतंत्र विश्लेषण अपेक्षित है। पिछला राष्ट्रपति चुनाव में मुस्लिम आबादी एक यक्ष प्रश्न थी। खासकर डोनाल्ड ट्रम्प ने मुसलमानों के खिलाफ जनादेश मांगा था। अपने वायदे में डोनाल्ड ट्रम्प ने मुसलमानों के खिलाफ कार्रवाई करने की बात की थी। इस पर इ्रसाई आबादी चमत्कृत थी। ईसाई राष्ट्रवादियों का सीधा टकराव मुस्लिम सोच के साथ रही है। डोनाल्ड ट्रम्प ने कई देशांें के मुसलमानों को अपने यहां आने पर प्रतिबंध लगा कर ईसाई राष्ट्रवादियों की सोच को तुष्ट किया था। अब यहां यह प्रश्न भी है कि अमेरिका की मुस्लिम आबादी इस राष्ट्रपति चुनाव में किधर है? निःसंदेह मुस्लिम आबादी डोनाल्ड ट्रम्प की ओर झुकाव नहीं रखेंगी। मुस्लिम संवर्ग का दांव समाजवादी डेमोक्रेट पर है जो डेमोक्रेट उनकी मंशा को तुष्ट करते हैं, संरक्षण देते हैं।
                                   ‘ हिन्दुत्व ‘ भी अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में सफलता की गारंटी क्यों मान लिया गया? क्या अमेरिकी हिन्दुत्व में इतनी राजनीतिक क्षमता है कि वह राष्ट्रपति का चुनाव हरा या जीता सकें? हिन्दुत्प के लोग किसी समर्थन करेंगे, रिपब्लिकन को या फिर डेमोक्रेट को? वास्तव में सबसे बडी शक्ति देशभक्ति है, सह अस्तित्व है। देशभक्ति हिन्दुत्व का सर्वश्रेष्ठ गौरव और जीवन प्रक्रिया है। हिन्दुत्व की विशेषता है कि उसके अनुआयी जिस मिट्टी का वरण करते हैं, जिस मिट्टी पर रहते हैं, उस मिट्टी से प्यार करते हैं, उस मिट्टी पर मर-मिटने की वीरता दिखाते हैं, ये परसंस्कृति हंता कतई नहीं होते है, संरक्षण देने वाली संस्कृति के हंता होने के स्थान पर सहचर बन जाते हैं। सबसे बडी बात यह है कि अमेरिका जाने वाले हिन्दू कोई अनपढ, जाहिल और ंिहंसक प्रवृति के होते नहीं हैं। अमेरिका जाने वाले हिन्दू वैज्ञानिक होते हैं, शैक्षणिक वीर होते हैं, अर्थशास्त्री होेते हैं, प्रशासनिक क्षमता रखने वाले प्रशासक होते हैं, टेक्नोक्रेट होते हैं। कोई भी हिन्दू धर्म मानने वाला वैज्ञानिक, टेक्नोक्रेट,शैक्षणिक वीर, अर्थशास्त्री, प्रशासनिक क्षमता रखने वाले प्रशासक, आदि कभी भी अमेरिकी हितों को नुकसान नही पहुंचाते हैं, अमेरिकी संस्कृति को भी सम्मान देते हैं, अमेरिकी संस्कृति का सहचर बन कर आगे बढते हैं। कई भारतीय मूल के वैज्ञानिकों को अमेरिका में विज्ञान का नोबेल पुरस्कार तक मिल चुका है। विज्ञान, अर्थशास़्त्र सहित अन्य क्षेत्रों मे भारतीयों के योगदान को अमेरिकी लोग प्रेरणा के तौर पर देखते है। भारतीय मूल के लोगों की यह निधि मूल्यवान ही नहीं बल्कि धरोहर के समान है।
                                     अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में हिन्दुत्व के लिए कोई सीख भी होनी चाहिए? निश्चित तौर पर हिन्दुत्व के लिए एक परीक्षा की घंडी है। अमेरिकी हिन्दुओं के लिए भारतीय हित गौण होना चाहिए, अमेरिकी हित प्रमुख होना चाहिए। यह सही है कि वर्तमान रिपब्लिकन उम्मीदवार और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की नीतियां अनुकूल रही है, राहतकारी रही है, इस्लामिक आतंकवाद से राहत दिलाने वाली रही है, मजहब के नाम पर गोलबंदी करने वाले देशों की मानसिकताएं कुचलने वाली रही है। डोनाल्ड ट्रम्प बार-बार भारत और नरेन्द्र मोदी को अपना मित्र और प्रेरणास्रोेत कहते हैं, यह भी सही है कि डोनाल्ड ट्रम्प के शासनकाल में हिन्दुत्व को गौरव मिला, प्रशंसा मिली, संरक्षण मिला। प्रशासकीय कार्य भी हिन्दुत्व भारतीय को जगह मिली। जबकि हर डेमोक्रेटिक सत्ता में भारत के लिए परिस्थितियां प्रतिकुल रही हैं, भारतीय हितों पर छूरी चलती रही है, हंता और आतंकवाद की मानसिकताओं का पोषण होता रहा है। भारत किस प्रकार से आतंकवाद और परसंस्कृति की हिंसक प्रवृतियों को झेलने के लिए बाध्य रहा है, यह भी जगजाहिर है।
                            फिर भी हिन्दुओं को अमेरिका का राष्ट्रीय दृष्टिकोण और राष्ट्रीय राय के प्रकटिकरण से अलग होना लाभकारी नहीं होगा। अमेरिकी हिन्दुओं को मेरी सीख है कि अमेरिका के राष्ट्रीय दृष्टिकोण और चुनावी प्रकटिकरण की कसौटी पर ही वोट का दृष्टिकोण उन्हें तय करना चाहिए।


