Sunday, August 30, 2020

जलता स्वीडन पूछता है प्रश्न, यह कैसा इस्लाम, ये कैसे हैं लोग

 


 

राष्ट्र-चिंतन

जलता स्वीडन पूछता है प्रश्न, यह कैसा इस्लाम, ये कैसे हैं लोग
जिसको दिया शरण उसी ने आग में झोका

        विष्णुगुप्त



मुस्लिम हिंसा में जलता स्वीडन सिर्फ नार्डिक देशों ही नहीं बल्कि पूरे यूरोप को डरा दिया है, भयभीत कर दिया है, कानून के शासन पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है, मानवता की धरातल पर उठने वाले परोपकारी कदमों पर प्रश्न चिन्ह खडा कर दिया है, बहुलतावादी समाज की कल्पना को डिगा दिया है, बर्बरता और कबिलाई मानसिकता के प्रचार-प्रसार को रेखांकित कर दिया है। सच तो यह है कि मुस्लिम शरणार्थी सिर्फ स्वीडन जैसे शरण देने वाले देश को ही आग में नही झोका है, शरण देने वाली गोरी आबादी को ही नहीं जलाया है, मुस्लिम शरणार्थी सिर्फ अपनी कबिलाई हिंसा से शरण देने वाली गोरी आबादी को ही भयभीत नहीं किया है, उनकी संपत्तियों को ही नही जलाया है बल्कि मुस्लिम शरणार्थी खुद की संभावनाओं को भी जलाया है, भविष्य में शरणार्थियों को मिलने वाली दया और सदभावना पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है। इसका दुष्परिणाम यह होगा कि नार्डिक देशों ही नहीं बल्कि पूरे यूरोप में मुस्लिम देशों की मुस्लिम शरणार्थी आबादी को शरण देने और उन्हें भयमुक्त भविष्य बनाने का वातावरण उपलब्ध कराने के नीति पर फिर से विचार किया जा सकता है। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि मुस्लिम शरणार्थियों को वापस उनके देशों में भेजने की न केवल मांग उठेगी बल्कि कुंछ देश मुस्लिम शरणार्थियों को वापस भेजने की कार्रवाई भी कर सकते हैं। सबसे खतरनाक बात यह है कि नार्डिक देशों ही नर्ही बल्कि पूरे यूरोप के देशों में मुस्लिम शरणार्थियों के खिलाफ प्रतिक्रियागत हिंसा फैलने की आशंका है, दक्षिण पंथी समुदाय का प्रचार-प्रसार भी बढेगा, हाल के दिनों में उदारवादी यूरोपीय समाज में दखिण पंथी गुटों का दबदबा बढा है, उनका विस्तार हुआ है और  दक्षिण पथी गुट सत्ता को भी प्रभावित करने की शक्ति हासिल कर चुके हैं, दखिण पंथी गुटो का साफ कहना है कि ये मुस्लिम शरणार्थी सिर्फ और सिर्फ हिंसक, बर्बर और कबिलाई मानसिकता के हैं जिन्हें शांति और सदभाव से कोई लेना-देना नहीं है, इन पर अगर रोक नहीं लगायी गयी तो फिर एक न एक नार्डिक देश और पूरा यूरोप सीरिया, लेबनान और अफगानिस्तान बन जायेगा। नार्डिक एक भगोलिक शब्द है और नार्डिक क्षेत्र के देशों में स्वीडन, नार्वे, फिनलैंड, आइसलैंड, ग्रीनलैंड और डेनमार्क जैसे देश आते हैं। उल्लेखनीय यह है कि नार्डिक क्षेत्र के देशों ने अपनी उदारता और मानवता की कसौटी पर हिंसाग्रस्त मुस्लिम देशों की मुस्लिम शरणार्थियों को खूब शरण दिया है। लाखों मुस्लिम शरणार्थी नार्डिक देशो में बसाये गये हैं।
                           स्वीडन के प्रधानमंत्री स्टेफान लोफवेन की मुस्लिम शरणार्थियों की हिंसा और बर्बरता पर प्रतिक्रिया देखिये। स्वीडन के प्रधानमंत्री स्टेफान लोफवेन ने प्रतिक्रिया दी है कि सांप को जितना भी दूध पिला दो पर वह जहर ही उगलेगा। बहुत सारे लोगों को स्टेफान लोफवेन की यह प्रतिक्रिया अतिरंजित हो सकती है या फिर खारिज करने लायक हो सकती है पर उनकी प्रतिक्रिया मुस्लिम शरणार्थियो की हिंसा, बर्बरता और हिंसा के बल पर इस्लाम के विस्तार की मानसिकता को देखते हुए गलत नहीं हो सकती है। यहां पर यह भी उल्लेखनीय है कि इस हिंसा के पूर्व स्टेफान लोफवेन मुस्लिम शरणार्थियों के हितो के संरक्षक के तौर पर जाने जाते थे, उन्होंने मुस्लिम शरणार्थियों को शरण देने में कोई कोताही नहीं बरती थी बल्कि बढ-चढ शरण देने का काम किया था। शरणार्थी कोई धन या सपंत्ति लेकर आते तो नहीं हैं। मुस्लिम शरणार्थी भी सिर्फ अपने शरीर और बच्चे लेकर शरण लेने के लिए आये थे। स्फेफान लोफवेन ने मुस्लिम शरणार्थियों को न केवल अपने देश में शरण देने का कार्य किया बल्कि उन्हेें राजकोष से जीवन संचालित करने के लिए राशि भी उपलब्ध करायी , उनके लिए आवास की भी व्यवस्था की थी। उनकी मजहबी मानसिकताओं की संतुष्टि के लिए मस्जिदें भी बनवायी।
