Tuesday, April 23, 2019

श्रीलंका धमाके के दोषी तौहीद जमात की भारतीय कहानी


राष्ट्र-चिंतन

श्रीलंका धमाके के दोषी तौहीद जमात की भारतीय कहानी

भारत बन गया मुस्लिम आतंकवादियो की सुरक्षित शरणस्थली


विष्णुगुप्त




सैद्धांतिक तौर पर कोई भी भारतीय यह नहीं चाहेगा कि उसका देश मुस्लिम आतंकवादियों की शरणस्थली, ठिकाना या घर बन जाये और इस कारण भारत की दुनिया में उसी तरह बदनामी और तिरस्कार हासिल हो जिस तरह की बदनामी और तिरस्कार दुनिया में पाकिस्तान के प्रति उपस्थित है। पर सच को अस्वीकार करना मुश्किल है। चाहे कारण कुछ भी क्यों नहीं हो, पर सच तो यह है कि अब भारत मुस्लिम आतंकवादियों का सुरक्षित घर बन गया है, सुरक्षित ठिकाना बन गया है, सुरक्षित शरण स्थली बन गया है। इस्लामिक दुनिया की साजिश का हम आसान शिकार बन गये हैं, इस्लामिक दुनिया की साजिश क्या है? इस्लामिक दुनिया की साजिश भारत को एक इस्लामिक देश में तब्दील करना और भारत को मुस्लिम आतंकवाद की शरणस्थली, मुस्लिम आतंकवाद का सुरक्षित ठिकाना और मुस्लिम आतंकवाद का सुरक्षित घर के तौर पर तब्दील करना। मुस्लिम दुनिया अपनी इस साजिश में पूरी तरह से कामयाब दिखती है। यह भी एक बडा कारण है कि भारत का अति उदार रूप, भारत की तथाकथित उदारवादी पार्टियों की मुस्लिम पक्षी मानसिकताएं भी मुस्लिम आतंकवाद और मुस्लिम आतंकवादियों को संरक्षण देती है, समर्थन करती है। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि मुस्लिम आतंकवाद, मुस्लिम आतंकवादियों पर कानून का दमन कमजोर पड जाता है, सुरक्षा एजेंसियां अति न्यायिक और अति राजनीतिक परीक्षण से डर जाती है। कोई एक नहीं बल्कि दर्जनों ऐसे उदाहरण हैं कि सुरक्षा एजेंसियों को मुस्लिम आतंकवादियों के दमन में अति न्यायिक और अति राजनीतिक परीक्षण के भीषण पीडादायक दौर से गुजरना पडा है और कई वरिष्ठ अधिकारियों को महीनों जेलों में सडने के लिए बाध्य होना पडा है। ऐसी अति न्यायिक और अति राजनीतिक परीक्षण ही भारत को मुस्लिम आतंकवादियों की शरणस्थली बनने की ओर ढकेल रहा है। फिर हम सजग भी नहीं है।
     अभी-अभी श्रीलंका में जो निर्दोष जिंदगियां तबाह हुई है, तीन सौ से अधिक जो लोग मारे गये हैं, पांच सौ से अधिक जो लोग मारे गये हैं, उनके गुनाहगारों का न केवल लिंक भारत के साथ जुडे हुए हैं बल्कि उनके गुनहगार भारत से ही मुस्लिम आतंकवाद, मुस्लिम घृणा और मुस्लिम साम्राज्यवाद खडा करने के लिए जिहाद करते हैं। श्रीलंका में लोमहर्षक आतंकवाद और हिंसा की आग में निर्दोष जिंदगियां नष्ट करने के लिए जिस तौहीद जमात पर आरोप लगाया गया है उसकी शरण स्थली भारत मे ही है। अब तक जिन-जिन आतंकवादियों की गिरफ्तारी हुई है वे सभी आतंकवादी तौहीदन जमात से ही जुडे हुए हैं। तौहीद जमात का मुख्यालय तमिलनाडु में है। तमिलनाडु में तौहीद जमात की खतरनाक उपस्थिति है। तौहीद जमात ने तमिलनाडु की राजनीति को अपने आगोश में लेने की कोई कोशिश नहीं छोडी थी। तौहीद जमात पर ईसाइयों और बौद्धों का धर्म परिवर्तन कराने और हिन्दुओं की हत्या करने जैसे आरोप हैं। 
            तौहीद जमात की उपस्थिति और उसकी खतरनाक, हिंसक तथा अमानवीय इतिहास और लक्ष्य भी देख लीजिये। तौहीद जमात की स्थापना एक भारतीय तमिल मुसलमान की आतंकवादी दिमाग की देन थी। भारतीय तमिल मुसलमान अरिंगर कुझु ने तौहीद जमात की स्थापना की थी। अरिंगर कुझु के संबंध मे जो जानकारियां सामने आयी है वह बहुत ही खतरनाक है। अरिंगर कुझु के तार पाकिस्तान के साथ जुडे हुए हैं, पाकिस्तान के आतंकवादी संगठनों और पाकिस्तान के आतंकवादी सरगनाओं की तरह ही तौहीद जमात और अरिंगर कुझु व्यवहार करता है। अरिंगर कुझु भी ओसामा बिन लादेन की तरह ही काफिर मानसिकताएं रखता है, अरिंगर कुझु पर भी ओसामा बिन लादेन की तरह इस्लाम की कट्टर और खूनी मानसिकताएं हावी रहती हैं। अब यहां एक बडा प्रश्न यह है कि आखिर तौहीद जमात और अरिंगर कुझु के भारत मे लक्ष्य क्या है? आखिर तौहीद जमात और अरिंगर कुझु से भारत को कितना बडा खतरा है, आखिर क्या तौहीद जमात और अरिंगर कुझु भारत की एकता और अखंडता को खंडित करने जैसा है? सबसे बडी बात यह है कि तमिलनाडु और भारत सरकार अब तक तौहीद जमात और अरिंगर कुझु की आतंकवादी करतूत पर कानून का डंडा क्यों नही चला पायी थी, क्या सरकारों की ऐसी लापरवाही से भारत की एकता और अंखडता अक्षुण रह सकती है?