                       

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Tuesday, October 13, 2020

‘ गेम चेंजर ‘ बनेगी स्वामित्व योजना ?

 


 

     राष्ट्र-चिंतन

‘ गेम चेंजर ‘ बनेगी स्वामित्व योजना ?

        विष्णुगुप्त

                       

                                    प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की महत्ती योजनाओं की श्रृखंला में एक और योजना शामिल हो गयी। यह योजना है स्वामित्व योजना। मोदी काल में पहले से ही कई योजनाएं चल रही है जिनमें उज्जवला योजना, स्वच्छ भारत योजना और जन-धन योजना शामिल हैं। इस योजना की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि उनकी अन्य योजनाओं की तरह यह स्वामित्व योजना भी मील का पत्थर साबित होगी और देश में करोड़ों लोगों का अपनी जमीन और घर का स्वामित्व मिलेगा। हर योजना का अर्थ परोपकार होता है, वंचित और खारिज कर दिये गये लोगो को अधिकार देना तथा उन्हें लाभान्वित करना होता है। जाहिर तौर पर इस योजना का अभी अर्थ और लक्ष्य वैसे व्यक्ति को स्वामित्व देने का कार्य करना है जिनके पास जमीन तो, घर तो है पर उस पर उनका कानूनी अधिकार नहीं है।
                                               कहने और देखने में यह स्पष्ट जरूर होता है कि यह योजना वंचित वर्ग को अधिकार देने वाला है, उनकी भविष्य की चिंताओं का समाधान करने वाला है, उन्हें लंबे समय से कानूनी प्रक्रियाओं से उलझने और लड़ाई -झगडे से बचाने का कार्य है पर इस योजना को लागू करने के क्षेत्र में कितनी कठिनाइयां है, कितना दुरूह कार्य है, इस पर अभी तक कोई स्पष्ट राय सामने नहीं आयी है। महत्वपूर्ण योजना लाना और योजना की घोषणा करना ही महत्वपूर्ण नहीं होता है, महत्वपूर्ण तो योजना को ईमानदारी पूर्ण, भष्टचार मुक्त और सहजता के साथ लागू करना होता है। देश में अब तक जितनी भी योजनाएं आयी हे सबके सब में बईमानी हुई, भ्रष्टचार हुआ, आमजन को योजनाओं का लाभ उठाने के रास्ते कठिन बनाये गये, पात्र लोगों वंचित ही रखा गया, अपात्र और पहुंच वाले येन-केन-प्रकारेण योजनाओं का लाभ उठाने में सफल हो गये। दूर-दराज के क्षेत्रों में बैंकों के बईमान कर्मचारियों ने जन-धन का खाता खोलने में रिश्वत खाई थी। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि स्वामित्व योजना भी सहज और भ्रष्टचार मुक्त होगी? ऐसे अपनी किसी भी योजना के पक्ष में प्रशंसा करना और उसे जनकल्याणकारी बताना हर सत्ता का प्रिय कार्य होता है, इसलिए योजनाओं की घोषणा के तुरंत बाद ही इसकी सफलता की उम्मीद नहीं की जा सकती है।
                                         