Friday, October 28, 2011

वोट के चश्मे से सेना को देखना बंद करो

राष्ट्र-चिंतन
      
  सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम पर राजनीति क्यों?
वोट के चश्मे से सेना को देखना बंद करो
विष्णुगुप्त


अमेरिका विदेशी राष्टों-कूटनीतिज्ञों के जांच से परे होने का अंतर्राष्टीय अधिकार का सम्मान नहीं करता। विदेशी राष्टाध्यक्षों और कूटनीतिज्ञों को लाइन में खड़ा कर सुरक्षा जांच होती है। विदेशी कूटनीतिज्ञों को कपड़े उतारवा कर भी जांच होती है। तत्कालीन भारतीय रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीस को अमेरिका के हवाई अड्डे पर कपड़े उतरवा कर सुरक्षा जांच हुई थी। अमेरिकी सेना कई विशेष अधिकार वाले कानूनों से लैश है। दुनिया भर में मानवाधिकारों के शोर के बाद भी अमेरिका की सुरक्षा नीति प्रभावित नहीं हुई। यही कारण है कि वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हुए अलकायदा के हमले के बाद आज तक अमेरिका में और कोई हमला नहीं हुआ है। आतंकवादियों और आतंकवादियों के संरक्षक संवर्ग के लिए मानवाधिकार का कवच क्यों? आतंकवादियों के हमले का शिकार होने वाले लोगों का कोई मानवाधिकार नहीं होता है क्या? हमारे देश में सेना और सेना के सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम को कोसने का एक ऐसा फैशन है जिसकी एक्सरसाइज कभी रूकती ही नहीं है।
दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है जहां पर सेना और देश की सुरक्षा को भी राजनीतिक वोट के नजरिये से देखा जाता हैं। इतना भर ही नहीं बल्कि वोट के नजरिये से सेना व देश की सुरक्षा को कोपभाजन बनाने और संकट में डालने की कोई कसर नहीं छोड़ी जाती है। राजनीतिक हमलों-साजिशों के बावजूद भी हमारी सेना न केवल अनुशासित है बल्कि दुनिया भर में शांति मिशनों की सफलता में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। संयुक्त राष्टसंघ के शांति अभियानों में भारतीय सेना की भूमिका अद्वितीय है। दुनिया के संकटग्रस्त-हिंसाग्रस्त और गृहयुद्ध जैसी स्थिति से निपटने में सभी पक्षों द्वारा भारतीय सैनिकों की मांग यह साबित करती है कि हमारी सेना दुनिया के सभी सेना संवर्ग में सबसे अधिक शील और मानवाधिकारों के प्रति जवाबदेह है। पक्षपात जैसी ग्रंथिया हमारी सेना ढोती नहीं। दुनिया भर में अपने लिए अनुशासन और मानवाधिकार के प्रति जवाबदेही हासिल करने वाली हमारी सेना अपने घर में ही आलोचना और राजनीतिक साजिशों का शिकार रही है। जबकि हमारी भगोलिक सीमा पर कैसी संकट है यह भी जगजाहिर है। पड़ोसी देशों के प्रत्यारोपित आतंकवाद से हमारी सेना न केवल जूझ रही है बल्कि अनगिनित कुर्बानियों देकर राष्ट की एकता और अखंडता का बोझ ढो रही है। सेना के दबाव के सामने प्रत्यारोपित व आउटसोर्सिंग आतंकवाद जब-जब दम तोड़ते दिखता है तब तब सेना के हाथ-पांव बांध देने की राजनीति चलती है। शांति प्रक्रिया के नाम पर सेना के आतंकवाद विरोधी अभियानों पर ब्रजपात होता है तो कभी दुर्दांत आतंकवादियों को छोड़ने व उनका सम्मान करने की सत्ता राजनीति चलती है। ऐसे में सेना का पूरा तंत्र जोश और होश क्यों नहीं खोयेगा? सुखद स्थिति यह है कि इतनी राजनीति और साजिश के बाद भी भारतीय सेना ने जोश और होश अभी तक नहीं खोयी है। संवैधानिक लोकतंत्र के दायरे में सेना अपने आप को अराजकता से दूर और जवाबदेही से पूर्ण है।
हाल के दिनों में सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम के खिलाफ गंभीर चर्चा हो रही है। खासकर बुद्धीजीवी संवर्ग का निशाना है कि सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम मानवाधिकार हनन का हथकंडा बन गया है। सेना इस अधिनियम का दुरूपयोग करती है और निर्दोष नागरिकों के मानवाधिकार का हनन करती है। इसलिए इस अधिनियम को समाप्त कर देना ही सर्वोत्तम विकल्प है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुला के बयानों से सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम को लेकर सेना और गृहमंत्रालय परेशानी में है। उमर अब्दुला ने कश्मीर के कुछ जिलों से सेना का यह विशेषाधिकार समाप्त करना चाहते हैं और इसकों लेकर उनका सार्वजनिक बयानबाजी कुछ ज्यादा ही तेज है। उमर अब्दुला ने सेना को आलोचना को शिकार भी बनाया। सेना के आपत्ति के बाद उमर अब्दुला सेना के पक्ष में बयानबाजी करने और आतंकवाद से लड़ने में सेना की भूमिका की प्रशंसा करने की नीति पर चलने को बाध्य हुए हैं। फिर भी उमर अब्दुला का सेना के इस विशेषाधिकार के खिलाफ अभियान जारी है। सेनाध्यक्ष वीके सिंह ने साफतौर पर कहा है कि सशस्त्र बल विशेष अधिनियम हटा लेने के बाद सीमा चैकियों और आतंकवाद ग्रस्त भूभागों की समस्याएं विकराल होगी। आतंकवाद ग्रस्त भूभागों में सेना की तैनाती का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। दम तोड़ता प्रत्यारोपित आतंकवाद फिर से सिर उठा कर देश की एकता को खंडित करने के लिए शक्ति हासिल करेगा। राजनीतिक संवर्ग को इस सच्चाई से अवगत कयों नहीं होना चाहिए? फिलहाल सेना अध्यक्ष वीके सिंह संतुति गृहमंत्रालय के पास विचाराधीन है। गृहमंत्रालय को यह निर्णय लेना है कि सेना के पास यह विशेषाधिकार रहना चाहिए या नहीं।
सर्वोत्तम स्थिति यह है कि सेना को हमेशा बैरकों में ही रहना चाहिए। आबादी वाले इलाकों में सेना की सक्रियता खतरनाक मानी जानी चाहिए? पर सवाल यहां यह है कि क्या हमारे देश की आतंरिक व वाह्य स्थितियां ऐसी है कि सेना और अन्य सुरक्षा बलों को उनके बैरकों तक ही सक्रियता सुनिश्चित रखी जानी चाहिए। ऐसा सभ्य समाज या आतंरिक-वाह्य चुनौतियों से दूर रहने वाले देशों में ही हो सकता है कि सेना सिर्फ बैरकों में ही अपनी गतिविधियां-सक्रियता सुनिश्चित रख सके। भारत जैसे हिंसाग्रस्त और आतंकवाद से घायल देश में यह संभव ही नहीं है कि सेना को बैरकों तक सीमित रख छोड़ा जाये। वाह्य -आतंरिक सुरक्षा की चुनौतियां हमारे सामने किस प्रकार की विकट है यह भी जगजाहिर है। जम्मू-कश्मीर में हम जहां पाकिस्तान प्रायोजित और आउटसोर्सिंग आतंकवाद के शिकार हैं वहीं पूर्वोत्तर का पूरा इलाका चीन जैसे खतरनाक पड़ोसियों की साजिशों के चक्रव्यूव में हमारी सुरक्षा नीति है। जम्मू-कश्मीर में सेना के अथक प्रयासों और बेहिसाब कुर्बानियों के बदौलत ही हम आतंकवाद पर अंकुश लगाने में कामयाब हुए हैं। आतंकवादियों की पूरी रणनीति सेना के दबाव मेें दम तोड़ रही है। जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों के हमले और आतंकवादियों की धुसपैठ में आयी कम इस बात का प्रमाण है कि सेना का चाकचैबंद कार्रवाइयां पड़ोसी देश के नापाक इरादों को कुचल रही हैं। यह स्थितियां कोई राजनीतिक पहल या कठोरता से नहीं बनी हुई हैं बल्कि सेना के सीमा की सुरक्षा और देश की सुरक्षा के प्रति समर्पण से बनी हुई हैं।जहां तक पूर्वोतर का सवाल है तो पूरा पूर्वोतर ही उग्रवाद के शिकंजे मे कैद है। जहां पर चीन की टेढी नजरें हमेशा सेना की चुनौतियां विकराल करती रही हैं।
हमनें नरम नीति या फिर पड़ोसियों पर भरोसा कर देख लिया है और इसके दुष्परिणामों को भी राष्ट ने भुगता है। जब-जब आतंकवाद दम तोड़ता दिखता है और पड़ौसियों के नापाक इरादे कैद में होते हैं तब-तब नरम नीति या फिर आतंकवादियों से शांति प्रक्रिया की समझ विकसित होती है। नरम नीति या फिर शांति की प्रक्रिया से आतंकवाद और मजबूत होकर खड़ा होता है। पड़ोसी देशों का कुचक्र और तेज होता है। अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान से दोस्ती की आस में सेना के हाथ बाध दिये थे। आतंकवादियों और आतंकवाद के आउटसोर्सिंग करने वाले देश के साथ शांति प्रक्रिया चलायी गयी। सीमा पर सेना के हाथ बांध कर रखे गये थे। फलस्वरूप राष्ट ने कारगिल जैसे हमले भुगते। कारगिल को मुक्त कराने के लिए सैकड़ो सैनिकों को कुर्बानियां देनी पड़ी थी। विकास के अरबों डालर रूपये कारगिल को पाकिस्तान सैनिकों से मुक्त कराने के लिए लगाये गये। दुनिया भर में आतंकवाद के खिलाफ आवाज तेज हो रही है और पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा कर किया जा रहा है पर भारत पाकिस्तान के आतंकवाद के आउटसोर्सिंंग पर खामोश क्यों है?
    साखकर कश्मीर में सेना को किन विकट परिस्थितियों में काम करना पड़ता है उस पर भी गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। पत्थर फेंकने वाली बलवायी भीड़ सरेआम सरकारी प्रतिष्ठानों और सैनिकों के बैरकों में आग लगाती है। पड़ोसी देशों के झंडेु फहराये जाते हैं। सीमा पार कर आने वाले आतंकवादी आबादी में शरण लेकर अपनी खूनी कारवाइयों को अंजाम देते हैं। ऐसी स्थिति में सेना पर अतिरिक्त दबाव आना स्वाभाविक है। मानवीय भूल से कुछ निर्दोष लोग भी उत्पीड़न का शिकार होते हैं। यह सही है। फिर भी जिन स्थितियों में भारतीय सेना आतंकवाद से जूझ रही है उस स्थिति के मद्देनजर हमारी सेना सबसे अधिक शील और मानवाधिकारों के प्रति सचेत-समर्पित है।
हमारे राजनीतिक संवर्ग और सत्ता संस्थान को दुनिया के उन देशों से सबक लेना चाहिए जिन्होंने आतंकवाद से लड़ने के लिए अपने कानूनों को कठोर बनाया। पुलिस -सेना को विशेष अधिकारों से लैश किया। अमेरिका -ब्रिटेन आज अपने विशेष कानूनों के बल पर ही आतंकवादियों के नापाक इरादों से मुक्त है। अमेरिका में विदेशी राष्टाध्यक्षों को लाइन में खड़ा कर तलाशी ली जाती है। भारत को आतंकवाद और देश की सुरक्षा की कसौटी पर ही सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम को देखना चाहिए।

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Sunday, September 18, 2011

मोदी विरोध की दुकानदारी



राष्ट्र-चिंतन


मोदी विरोध की दुकानदारी


विष्णुगुप्त

दोहरे चरित्र रखने वाले व अति हिन्दू विरोध से लथपथ देश के बुद्धीजीवियों व गैर तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक संवर्ग निश्चित तौर पर मुस्लिम आबादी के शुभचिंतक नहीं, उनके वोट बैंक पर कुदृष्टि डाले गिद्ध है औरगुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की असली शक्ति हैं। नरेन्द्र मोदी का जितना अधिक विरोध और उनके खिलाफ राजनीतिक/न्यायिक प्रक्रियाएं चलती हैं उतना ही गुजरात का जनमानस नरेन्द्र मोदी के साथ निकट चला आता है। गुजरात की जनता की अस्मिता के साथ गोधरा कांड से ही खिलवाड़ करने की राजनीतिक-सामाजिक प्रक्रिया चलती रही है। गुजरात दंगा निश्चित तौर पर एक गैरजरूरी प्रक्रिया थी। लेकिन यह क्यों भूला दिया जाता है कि गोधरा कांड के बाद तथाकथित दोहरे चरित्र रखने वाले और अति हिन्दू विरोध से लथपथ बुद्धीजीवियों-राजनीतिक पार्टियों ने सांप्रदायिक मानसिकता की आग लगायी थी। गोधरा कंाड के दोषियों को कानून का पाठ पढाने की जगह विवेचना-आलोचना का मकड़जाल हिन्दू विरोध पर आधारित थी। गुजराती अस्मिता गोधरा कांड के पूर्व से आहत थी और कई ऐसी प्रक्रियाएं थी जो सीधेतौर बहुसंख्यक गुजराती अस्मिता को कूचल रहीं थी। गुजरात दंगे के बाद नरेन्द्र मोदी ने विकास-उन्नति के रास्ते चुनने की काबलियत दिखायी। राजनीतिक/एनजीओ गठजोड़ से उपजी चुनौतियों से दूसरा कोई भी राजनीतिज्ञ विचलित होता और उसकी सत्ता विध्वंस को भी प्राप्त होती पर नरेन्द्र मोदी ने उन चुनौतियों का न केवल दृढ़ता के साथ सामना किया बल्कि भेदभाव रहित शासन व्यवस्था कायम की है। मोदी के विकास को विरोधी शक्तियां ही नहीं बल्कि मुस्लिम आबादी भी स्वीकार करती है और तारीफ करती है। विकास की जो श्रृंखलाएं बनती है उन श्रृंखलाओं का लाभ सभी संवर्ग को मिलता है। राजनीतिक तकरार तो चलती रहेगी पर इस राजनीतिक तकरार का मोहरा सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम आबादी ही बनती हैं। गुजरात में ऐसी राजनीतिक-सामाजिक वातावरण की जरूरत है जिसमें सभी आबादी की श्रृंखलाओं में परस्पर सहयोग व सदभावना की उम्मीद बनती है।


