Monday, November 23, 2020

दक्षिणांचल में ‘‘ मोदी मैजिक ‘ की गति बढ़ेगी ?

  राष्ट्र-चिंतन

दक्षिणांचल में ‘‘ मोदी मैजिक ‘ की गति बढ़ेगी ?
        विष्णुगुप्त



दक्षिणांचल भाजपा की सबसे कमजोर कडी रही है। इसीलिए भाजपा की अब दक्षिणाचंल की ओर दृष्टि लगी हुई है। दक्षिणाचंल में भाजपा के लिए संभावनाएं भी कम नहीं है। नये जोश के साथ भाजपा अब दक्षिणाचंल में सक्रिय ही नहीं हो रही है बल्कि अभियानी भी है। अब भाजपा के पास दो-दो राजनीतिक ब्रम्हास्र है जिसके सहारे वह दक्षिणाचंल में अपने विरोधियों को परास्त करेंगी, मतदाताओं को आकर्षिक कर अपना विस्तार करेगी। ये दो ब्रम्हास्र हैं, एक हिन्दुत्व और दूसरा ‘ मोदी मैजिक ‘ है। काफी समय पहले से दक्षिणांचल में भाजपा अपने आधार का विस्तार करने की कोशिश कर रही थी और अपनी संभावनाएं तलाश रही थी पर इसमें असफलताएं ही हाथ लग रही थी, हिन्दुत्व का ब्रम्हास्र बहुत ज्यादा कारगर नहीं हो पा रहा था।
                                    इसके पीछे कारण यह था कि हिन्दुत्व के सामने भाषा का प्रश्न अति महत्वपूर्ण बन जा रहा था। दक्षिणाचंल में भाषा की समस्या और अस्मिता भी जगजाहिर है। पूरी राजनीति भाषा के प्रश्न पर मजबूती के साथ खडी रहती है। कभी भाजपा का हिन्दी प्रेम दक्षिणाचंल में समस्या खडी करती थी और संदेश यह जाता था कि भाजपा दक्षिणाचंल की भाषा का अंत चाहती है, दक्षिणांचल की भाषा की कब्र पर अपना विस्तार करना चाहती थी। आजादी के बाद दक्षिणाचंल में भाषा की लड़ाई और हिन्दी को थोपने की तथाकथित कोशिश के प्रति जनाक्रोश उत्पन्न हुआ और यह जनाक्रोश राजनीति को अपने शिकंजे में कसने का काम किया। जबकि देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी मानी गयी थी पर हिन्दी को पूरे देश की भाषा बनाने की चरण बद्ध योजना थी। अब भाजपा के लिए हिन्दी प्रेम भी कोई बेड़ियां नहीं है। अब भाजपा देशज भाषा के विकास और उन्नति की बात करती है। इसलिए दक्षिणांचल की भाषाओं की अस्मिता को अक्षुण रख कर भाजपा अपना विस्तार कर सकती है।
                                         अभी-अभी भाजपा के महारथी अमित शाह दक्षिणांचल के दौरे कर आये हैं। उनका यह दौरा शुद्ध रूप से पार्टी का दक्षिणांचल में विस्तार करना है और अगले लोेकसभा चुनावों मे सीटें जीतने की कोशिश के रूप में देखा जाता है। अमित शाह कहीं भी जाते हैं और कोई कदम उठाते हैं तो फिर सुर्खियां बनती हैं, तरह-तरह की अटकलें लगायी जाती है। अमित शाह ने खुद कह दिया कि अब भाजपा दक्षिणांचल में भी मजबूत होकर उभरेगी। जहां तक अमित शाह की दक्षिणांचल दौरे की सफलता की बात है तो इसमें दो मत नहीं कि उनका यह दौरा बहुत ही सफल रहा है, अपने उद्देश्य में अमित शाह सफल जरूर हुए हैं। तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में जिस तरह से अमित शाह का स्वागत हुआ और जिस तरह की भीड़ जुटी थी उस पर निष्कर्ष बहुत ही सकरात्मक निकला है। इसलिए कि भीड़ उत्साहित थी, भीड़ हिन्दुत्व और मोदी मैजिक से प्रभावित थी। जहां-जहां हिन्दुंत्व और मोदी मैजिक का उभार और जोश देखा जाता है वहां-वहां भाजपा के लिए अवसर तथा संभावनाएं होती हैं।