फिर भी इस योजना को लेकर नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा में कोई हर्ज नहीं है, कोई अतिशयोक्ति की बात नहीं होनी चाहिए। सत्ता चाहे किसी भी व्यक्ति की है, सत्ता चाहे किसी भी विचारधारा की क्यों न हों, अगर वह कोई कल्याणकारी और वंचित समाज को लाभ-अधिकार देने वाली योजनाओं का श्रीगणेश करती है तो फिर उसका स्वागत किया जाना चाहिए, समर्थन किया जाना चाहिए, यह लोकतंत्र का मूल सिद्धांत होना चाहिए। हम तो कांग्र्रेस राज के सूचना अधिकार का भी उसी तरह से समर्थन करते हैं और हर नागरिक को भी उसी तरह से समर्थन करना चाहिए जिस तरह से हम नरेन्द मोदी के उज्जवला योजना, जन-धन योजना और स्वच्छ भारत यांेजना और अन्य योजनाओं का करते हैं। निश्चित तौर पर सूचना के अधिकार से भ्रष्टचार पीडितांे को न्याय मिला है। अब यहां एक प्रश्न यह उठता है कि स्वामित्व योजना को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा क्यों होनी चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि उन्होंने एक ऐसे प्रश्न का हल करने के लिए आगे आये है जिस प्रश्न की बोझ से करोड़ों लोग दबे हुए थे और पीड़ित थे।
                                               वास्तव में स्वामित्व के अधिकार का प्रश्न हल करने में हमने बहुत ही देरी कर दी है, इस देरी की कीमत कितनी चुकायी गयी है उसका अब तक कोई हिसाब-किताब नहीं है, हजारों नहीं बल्कि लाखों लोगों ने जान देकर कीमत चुकायी है, कानूनी झंगडों में अपनी आजीविका की कमाई भस्म की है। आजादी की प्राप्ति के बाद ही इस प्रश्न का हल खोज लेना चाहिए था। यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण था। आजादी के बाद हमारे जिन शासकों ने भी शासन किया उनके राजनीतिक एजेंडे से यह प्रश्न दूर था। भारत गांवों का देश है, इसीलिए यह कहा जाता है कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। यह भी सही है कि गांवों की जनता शिक्षा से दूर थी, शिक्षा के वंचित होने के कारण गांव के लोग सरकारी कागजों या फिर स्वामित्व के अधिकार के अर्थ से अनभिज्ञ थे। उनकी सोच यह थी कि उन्हें कोई भी उनके घर और उनकी जमीन से वचित नही कर सकता है। जिस जमीन को वह पूर्खेै दर पूर्खे से जोतते-कोड़ते आये है और जिस घर में वे रहते आये हैं उस पर तो उनका परमपरागत अधिकार है और उनके इस अधिकार से कोई भी वंचित नहीं कर सकता है। यह भी सही है कि आज से बीस-तीस साल पूर्व तक गांवों में जमीन की कोई किल्लत नहीं थी, गांव के लोगों के पास जीविका चलाने के लिए प्रर्याप्त भूमि थी, बहुत सारी भूमि परती रह जाती थी। इसलिए जमीन या घर के लिए कोई मारा-मारी नहीं थी। लेकिन धीरे-धीरे विकास की जरूरतें बढी, जनसंख्या बढी। विकास की जरूरतें बढने और जनसंख्या बढने से उसके दुष्परिणाम भी तरह-तरह के सामने आने लगे। विकास के लिए जमीन कम पडने लगी। इसके अलावा खेती की महत्ता भी बढ गयी, परमपरागत खेती की जगह व्यावासायिक खेती ने ले ली। इसलिए जमीन पर कब्जा के लिए कानूनी अहर्ताएं जरूरी हो गयीं।
                                       