मोदी का अतिविरोध करने वालों का दोहरा चरित्र कितना घिनौना है? कितना राष्ट की अस्मिता को धूल धूसरित करती है? इसका भी एक उदाहरण देख लीजिये। इस उदाहरण को देखने के लिए गुजरात दंगे से बाहर निकल कर देखना होगा। कश्मीरी पंडितों के अनुपात में गुजरात में कितने मुस्लिम समुदाय की आबादी आहत व प्रताड़ित हुई है? दस लाख कश्मीरी पंडितों को अपनी जन्मभूमि को छोड़कर भागने के लिए विवश किया गया। हजारों लोगों को आतंकवादियों ने मौत की नींद सुला दी। तर्क यही था कि कश्मीरी पंडित हिन्दू हैं, इसलिए इन्हें या तो इस्लाम स्वीकार करना होगा या फिर गोली-बम का शिकार होना होगा। आज कश्मीरी पंडित अपनी मातृभूमि से बेदखल होकर ठोकरे खा रहे हैं पर इनकी चिंता बुद्धीजीवियों को है? हुर्रियत के सभी नेता किसी न किसी काल खंड में आतंकवादी रहे है और वे कश्मीरी पंडितों के लहू पीने वाले पिशाच है। इन कश्मीरी पंडितो के रक्तपिशाचुओं के सम्मान में यही बुद्धीजीवी खड़ा रहते हैं। हुर्रियत के नेताओं को दिल्ली बुलाकार सेमिनारों में सम्मानित किया जाता है व राष्ट की संप्रभुता के साथ खिलवाड करने की अनवतरत प्रक्रिया चलती है। क्या हुर्रियत के नेता मोदी से कम विषैला हैं? क्या हुर्रियत के नेता कश्मीरी पंडितांे के रक्तपिशाचु नहीं हैं। हिन्दू और राष्ट के हितो के साथ खिलवाड़ करने पर बुद्धीजीवियों को आर्थिक व वैश्विक लाभ-सम्मान मिलता है। आईएसआई ने देश के अंदर राष्टविरोधी बुद्धीजीवियों की लम्बी कतार खड़ी है। ये बुद्धीजीवी आईएसआई के इसारों पर नाचते हैं। अमेरिका में आईएसआई एजेंट फई से पैसा लेने वाले और उसके निमंत्रण पर अमेरिका जाकर भारत विरोध की कूटनीति चलाने वाले बुद्धीजीवियों की पोल खुल गयी है।

तथाकथित बुद्धीजीवी संवर्ग और मोदी विरोधी राजनीतिक शक्तियां क्या मुस्लिम आबादी की हितैषी है? विश्लेषण का एक आधार भी यह होना चाहिए? तथाकथित बुद्धीजीवियो को अपनी दुकान चलानी है जबकि मोदी विरोधी राजनीतिक धारा को मुस्लिम वोट बैंक की चिंता है। इन दोनों धाराओं को यह मालूम है कि उनकी लाभार्थी होने की एकमात्र शर्त अति हिन्दू विरोध और मोदी के डर को कायम रखना है। इन बुद्धीजीवियों और राजनीतिक संवर्ग उस समय मुंह पर पट्टी लगाये क्यों बैठे थे जब गुजरात धधक रहा था। पूर्व सांसद जाफरी ने अपनी जान बचाने के लिए सोनिया गांधी से लेकर कांग्रेस के कई नेताओं को टेलीफोन किये थे। लेकिन जाफरी की किसी ने भी मदद नहीं की। जाफरी की जान बचाने के लिए आगे नहीं आने वाली कांग्रेस आज मुस्लिम आबादी का हमदर्द होने का नाटक रच रही है। यह भी बात होती है कि मुस्लिम आबादी आज पिछड़ी हुई है और उसके साथ राजनीतिक बेईमानी हुई है। यह बात तो सच्ची है पर इसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या मोदी जिम्मेदार है? कांग्रेस ने सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम आबादी को एक वोट बैंक के तौर पर देखा। वोट लेकर मुस्लिम आबादी को हाशिये पर ढकलने जैसी राजनीतिक प्रक्रिया चलायी गयी। हिन्दूवाद का विरोध-मोदी का विरोध ही वह शक्ति है जिससे कांग्रेस को सत्ता संग्रहित करने का अवसर मिलता है। कांग्रेस की इस राह पर वामपंथी सहित पिछड़ी व दलित राजनीतिक पार्टियां भी चलती हैं।

गुजरात की बहुसंख्यक अस्मिता हमेशा से तथाकथित बुद्धजीवियों और धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियों की तुष्टीकरण से कुचली गयी हैं। गुजरात ही नहीं बल्कि देश की बहुसंख्यक अस्मिता इस बात को लेकर व्यथित रहती है कि उन्हे तुष्टीकरण के परिणामों का शिकार तो बनाया ही जाता है इसके अलावा उन पर लांक्षणा की प्रक्रिया भी चलती रहती है। बहुसंख्यक अस्मिता शांति और सदभाव का समर्थक हैं। इसलिए बहुसंख्यक मान्यताओं पर खिल्ली उड़ाने वाली प्रक्रिया बेधड़क चलती रहती है। कभी राम की तो कभी कृष्ण पर कीचड़ उछाली जाती है। पर कभी गैर हिन्दू मान्यताओं पर तथाकथित बुद्धीजीवी और राजनीतिक श्रृंखलाएं खिल्ली उड़ा सकती है। कभी नहीं। आनन-फानन में इनकी हेकड़ी ग्राह हो जायेगी? गोधरा-गुजरात के पहले एक खास संवर्ग की गुंडागर्दी चरम पर थी। इस गुंुडागर्दी की मानसिकताएं वैसी ही थी जैसी कि इस्लामिक आतंकवादी श्रृंखलाओं की रही है।

उपवास और सदभावना की नीति का अतिविरोध भी एक तरह से नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक शक्ति का ही परिचायक है। नरेन्द्र मोदी लगातार तीन बार से निर्वाचित हो रहे हैं। कांग्रेस और सभी विरोधी संवर्गों की पूरी की पूरी नीति धरी की धरी रह जाती हैं। नरेन्द्र मोदी की लगातार जीत ने साबित कर दिया है कि वे गुजरात की बहुसंख्यक अस्मिता के प्रतीक हैं। प्रशासनिक क्षमता का उन्होंने बेमिसाल उदाहरण दिया है। वीजा देने से इनकार करने वाला अमेरिका भी अब नरेन्द्र मोदी का प्रशंसक है। इसलिए कि नरेन्द्र मोदी ने विकास की प्रक्रिया चलायी। लगातार विरोधों के बाद भी विकास की सर्वश्रेष्ठ लौ जलाने की उपलब्धि ऐसी है जो मोदी को विकास मसीहा की पदवि देती है। विकास कार्यो में उन्होंने कहीं से भी न तो अन्याय किया और न ही उन्होंने पक्षपात किया। मुस्लिम आबादी आज खुद मोदी के विकास का गुणगान करती है। गुजरात के मुस्लिम सवर्ग के चिंतन में गुणात्मक बदलाव आया है। अब वे यह समझ गये हैं कि राजनीतिक तकरार या हिंसा की बात करने से लाभ नही होने वाला है। शांति-सदभाव से ही उन्नति की राह आसान हो सकती है। अलगाव और वैमनस्यता को हवा देने वाले राजनीतिक दल और बुद्धीजीवी मुस्लिम आबादी की भलाई नहीं चाहते हैं। नरेन्द्र मोदी न केवल गुजरात की बहुंसख्यक अस्मिता का प्रतीक है बल्कि देश की बहुसंख्यक आबादी के बीच भी उनकी साख और विश्वसनीयता सर्वश्रेष्ठता की श्रेणी में खड़ी है। भाजपा में उन्हें प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप देखा जाने लगा है। क्या नरेन्द्र मोदी भाजपा का नेतृत्व करने की शक्ति हासिल कर सकते हैं और भाजपा को फिर से केन्द्र की सत्ता पर बैठा सकते हैं। भविष्य की राजनीति में नरेन्द्र मोदी की संभावनाएं सर्वश्रेष्ठ है।
 