                   तौहीद जमात वहावी विचार धारा का प्रतिनिधित्व करता है, भारत में पहले वहावी विचारधारा प्रतिनिधित्व दारूल उलम देओबंद करता था। दारूल उलम देओबंद उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में स्थित है। तौहीद जमात, दारूल उलम देओबंद से भी खतरनाक है। तौहीद जमात का अर्थ ही घृणास्पद है। तौहीद जमात का अर्थ सिर्फ अल्लाह में विश्वास रखना और अल्लाह में जो विश्वास नहीं रखते हैं, उन्हें काफिर मानकर उनकी हत्या करना। तौहीद जमात ऐसे तो सभी गैर इस्लामी धर्म और समूह को काफिर मानता है पर वह ईसाइयों को लेकर कुछ ज्यादा ही घृणास्पद मानसिकताएं रखता है। ईसाइयो को वह भटका हुआ समूह मानते हैं। ईसाइयो को मुस्लिम बनाना या फिर ईसाइयों का सर्वनाश करना वह अल्लाह का कार्य मानता है। तमिलनाडु के अंदर भी तौहीद जमात ने ईसाइयों के खिलाफ घृणास्पद अपराध करने के अभियान पर चल रहा था। तौहीद जमात पर 2017 में तमिलनाडु में मुकदमा दर्ज हो चुका है।
                सिर्फ तमिलनाडु के अंदर ही नहीं बल्कि देश के अन्य क्षेत्रों में भी इस आतंवकादी संगठन ने अपने नेटवर्क कायम किये हैं और अपनी इस्लामिक घृणा और हिंसा का जाल विछाया है। खासकर योग गुरू रामदेव के प्रति यह आतंकवादी संगठन असहिष्णुता वाला घृणित विचार रखता है, आतंकवादी विचार रखता है। योग गुरू रामदेव के खिलाफ इसने मुस्लिम आबादी को भडकाने का कार्य किया है। तौहीद जमात ने योग गुरू रामदेव के योग और पंतजलि के उत्पादो के खिलाफ फतवा जारी किया था, मुस्लिम आबादी को अगाह किया था कि पंतजंलि के उत्पाद अल्लाह के उपदेश और आज्ञा का अनादर करते हैं, पंतजंलि के उत्पाद इस्लाम का अनादर करते हैं, इसलिए पंतजंलि के उत्पादों से दूर रहें। फतवा देने का काम पहले दारूल उलम देओबंद करता था पर अब देश के अंदर एक और खतरनाक मुस्लिम आतंकवादी संगठन की घुसपैठ हो गयी है। सिर्फ घुसपैठ ही नहीं हुई बल्कि वह आतंवादी संगठन अब मुस्लिम आबादी को अपने अुनसार चलने के लिए बाध्य करने में भी लगा हुआ है। 
              तमिलनाडु से इस संगठन की घुसपैठ श्रीलंका में हुई है और कुछ समय के अंदर ही यह संगठन श्रीलंका की मुस्लिम आबादी के बीच एक महत्वपूर्ण स्थान हासिल कर लेता है। घुसपैठ करते ही तौहीद जमात ने श्रीलंका में मस्जिद की एक बडी फेहरिस्त कायम की थी। तौहीद जमात ने अपने धन से श्रीलंका के अंदर सैकडों मस्जिदें बनायी हैं। मस्जिदें जब वह संगठन बना रहा था तभी उस पर नजर सुरक्षा एजेसियों की लगी थी। खासकर उसने स्कूल जाने वाली मुस्लिम लडकियों और अन्य मुस्लिम महिलाओं के बुर्काकरण की काफी कोशिशें की थी। 2013 में श्रीलंका के तत्कालीन रक्षा मंत्री तौहीद जमात को आईएस का संगठन बता कर तहलका मचा दिया था। तौहीद जमात ने अपने बचाव में मजहबी उत्पीडन का ढाल बना लिया था। तौहीद जमात के सचिव अब्दुल रैजिक ने 2014 में श्रीलंका के बौद्ध धर्म को इस्लाम के खिलाफ बता कर फतवा दिया था और कहा था कि बौद्ध धर्म का सफाया कर इस्लाम का विस्तार करना हर मुसलमान का काम है। अब्दुल रैजिक के बयान आते ही श्रीलंका में तूफान मच गया था। अब्दुल रैजिक और उसके संगठन को प्रतिबंधित करने की बडी आवाज उठी थी। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि श्रीलंका के अंदर बौद्ध मूर्तियो को खंडित करने के भी आरोप तौहीद जमात पर लगे हैं। बढते दबाव और घृणास्पद तथा आतंकवाद के खतरे को देख कर अब्दुल रेजिक की 2016 में गिरफतारी भी हुई थी। 
                   तौहीद जमात जैसे आतंकवादी संगठन को भारत में क्यों पाला-पोशा गया अब तक उस संगठन पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया गया? भारत की सरकारों को असहज स्थिति और खतरनाक संकटों का भान क्यों नहीं है। हम कभी क्या आज भी आतंकवाद की शरणस्थली के लिए पाकिस्तान को कोसते हैं, पाकिस्तान पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंधित करने की बात करते हैं, पाकिस्तान को कूटनीतिक मंच से अलग-थलग करने की कोशिश करते हैं। पर पाकिस्तान अपने बचाव में कहता है कि हम नहीं बल्कि भारत ही दुनिया में आतंकवाद फैलाता है। तौहीद जमात की करतूत पर अब पाकिस्तान भारत की घेराबंदी कर सकता है। मुस्लिम दुनिया भी भारत को बदनाम कर सकती है। मुस्लिम आतंकवादी संगठनों ने अपनी नीति बदली है, अपने संगठन भारत में ही स्थापित करने की नीति बनायी है। यही कारण है कि तौहीद जमात ने तमिलनाडु में अपनी शरण स्थली बनायी और श्रीलंका में धमाका काराया है। इस्लामिक स्टेट विभिन्न नामों से केरल, महाराष्ट्र और पूर्वोतर प्रदेशों में शरण स्थली बना कर बैठा है। जिस तरह भारत सरकार ने बांग्लादेश में आतंकवादी करतूत कराने के आरोप में जाकिर नाईक के मुस्लिम संगटन पर प्रतिबंध लगाया है उसी तरह तत्काल तौहीद जमात पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए और इसके सभी आतंकवादियों को जेलों में डाला जाना चाहिए।


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Sunday, April 21, 2019

हेमंत करकरे उत्पीड़न और प्रताड़ना का अपराधी था


राष्ट्र-चिंतन

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                      विष्णुगुप्त




