Monday, February 22, 2021

अडानी-अंबानी प्रेम में सब पागल हैं

 राष्ट्र-चिंतन

 अडानी-अंबानी प्रेम में सब पागल हैं

         विष्णुगुप्त

भारतीय राजनीति के केन्द्र में जब से नरेन्द्र मोदी का उदय हुआ है तब से अडानी-अंबानी का जूमला भी सरेआम हुआ है, नरेन्द्र मोदी के विरोधियों के मुंह से बोला जाने वाला सर्वाधिक प्रिय जूमला है। नरेन्द्र मोदी के विरोधी अडानी और अंबानी के जूमले से जनता को आकर्षित करना चाहते हैं, उनकी समझ यह भी है कि इस जूमले से नरेन्द्र मोदी की राजनीतिक छवि को घूमिल किया जा सकता है, उनकी केन्द्रीय सत्ता को पराजित किया जा सकता है। इसी उद्देश्य से विरोधी देश की राजनीति के केन्द्र में अडानी-अंबानी का विरोध हमेशा रखते है, प्रमुखता के साथ उठाते हैं। अभी-अभी किसान आंदोलन और तीन कृषि कानूनों को लेकर भी अडानी-अंबानी का जूमला विरोध के केन्द्र में हैं। कृषि कानूनों के विरोधी किसान संगठनों और विपक्षी राजनीतिक पार्टियां यह कह रही हैं कि देश की जमीन अडानी और अंबानी को देने की साजिश है, किसानों की किस्मत पर अडानी-अंबानी की बूरी और टेढी नजर है, अब खेती भी अडानी-अंबानी जैसे कारपोरेट घराने करेंगे, किसान सिर्फ मजदूर बन कर रह जायेंगे। संसद के अंदर में राहुल गांधी ने एक भाषण दिया था जिसमें न केवल नरेन्द्र मोदी-अमित शाह को घेरा था बल्कि अडानी और अंबानी को भी घेरा था। राहुल गांधी ने संसद के अंदर कहा था कि हम दो और हमारे दो की सरकार चल रही है, यही देश के गरीबों को लूटना चाहते हैं, किसानों की किस्मत लूटना चाहते हैं। राहुल गांधी के इस वाक्य का अर्थ राजनीति में खूब चर्चित हुआ। हम दो का मतलब नरेन्द्र मोदी और अमित शाह था और  हमारे दो का मतलब अडानी-अंबानी से था। जहां तक राहुल गांधी का प्रश्न है तो वह अपने हर भाषण में, हर कार्यक्रम में अडानी-अंबानी की आलोचना का कोई अवसर नहीं गंवाते हैं। राहुल गांधी और अन्य विपक्षी नेताओं के अडानी-अंबानी जूमले का प्रतिकार नरेन्द्र मोदी यह कह कर करते रहे हैं कि विकास और उन्नति के लिए निजी क्षेत्र का भी सम्मान जरूरी है, निजी क्षेत्र की सहभागिता के बिना देश का विकास और उन्नति संभव नहीं है।
                                 अडानी-अंबानी से संबंधित एक ऐसी खबर सामने आयी है और खबर भी पूरी तरह से सच है जिसमें खुद राहुल गांधी ही नहीं बल्कि अन्य विपक्षी पार्टियां भी प्रश्नों के घेरे में कैद हैं। खासकर राहुल गांधी की कांग्रेस पार्टी का चेहरा बेनकाब होता है, कांग्रेस का भी अडानी-अ्रबानी प्रेम की कहानी उजागर होती है। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि अडानी-अंबानी और कांग्रेस से जुडी हुई खबर क्या है? खबर यह है कि कांग्रेस की राजस्थान सरकार और कांग्रेस गठबंधित महाराष्ट सरकार ने जोरदार अडानी प्रेम दिखाया है, सिर्फ प्रेम ही नहीं दिखाया है बल्कि इन दोनों सरकारों ने अपने-अपने यहां अडानी के बडे ठेके भी दिये हैं। राजस्थान के कांग्रेसी गहलौत सरकार ने अडानी ग्रुप को सोलर पावर प्रोजेक्टस और महाराष्ट सरकार ने दिघी पोेर्ट के ठेके दिये हैं। राजस्थान की कांग्रेसी सरकार की इच्छा के अनुसार अडानी ग्रुप राजस्थान में 8700 मेगावाॅट से सोलर हाईब्रिड और विंड एनर्जी पार्क विकसित करेगा। कुल पांच सोलर पावर प्रोजेक्ट में अडानी ग्रुप कोई 50 हजार करोड का निवेश करेगा। राजस्थान सरकार का मानना है कि इन पांचों सोलर प्रोजेक्टों के माध्यम से दो काम होंगे एक तो स्थानीय लोगों को भी रोजगार मिलेगा और दूसरा कार्य यह होगा कि राजस्थान उर्जा के मामले में आत्मनिर्भर हो जायेगा। उधर महाराष्ट सरकार ने भी अडानी पर कृपा बरसायी है। महाराष्ट सरकार ने अपना दिघी पोर्ट को अडानी ग्रंुप को सौंप दिया है। अडानी ग्रुप ने 705 करोंड़ रूपयों में दिघी पोर्ट की सभी हिस्सेदारियां खरीद ली है। दिघी पोर्ट में 10 हजार करोंड रूपये का निवेश करने की योजना अडानी ग्रुप की है। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि मुबई स्थित जवाहरलाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट के लिए वैकल्पित गेटवे तैयार करने जा रहा है अडानी ग्रुप। महाराष्ट सरकार के अडानी प्रेम का ठिकरा कांग्रेस शिव सेना के सिर पर नहीं फोड सकती है। इसलिए कि पोर्ट मंत्रालय कांग्रेस के पास ही है। इसलिए महाराष्ट की शिव सेना नेतृत्व वाली सरकार कांग्रेस की अवहेलना कर पोर्ट के ठेके और विकास की जिम्मेदारी अडानी ग्रुप को दे ही नहीं सकती है।?
