Saturday, June 26, 2010
तमिल नरसंहार की खुलेेगी परत दर परत कहानी
संयुक्त राष्ट्रसंघ के सरकारी पैनल की दुरूह चुनौती
तमिल नरसंहार की खुलेगी परत दर परत कहानी
विष्णुगुप्त
श्रीलंका सरकार की बौैैखलाहट समझी जा सकती है। तमिल नरसंहार की परत दर परत कहानी बाहर आने की डर से श्रीलंका सरकार सकते में है और उसे चिंता में डाल दिया है। श्रीलंका के राष्ट्रपति महेन्द्रा राजपक्षे ने संयुक्त राष्ट्रसंघ को कोेसने की कोई सीमा न छोड़ते हुए कहा कि बान की मुन बाहरी व्यक्ति है फिर भी श्रीलंका की संप्रभुता पर हमला करने की ओछी हरकत करने से बाज नहीं आ रहे हैं। ऐसे देखा जाये तो महेन्द्रा राज पक्षे के सामने संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचित बान की मुन की आलोचना करने के अलावा और चारा भी तो नहीं था। संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव होने के नाते बान की मुन पर पूरी दुनिया में मानवाधिकार संरक्षण और शांति स्थापित करनेे की नैतिक ही नहीं बल्कि संहितापूर्ण जिम्मेदारी है। जाहिरतौर पर बानकी मुन ने अपनी जिम्मेेदारी का निर्वाहन करते हुए श्रीलंका में तमिल नरसंहार की परत दर परत कहानी खोलने की सक्रियता दिखायी है। श्रींलंका में तमिल टाइगरों के खिलाफ सैनिक अभियान के दौरान निर्दोष आबादी को निशाना बनायेे जाने के खिलाफ जांच के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ ने एक ‘सरकारी पैनल‘ बनाया है। इस सरकारी पैनल के अध्यक्ष इंडोनेशिया के पूर्व एंटर्नी जनरल मारकुजी दारूसमन होंगे। उनके साथ तीन और सदस्य होंगे। यह सरकारी पैनल न सिर्फ तमिलों पर हुए मानवाधिकार हनन औैर उनके जनसंहार की जांच पड़ताल करेगा बल्कि यह भी निष्कर्ष निकाल कर संयुक्त राष्ट्रसंध को सलाह देगा कि अराजक देशों और सरकारों को मानवाधिकार संरक्षण के लिए कैसे बाध्य किया जा सकता है। श्रीलंका ही नहीं बल्कि दुनिया भर में कई ऐसी सरकारी व्यवस्था हैं जो न केवल मानवाधिकार हनन की कब्र पर बैंठी हैं और उन्हें मानवाधिकार संरक्षण या फिर अपनी आबादी की आवाज भी खौफ और उत्पीड़न के लिए प्रेरित करती है। ऐसी स्थिति में हम आकलन कर सकते हैं कि सुयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा गठित सरकारी पैनल की श्रींलका में काम और सुझाव कितना कठिन है। सिर्फ श्रीलंका के हाथ खुन नहीं रंगे हुए हैं बल्कि तमिलों के नरसंहार के साथ चीन-पाकिस्तान जैसे देषों के हाथ भी खून से रंगे हुए हैं। जाफना में एक साथ तीन-तीन देशों की करतुतो की कहानी खोजनी पड़गी। श्रीलंका की वर्तमान सत्ता घोर अमानवीय है और उसके लिए अभी भी मानवाधिकार संरक्षण की प्रवृति का का कोई खास महत्व नहीं रखता है। राष्ट्रपति महेन्द्रा राजपक्षे घोर अराजक सत्ता व्यवस्था का नेतृत्व कर रहे हैं। महेन्द्रा राजपक्षे तानाशाही की ओर बढ़ रहे हैं। भारतीय महाद्वीप में एक और तानाशाही व्यवस्था के अस्तित्व मे आने के संकेत ही नहीं बल्कि खतरे की नींव भी मजबूत हो रही हैं। इस खतरे को चीन या पाकिस्तान जैसा अराजक देश अपने लिए अनुकुल मान सकता है पर भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए एक बडे कूटनीतिक खतरे से कम नहीं है। भारत सरकार की कूटनीति में इस खतरे को लेकर केाई हलचल क्यों नहीं है। दुुनिया को तमिलों के मानवाधिकार और उनकी बेहतरी पर और भी गंभीर होकर सोचना होगा। इसलिए कि तमिलों के साथ अभी भी जानवरों जैसा व्यवहार हो रहा है। वे राहत शिविरों के नाम पर यातना शिविरो में रह रहे हैं। यातना शिविरों में उनके साथ ज्यातियां कम नहीं हो रही है। खासकर तमिल महिलाओं के साथ सैक्स उत्पीड़न की धटनाएं विश्व समुदाय की चिंता भी बढ़ायी है।
राहत शिविरों में तमिलों के साथ जानवरों जैसा व्यवहार हो रहा है। तमिल आबादी के नरसंहार में चीन और पाकिस्तान के हाथ भी खून से रंगे हुए है। श्रीलंका का सैनिक अभियान में निर्णायक भूमिका चीन और पाकिस्तान की थी। महेन्द्रा राजपक्षे पूरी तरह से अराजक है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाबंदियां लागू हैं। राजपक्षें की तानाशाही प्रवृति वैश्विक नियामकों के सामने संकट खड़ा किया है। कैसे रूकेगी राजपक्षे की तानाशाही प्रवृति
खौफनाक नरसंहार...............................................