 
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Saturday, August 13, 2011

........ तब राजदीप सरदेसाई की जगह जेल होती

राष्ट्र-चिंतन
                        
                            कैश फॉर वोट कांड
 .... तब राजदीप सरदेसाई की जगह जेल होती
विष्णुगुप्त

आईबीएन सेवन के सर्वेसर्वा राजदीप सरदेसाई अगर ब्रिटेन या अन्य यूरोपीय देशों में होते तो निश्चित मानिये कि उनकी जगह जेल होती और उनके न्यूज चैनल आईबीएन सेवन पर ताला जड़ गया होता। सामाजिक जलालत अलग से झेंलनी पड़ती। कानूनों की घेरेबंदी में इनकी ईमानदारी के पचखडे उड़ गये होते। इनकी पेज थ्री संस्कृति जमींदोज हो जाती। सड़कों पर चलने के दौरान इनके उपर अंडे-टमाटरों की बरसात होती। इनकी ज्ञात और अज्ञात संपति भी अपराध की श्रेणी में खड़ी होती। अनैतिक/पतनशील और भ्रष्ट सत्ता वाली व्यवस्था के अंतर्गत ही राजदीप सरदेसाई जैसी संस्कृति जन्म ले सकती है और फल-फूल सकती है। इतना ही नहीं बल्कि चोरी और सीना जोरी वाली कहावत को सच में बदल सकती है।
इसलिए कि कैश फॉर वोट कांड में राजदीप सरदेसाई एक अपराधी के तौर पर खड़े हैं। एक साथ इन्होंने कई अपराधिक षडयंत्रों को रचा और संबंधित कानूनों के पचखड़े उड़ाये। प्रसारण नियमावली का उल्लंधन किया। दर्शकों और पाठको के कानूनी/नैतिक और परम्परागत अधिकार से वंचित किया। राजदीप सरदेसाई को न्यूज दबाने के षडयंत्र के लिए प्रसारण लाइसेंस दिये गये थे क्या? पत्रकारिता के मूल्यों और जिम्मेदारियों की ऐसी हताश प्रक्रिया के उदाहरण रचकर पत्रकारिता की विश्वसनीयता और लोकतांत्रिक ढाचे पर कलंक का बीज बोया गया है। मीडिया की थोड़ी सी भी समझ रखने वाली देश की आबादी स्पष्ट तौर पर राजदीप सरदेशाई के उस कुकृत्य को अपराध की श्रेणी में ही नहीं मानता है बल्कि चैनल चलाने के निहित जरूरी अहर्ताओं का उल्लंघन भी मानता है। मीडिया स्टडी ग्रुप के शोध में दिल्ली और छोटे-छोटे शहरों के पत्रकारों की राय एकमत रूप से आईबीएन सेवन और इनके कर्ताधर्ता राजदीप सरदेसाई को अप्रत्यक्ष नहीं बल्कि प्रत्यक्षतौर पर दोषी माना है और प्रसारण लाइसेंस का उल्लंधन भी।
अगर आईबीएन सेवन ने समाचार दबाने का षडयंत्र नहीं किया होता और ईमानदारी दिखायी होती तो निश्चिततौर पर मनमोहन सिंह /उनके मैनजरों तथा अमर सिंह एंड पार्टी का काला चेहरा उसी समय उजागर हो गया होता जिस समय परमाणु मुद्दे पर सरकार बचाने के लिए सांसदों के जमीर को खरीदा गया था और लोकतंत्र को पैसों की शक्ति से कुचला गया था। किस उ्देश्य से समाचार प्रसारण रोकने का षडयंत्र हुआ था। कही कांग्रेस/ मनमोहन सत्ता और आईबीएन सेवन के बीच पैसे की शक्ति तो काम नहीं कर रही थी। कही सांसदों को पैसे के बल पर खरीदने जैसी प्रक्रिया कांग्रेस और उसके मैनजरों ने आईबीएन सेवन के साथ तो नहीं चलायी थी? यही खोज का विषय है। पुलिस इस पर निष्कर्ष स्थापित कर सकती है। पत्रकारिता में चोर-चोर मसौरे भाई की संस्कृति हावी हो गयी है। इसीलिए जब टू जी स्पेक्टरम में बरखा दत्त पत्रकारिता को बेचती है तब राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकार समर्थन में खड़ा होकर बरखा दत्त को जलालत झेलने और कानून का ग्राह बनने से बचाने के लिए कलम-आवाज उठाते हैं। जब राजदीप सरदेसाई केश फॉर वोट कांड को दबाता है तब पत्रकारिता के अन्य मठाधीश अपनी आवाज बक्से में बंद कर देते हैं। यह चोर-चोर मसौरे भाई की ही लूट,चोरी और भ्रष्टाचार की कहानी है।
रूपर्ट मर्डाेक का उदाहरण.............
जो लोग आईबीएन सेवन और राजदीप सरदेसाई एंड कंपनी को सत्यवादी हरिश्चंद से भी बड़ा सत्यवादी मानते हैं और इनके कुकत्यों को पत्राकारिता के ज्ञात और परम्परागत यथार्थों के विपरीत नहीं मानते उन्हें मीडिया सुलतान रूपर्ट मर्डोंक के प्रकरण को आत्मसात करना चाहिए। ब्रिटेन ही नहीं बल्कि दुनिया का मशहूर अखबार ‘न्यूज ऑफ द वर्ल्ड ‘ और मीडिया सुलतान रूपर्ट मर्डोक के हश्र का उदाहरण हमारे सामने है। न्यूज ऑफ द वर्ल्ड का प्रकाशन सदा के लिए बंद कर दिया गया। न्यूज ऑफ द वर्ल्ड ने समाचार की खोज में निजी तौर पर टेलीफोन टेप का अपराध किया था। यह अपराध उसने न्यूज को दबाने या फिर ब्लैकमैलिंग के उद्देश्य से नहीं किये गये थे। खोजी पत्रकारिता और पाठकों के बीच विशेष समाचार सामग्री देने की होड़ में न्यूज आफ द वर्ल्ड ने ब्रिटेन की राजशाही सहित अन्य प्रमुख हस्तियों के टेलीफोन टेप कर सनसनी समाचार पाठकों के बीच परोसे थे। जैसे ही यह प्रकरण सामने आया वैसे ही ब्रिटेन की कैमरून सरकार सकते में आ गयी और कैमरून के मीडिया सलाहकार सहित न्यूज ऑफ द वर्ल्ड के टॉप अधिकारी जेल के अंदर पहुंच गये। मर्डोक के खिलाफ संज्ञान लिया गया और उन्हें ब्रिटेन की संसदीय समिति के सामने कई दिनों तक हाजिरी लगानी पड़ी। इस दौरान मर्डोक पर हमले भी हुए। न्यूज आफ द वर्ल्ड से जुड़े टॉप मीडियाकर्मियों को जनाक्रोश की जलालत झेलनी पड़ रही है और वे सड़कों पर बाधा रहित घूम भी नहीं सकते। उन्हें अंडो और टमाटरों की अपने उपर बरसात होने का डर है। जबकि न्यूज आफ द वर्ल्ड का अपराध आईबीएन सेवन की तुलना में कहीं भी नहीं ठहरता है। न्यूज आफ द वर्ल्ड का हश्र इसलिए हुआ कि ब्रिटेन की सामाजिक और सत्ता व्यवस्था में अभी भी नैतिकता है।
आईबीएन सेवन का स्टिंग आपरेशन..................अमेरिका के साथ परमाणु 123 करार पर वामपंथी जमात के समर्थन खींच लेने के कारण मनमोहन सिंह सरकार अल्पमत आ गयी थी। सांसदों की खरीद के बिना मनमोहन सिंह की सत्ता बचती और न ही अमेरिका के साथ 123 परमाणु करार संसद में पास होता। सांसदों की खरीद के लिए कांग्रेस के मैनेजर तो थैली खोलकर बैठे ही थे, इसके अलावा अमर सिंह और मुलायम सिंह एंड पार्टी भी सांसदों के खरीद में लगे हुए थे। अमेरिका की परमाणु कंपनियां और देश के कांग्रंेसी सत्ता समर्थक उद्योगपति धन की वर्षा कर रहे थे। भाजपा सहित अन्य अन्य विपक्षी दलों के सांसदो पर पैसे की शक्ति का लालच दिया गया था। भाजपा के सांसदों ने इसकी शिकायत आलाकमान से की थी। भाजपा आलाकमान ने आईबीएन सेवन और राजदीप सरदेसाई से सांसदों की खरीदने की कांग्रेसी और अमर-मुलायम एंड पार्टी की करतूत का स्टिंग आपरेशन करने के लिए संपर्क्र किया था। भाजपा से आईबीएन सेवन और राजदीप सरदेसाई ने वायदा किया था कि आपरेशन चाकचौंबद होगा और कांग्रेस की पैसे की शक्ति से उनकी ईमानदारी नहीं डिगेगी। सच को उजागर कर मनमोहन सत्ता का खेल बेपर्दा होगा।
नोट लहराने की बेबसी................
आईबीएन सेवन ने ईमानदारी नहीं दिखायी। स्टिंग आपरेशन तो किया पर उसने स्टिंग आपरेशन को दिखाने से साफ इनकार कर दिया। अमान्य और प्रत्यारोपित तर्क प्रस्तुत किये गये। भाजपा राजदीप सरदेसाई एंड कंपनी विश्वास कर ठगी गयी। सांसदों को खरीदने की कांग्रेसी/अमर-मुलायम एंड पार्टी की करतूत पर पर्दा उठने की उम्मीद बेकार साबित हो गयी थी। हारकर भाजपा सांसदों ने अमर सिंह-मुलायम सिंह एंड पार्टी द्वारा दिये गये एक करोड़ रूपये को संसद में लहराना पड़ा। संसद में रिश्वत के रूप में दिये गये एक करोड़ रूपये लहराने की यह पहली घटना थी। कायदे से इस करतूत का पर्दाफाश आईबीएन सेवन को करना चाहिए था। अगर आईबीएन सेवन नोट की शक्ति से सांसदों की जमीर खरीदने का खेल प्रसारित कर दिया होता तो संसद में मनमोहन सरकार बेपर्दा हो जाती।
22 जुलाई से 11 अगस्त के बीच कौन सा खेल हुआ......................
22 अगस्त 2008 को कैश फॉर वोट कांड की करतूत सामने आयी थी। लोकतंत्र की इस हत्या पर लोकतांत्रिक समाज-व्यवस्था हतप्रथ थी। देश का लोकतांत्रिक संवर्ग और आम आबादी इस कंाड की असली सच्चाई जानने की उम्मीद आईबीएन सेवन से कर रहा था। आईबीएन सेवन कभी ंिस्टंग आपरेशन को अधूरा होने तो कभी तस्वीर साफ नहीं होने और कैश फॉर वोट कांड में संलग्न लोगों की शख्सियत अज्ञात होने जैसे रक्षा कवज बनाता रहा। इस दौरान उसकी कांग्रेस-मनमोहन सिंह सत्ता या फिर अमर सिंह-मुलायम सिंह एंड पार्टी से आईबीएन सेवन-राजदीप सरदेसाई एंड पार्टी के बीच कौन सा खेल हुआ। कही पैसे की शक्ति से आईबीएन सेवन भी तो प्रभावित नहीं हुआ? इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है। सच तो यह है आईबीएन सेवन और कांग्रेस मनमोहन सिंह सरकार के बीच सैकड़ो करोड़ की डील हो सकती है। ऐसे ही कोई नामी-गिरामी न्यूज चैनल अपनी विश्वसनीयता नहीं खो सकता है। ऐसे समय में जब कांग्रेस-मनमोहन सरकार और अमर-मुलायम अपनी साख बचाने और कैश फॉर वोट कांड पर पर्दा डालने के लिए कोई/कैसी भी हदें पार कर सकतंे थे। पत्रकारिता संवर्ग की इस आशंका को झुठलाया नहीं जा सकता है कि राजदीप सरदेसाई स्टिंग आपरेशन को दबाने और सत्यता छुपाने की कीमत भी करोड़ों में वसूली होगी। मीडिया स्टटी ग्रुप के सर्वेक्षण में पत्रकारिता संवर्ग ने ऐसी ही राय प्रकट की थी।
चोरी-चोरी दिखाया क्यो?.............
इलेक्टानिक्स मीडिया का इतिहास खंगाल लीजिये और राजदीप सरदेसाई की चोरी और पत्रकारिता बेचने की कहानी की नीयत भी पकड़ लीजिये। जब कोई सनसनी या विशेष समाचार का खुलासा होता तो चैनल कई दिनों से इसकी सूचना बार-बार देते हैं और सनसनी खेज समाचारों की फूटेज भी दिखाते हैं। विज्ञापन बटोरने का खेल भी खेलते हैं इसकी मिसाल शायद आपको याद हो जब लालू प्रसाद यादव रेलमंत्री थे तब लालू यादव के क्षेत्र से एक खबर इसी चैनल पर फ्लैश की जा रही थी कि लालू ने कितने ही लोगों की जमीन हथिया ली है लेकिन उस जमीन के बारे में कोई खुलासा नहीं हुआ, दो दिन तक लालू द्वारा जमीन हथियाने की पट्टी समाचार चलाने के बाद उस खबर की सच्चाई सदा के लिए जमींदोज कर दिया गया था। उसी तरह कैश फॉर नोट कांड का प्रसारण राजदीप एंड कंपनी ने बेहद गोपनीय ढंग से और बिना पूर्व सूचना के 11 अगस्त 2008 को कर दिया। सनसनी खेज और विशेष समाचारों के प्रसारण बार-बार दिखाये जाते हैं। दर्शकों की प्रतिक्रिया लेने के लिए चैनलों के रिर्पोटर खाक छानते हैं। 19 दिनों तक इस स्टिंग आपरेशन को दबा कर रखा जाता है क्यों? अगर देश भर में मीडिया कर्मियों और बुद्धिजीवियों में हो हल्ला नहीं मचता तो 19 दिन बाद भी कैश फॉर वोट कांड को नहीं दिखाता। चर्चा में कई सवाल है। इन सवालों में अमर सिंह और अहमद पटेल के घर में किये गये स्टिंग आपरेशन को गोलमाल करना भी है।
बेशर्मी की हद भी देखिये.....................
विकीलीक्स ने खुलासा किया था कि कैश फॉर वोट कांड में मनमोहन सिंह और कांग्रेस ने सांसदों की जनमत खरीदा था। विकीलीक्स के खुलासे में ऐसी कोई नयी बात नही थी जो राजनीतिक-पत्रकारिता संवर्ग से ओझल थी। जैसे ही विकीलीक्स का खुलासा सामने आया वैसे ही आईबीएन सेवन की सनसनी शुरू हो गयी। आईबीएन सेवन पर विकीलीक्स के खुलासे का जिक्र तो हुआ पर गर्व के साथ समाचार दिखाया गया कि सबसे पहले आईबीएन सेवन ही इस कांड को दिखाया था और इसकी पोल खोली थी। गर्व और वीरता का ऐसा भाव दिखाया गया जैसा कि सही में आईबीएन सेवन कैश फॉर वोट कांड में सत्यता सामने लाया है। 19 दिनों तक क्यो छुपा कर रखा स्टिंग आपरेशन को। अमर सिंह और अहमद पटेल के घरों में किये गये स्टिंग आपरेशन का गोलमाल क्यों हुआ? यह सब कौन बतायेगा?
न्याय प्रक्रिया की जिम्मेदारी...........
मनमोहन सरकार प्रारंभ से ही इस कांड को दफन करने में लगी है। इसलिए पुलिस अमर सिंह एंड कंपनी और अहमद पटेल सहित राजदीप सरदेसाई एंड कंपनी को बचा रही है। पुलिस के माध्यम से सच का सामने आना मुश्किल है। इसलिए पुलिस जांच की निगरानी ही सर्वश्रेष्ठ प्रक्रिया होगी। अगर न्यायालय अपनी निगरानी में पुलिस को चाकचौबंद/दबाव रहित और निष्पक्ष जांच करने के लिए बाध्य करेगा तभी सभी सच्चाई की हम उम्मीद कर सकते हैं। पुलिस-न्यायालय द्वारा आईबीएन सेवन/राजदीप सरदेसाई की गर्दन क्यों नही नापी जानी चाहिए? ब्रिटेन के मशहूर अखबार ‘न्यूज ऑफ वर्ल्ड‘ के हस्र और मीडिया सुलतान रूपर्ट मर्डोंक की कानूनी घेरेबंद व उनके खिलाफ ब्रितानी समाज उपजा जनाक्रोश की कसौटी जैसा ही व्यवहार और काूननी कार्रवाई आईबीएन सेवन/राजदीप सरदेसाई एंड कंपनी के खिलाफ होना जरूरी है। आज राजीव सरदेसाई जैसा पत्रकार रातो रात चैनल मालिक कैसे हो जाता है। चैनल चलाने के लिए आया धन कही आईएसआई एजेंड गुलाम नवी फई जैसा तो नहीं है? इसकी जांच कौन करेगा? मीडिया जगत को भी अपनी छवि बचाने के लिए राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकारों पर गहणता के साथ विचार करना होगा। अगर नही ंतो फिर पत्रकारिता जगत अपने आप को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने का दावा कैसे कर सकता है?

लेखक परिचय.......................
समाजवादी और झारखंड आंदोलन सक्रिय भूमिका रही है। मूल रूप से समाजवादी चिंतक हैं। पिछले 25 सालों से हिन्दी पत्रकारिता के योद्धा हैं। ‘झारखंड जागरण‘ रांची, ‘स्टेट टाइम्स‘ जम्मू और न्यूज एजेंसी एनटीआई के संपादक रह चुके है। वर्तमान में वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार है। संपर्क नम्बर - 09968997060

