Tuesday, December 29, 2020

‘‘ करीमा बलोच ‘‘ से क्यों डरता था पाकिस्तान

  


                                                                 राष्ट्र-चिंतन
करीमा बलोच साहस की पहाड थी, पाकिस्तान-चीन की नींद हराम कर रखी थी

‘‘ करीमा बलोच ‘‘ से क्यों डरता था पाकिस्तान
           
       विष्णुगुप्त


करीमा बलोच से क्यों डरता था पाकिस्तान? पाकिस्तान ने करीमा बलोच की हत्या क्यों करायी? करीमा बलोच क्या पाकिस्तान की कूटनीति के लिए बड़ा खतरा थी? क्या पाकिस्तान की कूटनीति करीमा बलोच की वैश्विक सक्रियता से हमेशा दबाव महसूस करती थी? क्या करीमा बलोच की वैश्विक सक्रियता से पाकिस्तान की राष्ट्रीय अस्मिता और राष्ट्रीय अखंडता को एक बडी चुनौती मिलती थी? क्या करीमा बलोच अपनी वैश्विक सक्रियता से बलोच आंदोलन को एक बडी और प्रभावकारी शक्ति प्रदान करती थी? क्या करीमा बलोच बलूचिस्तान राज्य निर्माण का सपना देखने वाली बड़ी हस्ती थी? क्या करीमा बलोच ने अपने आंदोलन और वैश्विक सक्रियता से पाकिस्तान ही नहीं बल्कि चीन की भी नींद हराम कर रखी थी? क्या करीमा बलोच चीन और पाकिस्तान की उपनिवेशिक नीति व करतूत को दुनिया के सामने बेपर्द करने की अहम भूमिका निभायी थी? क्या करीमा बलोच बलूचिस्तान के अंदर चीनी प्रोजेक्ट के खिलाफ सशक्त जनांदोलन को लगातार शक्ति प्रदान कर रही थी? क्या करीमा बलोच की हत्या कराने में पाकिस्तान के साथ ही साथ चीन की भी कोई भूमिका है? क्या करीमा बलोच की हत्या मानवाधिकार के लिए एक खतरे की घंटी है? क्या करीमा बलोच की हत्या पर अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार ंसंगठनों को गंभीर सक्रियता नहीं दिखानी चाहिए? क्या करीम बलोच की हत्या के खिलाफ संयुक्त राष्ट्रसंध द्वारा निष्पक्ष और प्रभावशाली जांच नहीं करायी जानी चाहिए? करीम बलोच की हत्या से भारत की कूटनीति को भी कोई धक्का लगा है क्या? ये सभी प्रश्न अति महत्वपूर्ण है। दुनिया के नियामकों की चुप्पी चिंताजनक है। जबकि करीमा बलोच की हत्या दुनिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवाधिकार की लडाई के क्षेत्र में एक गंभीर संकट के तौर पर देखा जाना चाहिए।
                                         करीमा बलोच कौन थी? करीमा बलोच की हत्या कहां हुई? करीमा बलोच की हत्या से कैसे मानवाधिकार को गंभीर धक्का लेगा है? करीमा बलोच एक मानवाधिकार कार्यकर्ता थी। वह साहस का पहाड थी। नरेन्द्र मोदी को अपना भाई मानती थी। कहती थी कि सभी बलोच महिलाएं मोदी को अपना भाई मानती हैं। करीमा बलोच ने पाकिस्तान की उपनिवेशिक नीति के खिलाफ दुनिया भर में सक्रियता की नींव रखी थी और पाकिस्तान की लगातार पोल खोल रही थी? बलूच आंदोलन का वह सबसे बडी हस्ती और वैचारिक शक्ति थी। बलूच राष्ट्रवाद का वह प्रतिनिधित्व करती थी। करीमा बलोच की हस्ती के सबंध में जानकारी हासिल करने के पहले हमें बलूच राष्ट्रवाद के इतिहास को जानना होगा और बलूच राष्ट्रवाद का मूल्याकांन करना होगा। बलूच राष्ट्रवाद का सबंध बलूचिस्तान की आजादी है। बलूचिस्तान पाकिस्तान का पश्चिमी राज्य है। बलूचिस्तान का क्षेत्रफल बहुत बडा है। बलूचिस्तान तीन देशों की सीमाओं से जुडा हुआ है। ईरान और अफगानिस्तान से बलूचिस्तान सटा हुआ है। बलूचिस्तान की राजधानी क्वेटा है। यहां की प्रमुख भाषा बलूच है। कभी बलूच क्षेत्र तालिबान और अलकायदा का गढ हुआ करता था। बलूच क्षेत्र अलकायदा और तालिबान का गढ क्यों हुआ करता था? अरअसल बलूच का क्षेत्र घने जंगलों और पहाडों से घिरा हुआ है और खनिज संपदाओं से परिपूर्ण है। पाकिस्तान के खनिज संपदाओं का लगभग 60 प्रतिशत खनिज संपदा इसी प्रांत में उपस्थित है।  
                                          बलूच आबादी का विचार है कि बलूचिस्तान पर पाकिस्तान का अवैध कब्जा है, पाकिस्तान उनका अपना देश नहीं है। जिस प्रकार से अंग्रेज उनके लिए विदेशी आक्रमनकारी थे उसी प्रकार से पाकिस्तान भी विदेशी आक्रमणकारी हैं। आक्रमणकारी चाहे ब्रिटिश हों या फिर पाकिस्तान, ये कभी भी जनांकाक्षा का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। उनका इतिहास भी यही कहता है कि बलूचिस्तान ब्रिटिश काल में भी एक अलग अस्मिता और देश के लिए सक्रिय व आंदोलनरत था, भारत विखंडन में बलूच आबादी की कोई दिलचस्पी या भूमिका नहीं थी। मजहब के नाम पर पाकिस्तान के निर्माण में भी बलूच आबादी की कोई इच्छा नहीं थी। जब भारत में अंग्रेज अपना बोरिया विस्तर समेटने की स्थिति में थे तब अलग बलूचिस्तान के प्रति कदम उठाये थे। अंग्रेज इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि बलूचिस्तान को अलग क्षेत्र के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए। 1944 में बलूचिस्तान की स्वतंत्रता का विचार ब्रिटिश जनरल मनी ने व्यक्त किया था। मजहब के नाम पर भारत विखंडन के साथ ही साथ बलूचिस्तान की भी किस्मत पर कुठाराघात हुआ था। पाकिस्तान में बलूच आबादी कभी मिलना नहीं चाहती थी, बलूच आबादी अपना अलग अस्तित्व कायम रखना चाहती थी। पर पाकिस्तान ने बलूपर्वक बलूचिस्तान पर अधिकार कर लिया था। शुरूआत में भी विरोध हुआ था और इस अधिकार की कार्यवाही को पाकिस्तान के उपनिवेशवाद की उपाधि प्रदान की गयी थी। पर अंतर्राष्ट्रीय समर्थन न मिलने के कारण बलूच राष्ट्रवाद का आंदोलन शक्ति विहीन ही रहा। 1970 के दशक में बलूच राष्ट्रवाद का प्रश्न प्रमुखता से उठा और दुनिया जानी कि बलूच राष्ट्रवाद का भी कोई सशक्त अस्तित्व है जिसे पाकिस्तान सैनिक शक्ति से प्रताड़ित कर रहा है, कुचल रहा है। बलूचिस्तान सबसे पिछड़ा हुआ प्रांत है। इसलिए कि पाकिस्तान ने उपनिवेशिक नीति पर चलकर बलूचिस्तान का शोषण किया, दोहन किया और अपेक्षित विकास को शिथिल रखा।
                                        करीमा बलोच एक महिला थी। मजहबी तानाशाही वाले देशों और समाज में एक महिला का मानवधिकार कार्यकर्ता और हस्ती बन जाना कोई मामूली बात नहीं है, यह एक बहुत बडी बात है। क्या यह हम नहीं जानते हैं कि मजहबी देश और समाज में महिलाओं को मजहबी करूतियों के खिलाफ, मजहबी सत्ता के खिलाफ या फिर मानवाधिकार के संरक्षण की बात उठाने पर उन्हें गाजर मूली की तरह नहीं काटा जाता है? बलूचिस्तान में तीन तरफ से करीमा बलूच जैसी बहादुर महिलाएं त्रासदियां झेली है एक मजहबी समाज, दूसरा पाकिस्तान का सैनक तबका और तीसरा अलकायदा-तालिबान जैसे आतंकवादी संगठनों की हिंसा। मुंह खोलने वाली या फिर समाज में अगवा बनने की कोशिश करने वाली महिला सीधे तौर मजहबी समाज, सैनिक तबका और आतंकवादी संवर्ग की प्रताड़ना का शिकार बना दी जाती हैं, उनकी जिंदगी हिंसक तौर पर समाप्त कर दी जाती है। करीमा बलोच ने मजहबी समाज से निकली थी, पहले उसने मजहबी समाज से लोहा लिया था, उसके बाद उसने आतंकवादी संगठनो से लोहा लिया, उसके बाद उसने पाकिस्तान की उपनिवेशिक हिंसा के खिलाफ बलूचिस्तान की आवाज बनी।
                                           पाकिस्तान ने बलूचिस्तान में मानवाधिकार का कब्र बना रखा है। पिछले कुछ सालों में बलूचिस्तान के अंदर हजारों बलूच राष्ट्रवाद की सेनानी मारे गये है। कुछ साल पहले बलूच नेता नबाब अकबर खान बुगती की हत्या हुई थी। बुगती की हत्या का आरोप तत्कालीन तानाशाह परवेज मुशर्रफ पर लगा था। बुगती की हत्या अमेरिका और यूरोप भर में सुर्खियां बंटोरी थी। परवेज मुर्शरफ पर बुगती हत्या का मुकदमा भी चला था। करीमा बलोच ने अपने आंकडों से हमेशा पोल खोल रही थी कि पाकिस्तान कैसे बलूचिस्तान में मानवाधिकार हनन कर रहा है और बलूच नेताओं व कार्यकर्ताओं को कैसे मौत की नींद सुला रहा है। करीमा बलूच के लिए यह काम खतरे वाला था। पाकिस्तान की सेना और आईएसआई ने कई बार करीमा बलोच की हत्या कराने की कोशिश की थी। करीमा बलोच ने अपनी जान पर खतरे को देखते हुए पाकिस्तान छोड़ना ही उचित समझी थी। करीमा बलोच पाकिस्तान छोड़कर कनाडा में निर्वासित जीवन बीता रही थी। निर्वासित जीवन में भी वह बलूचिस्तान में पाकिस्तान द्वारा मानवाधिकार हनन की बात उठा रही थी। जिसके कारण पाकिस्तान की कूटनीति हमेशा दबाव में थी। करीमा बलोच का शव कनाडा मे मिला था। करीमा के परिजन और बलूच नेता इस हत्या के लिए पाकिस्तान की सेना और चीन की कारस्तानी व्यक्त कर रहे हैं।
                                           करीमा बलोच की हत्या को तानाशाही करतूत भी कह सकते हैं। तानाशाहियों द्वारा अपने विरोधियों की हिंसक हत्या का बहुत बडा इतिहास है। दुनिया में कम्युनिस्ट और मुस्लिम तानाशाहियों में इस तरह की हत्या आम बात है। सोवियत संघ के कम्युनिस्ट तानाशाह स्तालिन अपने घोर विरोधी लियोन त्रोत्सकी की हत्या मैक्सिकों में करायी थी, इसके अलावा सोवियत संघ में लाखों ऐसे विरोधियों की हत्या हुई थी जिसे स्तालिन पंसद नहीं करता था। उत्तर कोरिया का कम्युनिस्ट तानाशाह किम जौंग उन ने अपने सौतेले भाई किम जोंग् नम की हत्या मलेशिया में करायी थी। सउदी अरब ने अपने विरोधी पत्रकार जमाल खाशोगी की हत्या तुर्की में करायी थी। पाकिस्तान में हमेशा सैनिक मुस्लिम तानाशाही सक्रिय रहती है, लोकतंत्र तो एक मोहरा भर होता है। पाकिस्तान की सैनिक-मुस्लिम तानाशाही ने अपने अंतर्राष्ट्रीय संकट और चुनौतियों से निपटने के लिए करीमा बलोच की हत्या कनाडा में करायी है। चीन अपने ग्वादर बंदरगाह के निर्माण और अपनी सीपीइसी परियोजना का विरोध शांत कराने के लिए करीमा बलोच को निपटाना चाहता था, ऐसी अवधारणा भी सामने आयी है। क्योंकि ग्वादर बंदगाह और सीपीईसी परियोंजना के खिलाफ करीमा बलोच और बलोच आंदोलन के नेता सक्रिय थे और इसे अपने हितों के खिलाफ मानते थे।
                                          करीमा बलोच की हत्या की निष्पक्ष जांच की जरूरत है। दुनिया भर के नियामकों के लिए भी यह जरूरी है। संयुक्त राष्ट्रसंघ इस हत्याकांड की निष्पक्ष जांच करा सकती है। निष्पक्ष जांच के लिए अमेरिका, यूरोप और भारत को सक्रिय होना जरूरी है।हमारे लिए तो करीमा बलोच का सक्रिय रहना और जिदा रहना बेहद जरूरी था, हम पाकिस्तान के प्रोपगंडा का जवाब बलूचिस्तान में पाकिस्तान के मानवाधिकार के हनन से देते हैं। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी बलूचिस्तान की आजादी का समर्थन किया है। अगर करीमा बलोच की हत्या का प्रसंग दब गया तो फिर पाकिस्तान के अंदर मानवाधिकार इसी तरह से रौंदा जायेगा और बलूचिस्तान की आजादी भी इसी तरह कुचली जाती रहेगी।