                            राजस्थान और महाराष्ट सरकारों के अडानी प्रेम को देखने के बाद यह मान लेना चाहिए कि अडानी-अंबानी के हमाम में कौन नहीं नंगा है, सभी नंगे हैं, भाजपा भी नंगी है, कांग्रेस भी नहीं नगंी है, शिव सेना भी नंगी है,अन्य विपक्षी पार्टियां भी नंगी है। सिर्फ राजनीतिक पार्टियों के इतिहास को देखने और निष्पक्ष रह कर विश्लेषण करने की जरूरत होनी चाहिए। सिर्फ नरेन्द्र मोदी या भाजपा के लिए ही अंडानी-अंबानी जैसे उद्योगपति और कारापोरेट घराने प्रिय नही है बल्कि ंकांग्रेस के लिए, चन्दबाबू नायडू, जगन रेड्डी, मूलायम-अखिलेश यादव, लालू यादव या फिर सोरेन परिवार, बादल परिवार, करूणानिधि परिवार सभी अडानी-अंबानी जैसे उद्योगपतियों और कारपोरेट घरानों के प्रेम में कैद रहे हैं।
                       अडानी-अंबानी का इतिहास देख लीजिये। अडानी और अंबानी का इतिहास कोई आज का नहीं है। जब नरेन्द्र मोदी का सत्ता राजनीति में उदय तक नहीं हुआ था तब से अडानी-अंबानी का अस्तित्व है। अडानी ग्रुप 1980 के दौरान अस्तित्व में आया था जबकि अंबानी के रिलायंस ग्रुप का अस्तित्व 1980 के पूर्व से है। जब इन दोनों कंपनियों का उदय 1980 से पूर्व का है तब इनके संबंध केन्दीय और राज्य सरकारों से कैसे नहीं होंगे। उस काल में तो केन्द्रीय सत्त और राज्य सत्ता में कांग्रेस ही होती थी। यह भी एक तथ्य है कि कोई भी उद्योगपति और कारपोरेट घराना बिना सत्ता के सहयोग का आगे नहीं बढता है, इस कसौटी पर अडानी-अंबानी जैसे उद्योगपतियों और कारपोरेट घरानों को कांग्रेस की तत्कालीन कांग्रेस की केन्द्रीय और राज्य सरकारों से सहयोग कैसे नहीं मिला होगा।
                             रिलायंस ग्रुप के संस्थापक धीरू भाई अंबानी थे। धीरू भाई अंबानी के इन्दिरा गांधी के अच्छे संबंध थे। इन्दिरा गांधी के कार्यकाल में ही धीरू भाई अंबानी की किस्मत चमकी थी, धीरू भाई अंबानी देश के अग्रणी टाटा-विडला जैसे उद्योगपतियों की श्रेणी में खड़ा हुआ था। दिल्ली की राजनीति में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी और धीरू भाई अंबानी के कई आर्थिक किस्से अभी भी कुख्यात रूप से चर्चा के केन्द्र में रहते हैं। इन्दिरा गांधी की सत्ता कार्यकाल में खास कर कम्युनिस्ट पार्टिया हल्ला करती थी कि देश में टाटा-बिडला की सरकार चल रही है। उस काल मेें टाटा-बिड़ला की तूती बोलती थी, देश के सिरमौर औद्योगिक घराने टाटा और बिडला ही थी। मूलायम सिंह यादव का अंबानी प्रेम कौन नहीं जानता है। मुलयाम सिंह यादव ने अनिल अंबानी को राज्य सभा में भेजा था और कहा था कि अनिल अंबानी यूपी का विकास करेंगे। गरीबों की बात करने वाले लालू प्रसाद यादव भी किंग महेन्द्रा जैसे उद्योगपतियों के मददगार रहे हैं। बसपा की राजनीति में कभी संजय डालमियां और अखिलेश दास जैसे उद्योगपति नामित रहे हैं। कम्युनिस्ट पार्टियां भी इससे अलग नहीं रही हैं। पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टियों ने यूनियनबाजी में पश्चिम बंगाल का कबाडा किया और फिर टाटा प्रेम में पागल हो गयी थी। सिंदुर प्रकरण में कम्युनिस्ट पार्टियों की सरकार गयी थी। ममता बनर्जी भी बार-बार निवेशक सम्मेलन कर औद्योगिर घरानों की बांट जोहती रही। इतिहास और तथ्य राजनीतिज्ञों का औद्योगिक घराना प्रेम बहुत ही लम्बा-चैडा है।
                          निजी क्षेत्र का विकल्प क्या है? यह प्रश्न अब तक अधूरा है। सरकारी क्षेत्र से विकास और उन्नति की बात अब बईमानी हो गयी है। सरकारी क्षेत्र में सक्रियता और समर्पण की कमजोरी है। सरकारी क्षेत्र प्रशिक्षित ढंग से काम नहीं करता है। सरकारी क्षेत्र में एक बार नौकरी पाने के बाद 60 साल की उम्र तक वह शंहशाह बन जाता है, उसे नौकरी जाने का डर नहीं होता है, नौकरी गयी भी तो महंगे वकील और अन्य हथकंडों से न्याय लूट लेता है। सरकारी क्षेत्र की कंपनियां दिन प्रतिदिन अवसान की ओर लुढक रही है उनकी शेयर बाजार कीमत मिट्टी में मिल रही हैं। इसलिए निजी क्षेत्र का डंका बज रहा है।
                                काला घन सोधन भी बडा प्रश्न है। राजनीतिक पार्टियों और राजनीतिज्ञों के काला धन का संरक्षण अडानी और अंबानी जैसे ही उद्योगपति घराने ही करते हैं। राजनीतिक पार्टियां और राजनीतिज्ञ चुनावों में अपने कालेधन का ही इस्तेमाल करते हैं।यही कारण है कि सभी पार्टियों और नेताओं के अपने-अपने अडानी-अंबानी जैसे उद्योगपति हैं। इसलिए अडानी-अंबानी के प्रेम सभी पार्टियां, सभी नेता पागल हैं। यही कारण है कि मोदी के खिलाफ राहुल गांधी और पूरे विपक्ष का अडानी-अंबानी जूमले पर जनता कोई खास रूचि नहीं दिखाती है।