हेमंत करकरे को लेकर कोई एक नहीं बल्कि अनेकानेक प्रश्न खडे थे, पर अधिकतर लोग इस प्रश्न पर बात ही नहीं करना चाहते थे? हेमंत करकरे को लेकर उठे प्रश्नों पर आखिर लोग बात क्यों नहीं करना चाहते थे? पहला कारण यह था कि कांग्रेस हर हाल में हिन्दू -भगवा आतंकवाद को प्रत्यारोपित करना चाहती थी, इसके लिए कांग्रेस हर वह हथकंडा अपनाने के लिए तैयार बैठी थी जो हथकंडा अपना सकती थी, हथकंडे के तौर पर कांग्रेस के पास तीस्ता सीतलवाड, हर्ष मंदर, जाॅन दयाल और शबनम हाशमी जैसे तमाम चेहरे थे जो भारत को एक खलनायक के तौर पर प्रस्तुत करते थे और हिन्दुओं को आतंकवादी, खतरनाक तथा अमानवीय मानुष साबित करने के लिए तुले रहते थे, इसी सोच से प्रस्तावित दंगा रोधी विधेयक सामने आया था, जिसमें प्रावधान यह था कि कहीं भी दंगा होगा तो बेगुनाह साबित करने की जिम्मेदारी हिन्दुओं को ही होगी, मुस्लिम पर आरोप होने पर भी उसे बेगुनाही के सबूत नहीं जुटाने होंगे, वह प्रस्तावित विधेयक सोनिया गांधाी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने लायी थी जिसके सदस्य तीस्ता सीतलवाल सहित अन्य तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग शामिल थे। सबसे बडी बात यह है कि उसी काल में राहुल गांधी हिन्दुओं से देश को खतरा मानते थे  और इस खतरे के बयान कूटनीतिज्ञों से करते थे। दूसरा सबसे बडा कारण कांग्रेस की वह दस साल की सरकार थी जो हिन्दू आतंकवाद को स्थापित करने के लिए तुली हुई थी और केन्द्रीय सत्ता का डर मीडिया और प्रश्न उठाने वाले बडी शख्सियतों पर हावी था। क्या यह सही नहीं है कि उस कांग्रेस की केन्द्रीय सत्ता के तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदम्बरम, तत्कालीन गृह मंत्री सुशील शिंदे ने खुलेआम हिन्दू आतंकवाद की थ्योरी परोसी थी। अब कांग्रेस खंडन क्यों कर रही है कि उसने हिन्दू आतंकवाद की थ्योरी नहीं दी थी? दिग्विजय सिंह तो हिन्दू आतंकवाद के प्रोपगंडा सामने रखने में कोई कसर नहीं छोडी थी। सबसे बडी बात यह है कि उस काल में संघ के एक बडे नेता इन्द्रेश कुमार को बार-बार सीबीआई और महाराष्ट एटीएस प्रताडित करती थी और हिन्दू आतंकवाद के आरोप में जेल भेजने की धमकियों से उत्पीडन करती थी। यह अलग बात है कि तत्कालीन कांग्रेसी सत्ता इन्द्रेश कुमार को जेल भेेजने में असफल साबित हुई थी।
                               जब केन्द्रीय सत्ता और राज्य सत्ता किसी वाद, किसी तथ्य को स्थापित करने के लिए हथकंडे पर हथकंडे अपनाती है तो फिर शक की सुई घूमती है। केन्द्रीय और राज्य सत्ता द्वारा स्थापित सुरक्षा जांच एजेसियों की ईमानदारी और विश्वसनीयता भी प्रश्नों के घेरे में होगी। खुद दिग्विजय सिंह ने एक पुस्तक के लोकार्पण में कहा था कि उसकी बातचीत हेमंत करकरे से होती थी। अब प्रश्न यह उठता है कि हेमंत करकरे और दिग्विजय सिंह में बात क्यों होती थी। हेमंत करकरे को यह मालूम जरूर होगा कि वह एक बडी जांच की अगुवाई कर रहे हैं और दिग्विजय सिंह सहित तत्कालीन केन्द्रीय व राज्य सत्ता राजनीतिक फायदे के लिए हिन्दू आतंकवाद को स्थापित करना चाहती है, खुद दिग्विजय सिंह हिन्दू आतंकवाद के प्रोपगंडा के बदबूदार चेहरा ह, अगर ऐसे चेहरों से दोस्ती रखेंगे, लगातार बातचीत करेंगे तो फिर उनकी ही ईमानदारी और उनकी विश्वसनीयता का कबाडा बनेगा? अब यहां यह प्रश्न उठता है कि हेमंत करकरे ने अपनी ईमानदारी और अपनी विश्वसनीयता का कबाडा क्यों बनने दिया था? उन्होंने दिग्विजय सिंह से दूरी क्यों नहीं बनायी थी। एक तथ्य यह है कि दिग्विजय सिंह ने पाकिस्तान द्वारा मुबंई हमले को ही नकार दिया था, दिग्विजय सिंह ने हेमंत करकरे की मौत आतंकवादी कसाब की टीम की गोली से होने की बात भी नकार दी थी और अप्रत्यक्ष तौर पर कहा था कि हेमंत करकरे की मौत के पीछे गहरी साजिश है, इस साजिश के पीछे संघ का हाथ है। दिग्विजय सिंह ने मुस्लिम पक्षधर एक ऐसे पत्रकार की पुस्तक का विमोचन किया था जिसमें मुबंई हमले की साजिश के पीछे आरएसएस का हाथ बताया गया था।
                         कांग्रेस की राजनीतिक योाजना क्या थी? कांग्रेस की राजनीतिक योजना हिन्दू आतंकवाद का प्रोपगंडा खडा कर भाजपा की शक्ति कमजोर करना और पूरे संघ परिवार को आतंकवाद का प्रतीक बना देना था। जिस समय प्रज्ञा ठाकुर की गिरफ्तारी हुई थी उस समय प्रज्ञा ठाकुर विधार्थी परिषद की पुर्नकालिक थी। विद्यार्थी परिषद में रहने के दौरान ही प्रज्ञा ठाकुर ने साध्वी का रूप धारण किया था और उनकी गिनती एक तेजतर्रार साध्वी के तौर पर थी, पूरे मध्य प्रदेश में प्रज्ञा ठाकुर की सक्रियता थी। उसी दौरान मालेगांव बम बलास्ट में उनकी गिरफ्तारी हुई, गिरफ्तारी एक तरह से अपहरण जैसा कार्य था। लगभग आधे महीने तक किसी को सूचना तक नहीं मिली, आधे महीने तक प्रज्ञा ठाकुर को गैर कानूनी तौर पर हिरासत में रखा गया, मध्य प्रदेश पुलिस तक को प्रज्ञा ठाकुर की गिरफ्तारी की सूचना नहीं दी गयी थी। अगर हेमंत करकरे ईमानदार थे और निष्पक्ष थे तो यह बताया जाना चाहिए कि उन्होंने प्रज्ञा ठाकुर की गिरफ्तारी की सार्वजनिक सूचना क्यों नहीं दी थी, हेमंत करकरे ने करीब आधे महीने तक गैर कानूनी तौर पर प्रज्ञा ठाकुर को हिरासत में क्यों रखा था। कानून के जानकार यह जानते हैं कि पुलिस हिरासत में किसी को भी चैबीस घंटे से ज्यादा नहीं रखा जा सकता है, इस दौरान गिराफ्तार व्यक्ति को न्यायालय में उपस्थित करना अनिवार्य तौर पर जरूरी है।