                     फिर भी मुस्लिम शरणार्थी स्फेफान लोफवेन की आकांक्षाओं पर खरे नहीं उतरे बल्कि मुस्लिम शरणार्थी भस्मासुर बन गये। स्वीडन को ऐसी हिंसा से दो-चार कराये जो स्वीडन के शांति प्रिय नागरिकों ने कभी भी नहीं देखी थी। जनना यह जरूरी है कि नार्डिक क्षेत्र के देश स्वीडन, डेनमार्क, ग्रीनलैंड, फिनलैड, आइसलैंड और नार्वे को अति शांति प्रिय देश के रूप में जाना जाता है, जहां पर हिंसा और अशांति की उम्मीद ही नहीं होती है, सभ्यतागत स्वतंत्रा अनुकरणीय है, सर्वश्रेष्ठ है, मजहब और धर्म के नाम पर कोई भी भेदभाव नहीं है, सदभाव और परस्पर सहयोग की भावना भी सर्वश्रेष्ठ है। ऐसे अनुकरणीय वातावरण में मजहबी हिंसा फैलाना, नफरत फैलाना एक बर्बर मजहबी मानसिकताओं को ही स्थापित करता है। दुनिया में सिर्फ मुस्लिम शरणार्थी ही इस तरह की हिंसक प्रतिक्रियाएं देती है और इस्लामिक राजनीति का प्रत्यारोपित करती है। अन्य शरणार्थी वर्ग दया और उपकार के बदले सहिष्णुता ही प्रदर्शित करते हैं।
                           दक्षिण पंथ आखिर मुस्लिम शरणार्थियों के खिलाफ क्यों खड़ा हुआ? मुस्लिम हिंसा के पक्षधर लोग यह कहकर इनकी करतूतों पर पानी डालते हैं, पर्दा डालते हैं कि दक्षिण पंथ ने मुस्लिम हिंसा फैलाने के लिए उकसाया या फिर दक्षिण पंथ इस्लाम विरोधी है, मुस्लिम विरोधी है और मुस्लिम शरणार्थियों के अधिकारों के प्रति असहिष्णुता रखता है। स्वीडन के दक्षिण पंथ की मांगों और उनकी सक्रियताओं को खारिज नहीं किया जा सकता है। स्वीडन के दक्षिण पंथ की अंाशाकाओं और चिंताओं की जायत वजहें हैं। मुस्लिम शरणार्थी जब कहीं जाते हैं और शरण पाते हैं तो वे अपने साथ शांति और सदभाव लेकर नहीं आते हैं और न ही इनके अंदर अन्य धर्मो और अन्य संस्कृतियों को आत्मसात करने और स्वीकार करने की भावनाएं होती हैं। मुस्लिम शरणार्थी उस बाढ के समान होते है जो अपने साथ कई प्रकार की अन्य सामग्रियां भी लेकर आती हैं, गाद भी लाती है, सांप-विच्छु भी लाती हैं, कूडा-करकट भी लाती है। इसी प्रकार मुस्लिम शरणार्थी अपने साथ इस्लाम की कूरीतियां भी लाते हैं, इस्लाम का जिहाद भी लाते हैं, इस्लाम का लव जिहाद भी लाते हैं, इस्लाम का तलवार के बल यानी हिंसा के बल पर प्रचार-प्रसार करने की मानसिकता भी लाते हैं, अधिक से अधिक बच्चे पैदा करने की मानसिकताएं भी लाते हैं, आबादी आक्रमण से मूल संस्कृतियों और मूल धर्म को नष्ट कर इस्लामिक शासन व्यवस्था कायम करने की राजनीतिक मानसिकताएं भी स्थापित कर देते हैं। इन सभी के वजूद को कायम करने के लिए हिंसा और आतंकवाद का सहचर बन जाते हैं। स्वीडन में ऐसा ही हुआ है। इसके कारण दखिण पंथ का विस्तार हुआ। दक्षिण पंथ एक राजनीतिक शक्ति बन गया।  स्टैम कुर्स नामक एक राष्टवादी पार्टी का जन्म हुआ। इसके नेता रैसमस पालुदान ने मुस्लिम शरणार्थियों की हिंसक और बर्बर मानसिकताओं के खिलाफ राजनीतिक आंदोलन छेड़ दिया। मुस्लिम शरणार्थियों की हिंसक मानसिकताओं और इस्लाम के प्रचार-प्रसार के खिलाफ जागरूकता के अभियान को बडा सपोर्ट मिला। तत्काल में नार्डिक देशों के इस्लामीकरण विषय पर एक सेमिनार आयोजित हुआ था उसी सेमिनार में कथित तौर पर कुरान का अपमान हुआ था।
                 क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया होती है। स्वीडन को जलाने वाले मुस्लिम शरणार्थी अपनी बर्बरता का दुष्परिणाम शायद नहीं जानते होगे। हिंसा के प्रति प्रतिहिंसा ज्यादा बर्बर और अमानवीय होती है। जब प्रतिहिंसा होती है तब मुस्लिम आबादी और मुस्लिम देश अपने आप को पीडित घोषित कर देते हैं। हम यहां पर गुजरात और म्यांमार को उदाहरण के तौर पर रखना चाहते हैं। गोधरा कांड को अंजाम देने वाली मुस्लिम आबादी भी गुजरात देंगे के तौर पर प्रतिक्रिया देखी थी, प्रतिक्रिया के तौर पर सामने आये गुजरात दंगा बहुत ही भयानक था। म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों ने बौद्ध आबादी और म्यांमार की संप्रभुत्ता को ही लहूलुहान करने और नष्ट करने की जिहादी मानसिकताएं स्थापित कर ली थी। प्रतिक्रिया में जब म्यांमार की सेना उतरी और बौद्ध आबादी भी वीरता दिखायी तो फिर पांच लाख से अधिक रोंिहंग्याओ को म्यांमर छोडकर भागने के लिए विवश होना पडा। रोहिंग्या मुसलमान आज दूसरे देशो में दर-दर की ठोंकरे खा रहे हैं। ऐसे ही कारणों से अमेरिका ने कई देशों की मुस्लिम आबादी को अपने यहां आने पर प्रतिबंधित कर चुका है। चीन जैसे कम्युनिस्ट देश अपने यहां एक करोड से अधिक मुसलमानों को यातना घरों में कैद कर इस्लामिक मानसिकताओं का इलाज कर रहा है। अब तो मुस्लिम देश भी मुस्लिम शरणार्थियों को शरण देने के लिए तैयार नहीं होते है।
                           स्वीडन की मुस्लिम हिंसा नार्डिक देशों ही नहीं बल्कि पूरे यूरोप और अमेरिका के लिए सबक हैं। मुस्लिम शरणार्थी को शरण देने का अर्थ खुद मुस्लिम हिंसा और जिहाद को आमंत्रित करना और अपनी मूल संस्कृति को नष्ट करने जैसा है। भारत को भी सतर्क रहने की जरूरत है। इसलिए कि भारत में भी रोहिंग्या-बांग्लादेशी घुसपैठिये कानून की समस्याएं उत्पन्न कर रहे हैं। नार्डिक देशों और अन्य यूरोपीय देशों को अब अपनी मुस्लिम शरणार्थी नीति बदलनी ही होगी।