                                          दक्षिाणांचल का श्रीगणेश चैन्नई से करने का उद्देश्य क्या है? दक्षिणांचल की राजनीति में तमिलनाडु और चैन्नई का महत्व भी जगजाहिर है। जिस तरह से उत्तरांचल की राजनीति दिल्ली, पश्चिमंाचल की राजनीति मुबंई और पूर्वांचल की राजनीति असम से गतिशील होती है, सक्रिय होती है और प्रभावित होती है उसी प्रकार से दक्षिणांचल की राजनीति का संदेश और प्रभाव चैन्नई से ही प्रसारित होता है। यह धारणा बैठी हुई है कि जिस पार्टी का तमिलनाडु में पकड होगी उस पार्टी का दक्षिणांचल पर भी पकड मजबूत होगी। अब तक तमिलनाडु पर किसी राष्ट्रीय राजनीतिक दल नहीं बल्कि क्षेत्रीय राजनीतिक दल की पकड रही है। बदल-बदल कर क्षेत्रीय राजनीति ही तमिलनाडु पर राज करती है। कभी द्रमुक और तो कभी अन्नाद्रमुक मेंसत्ता हस्तांतरित होती रही है। कांग्रेस पार्टी इन्ही दोनों पार्टियों के बीच झूलती रही है। कम्युनिस्ट पार्टियां भी इन्ही दोनों क्षेत्रीय राजनीति के सहारे खडी रहती हैं। पिछले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों ने द्रमुक के साथ मिल कर चुनाव लडी थी। पिछले लोकसभा चुनाव में द्रमुक और कांग्रेस तथा कम्युनिस्ट पार्टियों को अच्छी सफलताएं भी मिली थी।
                                   द्रमुक और अन्नाद्रमुक विचारधारा से कम और व्यक्तित्व से अधिक चमत्कृत रही है। इन्हें व्यक्ति आधारित पार्टियां कहना कोई अतिशोयेक्ति नहीं होनी चाहिए। द्रमुक जहां करूणानिधि के व्यक्तित्व से और  वही अन्नाद्रमुक एमजी रामचन्द्रण की व्यक्तित्व से फली-फूली हैं। तमिल ही नहीं बल्कि कन्नड और तेलगू राजनीति में व्यक्तित्व का आकर्षण बहुत ही ज्यादा रहा है। खासकर अभिनेताओं से आम जनता कुछ ज्यादा ही प्रभावित रहती है। अभिनेताओं को दक्षिणांचल में भगवान की तरह देखा जाता है, अभिनेताओं के नाम पर जान भी लोग दे देते हैं। तमिलनाडु में एमजी रामचन्द्रण अभिनेता थे, करूणानिधि भी अभिनेता थे, आंध प्रदेश में कभी एनटी रामाराव अभिनेता थे, एनटी रामाराव ने एकाएक तुलगू देशम पार्टी बनायी और इन्दिरा गांधी की होश उडाते हुए आंध प्रदेश की सरकार पर कब्जा कर लिया था। अब आंध्र प्रदेश की राजनीति में अभिनेता प्रेम कुछ कम हुआ है। तमिलनाडु में करूणानिधि की अस्मिता की चमक ढीली पडी है, उनके विरासत के कई सौदागर है, एमजी रामचन्द्रन की विरासत बनी जयललिता का अवसान हो चुका है। इस लिए अब तमिलनाडु की राजनीति में अभिनेता प्रेम या फिर व्यक्ति आधारित राजनीति की बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं है। ऐसे राजनीकांत कभी कभार राजनीति में कूदने का आभास देते रहते हैं पर अभी तक रजनीकांत की स्पष्ट सक्रियता सामने नहीं आयी है। रजनीकांत की अंदर खाने में भाजपा से ज्यादा पटती है। उधर एक दूसरे अभिनेता कमल हासन का उछल-कूद कोई खास सक्रियता सुनिश्चित नहीं कर सका है।