जमीन पर स्वामित्व के लिए कानूनी अहर्ताएं वैसे लोग ही पूरी कर सकें जो आर्थिक और शैक्षणिक तौर पर मजबूत थे और जिनकी पहुंच सत्ता तथा प्रशासनिक स्तर पर अति मजबूत थीं। ऐसे सवंर्ग के लोग जैसे-तैसे कर स्वामित्व के कागजत हासिल कर लियें। पर वैसे लोग पीडित बन गये जो स्वामित्व के कागज हासिल नहीं कर सकें। खासकर आदिवासी सवंर्ग सबसे अधिक प्रभावित हुए। जंगलों में रहने वाले आदिवासी कभी भी सरकारी कागजों के पीछे नहीं भागे। उनका कहना साफ था कि जल, जंगल और जमीन पर उनका परमपरागत अधिकार हैं। यह सही है कि आदिवासियों का पूरा जीवन ही जंगलो पर निर्भर था। वे समूह में रहते थे जहां पर कभी सरकारी कर्मचारी भी नहीं पहुंच पाते थे। जब से जंगलों का राष्ट्रीयकरण हुआ और टाइगर प्रोजेक्ट की शुरूआत हुई तब से आदिवासियों को उनकी पुश्तैनी जमीन से बेदखल कर दिया गयां। जंगलों से उन्हें बाहर खदेड़ने की कोशिश हुई, उनकी पुश्तैनी जमीन को बन क्षेत्र की जमीन घोषित कर दिया गया। आज भी जंगलों के आस पास रहने वाले लाखों आदिवासियों के पास उनकी सम्पत्ति के कागजत नहीं है, उनके पास जमीन भी है और घर भी है पर उसके कानूनी कागजात नहीं है। आदिवासी सवंर्ग स्वामित्व के कागजात के लिए अथक दौड-धूप भी लगाते हैं पर नाकाम ही साबित होते हैं। आदिवासियों के जंगल, जल और जमीन पर अधिकार को लेकर लंबी लडाई भी जारी है। इस पर राजनीतिक बहसें भी होती रहती हैं। पर यह विषय अभी तक वैसे ही है जैसे आजादी के पूर्व मे था। इस स्वामित्व योजना आदिवासियों को कितना लाभ देगी, यह नहीं कहा जा सकता है?
                           स्वामित्व योजना के बडे फायदे भी गिनाये जा रहे हैं। फायदें होंगे भी। जिन लोगों को स्वामित्व कार्ड मिलेगा उन लोगो के लिए जीवन भी आसान हो जायेगा, उन्हें हर जगह वंचित श्रेणी से बाहर रखने वालों पर लगाम लगेगी, सरकारी योजनाओं का लाभ भी आसानी से उठा सकते हैं। खासकर कर्ज के क्षेत्र मे लाभ की उम्मीद से इनकार नही कहा किया जा सकता है। जमीन और धर पर स्वामित्व के कागजात नहीं होने पर बैंक कर्ज देने से इनकार कर देता था। अब बैंक इनकार नहीं कर सकते हैं। कोई भी स्वामित्व कार्डधारी अपना स्वामित्व के कागजात दिखा कर बैंक से कर्ज ले सकता है। जरूरत पडने पर स्वामित्वधारी व्यक्ति अपनी जमीन और घर को बेच भी सकता था। अब तब स्वामित्व कार्ड नहीं होने के कारण जमीन और घर की खरीद विकी नहीं होती थी। सबसे बडी बात यह है कि सरकार को भी राजस्व टैक्स की आमदनी बढेगी।
                                          स्वामित्य योजना का एक खतरा भी है और इस खतरे पर केन्द्रीय सरकार को ध्यान देना चाहिए। स्वामित्व योजना लाभ आतकवादी संगटन और विदेशी घुसपैठी भी उठा सकते हैं। देश के अंदर में आतंकवादी संगठन जगह-जगह पर कब्जा कर बैठे है, खासकर सरकारी भूमि पर आतंकवादी मानसिकता के लोग अवैध कब्जा कर बैठे हुए हैं, इसके अलावा विदेशी घुसपैठिये भी सरकारी जमीन पर कब्जा कर बैठे हुए हैं। दिल्ली, मुबंई और अन्य सभी बडे शहरों के पास विदेशी घुसपैठिये कब्जा जमाये बैठे हैं। इनके पास अवैध तौर पर एक नागरिक के अवैध कागजात भी हैं। आतंकवादी संगठनों और विदेशी घुसपैठियो की मानसिकता इस योजना से पुष्ट न हों, यह व्यवस्था होनी चाहिएं। इस संबंध में योजना से संबंधित दिशानिर्देश भी जारी किया जाना चाहिए।
                                यह योजन ‘ गेम चेंजर ‘ तभी साबित होगी जब यह योजना ईमानदारीपूर्वक लागू होगी, भ्रष्टचार मुक्त लागू होगी और इनकी सरकारी कार्यवाहियां आसान होगी।