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Monday, February 15, 2021

‘ सीएए ‘ बनेगा चुनावी हथियार ?

  राष्ट्र-चिंतन

‘ सीएए ‘ बनेगा चुनावी हथियार ?

       विष्णुगुप्त



नागरिकता संशोधन अधिनियम यानी सीएए फिर से राजनीति के केन्द्र मे आ गयी है और राजनीति को उथल-पुथल कर रही है। पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में एक मजबूत हथकंडा नागरिक संशोधन अधिनियम भी बनने जा रही है। केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने घोषणा की है कि कोरोना के खिलाफ टिकाकरण पूरा होते ही सीएए को लागू कर दिया जायेगा, वंचितों को नागरिकता देने का कार्य पूरा होगा।
                     केन्द्र की सत्ता पर राज करने वाली भाजपा पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में सीएए को लेकर उथल-पुथल मचाने और मतदाताओं को आकर्षित करने की राजनीतिक योजना पर न केवल कार्य कर रही है बल्कि सीएए को अपनी चुनावी राजनीति का प्रमुख हथियार भी बना रही है। भाजपा को यह उम्मीद है कि पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में नागरिकता संशोधन अधिनियम का उसका यह चुनावी हथियार मतदाताओं के सिर पर चढ कर बोलेगा और मतदाताओं को आकर्षित कर उसकी सत्ता किस्मत को चमकायेगी।
                        प्रतिकिया में विपक्ष भी सकिय है। विपक्षी भी सीएए को लेकर विरोध की आग को भड़काने में कहां पीछे रहने वाला है। खासकर कांग्रेस सीएए के विरोध में अपनी चुनावी गतिविधियां भी शुरू कर दी है। असम में राहुल गांधी ने सीएए विरोधी गमछा ओढ कर यह दर्शा दिया है कि भाजपा अगर समर्थन में मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने का खेल-खेल रही है तो फिर कांग्रेस भी इसके काट के लिए पीछे नहीं रहेगी और कांग्रेस भी सीएए के विरोध में मतदाताओं को आकर्षित कर अपनी चुनावी राजनीति को चमकाने की कोशिश करेगी। जबकि पश्चिम बंगाल और केरल में कम्युनिस्ट पार्टियां यह पहले ही जाहिर कर चुकी हैं कि किसी भी राजनीतिक परिस्थति में सीएए को लागू नहीं होने देगी। केरल के कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने साफ कहा है कि भाजपा को सीएए का लाभ नहीं लेने दिया जायेगा, सीएए के खिलाफ मे भाजपा की पूरी घेराबंदी होगी, विजयन का यह भी कहना है कि धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियों के सामने भाजपा का यह सीएए का दांव बेमौत मरेगा। उपर्युक्त चुनावी राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए यह मानना ही होगा कि सीएए अब चुनावी शक्ति हासिल करने का हथियार बन गया है।
                                  सीएए को भाजपा क्यों चुनावी राजनीतिक हथियार बना रही है? इसमें भाजपा को कौन सी मजबूरी है? क्या भाजपा के सामने अन्य सभी चुनावी हथियार चूक गये हैं? निश्चित तौर पर भाजपा के सामने यह एक मजबूरी भी है। भाजपा के पास जो स्थायी चुनावी हथियार होते थे वे सभी चुनावी हथियार अब असरदार नहीं रहे, सामयिक नहीं रहे, कारगर नहीं रहे, इन हथियारों का एक्सपायरी देट समाप्त हो चुके हैं। जैसे कश्मीर और धारा 370 तथा रामजन्म भूमि मंदिर निर्माण का चुनावी हथियार। भाजपा ने अपनी कश्मीर समस्या का समाधान कर चुकी है और अपने चुनावी वायदे धारा 370 को भी समाप्त कर पूरा कर चुकी है। रामजन्म भूमि मंदिर निर्माण का राजनीतिक एजेंडा पूरा हो चुका है, रामजन्म भूमि मंदिर निर्माण की सभी न्यायिक प्रक्रियाएं पूरी हो गयी हैं और कुछ सालों में ही अयोध्या में भव्य रामजन्म भूमि मंदिर का निर्माण होना निश्चित है। इसलिए इन प्रश्नों और हथियारों की एक्सपायरी देट समाप्त हो चुके हैं। भाजपा अपने इन पुराने चुनावी हथियारों को लेकर अपनी चुनावी किस्मत नहीं चमका सकती है, मतदाताओं को लुभाने का कार्य नहीं कर सकती है।  