                                 दक्षिणांचल क्षेत्र में तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, तेलगाना, कर्नाटक और केरल मुख्य राज्य हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान में तमिलनाडु को छोडकर अन्य प्रदेशों में भाजपा की उपस्थिति बहुत ज्यादा कमजोर नहीं है। कर्नाटक में भाजपा की सरकार है। त्रिपुरा में भी भाजपा की सरकार है। त्रिपुरा में भाजपा ने 30 सालों से जमी कम्युनिस्टों की सरकार को हवाहवाई की है और अपनी सरकार बनायी है। त्रिुपरा में अपनी उपपलब्धि को भाजपा विशेष मान कर चल रही है। कर्नाटक में भाजपा की सरकार की शक्ति तमिलनाडु ही नहीं बल्कि आंध्र प्रदेश और तेलगाना तक की राजनीति को प्रभावित कर रही है। आंध प्रदेश में वाइएस चन्द्रशेखर की विरासत की सरकार है जबकि तेलगाना के मुख्यमंत्री के चन्द्रशेखर राव की सरकार है। आंधप्रदेश में एनटी रामाराव के विरासत चन्द्रबाबू नायहू का अवसान जारी है। आंध प्रदेश में भाजपा मुख्य विपक्ष की भूमिका निभाने की कोशिश कर रही है। जबकि तेलंगाना में भाजपा की उम्मीद कुछ ज्यादा ही है। के चन्द्रशेखर राव लंबे समय से मुख्यमंत्री जरूर हैं और उनकी अपने राज्य पर पकड़ भी मजबूत है पर अब लोगों में नाराजगी भी बढ रही है। पिछले लोकसभा चुनावों में इसका संकेत मिला था। के चन्द्रशेखर राव की बेटी खुद लोकसभा चुनाव हार गयी थी। भाजपा भी यहां पर लोकसभा की चार सीटें जीतने में कामयाब हुई थी। लगभग 20 प्रतिशत वोट हासिल करने में कामयाब हुई थी। अविभाजित आंध्र प्रदेश में कभी भाजपा का प्रभाव भी रहा था। यहां पर हिन्दुत्व का भी प्रभाव रहा है। के चन्द्रशेखर राव कभी संघ के ही स्वयं सेवक थे। अविभाजित आंध्र प्रदेश में संघ और भाजपा का प्रभाव का एक बडा उदाहरण यह है कि 1984 के लोकसभा चुनावों में भी भाजपा एक लोकसभा सीट जीतने में कामयाब हुई थी। तब भाजपा के उम्मीदवार ने बाद में प्रधानमंत्री बने नरसिम्हा राव को हराया था। तेलंगाना में कांग्रेस लगातार कमजोर हो रही है, इसलिए यहां पर भाजपा के लिए बहुत बडी संभावनाएं बनी हैं।
                                             दक्षिणांचल में भाजपा की सबसे कमजोर कडी तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के पलानीस्वामी और उनकी सरकार है। अन्नादमुक की शक्ति भी दो भागों में विभाजित हो गयी है। पिछले लोकसभा के चुनावों में पलानीस्वामी का जादू नहीं चल पाया था। पलानीस्वामी विफल साबित हुए थे। द्रमुक ने पलानीस्वामी को पटकनी दे दी थी। जहां तक पलानीस्वामी की सरकार की बात है तो फिर आक्रोश भी कम नहीं है। पलानीस्वामी उस तरह की राजनीतिक हैसियत और विशेषताएं नहीं रखते हैं जिस तरह की हैसियत और विशेषताएं जयललिता के पास हुआ करती थी। नरेन्द्र मोदी की केन्द्रीय सरकार की कोशिश पलानीस्वामी सरकार को मदद करने की है, इसलिए केन्द्र की योजनाएं भी तेजी से तमिलनाडु में चल रही है। अगर पलानीस्वामी अपने जादू चलाने में सफल हुए तो फिर 2024 में नरेन्द्र मोदी के लिए वरदान भी साबित हो सकते हैं। अभी तक के संकेतों के अनुसार तमिलनाडु में भाजपा और अन्नाद्रमुक मिल कर ही चुनाव लडेंगे। भाजपा की यह कोशिश है कि अगर 2024 के लोकसभा चुनावों में उत्तरांचल, पश्चिमांचल, पूर्वांचल में नुकसान हुआ तो उसकी भरपाई दक्षिणांचल से किया जा सके। दक्षिणांचल में तमिलनाडु ही भाजपा के विस्तार और संभावनाओं के केन्द्र में है। अगर दक्षिणांचल में हिन्दुत्व और मोदी मैजिक का जादू चला तो फिर 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा और मोदी अपनी जीत की हैट्रिक मना सकते हैं।