Sunday, July 31, 2011

भारतीय बुद्धीजीवियों की राष्ट्रद्रोही निष्ठा


राष्ट्र-चिंतन

आईएसआई मनीगॉड है इनके लिए

भारतीय बुद्धीजीवियों की राष्ट्रद्रोही निष्ठा

विष्णुगुप्त



ग्रेट ब्रिटेन से जुड़ा एक अनोखा व प्ररेक घटना है। ब्रिटेन वासी एक सज्जन के यहां एक चोर घुस आया। चोर को पकड़ने के लिए उस सज्जन ने अनोखा रास्ता निकाला। उसने अपने देश के राष्टगान का टेप लगा दिया। राष्टगान की आवाज सुनकर चोर सम्मान में सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया फलस्वरूप वह पकड़ा गया पर उसने अपने देश के राष्टगान के प्रति प्ररेक सम्मान दर्शाया। जापानियों के संबंध में एक कहावत आम है कि जब वे अपनी धरती पर कदम रखते हैं तो वे सिर झुका कर अपनी धरती का सम्मान करते हैं। अमेरिका की मूल आबादी ‘रेड इंडियन‘ और कोलबंस की संस्कृति की आबादी कभी भी अपने देश के प्रति कोई भी उदासीनता या फिर असम्मान/ परसप्रंभुता को तुष्ट करने वाली नीति पसंद नहीं करती है। यह सही है कि मजहबी मानसिकता से ग्रसित होकर बाहर से आयी आबादी जरूर अमेरिकी राष्टवाद की प्रति अप्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष गतिविधियां चलाती हैं। ग्रेट ब्रिटन अपनी आबादी की इसी ग्रेट राष्टभक्ति के कारण दुनिया पर राज किया था और जापान द्वितीय विश्वयुद्ध में विध्वंस के बाद भी पुर्नर्निमाण से दुनिया की सर्वश्रेष्ठ आर्थिक शक्ति बना। दुनिया अमेरिका को अराजक या फिर आर्थिक लुटेरा कहता रहे पर आम अमेरिकियों को अपने देश की सामरिक शक्ति पर नाज है। उर्पयुक्त विषयक विमर्श पर जब हम अपने देश की आबादी को राष्ट भक्ति की कसौटी पर देखते है तो कहीं से भी प्ररेणादायी समर्पण का भाव वैसा नहीं है जैसा अमेरिका,ब्रिटेन और जापान के नागरिकों को अपने देश के प्रति राष्टभक्ति है। देश की आम नागरिकों पर नुक्ताचीनी नहीं करना ही बेहतर होगा पर खासकर बुद्धीजीवी संवर्ग नोट के चंद टुकड़ों के लिए परसंभुता के हित साधते हैं और देश के मान-सम्मान को परराष्टो को बेचते हैं ताकि उन्हें पेजथ्री टाइप की सुविधाएं चाहिए/विदेशी दौरे का आमंत्रण और सहायता चाहिए। इस निमित ये देश को बेचने से नहीं चुकते। नौकरााही/व्यापारी सवंर्ग पहले से ही पूरी तरह से राष्टभक्ति के मूल्यों पर पैसे/ पद को प्राथमिकता देते हैं और संरक्षण में नीतियां चलाते हैं। राजनीतिक संवर्ग भी इस कसौटी पर चाकचौबंद होने का दावा नहीं कर सकता है। अंग्रेजों की गोलियां खाकर चन्द्रोखर आजाद और फांसी पर चढ़कर सरदार भगत सिंह ने देश को आजाद कराया था। लेकिन आज की युवा पीढी और बुद्धीजीवियों का आजादी के इस सरोकार से निष्ठुर होना दुर्भाग्य ही माना जायेगा।
                  आईएसआई एजेंट गुलाम नवी फई की गिरफ्तारी से जिस तरह के राज खुले हैं उससे जयंचंदों की पूरी कहानी आम आबादी को न केवल ंिचंतित कर रही है बल्कि विचार का केन्द्रीत विषय यह हो गया है कि आखिर जयचंदों की राष्टविरोधी गतिविधियां किस प्रकार से नियंत्रित होगी और कब तक हमारे देश के तथाकथित बुद्धीजीवी और धर्मनिरपेक्ष संवर्ग नोट के चंद टूकडो के लिए आईएसआई और परसंप्रभुता के इशारों पर नाचती रहेगे? कब तक विदेशी पूंजी से देश में राष्टद्रोह जैसी प्रक्रिया चलाती रहेगी? आईएसआई एजेंड गुलाम नवी फई की गिरफ्तारी से यह राज जाहिर हुआ है कि वह भारत विरोधी जनमत बनाने के लिए अमेरिकी राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित कर रहा था।इतना ही नहीं बल्कि उसने भारतीय बुद्धीजीवियों और अन्य सवंर्ग के लोगों को पैसे की ताकत के बल पर प्रभावित कर छोडा था। गुलाम नवी फई के आमंत्रण पर अमेरिका का सैर करने वाले नामी-गिरामी हस्तियों में कुलदीप नैयर/दिलीप पडगावकर/वेद भसीन/हरजिंदर बावेजा /राजेंद्र सच्चर /गौतम नवलखा और अरूंधती राय जैसे पत्रकार और बुद्धीजीवी भी हैं। गुलाम नवी फई पर कश्मीर में पत्थरबाजों को आर्थिक सहायता देने के साथ ही साथ पत्थर बाजी की पूरी नीति बनाने और भारत को दुनिया भर में बदनाम करने का भी प्रमाणिक आरोप है। गुलाम नवी फई अमेरिका में कश्मीर के मुद्दे को हवा देने के लिए करोड़ों डालर कहां से लाकर खर्च कर रहा है और उसके पैसे से भारतीय बुद्धीजीवी किस प्रकार से देश का स्वाभिमान बेच रहे हैं? यह सबकी जानकारी भारतीय गुप्तचर एजेंसियों को कैसे नहीं होगी? आईएसआई और पाकिस्तान सरकार कश्मीर को हड़पने के लिए करोड़ो डालर हर साल खर्च करती है। सिर्फ फई ही नहीं बल्कि और कई संस्थाएं और शख्सियत हैं जो अमेरिका में बैठकर भारतीय बुद्धीजीवियों को खरीदते हैं।
                    फिर इन जयंचदों को नीति निर्धारण /जनमत निरीक्षण-परीक्षण जैसे महत्वपूर्ण दायित्वो को जिम्मेदारी कैसे दी गयी। खासकर दिलीप पडगावकर को कश्मीर समस्या के समाधान का मुख्य वार्ताकार क्यों बनाया गया। जिन लोगों की निष्ठा आईएसआई और परसंप्रभुताओं की पैरबीकार की होती है उन्हें देश के भाग्य विधाता बनाने की नीति क्यों होती है। यही कारण है कि हमारी संप्रभुता बार-बार अपमानित होती है/लहुलूहान होती है। फिर भी हमारे देश में राष्ट के प्रति जिम्मेदारी और वीरता का निर्णायक स्थितियां बनती नहीं है। कारण स्पष्ट है। जब भी आईएसआई या फिर चीन द्वारा खतरों की बात उठती है और निर्णायक नीतियां बनाने व कार्यान्वयन का समय आता है तब ऐसे ही बुद्धीजीवी किंतु-परंतु का सवाल उठाकर पानी डालने का काम करते हैं। कश्मीर में ऐसे जमात को आईएसआई और पाकिस्तान की कारस्तानियां नजर नहीं आती पर भारत को बदनाम करने का उन्हें कोई भी अवसर जाया करना स्वीकार नहीं है। गौतम नवलखा और अरूंधती राय कश्मीर को अलग करने की बात करते हैं और भारत को अपराधी के तौर पर खड़ा करने की स्वयं सेवी राजनीति चलाते हैं। क्या गौतम नवलखा और अरूधंती राय कश्मीर और पाकिस्तान जैसे मजहबी मानसिकता से ग्रसित व्यवस्था में रह सकते हैं? गौतम नवलखा और अरूंधती राय जैसों को भारत जैसी उदार व्यवस्था में ही पर संप्रभुता को साधने का खेल चल सकता है।
                   1971 में जब बांग्लादेश का निर्माण हुआ था और 90 हजार पाकिस्तानी सैनिक हमारे कब्जे में थे उसी समय कश्मीर समस्या का हल हो सकता था। कमसे कम हम अपनी सेना को मैदानी भागों तक ले जा सकते थे। पर वामपंथी बुद्धीजीवियों ने इंदिरा गांधी को गुमराह किया था और तर्क दिया गया था कि अब पाकिस्तान कभी भी भारत के खिलाफ सर नहीं उठा सकता है।चीन ने 1962 में हमला कर हमारी 90 मील भूमि कब्जाई और पांच हजार से अधिक सैनिकों को मौत का घाट उतार दिया। वामपंथी और धर्मनिरपेक्ष बुद्धीजीव वर्ग आज भी चीन को हमलावर नहीं मानता है। हमारी कब्जाई 90 हजार मील भूमि में से चीन एक इंच भी भूमि छोड़ने के लिए तैयार नहीं है बल्कि अब वह अरूणाचल प्रदेश और सिक्किम को भी हड़पना चाहता है फिर भी बुद्धीजीवियों के एक बड़े संवर्ग द्वारा चीन से चमत्कृत है और चीन से स्वहितो की कीमत पर भी संबधों की पैरबी होती है। शरीयत आतंकवाद को जस्टीफाई ठहराने के लिए सरदार भगत सिंह को भी आंतकवादी कहा जाने लगा है। धर्मनिरपेक्ष बुद्धीजीवियों द्वारा तैयार किये गये स्कूली पाठ्यक्र्रमों में सरदार भगत सिंह को आतंकवादी करार दिया गया है।
                   देश के अंदर में विदेशी पूंजी से जनमत प्रभावित करने और राष्टवाद की जगह पर संप्रभुता का गुनागान करने की राजनीतिक-सामाजिक प्रक्रिया चलती है। स्वयं सेवी संस्थाओं के माध्यम से हमारी संप्रभुता की विरोधी शक्तियां अपना खेल खेलती रहती हैं और हमारी एकता-अखंडता को भी इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। आज देश में जितने भी बड़ी शख्सियत हैं उनका कोई न कोई पॉकेट स्वयं सेवी संस्था है जिनके माध्यम से उनका विदेशी भ्रमण और पेज थ्री सुविधाएं उठाते हैं। इस तरह के बुद्धीजीवियों को न तो कोई उद्योग धंधें होते है और न ही बड़ी नौकरियां होती है उनके पास। सिर्फ एनजीओ से उनका धंधा चलता रहता है और महीने में दस-बीस दिन विदेश में गुजारते हैं। एनजीओ को नियंत्रित किये बिना राष्टद्रोही अभिव्यक्ति को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। एनजीओ को मिलने वाले विदेशी धन पर चाकचौबंद निगरानी जरूरी क्यों नहीं है?
              जयचंद की संस्कृति ने भारत को गुलाम बनाया था। जयंचदी संस्कृति के कारण ही आज भारत का स्वाभिमान कुचला जाता है। गुलाम नवी फई के इसारे पर नाचने वाले बुद्धीजीवी अब नायाब तर्क दे रहे हैं। इनका कहना यह है कि फई से संबंधित जानकारी उन्हें नहीं थी। फिर उनके पैसों पर अमेरिका गये क्यों? ऐसे जयंचदों पर जनता की धृणा और क्रोधता का डंडा चलना जरूरी है तभी इनके राष्टद्रोह जैसी प्रक्रिया बंद हो सकती है।

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Saturday, July 16, 2011

माधुरी गुप्ता-निरूपमा राव जैसी कूटनीतिक -गुप्तचर व्यवस्था आईएसआई के हाथों खेलती है

राष्ट्र-चिंतन
मुबंई सीरियल बम विस्फोट
         

7/11,  26/11 के बाद अब 13/7 फिर..........  ?
 
माधुरी गुप्ता-निरूपमा राव जैसी कूटनीतिक -गुप्तचर व्यवस्था आईएसआई के हाथों खेलती है