              प्रज्ञा की गिरफतारी एक आश्चर्यजनक घटना थी। प्रज्ञा की गिरफ्तारी ने कई प्रश्न खडे कर दिये थे, जिसके जवाब उस समय नहीं थे। हर जगह हिन्दू आतंकवाद की चर्चा थी, एक ऐसा वातावरण बना दिया गया था कि सही में सभी हिन्दू आतंकवादी हैं, और दुनिया में आतंकवाद का पर्याय बन चुकी आयातित संस्कृति से जुडी हुई आबादी शांति और सदभाव की प्रतीक है। पर लालकृष्ण आडवाणी ने कांग्रेस की मंशा भाप ली थी। आडवाणी अपनी टीम के साथ मिलने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास गये थे और उन्होंने कहा था कि प्रज्ञा ठाकुर के बहाने कांग्रेस हिन्दू आतंकवाद को स्थापित और प्रायोजित करना चाहती है, इस कांग्रेसी राजनीतिक योजना का दुष्परिणाम भयंकर होगा। उस समय आडवाणी से मनमोहन सिंह ने प्रज्ञा ठाकुर और हिन्दू आतंकवाद के प्रोपगंडा से अनभिज्ञता जाहिर की थी। आडवाणी की चेतावनी कितनी सही हुई, यह भी देख लिया जाना चाहिए। आडवाणी की चेतावनी पर कांग्रेस ने अगर विचार की होती तो फिर कांग्रेस की छवि एक हिन्दू विरोधी पार्टी की नहीं होती। 2014 में केन्दीय सत्ता से कांग्रेस की विदाई भी हिन्दू विरोधी राजनीतिक छवि के कारण हुई है, कांग्रेस की रिपोर्ट यह स्वीकार करती है।
                      दुष्परिणाम भी देख लीजिये। महराष्ट्र की पूरी एटीएस की टीम प्रज्ञा ठाकुर को आतंकवादी घोषित करने में लगी रही, देश और राज्य की सुरक्षा का प्रश्न गौण हो गया था। इसका दुष्परिणाम मुबंई पर पाकिस्तानी आतंकवादी हमला था। आतंकवादी हमले के समय महाराष्ट एटीएस के पास कोई सुरक्षा योजना नहीं थी। खुद हेमंत करकरे ने सुरक्षा मानकों की अवहेलना की थी। उनके पास बुलेट प्रुफ सुरक्षा जैकट था पर वे पहने हुए नहीं थे, उनके पास आतंकवादियों से लौहा लेने के लिए जरूरी और मारक क्षमता वाले हथियार नहीं थे। इस लापरवाही में हेमंत करकरे कसाब की आतंकवादी टीम की गोलियों के शिकार हो गये थे। हेमंत करकरे अगर बहादुर होते और उनके पास युद्ध कौशल होता तो फिर वे मारक क्षमता वाले हथियारों के साथ आतंकवादियों के सामने होते। हेमंत करकरे की गोलियों से कोई आतंकवादी नहीं मरा था, आतंकवादियों की गोलियों से अन्य पुलिस वाले भी मारे गये थे। पर वीरता के लिए अशोक चक्र सम्मान हेमंत करकरे को ही क्यों मिला था? मुबंई आतंकवादी हमले के दौरान हेमंत करकरे ने कौन सी वीरता दिखायी थी? उस समय भी यह प्रश्न उठा था कि हेमंत करकरे को वीरता का अशोक चक्र पुरस्कार क्यों मिला? चूंकि हेमंत करकरे हिन्दू आतंकवाद के स्थापित करने के कांग्रेस के एजेंडे पर काम कर करे थे, इसी लिए कांग्रेस की तत्कालीन सरकार ने हेमंत करकरे को यह पुरस्कार दी थी। अशोक चक्र पुरस्कार पर उस समय भी उंगली उठी थी।
                                   प्रज्ञा कहती है कि जांच के दौरान सुरक्षा आयोग के एक सदस्य ने हेमंत करकरे से सबूत नहीं होने की बात की थी। करकरे से कहा था कि जब सबूत ही नहीं है तो फिर साध्वी को हिरासत में क्यों रखना? तब सुरक्षा आयोग के सदस्य के सामने  करकरे ने कहा था कि मै सबूत जुटाने के लिए वह हर कार्य करूंगा जो कर सकता हूं। अगर प्रज्ञा ठाकुर की यह बात सही है तो हेमंत करकरे की ईमानदारी और विश्वसनीयता पर चर्चा कैसे नहीं होगी। एटीएस और जेल में प्रज्ञा ठाकुर का उत्पीडन हुआ, प्रताडना हुई है, यह सिद्ध बात है। प्रज्ञा ठाकुर के शरीर पर कई नकरात्मक रसायानों को प्रयोग हुआ था। जेल में ही प्रज्ञा ठाकुर को कैंसर की बीमारी हुई थी, कैंसर की बीमारी प्रताडना और उत्पीडन का परिणाम थी।
                  हेमंत करकरे को मेजर लीतुल गोगई की कसौटी पर देखा जाना चाहिए। पत्थरबाजों के खिलाफ मानव ढाल बना कर मेजर लीतुल गोगई सुर्खियो में आये थे और सेना के वीर अफसरों में उनकी गिनती थी। पर एक अमान्य कार्य ने उनकी छवि धुमिल कर दिया, मेजर लीतुल गोगई को कोर्ट मार्शल हुआ और उन्हें सजा देने की प्रक्रिया भी जारी है। अगर हेमंत करकरे ने उत्पीडन और प्रताडना सहित तथ्यारोपण के दोषी हैं तो फिर उनकी आलोचना जरूरी है। उनकी ईमानदारी और विश्वसनीयता पर उंगली उठेगी ही।