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Monday, October 5, 2020

कथित हिन्दू सांप्रदायिकता के विरोध में कम्युनिस्ट पार्टियां खूद निपट गयी

  


     राष्ट्र-चिंतन

नकारखाने में तूती की आवाज क्यों बनी कम्युनिस्ट पार्टियां

कथित हिन्दू सांप्रदायिकता के विरोध में कम्युनिस्ट पार्टियां खूद निपट गयी


        विष्णुगुप्त


नकारखानें में तूती की आवाज क्यों बन गयी कम्युनिस्ट पार्टियां?इसका उदाहरण बिहार में भी देखने को आया है जहां पर कम्युनिस्ट पार्टियों को कथित सांप्रदायिकता के नाम पर लालू परिवार और कांग्रेस के साथ अपमानजनक समझौता करने के लिए मजबूर होना पडा है। बिहार विधान सभा के चुनाव में राजद और कांग्रेस ने सीधा फरमान दिया कि जो सीटें दी जा रही है उसे कम्युनिस्ट पार्टियां सीधे तौर पर स्वीकार कर ले, अन्यथा महागठबंधन से अलग होकर चुनाव लड़े। राजद और कांग्रेस के गठबंधन में कम्युनिस्ट राष्ट्रीय पार्टियांे को मात्र दस सीटें मिली हैं जिस पर उन्हें चुनाव लड़ना है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को छह सीटें मिली है जबकि माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को मात्र चार सीटें मिली हैं। ये दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां कहने के लिए राष्ट्रीय पार्टी हैं पर इन्हें राजद जैसी क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी के सामने झुकना पडा है और अपमानजनक समझौते के लिए उन्हें बाध्य होना पडा है। खासकर बिहार में राजद तो जातीय आधार रखता है पर कांग्रेस का कोई खास जनाधार नहीं है। निर्णायक और मान्यतौर पर बिाहर मे कांग्रेस से बड़ा जनाधार कम्युनिस्ट पार्टियो का है। कम्युनिस्ट पार्टियो की उपस्थिति भी अभियानी और सक्रियता वाली होती है। इस प्रश्न पर बिहार के अंदर ही नहीं बल्कि पूरे देश में गंभीरता के साथ चर्चा हो रही है कि आखिर कम्युनिस्ट पार्टियां क्या बेदम हो गयी हैं और क्या उनका जनाधार इतना सीमित व लगभग नगण्य हो गया है कि इस तरह अपमान का धूंट पीना उन्हें पड रहा है?
                                   इस प्रसंग पर कम्युनिस्ट पार्टियों के पास रटा-रटाया जवाब है, लिखा हुआ स्क्रीप्ट है जिसे वे बडी वीरता के साथ सुना देंगे? वे कहेंगे कि हम हिन्दू सांप्रदायिकता को रोकने के लिए वचनबद्ध है। हमारी ववनबद्धता के सामने अपना हित भी गंवाना स्वीकार है। हम सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के लिए महागठबंधन के निर्णय को स्वीकार किये हैं। हमारे लिए कम सीट का प्रश्न नहीं है, हमारे सामने कम सीटों पर लड़ कर भी सांप्रदायिक ताकतों पर अंकुश लगाने का एक अवसर है? जब कम्युनिस्ट