संपर्क .....
विष्णुगुप्त
मोबाइल नंबर ...    9315206123






Sunday, December 13, 2020

जाकिर नाईक को वैश्विक आतंकवादी घोषित कराओ

 


 

     राष्ट्र-चिंतन

 जाकिर नाईक को वैश्विक आतंकवादी घोषित कराओ

जाकिर नाईक अब लादेन बनेगा


भारतीय सुरक्षा व गुप्तचर एजेंसियों ने खुलासा किया है कि जाकिर नाईक भारत को इस्लामिक देश में तब्दील करने के लिए रोहिंग्या आर्मी खड़ी किया है, इराक और सीरिया के आईएस आतंकवादी भी उसके साथ जुडे हुए हैं। मुस्लिम वैश्विक दुनिया से जाकिर नाईक को अरबों डालर मिल रहे हैं। जाकिर नाईक को वैश्विक आतंकवादी घोषित कराया जाना चाहिए। जाकिर नाईक और रोहिंग्या -आईएस आतंकवादियों को शरण देने वाले और इन्हें भारत विध्वंस के लिए सहयता करने वाले पाकिस्तान, तुर्की और मलेशिया को भी वैश्विक मंचों पर घसीटना चाहिए।

       
       
         विष्णुगुप्त



तथाकथित मुस्लिम मजहबी गुरू जाकिर नाईक अब अलकायदा के पूर्व आतंकवादी सरगना ओसामा बिन लादेन बनने की राह पर चल निकला है। भविष्य मेंवह ओसामा बिन लादेन की प्रेरणा को आधार बना कर अलकायदा और आईएस जैसा आतंकवादी संगठन खड़ा करेगा। ओसामा बिन लादेन ने जिस प्रकार से पाकिस्तान की राजनीति और आबादी के बीच में मुस्लिम आतंकवाद और मजहब का जहर घोला था उसी प्रकार से जाकिर नाईक भी मलेशिया की राजनीति का घोर इस्लामीकरण करेगा, पाकिस्तान से भी बड़ा आतंकवाद के आउटर्सोिर्संग करने वाला देश मलेशिया को बनायेगा। ओसामा बिन लादेन के  निशाने पर अफगानिस्तान की सोवियत संघ की सेना और उसकी समर्थक सरकार थी, ठीक इसी प्रकार जाकिर नाईक का निशाना भारत होगा। भारत को एक मुस्लिम राष्ट्र के रूप में तब्दील करने का उसका आतंकवादी एजेंडा कोई नया नही है, यह उसका राजनीतिक एजेंडा काफी पुराना है। मलेशिया फरार होने से पूर्व वह कई सालों तक भारत में रह कर और सरेआम भारत को इस्लामिक राष्ट्र के रूप में तब्दील करने के लिए सक्रिय था। इसके लिए मुस्लिम युवकों को मजहबी मानसिकता से जोड़ने और मुस्लिम युवकों को भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ विष वमन करने के लिए उकसाता था। इस मजहबी आतंकवादी करतूत में उसे राजनीति का भी सहयोग और समर्थन मिला था। नरेन्द्र मोदी सरकार से पूर्व जो सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह की सरकार थी उस सरकार में जाकिर नाईक की बडी धमक थी, जाकिर नाईक जैसे मजहबी आतंकवादी विचार के पोषकों और प्रचारकों को खूब सहयोग और समर्थन हासिल होता था, इनके विष वमन वाले भाषणों की कोई रोक-टोक नही थी। कांग्रेस के नेता दिग्विज सिंह भी जाकिर नाईक को भारत का शान और मानवता का हितैषी बताते थे। यद्यपि जाकिर नाईक के उफान और घृणा वाले भाषणों से भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को चुनौती मिलती थी और भारत को एक अंधेरगर्दी से पूर्ण, हिंसक और अमानवीय देश में तब्दील करने के लिए मानसिकताएं फैलती थी फिर भी उसे मुस्लिम वोट बैंक के आधार पर संरक्षण और सहयोग की गारंटी मिलती रही थी।
                                                     जाकिर नाईक को लेकर भारतीय सुरक्षा-गुप्तचर एजेंसियों ने जिस तरह के खुलासे किये हैं और जिस तरह की रिपोर्ट भारत सरकार को सौंपी है उसके खतरे और चुनौतियां काफी गंभीर हैं, डरावनी है, भारत की आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरे की घंटी है और वैश्विक स्तर पर भारत की कूटनीतिक सक्रियता को बढाने वाली है। भारतीय सुरक्षा और गुप्तचर एजेंसियों ने साफ तौर भारत सरकार से कहा है कि जाकिर नाईक अब भारत की सुरक्षा के लिए खतरा बनने वाला है, उसने मलेशिया में रोंिहंग्या आर्मी खडी की है, रोहिंग्या आर्मी में न केवल रोहिंग्या मुसलमानों को शामिल किया जा रहा है, बल्कि मलेशिया के मुस्लिम युवकों के साथ ही साथ भारत के मुस्लिम युवकों को भी शामिल किया जा रहा है। रोहिंग्या मुसलमानों के पूर्व आतंकवादी जो म्यांमार छोडकर भाग खडे हुए थे वे अब जाकिर नाईक की रोंिहंग्या आर्मी का नेतृत्व करेंगे और उसमें शामिल होकर मुस्लिम आतंकवाद और हिंसा को फैलायेंगे। एक समय में रोंहिंग्या आंतकवादियों ने अपनी हिंसा और आतंकवाद से म्यांमार की संप्रभुत्ता को चुनौती दी थी, म्यांमार की बौद्ध और हिन्दू आबादी को अपनी हिंसा और आतंकवाद से लहूलुहान किया था, डराया-धमकाया था, रोंहिंग्या आबादी वाले इलाके से भाग जाने का विकल्प दिया था, म्यांमार की पुलिस और सैनिक छावनियों पर संगठित हमले कर दर्जनों पुलिस और सैनिक जवानों की हत्या कर डाली थी। प्रतिर्किया में म्यांमार की पुलिस और सेना की सक्रियता शुरू हुई थी, असिन विराथु नाम का एक नन्हा बौद्ध साधु ने मोर्चा संभाला था। म्यांमार की पुलिस और सेना की प्रतिकिया रोहिंग्या आतंकवादियों ही नहीं बल्कि रोहिंग्या आबादी को भारी पडी थी। रोहिंग्या आतंकवादी अपनी जान बचाने के लिए भाग खडे हो गये थे। रोहिंग्या आतंकवादी भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान और मलेशिया में शरण लिये थे। करीब दो लाख रोहिंग्या आबादी भी म्यांमार से पलायन करने के लिए बाध्य हुई थी। प्रमुख शरणकर्ता देश बाग्लादेश भी अब रोहिंग्या मुस्लिम आबादी को अपनी संप्रभुत्ता के लिए खतरे की घंटी मान रहा है और वैश्विक समुदाय से रोहिंग्याओं की समस्याओं का समाधान करने पर जोर दे रहा है, क्योंकि रोहिंग्या आबादी अब बांग्लादेश में हिंसा और मुस्लिम कट्टरता के सहचर बन रही हैं।