                              हेमंत करकरे आतंकवादी की गोली के शिकार हुए थे। इसलिए वे सम्मान के अधिकार जरूर रखते हैं। पर प्रज्ञा ठाकुर के प्रसंग पर उनकी जिम्मेदारी का स्वतंत्र और न्यायपूर्ण परीक्षण क्यों नहीं होनी चाहिए? प्रज्ञा की पीडा पर भी राजनीतिक विचारण जरूरी है। प्रज्ञा ठाकुर की पीडा और प्रज्ञा ठाकुर का उत्पीडन अब भी कांग्रेस को लहूलुहान करती रहेगी।




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Wednesday, April 17, 2019

राष्ट्र-चिंतन

आजम खान जैसों की गर्दन नापने में संहिताएं लाचार क्यों ?

           मुस्लिम तुष्टिकरण देती हैं आजम खान को संरक्षण

          
                  विष्णुगुप्त



आजम खान की आपत्तिजक, अश्लील और लोमहर्षक बयानबाजी ने राजनीतिक उफान उत्पन्न कर दिया है,  महिला के प्रति असम्मान और जहरीला सोच रखने की बात फैली है। यही कारण है कि महिला आयोग ने न केवल संज्ञान लिया है बल्कि आजम खान को नोटिस भी दिया है। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि सुषमा स्वराज ने मुलायम सिंह यादव पर भीष्म की तरह चुप्पी साधने के आरोप जडते हुए आजम खान पर कार्रवाई करने की मांग कर चुकी है। ऐसी बयानबाजी की न्यायिक परीक्षण भी हो सकता है। पर राजनीतिक सच्चाई यह है कि अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव में इतनी शक्ति, इतनी नैतिकता नहीं है कि ये आजम खान पर कोई कार्रवाई करेंगे। आजम खान की आपत्तिजनक बयानबाजी का चुनावी राजनीतिक कसौटी पर परीक्षण जरूरी है। चुनाव आयोग ने आजम खान पर 72 घंटे का प्रतिबंध लगाया है पर यह काफी नहीं है, कानून की धाराएं अगर आजम खान की गर्दन नापने में वीरता दिखाती तो फिर आजम खान को भविष्य में सबक जरूर मिलता और ऐसी आपत्तिजनक व्यवहार-बयानबाजी के पहले सौ बार सोचता।

          जया प्रदा के खिलाफ आजम खान की आपत्तिजनक और अश्लील, लोमहर्षक बयानबाजी को समझने के लिए आजम खान की राजनीतिक शख्सियत को जानना-समझना जरूरी है। आजम खान की शख्सियत अराजक है, जिन्हें कानून के दायरे की परवाह ही नहीं हैं, ये समझते हैं कि उन्हें कानून के दायरे में रखने वाले लोग उनकी वोट की शक्ति से खूद दब कर राजनीतिक तौर पर हाशिये पर खडे हो जायेंगे। सही भी यही है कि आजम खान को काननू के दायरे में रखने से राजनीतिक पार्टियां अपने लिए नुकसानकुन मानती हैं, यही कारण है कि आजम खान को तरजीह देने वाली राजनीतिक पार्टियां खामोश ही रहती हैं, यह अलग बात है कि राजनीतिक पार्टियां खूद का नुकसान करती हैं, समाजवादी पार्टी की सत्ता भी आजम खान की सांप्रदायिक खेल के कारण जा चुकी है। याद कीजिये मुजफ्फरनगर दंगे को और मुजफ्फरनगर दंगे में आजम खान की भूमिका को। आजम खान ने अपराधियों को सरेआम थाने से भगवाया था, पुलिस-प्रशासन के हाथ बांध डाले थे, दुष्परिणाम  क्या हुआ, दुष्परिणाम यह हुआ कि मुजफ्फरनगर दंगों की आग में महीनों तक झुलसता रहा और समाजवादी पार्टी के खिलाफ बहुंसंख्यक समाज की भावनाएं आहत होती रही हैं, कमजोर और हाशिये पर खडी भारतीय जनता पार्टी को शक्ति मिली, समाजवादी पार्टी सत्ता से बाहर हुई, पहले केन्द्र में और बाद में उत्तर प्रदेश में भाजपा सत्तासीन हो गयी।
         
        निसंदेह तौर पर भाजपा की शक्ति बढाने और भाजपा को सत्ता तक पहुंचाने में आजम खान का योगदान महत्वपूर्ण है। अपनी प्रारंभिक राजनीति के समय से ही आजम खान पर आपत्तिजनक व्यवहार और बयानबाजी हावी रही है। खासकर रामजन्म भूमि आंदोलन के समय में आजम खान की आपत्तिजनक बयानबाजी और संस्कृति के खिलाफ अभियान काफी उफान भरती थी। उस काल में आजम खान ने भारत माता को डायन तक कह डाला था। भारत माता को डायन कहने पर देश भर में बडी प्रतिक्रिया हुई थी। आजम खान की बडी आलोचना हुई थी। पर आजम खान और मुलायम सिंह यादव पर कोई प्रभाव नहीं पडा था। आखिर क्यों? उस काल में देश के अंदर में तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की राजनीति हावी रहती थी, अति उदारता में संस्कृति को लांक्षित करने की राजनीतिक सक्रियता खूब चलती थी। मुलायम सिंह यादव खुद राम मंदिर आंदोलन पर गोलियां चलवायी थी, मुलायम सिंह यादव खुद मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति में कांग्रेस की दुकानदारी लुटने के अभियान में थे। इस कारण आजम खान द्वारा भारत माता को डायन कहने जैसी बयानबाजी से बहुसंख्यक वर्ग की भावनाएं आहत होने का डर नहीं था। उस काल मेें भाजपा और संध हाशिये पर खडे थे, सबसे बडी बात यह है कि देश का बहुसंख्यक वर्ग जागरूक नहीं था, देश के बहुसंख्यक वर्ग पर स्वाभिमान हावी नहीं था। पर यह भी सही है कि देश के बहुसंख्यक वर्ग को आजम खान की भारत माता को डायन कहने जैसी बयानबाजी ने सोचने-समझने और मुस्लिम तुष्टीकरण के खतरे के प्रति जागरूकता कर डाली थी। इसी जागरूकता का प्रमाण तब मिला जब उत्तर प्रदेश में पहली बार कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी थी। आजम खान की बयानबाजी सिर्फ इतनी भर नहीं है, आजम खान ने भारतीय सेना के खिलाफ भी आपत्तिजनक बयानबाजी कर चुके हैं, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ ये तो हमेशा तेजाबी , नकरात्मक और आपत्तिजनक बयानबाजी करते ही रहते है।