पार्टियां कथित सांप्रदायिकता की बात करती है तो फिर उसकी ध्वनी सिर्फ और सिर्फ हिन्दू सांप्रदायिकता की निकलती है। हिन्दू सांप्रदायिकता का विरोध करते-करते कम्युनिस्ट पार्टियां खूद ही कमजोर हो गयी, खूद ही लकवा ग्रस्त हो गयी, खूद ही बेदम हो गयी, खूद ही अविश्वसीय हो गयी, खूद ही हिन्दू शक्तियों के आक्रोश के शिकार हो गयीं, खूद ही अपने जनाधार खो दी हैं।
                                        यह कहना भी गलत नहीं होगा कि हिन्दू सांप्रदायिकता के विरोध में कम्युनिस्ट पार्टियां खूद दफन हो गयी। अगर आप इस उदाहरण या तथ्य को अस्वीकार करते हैं कि हिन्दू सांप्रदायिकता के विरोध में खूद कम्युनिस्ट पार्टियां दफन हो गयी तो फिर आपको त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल का उदाहरण और हस्र को देखना होगा। त्रिपुरा कभी कम्युनिस्ट पार्टियों का अपराजय गढ था, त्रिपुरा पर माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी लगभग तीस सालों तक शाासन की थी। एक ही झटके में हिन्दूवादी शक्तियों ने त्रिपुरा में कम्युनिस्ट पार्टियों को दफन कर दिया। कुछ सालों पहले तक त्रिपुरा में कोई खास वजूद नहीं रखने वाली भाजपा सत्तासीन हो गयीं। त्रिपुरा से कम्युनिस्ट पार्टियों की सरकार से विदाई हो गयी। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने कम्युनिस्ट पार्टियों की कब्र खोदी। फिर सांप्रदायिकता के नाम पर कम्युनिस्ट पार्टियों ने ममता बनर्जी के खिलाफ कांग्रेस के साथ गठबंधन कर आत्मघाती मोर्चा बनाया। ममता बनर्जी पुन सता में लौट गयी, कम्युनिस्ट पार्टियो का ममता बनर्जी को सत्ताहीन करने का सपना पूरा नहीं हो पाया। पर खुद कम्युनिस्ट पाटियां पश्चिम बंगाल में अपनी कब्र खोद ली। पिछले विधान सभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में कांग्रेस दूसरे नबर में आ गयी पर कम्युनिस्ट पार्टियां तीसरे नबंर पर पहुंच गयी। पश्चिम बंगाल में पिछले लोकसभा चुनाव मे भाजपा सत्ता के दावेदार के तौर पर मजबूत हुई तो फिर कम्युनिस्ट पार्टियां हाशिये पर चली गयी। पश्चिम बंगाल में आज की राजनीतिक समीकरण ममता बनर्जी बनाम भाजपा हैं। पश्चिम बंगाल मे कम्युनिस्ट पार्टियां हाशिये पर ही खडी हैं।
                                               कथित हिन्दू सांप्रदायिकता का विरोध कम्युनिस्ट पार्टियां के लिए राजनीतिक शक्ति हासिल करने का माध्यम क्यों नहीं बन रहा है? कम्युनिस्ट पार्टियां की कथित हिन्दू सांप्रदायिकता के विरोध से जनाधार क्यों नहीं बन रहा है? अपने समर्थक वर्ग को एक जुट कर रखने में समर्थ क्यो नहीं हो रही हैं? इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर कम्युनिस्ट