श्रीलंका संयुक्त राष्ट्रसंघ का सदस्य देश है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के हर सदस्य देश संयुक्त राष्ट्रसंघ की संहिता से बंधा हुआ है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की संहिता के अनुसार प्रत्येक देश को मानवाधिकार संरक्षण की जिम्मेदारी निभानी है और जातीय या मूल-भाषा पर आधारित हिंसा-ज्यादतियां रोकना है। जाहिरतौर पर श्रीलंका की सरकार ने संयुक्त राष्ट्रसंघ की इस संहिता के प्रति जवाबदेही दिखायी नहीं। तमिलों की समस्याओं का शांतिपूर्ण्र समाधान खोेजने की जगह सैनिक अभियान की प्रक्रिया चलायी गयी। सैनिक अभियान के पहले तमिल टाइगरो ने वार्ता का प्रस्ताव दिया था लेकिन श्रीलंका के राष्ट्रपति महेन्द्रा राजपक्षे को यह प्रस्ताव मंजूर नहीं हुआ। इसलिए कि महेन्द्रा राजपक्षे घोर सिहली राष्ट्रवाद का प्रतिनिधि नायक हैं। उनके एजेन्डे में सिंहली राष्ट्रवाद की जगह अन्य राष्ट्रीयता की कोई जगह ही नहीं बचती है। यह बात प्रमाणिततौर पर इसलिए कही जा सकती है कि खुद महेन्द्रा राजपक्षे बार-बार यह कहते आये हैं कि वे सिंहली राष्ट्रवाद की कीमत पर कोई भी प्रक्रिया को मानने के लिए बाध्य नहीं है। यानी सिंहली राष्ट्रवाद की सवोच्च्ता। सिंहली राष्ट्रवाद की सवोच्चता ने ही महेन्द्रा राजपक्षे को तमिलों के नरसंहार के लिए प्रेरित किया। तमिल टाइगर के सुप्रीमो प्रभाकरण जरूर हिंसा पर आधारित समाधान खोजने के लिए प्ररित थे पर सही यह भी है कि तमिलों की पूरी आबादी हिंसा से जुड़ी नहीं थी। तमिल आबादी हिसाविहीन समाधान की इच्छा रखती थी। दुर्भाग्य से श्रीलंका की सरकार ने पूरी तमिल आबादी को तमिल टाइगर का समर्थक औैर लड़ाकू मान लिया। श्रीलंका का सैनिक अभियान पूरी तरह से तमिल आबादी के विरूद्ध था। तमिल टाइगरों और प्रभाकरण के सफाये के साथ ही साथ तमिल आबादी के सफाये का मंशा भी राजपक्षे सरकार रखती थी। जैल में बंद श्रीलंका सेना के पूर्व अध्यक्ष और महेन्द्रा राजपक्षे का प्रतिद्वंद्वी फोनसेका ने बार-बार कहा है कि तमिलों का न केवल नरसंहार हुआ है बल्कि तमिल महिलाओं के साथ अमानवीय व्यवहार सहित अन्य मानवाधिकार हनने की घटनाएं हुई है। सेना पूरी तरह से अराजक थी और सिंहली राष्ट्रवाद की बहती खौफनाक प्रक्रिया में लिपटी हुई थी। श्रीलंका सरकार सेना को नरसंहार और अन्य प्रकार की ज्यातियों के लिए आदेश दे रखी थी। किसी भी तमिल टाइगरों को जिंदा नहीं छोड़ने का भी आदेश था। सैनिक अभियान के दौरान तमिल टाइगरों को समर्पन करने का लालच थमाया गया था। श्रीलंका सेना के सैनिक अभियान में समर्पण के लालच में आये तमिल टाइगरों के साथ भी खौफनाक मौत की प्रक्रिया चलायी गयी थी। सर्मपण करने वाले तमिल टाइगरों को मौत का घार उतार दिया गया था। तमिल टाइगरों के प्रमुख प्रभाकरण और उनके परिवार को जिंदा पकड़ने के बाद कई दिनो तक प्रताड़ित करने के बाद उन सबों को मौत की नींद सुलाया गया था। एक गैर सरकारी अनुमान के तहत पचास हजार से अधिक निर्दोष आबादी भी कत्लेआम की शिकार बनी थी। निर्दोष आबादी के कत्लेआम के सारी परिस्थितियां नष्ट की गयी और सबूत मिटाये गये हैं। हजारों लापाता तमिल टाइगरों की खोज नहीं हुई। लापाता आबादी केे बारे में यह कहा गया कि ये तमिल टाइगर थे जो श्रीलंका छोड़कर भाग गये। इनकी खोज की जिम्मेदारी श्रीलंका सरकार नहीं उठा सकती है?
चीन-पाक भी दोषी .............................
तमिल टाइगर दुनिया की सबसे प्रशिक्षित और ताकतवर लड़ाकू संगठन था। दुनिया में मानव बम की थ्योरी तमिल टाइगरों की ही देन है। मानव बम से ही प्र्रभारकण ने राजीव गांधी की हत्या करायी थी। करीब 40 सालों से अलग तमिल राष्ट्र के लिए तमिल टाइगर संधर्ष कर रहे थे। उनके पास न केवल थल लड़ाकू की बहुत बड़ी टूकड़ी थी बल्कि हवाई और समुद्री सैनिक ताकत थी। तमिल टाइगरों के हवाई और समुद्री हमलों ने दुनिया में काफी तहलका मचायी थी। थल-हवाई और समुद्री सामरिक ताकत होने के कारण लिट्टे की सैनिक ताकत कम नहीं थी। दुनिया भी लिट्टे की ताकत को मान चुकी थी। लिट्टे की इतनी बड़ी सामरिक ताकत को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि श्रीलंका द्वारा उनके खिलाफ अभियान छेड़ना मुश्किल नहीं तो कठिन जरूर था। कायदे की बात करें तो श्रीलंका सरकार की सैनिक ताकत इतनी बड़ी थी भी नहीं कि वह लिट्टे जैसे खूखांर संगठन से आमने-सामने की लड़ाई लड़ सके। अब यहां यह सवाल जरूर उठता है कि श्रीलंका सरकार तब लिट्टे का सफाया कैसे किया? वास्तव में इस सफलता की राज को भारतीय महाद्वीप में चीनी कूटनीति की घुसपैठ में खोजा जा सकता है। एक ओर तो अमेरिका-यूरोप के इस्लामिक आंतंकवाद के विरूद्ध लड़ाई और सोच ने लिट्टे को कमजोर किया। लिट्टे को तालिबान या अलकायदा के समकछ रखना वैश्विक कूटनीति की सबसे बड़ी भूल थी। चीन इस वैश्विक कूटनीति की परिस्थितियों का लाभ उठाया। दूसरी सबसे बड़ी बात यह है कि चीन की नजर भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था-सामरिक शक्ति और वैश्विक कूटनीति के बढ़ते दौर से पर था। वह पहले से ही भारत की पड़ोसियों को वह अपने पक्ष में करने की कूटनीतिक प्रक्रिया चलाता रहता है। नेपाल में उसने माओवादियों को खड़ा करने की सफलता खिची है। पाकिस्तान उसके चुगुल मे अपने स्थापना काल से ही है। म्यांमार के साथ चीन की सामरिक गठजोड़ है। श्रीलंका चीनी कूटनीति से चुंगुल से बाहर था। चीनी कूटनीति ने श्रीलंका को सैनिक ताकत बढ़ाने में मदद का लालच दिया। राजपक्षे अपनी सत्ता लम्बे काल तक चलाने के लिए लिट्टे जैसी शक्ति को समाप्त करना चाहता था। चीन ने पाकिस्तान के साथ मिलकर गोपनीय ढ़ग से श्रीलंका सैनिकों को प्रशिक्षित करने का काम किया। भारत के खिलाफ पाकिस्तान की कूटनीतिक अर्थ को भी नजरअंदाज नही किया जा सकता है। चीन और पाकिस्तान ने श्रीलंका सैनिकों को न केवल प्रषिक्षित किया बल्कि हथियार भी दिये। पाकिस्तान ने जहां छोटे हथियार दियें वहीं चीन ने श्रीलंका सैना को बड़े हथियार मुहैया कराये। इन बड़े हथियरों में टैंक सहित लड़ाकू हैलिकाप्टर तक शामिल थे। लिट्े के खिलाफ सैनिक अभियान का नेतृत्व चीनी और पाकिस्तान जनरल कर रहे थे। ऐसी खबरें तमिल मीडिया की है। अतंराष्ट्रीय समुदाय अब यह मान लिया है कि तमिलों के खिलाफ सैनिक अभियान में निर्णायक भूमिका चीन और पाकिस्तान की सामरिक-कूटनीति की थी। अब यहां सवाल यह उठता है कि क्या संयुक्त राष्ट्रसंघ चीन और पाकिस्तान की करतुतों और तमिलों के नरसंहार में शामिल होने की बात बाहर करने और चीन-पाकिस्तान को इन करतूतों के खिलाफ सजा देने जैसा साहस दिखा सकता है।
राहत नहीं यातना शिविर....................................