                                                    जाकिर नाईक की आतंकवादी करतूत के खिलाफ में सबसे पहली आवाज बांग्लादेश ने उठायी थी। बांग्लादेश में उस काल में एक पर एक कई आतंकवादी हमले हुए थे, मुस्लिम युवक लगातार आतंकवादी हमले में सक्रिय थे, इसके अलावा बांग्लादेश की मुस्लिम आबादी के बीच आतंकवाद की घृणा तेजी से बढ रही थी। बांग्लादेश की सुरक्षा और गुप्तचर एजेंसियों ने जब इसकी पडताल गहणता के साथ की तब उनके होश उड़ गये। गहणता के साथ हुई जांच में यह निष्कर्ष सामने आया कि बांग्लादेश में होने वाली आतंकवादी घटनाओं की आधारशिला बांग्लादेश नहीं है बल्कि उसकी आधारशिला भारत है। जाकिर नाईक और उसका संगठन भारत में बैठ कर बांग्लादेश में आतंकवादी घटनाओं का प्रचार-प्रसार संगठित तौर पर कर रहे हैं, पकडे गये आतंकवादी संगठनों और आतंकवादियों के पास से जाकिर नाईक के घृणित और आतंकवादी विचार पर आधारित भाषणों के कैसेट ही नहीं बल्कि पुस्तिकाएं भी पकडी गयी थी। जैसे-जैसे जांच आगे बढी वैसे बांग्लादेश की सुरक्षा और गुप्तचर एजेंसियों की चुनौतियां बढती गयी थी, उनके सामने जाकिर नाईक के नेटवर्क को ध्वस्त करने का कठिन और खतरनाक प्रश्न खड़ा था। बांग्लादेश पर उदारवादी सरकार राज कर रही थी। बांग्लादेश की उदारवादी सरकार जाकिर नाईक को स्वीकार नहीं थी। बांग्लादेश की मुस्लिम आबादी के बल पर वह भारत को इस्लामिक देश में तब्दील करने की राह पर था। बांग्लादेश ने गंभीरता दिखाते हुए भारत सरकार को जाकिर नाईक को नियंत्रित करने के लिए कहा। भारत में जब उसके संगठनों पर नकेल कसने की कार्यवाही शुरू हुई तो वह भाग कर मलेशिया चला गया।
                                              मलेशिया भी उसी तरह की आग से खेल रहा है जिस तरह की आग से कभी पाकिस्तान ने खेला था। पाकिस्तान ने अपना आईकाॅन ओसामा बिन लादेन को बना लिया था, अपना गौरव ओसामा बिन लादेन नाम का उस भगोडे को बना लिया था जिसकों उसके अपने देश सउदी अरब ने भगा दिया था। दुष्परिणाम क्या हुआ। आज पाकिस्तान में आतंकवादी संगठन गाजर-मूली की तरह नागरिकों की हत्याएं करते हैं, आतंकवादी संगठनों की हिंसा और अलगाव के कारण आज पाकिस्तान कंगाल बन गया है, कोटरा लेकर भीख मांगने के बावजूद उसे अंतर्राष्ट्रीय जगत भीख यानी कर्ज देने के लिए तैयार नहीं हैं। ओसामा बिन लादेन की तरह जाकिर नाईक भी मलेशिया का मूल निवासी नहीं है, वह भारत का भगोड़ा है। जाकिर नाईक भी मलेशिया की शांत राजनीति में जहर घोलना चाहता है। यह कहना सही होगा कि जाकिर नाईक मलेशिया की शांत राजनीति में जहर घोलना शुरू कर दिया है। मलेशिया में बहुलता में मुस्लिम आबादी जरूर है पर मलेशिया में हिन्दू, ईसाई, बौद्ध तथा चीनी आबादी भी भारी संख्या में है। मलेशिया की सत्ता मुस्लिम पक्षी होती है। मुस्लिम बहूलता के कारण हमेशा मजहबी सरकार बनती है। मलेशिया रहने के दौरान जाकिर नाईक ने गैर मुस्लिम आबादी को डराना और धमकाना शुरू कर दिया और उसका आतंकवाद-हिंसा का व्यापार सरेआम चलने लगा। उसने एक खतरनाक बयान दिया था कि मलेशिया से गैर मुस्लिमों को भगा दिया जाना चाहिए या फिर उन्हे इस्लाम स्वीकार करने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। उसकी इस खतरनाक और हिंसक बयानबाजी की बडी प्रतिकिया हुई थी। मलेशिया के हिन्दू, ईसाई, बौद्ध और चीनी आबादी ने इसके खिलाफ आवाज उठायी। फिर मलेशिया की सरकार ने जाकिर नाईक के लिए कुछ नियंत्रण वाली राजनीतिक प्रक्रियाएं शुरू करने की बात की थी। दरअसल मलेशिया की मुस्लिम वैश्विक राजनीति के कारण जाकिर नाईक की आतंकवादी करतूत और नीति आगे बढ रही है। मलेशिया इधर मुस्लिम देशों का नेता बनने का ख्वाब रखता है। पाकिस्तान, तुर्की और मलेशिया ने दुनिया भर में मुस्लिम प्रश्नों पर त्रिकोण बनाया है। इस त्रिकोण के खास निशाने पर भारत है। पाकिस्तान के हित संरक्षण के लिए मलेशिया और तुर्की दुनिया के मंचों पर सक्रिय रहते हैं। भारत को डराने-धमकाने और भारत को एक इस्लामिक देश में तब्दील करने के लिए मलेशिया, पाकिस्तान, तुर्की जाकिर नाईक को संरक्षण दे रहे हैं। ग्रीस के एक पत्रकार ने कुछ दिन पूर्व खुलासा किया था कि तुर्की इराक और सीरिया के आईएस आतंकवादियों को कश्मीर में आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने के लिएं भेजने की साजिश कर रहा है।
                                            ं भारत की प्रतिकिया क्या होनी चाहिए? पाकिस्तान, तुर्की और मलेशिया जैसे मुस्लिम देश तो भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की नीति से पीछे हटने वाले नहीं हैं, ये तो हमारे लिए स्थायी दुश्मन हैं, जाकिर नाईक, रोहिंग्या आतंकवादी और आईएस आतंकवादी भी हमारे लिए खतरे की घंटी है। अब भारत को अपने देश में रहने वाले रोहिंग्या लोगों पर नीति बदलनी चाहिए, उन्हें निगरानी सूची में शामिल किया जाना चाहिए, उन्हें म्यांमार भेजने की रणनीति अपनानी चाहिए। पहले भी भारत में कई रोहिंग्या आतंकवादी पकडे गये हैं जो भारत में रह कर रोहिंग्या आर्मी खडी कर रहे थे। सबसे बडी कार्यवाही तो जाकिर नाईक पर होनी चाहिए। जाकिर नाईक को वैश्विक आतंकवादी घोषित कराया जाना चाहिए, जाकिर नाईक और आईएस आतंकवादियों को शरण देने वाले और इन्हें भारत विध्वंस के लिए सहयता करने वाले पाकिस्तान, तुर्की और मलेशिया को भी वैश्विक मंचों पर घसीटना चाहिए।