 विष्णुगुप्त

निर्दोष जिंदगियां एक पर एक आतंकवादी राजनीति की रक्तरंजित शिकार होती हैं और नारा-उद्बोधन यह दिया जाता है कि आतंकवाद हमारे जज्बे को हरा नहीं सकता है। यह कथित जज्बा का नारा /उद्बोधन किसके पक्ष में दिया जाता है? क्या आतंकवादी राजनीति की रक्तंरंजित शिकार हुई निर्दोष जिंदगियां या उनके परिजनों के पक्ष में जज्बे की परिक्लना गढी जाती है। वास्तव में कथित जब्जे का नारा-उद्बोधन की बात करने वाले तथाकथित बुद्धीजीवी सत्ता संस्थान की विफलता को ढकने और आतंकवादियों के ही होसले बढ़ाते हैं। एक तो जनाक्रोश पर पानी डाला जाता है /दूसरे में पुलिस-सुरक्षा गुप्तचर एजेंसियों की नाकामी और आतंकवाद को दफन करने के रास्ते में सत्ता-कूटनीतिक विफलता को भी ढक दिया जाता है। 26/11 के आतंकवादी हमले में चूंकि सभ्रांत लोगों के साथ ही साथ विदेशी नागरिक भी मारे गये थे,इसलिए पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के खिलाफ दुनिया में थोड़ी उंची आवाज उठी थी। अब मुबंई में एक और सीरियल बम विस्फोट की वीभत्स घटना हो गयी है। इस सीरियल बम विस्फोट की वारदात को 13/7 के नाम से जाना जायेगा। 2006 में 7/11 में मुबंई के लोकल रेल गाड़ियों को आतंकवादियों ने निशाना बनाया था।दर्जनों निर्दोष जिंदगिया आतंकवाद की रक्तरंजित राजनीति की शिकार हुई है।
 सीरियल बम विस्फोट में पाक आतंकवादी संगठन लश्कर का हाथ हो या फिर इंडियन मुजाहिदीन सहित अन्य आतंकवादी संगठनों का, सभी का मास्टर मांइड आईएसआई है और नीति पूरी दुनिया में इस्लाम का शरीयत लागू करना है।जाहिरतौर पर ही नहीं बल्कि निर्णायक तौर  आईएसआई की भूमिका होगी। देश के अंदर जितने भी रक्तरंजित हिंसा में सक्रिय आतंकवादी संगठन है सभी के तार आईएसआई से जुड़े हुए है। काफी पहले से यह आशंका जतायी जा रही थी कि पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन भारत में खूनी आतंकवादी घटना को अंजाम देने की प्रक्रिया में है। फिर भी देश की गुप्तचर एजेंसिंया आंतकवादी घटना को रोकपाने में विफल हुई है। यह विचार किया जाना चाहिए कि जब हमारी सुरक्षा गुप्तचर एजेंसियां की विफलता पर कानून का सौंटा क्यों नहीं चले। उनकी जिम्मेदारी क्यों नहीं चाकचौबंद होनी चाहिए? आखिर मनमोहन सरकार की आतंकवादियों के सामने समर्पन की नीति की कीमत निर्दोष जिंदगियां कब तक चुकायेंगी?
गृहमंत्री पी चिदम्बरम का मतंव्य है कि पाकिस्तान-अफगानिस्तान आतंकवाद की नर्सरी है। गृहमंत्री का पाकिस्तान और अफगानिस्तान का नाम लेने का सीधा यर्थाथ इस सीरियल बम बलास्ट के सूत्र पाकिस्तान से जुड़ा होना है। अगर पाकिस्तान आतंकवादी की नर्सरी है तो फिर भारतीय कूटनीति संवर्ग पाकिस्तान पर नरम रूख क्यों अख्तियार करता है। पाकिस्तान को बच निकलने का अवसर क्यों दिया जाता है। अंतर्राष्टीय नियामकों में इस प्रश्न को क्यों नहीं ले जाया जाता है।
 विदेश सचिव निरूपमा राव का अब 13/7 पर कौन सा जवाब होगा/कौन सी नीति होगी? निरूपमा राव ने हाल ही मे कहा था कि पाकिस्तान बदल रहा है। पाकिस्तान बदल रहा की निरूपमा राव की थ्योरी क्या थी? निरूपमा राव की इस थ्योरी का यथार्थ था कि पाकिस्तान आतंकवादियों को संरक्षण देना बंद कर दिया है। अभी हाल ही में निरूपमा राव द्विपक्षीय वार्ता करने के लिए पाकिस्तान गयी थी। द्विपक्षीय वार्ता कर लौटने पर निरूपमा राव बहुत ही चमत्कृत थी और उन्हें वीरता का भान था कि पाकिस्तानी कूटनीतिक-प्रशासनिक तंत्र के विचारों को उन्होंने बदल कर रख दिया है। पाकिस्तान समर्थक बुद्धीजीवियों और लेखकों ने निरूपमा राव के पाकिस्तान दौरे का समा भी इस तरह बांधा था कि अब भारत में आतंकवादी घटनाएं घट ही नहीं सकती है और कश्मीर समस्या का समाधान भी तय जैसा है। अब मुबंई के 13/7 की सीरियल बम हमले को निरूपमा राव के गाल पर आतंकवादियों का तमाचा क्यों नहीं माना चाहिए। निरूपमा राव-माधुरी गुप्ता जैसी कूटनीतिक प्रक्रिया से कभी भी आतंकवाद जैसी वीभत्स राजनीति पर विजय प्राप्त नहीं किया जा सकता है। मनमोहन सरकार का कूटनीतिक संवर्ग की न तो कोई दिशा है और न ही उनके विचारों में कोई दृढंता है। कूटनीतिक संवर्ग में अगर दृढता होती तो पाकिस्तान लगातार आतंकवादियों का संरक्षण और सहयोग नहीं देता रहता। 26/11 के साजिशकर्ताओं के नाम उजागर होने के बाद भी पाकिस्तान ने कौन सी ईमानदारी दिखायी है? माफिया डॉन दाउद इब्राहिम को कौन सरंक्षण दे रहा है? क्या यह सब हमारी कूटनीतिक संवर्ग को नहीं मालूम है।
        दुर्भाग्य यह है कि सुरक्षा गुप्तचर एजेंसियों की विफलता पर पर्दा डालने खेल शुरू हो गया है। पी चिदम्बरम ने सुरक्षा गुप्तचर एजेंसियों की विफलता मानने से इनकार कर दिया है।फिर विफलता किसकी है? इस लीपापोती के लिए गृहमंत्री पी चिदम्बरम को क्यों नहीं कठघरे में खड़ा करना चाहिए? क्या मुबंई सीरियल बम विस्फोट पी चिदम्बरम की विफलता नहीं है। दिल्ली की रामलीला मैदान पर निर्दोष लोगो पर लाठियां चलवाने की वीरता दिखाने वाले पी चिदम्बरम की सुरक्षा गुप्तचर एजेंसियां आखिर क्या कर रही थी। सुरक्षा गुप्तचर एजेंसियों को आतंकवादियों की इस वीभत्स राजनीति की भनक आखिर लगी क्यों नहीं? सीरियल बम विस्फोट की वारदात के पहले ही आतंकवादियों को क्यों नहीं पकड़ा गया? पी चिदम्बरम और गुप्तचर एजेंसियां फिर झूठ पर झूठ का सहारा लेंगी। वैसी स्थिति में भी जब आशंका जाहिर किया जा रहा था कि आतंकवादी संगठनों के दहश्तगर्द हिंसा फैलाने की साजिश रच रहे हैं। इस तरह की खबरें मीडिया में बार-बार आ रही थी। क्या हमारी गुप्तचर एजेसियो में माधुरी गुप्ता जैसी आईएसआई की घुसपैठ है। माधुरी गुप्ता कैसे आईएसआई के हाथों में खेल रही थी, यह भी जगजाहिर है।
सही तो यह है कि हमारी गुप्तचर एजेंसियां अराजक और अनियंत्रित  हैं। गैर जिम्मेदार भी है। पाकिस्तान को डोजियर देने के प्रसंग को ही ले लीजिये। किस तरह देश की जगहसाई करायी थी हमारी गुप्तचर एजेंसियों ने। देश के जेलों में बंद आतंकवादियों को पाकिस्तान में होने की सूची थमाई गयी। पाकिस्तान ने उस डोजियर को खारजि ही नहीं किया बल्कि उपहास भी उड़ाया था। डोजियर प्रसंग में बड़े और निर्णायक जिम्मेदारी निभाने वाले अधिकारी की गर्दन नपनी चाहिए थी पर एक छोटे से सब इसंपेक्टर को निलंबित कर प्रसंग को लीपापोती का शिकार बना दिया गया। ऐसे में निर्णायक पदों पर बैठे अधिकारियों में जिम्मेदारी का अहसार होगा तो कैसे? 26/11 कांड में महाराष्ट के तत्कालीन मुख्यमंत्री और गृहमंत्री की कुर्सी गयी थी पर किसी सुरक्षा अधिकारी की गर्दन नपी थी क्या? बिना लड़े मारे गये महाराष्ट के एसटीएस के अधिकारियों को अशोक चक्र जैसा सम्मान मिला क्यों?
 आतंकवाद पर ब्रिटेन सहित पूरे यूरोप के निष्कर्ष पर हमें गौर करने की जरूरत है। खासकर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कैमरन की थ्योरी। कामरान कई अंतर्राष्टीय मंचों पर विचार रख चुके हैं कि इस्लाम की दकियानुसी और रक्तरंजित विचार के कारण बहुलतावाद और उदारतावाद का प्रयोग विफल साबित हो गया है।ब्रिटेन के प्रधानमंत्री का यह निष्कर्ष काफी ठोस है। इसलिए कि अपनी उदारता-बहुलतावाद की सोच के कारण ब्रिटेन ने पूरी दुनिया के इस्लामिक धर्मावलम्यिों को अपने यहां शरण दी। अब इस्लामिक आबादी ब्रिटेन और यूरोप में अपने लिए रक्तरंजित शरीयत मांगती है। लोकतांत्रिक पद्धति के कारण इस्लामिक आबादी सत्ता-राजनीति को भी नियंत्रित करने लगी है। पाकिस्तान में ओसामा बिन लादेन जब अमेरिका ने मार गिराया था तब पाकिस्तान की इस्लामिक आबादी ने कैसी विरोध की प्रक्रिया चलायी थी और ओसामा बिन लादेन को कैसे इस्लाम के लिए लड़ने वाला लड़ाकू कहा गया था? ब्रिटेन में भी ओसामा बिन लादेन के पक्ष में प्रदर्शन हुए। भारत में कयमीर/हैदराबाद/कोलकाता जैसे शहरों में ओसामा बिन लादेन के मारे जाने पर न केवल शोक मनाया गया था बल्कि शहीद भी बताया गया था। वोट की राजनीति और सत्ता के स्थायीकरण के लिए रक्तरंजित शरीयत समर्थक संवर्ग की मानसिकता का संरक्षण होता है और सवर्द्धन भी। जर्मन बेकरी कांड में पकड़े गये आतंकवादियों और देश के अंदर में हुए अन्य आतंकवादी घटनाओं में शामिल आबादी पर उदासीनता की रणनीति चलती है। बाटला हाउस कांड पर किस प्रकार संरक्षण की राजनीति खेल हुआ था यह भी जगजाहिर ही है।दिग्विजय ंिसंह ने किस प्रकार से आतंकवादियों को संरक्षण देने और पुलिस सवंर्ग के हौसले पस्त करने की राजनीति चली थी यह भी मालूम होनी चाहिए।
 पाकिस्तान/आतंकवाद की राजनीति के खिलाफ उदारनीति ही वह कारण है जिसमें हम आतंकवाद के आसान शिकार है। अमेरिका में वर्ल्ड टरेड सेंटर पर हुए आतंकवादी हमले के बाद और कोई हमला नहीं हुआ? इसलिए कि अमेरिका ने अपनी गुप्तचर एजेंसियों का चाकबौबंद बनाया। आतंकवादियों के मांदों में जाकर कार्रवाई की। ब्रिटेन ने भी अमेरिका की रणनीत अपनाकर अपनी सुरक्षा चाकचौबंद बनायी। लेकिन हम एक भी कड़ा कानून तक नहीं बना सके। जब हम आतंकवाद-पाकिस्तान के खिलाफ बोलते थे तब पूरी दुनिया हंसती थी और भारत की खिल्ली उड़ाती थी। ओसामा बिन लादेन के पाकिस्तान में मारे जाने के बाद पाकिस्तान के खिलाफ पूरी दुनिया बोल रही है और हमारी कूटनीति की थ्योरी है कि पाकिस्तान बदल रहा है। यह समय पाकिस्तान और आतंकवाद की गर्दन मरोड़ने का है। लचर कूटनीति और मनमोहन सत्ता की कमजोर दृष्टि से मुबंई की 13/7 की आतंकवादी घटना जैसी देश में आगे भी आतंकवादी घटना घटेगी और इसी प्रकार हमारी आबादी-निर्दोष जिंदगिया आतंकवाद की खूनी राजनीति का शिकार होगी।