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VISHNU GUPT
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Monday, August 24, 2020

करिश्माई, नये विचारवाला व महत्वाकांक्षी अध्यक्ष कहां से लायेगी कांग्रेस ?

  


राष्ट्र-चिंतन

करिश्माई, नये विचारवाला व महत्वाकांक्षी अध्यक्ष कहां से लायेगी कांग्रेस ?

        विष्णुगुप्त




कांग्रेस वर्किंग कमिटी की बैठक बेनतीजा समाप्त हो गयी । नये अध्यक्ष की खोज और नेतृत्व परिवर्तन पर विचार को छह माह के लिए आगे बढा दिया गया। इस पूरे प्रकरण पर कांगे्रस की कमजोरी ही झलकी और कांग्रेस के अंदर वरिष्ठ नेताओं के चिटठी प्रकरण पर राहुल गांधी का प्रहार सामने आया जो कांग्रेस की बढती समस्याओं को और भी बढाने वाला साबित हुआ। राहुल गांधी की इस बात का समर्थन किया जा सकता है कि पार्टी की बात को पार्टी मंच पर ही उठायी जानी चाहिए , न कि मीडिया में सनसनी फैलाने के लिए एक हथकंडा के तौर पर उपयोग किया जाना चाहिए। चिट्ठी प्रकरण में जो नेता राहुल गांधी के प्रहार पर अपनी निष्ठा को लेकर चिंतित और नाराज दिखे, उनकी अपनी सोच या फिर उनका अपना अस्तित्व कहां है, ये परजीवी संस्कृति के हैं। कपिल सिब्ब्ल और गुलाम नवी आजाद को ही ले लीजिये। कपिल सिब्बल सुप्रीम कोर्ट के सनसनी खेज वकील जरूर हो सकते हैं, मुकदमों में अपनी वकालत से कांग्रेस को राहत दिला सकते हैं पर उनकी छवि एक ऐसे राजनेता की कभी नहीं रही है जो अपने बल पर कोई लोकसभा सीट पर जीत दर्ज कर सके या फिर कांग्रेस का नेतृत्व कर सके। ठीक इसी प्रकार गुलाम नवी आजाद को लेकर धारणा है। गुलाम नवी आजाद जम्मू-कश्मीर से आते हैं। गुलाम नवी आजाद कांग्रेस का मुस्लिम चेहरा जरूर हैं पर इनकी छवि राजनीतिक परजीवी की रही है, राज्य सभा में बार-बार भेज कर कांग्रेस इनकी राजनीति को चमकाती रही है। नेतृत्व परिवर्तन का समर्थन को लेकर चिट्ठी लिखने वाले अन्य कांग्रेसी नेताओं की स्थिति भी यही है। फिलहाल सोनिया गांधी चिट्ठी प्रकरण पर मीडिया का सहारा लेने वाले कांग्रेसी नेताओं का माफ कर दिया है।
                                नेतृत्व परिवर्तन का प्रश्न कांग्रेस को आगे भी कमजोर करते रहेगा, कांग्रेस की जगहंसाई भी होती रहेगी। कांग्रेस के अंदर में नेतृत्व परिवर्तन का प्रश्न बहुत ही जटिल हैं। जब तक इस जटिल प्रश्न का समाधान नहीं कर लिया जाता है तब तक कांग्रेस अपने आप को मजबूत नहीं कर सकती है। सोनिया गांधी वृद्ध हो चुकी है, बीमारियों से लड़ते-लड़ते वह खूद इतनी कमजोर हो गयी हे कि खुद के चाहने के बावजूद भी कांग्रेस का मजबूती के साथ नेतृत्व नहीं कर सकती है। इसी कारण सोनिया गांधी खुद नया अध्यक्ष खोजने की वकालत करती है। राहुल गांधी अध्यक्ष रहते हुए अपनी असफलताओं को लेकर इस्तीफा दे चुके थे। राहुल गांधी ने इस्तीफा देकर नया अध्यक्ष चुनने के लिए कह दिया था और घोषणा की थी कि वह किसी भी परिस्थिति में फिर से अध्यक्ष नहीं बनेंगे। अभी तक वे अपनी इस घोषणा पर कायम है। कांग्रेस ने लंबे समय तक विचार-विमर्श खूब की, पैंतरेबाजी भी दिखायी पर कांग्र्रेस राहुल गांधी का विकल्प नहीं खोज पायी। किसी एक नेता पर कांग्रेस के अंदर कोई सहमति नहीं बन पायी। हार कर कंाग्रेस के नेताओं को अपनी खानदानी विरासत की ओर झांकना पड़ा। सोनिया गांधी को ही फिर से अंतरिम अध्यक्ष चुनने के लिए बाध्य होना। कांग्रेस के अंदर में प्रियंका गांधी को एक अचूक हथियार माना जाता था। प्रियंका गांधी के अंदर इन्दिरा गांधी की छवि देखी जाती थी। कांग्रेसी कहते थे कि प्रियंका आयेगी और नरेन्द्र मोदी को हवा कर देगी। प्रियंका गांधी के राजनीति में आने के बाद भी कांग्रेस को कोई मजबूती नहीं मिली, नरेन्द्र मोदी के लिए कोई परेशानी नहीं खडी कर सकी। लोकडाउन के दौरान मजदूरो की घर वापसी को लेकर प्रियंका गांधी का हथकंडा आत्मघाती ही साबित हुआ। बसों की जगह टैप्मू और स्कूटर के नंबर दिये गये थे। प्रियंका गांधी की अनुभवहीन राजनीति के कारण कांग्रेस की जगहंसाई हुई और यूपी कांग्रेस अध्यक्ष को जेल तक जाने के लिए विवश होना पडा।
                                      कांग्रेस के अंदर नेतृत्व परिवर्तण की जटिलाताएं कितनी बडी है और गंभीर हैं, यह भी जगजाहिर है। सोनिया गांधी अब किसी भी परिस्थिति में कांग्रेस के लिए उपयुक्त पात्र नहीं है और स्वास्थ्य भी इसके लिए कोई सकरात्मक स्थिति नहीं उत्पन्न करता है। अगर कांग्रेसी सोनिया गांधी को ही अध्यक्ष बनाये रख सकते हैं तो फिर सोनिया गांधी की सक्रियता संभव नहीं होगी। सोनिया गांधी कांग्रेसियों का कुशल और सर्वश्रेष्ठ नेतृत्व नहीं दे सकती है। राहुल गांधी अगर अपनी घोषणा को तोड़ कर फिर से अध्यक्ष बनते हैं तो फिर उनकी एक और जगहसंाई होगी, उन्हें उपहास का विषय बनाया जायेगा। राहुल गांधी ऐसे भी जगहसांई का पात्र बनते रहते हैं, उनकी बोली और आचरण उपहास के केन्द्र में खड़ा रहता है। रही बात प्रियंका गांधी को तो अभी तक कांग्रेस के अंदर मे एक ही संभावना है। अभी भी कांग्रेस के अंदर में प्रियंका गांधी को एक संभावना के तौर पर देखा जाता है। पर रार्बट बढेरा के भ्रष्टाचार के कारण प्रियंका गांधी की छवि भी मोदी के विकल्प के तौर पर बनेगी, यह कहना मुश्किल है। प्रियंका गांधी भी कांग्रेस का अध्यक्ष बनने की उत्सुक नहीं है।