भाजपा को नये राजनीतिक हथियार की जरूरत थी, नये हथियार से ही वह अपनी विरोधी राजनीतिक पार्टियों का शिकार कर सकती है। नये राजनीतिक हथियारों की खोज सीएए तक पहुंच कर ही समाप्त होती है। सीएए से बड़ा राजनीतिक चुनावी हथियार भाजपा के पास और कोई हो ही नहीं सकता है। यह एक ऐसा राजनीतिक हथियार है जिसकी चर्चा मात्र से ही समर्थन और विरोध की राजनीतिक गोलबंदी शुरू हो जाती है, सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि राजनीतिक सवर्ग को उथल-पुथल मचा देने की शक्ति रखता है।
                          सीएए को लेकर भारतीय राजनीति अभिशप्त रही है। भारतीय राजनीति में सीएए ने किस प्रकार से उथल-पुथल मचाया, किस प्रकार से विश्वास और घृणा दोनों प्रकार की राजनीतिक संवेदनाएं उत्पन्न की है,यह भी जगजाहिर है। जब पाकिस्तानी हिन्दू शरणार्थी अपने बच्चों के जन्म पर उनका नामंांकरण ‘नागरिक ‘ के तौर पर करता है, यानी अपने बच्चे का नाम नागरिक रखता है तब यह जाहिर होता है कि सीएए को लेकर विश्वास भी है, समर्थन भी है, आशा भी है और संवेदनाएं भी हैं। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि सीएए को लेकर समर्थन, संवेदनाएं और विश्वास क्यों हैं? समर्थन, संवेदनाएं और विश्वास इसलिए है कि 1947 के बाद ऐसे कई समूह और वर्ग हैं जो मजहबी आधार पर पीड़ित होकर, उत्पीड़ित होकर अपने जीवन को बचाने के लिए भारत में शरणार्थी बनना स्वीकार किया था और भारत सरकार ने जिन्हें शरणार्थी के रूप में स्वीकार किया था को आज तक भारत की नागरिकता नहीं मिली। ऐसे संवर्ग के जिन समूहों के नाम सबसे आगे हैं उनमें कश्मीर में पाकिस्तान से पीड़ित होकर आने वाले शरणार्थी, असम में बांग्लादेश से आये शरणार्थी और पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश से आये शरणार्थी शामिल हैं और अरूणाचल प्रदेश, मणिपुर आदि प्रदेशों में चकमा आदिवासी समूह हैं। इसके अलावा इधर पाकिस्तान से मजहबी आधार पर पीडित होकर आये हिन्दू समूह भी हैं। इन सभी समूहों को सीएए के माध्यम से नागरिकता मिलने की उम्मीद है।
                       सीएए का विरोध घृणा, हिंसा और प्रतिहिंसा में तब्दील हुआ है। विरोध में खडी शाहिन बाग की धारा भी उल्लेखनीय है। शाहीन बाग की विरोध धारा ने देश के अंदर में कैसी राजनीतिक संकट उत्पन्न की थी, यह भी जगजाहिर है। महीनों तक शाहीन बाग की विरोध धारा जलती रही। देश-विदेश तक शाहीन बाग विरोध की धारा की आग पहुंचती रही। धीरे-धीरे शाहीन बाग विरोध धारा की आग पूरे देश में फैल गयी। जगह-जगह पर शाहीन बाग बन गये। देश की राजधानी दिल्ली तो दंगों की भेंट भी चढ गयी। जैसे ही शाहीन बाग की विरोध धारा दिल्ली के अन्य जगहों पर फैली वैसी इसके विरोध की राजनीतिक प्रकियाएं भी तेज हुई। फलस्वरूप राजनीतिक टकराहट का जन्म हुआ। राजनीतिक टकराहट कभी-कभी हिंसक रूप धारण कर लेता है। दिल्ली में सीएए का विरोध और समर्थन का खेल राजनीतिक हिंसा में बदल गया। दिल्ली में भयानक दंगे हुए। इन दंगों में हिन्दुओं को बडा नुकसान पहुंचाया गया। दंगों में मारे जाने वाले सबसे ज्यादा हिन्दू थे। नरेन्द्र मोदी की सरकार पर यह प्रश्न खड़ा हुआ था कि दिल्ली दंगों में हिन्दुओं की जानमाल की सुरक्षा क्यों नहीं कर पायी? दिल्ली दंगों के कारण शाहिन बाग की विरोध धारा कमजोर हुई, शक्तिहीन हुई। कोरोना शुरू होने के साथ ही साथ शाहीन बाग की विरोध धारा को भी समाप्त होना पड़ा।