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Tuesday, November 10, 2020

...अन्यथा नीतीश की राजनीति की इतिश्री होगी

  


     राष्ट्र-चिंतन


       ‘ मोदी मैजिक ‘ से नीतीश कुमार को मिला जीवनदान
...अन्यथा नीतीश की राजनीति की इतिश्री होगी

                                विष्णुगुप्त  


अब नीतीश कुमार की परजीवी राजनीति आगे नहीं चलने     वाली है। नीतीश कुमार को अनैतिकता, अंहकार और अविश्वसनीयता की राजनीति छोडनी होगी। शराबबंदी से आगे की ओर सोचना होगा। बिहार को आधुनिक शिक्षा का हब बनाना होगा, बिहार में कृषि आधारित उघोगधंधे विकसित करने ही होंगे। अन्यथा नीतीश कुमार की राजनीति की भी इति श्री होगी।

 
नीतीश कुमार के खिलाफ बंवडर था, आक्रोश चरम सीमा पर था, कुशासन और भ्रष्टचार से पीड़ित लोग जंगलराज से भी दोस्ती करने के लिए तैयार थे। स्वयं के बल पर नीतीश कुमार में इतनी राजनीतिक शक्ति कतई नहीं थी कि वे अपने खिलाफ उठे चुनावी बवडंर को शांत कर सके, अपने कुशासन व भ्रष्टचार सी पीड़ित लोगों के विरोध को समर्थन में बदल सके। बिहार के कोने-कोने में लोग नीतीश कुमार के खिलाफ उबाल पर थे, कह रहे थे कि हमने कोई एक साल-दो साल नहीं बल्कि पूरे पन्द्र्रह साल दे दिये, फिर भी विकास कोसों दूर क्यों हैं, भ्रष्टचार पहले से बढा ही है, नौकरशाही बेलगाम होकर जनता को पीड़ित बनाती है, नौकरशाही के भ्रष्टचार के खिलाफ बोलने वाले सीधे जेल जाते हैं, या फिर उनकी जान जाती है। आखिर जंगलराज लौटने की डर से नीतीश कुमार के कुशासन, अंहकार और खुशफहमी के मंकडजाल में बिहार का भविष्य बार-बार बलिदान क्यों किया जाये? ले देकर शराबबंदी की कथित उपलब्धि भी चुनाव मैंदान में असरदार नहीं दिख रही थी, कहने का तात्पर्य यह है कि शराबबंदी की कथित उपलब्धि नीतीश कुमार को फिर से सत्ता दिलाने के लिए लोगों को प्रेरित नहीं कर पा रही थी। शराबबंदी के नाम पुलिस के अत्याचार और पुलिस व शराब माफिया की मिलीभगत का खुला खेल बिहारी जनता  देख ही थी। ऐसी स्थिति में बिहार की जनता आसानी से नीतीश कुमार को अपना जनादेश देने के लिए और एक बार फिर अपना भाग्यविधाता चुनने के लिए तैयार कैसे होती? यही कारण है कि नीतीश कुमार बिहार में चुनाव परिणामों के बाद तीसरे नंबर की पार्टी साबित हुई, बिहार की जनता ने लालू यादव की विरासत जंगलराज की वापसी नही चाही और लालू के पुत्र तेजस्वी को खारिज कर दिया पर नीतीश कुमार को भी तीसरे नंबर पर भेजकर कड़ा राजनीतिक संदेश भी दे दिया है। अब राजनीतिक परजीवी नीतीश कुमार को अपने कुशासन को सुशासन में बदलना ही होगा।
                                          हर कोई आश्चर्यचकित है। हर केई के आश्चर्यचकित होने का कारण क्या है? आश्चर्यचकित होने का कारण यह है कि विरोध में इतना बड़ा बंवडर होने और अति आक्रोश के कारण भी नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले राजग गठबंधन को बहुमत क्यों मिला? अगर हम इस प्रश्न का विश्लेषण करते है तो इसका दो ही कारण स्पष्ट है। पहला कारण लालू की विरासत जंगलराज का डर और दूसरा कारण मोदी मैजिक। विहार विधान सभा चुनाव का यह परिणाम दर्शाता है कि बिहार की जनता पर अभी भी लालू के जंगलराज की डर कायम है। लालू के पुत्र भी अपने पिता की जंगलराज की विरासत का प्रतिनिधित्व करते है। हालांकि लालू पुत्र तेजस्वी ने अपने पिता की छ़त्रछाया से बाहर निकलने की पूरी कोशिश की थी। चुनाव प्रचार में तेजस्वी ने अपने माता-पिता यानी लालू और राबडी को दूर कर दिया था, बैनर-पोस्टर पर लालू, राबडी की तस्वीर तक नहीं लगी थी। लेकिन यह दांव भी असफल साबित हो गया। दरअसल जो पीढी लालू राज का जंगलराज देखी है वह आज भी जंगलराज को याद आते ही सिहर उठती  है। जब तक यह पीढी जिंदा रहेगी तब तक लालू या फिर उनकी विरासत को जंगलराज के अपराध से मुक्ति नहीं मिलने वाली है।