                           सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी और राहुल गांधी ने साफ कर दिया है कि अगला अध्यक्ष गांधी परिवार के बाहर का होना चाहिए। ऐसी अवधारणा राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद के इस्तीफे के बाद भी आयी थी। लेकिन उस समय भी कांग्रेस ने गांधी परिवार से अलग अध्यक्ष नहीं खोज पायी थी। आम धारणा यह है कि जब राहुल गांधी के इस्तीफे के उपरांत कांग्रेस गांधी परिवार से अलग अध्यक्ष नहीं खोज पायी तो फिर इस बार भी कांग्रेस के नेतागण गांधी परिवार से अलग अध्यक्ष कहां से खोजेंगे?कांग्र्रेस को आज एक ऐसे अध्यक्ष की जरूरत है करिश्माई छवि रखता है, विचारवान हो और जिसके अंदर दूरदृष्टि भी हो। कांग्रेस को अभी गिरती छवि और साख को कोई करिश्माई, विचारवाण और दूरदृष्टि वाला नेता ही संभाल सकता है, नरेन्द्र मोदी के सामने कांग्रेस को एक शक्तिशाली विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर सकता है। पर प्रश्न यही है कि कांग्रेस करिश्माई, विचारवाण और दूरदृष्टि वाला नेता कहां से लायेगा और कहां से पैदा करेगा? कांग्रेस के अंदर में करिश्माई नेता जो थे वे सभी इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी के कारण निपट गये या फिर कांग्रेस से बाहर खदेड़ दिये गये। कांग्रेस में कभी रीढ वाले नेता पसंद नहीं किये गये, उन्हें अध्यक्ष के लायक नहीं समझा गया। कांग्रेस के अंदर चमचा संस्कृति बैठी हुई है। एक अवधारणा भी यही है कि जो जितना बडा चमचा होगा वह कांग्रेस के अंदर में उतना ही बडा कद हासिल करेगा। यह बात पूरी से पक्की है। लेकिन निष्कर्ष यह है कि चमचे किस्म के लोग परिर्वतन और संघर्ष के वाहक कभी नही बन पाते हैं। आज पूरे कांग्रेस को ढूढ लीजिये, एक भी ऐसे नेता नहीं मिलेंगे जिनकी छवि देशव्यापी हो और जिनका जनाधार तथा स्वीकार्यता देशभर में है।
                                  अगर सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी से अलग कोई कांग्रेस का अध्यक्ष बन भी गया तो उसकी हैसियत क्या होगी? क्या वह सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की छत्रछाया से कांग्रेस को बाहर निकाल सकता है? क्या कांग्रेस के कार्यकर्ता और नेता उसी तरह से सम्मान देना चाहेंगे जिस तरह का सम्मान सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को देते है? सिर्फ नया अध्यक्ष चुन लेने से राजनीतिक परिवर्तन की जंग नहीं जीती जाती है। मान लिया कि कांेई कांग्रेसी कांग्रेस का नया राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन भी लिया गया तो फिर वह उसी तरह अपनी ओर भीड़ खीच सकता है जिस तरह से भीड़ राहुल गांधी और प्रियंका गांधी खीचते हैं। भारतीय राजनीति में चुनाव जीतने के लिए सिर्फ राजनीतिक रणनीतियो की जरूरत नहीं होती है बल्कि आम जनता को आकर्षित करने वाले नेता की भी जरूरत होती है। इसका उदाहरण नरेन्द्र मोदी ही है। भाजपा भी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के पतन के बाद हाशिये पर चली गयी थी, लगातार दो लोकसभा चुनाव हारी थी भाजपा। कई राज्यों मे भाजपा अपना जनाधार खो दी थी। भाजपा ने दूरदृष्टि दिखायी। नरेन्द्र मोदी को भाजपा ने अपना भाग्यविघाता चुन लिया था। नरेन्द्र मोदी स्वयं आगे बढकर पार्टी का नेतृत्व किया और पूरे देश की राजनीति को मथ दिया। परिणाम स्वरूप भाजपा का नया अवतार हुआ, भाजपा फिर से केन्द्र की सत्ता में वापसी की। नरेन्द्र मोदी आज के समय में देश के सबसे शक्तिशली नेता हैं। कांग्रेस को भी नरेन्द्र मोदी जैसा कोई करिश्माई नेता ही फिर से सत्ता दिला सकता है।
                                   कांग्रेस के अंदर में अभी भी बूढी संस्कृति के नेता आत्मघाती और भस्मासुर बने हुए हैं। कपिल सिब्बल, गुलाम नवी आजाद, पी चिदम्बरम, दिग्विजय सिंह, मनीष तिवारी मणिशंकर अय्यर जैसे दर्जनो नेता है जो अतिरंजित और सामंत प्रवृति के सहचर बन कर कांग्रस की जडों मटठा डालने का काम करते हैं। कांग्रेस को अब नौजवानों को आगे लाना होगा। युवा पीढी ही बदलाव की संस्कृति का वाहब बन सकती है। लेकिन अभी भी कांग्रेस के अंदर में वैसीे ही युवाओं की पीढी आगे बढ रही है जो खानदानी हैं। जबकि जरूरत आम युवाओं की भागीदारी की है। कांग्रेस को अब नये अध्यक्ष का प्रश्न हल कर लेना चाहिए। अगर कांग्रेस का अगला अध्यक्ष सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को छोड़कर यानी कि गांधी परिवार से बाहर का होगा तो फिर यह देश की ऐतिहासिक घटना होगी। हम इस ऐतिहासिक घटना के घटने का इंतजार कर रहे हैं और स्वागत भी करेंगे।