संपर्क .....
विष्णुगुप्त
मोबाइल नंबर ...    9315206123

Monday, December 7, 2020

 

                               राष्ट्र-चिंतन

बन्दूक-गोली के सामने ‘‘ हिन्दू राजशाही ‘‘ की बात
       
           विष्णुगुप्त



आश्चर्यजनक ढंग से नेपाल में बन्दूक गोली की कम्युनिस्ट तानाशाही के बीच हिन्दू राजशाही की बात क्यों जोर पकड रही है? इसके लिए आधुनिक युग में माक्र्स की विचारधारा जम्मेदार है?माक्र्सवाद एक अस्पष्ट विचारधारा है जिसमे पूंजी के अतिरंजित विरोध का आग्रह है। पूरा ध्यान मजदूरों के हितों पर केन्द्रित है, मजदूर को छोड़कर अन्य सभी प्रश्नों पर यह विचार धारा गौण होती है। अभी तक इस विचार का कोई स्पष्ट निष्कर्ष सामने नहीं आया है कि जब मजदूर हित ही सर्वोपरि होगी तब कोई पूंजी निवेश करेगा क्यों? अगर कोई पूंजीनिवेश नहीं करेगा तो फिर कोई उद्योग धंधा विकसित कैसे होगा? अगर कोई उद्योग धंधा विकसित नहीं होगा तो फिर मजदूरों को काम कहां मिलेगा? यही कारण है कि सोवियत संघ से लेकर चेकस्लोवाकिया तक जहां -जहां पर कम्युनिस्ट तानाशाही थी वहां-वहां पर प्रतिस्पद्र्धा के गौण होने के बाद विखंडन की प्रक्रिया सुनिश्चित हुई, कम्युनिस्ट तानाशाहियों के दफन होने की प्रक्रिया चली, जनता ने कम्युनिस्ट तानाशाहियों को उखाड़ फेंकने में ही अपनी भलाई समझी। चीन जरूर अपने आप को जनता के कोपभाजन बनने से रोक पाया पर चीन ने मजदूर हित को ही गौण कर दिया और पूंजीवाद से अपना हित सुरक्षित कर दिया। आज चीन में एक ऐसा कानून है जो सीधे तौर पर मजदूर हितों पर बुलडोजर चलाता है। हायर और फायर नामक कानून नियोक्ता को मजदूर की नियुक्ति और बर्खास्तगी का अधिकार देता है, इसमें राजसत्ता का हस्तक्षेप गौण हो जाता है।
                                           आधुनिक समय में जहां-जहां भी कम्युनिस्ट सरकारें आयी वहां-वहां अराजकता, अर्थव्यवस्था विध्वंस और राजनीतिक हिंसा की बाढ आयी और लोकइच्छाएं या दमन हुई या फिर कम्युनिस्ट तानाशाही कायम करने के लिए लोकइच्छाओं का विध्वंस कर दिया गया। दुनिया में दो ऐसे देश है जो उपर्युक्त कसौटी पर खरे उतरते हैं। एक उदाहरण नेपाल का है और दूसरा उदाहरण अमेरिकी देश वेनजुएला का है। वेनजुएला के लोगों ने हयोगो चावेज नामक कम्युनिस्ट तानाशाह को सत्ता सौंप दी, वह कम्युनिस्ट तानाशाह घोर पूंजी विरोधी था और अमेरिका जैसे देश को नेस्तनाबूद करने की कसमें खाता था। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि वेनजुएला का भी वही हाल हुआ जो सोवियत संघ का हुआ था। वेनजुएला की अर्थव्यवस्था विध्वंस हो गयी, लोग भूख से तडप-तडप कर मरने लगे। वेनजुएला की एक तिहाई आबादी पडोसी देशों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर हो गयी। अब दूसरा उदाहरण नेपाल को ही देख लीजिये। नेपाल में माओवाद को मिली सफलता से दुनिया के अंदर में बवडर उठा था कि कार्ल माक्र्स और बन्दूक-गोली का जमाना लौट गया। माओवादी भी नेपाल को एक आदर्श कम्युनिस्ट देश में तब्दील करने की प्राथमिकता रखते थे। 240 साल से भी अधिक समय की राजशाही का नेपाल में अंत हुआ और माओवादी व अन्य कम्युनिस्टों ने मिल कर नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी बनायी। नेपाली कांग्रेस की अराजकता और निरंकशुता के विकल्प के तौर पर नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी को सत्त्ता मिल गयी। पुराने माक्र्सवादी ओली प्रधानमंत्री बन गये। पर माक्र्स की पुरानी विचार धारा सर्वश्रेष्ठ हो गयी। पूंजी निवेश और संस्कृति के प्रश्न पर कम्युनिस्ट अपने आप को बदल नहीं सके। नेपाल के प्रधानमंत्री ओली और माओवादी नेता प्रंचड नेपाल के संस्कृति खोर बन गये। नेपाल में संवैधानिक तौर पर हिन्दुत्व का दमन पहले ही कर दिया गया था और धर्मनिरपेक्षता को प्रधान बना दिया गया था। नेपाल की जो संस्कृति थी उस पर भी राजनैतिक तौर पर चोट हुई, उस चीन के साथ जुगलबंदी करने की पूरी कोशिश हुई जो चीन अपने पडोसियों के दमन और उपनिवेशिक नीतियों को लागू करने वाला समझा जाता है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि नेपाल आज भ्रष्टचार और भूखमरी के केन्द्र में स्थापित हो गया है।
                                              नेपाल में कम्युनिस्टों की बन्दूक-गोली की सरकार और तानशाही के सामने एक बार हिन्दू राजशाही की बात न सिर्फ हो रही है बल्कि उसके प्रति विशेष आग्रह भी देखा जा रहा है, यह अलग बात है कि माक्र्सवादी, लेनिनवादी और माओवादी विचार के तनाशाहों की ंिचता अभी विकराल रूप धारण करने से बची है। पिछले दो माह से नेपाल के अंदर में हिन्दू राजशाही की मांग जोर पकड़ रही है। नेपाल की राजधानी काठमान्डू ही नहीं बल्कि छोटे से लेकर बडे शहरों में भी हिन्दू राजशाही के पक्ष में प्रदर्शन हुए हैं। प्रदर्शन में बन्दूक गोली वाली कम्युनिस्ट तानाशही के खिलाफ आक्रोश भी देखा जा रहा है। नेपाल में राजशाही के अंत के बाद ऐसा आग्रह नहीं देखा जा रहा था। राजशाही के पक्ष में चंद वैसे लोग थे जो पुरातन विचार धारा के लोग थे, हम इन्हें पुरातन पीढी के वाहक भी कह सकते हैं। ऐसा इसलिए संभव हो सका था कि नेपाल की राजशाही में हुए अप्रिय घटनाओं के बाद राजशाही प्रेम पर प्रश्न चिन्ह खडा हुआ और नेपाल के लिए राजशाही को गैरजरूरी समझ लिया गया था। पर विचार करने वाली बात यह है कि प्रदर्शनों में हिस्सा लेने वाले अधिकतर युवा लोग हैं। जब किसी आंदोलन में युवाओं की भागीदारी होने लगती है तब यह मान लिया जाता है कि आंदोलन न केवल आगे बढेगा बल्कि आंदोलन अपने लक्ष्य को भी प्राप्त कर लेगा। राजशाही की वापसी का समर्थन करने वाली नेपाल प्रजातंत्र पार्टी पहले की अपेक्षा में ज्यादा मजबूत होकर उभरी है।
                                         क्या बन्दूक-गोली की कम्युनिस्ट तानाशाही को पराजित कर नेपाल में एक बार हिन्दू राजशाही की स्थापना हो सकती है? क्या नेपाल के हित में राजशाही की वापसी है? नेपाल क्या एक बार फिर अराजकता की ओर अग्रसर है? अगर नेपाल में एक बार फिर हिन्दू राजशाही कायम हुई तो फिर माओवादी क्या फिर बन्दूक और गोली की संस्कृति अपना सकते हैं? हमें ध्यान रखना चाहिए कि लोकतंत्र में कोई भी विचार रातोरत सत्ता के शिखर पर बैठ जाता है और राज शिखर से नीचे चला आता है। भारत इसका एक उदाहरण है। भारत में कभी हिन्दुत्व के विचार धारा को सांप्रदायिक कहा जाता था और यह स्थापित था कि हिन्दुत्व के विचार धारा से भारत की एकता व अखंडता खंडित होगी, इसलिए हिन्दुत्व का प्रतिनिधित्व करने वाली भारतीय जनता पार्टी और संघ को अक्षूत बना कर रखा जाना चाहिए। लेकिन हिन्दुत्व के प्रति अति रंजित सोच को लेकर प्रतिक्रिया हुई। प्रतिक्रिया जब हुई तब भारत के मुख्य धारा में हिन्दुत्व स्थापित हो गया। आज नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री पद दूसरी बार बैठना इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। ऐसा ही राष्ट्रवाद फ्रांस सहित अन्य यूरोपीय देशों में देखा जा रहा है। नेपाल की शासन व्यवस्था अभी लोकतांत्रिक है। क्युनिस्ट तानाशाही चाह कर भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाधिर करने में सफलता हासिल नहीं कर सकते हैं। अगर साफसूथरी चुनाव प्रक्रिया आगे भी चलती रहेगी तो फिर नेपाल के अंदर में राजशाही की वापसी संभव भी हो सकती है। इधर कई ऐसी कम्युनिस्ट तानाशाही की राजनीतिक घटनाएं हुई हैं जिससे नेपाल के हिन्दुओं के मन में अपनी सुरक्षा और आयातित संस्कृति के खतरे को लेकर चिंता आगे बढी है। नेपाल आयातित संस्कृति की चपेट में है। आयातित संस्कृति की हिंसा बहुत ही खतरनाक है। कभी शांत रहने वाला नेपाल आज आयातित संस्कृति की हिंसा से दग्ध है। उधर अमेरिका और यूरोपीय देशों की मिशनरियां नेपाल की गरीबी और राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठा कर धर्मातंरण का खेल खेल रही है। आयातित संस्कृति की हिंसा और अमेरिका-यूरोप की मिशनरियों के खेल पर कम्युनिस्ट तानाशाही उदासीन ही नहीं बल्कि समर्थन में खडी है।
                                               नेपाल के प्रधानमंत्री ओली और माओवादी नेता प्रचंड अपनी खुशफहमी छोड दे तो फिर नेपाल के राजशाही की वापसी रूक सकती है, राजशाही की वापसी को लेकर उठा बंवडर कमजोर पड सकता है। लेकिन उम्मीद नहीं है कि उनकी यह खुशफहमी टूटने वाली है। जब अराजकता कम नहीं होगी, रोजगार के प्रश्न पर माक्र्सवादी दृष्टि अपना कर निवेश और उद्योग घंघों पर चाबुक चलता रहेगा, भ्रष्टाचार चरम पर होगा, राजनीतिक अस्थिरता होगी तो ऐसी स्थिति में नेपाल की अर्थव्यवस्था भी गति नहीं पकडेगी। आम जनता में आक्रोश भी बंवडर कर रूप धारण करेगा। नेपाल में अभी दो ही राष्ट्रीय मुख्य धारा की पार्टियां हैं। एक नेपाली कांग्रेस और दूसरी नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी। भ्रष्टचार और दूरदर्शिता के अभाव में नेपाली कांग्रेस को आम जनता ने पहले ही खारिज कर चुकी है पर अभी नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में हैं। अगर राष्ट्रीय मुख्य धारा की दोनों पार्टियां जनता के बीच अलोकप्रिय होगी, असफल होगी तो फिर राजशाही पक्षधर प्रजातांत्रिक पार्टी के विस्तार को कौन रोक सकता है? यह खतरा नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के सिर पर मंडरा रहा है। कम्युनिस्ट-माओवादियों को इस खतरे के प्रति उदासीनता अपनाना नुकसानकुन साबित होगा, उनके अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी साबित होगी