यह जानकर वैश्विक समाज को आक्रोषित होना चाहिए कि राहत शिविरों को यातना शिवरों में बदल दिया गया है। पांच लाख से अधिक आबादी अभी भी जाफना के आस-पास राहत शिविरों में रहने के लिए बाध्य हैं। राहत शिविरों में रहने वाली तमिल आबादी के साथ श्रीलंका के सुरक्षा प्रकिया जानवरों जैसा व्यवहार करती है। राहत शिविरों में रहने वाली तमिल आबादी को मानवीय सहायता जैसी जरूरी तत्व से वंचित है। खाने-पीने जैसी सुविधाएं चाकचौबंद नहीं है। गंभीर रूप से बीमार लोगों के लिए उचित चिकित्सा व्यवस्था तक नहीं है।उत्पीड़न और ज्यादतियां जैसी प्रक्रिया राहत शिविरों में चलती रहती है। खासकर महिला तमिल आबादी के साथ व्यवहार अमानवीय ही नहीं है बल्कि खौफनाक भी है। छोटी-छोटी बच्चियो के साथ श्रीलंका के सुरक्षा बल के जवान बलात्कार करने से भी नहीं चुकते है। छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार की प्रक्रिया रूकती नहीं है। विश्व मीडिया में कुछ दिन पूर्व एक तस्वीर काफी तहलका मचायी थी। वह तस्वीर भयानक थी और कूरता को पार करने वाली थी। उस तस्वीर में सुरक्षा बलो द्वारा एक छोटी उम्र की लड़की के साथ बलात्कार की बात थी। उस तस्वीर के प्रकाशन के बाद दुनिया भर में श्रीलंका सरकार के खिलाफ कार्रवाई करने की बात भी उठी थी। दुनिया में अपनी छवि खराब होते देख राजपक्षे ने झूठ और फैरब का सहारा लिया। राजपक्षे ने उस तस्वीर को झूठी करार देते हुए कहा कि यह तमिल टाइगरो का समर्थन करने वाले मीडिया द्वारा बनायी गयी तस्वीर है। जबकि सही तो यह था कि एक पत्रकार ने गोपनीय ढ़ग से वह तस्वीर खींची थी। इसके बाद महेन्द्रा राजपक्षे ने अपना गुस्सा मीडिया पर उतारा। उसने मीडिया को कई सेंशरशिप से प्रतिबंधित किया। कई पत्रकारो को उसने जेलों में डाल दिया। कई पर झूठे मुकदमे दर्ज किये गये। इसके बाद मीडिया पूरी तरह से रक्षात्मक हो गयी और राहत शिविरों से संबंधित खबरें नहीं के बराबर आने लगी। राहत शिविरों से बाहर रहने वाली आबादी के साथ भी घोर अन्याय हो रहा है। उनके मानवाधिकार को सुरक्षा बलो के जबूटों तले रोंदा जा रहा है। राहत शिविरों से बाहर रहने वाली तमिल आबादी को उनके धरों से निकलने और बाहर जाने के कारण बताने के लिए बाध्य होना पड़ता है। कारण नहीं बताने पर लिट्टे समर्थक मानकर उन्हे जेलों में ठुस दिया जाता है। तमिल आबादी जेलों में जलालत की जिंदगी जीने के लिए विवश है। जेलो में उन्हें सिंहली राष्टवादियों द्वारा अपमानित होने के साथ ही साथ उत्पीड़न का शिकार भी होना पड़ता है। श्रीलंका की जेलों में कितनी आबादी बंद है यह आकंडा भी श्रीलंका सरकार देने के लिए तैयार नहीं है।
तानाशाही की ओर बढ़ते पंख...................................