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विष्णुगुप्त

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Thursday, June 16, 2011

पत्रकार हैं या कांग्रेसी गुंडे


 
पत्रकार हैं या कांग्रेसी गुंडे
 
विष्णुगुप्त
         
पत्रकार हैं या कांग्रेसी रखैल गुंडे ? पत्रकार है या फिर अपराधी ? पत्रकार हैं या फिर दलाल ? पत्रकार हैं या फिर पैरोकार हैं ? कोई भी पत्रकार क्या कानून को अपने हाथ में ले सकता है और वह भी एक अपराधी के रूप में? अगर पत्रकार अपराधी की तरह कानून को अपने हाथ में लेकर मानवाधिकार हनन जैसा खेल खेलने लगे और वह भी सत्ता धारी कांग्रेस पार्टी को खुश करने के लिए तो ऐसे पत्रकारों को क्या क्या कहा जाना चाहिए? कोई एक-दो पत्रकारों ने अपनी अपराधी प्रवृति दिखायी होती तो शायद इतना बड़ा सवाल न उठता। एक दो नहीं बल्कि दर्जनों पत्रकारों ने एक साथ मिलकर क्रूरता की हदें लांधी/मानवाधिकार का गला घोटा/भारतीय दंड संहिता कानून का मखौल भी उड़या। एक ओर पत्रकार कांग्रेसी गुंडे के रूप में अपनी गुंडई दिखा रहे थे तो दूसरी ओर कांग्रेसी खड़े होकर मंद-मंद मुसकुरा रहे थे। कांग्रेसी मुसकारते क्यों नहीं आखिर वे जो करना चाहते थे उनके दलाल और रखैल पत्रकार कर रहे थे। एक-दो मिनट नहीं बल्कि आधे घंटे तक पत्रकारों द्वारा अपनी गुडई दिखायी गयी और मानवाधिकार को शर्मसार करने वाली आपराधिक क्रूरता को अंजाम देने मे प्रतियोगिता सरीखा खेल-खेला गया। सीने पर चढ़कर जूतों से शरीर को रौंदा गया। पत्रकारों का यह आपराधिक कुकृत्य तबतक चलता रहा जब तक कथित रूप से रामदेव बाबा और विश्व हिन्दू परिषद के शिष्य और कांग्रेस के महासचिव जनार्दन द्विवेद्वी को जूता दिखानेे वाला सुनील कुमार   बेहोश नहीं हो गया। सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के कार्यालय में धटी उक्त लोमहर्षक और मानवाधिकार हनन वाले कुकृत्य ने कई सवाल खड़े किये हैं। इन सवालों में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पत्रकारिता को दलाल/गुंडे/अपराधी/पैरोकार/प्रोपर्टी डीलर सरीखा पत्रकारों से कैसे बचाया जाया। स्वच्छ-ईमानदार पत्रकारिता को गति कैसे दी जाये। साधारण वेतन पाने वाले पत्रकार चैनलों और अखबार के मालिक कैसे बन रहे है? किस मानसिकता की पूर्ति के लिए गुंडे/दलाल/ अपराधी /प्रोपर्टी डीलरों की प्रवृति वालों को पत्रकार बनाया जाता है?
संडे गार्डियन में प्रकाशित एक रिपोर्ट में साफ तौर पर खुलासा हुआ है कि गुंडई दिखाने वाले पत्रकारों को प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर कांग्रेस के बड़े नेताओं ने शाबाशी दी है। बिलाल नामक एक पत्रकार का चश्मा पिटाई करने के दौरान टूट गया था। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने नया चश्मा खरीदकर बिलाल के घर भेजा। अहमद पटेल ने भी बिलाल की कांग्रेसी स्वामिभक्ति की तारीफ करने के लिए बिलाल को टेलीफोन किया।  जूता दिखाने वाले सुनील कुमार की पिटाई करने में बिलाल काफी आक्रमक था।
         अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  के लिए इससे बूरी खबर और क्या हो सकती है कि राजनीतिक दलों के पैरोकार पत्रकारिता का चोला ओढ विभिन्न मीडिया हाउसों में बैठ गये हैं। ऐसे लोग पत्रकारिता को घुन की तरह चाट गये हैं। ये विभिन्न दलों के संरक्षक के तौर पर लेखनी चलाते हैं/पत्रकारिता चलाते हैं। अब ये लात/घूसे/जूते /चप्पल तक चलाने पर उतारू हैं। कल लाठी-गोली चलायेंगे। जरूरत पड़ी तो बम-टैंक लेकर भी दौड़ेंगे। ऐसे लोगों की फौज तैयार हो चुकी है। अब मर्सीनरी की तरह ये काम करने के लिए तैयार हैं। ऐसे में बदनाम पत्रकारिता होगी और घायल होगा लोकतंत्र।
कौन-कौन पत्रकार थे जिन्होंने जनार्दन द्विवेदी को जूता दिखाने वाले शख्स सुनील कुमार के सीने पर चढकर बूटों से रौंदा था। ऐसे अधिकतर पत्रकार उन चैनलों /अखबारों से थे जिनके मालिकों-सीनियरों का इतिहास पत्रकारिता की आड में दलाली करने का रहा है और जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर पत्रकारिता का गला घोटकर पत्रकार से चैनल/अखबार मालिक बन बैठे हैं। पत्रकारों ने कांग्रेस के रखैल गुंडे की भूमिका को जायज ठहराने और भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं से बचने के लिए नायाब तर्क खोज लिया। कांग्रेस के कार्यालय में बड़े चैनलों और अखबार के रिपोर्टरों ने यह धारणा बैठाने की विसात विछायी कि पत्रकारिता की छवि को बचाने के लिए उस सुनील की पिटाई जरूरी थी जो जनार्दन द्विवेदी पर जूता चलाने की कोशिश की थी।उसके इस कदम से पत्रकारों की न केवल छवि खराब हुई है बल्कि उसकी विश्वसनीयता पर आंच आयी है। ऐसी बात करने वाले और तर्क देने वालों में ऐसे पत्रकार भी थे जिनके मालिक और सीनियर दूरदर्शन के टेपों को बेच-बेच कर और दलाली कर-कर चैनल चलाने के लिए सैकड़ों-हजारों करोड़ का काला धन जुटाया और जिसकी बदौलत उनके चैनल चल रहे हैं/अखबार/मैगजीनें निकल रही हैं। टू जी स्पेक्टरम घोटाले में शामिल चैनलों के सीनियरों के मातहत भी जूता दिखाने वाले शख्त पर गुस्सा उतारे थे और लात-जूते से पिटायी की थी। ऐसे अखबारों और चैनलों के पत्रकारों को तब गुस्सा क्यों नहीं आया जब दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरे देश में एक मैसेज घूम-घूम कर पूरी पत्रकार विरादरी को दागदार और दलाल घोषित कर रहा था और वह भी मुन्नी बदनाम हुई के तर्ज पर। उस मैसेज का बोल था ‘ पत्रकारिता बदनाम हुई बरखा दत्त ‘ तेरे लिए / वीर संघवी और प्रभु चावला तेरे लिए लिए। टू जी स्पेक्टरम घोटाले में नीरा राडिया ने जिस तरह बरखा दत्त/प्रभु चावला और वीर संघवी को खरीदा और कुछ पैसों के लिए दलाली जैसी पत्रकारिता विरोधी कार्य्र किये उसे स्वच्छ पत्रकारिता व ईमानदार पत्रकारों की छवि खराब हुई है और अब तो ईमानदार पत्रकारों को पत्रकार कहने पर भी शर्म आती है। इसलिए कि आज जिस तरह से नीरा राडिया ने पत्रकारों को अपनी उंगलियों की काली करतूत पर नचाया और पत्रकार रातो रात मालिक बन रहे हैं उससे ईमानदार पत्रकारों की ईमानदारी व उनके लोकतांत्रिक मिशन को ही ठेस पहुंचा है। जुत्ता दिखाने वाले पत्रकारों पर गुंडई दिखाने वाले पत्रकारों की गुंडई बरखा दत्तों/वीर सांघवियों और प्रभु चावलाओं पर क्यों नहीं उतरती? बरखा दत्तों/वीर सांघवियों और प्रभु चावला जैसे पत्रकारिता के बदनाम करने वाले नामों के खिलाफ पत्रकारों की गुंडई क्यों नहीं चलती/उनकी मर्दानगी क्यों नहीं जागती?
 सिर्फ पत्रकारिता के मूल्य/ सिद्धातों या फिर मानवाधिकार हनन जैसी बात ही नहीं है। पत्रकारों की यह करतूत इसे कहीं अधिक लोमहर्षक है/विषैला/ वीभत्स है। यह भारतीय दंड संहिता के तहत प्रमाणित तौर दंडनीय अपराध है। भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत कानून को अपने हाथ में लेना वर्जित है। क्या पत्रकारों को यह नहीं मालूम है कि अमानवीयता और क्रूरता के साथ किसी की पिटाई करना एक आपराधिक कुकृत्य है जिसकी सजा कठिन कारावास तक है। भारतीय दंड संहिता के अनुसार अपराधी की भी पिटाई नहीं की जा सकती है। अपराधी को सजा देने का हक सिर्फ न्यायपालिका को है। सुप्रीम कोर्ट ने भी बार-बार इस प्रसंग पर हिदायतें दी है और कानून को अपने हाथ में लेने वालों को सजा देकर सबक भी सिखाया है। अब सवाल यहां यह उठता है कि जूता दिखाने वाले शख्स की क्रूरता के साथ पिटाई करने वाले पत्रकारों को अपराधी क्यों नहीं माना जाना चाहिए? उनकी जगह जेल क्यों नहीं होनी चाहिए? यहां जूता दिखाने वाले शर्मा का पक्ष लेने का सवाल नहीं है। सुनील कुमार ने जूता मारा नहीं था। सिर्फ दिखाया था। डराना भी दंड प्रक्रिया में शामिल है। इसलिए सुनील कुमार पर कार्रवाई करने की जिम्मेदारी पुलिस पर थी। पुलिस ने उसके इस कार्रवाई पर उसे जेल में पहुंचाया भी है।
           जूते/लात/हाथ से मारने के कूरता की प्रतियोगिता में लगे पत्रकारों की कौन सी मानसिकता काम कर रही थी? इनका लक्ष्य कहां था? इन पत्रकारों का लक्ष्य या मानसिकता पत्रकारिता की स्वच्छता कदापि नहीं थी। इनका एक मात्र लक्ष्य सत्ताधारी पार्टी की स्वामिभक्ति की प्रतियोगिता जीतनी थी। एक मात्र वजह यही था जिसके लिए पत्रकार संबंधित शख्त की क्रूर पिटाई में लगे हुए थे। पिटाई करने वाले पत्रकार कांग्रेस के नजरों में रातोरात स्टार बन गये होंगे और उनकी दलाली कांग्रेसी सत्ता में बढेगी। आखिर कांग्रेस क्यों नहीं पत्रकारों को पुरस्कार देगी? आखिर कांग्रेस जो काम करना चाहती थी वह काम उनके रखैल/दलाल पत्रकारों ने पूरा कर दिया। कांग्रेस का दामन भी गंदा नहीं हुआ। यही कारण है कि जब पत्रकार कूरता के साथ पिटाई कर रहे थे उस समय कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मनीष तिवारी/जनार्दन द्विवेदी मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी सुनील कुमार को तीन लातें मारी थी। अखबारों और चैनलों में दिग्विजय सिंह की लात मारने की खबरों का सेंसर हुआ क्यों? इसका उत्तर कौन देगा?
        अगर ऐसी क्रूरता यूरोप और अमेरिका में हुई होती तो निश्चित मानिये कि पत्रकार जेल में पहुंच चुके होते और दिग्विजय सिंह की भी जगह जेल होती। पुलिस और न्यायपालिका स्वयं संज्ञान ले लेती। सत्ता की भी चुलें हिल जाती। पुलिस/मानवाधिकार आयोग औेर न्यायपालिका का सत्ताधारी कांग्रेस कार्यालय में घटी क्रूरता पर संज्ञान न लेना दुर्भायपूर्ण है। पुलिस से उम्मीद बेकार है। मानवाधिकार आयोग तो स्वायत्तशासी संवैधानिक निकाय है जिसे संज्ञान लेकर क्रूरता की जांच करनी चाहिए थी। कांग्रेस ने इसीलिए संवैधानिक संस्थाओं में चाटूकारों और जमीरविहीन लोगों को बैठाने का काम किया है। मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष बाला कृष्णण ने खुद कांग्रेसी कृपा पर रबडी पायी है और उन्हें आय से अधिक धन पर कांग्रेसी सत्ता का साथ चाहिए। ऐसी स्थिति में मानवाधिकार आयोग से उम्मीद बचती भी नहीं है। न्यायपालिका से देर-सबेर न्याय की उम्मीद बचती है।
   पत्रकार संगठनों और पत्रकारों की अन्य निकायों और नियामकों की चुप्पी व उदासीनता भी दुर्भाग्यपूर्ण है।पत्रकारिता की स्वच्छता के लिए गुडे/रखैल/दलाल/पैरोकार/प्रोपटी डीलर सरीखे पत्रकारों की बाढ़ पर गंभीरता से विचार जरूरी है।
लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं और हिन्दी अखबारों में संपादक रह चुके हैं।

बॉक्स
जूता दिखाने वाला शख्स की पिटाई करने वाले गुंडे/दलाल/रखैल/पैरोकार सरीखे पत्रकारों की मर्दानगी तब कहां चली जाती है जब नीरा राडिया बरखा दत्तो/वीर सांघवियों/प्रभु चावलाओ को अपनी उंगलियों पर नचाती है और चंद पैसों के लिए ये राजा को मंत्री बनवाने मे पैरोकार बनकर पत्रकारिता को कंलकित करते हैं। कैसे रूकेगी गुंडे/दलाल/रखैल/पैरोकार प्रवृति के पत्रकारों की बाढ।
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Wednesday, May 11, 2011

लादेन के अंत पर राजनीतिक मातम क्यों ?

राष्ट्र-चिंतन
लादेन बनेगा नहीं बन गया ‘ मिशन मुस्लिम वोट बैंक‘ का मोहरा
लादेन के अंत पर राजनीतिक मातम क्यों ?
विष्णुगुप्त
 ओसामा बिन लादेन का अंत क्या हुआ, तथाकथित भारतीय धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियों को एक ऐसा मुद्दा मिल गया जो मुस्लिम संवर्ग को रिझाने और अपनी ओर खींचने का काम करेगा? लादेन के अंत से पहले खासकर ने कांग्रेस की ओर से बटला मुठभेंड कांड और मुबंई पर पाकिस्तानी हमले को लेकर दिग्विजय सिंह को मुस्लिम संवर्ग की भावनाएं पोषित करने के लिए अप्रत्यक्षतौर पर प्रक्षेपित  किया गया था। दिग्विजय सिंह ने बटला हाउस कांड पर आजमगढ जाकर कैसी आतंकवाद की धार गर्म की थी? यह भी जगजाहिर है। मुंबई मे आईएसआई के हमले में महाराष्ट एसटीएस चीफ हेमंत करकरे की मौत को हिन्दू आतंकवाद से जोड़ने का निष्कर्ष भी तो मुस्लिम जनाधार के हितकारी था। अब दिग्विजय सिंह ओसामा बिन लादेन के अंत पर आंसु बहा रहे हैं और अमेरिका को कठधरे मे खड़ा कर रहे हैं। जबकि उदार मुस्लिम तबका इस तरह के राजनीतिक प्रक्रिया को मुस्लिम हित के खिलाफ ही मानते हैं।
         पिछले बिहार विधान सभा चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी के नेता ओसामा बिन लादेन से मिलते-जुलते चेहरे वाले मुस्लिम समुदाय के ‘खालिक नुर‘ को राजनीतिक सहचर बनाया था। यथार्थ सीधेतौर ओसामा बिन लादेन की मिलती-जुलती शख्सियत के सहारे मुस्लिम वोट अपनी ओर करने का था।  ओसामा बिन लादेन के डुब्लीकेट को देखने की भीड़ जुटती बहुत थी। अब लादेन के खेल का अंत हो गया है। अमेरिका ने उसे अपने सैनिक अभियान का शिकार बना दिया। पाकिस्तान में इस्लामिक संस्थाओं ने लादेन  को श्रद्धांजलि ही नहीं दी बल्कि इस्लाम का सेनानी भी बताया। इस्लामिक सोशल साइडों पर भी ओसामा बिन लादेन को इस्लाम की सेनानी बताने और उसे शहीद घोषित करने की मुहिम तेजी के साथ चली है। पाकिस्तान सहित अन्य इस्लामिक देशों और इस्लामिक संस्थाओं/सोशल साइटों की लादेन प्रेम तो समझ आता है पर भारत में खास प्रकार के राष्टीय और क्षेत्रीय दलों का लादेन प्रेम कई प्रकार के सवाल खड़े करते हैं।
    हम जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहते हैं वह लोकतांत्रिक व्यवस्था गैरधार्मिक है/गैर मजहबी है। फिर भी धर्म/मजहब के सहारे जनादेश को प्रभावित करने की कोशिशें हमेशा चलती रहती है। देश पर जिस कांग्रेस पार्टी की सता वह अपने पुराने जनाधार को फिर से थाथी बनाने के लिए कई प्रकार की नीतियां और हथकंडे अपनायी है। दिग्विजय सिंह इन्हीं कांग्रेसी हथकंडे का मोहरा है जो लादेन के मारे जाने पर सवाल खड़ा करते हैं बल्कि इसे इस्लामिक मूल्यो का हनन कहकर अमेरिका की आलोचना की हदें भी पार करते हैं। ओसामा बिन लादेन उन्हें इस्लामिक मूल्यों वाला ही क्यों दिखता है? उन्हे आतंकवादी और शांति के दुश्मन के प्रतीक ओसामा बिन लादेन क्यों नहीं दिखता है? जनसांिख्याकी विविधता एक ऐसी कड़ी है जो तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों को इस्लामिक मूल्यों के प्रति अतिरिक्त और खतरनाक आग्रही होने के लिए प्रेरित करता है। ऐसे अतिरिक्त और खतरनाक आग्रही होने के दुष्परिणामों पर कभी भी चिंता तक नही होती है। दुष्परिणामों में देश के अंदर में खतरनाक ढंग से बलवाकारी विचारों का संप्रेषण हुआ है और राष्टीयता की जगह मजहबी रूढ़ियां और आक्रमकता बढ़ी है?
 दिग्विजय सिंह या फिर अन्य तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों का ओसामा बिन लादेन के प्रति खतरनाक आग्रही होने का कोई खास तत्कालीन स्वार्थ या नीति हो सकती है? ओसामा बिन लादेन को लेकर दिग्विजय सिंह और अन्य के समर्थनकारी बयानों-विचारों को क्या उपेक्षित कर देना ठीक होगा या फिर इस पर गंभीरता के साथ विचार किया जाना चाहिए और इसके राजनीतिक यथार्थ के तह में जाकर स्वार्थो की पड़ताल करने की जरूरत है। वास्तव में राजनीति में बयानों और प्रत्येक क्रियाओं का अपना एक निश्चित नीति होती है। इसीलिए चाहे दिग्विजय सिंह के लादेन के प्रति आग्रही सरोकार हो या फिर माकपा जैसी कम्युनिस्ट पार्टियों का लादेन के लिए अमेरिका को जिम्मेदार ठहराने की कुचेष्टा सभी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों मे गिरते नजर आते हैं।
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों को ध्यान में हमें रखना होगा। उतर प्रदेश विधान सभा चुनाव नजदीक है। सभी का ध्यान मुस्लिम वोट बैंक पर टिका हुआ है। राजनीतिक विश्लेषण में यह बात बार-बार बैठायी जा रही है कि उत्तर प्रदेश में मुस्लिम जिस ओर रूख करेंगे उसी की सत्ता बनेगी। कांग्रेस ने सच्चर कमेटी का लाभ पिछले लोकसभा चुनाव में उठा चुकी है। रामजन्म भूमि प्रकरण पर कांग्रेस का मुस्लिम वोट बैंक खाली हो चुका था। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में मुस्लिम संवर्ग को अपने पक्ष में करने की सफलता पायी थी और आश्चर्यजनक ढंग से सीटें जीती थी। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का खास ध्यान है। मुस्लिम समुदाय को रिझाने की अप्रत्यक्ष जिम्मेदारी दिग्विजय सिंह के पास है। अगर ऐसा नहीं होता तो अपनी ही सरकार की पुलिस द्वारा बटला हाउस कांड पर सवाल नहीं उठाते और आतंकवादियों के परिजनों से मिलने आजमगढ़ नहीं जाते। बटला हाउस कांड की विभिन्न एजेंसियों की जांच और न्यायिक जांच में पुलिस को क्लीन चिट दे दिया गया है फिर भी दिग्विजय सिंह बटला कांड पर सवाल उठाते रहे हैं। मुबंई हमले पर भी सवाल उठाकर पाकिस्तान को लाभार्थी बनाने की कोशिश करते हैं। कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह के बयान को यद्यपि खारिज कर दिया फिर भी कांग्रेस का मिशन यूपी और मिश्न मुस्लिम वोट बैंक की अप्रत्यक्ष नीतियां किसी भी परिस्थिति में जगजाहिर होने से बच नहीं पायेंगी?
राजनीतिक संवर्ग का तुष्टिकरण की नीति और आतंकवाद जैसी खतरनाक प्रवृति के समर्थन में खड़ा होने से मजहब आधारित संस्थाओं और शख्सियतों की शांति के खिलाफ मानसिकताएं पोषित होती हैं। कश्मीर में हुर्रियत जैसी राष्टविरोधी मजहबी संस्था के अध्यक्ष सैयद अली शाह गिलानी ने जब ओसामा बिन लादेन को आतंकवादी की जगह इस्लामिक सेनानी घोषित करता है और उसकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करता है तब कोई आवाज नहीं उठती है। हुरियत अली शाह गिलानी अकेले ऐसे मजहबी शख्सियत नहीं है जो आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को इस्लाम का सेनानी मानता हो। दुर्भाग्य यह है कि आज देश के अंदर में मजहबी रूढ़ियों और आतंकवादी विचारो के दफन करने की कोई राजनीतिक नीतियां नहीं हैं। आतंकवादियों को संरक्षण देने और उनके राष्टतोड़क बयानों और कृत्यों तक पर्दा डाला जाता है। अफजल गुरू और कसाब जैसे कई आतंकवादी आज हमारे जेलों में मेहमान की तरह एसोआराम से रह रहे हैं। उन्हें ‘चिकन बिरयाणी‘ खिलाया जा रहा है। इन्हें फांसी देने पर मुस्लिम संवर्ग का उफान और क्रोध का डर सताता है। बांग्लादेश ही नहीं बल्कि मिश्र जैसे मुस्लिम देश भी आतंक फैलाने वाले कई आतंकवादियों को फांसी पर चढाया है। उन्हें संख्यिाकी विविधता के आक्रोश का डर नहीं था।
 राजनीतिक संवर्ग के स्वार्थ की पूर्ति तो अवश्व होती रहेगी और उनकी राजनीतिक सत्ता का स्थायीकरण होता रहेगा पर उस आग की लौ हमेशा हमारी धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को ही अपने आगोश में लेती रहेगी। पाकिस्तान की सामाजिक व्यवस्था आज पूरी तरह से इस्लामिक के उफानी और नरसंहारक विचारों के आगोश में क्यों समाया हुआ है? इसकी पडताल करनें है और पड़ताल से निकले यथार्थ और निष्कर्ष से भी सबक लेने की अनिवार्य जरूरत होनी चाहिए। पाकिस्तान में तानाशाही संवर्ग ने मजहबी और शरीयती आग लगायी थी। पोषण तानाशाही ही थी। खासकर तत्कालीन तानाशाह जियाउल हक ने पाकिस्तान में शरीयत लागू की थी और इस्लाम के उदार मूल्यों को दफन कर खतरनाक और बंधित समाज की नींव डाली थी। तानाशाही काल में पाकिस्तान की आवाम में विरोध की ज्वाला थी नहीं। आवाम भी समझ लिया था कि इस्लाम के खतरनाक मूल्यो से हम दुनिया को अपनी ओर झुका सकते हैं। कश्मीर को हड़प सकते हैं और भारत को तहस-नहस कर सकते हैं। प्रारंभिक काल में पाकिस्तान की खुशफहमी को बल जरूर मिला। अब उसका प्रतिफल पाकिस्तान को लहूलुहान कर रहा है। विकास की जगह गोलियां-बारूद और मानवबम की फोड़े जा रहे हैं। पाकिस्तान के इस हस्र को भारतीय राजनीतिक संवर्ग को सबक के तौर पर देखना चाहिए और तुष्टीकरण सहित वोट की राजनीति के लिए खतरनाक इस्लामिक विचारों के संरक्षण और बढावा देने के खेल से अलग होना चाहिए। पर ऐसा नहीं लगता कि भारतीय राजनीति खतरनाक इस्लामिक विचारों के बढावा देने की नीति बदलने को तैयार है। अगर ऐसा नहीं होता तो कांग्रेस सहित अन्य राजनीतिक पार्टियां ओसामा बिन लादेन के अंत के खिलाफ खड़ी होती?