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Monday, August 17, 2020

मुस्लिम दुनिया में खिच गयी तलवारें

 



                                            राष्ट्र-चिंतन

मुस्लिम दुनिया में  खिच गयी तलवारें

          विष्णुगुप्त





इजरायल और यूएई के बीच हुए कूटनीतिक समझौते से मुस्लिम दुनिया में तलवारें .िखंच गयी हैं। मुस्लिम आतंकवादी संगठन,  इस्लामिक संगठन, मुस्लिम देश सभी तलवारें भांज रहे हैं। यह कहने से चूक नहीं रहें हैं कि यूएई ने दुनिया के मुसलमानों के साथ धोखा किया है, उस इजरायल के साथ कूटनीतिक समझौता किया है जिस इजरायल के खिलाफ दुनिया भर के मुसलमान वर्षो से लड़ते आये हैं। खासकर ईरान और तुर्की का विफरना बहुत ही चिंता की बात है और ईरान-तुर्की जैसे देश मुस्लिम आतंकवादी संगठनों की भाषा ही बोल रहे हैं, ईरान का अखबार कायहान  लिखता है कि यूएई पर आक्रमण बोल देना चाहिए। जानकारी योग्य बात यह है कि कायहान अखबार इस्लाम की कट्टरवादी मानसिकता का प्रतिनिधित्व करता है और कायहान अखबार के संपादक की नियुक्ति ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातोल्लाह खेमनई करते हैं, उसके संपादकीय पर भी अयातोल्लाह खमेनई का नियंत्रण होता है। इसलिए कायहान अखबार के दृष्टिकोण को ईरान की इस्लामिक सरकार का दृष्टिकोण माना जाता है।
                               जहां तक मुस्लिम आतंकवादी संगठन अलकायदा, आईएस, हूजी और हमास तथा हिजबुल मुजाहिदीन आदि का प्रश्न है तो ये सभी मुस्लिम आतंकवादी संगठन न केवल आगबबूला हैं बल्कि इजरायल के खिलाफ पूरी मुस्लिम दुनिया को भड़काने और इजरायल के खिलाफ युद्ध की घोषणा करने का आह्वान कर रहे है। ईरान-तुर्की जैसे कट्टरवादी मुस्लिम देशों की नाराजगी या फिर इनकी युद्ध जैसी धमकियां इजरायल के लिए कोई अर्थ नहीं रखती है और न ही इजरायल को चिंता में डालने जैसी हैं। इजरायल अपने दृष्टिकोण पर अडिग और अटल रहता है उसे कोई डिगा नहीं सकता है। ईरान, तुर्की और मलेशिया जैसे देश तो इजरायल के खिलाफ नियमित कूटनीतिक हिंसा पर सवार ही रहते हैं। हमास, हिजबुल मुजाहिदीन, हूजी और आईएस जैसे मुस्लिम आतंकवादी संगठन तो नियमित तौर पर इजरायल के खिलाफ आतंकवादी हिंसा के तौर पर सक्रिय ही रहते हैं। यूएई ने भी इस तरह की कट्टरपंथी मानसिकता को झेलने के लिए विचार कर ही लिया होगा। अगर ऐसा नहीं होता तो फिर यूएई कभी भी इजरायल के साथ कूटनीतिक समझौता करने का खतरा नहीं लिया होता?
यूएई और इजरायल के बीच कूटनीतिक साझेदारी का समझौता कई अर्थ रखते हैं। मुस्लिम दुनिया के साथ ही साथ शेष दुनिया के लिए कई गंभीर और लाभकारी अर्थ हैं, जिनकी अभी तक कोई व्याख्यता नहीं हुई हैं। कहने का अर्थ यह है कि यह समझौता सही में मील का पत्थर साबित होगा, मुस्लिम दुनिया की कट्टरपंथी मानसिकताओं पर चोट करने जैसा साबित होगा, मजहब के आधार पर बर्बर गोलबंदी के खिलाफ एक सशक्त हथियार बनेगा, सबसे बडी बात यह है कि दुनिया में जितने भी आतंकवादी संगठन हैं उन सबकी मजहबी मानसिकताएं भी कमजोर होंगी, उन मजहबी आतंकवादी संगठनो के हिंसा और नेटवर्क को भी जमींदोज करने का अवसर मिलेगा। सबसे बड़ा अवसर अरब दुनिया की सुरक्षा और विकास के क्षेत्र में है। अरब देश अभी भी अपनी सुरक्षा दृष्टिकोण के मायने में बेहद कमजोर हैं और उन्हें मेरा इस्लाम अच्छा और तुम्हारा इस्लाम खराब की मानसिकता का खतरा हमेशा रहता है। जानना यह भी जरूरी है कि यूएई और सउदी अरब जैसे सुन्नी मुस्लिम देशों के सामने ईरान-तुर्की और पाकिस्तान प्रायोजित मुस्लिम आतंकवाद का खतरा हमेशा खड़ा रहता है। सउदी अरब ने अपने यहां मजहबी कट्टरपंथियों को जमींदोज करने के लिए कठोर कानूनों का सहारा लिया है फिर मजहबी कट्टरपंथी अपनी आतंकवादी हिंसा से बाज नहीं आते हैं। इजरायल के पास सुरक्षा टैक्नोलाॅजी हैं, इजरायल के पास मुस्लिम आतंकवाद से लड़ने का सत्तर साल से भी अधिक समय का अनुभव है।
                                                         इस समझौते की गूंज सिर्फ मुस्लिम दुनिया में ही नहीं दिखायी दी है, इस समझौते की गूंज अमेरिका और यूरोप में दिखायी दी है। खासकर डोनाल्ड ट्रम्प की यह एक शानदार जीत के तौर पर देखा जा रहा है और फिलिस्तीन समस्या के समाधान के प्रति सकारात्मक पहलू की ओर बढने के लिए प्रेरित करता है। अब आप यह प्रश्न उठायेंगे कि समझौता इजरायल और यूएई के बीच हुआ है तो फिर डोनाल्ड ट्रम्प की शानदार जीत कैसे हुई है? अगर इस कूटनीतिक समझौते पर विचार करेंगे तो पायेंगे कि यह समझौता डोनाल्ड ट्रम्प की ही देन है, यह समझौता डोनाल्ड ट्रम्प ने ही कराया है। इस अर्थ में डोनाल्ड ट्रम्प बेहद ही सफल राजनीतिज्ञ साबित हुए हैं, डोनाल्ड ट्रम्प की वीरता यह है कि उसने अरब समूह के एक महत्वपूर्ण देश यूएई को इजरायल के खिलाफ बनी-बनायी अवधारणा को तोड़ देने और इजरायल के साथ समझौता करने के लिए प्रेरित किया । पिछले तीन-चार दशकों में अमेरिका मे कई राष्ट्रपति हुए जैसे जार्ज बुश, बिल क्लिंटन, बराक ओबामा आदि पर ये भी बडी कोशिश की थी कि इजरायल को लेकर अरब समूह के देशों का दृष्टिकोण बदले, इजरायल के साथ समझौते करें और इजरायल को अक्षूत मानने जैसी मुस्लिम देशों की कट्टर मानसिकताओ का पतन हो पर इस मामले में बिल क्लिंटन , जार्ज बुश और बराक ओबामा असफल ही साबित हुए थे। निश्चित तौर पर डोनाल्ड ट्रम्प एक पक्के राजनीतिज्ञ की भूमिका निभायी है। मीडिया और राजनीति में इसके पहले डोनाल्ड ट्रम्प को एक अति अगंभीर और भस्मासुर राजनीतिज्ञ माना जाता था। पर अब मीडिया और राजनीतिक क्षेत्र को भी डोनाल्ड ट्रम्प के प्रति दृष्टिकोण बदल लेना चाहिए। डोनाल्ड ट्रम्प अरब समूह के अन्य मुस्लिम देशों का नजरिया भी बदलने की कोशिश में लगे हुए हैं। डोनाल्ड ट्रम्प ने यह संदेश देने में भी सफल हुए हैं कि युद्धकाल में अरब देशों को इजरायल की सुरक्षा शक्ति की जरूरत होगी। इजरायल के पास जो सुरक्षा शक्ति हैं उसका प्रयोग अरब समूह की सुरक्षा के लिए किया जा सकता है। अरब समूह पर ईरान, तुर्की जैसे देशों की युद्धक मानसिकता का खतरा मंडराता रहता है। ईरान और तुर्की जैसे देशों ने अरब समूह के कई देशों में हूजी और हिजबुल मुजाहिदीन जैसे मुस्लिम आतंकवादी संगठनो को संरक्षण और सहायता देकर आतंकवाद की घटनाओं को अंजाम दिला रहे है। इस कारण अरब समूह के कई देशो की सुरक्षा चिंताएं भी बढी हैं। अमेरिका को भी कम लाभ नहीं होने वाला है। अरब समूह में चीन, उत्तर कोरिया, रूस और ईरान की सुरक्षा गठजोड़ के खिलाफ एक सशक्त पार्टनर की आवश्यकता थी। इजरायल के अरब समूह के देशों में सक्रियता बढने से अमेरिकी सामरिक शक्ति भी मजबूत होगी।
                                                      यूएई ऐसा तीसरा मुस्लिम देश बन गया है जिसका कूटनीतिक संबंध इजरायल के साथ है। इसके पहले मिश्र और सीरिया का कूटनीतिक संबध इजरायल के साथ बने है। खासकर मिश्र में इजरायल गैस और तेल उत्खनन में बहुत बडी भूमिका निभा रहा है। सीरिया और मिश्र भी कभी इजरायल के खिलाफ ईरान, तुर्की, मलेशिया जैसे मुस्लिम देशों की ही मानसिकता से ग्रसित थे। सीरिया और मिश्र भी अपने आप को मुस्लिम दुनिया का बादशाह बनने का सपना देखा था। फिलिस्तीन के प्रश्न पर सीरिया और मिश्र ने इजरायल के साथ युद्ध मोल ले लिया था। उस काल में पूरी मुस्लिम दुनिया मिश्र और सीरिया के साथ खडी थी तथा इजरायल का सर्वनाश चाहती थी। पर इजरायल ने अकेले मिश्र और सीरिया सहित पूरी मुस्लिम दुनिया को पराजित कर दिया था। मिश्र और सीरिया के एक बडे भूभाग पर कब्जा कर लिया था। मिश्र और सीरिया ने इजरायल के प्रति आत्मसमर्पण कर अपने इलाके वापस लिये थे। सीरिया तो आज खुद गृह युद्ध में फंसा हुआ है पर मिश्र जरूर इजरायल के साथ आपसी साझेदारी से लाभार्थी है। मिश्र ने इस समझौते का स्वागत भी किया है।
                                             इजरायल का नरम होना, अरब समूह के देशों के साथ समझौते की राह पर खड़ा होना दुनिया के लिए एक अच्छी कूटनीतिक पहल है। फिलिस्तीन समस्या के प्रति भी रूख सकारात्मक है। इजरायल ने वायदा किया है कि फिलिस्तीन की मुस्लिम बस्तियों को इजरायल मे मिलाने का कार्य स्थगित कर देगा।  हाल के वर्षो में मुस्लिम दुनिया की मजहबी रूख को प्रदर्शित करते रहने पर इजरायल भी कड़ा रूख अपना लिया था। इजरायल ने विवादित मुस्लिम बस्तियो को अपने में मिलाने का कार्य तेज कर दिया था। इस कारण फिलिस्तीन और इजरायल के बीच हिंसा चरम पर पहुंच गयी थी। यह हिंसा शांतिपूर्ण दुनिया के लिए भी चिंता के विषय थी। फिलिस्तीन समस्या का हिंसक समाधान कभी भी नहीं हो सकता है। हिंसा के बल पर इजरायल को डराया नहीं जा सकता है। इजरायल के साथ समझौते की कसौटी पर ही फिलिस्तीन समस्या का समाधान संभव है। आज यूएई समझौते के राह पर आया है कल अन्य अरब समूह के देश भी इजरायल के साथ समझौते की राह पर बैठेगे। इजरायल के प्रति अरब समूह के देशों का बढता रूझान और बदलती नजरिया दुनिया की कूटनीति और शांति के लिए मिसाल बनेगी। ईरान, तुर्की और मलेशिया जैसे मुस्लिम देशों और हमास हिजबुल मुजाहिदीन, हूजी, अलकायदा और आईएस जैसे मुस्लिम आतंकवादी संगठन का नेटवर्क और इनकी कट्टपंथी मानसिकताएं भी कमजोर होगी।



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VISHNU GUPT
COLUMNIST
NEW DELHI
09968997060

Monday, August 10, 2020

 