संपर्क .....
विष्णुगुप्त
मोबाइल नंबर ...    9315206123

Tuesday, December 1, 2020

ममता बनर्जी की फिसलती सत्ता ?

 


     राष्ट्र-चिंतन

उफान, बंवडर, अति हिन्दू विरोध की राजनीति, एकांकी सांप्रदायिकता की नीति, ओवैशी और अवैघ घुसपैठिये जैसे प्रश्न ममता बनर्जी के काल साबित होगे


ममता बनर्जी की फिसलती सत्ता ?


       विष्णुगुप्त


क्रांति काल और शांति काल की राजनीति में अंतर होता है। क्रांति काल की राजनीति की सीमाएं अराजक भी होती हैं, उफान वाली भी होती हैं, हिंयक भी होती हैं, सारी मान्यताओं और परमपराओं को तोड़ने वाली होती है जबकि शांति काल की राजनीति न तो अराजक होती है और न ही मान्यताओं और परमपराओं को लांघने या फिर विध्वंस करने की उम्मीद बनती है, शांति काल की राजनीति को कानून और संविधान के दायरे में कसने की जरूरत होती है, जनकांक्षाओं की कसौटी पर उतरने की अपेक्षाएं होती हैं। भारतीय राजनीति में ये सीमाएं बार-बार देखी जाती है। ममता बनर्जी की राजनीति की भी दो सीमाएं रही हैं, एक क्रांति काल की सीमाएं और दूसरी शंातिकाल की सीमाएं। शांति काल का अर्थ जब वह सत्ता में विराजमान हुई तब की राजनीति की उनकी क्रियाएं।
                              ममता बनर्जी की राजनीति का प्रथम भाग यानी क्रांति काल बेहद ही उफान वाली, बवंडर वाली, जनाक्रोश वाली, सभी मान्यताओं और परमपराओं को तोड़ने वाली रही है, अपनी राजनीतिक बवंडर से ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल की उस राजनीतिक सत्ता को न केवल वुनौती दी थी बल्कि उस राजनीतिक सत्ता को उखाड़ भी फेंकी थी जो राजनीतिक सत्ता 30 सालों तक अपराजेय थी और जिस सत्ता को इन्दिरा गांधी-राजीव गांधी भी विध्वंस करने की उपलब्धि दिखाने में असफल साबित हो गये थे। वामपंथी सरकार बेहद ही तानाशाही और गंुडई की प्रतीक थी, जिनकी सत्ता में राजनीतिक परिवर्तनवादियों को बलपूर्वक और साजिशन निपटा दिया जाता था, बडे आंदोलन खड़ा करने का सपना पूरा नहीं होता था। पर वामपंथियों का एकाएक पूंजी प्रेम आत्मघाती हुआ, टाटा और विदेशी कपंनियों को आमंत्रित करना उनके अस्तित्व के लिए काल बन गया। सिंदुर और नंदीग्राम आंदोलन की कोख से ममता बनर्जी की सत्ता का जन्म हुआ जो पश्चिम बंगाल की ऐतिहासिक घटना बन गयी। कहने का अर्थ यह है कि कंांतिकाल की राजनीति में ममता बनर्जी सौ प्रतिशत सफल राजनीतिज्ञ साबित हुई थी।
                                 पर क्या शांति काल की राजनीति यानी सत्ता की राजनीति मे भी ममता बनर्जी सफल हुई हैं? क्या ममता बनर्जी क्रांति काल की तरह ही शांति काल में भी अपनी सरकार को जनांकाक्षी बनाने में सफल हुई हैं? क्या ममता बनर्जी अपनी सरकार में दूरदर्शिता कायम करने में सफल हुई? क्या ममता बनर्जी अपनी सरकार में पश्चिम बंगाल में विकास की योजनाओं का लागू करने में दक्ष साबित हुई है? क्या ममता बनर्जी अपनी सरकार में पश्चिम बंगाल में हत्याओं की राजनीति पर रोक लगाने में सफल हुई है? क्या ममता बनर्जी अपनी सरकार में केन्द्र की सरकार के साथ दुश्मनी पालने की दोषी हैं? क्या ममता बनर्जी अपनी सरकार में पश्चिम बंगाल में औद्योगिक क्रांति को सफल बनाने में कामयाब हुई हैं? क्या ममता बनर्जी अपनी सरकार में पश्चिम बंगाल में आम जनता के पलायन को रोकने और देशज रोजगार को सजृत करने में कामयाबी हासिल की है? क्या ममता बनर्जी बाग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों को रोकने और आबादी आक्रमण के खिलाफ वीरता दिखाने के लिए राजधर्म का पालन किया? ये सभी प्रश्न अति महत्वपूर्ण हैं और इन्ही प्रश्नों की पडताल कर ममता बनर्जी की सत्ता का मूल्यांकन किया जा सकता है।
                                 बडी शख्सियत, बडे योजनाकार, बडे राजनीतिज्ञ कभी भी लिक के फकीर नहीं होते हैं, इतिहास वही गढते हैं, प्रेरणा वही बनते हैं, आईकाॅल वही बने हैं जो कभी भी लिक के फकीर नहीं बनते हैं, जो किसी की फोटो काॅपी बनने से इनकार कर देते हैं और नया लकीर खींच देते हैं, नया करने की उपलब्धि सुनिश्चित करते हैं। इस कसौटी पर ममता बनर्जी का जब मूल्यांकन होता है तब बहुत ही निराशा होती है, हताशा होती है कि एक क्रांति काल का सफल और प्रेरणा दायी राजनीतिज्ञ कैसे और क्यों लिक का फकीर बन गया, असफल साबित हो गया, पिछली वामपंथी सत्ता की फोटो स्टेट काॅपी बन गयी। निश्चित तौर पर ममता बनर्जी अपनी प्रतिद्वंद्वी वामपंथी पार्टियों की शासन व्यवस्था, वामपंथी पार्टियों की राजनीतिक शैली, वामपंथी पार्टियों की तानाशाही प्रेम के समुद्र में डूब गयी। वामपंथी सरकार की शैली और एजेंडा गुंडागर्दी की थी, हत्या की राजनीति की थी, औद्योगिक विध्वंस की थी, आधुनिक रोजगार की व्यवस्था के विरोधी की थी, राज्य में रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठियों को संरक्षण देकर अपना वोट बैंक तैयार रखने और अपनी सत्ता को जीवंत रखने की थी। यही कारण था कि पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार के खिलाफ कोई एक नहीं बल्कि तीस सालों तक कोई विकल्प तैयार नहीं हुआ था। आम जनता भी विकल्प के अभाव में वामपंथी सरकार को बार बार जीवन दान देती रही थी।
                               वामपंथियों के हथकंडे ममता बनर्जी क्यों अपनायी? वामपंथी तो जन्मजात हिंसक, हत्यारा, अमानवीय, तानाशाही और लोकतंत्र खोर होते हैं, ये सब उनकी पार्टी का अपरिवर्तनशील सिद्धांत है जिसका स्पष्ट उदाहरण चीन से लेकर सोवियत संघ के अलावा भी जहां-जहां कम्युनिस्टों की सरकार रही है वहां वहां देखने को मिलता है। जब ममता बनर्जी आंदोलन रत थी तब पश्चिम बंगाल में उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं की बडी संख्या में हत्या होती थी, ममता बनर्जी खुद कई बार कम्युनिस्टों के हमले में घायल हो चुकी थी, घायल अवस्था में चैयर पर बैठ कर ममता बनर्जी राज्यपाल और संसद तक प्रदर्शन की थी। उस समय कम्युनिस्टों की इस हिंसा से देश भर में चिंता व्याप्त हुई थी। अब यही हथकंडा ममता बनर्जी ने अपना लिया है। ममता बनर्जी के शासनकाल में पश्चिम बंगाल में हजारों ऐसी हत्याएं हुई हैं जो राजनीतिक प्रतिशोध का दुष्परिणाम रही है। त्रीनमूल कांग्रेस पर यह आरोप लगाया जा रहा है उनकी गुंडागर्दी की राजनीति तो कम्युनिस्टो की सत्ता के समय की गुंडागर्दी की राजनीति को मात दे दिया है। यह सिर्फ आरोप नहीं है बल्कि इसमें सच्चाई है। पश्चिम बंगाल में हिंसा की राजनीति सच है। हिंसा की राजनीति का अस्तित्व शहर से लेकर गांव-गांव तक उपस्थित है। वामपंथी पार्टियां भी कहती हैं कि ममता बनर्जी के राज में उनके सैकड़ों कार्यकर्ताओं को मौत का घाट उतार दिया गया। पुलिस और प्रशासन राजनीतिक हत्याओं के खिलाफ कोई कारवाई करती नहीं है खासकर भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता निशाने पर ज्यादा है। भाजपा की राज्य इंकाई बार-बार ऐसे अपने कार्यकताओं की सूची जारी की है जिनकी हत्याएं टीएमसी कार्यकर्ताओं और गुंडो द्वारा हुई है। टीएमसी गुंडों में रोहिंग्या और बंग्लादेशी घुसपैठियों का भरमार है। रोंिहग्या और बांग्लादेशी घुसपैठिये भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या इसलिए करते हैं कि वे अवैध घुसपैठ कर विरोध करते हैं।
                                          अवैध घुसपैठ से अराजकता बढती है, हिंसा बढती है, भूमि की कसौटी पर टकराव बढता है, बेरोजगारी बढती है, कानून - व्यवस्था की समस्या खडी होती है। इस सिद्धांत की अवहेलना वामपंथियों ने की थी और अब इस सिद्धांत की अवहेलना ममता बनर्जी ने भी की है। इसलिए आज पूरा पश्चिम बंगाल अवैध घुसपैठियों के कब्जे में कैद हो गया है। संरक्षण के कारण अवैध घुसपैठिये टीएमसी के कार्यकर्ता बन गये है। टीमएसी में शामिल होकर अवैध घुसपैठिये राजनीतिज्ञ भी बन गये है।
                               जब हिंसा चरम पर होगी, राजनीति पूरी तरह से हिंसक होगी, अवैध घुसपैठियों की पौबारह होगी तब औद्योगिक घंधों के विकास और रोजगार के सृजन की उम्मीद दफन हो जाती है। आज कौन सा बड़ा उद्योग पश्चिम बंगाल में है? निवेश की कसौटी पर पश्चिम बंगाल की स्थिति बहुत ही दयनीय है। जब औद्योगिक घंघे नहीं होगे तब रोजगार के साधन भी विकसित नहीं होंगे। अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर न केवल बैरोजगारी बढती है बल्कि अराजकता और भूखमरी भी पसरती है।
                                टीएमसी में मची भगदड के संकेत को ममता बनर्जी क्यों नहीं समझ रही है? कई मंत्री और कई विधायक ममता बनर्जी की तानाशाही रवैये से अलग हो चुके हैं। लगता है कि ममता बनर्जी का सारा ध्यान तथाकथित सांप्रदायिकता के नारे से फिर से चुनाव जीतना है। सांप्रदायिकता का उनका नारा एंककी है। हिन्दू सांप्रदायिकता पर ममता बनर्जी अति मुखर हैं पर मुस्लिम सांप्रदायिकता के प्रश्न पर उनकी निष्पक्ष नीति का घोर अभाव है। भाजपा पिछले लोकसभा चुनावों में डेढ दर्जन सीटों पर जीत कर ममता बनर्जी के लिए खतरे की घंटी बनी थी। भाजपा को विध्वंस करने की अपनी नीति में ममता बनर्जी लगातार विफल साबित हो रही है। भाजपा का जितना अतिवाद के साथ विरोध करती है उतना ही भाजपा आगे निकल रही है। पूरा हिन्दू वोट आज भाजपा के साथ खडा है।
                        भाजपा विरोध में ममता बनर्जी की कम्युनिस्ट पार्टियां पिछलग्गू बन जायेंगी? अभी ऐसा लग नहीं रहा है। कांग्रेस भी ममता बनर्जी के साथ आयेगी, ऐसा भी कोई संकेत नहीं है। खास कर पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टियों का आज भी कैडर आधार है। यह सही है कि कांग्रेस, कम्युंनिस्ट पार्टियों और टीएमसी का एक ही एजेंडा है, वह एजेंडा भाजपा विरोध का है। ओवैशी भी एक खतरा है। बिहार की तरह अगर पश्चिम बंगाल में भी ओवैशी सफल हो गया तो फिर ममता बनर्जी की राजनीति नैया कैसे नहीं डूबेगी। कम्यंुनिस्टों के विकल्प के अभाव में ममता बनर्जी को सत्ता मिलती रही है। पर इस बार उनकी सत्ता की वापसी की पूरी उम्मीद भी बनती नहीं है। भाजपा विकल्प के तौर पर उपस्थित है। इसलिए ममता बनर्जी को उफान, बंवडर और एंकाकी सांप्रदायिकता की राजनीति आत्मघाती होगी और भारी पडेगी। अति हिन्दू विरोध की उनकी राजनीति से भाजपा को अवसर भी मिल सकता है।



संपर्क .....
विष्णुगुप्त
मोबाइल नंबर ...    9315206123

Monday, November 23, 2020

दक्षिणांचल में ‘‘ मोदी मैजिक ‘ की गति बढ़ेगी ?