                                                          दूसरा बड़ा कारण है मोदी मैजिक। जिस नरेन्द्र मोदी को कभी नीतीश कुमार ने दंगाई कहा था, जिस मोदी के विरोध में नीतीश कुमार ने भाजपा से दोस्ती तोड़ी थी, विश्वासघात कर लालू के जंगलराज से दोस्ती की थी, जिस मोदी के नाम पर खाने पर आमंत्रित कर अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी सहित पूरी भाजपा की टीम को बिना खाना खिलाये भगा कर अपमानित किया था उसी नरेन्द्र मोदी ने इस बार नीतीश कुमार की सत्ता बचायी, नीतीश कुमार की राजनीतिक नैया डूबने से बचायी। कितु-परंतु से यह परे की बात है कि इस बिहार विधान सभा चुनाव में सिर्फ और सिर्फ नरेन्द्र मोदी की छवि ने ही कमाल की है। नरेन्द्र मोदी की छवि ने ही बिहार के मतदाताओं को आकर्षित किया है। नरेन्द्र मोदी ने गठबंधन धर्म पर ईमानदारी दिखायी और कोई एक-दो नहीं बल्कि एक दर्जन से अधिक सभाओं को संबोधित किया था। नरेन्द्र मोदी का आक्रामक प्रचार से हवा बनी, तेजस्वी के महागठबंधन पक्ष में बहती हवा कमजोर हुई और मतदाताओं की गोलबंदी रूकी। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि नरेन्द्र मोदी का जादू बिहार की जनता के सिर पर चढकर क्यों बोली? खासकर कोरोना काल में नरेन्द्र मोदी की वीरता, उज्जवला योजना और स्वच्छता योजना का आकर्षण ने बडा काम किया है। कोरोना काल में आम गरीबों का जीवन किस प्रकार संकट में खडा हुआ है, यह भी जगजाहिर है। नरेन्द्र मोदी ने कोरोना काल में आम आदमी के जीवन को संकट से उबारने के लिए राहतकारी योजनाएं और कार्यक्रम दिये। आम गरीबों को हर माह पांच किलो गेहू, चावल, इसके अलावा दाल, चीनी के साथ ही साथ किरोसन तेल भी मिला। आम गरीबों को फ्री गैस सिलेडर मिला। आम गरीबों के खातों में सहायता राशि भी पहुंची। इस कारण कोरोना काल में आम गरीबों के जीवन संकट कम हुआ। सिर्फ आम आदमी ही नहीं बल्कि किसानों के खातों में घोषित राशि पहुंची। इस कारण नरेन्द्र मोदी की विश्वसनीयता चरम पर पहुंची है। नरेन्द्र मोदी की इसी विश्वसनीयता ने गरीबों को जंगलराज से दोस्ती करने से रोकी।
                                                     आप स्वीकार करें या नहीं करे पर यह सच है कि एक अन्य कारण राष्टवाद भी है, राष्टवाद का सीधा मतलब यहां हिन्दुत्व से है। हिन्दुत्व ने भी जंगलराज से दोस्ती करने से बिहार की जनता को रोकने का काम किया है। भाजपा के 90 प्रतिशत वोटर ऐसे हैं जो विकास या उपलब्धि के नाम पर कदापि वोट नहीं करते हैं, उन्हें कल्याणकारी योजनाएं भी प्रभावित नहीं करती हैं। ऐसे वर्ग के मतदाता सीधे तौर पर हिन्दुत्व को लेकर वोट करते हैं। बिहार की वैसी जनता जो हिन्दुत्व में विश्वास करती है वह सही में लालूराज की विरासत, टूकडे-टूकडे गिरोह का प्रतिनिधत्व करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियों और हिन्दुत्व के जन्मजात विरोधी सोनिया खानदान का महागठबंधन की वापसी की डर से बचैन थी। हिन्दुत्व समर्थकों में यह डर बैठी थी कि अगर तेजस्वी मुख्यमंत्री बनेगा तो बिहार में रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठियों की पौबारह होगी, उन्हें राजनीतिक योजना के तहत बसाया जायेगा। रोहिंग्या-बांग्लादेशी घुसपैठियों का भी एक बड़ा प्रश्न है। ओबैसी को जो बिहार में अभी-अभी पांच सीटें मिली है, उसके पीछे भी रोहिंग्या-बांग्लादेशी घुसपैठियों को कारण के तौर पर देखा जा रहा है। बिहार में अवैध तौर पर लाखों रोहिंग्या-बांग्लादेशी घुसपैठियों को बसाया गया है, जिनके पास अवैध तौर भारतीय नागरिक की सभी सुविधाएं उपलब्ध करा दी गयी हैं। इस खतरे को भांप कर हिन्दुत्व आधारित राजनीतिक धाराएं भाजपा-नीतीश कुमार को जीवन दान देने के लिए तैयार हुई, जिसका सुखद परिणाम सामने है।