 
                      राष्ट्र-चिंतन
 
हिन्दुत्व को मिटाने में खुद कांग्रेस लगभग मिट गयी  


कांग्रेस के लिए ‘ हिन्दुत्व ‘ है मौत का रास्ता

          विष्णुगुप्त



हिन्दुत्व के महान विचारक वीर सावरकर  का कहना था कि जिस दिन हिन्दू एक हो गये उस दिन कांग्रेस के नेता कोर्ट के उपर भी जनेउ पहनना शुरू कर देंगे। अभी तक हिन्दू पूरी तरह से एक भी नहीं हुए हैं, अभी तक हिन्दू पूर्ण रूप से जाग्रत भी नहीं हुए हैं, अभी तक हिन्दू अपने हितों की सुरक्षा के लिए पूरी तरह से गंभीर भी नहीं हुए हैं, अभी तक हिन्दू उन राजनीतिक दलों को पूरी तरह से खारिज करने के लिए तैयार भी नहीं हैं जो राजनीतिक दल हिन्दुत्व की कब्र खोदते हैं, हिन्दुत्व को अपमानित करते हैं, हिन्दुत्व को लांक्षित करते हैं, अभी तक हिन्दू अल्पसंख्यक मुस्लिमों की तरह भीड़ खडी कर बवाल तक नहीं काटते हैं , अभी तक हिन्दू पूरी तरह से जाति बंधन से मुक्त भी नहीं हुए हैं, अभी तक हिन्दू एकजुटता की श्रेणी में खडें होकर पूरी तरह से भाजपा को सपोर्ट में भी नहीं होते हैं, अभी तक दक्षिण के क्षेत्र में रहने वाले हिन्दुओं के लिए राजनीतिक एकता कोई  अर्थ नहीं रखता है, यही कारण है कि हिन्दुत्व के नाम पर सत्ता में राज करने वाले नरेन्द्र मोदी को मात्र 36 प्रतिशत वोट ही हासिल होते हैं।
                            फिर भी कांग्रेस जैसी राजनीतिक पार्टियां जरूर हाशिये पर खडी हो गयी हैं और अपनी राजनीतिक चमक भी खो चुकी हैं। भाजपा के हिन्दुत्व के सामने इनकी हर राजनीतिक गतिविधियां और हर राजनीतिक रणनीतियां भी बेकार और विफल साबित हो रही हैं। इसका दुष्परिणाम अब यह सामने आ रहा है कि कल तक जो कांग्रेस हिन्दुत्व की कब्र खोदने के लिए सक्रिय रहती थी और उसके नेता सरेआम हिन्दुओं को अपमानित करते थे वह कांग्रेस और कांग्रेस के नेता हिन्दुत्व के समर्थन में खडे हो रहे हैं। कांग्रेस को राममंदिर पूजन समारोह का समर्थन करना पड़ा, राहुल गांधी-प्रियंका गांधी को यह कहना पड़ा कि भगवान राम सबके हैं, रामजन्म भूमि का ताला तो राजीव गांधी ने खुलवाया था। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि कांग्रेस के नेता कमलनाथ एक कदम और आगे बढ गये, मध्य प्रदेश कांग्रेस कमिटी के कार्यालय में भगवान राम की तस्वीर लगायी। भूमि पूजन के दिन कांग्रेस के कई कार्यालयो में दीप प्रज्वलित किये गये। यह दिखाने की कोशिश हुई कि कांग्रेस हिन्दुत्व का समर्थन करती है और कांग्रेस भगवान राम का सम्मान करती है। कांग्रेस की इस पलटीमार राजनीति से लोग अंचभित हैं। यह पल्टीमार राजनीति कांग्रेस के लिए मौत का रास्ता बनेगा क्या? इस पल्टीमार राजनीति को हिन्दुत्व में विश्वास करने वाला जनमानस कितना स्वीकार करेगा?
                                हिन्दुत्व विरोधी राजनीति और क्रियाकलाप की करतूत से कांग्रेस भरी पडी हुई है। कांग्रेस आज कह रही है कि राममंदिर का ताला राजीव गांधी ने खुलवाया था तो फिर कांग्रेस इतने सालों तक राममंदिर निर्माण के खिलाफ क्यों खडी रही, कांग्रेस के वकील लोअर कोर्ट से लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक क्यों दौड लगाते रहे थे, सुप्रीम कोर्ट में राममंदिर पर फैसले रोकवाने के लिए कांग्रेसी नेता कपिल सिब्बल क्यों खडे थे? हिन्दुत्व में विश्वास करने वाले लोग कपिल सिब्बल के उस बयान को कैसे भूल जायेंगे जिसमें उन्होंने कहा था कि राममंदिर बन जायेगा तो वे आत्महत्या कर लेगे। आज जिस भगवान राम के प्रति कांग्रेस अथाह प्रेम दिखा रही है और भगवान राम का सम्मान कर रही है, भगवान राम को देश के सभी दिलों में राज करने वाले के रूप में प्रतिपादित कर रही है उस राम के प्रति कांग्रेस का असली दृष्टिकोण क्या है? यह कौन नहीं जानता है? इसी कांग्रेस ने भगवान राम के अस्तित्व को नकारा था। रामसेतु प्रकरण कौन भूल सकता है? रामसेतु तोडवाने के लिए कांग्रेस अग्रसित थी, किसी भी स्थिति में रामसेतु का विध्वंस कांग्रेस चाहती थी। सुप्रीम कोर्ट में कांग्रेस की सरकार ने एफीडेविट देकर कहा था कि रामसेतु को तोड़ना लाभकारी है, राम का कोई अस्तित्व नहीं है, राम कोई भगवान नहीं बल्कि काल्पनिक पात्र हैं। भगवान राम के अस्तित्व को नकार कर कांग्रेस ने एक तरह से अपने पैरों में कुल्हाडी मारी थी। उस समय कांग्रेस को यह उम्मीद नहीं होगी कि यही उसकी गलती उसके अस्तित्व के लिए काल बन जायेगी?