  राष्ट्र-चिंतन

दक्षिणांचल में ‘‘ मोदी मैजिक ‘ की गति बढ़ेगी ?
        विष्णुगुप्त



दक्षिणांचल भाजपा की सबसे कमजोर कडी रही है। इसीलिए भाजपा की अब दक्षिणाचंल की ओर दृष्टि लगी हुई है। दक्षिणाचंल में भाजपा के लिए संभावनाएं भी कम नहीं है। नये जोश के साथ भाजपा अब दक्षिणाचंल में सक्रिय ही नहीं हो रही है बल्कि अभियानी भी है। अब भाजपा के पास दो-दो राजनीतिक ब्रम्हास्र है जिसके सहारे वह दक्षिणाचंल में अपने विरोधियों को परास्त करेंगी, मतदाताओं को आकर्षिक कर अपना विस्तार करेगी। ये दो ब्रम्हास्र हैं, एक हिन्दुत्व और दूसरा ‘ मोदी मैजिक ‘ है। काफी समय पहले से दक्षिणांचल में भाजपा अपने आधार का विस्तार करने की कोशिश कर रही थी और अपनी संभावनाएं तलाश रही थी पर इसमें असफलताएं ही हाथ लग रही थी, हिन्दुत्व का ब्रम्हास्र बहुत ज्यादा कारगर नहीं हो पा रहा था।
                                    इसके पीछे कारण यह था कि हिन्दुत्व के सामने भाषा का प्रश्न अति महत्वपूर्ण बन जा रहा था। दक्षिणाचंल में भाषा की समस्या और अस्मिता भी जगजाहिर है। पूरी राजनीति भाषा के प्रश्न पर मजबूती के साथ खडी रहती है। कभी भाजपा का हिन्दी प्रेम दक्षिणाचंल में समस्या खडी करती थी और संदेश यह जाता था कि भाजपा दक्षिणाचंल की भाषा का अंत चाहती है, दक्षिणांचल की भाषा की कब्र पर अपना विस्तार करना चाहती थी। आजादी के बाद दक्षिणाचंल में भाषा की लड़ाई और हिन्दी को थोपने की तथाकथित कोशिश के प्रति जनाक्रोश उत्पन्न हुआ और यह जनाक्रोश राजनीति को अपने शिकंजे में कसने का काम किया। जबकि देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी मानी गयी थी पर हिन्दी को पूरे देश की भाषा बनाने की चरण बद्ध योजना थी। अब भाजपा के लिए हिन्दी प्रेम भी कोई बेड़ियां नहीं है। अब भाजपा देशज भाषा के विकास और उन्नति की बात करती है। इसलिए दक्षिणांचल की भाषाओं की अस्मिता को अक्षुण रख कर भाजपा अपना विस्तार कर सकती है।
                                         अभी-अभी भाजपा के महारथी अमित शाह दक्षिणांचल के दौरे कर आये हैं। उनका यह दौरा शुद्ध रूप से पार्टी का दक्षिणांचल में विस्तार करना है और अगले लोेकसभा चुनावों मे सीटें जीतने की कोशिश के रूप में देखा जाता है। अमित शाह कहीं भी जाते हैं और कोई कदम उठाते हैं तो फिर सुर्खियां बनती हैं, तरह-तरह की अटकलें लगायी जाती है। अमित शाह ने खुद कह दिया कि अब भाजपा दक्षिणांचल में भी मजबूत होकर उभरेगी। जहां तक अमित शाह की दक्षिणांचल दौरे की सफलता की बात है तो इसमें दो मत नहीं कि उनका यह दौरा बहुत ही सफल रहा है, अपने उद्देश्य में अमित शाह सफल जरूर हुए हैं। तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में जिस तरह से अमित शाह का स्वागत हुआ और जिस तरह की भीड़ जुटी थी उस पर निष्कर्ष बहुत ही सकरात्मक निकला है। इसलिए कि भीड़ उत्साहित थी, भीड़ हिन्दुत्व और मोदी मैजिक से प्रभावित थी। जहां-जहां हिन्दुंत्व और मोदी मैजिक का उभार और जोश देखा जाता है वहां-वहां भाजपा के लिए अवसर तथा संभावनाएं होती हैं।
                                          दक्षिाणांचल का श्रीगणेश चैन्नई से करने का उद्देश्य क्या है? दक्षिणांचल की राजनीति में तमिलनाडु और चैन्नई का महत्व भी जगजाहिर है। जिस तरह से उत्तरांचल की राजनीति दिल्ली, पश्चिमंाचल की राजनीति मुबंई और पूर्वांचल की राजनीति असम से गतिशील होती है, सक्रिय होती है और प्रभावित होती है उसी प्रकार से दक्षिणांचल की राजनीति का संदेश और प्रभाव चैन्नई से ही प्रसारित होता है। यह धारणा बैठी हुई है कि जिस पार्टी का तमिलनाडु में पकड होगी उस पार्टी का दक्षिणांचल पर भी पकड मजबूत होगी। अब तक तमिलनाडु पर किसी राष्ट्रीय राजनीतिक दल नहीं बल्कि क्षेत्रीय राजनीतिक दल की पकड रही है। बदल-बदल कर क्षेत्रीय राजनीति ही तमिलनाडु पर राज करती है। कभी द्रमुक और तो कभी अन्नाद्रमुक मेंसत्ता हस्तांतरित होती रही है। कांग्रेस पार्टी इन्ही दोनों पार्टियों के बीच झूलती रही है। कम्युनिस्ट पार्टियां भी इन्ही दोनों क्षेत्रीय राजनीति के सहारे खडी रहती हैं। पिछले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों ने द्रमुक के साथ मिल कर चुनाव लडी थी। पिछले लोकसभा चुनाव में द्रमुक और कांग्रेस तथा कम्युनिस्ट पार्टियों को अच्छी सफलताएं भी मिली थी।
                                   द्रमुक और अन्नाद्रमुक विचारधारा से कम और व्यक्तित्व से अधिक चमत्कृत रही है। इन्हें व्यक्ति आधारित पार्टियां कहना कोई अतिशोयेक्ति नहीं होनी चाहिए। द्रमुक जहां करूणानिधि के व्यक्तित्व से और  वही अन्नाद्रमुक एमजी रामचन्द्रण की व्यक्तित्व से फली-फूली हैं। तमिल ही नहीं बल्कि कन्नड और तेलगू राजनीति में व्यक्तित्व का आकर्षण बहुत ही ज्यादा रहा है। खासकर अभिनेताओं से आम जनता कुछ ज्यादा ही प्रभावित रहती है। अभिनेताओं को दक्षिणांचल में भगवान की तरह देखा जाता है, अभिनेताओं के नाम पर जान भी लोग दे देते हैं। तमिलनाडु में एमजी रामचन्द्रण अभिनेता थे, करूणानिधि भी अभिनेता थे, आंध प्रदेश में कभी एनटी रामाराव अभिनेता थे, एनटी रामाराव ने एकाएक तुलगू देशम पार्टी बनायी और इन्दिरा गांधी की होश उडाते हुए आंध प्रदेश की सरकार पर कब्जा कर लिया था। अब आंध्र प्रदेश की राजनीति में अभिनेता प्रेम कुछ कम हुआ है। तमिलनाडु में करूणानिधि की अस्मिता की चमक ढीली पडी है, उनके विरासत के कई सौदागर है, एमजी रामचन्द्रन की विरासत बनी जयललिता का अवसान हो चुका है। इस लिए अब तमिलनाडु की राजनीति में अभिनेता प्रेम या फिर व्यक्ति आधारित राजनीति की बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं है। ऐसे राजनीकांत कभी कभार राजनीति में कूदने का आभास देते रहते हैं पर अभी तक रजनीकांत की स्पष्ट सक्रियता सामने नहीं आयी है। रजनीकांत की अंदर खाने में भाजपा से ज्यादा पटती है। उधर एक दूसरे अभिनेता कमल हासन का उछल-कूद कोई खास सक्रियता सुनिश्चित नहीं कर सका है।
                                 दक्षिणांचल क्षेत्र में तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, तेलगाना, कर्नाटक और केरल मुख्य राज्य हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान में तमिलनाडु को छोडकर अन्य प्रदेशों में भाजपा की उपस्थिति बहुत ज्यादा कमजोर नहीं है। कर्नाटक में भाजपा की सरकार है। त्रिपुरा में भी भाजपा की सरकार है। त्रिपुरा में भाजपा ने 30 सालों से जमी कम्युनिस्टों की सरकार को हवाहवाई की है और अपनी सरकार बनायी है। त्रिुपरा में अपनी उपपलब्धि को भाजपा विशेष मान कर चल रही है। कर्नाटक में भाजपा की सरकार की शक्ति तमिलनाडु ही नहीं बल्कि आंध्र प्रदेश और तेलगाना तक की राजनीति को प्रभावित कर रही है। आंध प्रदेश में वाइएस चन्द्रशेखर की विरासत की सरकार है जबकि तेलगाना के मुख्यमंत्री के चन्द्रशेखर राव की सरकार है। आंधप्रदेश में एनटी रामाराव के विरासत चन्द्रबाबू नायहू का अवसान जारी है। आंध प्रदेश में भाजपा मुख्य विपक्ष की भूमिका निभाने की कोशिश कर रही है। जबकि तेलंगाना में भाजपा की उम्मीद कुछ ज्यादा ही है। के चन्द्रशेखर राव लंबे समय से मुख्यमंत्री जरूर हैं और उनकी अपने राज्य पर पकड़ भी मजबूत है पर अब लोगों में नाराजगी भी बढ रही है। पिछले लोकसभा चुनावों में इसका संकेत मिला था। के चन्द्रशेखर राव की बेटी खुद लोकसभा चुनाव हार गयी थी। भाजपा भी यहां पर लोकसभा की चार सीटें जीतने में कामयाब हुई थी। लगभग 20 प्रतिशत वोट हासिल करने में कामयाब हुई थी। अविभाजित आंध्र प्रदेश में कभी भाजपा का प्रभाव भी रहा था। यहां पर हिन्दुत्व का भी प्रभाव रहा है। के चन्द्रशेखर राव कभी संघ के ही स्वयं सेवक थे। अविभाजित आंध्र प्रदेश में संघ और भाजपा का प्रभाव का एक बडा उदाहरण यह है कि 1984 के लोकसभा चुनावों में भी भाजपा एक लोकसभा सीट जीतने में कामयाब हुई थी। तब भाजपा के उम्मीदवार ने बाद में प्रधानमंत्री बने नरसिम्हा राव को हराया था। तेलंगाना में कांग्रेस लगातार कमजोर हो रही है, इसलिए यहां पर भाजपा के लिए बहुत बडी संभावनाएं बनी हैं।
                                             दक्षिणांचल में भाजपा की सबसे कमजोर कडी तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के पलानीस्वामी और उनकी सरकार है। अन्नादमुक की शक्ति भी दो भागों में विभाजित हो गयी है। पिछले लोकसभा के चुनावों में पलानीस्वामी का जादू नहीं चल पाया था। पलानीस्वामी विफल साबित हुए थे। द्रमुक ने पलानीस्वामी को पटकनी दे दी थी। जहां तक पलानीस्वामी की सरकार की बात है तो फिर आक्रोश भी कम नहीं है। पलानीस्वामी उस तरह की राजनीतिक हैसियत और विशेषताएं नहीं रखते हैं जिस तरह की हैसियत और विशेषताएं जयललिता के पास हुआ करती थी। नरेन्द्र मोदी की केन्द्रीय सरकार की कोशिश पलानीस्वामी सरकार को मदद करने की है, इसलिए केन्द्र की योजनाएं भी तेजी से तमिलनाडु में चल रही है। अगर पलानीस्वामी अपने जादू चलाने में सफल हुए तो फिर 2024 में नरेन्द्र मोदी के लिए वरदान भी साबित हो सकते हैं। अभी तक के संकेतों के अनुसार तमिलनाडु में भाजपा और अन्नाद्रमुक मिल कर ही चुनाव लडेंगे। भाजपा की यह कोशिश है कि अगर 2024 के लोकसभा चुनावों में उत्तरांचल, पश्चिमांचल, पूर्वांचल में नुकसान हुआ तो उसकी भरपाई दक्षिणांचल से किया जा सके। दक्षिणांचल में तमिलनाडु ही भाजपा के विस्तार और संभावनाओं के केन्द्र में है। अगर दक्षिणांचल में हिन्दुत्व और मोदी मैजिक का जादू चला तो फिर 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा और मोदी अपनी जीत की हैट्रिक मना सकते हैं।

संपर्क .....
विष्णुगुप्त
मोबाइल नंबर ...    9315206123

Tuesday, November 10, 2020

...अन्यथा नीतीश की राजनीति की इतिश्री होगी

  


     राष्ट्र-चिंतन


       ‘ मोदी मैजिक ‘ से नीतीश कुमार को मिला जीवनदान
...अन्यथा नीतीश की राजनीति की इतिश्री होगी

                                विष्णुगुप्त  


अब नीतीश कुमार की परजीवी राजनीति आगे नहीं चलने     वाली है। नीतीश कुमार को अनैतिकता, अंहकार और अविश्वसनीयता की राजनीति छोडनी होगी। शराबबंदी से आगे की ओर सोचना होगा। बिहार को आधुनिक शिक्षा का हब बनाना होगा, बिहार में कृषि आधारित उघोगधंधे विकसित करने ही होंगे। अन्यथा नीतीश कुमार की राजनीति की भी इति श्री होगी।