               लालू के जंगलराज की तुलना में हम नीतीश कुमार के कुशासन, अनैकिता और खुशफहमी को नजरअंदाज कर देते हैं। बिहार में सृजन घोटाला की कहानी कितना लोमहर्षक है, यह जगजाहिर है। यह 1600 करोड का घोटाला है। मेधा घोटाला जिसमें अनपढ सरीखे छात्रों को बिहार टाॅपर बना दिया गया। परीक्षाओं में सरेआम कदाचार रूका नहीं है। शिक्षा की तस्वीर बदली नहीं। अस्पताल मरनासन्न स्थिति में हैं। शहरी सडकें जरूर ठीक-ठाक है। अधिकतर शहरी सडके केन्द्रीय सरकार की सहायता की देन है। बिहार को आधुनिक टेक्नीकल शिक्षा का हब बनाया जा सकता था, कृषि आधारित उघोग घंधे विकसित हो सकते थे। नौकरशाही और पुलिस कितनी बेलगाम और उत्पीड़क है, अमानवीय है, इसका उदाहरण मुंगेर गोलीकांड है। मुंगेर में निहत्थे लोगों पर पुलिस गोली चलाती है, एक लडके की मौत होती है, दर्जनों लोग घायल होते हैं। इस गोलीकांड को तेजस्वी यादव और चिराग पासवान ने  जालियावाला कांड की संज्ञा दी थी।मुगेर गोलीकांड की खलनायक पुलिस अधीक्षक लिपि सिंह नीतीश कुमार की चहैती रिश्तेदार थी। फिर भी नीतीश कुमार इस गोलीकांड पर कोई पचतावा प्रदर्शित नहीं किया।
                                      नीतीश कुमार में अनैतिकता और अविश्वसनीयता कितनी है? यह भी देख लीजिये। लालू के जंगलराज से मुक्ति के नाम पर जनादेश मांग कर सत्ता में आये और फिर लालू से ही दोस्ती कर ली। फिर लालू के साथ विश्वासधात कर उसी भाजपा के साथ दोस्ती कर ली जिससे पहले उसने विश्वासघात किया था। भाजपा की कमजोरी कहिये या फिर राजनीतिक दरियादिली कहिये कि उसने एक बार पहले ही विश्वासघात करने वाले नीतीश कुमार को फिर से गले लगाने का काम किया। अपने राजनीतिक गुरू जार्ज फर्नाडीस के साथ भी नीतीश कुमार ने विश्वासघात किया था। शरद यादव को भी अलोकतांत्रिक ढंग से जद यू से बाहर कर दिया था।
                                                          नीतीश कुमार राजनीतिक रूप से परजीवी प्राणी है। कभी लालू तो कभी भाजपा के सहारे ही सत्ता में स्थापित होते हैं। जद यू का कोई समृद्ध कैडर भी नहीं बनाया है। पूरे बिहार की भी जद यू पार्टी नहीं है। बिहार में जद यू से बडी पार्टी हमेशा राजद रही है। राजनीतिक रूप से परजीवी होने के बावजूद नीतीश कुमार प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देखते हैं और चाहते हैं कि सभी पार्टियां मिलकर उन्हें प्रधानमंत्री बना दे। नीतीश कुमार प्रधानमंत्री बनने की अति इच्छा जरूर रखें पर अपनी पार्टी को बिहार से बाहर जैसे यूपी, एमपी, हरियाणा, महराष्ट, कर्नाटक आदि तक विस्तार करने का साहस तक क्यों नहीं करते हैं?
                                            अब नीतीश कुमार की परजीवी राजनीति नहीं चलने वाली है। नीतीश कुमार को अनैतिकता, अंहकार और अविश्वसनीयता की राजनीति छोडनी होगी। शराबबंदी से आगे की ओर सोचना होगा। बिहार को आधुनिक शिक्षा का हब बनाना होगा, बिहार में कृषि आधारित उघोगधंधे विकसित करने ही होंगे। अन्यथा नीतीश कुमार की राजनीति की भी इतिश्री होगी।