हम एक और तानाशाही व्यवस्था से धिर सकते हैं। चीन, म्यामार, नेपाल और पाकिस्तान जैसे अराजक देशों से हमारी संप्रभुता पहले से ही धिरी हुई है। अब हम श्रीलंका में भी अराजकता और तानाशाही जैसे खेल से अभिशप्त होे सकते है। महेन्द्रा राजपक्षे घोर सिंहली राष्टवाद के पक्षधर हैं। लिटटे के सफायेे का करिशमा राजपक्षे के साथ जुड़ी हुई है। सिंहली आबादी राजपक्षे का अपना नायक मानती है। पिछला राष्टपति चुुनाव इसका उदाहरण है। सिंहली राष्टवाद पर सवार होकर ह राजपक्षे ने पिछला राष्टपति चुनाव जीता था। चुनाव जीतने के बाद राजपक्षे अराजक हो गये है। उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी पूर्व सेनाध्यक्ष फोनेंसका को जेलों में डाल दिया और उनके उपर तख्ता पलट करने और अपनी हत्या की साजिश में शामिल होने के आरोप लगाये। फोनेसंका काफी दिनों से जेलों में बंद है। राष्टद्रोह का आरोप येन-केन-प्रकारेन साबित कर फोनसेंका को फांसी पर लटकाने की उनकी योजना है। फोनसंका की जेल-उत्पीड़न पर संयुक्त राष्टसंघ और अमेरिका ने नाखुशी दिखायी पर राजपक्षे की दिमाग सातवें आसमान में ही तैरता रहा है। सत्ता की गंुडई के सामने विरोधियों की आवाज काफी दब गयी है। पहले श्रीलंका में भंडारनायके परिवार की तूती बोलती थी। भंडारनायके परिवार और लोकतंत्र का रिस्ता गहरा था। लेकिन राजपक्षे ने भंडारनायके परिवार की हासिये पर डाल दिया है। सबसे बड़ी बात यह है कि राजपक्षे ने अपने कुनबे को स्थापित करने की राह लम्बी-चौड़ी बनायी है। अपने परिजनों को सेना के साथ ही साथ अपनी सरकार के महत्पपूर्ण पदों पर बैैठाया है। ऐसा इसलिए कि कहीं से भी कोई चुनौती नहीं मिल सके। यह लक्ष्ण और प्रक्रिया तानाशाही अराजक व्यवस्था के ही प्रतीक हैं। तानाशाही और अराजक व्यवस्था का समर्थक सत्तासीन ही अपने परिजनों और कुनबों को सेना और सरकार के महत्वपूर्ण पदों पर बैठाते है। मीडिया पर सेेंशरशिप पहले से ही लागू है। वर्तमान सिस्थि यह है कि जो भी राजपक्षे के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश करेगा उसकी जगह जेल होगी। राजपक्षेे को मालूम है कि वर्तनाम कूटनीतिक माहौल में उसे किसी से भी खतरा नहीं है और न ही वैश्विक नियामक उसके खिलाफ निर्णायक कारवाई करने की साहस कर सकता है। चीन उसके पूरी तरह से साथ है। भारत भी अपने रक्षात्मक कूटनीति से कोई विवाद या संकट खड़ा नहीं कर सकता है। भारत एक तरह से राजपक्षे की तानाशाही की ओर बढ़ते कदम का मुकदर्शक है। अभी हाल ही में भारत ने राजपक्षे को अपने यहां बुलाकार सम्मानित करने का काम किया है। ऐसी स्थिति में राजपक्षे को डर किस बात की है। उसके कदम तानाशाही की ओर बढ़ेगी ही।
सरकारी कमेटी की दुरूह चुनौती......................................
संयुक्त राष्टसंघ ने तमिलों के पक्ष में खड़ा होने की जिम्मेदारी जरूर निभायी है। नरसहार पर एक सरकारी पैनल भी बनाया है। सरकारी कमेटी के अध्यक्ष मारूजुकी दारूसमन वैश्विक कूटनीति और कानून के बड़े जानकार है। इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि वे तमिल आबादी का हुआ नरसंहार और उत्पीड़न-ज्यादतियों की परत दर परत कहानी खोलने मे कामयाब होगे। पर उन्हें कई कठिनाइयों से भी सामना करना पड़ेगा। श्रीलंका सरकार उन्हें सहयोग करने वाली नहीं है। तमिल आबादी डरी हुई है। उन्हें अपने भविष्य की चिंता है। इसलिए वे अपने मुंह बंद रखना ही बेहतर समझेगे। चीन और पाकिस्तान के खिलाफ सबूत जुटाना भी दुरूह चुनौती है। सरकारी कमेटी को यह भी सलाह देना है कि अराजक और तानाशाही सरकारों से मानवाधिकार संरक्षण कैसे कराया जा सकता है। इसलिए तमिलों के नरसंहार की खौफनाक कार्रवाइयो को आधार मानकर ‘सरकारी पैनल‘ यह भी सलाह दे सकता है कि संघर्षरत संगठनों से कैसे निपटा जा सकता है, उनकी मांगों का प्रबंधन का तरीका क्या हो सकता है। सबसे बड़ी बात तो संयुुक्त राष्टसंघ और सभी वैश्विक नियामकों को यह तय करना होगा कि अराजक और तानाशाही व्यवस्था का किसी भी प्रकार से सहायता या समर्थन देने की प्रवृति को रोका जाये। फिलहाल चुनौती राजपक्षे की अराजक नीतियां है।
सम्पर्क.....
मोबाइल- 09968997060
Tuesday, June 8, 2010
न्याय की हत्या,दोषी सरकारी-न्यायिक प्रक्रिया ?
भोपाल गैस कांड फैसला
न्याय की हत्या, दोषी सरकारी-न्यायिक प्रक्रिया ?
वारेन एडरसन पर मेहरबानी क्यों?
विष्णुगुप्त
महत्वपूर्ण यह नहीं है कि भोपाल गैस कांड के आठ अभियुक्तों को न्यायालय ने दोषी ठहराया है, उन्हें दो-दो साल की सजा सुनायी है या अब भोपाल गैस कांड के पीड़ितों को न्याय मिल ही गया। महत्पूर्ण यह है कि भोपाल गैस कांड के अभियुक्तों दंडित करने में 25 साल का समय क्यों और कैसे लगा। न्याय की इतनी बड़ी सुस्ती और कछुआ चाल। क्या गैस पीड़ितों की इच्छानुसार यह न्याय हुआ है? क्या सीजीएम कोर्ट के फैसले से गैस पीड़ितों के दुख-दर्द और हुए नुकसान की भरपाई हो सकती है। मुख्य आरोपी ‘ यूनियन कार्बाइड कम्पनी के चैयरमैन वारेन एडरसन पर न्यायालय द्वारा कोई टिप्पणी नहीं होने का भी कोई अर्थ निकलता है क्या। भोपाल जिला के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने मोहन तिवारी द्वारा यूनियन कर्बाइड के आठ तत्कालिन पदाधिकारियों को दो-दो साल की सजा जरूर सुनायी गयी पर यूनियन कार्बाइड के मालिक वारेन एडरसन पर कोई टिप्पणी नहीं हुई है। वारेन एडरसन पिछले 25 साल से फरार घोषित है। सीबीआई अबतक वारेन एडरसन का पत्ता ढुढ़ने में नाकामयाब रही है।