          आजम खान की आपत्तिजनक बयानबाजी के विमर्श में दो महत्वपूर्ण विन्दु हैं, जिस पर गौर करना चाहिए, क्योंकि दोनों विन्दु काफी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। पहला विन्दु अखिलेश यादव द्वारा नोटिस न लेना था। जिस मंच से आजम खान ने जय प्रदा के खिलाफ आपत्तिजनक बयानबाजी की थी, सरेआम जय प्रदा की छवि पर कीचड उछाली थी वह मंच चुनावी मंच था। सबसे बडी बात यह थी कि उस चुनावी मंच पर अखिलेश यादव उपस्थित थे। अखिलेश यादव की उपस्थिति में ऐसी नकारात्मक और आपत्तिजनक बयानबाजी हुई है। अखिलेश यादव मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान रह चुके हैं और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष भी हैं, इसलिए अखिलेश यादव से उम्मीद बनती थी कि वे मंच से ऐसी आपत्तिजनक बयानबाजी करने पर खुद नोटिस लेते और आजम खान को महिला का सम्मान करने की सीख देते। अगर अखिलेश यादव ऐसा करते तो फिर उनकी छवि काफी चमकती और उनकी प्रशंसा भी होती। पर अखिलेश यादव चुपचाप आपत्तिजनक बयानबाजी सुनते-देखते रहे। राजनीतिक हलकों में ऐसी चर्चा है कि जब बाप यानी मुलायम सिंह यादव को औकात आजम खान की आपत्तिजनक बयानबाजी रोकने की नहीं थी तो फिर अखिलेश यादव की औकात कहा थी? यहां औकात की बात नहीं है, यहां नैतिकता की बात थी, राजनीतिक शुचिता की बात थी, एक महिला के सम्मान की बात थी। चुनाव जीतने के नैतिक तरीके हैं, जिस पर चलकर विरोधियो को हराया जा सकता है। पर जिस पार्टी ने और जिन नेताओं ने आजम खान के सामने हमेशा नतमस्तक रहे हैं, आपत्तिजनक और नकारात्मक बयानबाजी को अपनी राजनीतिक शक्ति और मुस्लिम तुष्टीकरण का प्रतीक मान कर लाभार्थी होने का ख्याल पाल कर रखते हों, उनसे नैतिकता की उम्मीद कैसे हो सकती है, उनसे महिला सम्मान की बात की उम्मीद कैसे हो सकती है?

        दूसरा विन्दु जय प्रदा की समाजवादी पृष्ठभूमि है। जय प्रदा समाजवादी पार्टी में रह चुकी है। समाजवादी पार्टी से जय प्रदा संसद तक पहुंच चुकी है। एक समय में जय प्रदा मुलायम सिंह यादव के लिए महत्वपूर्ण थी, समाजवादी पार्टी के लिए वंदनीय थी, उच्च कोटि की राजनीतिज्ञ थी।  तथ्य यही है कि जय प्रदा ने समाजवादी पार्टी से ही राजनीति की शुरूआत की थी। अमर सिंह के कारण वह समाजवादी पार्टी से अलग हुई। आजम खान या फिर अखिलेश यादव तक को अब जय प्रदा बुरी लग रही है, अब जय प्रदा इनके लिए संघी हो गयी। ऐसी सोच कहां तक सही है, क्या ऐसी सोच को नकरात्मक नहीं कहा जाना चाहिए? जय प्रदा कही से भी संधी पृष्ठभूमि की नहीं है। भाजपा की राजनीति में सिर्फ जय प्रदा ही नहीं बल्कि अनेकानेक नेता ऐसे हैं जो संघ पृष्ठभूमि की नहीं है, फिर भी ऐसे लोग भाजपा की राजनीति में चरम पर पहुचे हैं, भाजपा की राजनीति में चमक रहे हैं। सुषमा स्वराज इसका उदाहरण हैं। सुषमा स्वराज खुद समाजवादी पृष्ठभूमि से आकर भाजपा की राजनीति में चरम पर बैठी हुई है। सुषमा स्वराज कभी राज नारायण और जार्ज फर्नाडीस के साथ राजनीति की थी। सुषमा स्वराज के भाजपा में जाने पर जब जार्ज फर्नाडीस ने कभी कोई विरोध की बयानबाजी नहीं की थी तो फिर आजम खान जैसों को यह बयानबाजी क्यों करनी चाहिए और अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव को चुप्पी क्यों साधनी चाहिए थी? यह व्यक्ति की आजादी है कि वह कौन सी राजनीतिक पार्टी में रहता है और कौन सी राजनीतिक पार्टी में नहीं रहता है।

      आपत्तिजनक बयानबाजी ने जिस तरह से विरोध की भावनाएं भडकायी है उससे साफ होता है कि न केवल आजम खान के लिए ही नहीं बल्कि अखिलेश यादव के लिए भी कोई शुभ राजनीतिक संदेश नहीं है। इस बयानबाजी के नकारात्मक असर न केवल रामपुर तक सीमित है, बल्कि इसका असर पूरे उत्तर प्रदेश और पूरे देश भर में फैल चुका है। खासकर समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश में इस नकारात्मक बयानबाजी का दुष्परिणाम झेलने के लिए विवश होना पड सकता है। आजम खान की जहरीले, आपत्तिजनक बयानबाजी की कसौटी पर बहुंसख्यक मतों की एकता भी बन सकती है। आजम खान के बयानबाजी के माध्यम से मुस्लिम वोट लेने के चक्कर में हिन्दू वोट से हाथ धोना पड सकता है। ऐसे में समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव के लिए ऐसी बयानबाजी घाटे का राजनीतिक दुष्परिणाम हो सकता है। देश की संहिताओ को सक्रिय रखने वाले संस्थानों को आजम खान जैसे आपत्तिजनक बयानबाजी करने वाले नेताओं पर बुलडोजर चलाने की सक्रियता दिखानी चाहिए। देश कीसंहिताओं की वीरता सुनिश्चित होगी तो फिर महिलाओं का सम्मान भी सुनिश्चित होगा और आजम खान जैसे नेता जेल की हवा भी खाने के लिए बाध्य होंगे।