पार्टियां जरूर बंद कमरे मे बहस कर रही होंगी पर जनमानस के सामने अभी तक इस कमजोरी पर कम्युनिस्ट पार्टियां खुलासा नहीं की है, या यह कहना गलत नहीं होगा कि इस प्रश्न पर कोई विचार रखने में कम्युनिस्ट पार्टियां परहेज ही करती हैं। हमें यह जानना भी चाहिए कि कम्युनिस्ट पार्टियों की राजनीतिक बहसें आम नहीं होती हैं, राजनीतिक बहसों से निकली बातें आम नहीं होती हैं। सिर्फ कथित हिन्दू सांप्रदायिकता के विरोध के दुष्परिणामों पर ही नहीं बल्कि चीन के साथ निकटता और राष्ट्रवाद के प्रेरक बातों पर निकले दुष्परिणामों पर कम्युनिस्टों की चर्चा सामने नहीं आती है।
                               कम्युनिस्ट स्वीकार करें या नहीं करें, अपनी कमजोरियो को लेकर जनमानस की भावनाओं का खूब अनादर करें पर हर कोई यह जानता है कि कम्युनिस्ट पार्टियों की सांप्रदायिकता का अर्थ क्या है? वास्तव में कम्युनिस्ट पार्टियों की सांप्रदायिकता की समझ एकांकी है। कोई एकांकी सोच किसी की तस्वीर नहीं बना सकती है, कोई एकांकी सोच खोये हुए जनाधार की वापसी नहीं करा सकती है, कोई एंकाकी सोच आपकी सत्ता में वापसी नहीं करा सकती है। सांप्रदायिकता के विरोध का अर्थ सिर्फ हिन्दू विरोध नहीं होता है। मुस्लिम सांप्रदायिकता के सामने घुटनाटेक नीति नुकसानकुन होता है। सोशल मीडिया में कम्युनिस्ट पार्टियो से लोग पूछते हैं कि पूजा करना या मंदिर जाना अंध विश्वास है तो फिर नमाज पढ़ना या फिर गिरजाघर जाना कौन सा विश्वास होता है? अगर हिन्दू धर्म को अपमानित करने वाले लेखको, चित्रकारों को अभियक्ति की स्वतंता है तो फिर सलमान रूशदी, तसलीमा नसरीन पर चुप्पी क्यों रहती है? महावीर अकेला को पार्टी से क्यों निकाला गया। महावीर अकेला ने ‘ बोया पेड बबूल का ‘ नाम की पुस्तक लिखी थी। महावीर अकेला को कम्युनिस्ट पार्टी ने इसलिए बाहर कर दिया था कि उसमें गैर हिन्दू धर्म वालों पर छोटी सी टिप्पणी थी। भारत परमाणु विस्फोट करे तो हिंसक और चीन-कोरिया परमाणु विस्फोट करे तो अहिंसक? कश्मीर के विस्थापित पंडितों के लिए एक शब्द नहीं बोलना और कश्मीर के मुस्लिम आतंकवादियों और पाकिस्तान परस्तों के पक्ष में बोलने और समर्थन देने की नीति को आज के युवा कैसे और क्यों स्वीकार करेंगे? अफजल को फांसी कोई हिन्दू समर्थक सत्ता ने नहीं पर बल्कि आपकी समर्थक कांग्रेस ने ही चढायी थी पर टूकडे-टुकडे मानसिकता आपने क्यों पाली? सांप्रदायिकता की एकांकी विरोध से भी बढ कर देश विरोध की आत्मघाती नीति अपना खेल दिखायेगी ही, इससे इनकार कैसे किया जा सकता है?