सजा नरसंहारक धाराओं से नहीं बल्कि लापरवाही की धाराओं से सुनायी गयी है। भारतीय कानून संहिता की धारा 304 ए के तहत सुनायी गयी है जो लापरवाही के विरूद्ध धारा है। लापरवाही नहीं बल्कि जनसंहारक जैसा अपराध था। भोपाल गैस पीड़ितों की मांग भी थी कि यूनियन गैस कर्बाइड के खिलाफ हत्या का मामला चलाया जाये पर पुलिस और सरकार का रवैया इस प्रसंग में यूनियन गैस कार्बाइड की पक्षधर वाली रही है। यही कारण है कि 25 सालों से फरार युनियन गैस कर्बाइड के मालिक वारेन एडरसन की गिरफ्तारी तक संभव नहीं हो सकी है। गैस पीड़ितों का संगठन इस फैसले से कतई खुश नहीं हैं और इनकी मांग दोषियों की फांसी की सजा मुकर्रर कराना है। गैस पीड़ितों की लडाई लड़ने वाले अब्दुल जबार ने इस फैसले को न्यायिक त्रासदी करार दिया है और न्यायिक मजिस्ट्रेट के फैसले के खिलाफ और अभियुक्तों को फांसी दिलाने के लिए उच्च न्यायालय का दरवाजा खट-खटाने का एलान किया है।
भारतीय सत्ता व्यवस्था एडरसन के हित को सुरक्षित रखने में कितना संलग्न था और पक्षकारी था। इतने बड़े नरसंहारक घटना के लिए मुख्य दोषी को रातोरात जमानत कैसे मिल जाती है? घटना के बाद पांच दिसम्बर 1984 को एडरसन भारत आया था। पुलिस उसे गिरफतार करती है पर एडरसन को जेल नहीं भेजा जाता है। गेस्ट हाउस में रखा जाता है। गैस हाउस से ही उसे जमानत मिल जाती है। इतना ही नहीं बल्कि भोपाल से दिल्ली आने के लिए भारत सरकार हवाई जहाज भेजती है। भारत सरकार के हवाईजहाज से एडरसन दिल्ली आता है और फिर अमेरिका भाग जाता है। अभी तक एडरसन अमेरिका में ही रह रहा है। ज्ञात तौर पर उसकी सक्रियता बनी हुई है। विभिन्न व्यापारिक और औद्योगिक योजनाओं में न केवल उसकी सक्रियता है बल्कि उसके पास मालिकाना हक भी है। इसके बाद सीबीआई वारेन एडरसन का पत्ता नहीं खोज पायी है। अभी तक वह भारतीय न्यायप्रकिया के तहत फरार ही है।
दुनिया की सबसे बड़ी औद्याोगिक त्रासदी...................................................
भोपाल गैस कांड दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी थी। 02 दिसम्बर 1984 को भोपाल की आबादी पर यूनियन गैस कार्बाइड का कहर बरपा था। घोर लापरवाही के कारण भोपाल गैस काबाईड से मिथाइल आइसोसायनाइट गैस का रिसाव हुआ था। मिथाइल आइसोसायनाइट के रिसाव ने न सिर्फ फैक्टरी के आस-पास की आबादी को अपने चपेट मे लिया था बल्कि हवा के झोकों के साथ दूर-दूर तक निवास करने वाली आबादी तक अपना कहर फैलाया था। गैस रिसाव से सुरक्षा का इंतजाम तक नहीं था। दो दिन तक फैक्टरी से जहरीली गैसो का रिसाव होता रहा। फैक्टरी के अधिकारी गैस रिसाव को रोकने के इंतजाम करने की जगह खुद भाग खड़े हुए थे। गैस का रिसाव तो कई दिन पहले से ही हो रहा था। फैक्टरी के आसपास रहने वाली आबादी कई दिनों से बैचेनी महसूस कर रही थी। इतना ही नहीं बल्कि उल्टी और जलन जैसी बीमारी भी घातक तौर पर फैल चुकी थी। उदासीन और लापरवाह कम्पनी प्रबंधन ने इस तरह मिथाइल गैस आधारित बीमारी पर गौर ही नहीं किया था।
मिथाइल आइसोसायनाइट गैस की चपेट में आने से करीब 15 हजार लोगो की मौत हुई थी। पांच लाख से अधिक लोग घायल हुए थे। जहरीली गैस के चपेट में आने से प्रभावित सैकड़ो लोग बाद में मरे हैं। इतना ही नहीं बल्कि आज भी हजारों पीड़ित ऐसे हैं जो जहरीली गैस के प्रभाव से मुक्त नहीं है। भोपाल गैस कर्बाइड की आस-पास की भूमि जहरीली हो गयी है। पानी में मिथाइल गैस का प्रभाव गहरा है। सबसे बड़ी बात यह है कि भोपाल गैस कांड के बाद में जन्म लेने वाली पीढ़ी भी मिथाइल गैस के प्रभाव से पीड़ित हैं और उन्हें कई खतरनाक बीमारियां विरासत में मिली हैं।
म्ुाुआबजा के नाम पर धोखाधड़ी....................................................................................
म्ुाुआबजा के नाम पर धोखाधड़ी हुई है। इस धोखाधड़ी में भारत सरकार और मध्य प्रदेश के तत्कालीन सरकारों के हाथ कालें हैं। यूनियन कार्बाइड कम्पनी के साथ सुप्रीम कोर्ट की मध्यस्थतता में मुआबजा के लिए एक समझौता हुआ था। समझौते में एक तरह से भोपाल गैस कांड के पीड़ितों के साथ अन्याय ही नहीं हुआ था बल्कि उनके संघर्ष और भविष्य पर भी नकेल डाला गया था। जबकि यूनियन कार्बाइड को कानूनी उलझन से मुक्त कराने जैसी शर्त को माना गया था। शर्त के अनुसार यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन,यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड,यूनियन कार्बाइल हांगकांग और वारेन एडरसन के खिलाफ चल रही सभी अपराधिक न्यायिक प्रक्रिया को समाप्त मान लिया गया। इसके बदले में भोपाल गैस कांड के पीड़ितो को क्या मिला, यह भी देख लीजिए? 713 करोड़ रूपये मात्र मुआबजे के तौर पर यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन ने दिये थे। दुनिया की सबसे बड़ी औधोगिक त्रासदी और 15 हजार से ज्यादा जानें छीनने वाली व पांच लाख से ज्यादा की आबादी को पीड़ित करने वाली इस नरसंहारक घटना की मुआबजा मात्र 713 करोड़ रूपये। भारत सरकार की अतिरूचि और यूनियन गैस कार्बाइड कारपोरेशन के प्रति अतिरिक्त मोह ने गैस पीड़ितों के संभावनाओं का गल्ला घोट दिया। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस नरसंहारक घटना में सैकड़ों लोग ऐसे मारे गये थे जिनके पास न तो कोई रिहायशी प्रमाण थे और न ही नियमित पत्ते का पंजीकरण था। ऐसे गरीब हताहतों के साथ न्याय नहीं हुआ। उन्हें मुआबजा भी नहीं मिला। सरकारी कामकाज के झंझटों के कारण भी मुआबजा की राशि दुर्बल और असहाय लोगों तक नहीं पहुंची।
एडरसन को मिला सरकारी रक्षाकवच..........................................................................