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Thursday, March 31, 2011

अरब दुनिया की मुक्ति का यह रास्ता

राष्ट्र-चिंतन

अरब दुनिया की मुक्ति का यह रास्ता

विष्णुगुप्त


तानाशाही/राजशाही/शरीयत वाली व्यवस्था के पतन के बाद जो लोकतांत्रिक सत्ता आयेगी वह वास्तव में कितनी लोकतांत्रिक होगी। उस लोकतांत्रिक सता में अन्य धार्मिक समुदाय के लिए कितनी जगह होगी।
                               कार्ल मार्क्स ने कहा था कि ‘धर्म अफीम‘ है। दरअसल कार्ल मार्क्स ने यूरोप में ‘चर्च और अरब में इस्लाम‘ के वर्चस्व के साथ ही साथ आधुनिकता व लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ ‘धर्म‘ की रूढियां खडी होते स्पष्ट तौर पर देखा था। यूरोप ने चर्च की सत्ता के खिलाफ लड़ाई लडकर लोकतांत्रिक दुनिया बनायी। अमेरिका ने अपनी आजादी की लडाई लडकर स्वयं को आधुनिकता और दुनिया की निर्णायक शक्ति के रूप में स्थापित कर लिया। विचारणीय विषय यह है कि अगर यूरोप-अमेरिका चर्च की वर्चस्व वाली सत्ता व्यवस्था के खिलाफ मुक्ति की रेखा नहीं खीची होती तो क्या आज यूरोप-अमेरिका अपनी समृद्धि-विकास के इस मुकाम पर आज खड़ा होते? शायद नहीं। दुर्भाग्य यह है कि ‘धर्म की अराजक सत्ता और शक्ति‘ के खिलाफ अरब दुनिया में कोई खास हलचल नहीं हुई। कोई बड़ी म ुहिम या आंदोलन भी तो नहीं चला। जिसने भी धर्म की सत्ता के खिलाफ अवाज उठायी उसे अरब दुनिया छोड़कर यूरोप जैसी उदारवादी समाज व्यवस्था में शरण लेनी पडी। इसके अलावा अरब जगत में इस्लाम की सत्ता ही नहीं बल्कि जीवन पद्धति को नियंत्रित करने की अराजक और खतरनाक मुहिम चली। इस्लाम की उदार और मानवीय पक्ष पर रूढियां और मुल्लाओं की अतिरंजित विचारशीलता को गति दी गयी। दुष्परिणाम यह निकला कि खुद अरब दुनिया ने अपने आप को एक बंद समाज व्यवस्था का बंधक बना लिया। ऐसे में लोकतांत्रिक और मानवीय दुनिया बनती तो कैसे? तानाशाही और शरियत जैसी व्यवस्था ने अरब आबादी को धर्म की रूढियों और अतिरंजना का शिकार बना छोड़ा है। मिश्र,ट्यूनेशिया बहरीन आदि में जो जनता का गुस्सा फटा है उसके पीछे भी उपरोक्त कारण ही है। लीबिया में जिस तरह संयुक्त राष्टसंघ के हस्तक्षेप पर आवाज उठे हैं उसके निहितार्थ भी गंभीर हैं।
तानाशाही व्यवस्था के दोषी कौन?.......................
अरब दुनिया के अधिकतर देश तानाशाही व्यवस्था मे कैद कैसे हैं और क्यों हैं? क्या हम इसके लिए अरब में इस्लाम की अराजकता को भी कारण मान सकते हैं? क्या हमे सिर्फ यूरोप-अमेरिका की लूटवाली व्यवस्था को अरब लीग में उपस्थित तानाशाही और शरीयत व्यवस्था को मान सकते हैं? ऐसा इसलिए सोचना पड़ता है और विचार करना पडता है कि अरब लीग और हमारे देश के बुद्धीजीवी अरब लीग की खतरनाक स्थिति के लिए अमेरिका-यूरोप की लूटवाली व्यवस्था को मानते हैं। अमेरिका या यूरोप अरब लीग और अन्य भूभागों में तभी हस्तक्षेप करता है या फिर घुसपैठ करता है जब वहां की सरकारें आमंत्रित करती है। अमेरिका-यूरोप की तेल मार्केट पर लूटवाली व्यवस्था इसलिए कायम हो सकी क्योंकि अरब लीग तानाशाही और शरीयत व्यवस्था में इतने अंदर तक धसे हुए हैं कि उन्हें विज्ञान या आधुनिक मार्केट व्यवस्था की दक्षता हासिल ही नहीं हो सकती है। इसका उदाहरण यह है कि अरब लीग में तेल और गैस उत्खनन ही नहीं पूरी व्यवस्था अमेरिका-यूरोप की बडी-बडी बहुराष्टीय कंपनियों के हाथों में हैं। अगर अरब दुनिया ने विज्ञान और आधुनिक मार्केट व्यवस्था पर ध्यान दिया होता और दक्षता हासिल की होती तो आज अरब लीग यूरोप-अमेरिका से कहीं अधिक विकसित और शक्तिशीलता को हासिल कर सकता था।
शरीयत की ढाल...........................................
मस्जिद/मदरसा और हज ये तीन व्यवस्थाएं तानाशाही और शरीयत वाली सत्ता की ढाल रही है। तानाशाही और शरीयत वाली सत्ता यह चाहती है कि अगर अपनी आबादी को मस्जिद/मदरसा और हज की इच्छाएं पूरी तरह से चाकचौंबंद कर देने मात्र से उनके खिलाफ आमजन की आवाज उठेगी नहीं? आवाज उठेगी नहीं और उनके अंदर आक्रोश होगा नही ंतो फिर उनकी सत्ता को कहीं से चनौती मिलंेगी ही नहीं और उनकी सत्ता निरंतन चुनौतीविहीन चलती रहेगी। अरब लीग पर हम ध्यान देते हैं तो स्पष्ट होता है कि कहीं पर तानाशाही व्यवस्था है तो कहीं जन्मजात राजशाही है। तानाशाही और राजशाही दोनों प्रकार की सत्ता व्यवस्था ने मस्जिद/मदरसा और हज की मानसिकता को तुष्ट करने के लिए अपनी सत्ता और आर्थिक शक्ति झोंकी। जहां पर शरीयत की अराजकता की मांग भी नहीं थी वहां पर भी पूर्ण शरीयत की व्यवस्था को लागू किया गया। लोकतांत्रिक व्यवस्था के सारे स्तंभ को पनपने ही नहीं दिया गया। बात इतनी भर ही नहीं है। बल्कि आधुनिक समाज की सोच और जरूरत तक को प्रतिबंधित किया गया। शरीयत की अराजक और खतरनाक व्याख्या को भी रोकने की कोशिश नहीं हुई। तानाशाही और जन्मजाती राजशाही सत्ता को यह मालूम है कि अगर शरीयत की अराजक/खतरनाक व्याख्या को रोकने की कोशिश हुई तो कटटरवादी ताकतें तूफान खड़ा कर सकती हैं।
युएनओ का हस्तक्षेप........................
लीबिया की तानाशाही ने अपनी जनता पर जिस तरह से भाडे के सैनिकों से बमबारी करा रही थी उससे पूरी दुनिया स्तब्ध थी। जनता को अपनी सत्ता स्थापित करने और हटाने का हक जरूर है। लीबिया का तानाशाह कर्नल गद दाफी ने तेल के भंडार से मिले डालरों को जनता की भलाई करने की जगह अपनी संपतियां स्थापित की। यूरोप के बैंक कर्नल गद्दाफी के डालरों से गुलजार हैं। कर्नल गद्दाफी ने अंहकार-अभिमान में जनाक्रोश को न समझने की गलती की है। हुस्नी मुबारक से उन्हें सबक लेने की जरूरत थी। पर कर्नल गद्दाफी ने अफ्रीकी देशों से भाडे की सैनिक बुलाकर अपनी जनता पर बमबारी करवाने लगे। बमबारी में कई हजार नागरिक मारे गये। जिस तरह से कत्लेआम हो रहा था उससे यह स्पष्ट हो गया था कि लीबिया में यूएनओं का हस्तक्षेप होगा ही। लीबिया में चुनौतियां काफी जटिल होगी। इसलिए कि लीबिया को कर्नल गददाफी ने दो भागों में विभाजित करने की राजनीति की थी। लीबिया का पश्चिम की आबादी कर्नल गददाफी के कबीले की है और यह कबीला कर्नल गददाफी की शक्ति रही है। लीबिया में नई सत्ता स्थापित करने में नेतत्व और सत्ता में भागीदारी पर संकट खडा हो सकता है। सर्वानुमति तैयार करने की जरूरत होगी। अरब दुनिया में यूएनओं को खलनायक बनाने की नीति भी आगे बढ सकती है। क्योंकि अरब के विभिन्न देशों में यूएनओं के हस्तक्षेप के खिलाफ बडी मुहिम शुरू हो चुकी है।
भारतीय पक्ष..................
भारतीय कूटनीति मे लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रवाह का संरक्षण नहीं करने का अरोप लग रहा है। ब्रिटेन और फ्रांस ने भारत के असहयोग पर चिंता जाहिर कर चुके हैं। भारत ने यूएनओ में मतदान में भाग न लेकर एक तरह से लीबिया के तानाशाही का समर्थन ही किया है। अभी भी भारत का रूख स्पष्ट नहीं है। भारत ने यूएनओ के हस्तक्षेप का विरोध किया है। पर एक हास्यास्पद वक्तब्य भी देख लीजिये। भारत का कहना है लीबिया में लोकतांत्रिक पद्धति का समर्थन करता है। सवाल यहां यह उठता है किे कर्नल गददाफी जैसा खूंखार तानाशाह न तो सत्ता छोडने के लिए तैयार है और न ही अपनी आबादी पर कत्लेआम रोकने के लिए राजी है,ऐसी स्थिति में वहां पर लोकतांत्रिक मूल्यों के अस्तित्व की भी बात सोची जा सकती है क्या ? खासकर हम एक तथ्य की गंभीरता का आकलन अब तक नहीं कर सके हैं। यह तथ्य है भारत का दुनिया के सर्वश्रेष्ठ लोकतांत्रिक व्यवस्था होने का। दुनिया का सर्वश्रेष्ठ लोकतांत्रिक देश होने के कारण भारत का यह कर्तव्य और दायित्व है दुनिया में लोकतांत्रिक आंदोलन को समर्थन और गति देना। भारत की सत्ता तुष्टीकरण की नीति पर चलती है। भारत सरकार क्या किसी डर से अपनी लोकतांत्रिक प्राथमिकताएं पूरी करने में उदासीन है। वास्तव में भारतीय सत्ता अपनी मुस्लिम आबादी की मजहबी सोच और प्राथमिकताओं से डरी हुई है। इसलिए लीबिया ही नहीं बल्कि पूरी अरब लीग में लोकतांत्रिक आंदोलन का समर्थन करने से पीछे है।
                      अरब दुनिया सिर्फ और सिर्फ लोकतांत्रिक प्राथमिकताओं के बल पर ही अपने लिए सम्मान और शक्ति हासिल कर सकती है। तानाशाही और जन्मजात राजशाही व्यवस्था के दिन और बूरे ही होंगे। दुनिया एक गांव में तब्दील हो चुकी है। इसलिए आधुनिक विचारों के प्रवाहों को प्रतिबंधों के बाद भी रोकना आसान नहीं है। पर अरब लीग की आबादी अभी भी मस्जिद/मदरसा और हज जैसी व्यवस्था से अलग होने और उदार इस्लामिक व्यवस्था में चलने के लिए तैयार नहीं है। इस्लाम की खतरनाक व्याख्या भी रूकेगी,यह कहना भी कठिन है। ऐसे विचारों को लेकर अरब दुनिया यूरोप या अन्य समाजों से कदम-ताल मिला कैसे सकता है। लीबिया/मिश्र/बहरीन आदि देशों में बदलाव की जो लहर उठी है और तानाशाही व्यवस्था की जो नीवं हिलायी और हिला रही है,इसे सलाम करना ही चाहिए। पर हमें यह भी देखना होगा कि तानाशाही और शरीयत वाली व्यवस्था के पतन के बाद जो लोकतांत्रिक सत्ता आयेगी वह वास्तव में कितनी लोकतांत्रिक होगी। इसके साथ ही साथ उस लोकतांत्रिक सता में अन्य धार्मिक समुदाय के लिए कितनी जगह होगी।