 
नीतीश कुमार के खिलाफ बंवडर था, आक्रोश चरम सीमा पर था, कुशासन और भ्रष्टचार से पीड़ित लोग जंगलराज से भी दोस्ती करने के लिए तैयार थे। स्वयं के बल पर नीतीश कुमार में इतनी राजनीतिक शक्ति कतई नहीं थी कि वे अपने खिलाफ उठे चुनावी बवडंर को शांत कर सके, अपने कुशासन व भ्रष्टचार सी पीड़ित लोगों के विरोध को समर्थन में बदल सके। बिहार के कोने-कोने में लोग नीतीश कुमार के खिलाफ उबाल पर थे, कह रहे थे कि हमने कोई एक साल-दो साल नहीं बल्कि पूरे पन्द्र्रह साल दे दिये, फिर भी विकास कोसों दूर क्यों हैं, भ्रष्टचार पहले से बढा ही है, नौकरशाही बेलगाम होकर जनता को पीड़ित बनाती है, नौकरशाही के भ्रष्टचार के खिलाफ बोलने वाले सीधे जेल जाते हैं, या फिर उनकी जान जाती है। आखिर जंगलराज लौटने की डर से नीतीश कुमार के कुशासन, अंहकार और खुशफहमी के मंकडजाल में बिहार का भविष्य बार-बार बलिदान क्यों किया जाये? ले देकर शराबबंदी की कथित उपलब्धि भी चुनाव मैंदान में असरदार नहीं दिख रही थी, कहने का तात्पर्य यह है कि शराबबंदी की कथित उपलब्धि नीतीश कुमार को फिर से सत्ता दिलाने के लिए लोगों को प्रेरित नहीं कर पा रही थी। शराबबंदी के नाम पुलिस के अत्याचार और पुलिस व शराब माफिया की मिलीभगत का खुला खेल बिहारी जनता  देख ही थी। ऐसी स्थिति में बिहार की जनता आसानी से नीतीश कुमार को अपना जनादेश देने के लिए और एक बार फिर अपना भाग्यविधाता चुनने के लिए तैयार कैसे होती? यही कारण है कि नीतीश कुमार बिहार में चुनाव परिणामों के बाद तीसरे नंबर की पार्टी साबित हुई, बिहार की जनता ने लालू यादव की विरासत जंगलराज की वापसी नही चाही और लालू के पुत्र तेजस्वी को खारिज कर दिया पर नीतीश कुमार को भी तीसरे नंबर पर भेजकर कड़ा राजनीतिक संदेश भी दे दिया है। अब राजनीतिक परजीवी नीतीश कुमार को अपने कुशासन को सुशासन में बदलना ही होगा।
                                          हर कोई आश्चर्यचकित है। हर केई के आश्चर्यचकित होने का कारण क्या है? आश्चर्यचकित होने का कारण यह है कि विरोध में इतना बड़ा बंवडर होने और अति आक्रोश के कारण भी नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले राजग गठबंधन को बहुमत क्यों मिला? अगर हम इस प्रश्न का विश्लेषण करते है तो इसका दो ही कारण स्पष्ट है। पहला कारण लालू की विरासत जंगलराज का डर और दूसरा कारण मोदी मैजिक। विहार विधान सभा चुनाव का यह परिणाम दर्शाता है कि बिहार की जनता पर अभी भी लालू के जंगलराज की डर कायम है। लालू के पुत्र भी अपने पिता की जंगलराज की विरासत का प्रतिनिधित्व करते है। हालांकि लालू पुत्र तेजस्वी ने अपने पिता की छ़त्रछाया से बाहर निकलने की पूरी कोशिश की थी। चुनाव प्रचार में तेजस्वी ने अपने माता-पिता यानी लालू और राबडी को दूर कर दिया था, बैनर-पोस्टर पर लालू, राबडी की तस्वीर तक नहीं लगी थी। लेकिन यह दांव भी असफल साबित हो गया। दरअसल जो पीढी लालू राज का जंगलराज देखी है वह आज भी जंगलराज को याद आते ही सिहर उठती  है। जब तक यह पीढी जिंदा रहेगी तब तक लालू या फिर उनकी विरासत को जंगलराज के अपराध से मुक्ति नहीं मिलने वाली है।
                                                          दूसरा बड़ा कारण है मोदी मैजिक। जिस नरेन्द्र मोदी को कभी नीतीश कुमार ने दंगाई कहा था, जिस मोदी के विरोध में नीतीश कुमार ने भाजपा से दोस्ती तोड़ी थी, विश्वासघात कर लालू के जंगलराज से दोस्ती की थी, जिस मोदी के नाम पर खाने पर आमंत्रित कर अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी सहित पूरी भाजपा की टीम को बिना खाना खिलाये भगा कर अपमानित किया था उसी नरेन्द्र मोदी ने इस बार नीतीश कुमार की सत्ता बचायी, नीतीश कुमार की राजनीतिक नैया डूबने से बचायी। कितु-परंतु से यह परे की बात है कि इस बिहार विधान सभा चुनाव में सिर्फ और सिर्फ नरेन्द्र मोदी की छवि ने ही कमाल की है। नरेन्द्र मोदी की छवि ने ही बिहार के मतदाताओं को आकर्षित किया है। नरेन्द्र मोदी ने गठबंधन धर्म पर ईमानदारी दिखायी और कोई एक-दो नहीं बल्कि एक दर्जन से अधिक सभाओं को संबोधित किया था। नरेन्द्र मोदी का आक्रामक प्रचार से हवा बनी, तेजस्वी के महागठबंधन पक्ष में बहती हवा कमजोर हुई और मतदाताओं की गोलबंदी रूकी। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि नरेन्द्र मोदी का जादू बिहार की जनता के सिर पर चढकर क्यों बोली? खासकर कोरोना काल में नरेन्द्र मोदी की वीरता, उज्जवला योजना और स्वच्छता योजना का आकर्षण ने बडा काम किया है। कोरोना काल में आम गरीबों का जीवन किस प्रकार संकट में खडा हुआ है, यह भी जगजाहिर है। नरेन्द्र मोदी ने कोरोना काल में आम आदमी के जीवन को संकट से उबारने के लिए राहतकारी योजनाएं और कार्यक्रम दिये। आम गरीबों को हर माह पांच किलो गेहू, चावल, इसके अलावा दाल, चीनी के साथ ही साथ किरोसन तेल भी मिला। आम गरीबों को फ्री गैस सिलेडर मिला। आम गरीबों के खातों में सहायता राशि भी पहुंची। इस कारण कोरोना काल में आम गरीबों के जीवन संकट कम हुआ। सिर्फ आम आदमी ही नहीं बल्कि किसानों के खातों में घोषित राशि पहुंची। इस कारण नरेन्द्र मोदी की विश्वसनीयता चरम पर पहुंची है। नरेन्द्र मोदी की इसी विश्वसनीयता ने गरीबों को जंगलराज से दोस्ती करने से रोकी।
                                                     आप स्वीकार करें या नहीं करे पर यह सच है कि एक अन्य कारण राष्टवाद भी है, राष्टवाद का सीधा मतलब यहां हिन्दुत्व से है। हिन्दुत्व ने भी जंगलराज से दोस्ती करने से बिहार की जनता को रोकने का काम किया है। भाजपा के 90 प्रतिशत वोटर ऐसे हैं जो विकास या उपलब्धि के नाम पर कदापि वोट नहीं करते हैं, उन्हें कल्याणकारी योजनाएं भी प्रभावित नहीं करती हैं। ऐसे वर्ग के मतदाता सीधे तौर पर हिन्दुत्व को लेकर वोट करते हैं। बिहार की वैसी जनता जो हिन्दुत्व में विश्वास करती है वह सही में लालूराज की विरासत, टूकडे-टूकडे गिरोह का प्रतिनिधत्व करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियों और हिन्दुत्व के जन्मजात विरोधी सोनिया खानदान का महागठबंधन की वापसी की डर से बचैन थी। हिन्दुत्व समर्थकों में यह डर बैठी थी कि अगर तेजस्वी मुख्यमंत्री बनेगा तो बिहार में रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठियों की पौबारह होगी, उन्हें राजनीतिक योजना के तहत बसाया जायेगा। रोहिंग्या-बांग्लादेशी घुसपैठियों का भी एक बड़ा प्रश्न है। ओबैसी को जो बिहार में अभी-अभी पांच सीटें मिली है, उसके पीछे भी रोहिंग्या-बांग्लादेशी घुसपैठियों को कारण के तौर पर देखा जा रहा है। बिहार में अवैध तौर पर लाखों रोहिंग्या-बांग्लादेशी घुसपैठियों को बसाया गया है, जिनके पास अवैध तौर भारतीय नागरिक की सभी सुविधाएं उपलब्ध करा दी गयी हैं। इस खतरे को भांप कर हिन्दुत्व आधारित राजनीतिक धाराएं भाजपा-नीतीश कुमार को जीवन दान देने के लिए तैयार हुई, जिसका सुखद परिणाम सामने है।
               लालू के जंगलराज की तुलना में हम नीतीश कुमार के कुशासन, अनैकिता और खुशफहमी को नजरअंदाज कर देते हैं। बिहार में सृजन घोटाला की कहानी कितना लोमहर्षक है, यह जगजाहिर है। यह 1600 करोड का घोटाला है। मेधा घोटाला जिसमें अनपढ सरीखे छात्रों को बिहार टाॅपर बना दिया गया। परीक्षाओं में सरेआम कदाचार रूका नहीं है। शिक्षा की तस्वीर बदली नहीं। अस्पताल मरनासन्न स्थिति में हैं। शहरी सडकें जरूर ठीक-ठाक है। अधिकतर शहरी सडके केन्द्रीय सरकार की सहायता की देन है। बिहार को आधुनिक टेक्नीकल शिक्षा का हब बनाया जा सकता था, कृषि आधारित उघोग घंधे विकसित हो सकते थे। नौकरशाही और पुलिस कितनी बेलगाम और उत्पीड़क है, अमानवीय है, इसका उदाहरण मुंगेर गोलीकांड है। मुंगेर में निहत्थे लोगों पर पुलिस गोली चलाती है, एक लडके की मौत होती है, दर्जनों लोग घायल होते हैं। इस गोलीकांड को तेजस्वी यादव और चिराग पासवान ने  जालियावाला कांड की संज्ञा दी थी।मुगेर गोलीकांड की खलनायक पुलिस अधीक्षक लिपि सिंह नीतीश कुमार की चहैती रिश्तेदार थी। फिर भी नीतीश कुमार इस गोलीकांड पर कोई पचतावा प्रदर्शित नहीं किया।
                                      नीतीश कुमार में अनैतिकता और अविश्वसनीयता कितनी है? यह भी देख लीजिये। लालू के जंगलराज से मुक्ति के नाम पर जनादेश मांग कर सत्ता में आये और फिर लालू से ही दोस्ती कर ली। फिर लालू के साथ विश्वासधात कर उसी भाजपा के साथ दोस्ती कर ली जिससे पहले उसने विश्वासघात किया था। भाजपा की कमजोरी कहिये या फिर राजनीतिक दरियादिली कहिये कि उसने एक बार पहले ही विश्वासघात करने वाले नीतीश कुमार को फिर से गले लगाने का काम किया। अपने राजनीतिक गुरू जार्ज फर्नाडीस के साथ भी नीतीश कुमार ने विश्वासघात किया था। शरद यादव को भी अलोकतांत्रिक ढंग से जद यू से बाहर कर दिया था।
                                                          नीतीश कुमार राजनीतिक रूप से परजीवी प्राणी है। कभी लालू तो कभी भाजपा के सहारे ही सत्ता में स्थापित होते हैं। जद यू का कोई समृद्ध कैडर भी नहीं बनाया है। पूरे बिहार की भी जद यू पार्टी नहीं है। बिहार में जद यू से बडी पार्टी हमेशा राजद रही है। राजनीतिक रूप से परजीवी होने के बावजूद नीतीश कुमार प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देखते हैं और चाहते हैं कि सभी पार्टियां मिलकर उन्हें प्रधानमंत्री बना दे। नीतीश कुमार प्रधानमंत्री बनने की अति इच्छा जरूर रखें पर अपनी पार्टी को बिहार से बाहर जैसे यूपी, एमपी, हरियाणा, महराष्ट, कर्नाटक आदि तक विस्तार करने का साहस तक क्यों नहीं करते हैं?
                                            अब नीतीश कुमार की परजीवी राजनीति नहीं चलने वाली है। नीतीश कुमार को अनैतिकता, अंहकार और अविश्वसनीयता की राजनीति छोडनी होगी। शराबबंदी से आगे की ओर सोचना होगा। बिहार को आधुनिक शिक्षा का हब बनाना होगा, बिहार में कृषि आधारित उघोगधंधे विकसित करने ही होंगे। अन्यथा नीतीश कुमार की राजनीति की भी इतिश्री होगी।


संपर्क .....
विष्णुगुप्त
मोबाइल नंबर ...    9315206123



--
VISHNU GUPT
COLUMNIST
NEW DELHI
09968997060

Tuesday, November 3, 2020

मायावती का क्यों उमड़ा भाजपा प्रेम ?

 राष्ट्र-चिंतन

मायावती का क्यों उमड़ा भाजपा प्रेम ?