यूनियन गैस कार्बाइड कारपोरेशन के मालिक वारेन एडरसन के साथ भारत सरकार का विशेषाधिकार जुड़ा हुआ था। पुलिस-प्रशासन और न्यायपालिका भी वारेन एडरसन के प्रति नरम रूख जताया था। पुलिस-प्रशासन, केन्द्र-मध्यप्रदेश की तत्कालीन सरकारें और न्यायपालिका का नरम रूख नहीं होता और पक्षकारी भूमिका नहीं होती तो क्या वारेन एडरसन भारत से भागने में सफल होता। ऐसे तथ्य हैं जिससे साफ झलकता है कि भारतीय सत्ता व्यवस्था एडरसन के हित को सुरक्षित रखने में कितना संलग्न था और पक्षकारी था। इतने बड़े नरसंहारक घटना के लिए मुख्य दोषी को रातोरात जमानत कैसे मिल जाती है? घटना के बाद पांच दिसम्बर 1984 को एडरसन भारत आया था। पुलिस उसे गिरफतार करती है पर एडरसन को जेल नहीं भेजा जाता है। गेस्ट हाउस में रखा जाता है। गैस हाउस से ही उसे जमानत मिल जाती है। इतना ही नहीं बल्कि भोपाल से दिल्ली आने के लिए भारत सरकार हवाई जहाज भेजती है। भारत सरकार के हवाईजहाज से एडरसन दिल्ली आता है और फिर अमेरिका भाग जाता है। अभी तक एडरसन अमेरिका में ही रह रहा है। ज्ञात तौर पर उसकी सक्रियता बनी हुई है। विभिन्न व्यापारिक और औद्योगिक योजनाओं में न केवल उसकी सक्रियता है बल्कि उसके पास मालिकाना हक भी है। इसके बाद सीबीआई वारेन एडरसन का पत्ता नहीं खोज पायी है। अभी तक वह भारतीय न्यायप्रकिया के तहत फरार ही है।
फैसले को न्यायिक त्रासदी दिया करार...................................
गैस पीड़ितों के लिए लडाई लड़ने वाले हरेक संगठन ने न्यायिक मजिस्ट्रेट के इस फैसले को न्यायिक त्रासदी करार दिया है। अव्दुल जबार कहते है कि पीड़ितों पर पहले औद्योगिक त्रासदी का नरसंहार हुआ और अब न्यायिक त्रासदी हुई है। जिम्मेवार और लापरवाह अभियुक्तों को फांसी मिलनी चाहिए थी लेकिन उन्हें मात्र दो-दो साल का जेल की सजा हुई है और एक-एक लाख का जुर्माना हुआ है। यह सजा कुछ भी नही है। क्या 15 हजार से ज्यादा गंवायी गयी जान और पांच लाख से ज्यादा हुए अपाहिज लोगों की पीड़ा को यह सजा कम कर पायेगी? इसका उत्तर कदापि में नहीं है। गैस पीडितों की नाराजगी समझी जा सकती है। गैस पीड़ित न्यायिक मजिस्ट्रेट के इस फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील करने का एलान कर चुके हैं। जहां से न्याय की उन्हें उम्मीद तो होगी पर संधर्ष भी कम नहीं होगा। सबसे अधिक चिंताजनक बात यह है कि न्यायिक मजिस्टेट के फैसले में मुख्य दोषी वारेन एडरसन पर कोई टिप्पणी नहीं है। एडरसन पर टिप्पणी न होना भी गैस पीड़ितों की पीड़ा और संधर्ष की राह मुश्किल करता है।
एडरसन को सजा क्यों न मिले..............................................
दुनिया में अन्य कोई जगह पर ऐसी नरसंहारक औद्योगिक त्रासदी हुई होती तो निश्चित मानिये की एडरसन इस तरह अबाधित और निश्चित होकर अपनी सक्रियता नहीं दिखा सकता था। उसकी जगह जेल होती। लेकिन भारत जैसे देश की सरकार जनता के प्रति नहीं बल्कि औद्योगिक घरानो के हित को साधने ज्याद तत्पर रहती है। भारत सरकार को अब अपनी सोच बदलनी चाहिए। भोपाल गैस कांड के पीड़ितों को न्याय मिलें। ऐसी सरकारी प्रक्रिया क्यों नहीं चलनी चाहिए? अमेरिका पर कूटनीतिक दबाव डालना चाहिए कि एडरसन को पकड़कर भारत को सौंपा जाये। अमेरिका भारत के साथ मधुर सबंधों की रट रोज लगाता है। लेकिन भोपाल गैस कांड के मुख्य आरोपी को उसने एक तरह से संरक्षण दिया हुआ है। हेडली का प्रकरण भी हमें नोट करने की जरूरत है। ऐसे में दोस्ती का क्या मतलब रह जाता है। भारत सरकार को खरी-खरी बात करनी होगी। अमेरिका से कहना होगा कि एडरसन भारतीय न्यायपालिका से फरार घोषित है। इसलिए उसकी जगह भारतीय जेल है। सीबीआई एडरसन पर तभी सक्रियता दिखा सकती है जब भारत सरकार ऐसी इच्छा रखेगी। क्या भारत सरकार एडरसन को भारत लाने के लिए कूटनीतिक पहल फिर से करेगी? शायद नहीं। ऐसी स्थिति में गैस पीड़तों की संघर्ष की राह और चौड़ी होगी।
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न्याय की हत्या, दोषी सरकारी-न्यायिक प्रक्रिया ?
वारेन एडरसन पर मेहरबानी क्यों?