                                    दुनिया में कोई भी पार्टी अपनी मूल जड़ से कभी कटती नहीं है, अपनी मूल और निर्णायक-बहुमत वाली आबादी को कब्रगाह बनाने या फिर उसे हाशिये पर खडी करने की कोशिश नहीं कर सकती है। ऐसा करने वाली राजनीति पार्टी की जड़ खूद ही अस्तित्व से कट जाती है। आजादी के प्राप्ति के बाद ही कांग्रेस की यह हिन्दू विरोधी राजनीति जारी हुई थी जो अभी तक कांग्रेस के अंदर जारी है। ऐसी आत्मघाती राजनीति नहीं होती तो फिर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को यह कहने का साहस नहीं होता कि देश के संसाधनों पर पहला और असली अधिकार मुसलमानों का है। राहुल गांधी को अमेरिकी प्रतिनिधि से यह कहने का साहस नहीं होता कि देश को असली खतरा हिन्दुत्व से है। कांग्रेस के दस साल के पिछले शासन के दौरान पी चिदम्बरम और सुशील कुमार शिंदे को हिन्दू आतंकवाद की थ्योरी लाने-गढने की हिम्मत ही नहीं होती। हिन्दू आतंकवाद की प्रत्यारोपित थ्योरी ने भाजपा को अपने जनाधार वर्ग को फिर से एकत्रित करने और कांग्रेस की जड़ो में हिन्दुत्व का मठा डालने के लिए अवसर दिया था। मरी हुई भाजपा फिर से इसी कसौटी पर जिंदा हुई थी।
                           हिन्दुत्व को मिटाने में खुद कांग्रेस लगभग मिट गयी। सोनिया गांधी ने एक ऐसा विधेयक लाना चाहती थी कि किसी भी दंगें में दोषी हिन्दुओं को ही ठहराया जाता। इस विधेयक का नाम दंगा रोधी विधेयक था, यह विधेयक पाकिस्तान प्रायोजित बुद्धिजीवियांें और मुस्लिम-कम्युनिस्ट त्रिकोण के दिमाग की करतूत थी। तीस्ता सीतलवाड़ इस विधेयक की अगुआ थी। इस विधेयक की प्रस्तावना जैसे ही उजागर हुई थी वैसे ही देश में हाहाकार मच गया था। हिन्दूवादी संगठन का गुस्सा सातवे आसमान पर था। इस हिन्दू विरोधी विधेयक के खिलाफ हिन्दूवादी संगठनों ने पांच सालों तक अभियान चलाया था। अगर 2014 में भी कांग्रेस लौट जाती तो फिर उस विघेयक को कांग्रेस संसद से पास करा ही लेती। गाय के प्रति हिन्दू धर्म के लोगो के प्रति आस्था कैसी है, यह भी जगजाहिर है। जब हिन्दू संगठनों ने गौ रक्षा के प्रति अभियान चलाया तो फिर केरल में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने सरेआम गाय के बछडे को काटा और गौ मांस की पार्टी की थी। ऐसी करतूत सिर्फ हिन्दुओ को भड़काने और हिन्दुओं की भावनाएं आहत करने के लिए की गयी थी। गौ हत्या को लेकर इन्दिरा गांधी की बर्बरता भी अब हिन्दुओं के सामने यक्ष प्रश्न बन गया है। इन्दिरा गांधी के राजकाज के समय 1970 के दशक में दिल्ली में निहत्थे साधुओं ने गौ रक्षा के लिए प्रदर्शन किया था। इस प्रदर्शन पर बर्बर गोलियां चलायी गयी थी, कहा जाता है कि एक हजार से अधिक निहत्थे साधुओं की हत्या की गयी थी, दिल्ली की सड़के निहत्थे साधुओं की खूनों से रंग गयी थी।
                                 अभी भी कांग्रेस हिन्दुत्व के प्रश्न पर कोई एक मत राय नहीं रखती है। हिन्दुत्व को लेकर कोई सर्वमान्य स्थिति उत्पन्न करने में कांग्रेस विफल रही है। कांग्रेस के अंदर में अभी हिन्दू विरोधी नेताओं की कोई कमी नहीं है। शशि थरूर अपने एक लेख में सरेआम दावा करते हैं कि धारा 370 का हटाना गैर संवैधानिक करतूत है और कांग्रेस केन्द्र में सत्ता की वापसी करेगी तो फिर से धारा 378 की वापस लायेगी। शशि थरूर रामजन्म भूमि मंदिर निर्माण का भी विरोधी करते हैं।शशि थरूर कहते हैं कि सत्ता में जब हमारी वापसी होगी तब हम राममंदिर निर्माण कार्य बंद करा देंगे। कांग्रेसी सांसद टीएन प्रथापन ने राममंदिर निर्माण को देश का हिन्दूकरण करने वाला बताया है और सोनिया गांधी से राममंदिर निर्माण का समर्थन करना बंद करने की मांग की है। देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अब राममंदिर निर्माण कोई रोक नहीं सकता है, राममंदिर रोकने वाली सरकार अब बनेगी, यह कहना भी मुश्किल है। धारा 370 की वापसी लाने वाली सरकार उसी तरह दफन होगी जिस तरह से कांग्रेस 2014 में दफन हुई थी। कांग्रेसी नेताओं के इस तरह की बयानबाजी और राजनीति करतूत से कांग्रेस ही कमजोर, अविश्वसनीय और आत्मघाती बन जाती है।
                          अब भारत की राजनीति की दशा-दिशा बदल चुकी है। अब भारत की राजनीति में भी मूल आबादी का प्रश्न महत्वपूर्ण हो गया है। मूल आबादी को खारिज कर मुस्लिम आबादी के समर्थन से कांग्रेस की सत्ता में वापसी नहीं हो सकती है। हिन्दू विरोध की राजनीति से काग्रेस के हाथ इतने खून से रंगे हैं कि हिन्दू उसके साथ खड़ा होंगे, यह नहीं कहा जा सकता है। हिन्दुत्व का असली नायक नरेन्द्र मोदी हैं। नरेन्द्र मोदी के हिन्दुत्व के सामने सोनिया, राहुल और प्रियंका गांधी का हिन्दुत्व कहीं भी नहीं ठहरेगा। कांग्रेस को हिन्दुत्व के प्रश्न पर ईमानदारी दिखाने में वर्षो लग जायेगे फिर भी हिन्दू कांग्रेस को ईमानदार मानेंगे कि नहीं, यह कहना मुश्किल है। कांग्रेस को अब यह बात जरूर समझ लेनी चाहिए कि मूल आबादी की भावनाओं को कब्रगाह बना कर कोई भी पार्टी सत्ता हासिल नहीं कर सकती है। इसलिए मूल आबादी यानी हिन्दुओ की अस्मिता और गौरव चिन्हों का सम्मान करना जरूरी है।