                  सीएए का प्रश्न हिन्दू-मुस्लिम में विभाजन रेखा बनाता है। समर्थन में हिन्दू हैं और विरोध में मुसलमान हैं, ऐसा राजनीतिक संदेश दिया गया है और यह राजनीतिक संदेश गहरी पैठ बना चुका है। ऐसा संदेश भाजपा के लिए प्राण वायु होता है। ऐसी ही विभाजन रेखा भाजपा चाहती है। ऐसी ही विभाजन रेखा भाजपा की किस्मत चमकाती है। कश्मीर, धारा 370 और रामजन्म भूमि मंदिर के प्रश्न पर भी भाजपा ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच खाई उत्पन्न की थी, विभाजन रेखा बनायी थी और इसी विभाजन रेखा के माध्यम से भाजपा केन्द्रीय सत्ता तक भी पहुंची। सीएए के विरोध में अतिरंजित राजनीतिक प्रक्रियाएं जो अपनायी गयी उससे हिन्दू मतों में उफान पैदा हुआ है, कट्टर हिन्दुओं के बीच में अपनी अस्मिता लेकर चिंता पसरी है। कई जिहादी मुस्लिम संगठनों की सक्रियता भी जगजाहिर हुई। विदेशों से मिली सहायता भी एक चिंताजनक विषय वस्तु है। इसलिए भाजपा के पक्ष में सीएए का प्रश्न रहा है।
                            यक्ष प्रश्न यह है कि सीएए का हथियार भाजपा को कितना लाभ देगा? जिन पांच राज्यों में विधान सभा का चुनाव हैं उनमें सिर्फ असम में भी भाजपा सत्तासीन है जबकि पांडेचरी, पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु में भाजपा विपक्ष में है। तमिलनाडु में भाजपा सहयोगी  के रूप में चुनाव लडेगी। तमिलनाडु मे अनाद्रमुक भाजपा की बडी सहयोगी होगी। इसलिए तमिलनाडु में सीएए को लेकर भाजपा बहुत ज्यादा गंभीर नहीं होगी। पर दो राज्य ऐसे हैं जहां पर भाजपा सीएए के प्रश्न पर ही सत्ता हासिल करेगी। असम में भाजपा सीएए को लेकर विपक्ष का शिकार करेगी, सीएए को लेकर असम में तेज आंदोलन हुआ है। भाजपा को उम्मीद है कि सीएए को चुनावी हथियार बनाने से असम में उसकी सरकार फिर से बनेगी। सबसे बड़ा दांव तो भाजपा पश्चिम बंगाल में खेली है। केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने पश्चिम बंगाल में साफ तौर पर घोषणा की है कि सीएए हर परिस्थिति में लागू होगा, कोई शक्ति सीएए को लागू करने से नहीं रोक सकती है। कोरोना के खिलाफ टिकाकरण पूरा होते ही सीएए को लागू कर दिया जायेगा। पश्चिम बंगाल में सीएए के प्रश्न पर ममता बनर्जी हलकान है, उसकी सत्ता पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। खास कर मतुआ समूह को लेकर ममता बनर्जी की चिंता बढी है। मतुआ समूह सीएए से आश लगाये बैठा हुआ है और उस समूह को भारत की नागरिकता मिलने की उम्मीद बनी है। जानना यह भी जरूरी है कि जिस प्रकार से बिहार और उत्तर प्रदेश में यादव अपनी संख्या बल पर सत्ता बनाने और गिराने का खेल खेलते हैं उसी प्रकार की राजनीतिक शक्ति पश्चिम बंगाल के अंदर में मतुआ जाति रखती है। मतुआ जाति दलित जाति है। पश्चिम बंगाल में मतुआ जाति की संख्या 17 प्रतिशत बतायी जाती है। पिछले लोकसभा चुनावों में पश्चिम बंगाल के अंदर में भाजपा की जीत और उपलब्धि के केन्द्र में मतुआ जाति का समर्थन ही माना जा रहा था। मतुआ जाति अभी भी भाजपा के पक्ष में खडी है। मतुआ जाति के लाखों की सभा को अमित शाह ने संबोधित कर उन्हें नागरिकता प्रदान करने का आश्वासन दिया है। केरल में भी सीएए के प्रश्न पर भाजपा हिन्दू मतों की गोलबंदी सुनिश्चित करेगी। हिन्दू मतों की गोलबंदी से नुकसान तो सीएए विरोधी कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों को ही होगा।