विष्णुगुप्त
महत्वपूर्ण यह नहीं है कि भोपाल गैस कांड के आठ अभियुक्तों को न्यायालय ने दोषी ठहराया है, उन्हें दो-दो साल की सजा सुनायी है या अब भोपाल गैस कांड के पीड़ितों को न्याय मिल ही गया। महत्पूर्ण यह है कि भोपाल गैस कांड के अभियुक्तों दंडित करने में 25 साल का समय क्यों और कैसे लगा। न्याय की इतनी बड़ी सुस्ती और कछुआ चाल। क्या गैस पीड़ितों की इच्छानुसार यह न्याय हुआ है? क्या सीजीएम कोर्ट के फैसले से गैस पीड़ितों के दुख-दर्द और हुए नुकसान की भरपाई हो सकती है। मुख्य आरोपी ‘ यूनियन कार्बाइड कम्पनी के चैयरमैन वारेन एडरसन पर न्यायालय द्वारा कोई टिप्पणी नहीं होने का भी कोई अर्थ निकलता है क्या। भोपाल जिला के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने मोहन तिवारी द्वारा यूनियन कर्बाइड के आठ तत्कालिन पदाधिकारियों को दो-दो साल की सजा जरूर सुनायी गयी पर यूनियन कार्बाइड के मालिक वारेन एडरसन पर कोई टिप्पणी नहीं हुई है। वारेन एडरसन पिछले 25 साल से फरार घोषित है। सीबीआई अबतक वारेन एडरसन का पत्ता ढुढ़ने में नाकामयाब रही है।
सजा नरसंहारक धाराओं से नहीं बल्कि लापरवाही की धाराओं से सुनायी गयी है। भारतीय कानून संहिता की धारा 304 ए के तहत सुनायी गयी है जो लापरवाही के विरूद्ध धारा है। लापरवाही नहीं बल्कि जनसंहारक जैसा अपराध था। भोपाल गैस पीड़ितों की मांग भी थी कि यूनियन गैस कर्बाइड के खिलाफ हत्या का मामला चलाया जाये पर पुलिस और सरकार का रवैया इस प्रसंग में यूनियन गैस कार्बाइड की पक्षधर वाली रही है। यही कारण है कि 25 सालों से फरार युनियन गैस कर्बाइड के मालिक वारेन एडरसन की गिरफ्तारी तक संभव नहीं हो सकी है। गैस पीड़ितों का संगठन इस फैसले से कतई खुश नहीं हैं और इनकी मांग दोषियों की फांसी की सजा मुकर्रर कराना है। गैस पीड़ितों की लडाई लड़ने वाले अब्दुल जबार ने इस फैसले को न्यायिक त्रासदी करार दिया है और न्यायिक मजिस्ट्रेट के फैसले के खिलाफ और अभियुक्तों को फांसी दिलाने के लिए उच्च न्यायालय का दरवाजा खट-खटाने का एलान किया है।
भारतीय सत्ता व्यवस्था एडरसन के हित को सुरक्षित रखने में कितना संलग्न था और पक्षकारी था। इतने बड़े नरसंहारक घटना के लिए मुख्य दोषी को रातोरात जमानत कैसे मिल जाती है? घटना के बाद पांच दिसम्बर 1984 को एडरसन भारत आया था। पुलिस उसे गिरफतार करती है पर एडरसन को जेल नहीं भेजा जाता है। गेस्ट हाउस में रखा जाता है। गैस हाउस से ही उसे जमानत मिल जाती है। इतना ही नहीं बल्कि भोपाल से दिल्ली आने के लिए भारत सरकार हवाई जहाज भेजती है। भारत सरकार के हवाईजहाज से एडरसन दिल्ली आता है और फिर अमेरिका भाग जाता है। अभी तक एडरसन अमेरिका में ही रह रहा है। ज्ञात तौर पर उसकी सक्रियता बनी हुई है। विभिन्न व्यापारिक और औद्योगिक योजनाओं में न केवल उसकी सक्रियता है बल्कि उसके पास मालिकाना हक भी है। इसके बाद सीबीआई वारेन एडरसन का पत्ता नहीं खोज पायी है। अभी तक वह भारतीय न्यायप्रकिया के तहत फरार ही है।
दुनिया की सबसे बड़ी औद्याोगिक त्रासदी...................................................
भोपाल गैस कांड दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी थी। 02 दिसम्बर 1984 को भोपाल की आबादी पर यूनियन गैस कार्बाइड का कहर बरपा था। घोर लापरवाही के कारण भोपाल गैस काबाईड से मिथाइल आइसोसायनाइट गैस का रिसाव हुआ था। मिथाइल आइसोसायनाइट के रिसाव ने न सिर्फ फैक्टरी के आस-पास की आबादी को अपने चपेट मे लिया था बल्कि हवा के झोकों के साथ दूर-दूर तक निवास करने वाली आबादी तक अपना कहर फैलाया था। गैस रिसाव से सुरक्षा का इंतजाम तक नहीं था। दो दिन तक फैक्टरी से जहरीली गैसो का रिसाव होता रहा। फैक्टरी के अधिकारी गैस रिसाव को रोकने के इंतजाम करने की जगह खुद भाग खड़े हुए थे। गैस का रिसाव तो कई दिन पहले से ही हो रहा था। फैक्टरी के आसपास रहने वाली आबादी कई दिनों से बैचेनी महसूस कर रही थी। इतना ही नहीं बल्कि उल्टी और जलन जैसी बीमारी भी घातक तौर पर फैल चुकी थी। उदासीन और लापरवाह कम्पनी प्रबंधन ने इस तरह मिथाइल गैस आधारित बीमारी पर गौर ही नहीं किया था।
मिथाइल आइसोसायनाइट गैस की चपेट में आने से करीब 15 हजार लोगो की मौत हुई थी। पांच लाख से अधिक लोग घायल हुए थे। जहरीली गैस के चपेट में आने से प्रभावित सैकड़ो लोग बाद में मरे हैं। इतना ही नहीं बल्कि आज भी हजारों पीड़ित ऐसे हैं जो जहरीली गैस के प्रभाव से मुक्त नहीं है। भोपाल गैस कर्बाइड की आस-पास की भूमि जहरीली हो गयी है। पानी में मिथाइल गैस का प्रभाव गहरा है। सबसे बड़ी बात यह है कि भोपाल गैस कांड के बाद में जन्म लेने वाली पीढ़ी भी मिथाइल गैस के प्रभाव से पीड़ित हैं और उन्हें कई खतरनाक बीमारियां विरासत में मिली हैं।
म्ुाुआबजा के नाम पर धोखाधड़ी....................................................................................