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Monday, August 3, 2020

अशोक सिंघल को ‘ भारत रत्न ‘ की उपाधि मिले

 

           राष्ट्र-चिंतन 
 
रामजन्म भूमि आंदोलन के चीफ आर्किटेट थे अशोक सिंघल

अशोक सिंघल को ‘ भारत रत्न ‘ की उपाधि मिले
     

विष्णुगुप्त


 
हिन्दू आस्था और अस्मिता के प्रतिमान प्रभु राम के अयोध्या में मंदिर निर्माण की प्रक्रिया गतिशील है, भूमि पूजन के साथ ही साथ हिन्दू आस्था और अस्मिता का प्रत्याशित आशा पूरी गयी। देश ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में उत्साह और हर्ष का विषय बन गया। दुनिया भर में रहने वाले हिन्दू, भूमि पूजन समारोह को अपने-अपने ढंग से मनाने और याद रखने की कोशिश काफी समय से कर रहे हैं। अयोध्या नगरी और प्रभु राम हिन्दू संघर्ष और बलिदान के भी प्रतीक बन गये हैं। कोई एक-दो साल का संघर्ष नहीं रहा है, पूरे पांच सौ साल का संघर्ष रहा है। तत्कालीन मुलायम सिंह यादव की सरकार द्वारा कारसेवकों पर बर्बर गोलियां चलवाने और कोठारी बंधुओं सहित दर्जनों कारसेवकों की हत्या कराने से लेकर जिहादियों द्वारा गोधरा कांड में लगभग एक सौ से अधिक कारसेवकों को जला कर मार डालने जैसे सैकड़ों बर्बर घटनाओं की याद ताजा हो रही है।
                                कोई भी बड़ा आंदोलन और अभियान सफल तब होता है जब उसके प्रति गहरी आस्था होती है, समर्पण होता है, उसका कोई न कोई आईकाॅन होता है। प्रभु राम के प्रति आस्था तो थी और समर्पण भी था पर उसका साक्षात प्रकटिकरण की समस्या थी। जब तक आस्था और समर्पण का सक्रिय प्रकटिकरण नहीं होता है तब तक उसका कोई प्रभाव सामने नहीं आता है, उसका कोई प्रतिफल नहीं होता है। सबसे पहली आवश्यकता आस्था और समर्पण के प्रकटिकरण को सुनिश्चित करने की थी। रामजन्म भूमि आंदोलन में कई ऐसे आईकाॅन हैं जो आस्था और समर्पण के प्रकटिकरण सुनिश्चित करने के आईकाॅन बने हैं, बलिदानी बने हैं। इनमें सर्वश्रेष्ठ थे अशोक सिंघल। अशोक सिंघल को राममंदिर आंदोलन को चीफ आर्किटेट कहा जाता है। जब आप अशोक सिंघल के जीवन गाथा को देंखेगे और उनकी रामजन्म भूमि आंदोलन में भूमिका को देखेंगे तो त आप भी अशोक सिंघल को रामजन्म भूमि आंदोलन का चीफ आर्किटेट मानेगे और उनके प्रति सिर झुकायेंगे। देश के करोड़ों लोग जिनकी आस्था और समर्पण प्रभु राम के प्रति है वे सभी अशोक सिंघल के प्रति न केवल गहरी आस्था रखते हैं बल्कि उनके सम्मान में सिर भी झुकाते रहे हैं। अशोक सिंघल जी को संस्कृृति के पुर्नजागरण का भी प्रतीक संत माना गया है।  आज देश के उपर जो हिन्दू सत्ता विराजमान है उसके पीछे भी कहीं न कहीं अशोक सिंघल जी की सोच, प्रबंधन और संस्कृति जागरण से संभव हुआ है। अशोक सिंघल जी के उस बयान को कौन भूल सकता था जिसमें उन्होने कहा था कि एक-दो साल नहीं बल्कि आठ सौ साल बाद भारत में हिन्दू सत्ता की वापसी हुई है। उनका तात्पर्य नरेन्द्र मोदी की 2014 में जीत से थी।
                                 अशोक सिंघल कोई साधरण व्यक्ति नहीं थे। उनकी प्रतिभा असाधारण थी। उनकी शैक्षणिक योग्यता भी सर्वश्रेष्ठ थी। 1950 में उन्होने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से धातुकर्म मे इंजीनियरिंग की थी। उस समय इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करना कोई आसान काम नहीं होता था। इंजीनियरिंग की पढाई करने का अर्थ अच्छी नौकरी और सुखमय जीवन का प्रमाण होता है। पर उनके सामने राष्ट्रभक्ति अहम प्रश्न थी, सांस्कृृृृृृृृृतिक पुर्नजागरण की सोच उनके अंदर थी। जिस मनुष्य के अंदर राष्ट्रभक्ति होती है, अपनी संस्कृति उसे लुभाती है उस व्यक्ति के लिए सुखमय जीवन और भौतिक संसाधन तुच्छ होते है। देश भक्ति की कसौटी पर ही सरदार भगत सिंह अपने सुखमय जीवन की आकांक्षा को छोड़कर फांसी पर झूले थे, सुभाषचन्द बोस हजारों किलोमीटर पैदल चलकर वर्मा पहंुचे थे, जर्मनी पहुंच कर आजाद हिंद फौज की स्थापना की थी। अशोक सिंघल ने भी इजीनियरिंग की नौकरी न करने की ठान ली और संघ का प्रचारक बनना स्वीकार कर लिया। आपातकाल के दौरान उनकी भूमिका इन्दिरा गांधी की बर्बर सरकार के प्रजि आक्रोश उत्पन्न कराने की थी। खासकर देश की राजधानी दिल्ली में इन्दिरा गांधी की इमरजेंसी के खिलाफ व्यूह रचना और आंदोलन  में भी इनकी भूमिका अग्रणी थी। अशोक सिंघल इमरजेंसी के दौरान कभी पकडे नहीं गये थे। पुलिस उनको पकडने मे विफल रही थी। इसी क्षमता का प्रमाण था कि संघ ने उन्हें हिन्दुओ कों संगठित करने के लिए विश्व हिन्दू परषिद से जोड़ दिया।
                                हिन्दुओं में आस्था और उ्रग्रता के प्रदर्शन के पीछे इनकी दृष्टि दूरदर्शी थी। इनकी सोच थी कि हिन्दुओं में अपने देश, धर्म और संस्कृति के प्रति आस्था तो होनी ही चाहिए पर इस आस्था के प्रकटिकरण के लिए उग्रता भी होनी चाहिए। बिना उग्रता के कोई लक्ष्य की पूर्ति होने ही नहीं दिया जाता है। अशोक सिंघल ने इसे समझने के लिए दिल्ली में इन्दिरा गांधी द्वारा गो हत्या के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले सैकड़ों निहत्थे साधुओं की पुलिस की गोलियों से की गयी हत्या को चुना था। दिल्ली की सड़कें निहत्थे साधुओ की हत्या और खून से लथपथ हो गयी थी। कहा जाता है कि लगभग एक हजार साधुओं की हत्या हुई थी। इतने बड़े नरसंहार के बाद इन्दिरा गांधी की सत्ता नहीं रहनी चाहिए थी पर इस नरसंहार के खिलाफ देश भर में आवाज नही उठी? आखिर क्यों? इसलिए कि हिन्दू अपने हितो की रक्षा के प्रति उदासीन होते हैं, हिन्दू प्रतिक्रिया वादी नहीं होते है, अपने हितों के प्रति उग्रता नहीं दिखाते हैं।
                                 देश की राजधानी दिल्ली में दो सम्मेलनों ने देश की राजनीतिक धारा में परिवर्तन लाने और हिन्दुत्व के उभार की बडी भूमिका निभाायी थी। 1981 में डाॅ कर्ण सिंह के नेतृत्व में एक विराट हिन्दू सम्मेलन का आयोजन हुा था। 1984 में दिल्ली के विज्ञान भवन में एक धर्म संसद का आयोजन हुआ था। इन दोनों सम्मेलनों में पहली बार हिन्दू हितों पर राष्ट्रीय चर्चा हुई और यह कहा गया कि हिन्दू हितों की बलि चढाना राजनीतिक कर्म बन गया है, हिन्दू हितों को अपमानित करना राष्ट्रीय राजनीति बन गयी। इन दोनों सम्मेलनों में न केवल देश से बड़ी-बडी हस्तियां जुटी थी बल्कि विदेशों से भी बडी हस्तियां आयी थी। इन्ही दोनों सम्मेलनों में रामजन्म भूमि को मुक्त कराने और राष्ट्रीय शर्म बाबरी मस्जिद के विध्वंस की चर्चा हुई थी, सिर्फ चर्चा ही नहीं हुई थी बल्कि इसके लिए आंदोलन की पृष्टभूमि बनाने की जरूरत भी महसूस क गयी थी। इन दोनों सम्मेलनों के पीछ अशोक सिंघल का ही दिमाग था। इन दोनो सम्मेलनों के कर्ता-धर्ता भी अशोक ंिसंघल थे।
                               जब बाबरी मस्जिद का ताला खुला और प्रभु राम की प्रार्थना-पूजा करने की अनुमति मिली तब अशोक सिंघल ने राम जन्म भूमि मुक्ति के आंदोलन को राजनीति का यक्ष प्रश्न बना दिया। लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा के पीछे इनका ही दिमाग काम कर रहा था। गांव-गाव और घर-घर ईंट पूजन समारोह मनाने, एक पिछडे-दलित कामेश्वर चैपाल से ईट पूजन कराने से लेकर बाबरी मस्जिद के विघ्वंस तक की पूरी व्यूह रचना के शिल्पी अशोक सिंघल रहे थे।
                            नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित कराने और गुजरात में नरेन्द्र मोदी को पूरी शक्ति व समर्थन के साथ खड़े रहने वालों में अशोक सिंघल भी शामिल रहे हैं। जब राष्ट्रधर्म के सिद्धांत पर गददी छोड़ने का दबाव पडा था तब अशोक सिंघल ने आडवाणी के साथ मिल कर पराक्रम दिखाया था। वे अपने विरोधियों के कर्म से विचलित नहीं होते थे। जब उन्होने नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर कहा कि आठ सौ साल बाद सत्ता वापस लौटी है तब देश की तुष्टीकरण की राजनीति ने कैसी बवाल काटी थी, देश से लेकर विदेश तक इसकी गूंज हुई थी लेकिन वे अपने बयान पर कायम रहे। यह प्रदर्शित करता है कि हिन्दू के प्रति उनका दृष्टिकोण कभी विचलित नहीं होता था। 
                                            हिन्दुत्व की धारा इन्हें संस्कृति पुर्नजागरण का महापुरूष मानता है, देश की राजनीति में हिन्दुत्व को यक्ष प्रश्न बनाने का पराक्रमी मानता है। हिन्दुत्व धारा अशोक सिंघल को देशरत्न की उपाधि की मांग करता है। हिन्दुत्व की धारा कहती है कि जब सिखों की हत्या का समर्थन करने वाले और जिनकी सत्ता के नीचे हजारों सिखों की हत्या हुई उस राजीव गांधी को भारत रत्न की उपाधि मिल सकती है तब राष्ट्र की अलग जगाने वाले और देशभक्ति को कर्म मानने वाले अशोक सिंघल को भारत रत्न की उपाधि क्यों नहीं मिलनी चाहिए। देश के उपर अशोक सिंघल जी के शिष्य और  हिन्दुत्व रक्षक के प्रतीक बन गये नरेन्द्र मोदी की सरकार है। शायद नरेन्द्र मोदी सरकार अशोक सिंघल जी को भारत रत्न की उपाधि भी दे सकती है। रामजन्म भूमि निर्माण जो अब सच हो गया है उसके पीछे अशोक सिंघल जी के सघर्ष को जब-जब याद किया जायेगा तब-तब सुखद अनुभूति होगी,  राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा मिलती रहेगी।



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VISHNU GUPT
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NEW DELHI
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