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Monday, February 1, 2021

बजट में किसानों की खुशहाली का सपना ?

 


 

         राष्ट्र-चिंतन

       ऐसे में कैसे होगी किसानों की आय दोगुनी ?

बजट में किसानों की खुशहाली का सपना ?

        विष्णुगुप्त




इस बार का केन्द्रीय बजट छह स्तंभों पर आधारित है। पहला स्तंभ है स्वास्थ्य और कल्याण, दूसरा भौतिक-वित्तीय पूंजी, तीसरा समावैशी विकास, चैथा मानव पूंजी का संचार करना , पाचवां नवाचार व अनुंसंधान और छठा न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन। किसानों की खुशहाली की व्यवस्था को केन्द्रीय सरकार अपनी बजट की विशेषताएं बता रही है। केन्द्रीय बजट में किसानों की खुशहाली और उनकी हितसाधक नीतियां कहीं से भी अअपेक्षित नहीं कही जा सकती थी, यह तो अपेक्षित ही है। केन्द्रीय सरकार किसानों के बीच अपनी विश्वसनीयता और साख को बनाये रखने के लिए एक संदेश देना चाहती थी, क्योंकि पिछले दिनों के घटनाक्रम से केन्द्रीय सरकार की नीतियां किसानों के बीच अविश्वसनीयता उत्पन्न कर रही थी, केन्द्रीय सरकार की साख को घून की तरह चाट रही थी, हालांकि इसके आयाम भी नकरात्मक थे। वर्तमान केन्दी्रय सरकार की यह कोशिश जरूर रही है कि हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ अन्नदाता किसानों की आमदनी बढें और लागत से उपर मूल्य मिले। इस कोशिश में केन्द्रीय सरकार ने कई नीतियां लायी और किसानों के बीच साख उत्पन्न करने के लिए कई योजनाओं का श्रीगणेश किया है। किसानों के खातों में प्रतिवर्ष छह हजार रूपये देने और खाद पर सब्सिडी जारी रखने के साथ ही साथ किसानों के विभिन्न उत्पादन पर समर्थन मूल्य घोषित करना और समर्थन मूल्य पर किसानों के उत्पादन का क्रय करना भी शामिल है। यह कहना गलत नहीं होगा कि समर्थन मूल्य पर सरकार द्वारा क्रय के कारण किसानों का बहुत बड़ी राहत मिली है। फिर भी किसानो की मांगें और उनकी इच्छाएं अभी तक पूरी नहीं हुई हैं। खासकर छोटे किसान जो सरकारी झंझटों से पार नहीं पाते हैं, नौकरशाही की जाल और उनकी रिश्वतखोरी की आदतों को संतुष्ट नहीं कर पाते हैं को अभी भी केन्द्रीय सरकार की नीतियों और योजनाएं एक छलावा से कम नहीं हैं। केन्द्रीय सरकार ही क्यों बल्कि राज्य सरकारों जब तक सरकारी झंझटों और नोकरशाही की रिश्वतखोरी की जाल को समाप्त नहीं कर पाती हैं तब तक उनकी कोई भी नीति और कोई भी योजनाएं लघुतम किसानों के लिए कोई अर्थ नहीं रखती हैं। इसलिए बजट में किसानों की बातें करने से या फिर किसानों के लिए खुशहाली और हितसाधक घोषणाएं करने या फिर व्यवस्थाएं करने का कोई खास अर्थ नहीं रखते हैं। कृषि टेक्नोलाॅजी को सस्ता करने की घोषनाएं नहीं होने से किसानों की समस्याएं कम नहीं होगी।