म्ुाुआबजा के नाम पर धोखाधड़ी हुई है। इस धोखाधड़ी में भारत सरकार और मध्य प्रदेश के तत्कालीन सरकारों के हाथ कालें हैं। यूनियन कार्बाइड कम्पनी के साथ सुप्रीम कोर्ट की मध्यस्थतता में मुआबजा के लिए एक समझौता हुआ था। समझौते में एक तरह से भोपाल गैस कांड के पीड़ितों के साथ अन्याय ही नहीं हुआ था बल्कि उनके संघर्ष और भविष्य पर भी नकेल डाला गया था। जबकि यूनियन कार्बाइड को कानूनी उलझन से मुक्त कराने जैसी शर्त को माना गया था। शर्त के अनुसार यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन,यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड,यूनियन कार्बाइल हांगकांग और वारेन एडरसन के खिलाफ चल रही सभी अपराधिक न्यायिक प्रक्रिया को समाप्त मान लिया गया। इसके बदले में भोपाल गैस कांड के पीड़ितो को क्या मिला, यह भी देख लीजिए? 713 करोड़ रूपये मात्र मुआबजे के तौर पर यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन ने दिये थे। दुनिया की सबसे बड़ी औधोगिक त्रासदी और 15 हजार से ज्यादा जानें छीनने वाली व पांच लाख से ज्यादा की आबादी को पीड़ित करने वाली इस नरसंहारक घटना की मुआबजा मात्र 713 करोड़ रूपये। भारत सरकार की अतिरूचि और यूनियन गैस कार्बाइड कारपोरेशन के प्रति अतिरिक्त मोह ने गैस पीड़ितों के संभावनाओं का गल्ला घोट दिया। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस नरसंहारक घटना में सैकड़ों लोग ऐसे मारे गये थे जिनके पास न तो कोई रिहायशी प्रमाण थे और न ही नियमित पत्ते का पंजीकरण था। ऐसे गरीब हताहतों के साथ न्याय नहीं हुआ। उन्हें मुआबजा भी नहीं मिला। सरकारी कामकाज के झंझटों के कारण भी मुआबजा की राशि दुर्बल और असहाय लोगों तक नहीं पहुंची।
एडरसन को मिला सरकारी रक्षाकवच..........................................................................
यूनियन गैस कार्बाइड कारपोरेशन के मालिक वारेन एडरसन के साथ भारत सरकार का विशेषाधिकार जुड़ा हुआ था। पुलिस-प्रशासन और न्यायपालिका भी वारेन एडरसन के प्रति नरम रूख जताया था। पुलिस-प्रशासन, केन्द्र-मध्यप्रदेश की तत्कालीन सरकारें और न्यायपालिका का नरम रूख नहीं होता और पक्षकारी भूमिका नहीं होती तो क्या वारेन एडरसन भारत से भागने में सफल होता। ऐसे तथ्य हैं जिससे साफ झलकता है कि भारतीय सत्ता व्यवस्था एडरसन के हित को सुरक्षित रखने में कितना संलग्न था और पक्षकारी था। इतने बड़े नरसंहारक घटना के लिए मुख्य दोषी को रातोरात जमानत कैसे मिल जाती है? घटना के बाद पांच दिसम्बर 1984 को एडरसन भारत आया था। पुलिस उसे गिरफतार करती है पर एडरसन को जेल नहीं भेजा जाता है। गेस्ट हाउस में रखा जाता है। गैस हाउस से ही उसे जमानत मिल जाती है। इतना ही नहीं बल्कि भोपाल से दिल्ली आने के लिए भारत सरकार हवाई जहाज भेजती है। भारत सरकार के हवाईजहाज से एडरसन दिल्ली आता है और फिर अमेरिका भाग जाता है। अभी तक एडरसन अमेरिका में ही रह रहा है। ज्ञात तौर पर उसकी सक्रियता बनी हुई है। विभिन्न व्यापारिक और औद्योगिक योजनाओं में न केवल उसकी सक्रियता है बल्कि उसके पास मालिकाना हक भी है। इसके बाद सीबीआई वारेन एडरसन का पत्ता नहीं खोज पायी है। अभी तक वह भारतीय न्यायप्रकिया के तहत फरार ही है।
फैसले को न्यायिक त्रासदी दिया करार...................................
गैस पीड़ितों के लिए लडाई लड़ने वाले हरेक संगठन ने न्यायिक मजिस्ट्रेट के इस फैसले को न्यायिक त्रासदी करार दिया है। अव्दुल जबार कहते है कि पीड़ितों पर पहले औद्योगिक त्रासदी का नरसंहार हुआ और अब न्यायिक त्रासदी हुई है। जिम्मेवार और लापरवाह अभियुक्तों को फांसी मिलनी चाहिए थी लेकिन उन्हें मात्र दो-दो साल का जेल की सजा हुई है और एक-एक लाख का जुर्माना हुआ है। यह सजा कुछ भी नही है। क्या 15 हजार से ज्यादा गंवायी गयी जान और पांच लाख से ज्यादा हुए अपाहिज लोगों की पीड़ा को यह सजा कम कर पायेगी? इसका उत्तर कदापि में नहीं है। गैस पीडितों की नाराजगी समझी जा सकती है। गैस पीड़ित न्यायिक मजिस्ट्रेट के इस फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील करने का एलान कर चुके हैं। जहां से न्याय की उन्हें उम्मीद तो होगी पर संधर्ष भी कम नहीं होगा। सबसे अधिक चिंताजनक बात यह है कि न्यायिक मजिस्टेट के फैसले में मुख्य दोषी वारेन एडरसन पर कोई टिप्पणी नहीं है। एडरसन पर टिप्पणी न होना भी गैस पीड़ितों की पीड़ा और संधर्ष की राह मुश्किल करता है।
एडरसन को सजा क्यों न मिले..............................................
दुनिया में अन्य कोई जगह पर ऐसी नरसंहारक औद्योगिक त्रासदी हुई होती तो निश्चित मानिये की एडरसन इस तरह अबाधित और निश्चित होकर अपनी सक्रियता नहीं दिखा सकता था। उसकी जगह जेल होती। लेकिन भारत जैसे देश की सरकार जनता के प्रति नहीं बल्कि औद्योगिक घरानो के हित को साधने ज्याद तत्पर रहती है। भारत सरकार को अब अपनी सोच बदलनी चाहिए। भोपाल गैस कांड के पीड़ितों को न्याय मिलें। ऐसी सरकारी प्रक्रिया क्यों नहीं चलनी चाहिए? अमेरिका पर कूटनीतिक दबाव डालना चाहिए कि एडरसन को पकड़कर भारत को सौंपा जाये। अमेरिका भारत के साथ मधुर सबंधों की रट रोज लगाता है। लेकिन भोपाल गैस कांड के मुख्य आरोपी को उसने एक तरह से संरक्षण दिया हुआ है। हेडली का प्रकरण भी हमें नोट करने की जरूरत है। ऐसे में दोस्ती का क्या मतलब रह जाता है। भारत सरकार को खरी-खरी बात करनी होगी। अमेरिका से कहना होगा कि एडरसन भारतीय न्यायपालिका से फरार घोषित है। इसलिए उसकी जगह भारतीय जेल है। सीबीआई एडरसन पर तभी सक्रियता दिखा सकती है जब भारत सरकार ऐसी इच्छा रखेगी। क्या भारत सरकार एडरसन को भारत लाने के लिए कूटनीतिक पहल फिर से करेगी? शायद नहीं। ऐसी स्थिति में गैस पीड़तों की संघर्ष की राह और चौड़ी होगी।
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