                                कथित सांप्रायिकता का एकांकी विरोध के कुचक्र में जातिवाद को गले लगा लेना, भ्रष्टचार को गले लगा लेना, कहां तक उचित है और राजनीतिक नैतिकता की बात है। लालू घोर जातिवाद की उपज हैं। देश के अंदर में लालू, मुलायम जैसे लोगो ने राजनीति में जातिवाद का जहर घोला है,सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि वंशवाद का जहर भी घोला हैं। राजनीति को जातिवाद और वंशवाद की रखैल बना छोडा हैं। क्या लालू के परिवार से आगे राजद में कोई बढ सकता है, क्या सोनिया के बेटा-बेटी के सामने और आगे कोई बढ सकता है? ऐसे दलों में विरोध करने वाले लोग दूध की मक्खी की तरह निकाल कर बाहर फेंक दिये जायेंगे। लालू के बेटे और बेटियां ही राजनीति के शिखर पर बैठेगे? इनमें मजदूर और आम किसान की कोई संभावना ही नहीं होगी? कम्यंुनिस्ट पार्टियां तो मजदूर-किसान और आम आदमी की बात करती है फिर मजदूर, किसान और आम आदमी जब लालू, मुलायम या फिर कांग्रेस की राजनीति में शिखर पर पहंुच ही नहीं सकते हैं तो फिर कम्युनिस्ट पार्टियों का ऐसे दलों के प्रति सहानुभूति क्यों रखती हैं? लालू चारा धोटाले में जेल में बंद है, कांग्रेस के काल में कितने घोटाले हुए, यह कौन नही जानता हैं? कम्युनिस्ट पार्टियों का यह दोहरा चरित्र जागरूक जन को स्वीकार नहीं हो सकता हैं। यही कारण है कि कम्युनिस्ट पार्टियों को इस दोहरे चरित्र के कारण आम जनता ने स्वीकार करना बंद कर दिया है।
                      जातिवाद, वंशवाद और भ्रष्टचार आधारित राजनीतिक दलों से गठबंधन कर हिन्दू सांप्रदायिकता को रोकना, जनता के विश्वास को मांगना या फिर सत्ता के लायक जनादेश हासिल करना टेढी खीर है। फिर जातिवादी, वंशवादी, भ्रष्टचारवादी जब सत्ता में आती हैं तो फिर कम्युनिस्ट पार्टियों के विचार को आगे तो बढाते नहीं, कम्युनिस्ट पार्टियां उन सरकारों को जनाकांक्षी बनाने की वीरता दिखा तो पाती नहीं? जातिवाद, वंशवाद, भ्रष्टचारवाद पर सत्ता हासिल करने वाली पार्टियां और भी जातिवादी हो जाती हैं, भ्रष्टाचारवादी हो जाती हैं, वंशवादी हो जाती हैं। जनकांक्षी राजनीति प्रश्न गौण ही हो जाता है।
                       कम्युनिस्ट पार्टियों को अब एंकाकी संाप्र्रदायिकता के जिहाद पर फिर से विचार करना चाहिए, सांप्रदायिकता के सभी कोणों पर प्रहार करना होगा, अगर आतंकवादियों के अधिकार हैं तो फिर कश्मीरी पंडितों के भी अधिकार हैं, यह सोचना होगा। गठबंधन की राजनीति, वह भी जातिवादी और वंशवादी राजनीति से परहेज करना ही बेहतर होगा। कम्युनिस्ट पार्टियो को खुद के बल पर खडा होना है, स्वावलंबन बनना और अपने जनाधार के विकास करना सीखना होगा।  पर कम्युनिस्ट पार्टियां अभी भी अपनी एंकाकी सोच से बाहर निकलने के लिए तैयार कहां है?




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