                                                   अब हमें गौर करना चाहिए कि वर्तमान केन्द्रीय सरकार ने बजट में ऐसी कौन सी घोषणाएं की है, बजट में ऐसी कौन सी व्यवस्थाएं की है जिसे हम किसान के हित साधक मानने के लिए बाध्य हुए हैं और इस घोषनाओं और व्यवस्थाओं के माध्यम से केन्द्रीय सरकार अपनी विश्वसनीयता और साख किसानों के बीच बढाना चाहती हैं? क्या सही में केन्द्रीय सरकार की यह घोषणा और व्यवस्था से किसानों की आर्थिक स्थिति सुधरेगी, किसानों की आय में वृद्धि होगी? किसानों की कृषि जरूरतों को पूरा करेंगी? जो किसान लागत मूल्य भी नहीं मिलने के बाद किसानी छोडने के लिए बाध्य हुए हैं या फिर किसानी छोडने के लिए अग्रसर हो रहे हैं वैसे किसानों को किसानी या कृषि कार्य के लिए प्रेरित करेगी? किसान क्या सही में महाजनी कर्ज से मुक्त होंगे? सरकारी बैंकों की नीतियां और व्यवहार किसानों के हित में होंगी? सरकारी बैंक क्या छोटे किसानों को कर्ज देने के लिए अपनी पूर्वाग्रह छोडने के लिए प्ररेति होंगे? क्या सरकारी बैंक कर्ज देने के लिए छोटे किसानों के द्वार तक दस्तक देंगे? जानना यह भी जरूरी है कि केन्द्रीय सरकार खुद किसानों को कर्ज उपलब्ध नहीं कराती है, केन्द्रीय और राज्य सरकारों की इसमें कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती है, केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकारों की अप्रत्यक्ष भूमिका ही होती है। केन्द्रीय सरकार बैकों के माध्यम से ही किसानों को कर्ज उपलब्ध कराती हैं। छोटे किसानों के बीच सरकारी बैंकों की भूमिका कैसी है, यह कौन नहीं जानता है। किसानों के बीच सरकारी बैंकों की भूमिका साक्षात यमराज के तौर पर होती है छोटे किसानों का शोषण करने, उन्हे उपेक्षित रखने में सरकारी बैंक कोई कसर नहीं छोड़ते हैं।
                                                 केन्दी्रय बजट में किसानों के लिए कई विशेषताएं हैं, उनमें एक सबसे बडी विशेषता है जिसकी पड़ताल करने की जरूरत होगी, जिस पर देश के अंदर चर्चा जरूरी है, गंभीरता के साथ मूल्यांकन करने की जरूरत है। केन्द्रीय बजट में किसानों के लिए 16: 5 लाख करोड़ कृषि लोन की व्यवस्था की गयी है। केन्द्रीय बजट प्रस्तुत करते हुए वित मंत्री निर्मला सीतारमन ने कहा कि केन्द्रीय बजट में किसानों के लिए 16: 5 लाख करोड़ कृषि लोन की व्यवस्था कर सरकार ने एक महत्ती कार्य किया है, किसानों की इच्छाओं का पंख लगाया है, इस व्यवस्था से किसानों की जिंदगी में खुशहाली आयेगी, किसानों की आर्थिक आय बढेगी और किसानों का कृषि कार्य से पलायन रूकेगा, इसके साथ ही साथ किसानों को महाजनी लूट से रक्षा करेगी। ऐसे देखा जाये तो वित मंत्री निर्मला सीतारमन की बातें कोई अलग या फिर अहम की श्रेणी मे नहीं रखी जा सकती है, आखिर क्यों? यह तो एक सरकारी परमपरा है, सरकारी खानापूर्ति है। केन्द्रीय बजट की योजनाओं, नीतियों या फिर व्यवस्थाओं की ही बात नहीं है बल्कि राज्य सरकारों की कोई भी योजना, कोई भी नीतियां और कोई भी व्यवस्थाएं सामने आती हैं या फिर इस तरह की घोषणाएं होती है तो फिर सरकार द्वारा इसके पक्ष में गुणगान करने का विचार प्रवाह जन्म लेता ही है, सरकार प्रशंसा में लम्बी-चैडी बात ही करती है, सफलता की लम्बी-चैडी रेखा दिखाने की कोशिश होती है। यह अलग बात है कि पूर्व में इसके हस्र भी कैसा हुआ है, यह भी हमें मालूम है। आज तक न तो देश में गरीबी हटी और न ही बैरोजगारी हटी जबकि पूर्व की केन्द्रीय सरकारों ने गरीबी हटाओ, बैरोजगारी हटाओं के नाम पर दर्जनों योजनाओं, नीतियों और व्यवस्थाओं को जन्म दिया था, इन योजनाओं, घोषनाओं और व्यवस्थाओं के पक्ष में भी लंबी-चैडी बातें हुई थी, बड़े-बडे सपने दिखाये गये थे।