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VISHNU GUPT
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Tuesday, November 3, 2020

मायावती का क्यों उमड़ा भाजपा प्रेम ?

 राष्ट्र-चिंतन

मायावती का क्यों उमड़ा भाजपा प्रेम ?

        विष्णुगुप्त



मायावती हमेशा राजनीतिक अभिशाप के घेरे में रहती हैं जिससे निकलने की वह पूरी कोशिश तो करती है पर निकल नहीं पाती हैं। पहला राजनीतिक अभिशाप केन्द्रीय सरकार के समर्थन में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रहना और दूसरा अभिशाप मायावती के विधायकों-सांसदों का टूटना, विरोध कर दूसरी राजनीतिक पार्टियों के साथ चला जाना है। ये दोनों अभिशापों के काट के लिए मायावती कभी-कभी आश्चर्यजनक ढंग राजनीतिक पैंतरेबाजी भी दिखाती है। राजनीतिक पैंतरेबाजी के कारण उन्हें भारतीय राजनीति में सर्वाधिक अविश्वसनीय राजनीतिज्ञ माना गया है।
                                               फिर भी मायावती की राजनीतिक हैसियत बनी रहती है, कभी वह महत्वहीन की श्रेणी में नहीं होती है। इसका कारण क्या है? इसका कारण दलित अस्मिता का प्रहरी होना है। निश्चित तौर पर मायावती दलित राजनीति की सर्वश्रेष्ठ और हस्तक्षेप कारी प्रहरी है। उत्तर प्रदेश जैसे देश के बडे राज्य पर वह स्वयं के बल पर कभी अपनी सरकार बनाने में वह कामयाब हो चुकी हैं, करिश्मा कर चुकी है। कभी भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी भी उत्तर प्रदेश में मायावती के साथ गठबंधन कर चंुकी है। यह अलग बात है कि मायावती हर बार गठबंधन के धर्म के विरूद्व गयी और गठबंधन वाले दल को कोसने और खिल्ली उड़ाने में भी पीछे नहीं रही। अविश्वसनीय हो जाना, बार-बार निष्ठांए बदल देना एक नुकसानकुन राजनीतिक प्रक्रियाएं हैं जिस पर चलने वाली राजनीतिक पार्टियां और राजनेता लंबे समय तक अपने आप को भारतीय राजनीति में हस्तक्षेपकारी भूमिकाओं में असफल ही साबित होते हैं। जब तक काशी राम की छ़त्रछाया थी तब तक दलित संवर्ग पूरी तरह आंख मुंद कर बसपा पर विश्वास करते थे, बसपा के समर्थन में उफान उत्पन्न करते थे, राष्ट्रीय राजनीति में बसपा के समर्थक अपनी उपियोगिता और भूमिका में चर्चित रहते थे। काशी राम की छत्रछाया उठने के बाद मायावती के सामने बसपा को भारतीय राजनीति में हस्तक्षेपकारी भुमिका निभाने में कामयाबी नहीं मिली है। बसपा का जनाधार धीरे-धीरे घट रहा है, बसपा की उफान की राजनीति भी लगभग दम तोड़ चुकी है।
                                    मायावती ने फिर पैंतरेबाजी दिखायी है, फिर आश्चर्यचकित की है। मायावती की यह पैंतरेबाजी और आश्चर्यचकित करने की राजनीति ने देश की राजनीति का ध्यान खींचा है। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि मायावती की पैंतरेबाजी क्या है, मायावती की आश्चर्यचकित करने वाली राजनीति क्या है? दरअसल मायावती ने वर्षो बाद एक बार फिर भाजपा प्रेम दिखायी है। मायावती ने घोषणा कर डाली है कि वह भाजपा प्रेम से भी पीछे नहीं हटेगी, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव को राजनीतिक रूप से हाशिये पर भेजने के लिए वह भाजपा के साथ दोस्ती करने के लिए तैयार है, सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि उसने बिहार के विधान सभा चुनावों में भाजपा का समर्थन करने की भी घोषणा कर डाली। उनकी इस घोषणा से भारतीय राजनीति आश्चर्यचकित है। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि कांग्रेस की भी आलोचना करने में मायावती पीछे नहीं रहती हैं। कांग्रेस ने इधर उत्तर प्रदेश में अपनी सक्रिया निश्चित तौर पर बढायी है, उत्तर प्रदेश में मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी जरूर है, समाजवादी पार्टी के बाद बसपा तीसरी शक्ति की पार्टी है। पर राजनीतिक घटनाओं के लेकर समाजवादी पाटी और बसपा की सक्रियता उतनी उफान वाली नहीं होती है, उतनी चर्चित नहीं होती है जितनी उनसे उम्मीद थी या फिर जितनी चर्चित भूमिकाएं कांग्रेस निभाती है। हाथरस जैसी घटनाएं हो या फिर लोकडाउन जैसे संकट हर मामले में कांग्रेस सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को संकट में डालने और भाजपा की आलोचना में आगे रहने की भूमिका निभायी है। उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की सक्रियता काफी सशक्त रही है, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की राजनीतिक सक्रियता के कारण भाजपा काफी दबाव में रही है। जब-जब राहुल गांधी और प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश में सक्रिय होकर राजनीतिक उफान उत्पन्न करते हैं तब तब मायावती विरोध में खडी हो जाती है, मायावती कांग्रेस, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को दलित विरोधी ठहरा कर भाजपा का काम या संकट को आसान कर देती है।