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विष्णुगुप्त
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Thursday, April 11, 2019



राष्ट्र-चिंतन
बकरा दाढी देख कर भाग रहीं हैं सेक्युलर पार्टियां

सेक्युलर पार्टियों के लिए भी मुस्लिम अक्षूत हो गये, हिन्दुओं की एकता ने नींद उडायी




     विष्णुगुप्त



पहला तथ्य.... तथाकथित सेक्युलर पार्टियां बेवफा हो गयी ...  जामा मस्जिद के इमाम।
दूसरा तथ्य ... कांग्रेस प्रत्याशी भी हिन्दुओं की डर से मुझे प्रचार के लिए नहीं बुलाते...  गुलाम नवी आजाद
तीसरा तथ्य .... भाजपा बढती गयी, मुसलमानों का प्रतिनिधित्व घटता गया।
चैथा तथ्य...  तथाकथित सेक्युलर पार्टियों के चुनावी दफ्तर में छेदा टोपी और बकरा दाढी रखने वाले मुसलमानों पर अप्रत्यक्ष प्रतिबंध।
पांचवां तथ्य .... सच्चर कमिटी की रिपोर्ट अब किसी राजनीतिक पार्टियों को याद क्यों नहीं आ रही है?

         उपर्युक्त ये पांचों तथ्य क्या कहते हैं? क्या ये पांचों तथ्य क्या तथाकथित सेक्युलर पार्टियों की बेवफाई व्यक्त नहीं करते हैं? ये पांचों तथ्य की कसौटी पर क्या यह तिरस्कार और उपेक्षा लोकतांत्रिक माना जायेगा या फिर गैर लोकतांत्रिक माना जाना चाहिए? अगर इन पांचों तथ्यों की कसौटी पर इसे लोकतांत्रिक मान लिया गया तो फिर भारतीय लोकतंत्र की खुबसूरती कैसे मानी जायेगी, अगर यह खुबसूरती भी अस्तित्वहीन हो जायेगी तो फिर भारत के लोकतंत्र को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र में गिनती कयों होनी चाहिए? 
      क्या इसके लिए सिर्फ और सिर्फ भारतीय जनता पार्टी की ही डर हथकंडा बन कर तथाकथित सेक्युलर पार्टियों के सिर पर नाचती है? क्या इसके लिए मुस्लिम आबादी की सांप्रदायिकता भी जिम्मेदार है, क्या मुस्लिम आबादी की आतंकवादी नीति भी जिम्मेदार है? क्या इसके लिए लिए मुस्लिम वर्ग के उन चंद बीमार मानसिकता भी जिम्मेदार है जो देशभक्ति को भी मजहब की कसौटी पर तोलते हैं और हर लोकतांत्रिक मूल्यों को गैर इस्लामी घोषित कर देते हैं? क्या ये पांचों तथ्य यह निष्कर्ष नहीं देते हैं कि सेक्युलर पार्टियां मुसलमानों का वोट तो हासिल करना चाहती हैं, समर्थन लेना तो चाहती हैं, वोट और समर्थन लेकर अपनी सत्ता किस्मत तो चमकाना चाहती हैं पर उन्हें अब न तो उचित प्रतिनिधित्व देना चाहती हैं और न ही सम्मान देना चाहती हैं।
            खासकर जामा मस्जिद के इमाम की बात या पीडा अस्वीकार नहीं हो सकती है, उनकी पीडा स्वाभाविक है। उनके पूराने दिन चले गये। लोकसभा या फिर विधान सभा चुनावों में सेक्युलर राजनीतिक पार्टियों मक्ख्यिों की तरह जामा मस्जिद के इमाम के आस-पास चक्कर लगाती थी और अपने पक्ष में फतवा दिलाने के लिए चरणवंदना करती थी। लालू, मुलायम, रामबिलास पासवान सहित कांग्रेस का ऐसा कौन नेता शेष था जो जामा मस्जिद के इमाम की चरण वंदना करने नहीं जाता था। जामा मस्जिद के इमाम भी बहुत शौक और हिम्मत के साथ अपने मनपंसद पार्टी के समर्थन में फतवा जारी करता था और फतवे का अर्थ और अनर्थ यह होता था कि इस्लाम खतरे में हैं। जामा मस्जिद के इमाम ने समझ लिया था कि मुस्लिम उनका ही गुलाम है और तथाकथित सेक्युलर पार्टियां यह समझ ली थी कि मुस्लिम आबादी जिसको समर्थन करती रहेगी, सत्ता उन्ही को मिलेगी?
यह भ्रम टूटा कैसे? इस भ्रम को तोडा किसने? इस भ्रम को हिन्दू आतंकवाद के प्रोपगंडा ने तोडा। इस भ्रम को तथाकथित सेक्युलर राजनीतिक दलों की मुस्लिम परस्ती ने तोडा। कांग्रेस का हिन्दू आतंकवाद का प्रोपगंडा आत्मघाती साबित हुआ, कांग्रेस और अन्य सेक्युलर पार्टियों का अति मुस्लिम परस्ती आत्मघाती साबित हुआ। राजनीतिक स्थिति यह थी कि जो सेक्युलर नेता हिन्दुओं को जितना गाली देता था और जितना अपमानजनक बात करता था उतना ही और बडा नेता बन जाता था। इसी मानसिकता के तहत रामसेतु प्रकरण पर भगवान राम के अस्तित्व को नकार कर काल्पनीक कह डाला गया। आज कांग्रेस पीछे हटते हुए कह रही है कि उसने हिन्दू आतंकवाद शब्द का प्रयोग नहीं किया था।  इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि हिन्दुओ के बीच पुर्नजागरण की हवा बह गयी।