        विष्णुगुप्त



मायावती हमेशा राजनीतिक अभिशाप के घेरे में रहती हैं जिससे निकलने की वह पूरी कोशिश तो करती है पर निकल नहीं पाती हैं। पहला राजनीतिक अभिशाप केन्द्रीय सरकार के समर्थन में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रहना और दूसरा अभिशाप मायावती के विधायकों-सांसदों का टूटना, विरोध कर दूसरी राजनीतिक पार्टियों के साथ चला जाना है। ये दोनों अभिशापों के काट के लिए मायावती कभी-कभी आश्चर्यजनक ढंग राजनीतिक पैंतरेबाजी भी दिखाती है। राजनीतिक पैंतरेबाजी के कारण उन्हें भारतीय राजनीति में सर्वाधिक अविश्वसनीय राजनीतिज्ञ माना गया है।
                                               फिर भी मायावती की राजनीतिक हैसियत बनी रहती है, कभी वह महत्वहीन की श्रेणी में नहीं होती है। इसका कारण क्या है? इसका कारण दलित अस्मिता का प्रहरी होना है। निश्चित तौर पर मायावती दलित राजनीति की सर्वश्रेष्ठ और हस्तक्षेप कारी प्रहरी है। उत्तर प्रदेश जैसे देश के बडे राज्य पर वह स्वयं के बल पर कभी अपनी सरकार बनाने में वह कामयाब हो चुकी हैं, करिश्मा कर चुकी है। कभी भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी भी उत्तर प्रदेश में मायावती के साथ गठबंधन कर चंुकी है। यह अलग बात है कि मायावती हर बार गठबंधन के धर्म के विरूद्व गयी और गठबंधन वाले दल को कोसने और खिल्ली उड़ाने में भी पीछे नहीं रही। अविश्वसनीय हो जाना, बार-बार निष्ठांए बदल देना एक नुकसानकुन राजनीतिक प्रक्रियाएं हैं जिस पर चलने वाली राजनीतिक पार्टियां और राजनेता लंबे समय तक अपने आप को भारतीय राजनीति में हस्तक्षेपकारी भूमिकाओं में असफल ही साबित होते हैं। जब तक काशी राम की छ़त्रछाया थी तब तक दलित संवर्ग पूरी तरह आंख मुंद कर बसपा पर विश्वास करते थे, बसपा के समर्थन में उफान उत्पन्न करते थे, राष्ट्रीय राजनीति में बसपा के समर्थक अपनी उपियोगिता और भूमिका में चर्चित रहते थे। काशी राम की छत्रछाया उठने के बाद मायावती के सामने बसपा को भारतीय राजनीति में हस्तक्षेपकारी भुमिका निभाने में कामयाबी नहीं मिली है। बसपा का जनाधार धीरे-धीरे घट रहा है, बसपा की उफान की राजनीति भी लगभग दम तोड़ चुकी है।
                                    मायावती ने फिर पैंतरेबाजी दिखायी है, फिर आश्चर्यचकित की है। मायावती की यह पैंतरेबाजी और आश्चर्यचकित करने की राजनीति ने देश की राजनीति का ध्यान खींचा है। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि मायावती की पैंतरेबाजी क्या है, मायावती की आश्चर्यचकित करने वाली राजनीति क्या है? दरअसल मायावती ने वर्षो बाद एक बार फिर भाजपा प्रेम दिखायी है। मायावती ने घोषणा कर डाली है कि वह भाजपा प्रेम से भी पीछे नहीं हटेगी, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव को राजनीतिक रूप से हाशिये पर भेजने के लिए वह भाजपा के साथ दोस्ती करने के लिए तैयार है, सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि उसने बिहार के विधान सभा चुनावों में भाजपा का समर्थन करने की भी घोषणा कर डाली। उनकी इस घोषणा से भारतीय राजनीति आश्चर्यचकित है। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि कांग्रेस की भी आलोचना करने में मायावती पीछे नहीं रहती हैं। कांग्रेस ने इधर उत्तर प्रदेश में अपनी सक्रिया निश्चित तौर पर बढायी है, उत्तर प्रदेश में मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी जरूर है, समाजवादी पार्टी के बाद बसपा तीसरी शक्ति की पार्टी है। पर राजनीतिक घटनाओं के लेकर समाजवादी पाटी और बसपा की सक्रियता उतनी उफान वाली नहीं होती है, उतनी चर्चित नहीं होती है जितनी उनसे उम्मीद थी या फिर जितनी चर्चित भूमिकाएं कांग्रेस निभाती है। हाथरस जैसी घटनाएं हो या फिर लोकडाउन जैसे संकट हर मामले में कांग्रेस सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को संकट में डालने और भाजपा की आलोचना में आगे रहने की भूमिका निभायी है। उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की सक्रियता काफी सशक्त रही है, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की राजनीतिक सक्रियता के कारण भाजपा काफी दबाव में रही है। जब-जब राहुल गांधी और प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश में सक्रिय होकर राजनीतिक उफान उत्पन्न करते हैं तब तब मायावती विरोध में खडी हो जाती है, मायावती कांग्रेस, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को दलित विरोधी ठहरा कर भाजपा का काम या संकट को आसान कर देती है।
                                मायावती की वर्तमान राजनीति पैंतरेबाजी की दो राजनीतिक श्रेणियां है। पहली श्रेणी भाजपा के समर्थन में खडी होना, दूसरी श्रेणी है अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी को मटियामेट करने का अहम भरना। दोनों श्रेणियों के पीछे कारण क्या है? आखिर मायावती अचानक भाजपा प्रेम क्यों आ गयी और अखिलेश को मटियामेट करने की कसम क्यों खाने लगी?दसअसल राजनीतिक पैंतरेबाजी की यह दोनों श्रेणियां उत्तर प्रदेश राज्यसभा के चुनाव से निकली हैं। मायावती का सीधा आरोप है कि अखिलेश यादव ने उनके साथ विश्वासघात किया है, बसपा को तोडने का कार्य किया है। वास्तव में इसके पीछे अखिलेश यादव की राजनीतिक चाल भी है। मायावती कहती है कि उसने अखिलेश यादय से बात कर ही राज्यसभा चुनाव में अपना प्रत्याशी उतारा था। लेकिन ने अखिलेश ने निर्दलीय उम्मीदवार का समर्थन कर विश्वासघात किया है। मायावती के करीब आठ विधायकों ने बगावत कर दिया। इस बगावत के पीछे अखिलेश यादव की कारस्तानी मानी थी। हालांकि मायावती को कोई नुकसान नहीं हुआ। भाजपा की वजह से मायावती का राज्य सभा चुनाव में खडा प्रत्याशी चुनाव जीतने में सफल हो गया। भाजपा के पास नौ प्रत्याशियों को जीताने के लिए वोट थे लेकिन उसने आठ ही प्रत्याशी खडी की थी। इस कारण मायावती का प्रत्याशी भी चुनाव जीत गया। अगर भाजपा ने नौ प्रत्याशी चुनाव में उतारे होती तो निश्चित तौर पर बसपा का प्रत्याशी चुनाव हार जाता और बसपा अखिलेश यादव की कारस्तानी की शिकार हो जाती।
                                                     मायावती का भाजपा प्रेम क्यों जागा? इस पर विचार करेंगे तो पायेंगे कि यह तो मायावती की राजनीतिक चरित्र में शामिल है। वह केन्द्रीय सत्ता के साथ कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष तौर साथ रहती है। मायावती कभी भी केन्द्रीय सरकार के विरोध में रह ही नहीं सकती है। उदाहरण भी देख लीजिये। कांग्रेस के दस साल की सरकार का वह बाहर से अप्रत्यक्ष तौर पर समर्थन की थी। कांग्रेस के पास पूर्ण बहुमत भी नहीं था फिर भी कांग्रेस ने बसपा से समर्थन भी कभी नहीं मांगा। फिर मायावती समर्थन में खडी रही। संसद में बसपा कभी जरूरत के अनुसार बायकाॅट कर देती थी तो कभी जरूरत के अनुसार संसद के अन्दर कांग्रेस के समर्थन में बसपा खडी हो जाती थी। ऐसा इसलिए करती थी कि उन पर कांग्रेस सरकार की तलवार हमेशा लटकती रहती थी? अब आप कहेंगे कि कैसी तलवार? मायावती के भ्रष्टचार और आय से अधिक संपति रखने का हथकंडा कांग्रेस पकड कर रखी थी। जब-जब मायावती कांग्रेस के खिलाफ जाने की कोशिश करती तब तब कांग्रेस भ्रष्टचार और आय से अधिक संपत्ति रखने का हथकंडा चला देती थी, फिर मायावती कांग्रेस के पक्ष में मिमियाती रहती थी। नरेन्द्र मोदी सरकार के समय में भायावती के भाई के घर छापा पडा था। आयकर विभाग ने छापा मारा था। आयकर विभाग के छापे में जो कुछ बरामद हुआ और सामने आया उससे देख कर लोग आश्चर्यचकित थे। मायावती के भाई का कोई बडा ब्यापार नहीं था, उसकी कोई फैक्टरी नहीं थी, सोना उगलने वाला कोई खान नहीं था फिर भी उसके यहां से चार सौ करोड़ से अधिक की संपत्ति पायी गयी थी। अगर इस पर आयकर विभाग की वीरता होती और इसके घेरे में मायावती को लिया जाता तो फिर शशिकला की तरह मायावती भी जेल की चक्की पिसती रहती और फिर मायातवी की राजनीति पूरी तरह से समाप्त हो जाती।
                                      भाजपा प्रेम से मायावती को क्या मिलेगा? शायद मायावती को कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। केन्द्र में भाजपा को पूर्ण बहुमत है, उत्तर प्रदेश में भी भाजपा को पूर्ण बहुमत है। इसलिए भाजपा को काई खास लाभ होने वाला नहीं है। रही बात 2022 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव की तो उसमें भी भाजपा को कोई खास लाभ होने वाला नहीं है। भाजपा यह जानती है कि कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी अलग-अगल लडती है तो फिर उसका लाभ भाजपा को ही मिलेगा। मायावती जितना भी अखिलेश यादव और कांग्रेस के खिलाफ बोलेंगी उतना ही भाजपा को लाभ होगा। भाजपा को मुस्लिम वोटों के एकीकरण से परेशानी होती है। समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी अलग-अलग लडेगी तो फिर मुस्लिम वोटों का विभाजन होगा। मुस्लिम वोट तो वहां जरूर बंटेगा जहां पर मुस्लिम प्रत्याशी टकरायेंगे या फिर समाने होंगे। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बसपा मुस्लिम वोटों के लिए पागल ही रहती है, इनमें होड भी होती है। इसलिए मायावती से अलग रहना ही भाजपा के लिए फायदेमंद हैं। इस समीकरण पर मायावती का भाजपा प्रेम घाटे का सौदा है।
                              क्षणे रूष्टा, क्षणे तुष्टा की राजनीति से कोई विश्वसनीयता नहीं बनती है। मायावती को इससे हानि होती है, उनकी राजनीति विश्वसनीयता की सहचर नहीं होती है बल्कि विश्वासघात की श्रेणी में खडी हो जाती है। मायावती को अब राजनीति के संपूर्ण पक्ष को आत्मसात करना चाहिए। सिर्फ दलित उफान और मुस्लिम तुष्टिकरण से सरकार बनाने की शक्ति हासिल नहीं हो सकती है। अगर ऐसा होता तो मायावती निश्चित तौर पर मायावती हमेशा सरकार में बनी रहती। दलितों का भी अब मायावती से मोह भंग हो रहा है। दलित वर्ग पर भाजपा का वर्चस्व बढ रहा है। इसलिए मायावती को विश्वसनीय बनने की जरूरत है।


संपर्क .....
विष्णुगुप्त
मोबाइल नंबर ...    9315206123