                                मायावती की वर्तमान राजनीति पैंतरेबाजी की दो राजनीतिक श्रेणियां है। पहली श्रेणी भाजपा के समर्थन में खडी होना, दूसरी श्रेणी है अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी को मटियामेट करने का अहम भरना। दोनों श्रेणियों के पीछे कारण क्या है? आखिर मायावती अचानक भाजपा प्रेम क्यों आ गयी और अखिलेश को मटियामेट करने की कसम क्यों खाने लगी?दसअसल राजनीतिक पैंतरेबाजी की यह दोनों श्रेणियां उत्तर प्रदेश राज्यसभा के चुनाव से निकली हैं। मायावती का सीधा आरोप है कि अखिलेश यादव ने उनके साथ विश्वासघात किया है, बसपा को तोडने का कार्य किया है। वास्तव में इसके पीछे अखिलेश यादव की राजनीतिक चाल भी है। मायावती कहती है कि उसने अखिलेश यादय से बात कर ही राज्यसभा चुनाव में अपना प्रत्याशी उतारा था। लेकिन ने अखिलेश ने निर्दलीय उम्मीदवार का समर्थन कर विश्वासघात किया है। मायावती के करीब आठ विधायकों ने बगावत कर दिया। इस बगावत के पीछे अखिलेश यादव की कारस्तानी मानी थी। हालांकि मायावती को कोई नुकसान नहीं हुआ। भाजपा की वजह से मायावती का राज्य सभा चुनाव में खडा प्रत्याशी चुनाव जीतने में सफल हो गया। भाजपा के पास नौ प्रत्याशियों को जीताने के लिए वोट थे लेकिन उसने आठ ही प्रत्याशी खडी की थी। इस कारण मायावती का प्रत्याशी भी चुनाव जीत गया। अगर भाजपा ने नौ प्रत्याशी चुनाव में उतारे होती तो निश्चित तौर पर बसपा का प्रत्याशी चुनाव हार जाता और बसपा अखिलेश यादव की कारस्तानी की शिकार हो जाती।
                                                     मायावती का भाजपा प्रेम क्यों जागा? इस पर विचार करेंगे तो पायेंगे कि यह तो मायावती की राजनीतिक चरित्र में शामिल है। वह केन्द्रीय सत्ता के साथ कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष तौर साथ रहती है। मायावती कभी भी केन्द्रीय सरकार के विरोध में रह ही नहीं सकती है। उदाहरण भी देख लीजिये। कांग्रेस के दस साल की सरकार का वह बाहर से अप्रत्यक्ष तौर पर समर्थन की थी। कांग्रेस के पास पूर्ण बहुमत भी नहीं था फिर भी कांग्रेस ने बसपा से समर्थन भी कभी नहीं मांगा। फिर मायावती समर्थन में खडी रही। संसद में बसपा कभी जरूरत के अनुसार बायकाॅट कर देती थी तो कभी जरूरत के अनुसार संसद के अन्दर कांग्रेस के समर्थन में बसपा खडी हो जाती थी। ऐसा इसलिए करती थी कि उन पर कांग्रेस सरकार की तलवार हमेशा लटकती रहती थी? अब आप कहेंगे कि कैसी तलवार? मायावती के भ्रष्टचार और आय से अधिक संपति रखने का हथकंडा कांग्रेस पकड कर रखी थी। जब-जब मायावती कांग्रेस के खिलाफ जाने की कोशिश करती तब तब कांग्रेस भ्रष्टचार और आय से अधिक संपत्ति रखने का हथकंडा चला देती थी, फिर मायावती कांग्रेस के पक्ष में मिमियाती रहती थी। नरेन्द्र मोदी सरकार के समय में भायावती के भाई के घर छापा पडा था। आयकर विभाग ने छापा मारा था। आयकर विभाग के छापे में जो कुछ बरामद हुआ और सामने आया उससे देख कर लोग आश्चर्यचकित थे। मायावती के भाई का कोई बडा ब्यापार नहीं था, उसकी कोई फैक्टरी नहीं थी, सोना उगलने वाला कोई खान नहीं था फिर भी उसके यहां से चार सौ करोड़ से अधिक की संपत्ति पायी गयी थी। अगर इस पर आयकर विभाग की वीरता होती और इसके घेरे में मायावती को लिया जाता तो फिर शशिकला की तरह मायावती भी जेल की चक्की पिसती रहती और फिर मायातवी की राजनीति पूरी तरह से समाप्त हो जाती।
                                      भाजपा प्रेम से मायावती को क्या मिलेगा? शायद मायावती को कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। केन्द्र में भाजपा को पूर्ण बहुमत है, उत्तर प्रदेश में भी भाजपा को पूर्ण बहुमत है। इसलिए भाजपा को काई खास लाभ होने वाला नहीं है। रही बात 2022 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव की तो उसमें भी भाजपा को कोई खास लाभ होने वाला नहीं है। भाजपा यह जानती है कि कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी अलग-अगल लडती है तो फिर उसका लाभ भाजपा को ही मिलेगा। मायावती जितना भी अखिलेश यादव और कांग्रेस के खिलाफ बोलेंगी उतना ही भाजपा को लाभ होगा। भाजपा को मुस्लिम वोटों के एकीकरण से परेशानी होती है। समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी अलग-अलग लडेगी तो फिर मुस्लिम वोटों का विभाजन होगा। मुस्लिम वोट तो वहां जरूर बंटेगा जहां पर मुस्लिम प्रत्याशी टकरायेंगे या फिर समाने होंगे। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बसपा मुस्लिम वोटों के लिए पागल ही रहती है, इनमें होड भी होती है। इसलिए मायावती से अलग रहना ही भाजपा के लिए फायदेमंद हैं। इस समीकरण पर मायावती का भाजपा प्रेम घाटे का सौदा है।
                              क्षणे रूष्टा, क्षणे तुष्टा की राजनीति से कोई विश्वसनीयता नहीं बनती है। मायावती को इससे हानि होती है, उनकी राजनीति विश्वसनीयता की सहचर नहीं होती है बल्कि विश्वासघात की श्रेणी में खडी हो जाती है। मायावती को अब राजनीति के संपूर्ण पक्ष को आत्मसात करना चाहिए। सिर्फ दलित उफान और मुस्लिम तुष्टिकरण से सरकार बनाने की शक्ति हासिल नहीं हो सकती है। अगर ऐसा होता तो मायावती निश्चित तौर पर मायावती हमेशा सरकार में बनी रहती। दलितों का भी अब मायावती से मोह भंग हो रहा है। दलित वर्ग पर भाजपा का वर्चस्व बढ रहा है। इसलिए मायावती को विश्वसनीय बनने की जरूरत है।


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विष्णुगुप्त
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