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Wednesday, February 2, 2011

ब्रजेश मिश्रा पर कांग्रेसी कृपा क्यों ?



विष्णुगुप्त


                                  अपहरित इंडियन एयर लाइंस के विमान और कारगिल प्रकरण में ब्रजेश मिश्रा की विफल भूमिका थी। युद्धकाल में अपने एक सैनिक रिश्तेदार को सेवानिवृति दिलवायी और प्रसिद्ध कार कंपनी में नौकरी दिलवायी। अटल सत्ता का मलाई काटने के बाद इन्होंने सोनिया गांधी का जय-जयकार किया। सोनिया गांधी के गुणगान करने पर ही मिला है इन्हें पदूूम विभूषण पुरस्कार? आखिर अयोग्य और दागदार लोग कब तक पाते रहेंगे नागरिक पुरस्कार?

                                गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिये जाने वाले नागरिक पुरस्कारों पर दलीय राजनीति पूरी तरह से हावी होती है और सम्मान पाने वाले लोगों की सत्ताधारी राजनीतिक दल के प्रति अति और वह भी विकृत समपर्ण नागरिक पुरस्कारों को प्राप्त करने का मापदंड बन गया है। निकट के वर्षो में और खासकर कांग्रेस की केन्द्रीय सत्ता द्वारा बांटे गये नागरिक पुरस्कारों पर सवाल उठते रहे हैं। कारण यह कि नागरिक पुरस्कार प्राप्त करने वाली शख्सियत की योग्यता और उपलब्धि वैसी थी नहीं है जो नागरिक पुरस्कारों के मिलने के निहित मापदंड को पूरा करती हो। इस गणतंत्र दिवस के अवसर पर नागरिक पुरस्कार जिन शख्सियतों को मिले हैं उनमें मुख्य और आश्चर्यचकित करने वाला नाम बृजेश मिज्ञा का है। अटल बिहारी सत्ता में सुरक्षा सलाहकार रहे बृजेश मिज्ञा को पदम् विभूषण सम्मान दिया गया है।
                                    एक सुरक्षा सलाहकार के तौर पर उनकी भूमिका काफी दागदार थी और नाकामयाबियों से भरी थी। अटल बिहारी वाजपेयी के सहयोगी भी ब्रजेश मिश्रा की अंतर्राष्ट्रीय और अंदरूणी गतिविविधियों को लेकर नाराज थे। अटल बिहारी वाजपेयी सत्ता के पतन में ब्रजेश मिश्रा की दंखलदाजी भी जिम्मेदार मानी गयी थी। वाजपेयी के एक मीडिया घराने के मित्र ने तब ब्रजेश मिज्ञा के खिलाफ अभियान भी चलाया था और कई दिनो तक ब्रजेश मिश्रा के काले कारनामें हवा में तैरा था। अटल सत्ता के पतन के बाद ब्रजेश मिश्रा ने पटली मारी थी और एकाएक कांग्रेस भक्त हो गये और उन्होंने सोनिया गांधी की जमकर तारीफ की थी। क्या यह माना जाना चाहिए कि सोनिया गांधी की तारीफ के एवज में ब्रजेश मिश्रा ने यह सम्मान पाया है? राजनीतिक हलकों में ऐसी ही चर्चा है। सोनिया गांधी के प्रति भक्ति के कारण ही वे कांग्रेसी नजरों में पदम विभूषण के हकदार समझे गये।
बज्रेश मिश्र की दागदार भूमिका.......................
ब्रजेश मिश्रा को जब अटल बिहारी वाजपेयी ने अपना सुरक्षा सलाहकार बनाया था तब भी सवाल उठे थे। सवाल इस कारण उठे थे कि न तो उनकी छवि न तो ईमानदार की थी और न ही अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में उन्होंने कोई तीर मारा था। फौरन सर्विस में उनकी उपलब्धि कोई खास नहीं थी। सुरक्षा सलाहकार के रूप में उनकी भूमिका दागदार ही नहीं है बल्कि अटल सत्ता की लूटिया डूबाने वाली थी। यहां जिन तथ्यों का उल्लेख हो रहा है उससे उपर्युक्त बातें बिलकुल सही साबित होंगी। याद कीजिये नेपाल से अपहृत होने वाला इंडियन एयर लांइस के विमान प्रकरण को। इंडियन एयर लाइंस का विमान अमृतसर हवाई अड्डे पर खड़ा था। कमांडो दस्ता अपहरणकर्ताओं से विमान को छुड़ाने के लिए अमृतसर हवाई अड्डे पर पहुंच गया था। पर कमांडो दस्ते को कार्रवाई की इजाजत नहीं मिली। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की हैसियत से अपहृत विमान परकंमाडो कार्रवाई कराने का दायित्व इनके उपर थी। अपहरणकर्ता विमान को अफगानिस्तान ले जाने में सफल हो गये। विमान और अपहृरित नागरिकों को छुड़ाने के लिए तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह को काबूल जाना पड़ा था और तीन दुर्दांत आतंकवादियों को भी छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा था। इस प्रकरण की आग में आज भी भारतीय जनता पार्टी जलती रहती है। जब भी भाजपा कांग्रेसी सत्ता पर आंतकवाद पर नकेल डालने में विफलता का मुद्दा उठाती है तब कांग्रेस आतंकवादियों को काबूल ले जाकर छोड़ने के कलंक का याद भाजपा को दिलाती है। संसद भवन पर हमले में भी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की भूमिका विफलता की कहानी कहती थी।
कारगिल प्रकरण.......................
पाकिस्तान सैनिकों द्वारा कारगिल पर हमला और भारतीय क्षेत्र की मुख्य चोटियों पर कब्जा करने की धटना में भी उस वक्त के सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिज्ञा की भूमिका पर सवाल उठा था। बज्रेश मिज्ञा ने अपने एक रिश्तेदार की मदद में भी हाथ काले किये थे। ब्रजेश मिश्रा का एक रिश्तेदार भारतीय सेना में पदाधिकारी था। वह व्यक्ति कारगिल में ही पदास्थापित था। कारगिल चोटियों को मुक्त कराने का अभियान जैसे ही शुरू हुआ वैसे ही उसने भारतीय सेना से सेवानिवृति मांगी और रातोरात उसे सेवानिवृति भी मिल गयी और कुछ दिनों के अंदर ही वह सेना अधिकारी की नौकरी भारत की सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी में लग गयी। युद्ध और संकट काल में भारतीय सेना के किसी भी अधिकारी या जवान को न तो छुट्टी मिलती है और न ही सेवानिबृति मिलती है। जबकि ऐसी इच्छा रखने वाले अधिकारी-जवान पर सेना का कोर्ट मार्शल भी चल सकता है। लेकिन ब्रजेश मिश्रा की रिश्तेदारी और संरक्षण पर वह अधिकारी साफतौर पर बच गया। यह प्रकरण सीधेतौर पर सत्ता शक्ति के केन्द्र से जुड़ा हुआ था और ब्रजेश मिश्रा ने अपनी सत्ता शक्ति का दुरूपयोग भाई-भतीजावाद को सहायता करने और संरक्षण देने में किया था। कारगिल में पाकिस्तानी सैनिक घुसपैठ करने और भारतीय सैनिकों का नरहसंहार करने में सफल हुए पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को भनक तक भी नहीं लगी थी। उनकी गुप्तचर एजेंसियों और सैनिक संवर्ग से न तो तालमेल था और न ही उनकी भूमिका में राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े खतरनाक प्रश्नों के प्रति जिम्मेदारी थी। जिसकी कीमत सैकड़ों भारतीय जवानों ने कारगिल चोटियों को मुक्त कराने में जान देकर चुकायी थी।
अटल को किया था गुमराह..................
अटल बिहारी वाजपेयी पर पाकिस्तान को सबक सीखाने का गंभीर दबाव था। लालकृष्ण आडवाणी सहित जार्ज फर्नाडीस तक पाकिस्तान से आर-पार की लड़ाई लड़ने और आतंकवाद के प्रति निर्णायक जंग के पैरबीकार थे। कई बार सीमा पर भारतीय सैनिकों की जमावड़ा था। भारतीय सेना संवर्ग का भी मानना था कि पाकिस्तान को सबक सीखाये बिना आतंकवाद का सफाया हो ही नहीं सकता है। परमाणु विस्फोट की तरह पाकिस्तान को सबक सीखाने की नीति बनाने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी ने बना ली थी। लेकिन ब्रजेश मिश्रा ने अटल को गुमराह किया था। ब्रजेश ने अटल को यह बात समझायी थी कि युद्ध से आपकी छवि खराब होगी। कश्मीर समस्या का शांतिपूर्ण हल निकाल दीजिये और आपको ‘शांति का नोबेल‘ पुरस्कार मिल जायेगा, आप इंतिहास में अमर हो जायेंगे। अटल ब्रजेश के इस झांसे में आ गये। अटल ने नोबेल पुरस्कार के चक्कर में पाकिस्तान के प्रति अति उदासीनता और नरम रवैया अपनाते रहे। जिसकी कीमत बार-बार भारतीय संप्रभुता ने चुकायी। अगर अटल पाकिस्तान को सबक सीखाने में कामयाब होते तो निश्चिततौर पर 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी को चुनाव में हार का सामना नहीं करना पड़ता।
मूल कांग्रेसी-जयकार सोनिया का......................
ब्रजेश मिश्र मूलतः कांग्रेसी हैं। इनके पिता द्वारिका प्रसाद मिज्ञ कांग्रेस के बड़े नेता और मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री थे। कांग्रेसी व्यक्तित्व की झलक तब झलकी जब उन्हें लगा कि अब भाजपा सत्ता में आ ही नहीं सकती है। ब्रजेश मिश्रा ने सोनिया गांधी को त्याग की मूर्ति और भारतीय राजनीति की शिल्पी जैसे सम्मान से नवाजना शुरू कर दिया। कांग्रेसी भी उनके इस उपकार से चमत्कृत थे। कांग्रेसी यह जानते थे कि ब्रजेश मिज्ञ के गडबड़ झाला और सुरक्षा सलाहकार के तौर पर विफलता के कब्र पर ही 2004 में उनकी सत्ता का जनादेश मिला था। कांग्रेसी सत्ता ने इस उपकार के बदले में ब्रजेश मिश्रा को पदम् विभूषण जैसे सम्मान से सम्मानित करने का काम किया है। निश्चिततौर पर यह कहा जा सकता है कि ब्रजेश को मिले सम्मान से नागरिक सम्मानों का महता घटता है। आमजन में यह बात बैठ रही है कि नागरिक पुरस्कार उसी को दिय जाते हैं जिसका समर्पण सत्ताधारी दलों के प्रति होता है। अयोग्य और दागी लोग भी नागरिक सम्मान पा रहे हैं। पिछले साल ही अभिनेता सैफ अली खान को नागरिक पुरस्कार से नवाजे जाने से उफान उठा था। राष्ट्रीय नागरिक सम्मान की महत्ता कायम रखने के लिए जरूरी है कि निष्पक्षता और उपलब्धि के वास्तविक आधार मानकर ही पुरस्कारों के लिए नामित शख्सियतों का चयन हो। कांग्रेस नेतृत्ववाली सत्ता से यह उम्मीद बेकार ही है। कांग्रेस नेतृत्व वाली सत्ता ने देश में अयोग्य और दागदार लोगों के सम्मान में कोई कोताही नहीं बरती है। अगर ऐसा नहीं होता तो ब्रजेश मिश्रा को सम्मान का हकदार नहीं माना जाता? थॉमस जैसे दागी अधिकारी सीएजी का प्रमुख नहीं होता?

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