2014 का लोकसभा चुनाव मुस्लिम राजनीति, तथाकथित सुक्युलर राजनीति, कांग्रेस की राजनीति के लिए दुस्वप्न साबित हुआ। सारे सर्वेक्षणों को ध्वस्त करते हुए हिन्दूवादी सत्ता कायम हो गयी। आम तौर पर विकसित तथ्य है कि मुस्लिम किसी भी परिस्थिति में भाजपा को वोट नहीं करते हैं। मुस्लिम के वोट नहीं करने के बाद भी मोदी प्रधानमंत्री बन गये। कांग्रेस यह मान चुकी थी कि मुस्लिम परस्ती छवि के कारण हिन्दुओं का राजनीतिक पुर्नजागरण हुआ और उनकी सत्ता चली गयी। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र, हरिणाणा, झारखंड, उत्तर प्रदेश, त्रिपुरा आदि कई राज्यों में हिन्दुत्व के बल पर मोदी ने सत्ता स्थापित कर डाली। उत्तर प्रदेश जैसे जातिवादी और मजहबी गठजोड वाले प्रदेश में भी मोदी और योगी ऐसे बोले जिससे अखिलेश, मायावती और कांग्रेस चारो खाने चित हो गये। अयोध्या में कारसेवकों पर गोलियां चलवाने की वीरता बखारने वाले मुलायम और अखिलेश का ऐसे प्रश्नों पर मुंह बंद हो गया।
राजनीतिक संदेश क्या स्थापित हुआ? पहला राजनीतिक संदेश स्थापित यह हुआ कि हिन्दू अपने बल पर सत्ता हटा सकते हैं, सत्ता को धूल चटा सकते हैं, सत्ता बना सकते हैं, सत्ता को निरंतर गतिमान कर सकते हैं। हिन्दुओं का अपमान और तिरस्कार करने वाली राजनीतिक पार्टियां अग्नि की स्वाहा हो जायेंगी। दूसरा संदेश यह गया कि मुस्लिम आबादी किसी भी परिस्थिति में अब सत्ता को नियंत्रित नहीं कर सकती है, सत्ता को कटपुतली की तरह नहीं नचा सकती हैं, मुस्लिम मतो की सौदागरी अब घाटे का सौदा है। जिधर जायेगी मुस्लिम आबादी उधर हिन्दू आबादी नहीं जायेगी। मुसलमानों का समर्थन पाने से हिन्दुओ का गुस्सा सातवें आसमान पर जायेगा। इसके अलावा यह भी संदेश गया कि मुस्लिम प्रत्याशी को लोकसभा-विधान सभा का टिकट देने का अर्थ है कि जीत भाजपा की झोली में डालना, क्योंकि हिन्दू आबादी मुस्लिम प्रत्याशी को वोट करेगी नहीं। यह सही है कि पहले तथाकथित सेक्युलर पार्टियां बडी उत्साह के साथ और बडे अभिमान के साथ मुस्लिम को प्रत्याशी बनाती थी, मुस्लिम प्रत्याशी हिन्दू समर्थन से जीत भी जाते थे। पर हिन्दू पुर्नजागरण के अस्तित्व में आने के साथ ही साथ तथाकथित सेक्युलर राजनीति पार्टियांें के द्वारा खडे किये गये मुस्लिम प्रत्याशियों की जीत कठिन होती चली गयी, मुश्किल होती चली गयी और भाजपा की जीत की गारंटी भी बनती चली गयी। इसका दुष्परिणाम क्या हुआ? अब इसके दुष्परिणाम बडे खतरनाक सामने आ रहे हैं, इसके दुष्परिणामों पर गंभीर चिंता हो रही है। दुष्परिणाम यह है कि लोकसभा और विधान सभाओं में मुस्लिम आबादी का प्रदर्शन लगातार घट रहा है, यह स्थिति सुधरनी नहीं हैं। यह स्थिति क्यों नहीं सुधरेगी? इसलिए नही सुधरेगी की राजनीतिक स्तर पर हिन्दू-मुस्लिम की खाई और चैडी होने वाली है।
तथाकथित सेक्युलर पार्टियां का एक घिनौना चेहरा भी अब बेपर्द हो रहा है। पिछले गुजरात विधान सभा के चुनाव में एक बडी राष्ट्रीय पार्टी के दफ््तर में छेदा टोपी पहनने और बकरा दाढी रखने वाले मुस्लिम नेताओं के प्रवेश पर प्रत्यक्ष तौर पर प्रतिबंध था। अप्रत्यक्ष रूप से वह पार्टी अपने लोगो को संदेश दे चुकी थी कि अगर उनके कार्यालय में छेदा टोपी और बकरा दाढी रखने वाले मुसलमान आकर बैठेगे और चुनाव प्रचार में हिस्सेदारी करेंगे तो फिर हिन्दू आबादी नाराज हो जायेगी, हिन्दुओं के वोट से हाथ धोना पड जायेगा? गुजरात हिन्दुत्व का प्रयोगशाला रहा है। वह पार्टी गुजरात में भाजपा को हराने के काफी करीब तक पहुच चुकी थी। लोकसभा के चुनाव में स्थितियां कुछ ऐसी ही है। कांग्रेस के प्रत्याशी गुलाम नवी आजाद को प्रचार में बुलाने से कतराते हैं और उन्हें हार का डर लग जाता है। अन्य तथाकथित सेक्युलर पार्टियां भी अपने दफतरों में मजहबी मुसलमानों की सक्रियता को रोकने और प्रतिबंधित करने का कार्य कर रही हैं। अब सोच पूरी तरह से बदल चुकी है। कांग्रेस और अन्य सेक्युलर राजनीतिक पार्टियों की सोच भी यह है कि भाजपा की डर से ये जायेंगे कहां, वोट तो उन्हें ही देंगे, फिर इनके पीछे लगना क्यों? इन्हें सम्मान देकर खुद का सर्वनाश क्यों कराया जाये।
भारतीय लोकतंत्र में ऐसी परिस्थतियां अस्वीकार हैं। पर मुस्लिम आबादी को भी हिन्दुओ की भावनाओं का ख्याल रखने के लिए आगे आने की जरूरत है, आतंकवाद और  सांप्रदायिकता की आग लगाने वाले मुस्लिम नेताओं के प्रति मुस्लिम आबादी की नजरियां भी बदलनी चाहिए। तथाकथित सेक्युलर राजनीतिक पार्टियों के प्रति भी इन्हें सजग रहने की जरूरत है। राष्ट्र की अवधारणा और राष्ट्र की अस्मिता को खारिज करने वाला कोई समूह अपने लिए सकारात्मक राजनीतिक स्थितियां नहीं बना सकता है?


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VISHNU GUPT
COLUMNIST
NEW DELHI
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