                                                     कृषि लोन के कुछ नये आयाम तय किये गये हैं, कुछ नयी प्राथमिकताएं तय की गयी है, कुछ परमपराएं तोडी गयी है। अब तक की परमपराएं थी कि सिर्फ अन्न उत्पादन को ही कृषि कार्य माना जाता था। वह भी अन्न में दाल, चावल , गेंहू आदि। बागवानी या फिर सब्जी उत्पादन पहले कृषि कार्य नहीं माना जाता था। फिर बागवानी और सब्जी उत्पादन को कृषि कार्य माना गया। यह कहने में हर्ज नहीं है कि बागवानी और सब्जी उत्पादन के क्षेत्र में विकास होने और किसानों की रूचि बढने से एक तरह से क्रांति हुई और किसानों को इसका लाभ भी मिला, किसानों की आय बढी, किसानों के सामने अतिरिक्त विकल्प भी मिला। अतिरिक्त विकल्प का अर्थ यह था कि चावल, दाल, गन्ना और गेहूं का उत्पादन जो महंगा था और कम लाभकारी था उसकी जगह बागवानी और सब्जी का उत्पादन लाभकारी साबित हुआ। अब कृषि कार्य में दो नये आयाम तय किये गये हैं, प्राथमिकताओं में रखे गये हैं। ये दो नये आयाम और प्राथमिकताएं मछली उत्पादन और दूघ उत्पादन को लेकर है। वर्तमान केन्द्रीय सरकार की अपनी मान्यताएं हैं कि देश में मछली उत्पादन बढा कर और दूध उत्पादन बढा कर नयी क्रांति लायी जा सकती है, हरित क्रांति जो अब मृत प्राय है, उसमें जान फूंकी जा सकती है।यह सही है कि देश के अंदर में मछली उत्पादन और दूध उत्पादन में बढोतरी हुई है, किसानों को नये विकल्प भी मिले हैं। दूध उत्पादन और मछली उत्पादन में छोटे किसान भी आसानी के साथ सक्रियता दिखाने में सक्षम है, इसमें लागत भी कम है। खासकर दूध उत्पादन के लाभ असीमित है। सिर्फ दूध ही क्यों बल्कि गाय का गोबर और गाय के मूत्र का कारोबार बढा है, गाय के मूत्र से दवाइयां बन रही हैं, गाय के गोबर से दीवाल पेंट बनाया जा रहा है, गाय के गोबर से मोमबतियां बनायी जा रही है। इसके अलावा गाय के गोबर से प्राकृतिक खेती होती है, इसलिए गाय के गोबर का मूल्य भी बढा है। सबसे बडी बात मछली उत्पादन को लेकर है। गांव में छोटे-छोटे किसान भी छोटे-छोटे तलाबों में भी मछली उत्पादन आसानी से कर सकते हैं। केन्द्रीय वित मंत्री का कहना है कि केन्द्रीय बजट में 16: 5 लाख करोड का जो कृषि कर्ज घोषित किया गया है उसमें से अधिकतर हिस्सा मछली और दुग्ध उत्पादन करने वालों को मिलेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि मछली और दुग्ध उत्पादक किसानों को कर्ज उपलव्ध कराने की प्राथमिकता होगी।
                                             हमें सिर्फ बजट में भारी-भरकम राशि रखने से चमत्कृत होने की आवश्यकता नहीं है। हम तब चमत्कृत होंगे जब बजट की घोषणाओं को जमीन पर सही ढंग से लागू करने की वीरता टिखायी जायेगी। देखा यह जाता है कि बडे किसान तो सरकारी बैंकों से अपनी पहुंच के बल पर कर्ज ले लेते हैं पर रघुतम किसान सरकारी बैंकों के तिरस्कार का शिकार हो जाते हैं। अतः लघु किसान महाजनी लूट का शिकार हो जाते हैं। हमें तो छोटे किसानों के हित संरक्षण की चिंता है। क्या केन्द्रीय सरकार छोटे किसानों को भी आसान कर्ज उपलब्ध कराकर उनकी आमदनी बढाने की वीरता दिखा पायेगी?




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