Wednesday, November 14, 2018


 

         राष्ट्र-चिंतन   
     
     जनता ने मतदान कर माओवादियों का सबक दिया
माओवाद देश का आईकॉन नहीं बन सकता
    
             विष्णुगुप्त

माओवाद को जनता ने नकार दिया। माओवादियों को कड़ा व सबककारी संदेश दिया गया है कि भारत में सत्ता माओत्से तुंग की बन्दूक की गोली के सिद्धांत से नहीं बल्कि मतदान से निकलती है। कहने का अर्थ है कि हमारी लोकतांत्रिक शक्ति और विचार की जीत हुई, विदेशी अवधारणा माओवाद की पराजय हुई जो अब चीन में भी विलुप्त हो गया है। छत्तीसगढ़ में माओवाद ग्रसित क्षेत्रों में माओवादियों के विरोध और धमकियों की बीच मतदान हुआ और मतदान में उत्साह के साथ जनता सक्रिय थी, मतदान का प्रतिशत भी ठीक-ठाक रहा। छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में माओवाद की कैसी हिंसा है, माओवाद की कैसी पकड़ है, यह कौन नहीं जानता है, माओवादी प्रभावित क्षेत्रों में पुलिस तक जाने से डरती है, अर्द्धसैनिक बलों पर हमले होते रहते हैं, विकास के सभी काम ठप पडे हुए हैं। माओवादियों के खिलाफ बोलने या फिर असहमति जताने वाले लोगों का रहना मुश्किल है, उन पर हिंसा बरपती है, माओवादियों की गोलियां उन पर चलती है। कुछ दिन पूर्व ही माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में लोकतंत्र के प्रति उत्साह को देखने-समझने गयी दूरदर्शन की टीम को माओवादियों ने कैसे निशाना बनाया था, दूरदर्शन के कैमरा मैन की किस प्रकार से हत्या हुई थी, यह भी जगजाहिर है। पत्रकारों को निशाना बनाने की हिंसा यह बताती है कि माओवाद कितना क्रूर, कितना हिंसक हैं, अगर ये पत्रकार तक की जान लेने में शर्मसार नहीं होते हैं तब ये आम जनता के साथ किस प्रकार से व्यवहार करते होंगे, आम जनता को किस प्रकार की हिंसा का ग्राह बनाते होंगे, इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। 
      सबसे बडी बात यह है माओवादियों ने बडी-बडी सभाएं कर आम जनता को धमकियां पिलायी थी कि वोट करने वाले लोगों को सीधे गोलियां मिलेगी, इस क्षेत्र से खदेड़ दिया जायेगा। माओवादियों का इतिहास भी क्रूर है। पहले भी मतदान करने वाली जनता पर माओवादी कहर बन कर टूटते हैं। पर जनता के सामने अपने जनप्रतिनिधि चुनने की चुनौती थी,  निश्चित तौर पर जनता ने यह चुनौती स्वीकारी और मतदान के लिए कूद पडी। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनप्रतिनिधि ही विकास और उन्नति के प्रतीक होते हैं, अगर आम जनता लोकतांत्रिक व्यवस्था से कट जाये तो फिर विकास और उन्नति को जनता कैसे हासिल कर सकती है। माओवाद कभी उन्नति और विकास का प्रतीक नहीं हो सकता है, माओवाद सिर्फ और सिर्फ तानाशाही और हिंसा के प्रतीक है।
मओवाद क्या भारतीय जनता का आईकॉन हो सकता है? माओवाद, मार्क्सवाद, लेनिनवाद, स्तालिनवाद आदि एक विदेशी मानसिकताएं जो दुनिया भर में निरर्थक, अप्रासंगिक हो गयी हैं। सोवियत संघ के पतन के बाद पूरी दुनिया से एक तरह से इन सभी वादों की विदाई हो चुकी है, गिन-चुने जिन राष्टों में ये सभी मानसिकताएं हैं तो पर इन मानसिकताओं के रूप-रंग बदले हुए हैं, इन सभी मानसिकताओं को पूंजी के प्रवाह से परहेज नहीं हैं, मजदूरवाद गौण हो चुका है, अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए पूंजी को आवश्यक मान लिया गया है। आधुनिक दौर में जहां पर भी ऐसी मानसिकताओं का थोड़ा-बहुत अस्तित्व रहा है वहां पर खून-खराबा, तानाशाही और भूखमरी पसरी होती है, तानाशाही के प्रताड़ित और शोषित लोग अपने देश को छोड़कर पलायन करने के लिए मजबूर होते हैं। लैटिन अमेरिकी देश वेनेजुएला एक सशक्त और मजबूत अर्थव्यवस्था वाला देश था लेकिन 1999 में वहां पर हुगो चावेज नाम के एक व्यक्ति ने पूंजी के खिलाफ सत्ता पर बैठ गया। हुगो चावेज अमेरिका को समाप्त करने की कसमें खाता रहा। हुगो चावेज की इस सनकी भरी नीति पर दुनिया भर के कम्युनिस्ट तालियां बजाते थे और कहते थे कि दुनिया में माओवाद, मार्क्सवाद, लेनिनवाद, स्तालिनवाद की वापसी हो रहा है। दुष्परिणाम क्या हुआ? दुष्परिणाम बहुत ही दर्दनाक और भयानक हो गया। वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था चौपट हो गयी, महंगाई इतनी बढी कि आम आदमी त्राहिमाम किया। भूख और तंगहाली फैल गयी। भूख और तंगहाली से ग्रसित वेनेजुएला की जनता अपने देश से पलायन करने लगी। कई लाख जनता अपना देश छोडकर लैटिन अमेरिकी देशों में शरणार्थी बनने के लिए बाध्य हुई।
माओवाद तो चीन में भी दफन हो चुका हैं। चीन में कहने के लिए कम्युनिस्ट तानाशाही है पर चीन आज की तारीख में एक पंूजीवादी देश है, एक उपनिवेश्विक देश है। चीन की अर्थव्यवस्था पंूजी आधारित है। माओत्से तुंग की क्राति के अवशेष तक नहीं हैं। मजदूर-किसान गौण हो गये हैं। मजदूरों के हित की बात गौण हो गयी है। मजदूर प्राथमिकता सूची से बाहर हैं। चीन के अंदर में एक श्रम कानून बडा ही अमानवीय है। इस कानून का नाम ‘ हायर एंड फायर ‘ है। हायर एंड फायर कानून के तहत कोई भी कंपनी अपनी मनमर्जी से मजदूर रखेगा और अपनी मनमर्जी से मजदूर को निकाल बाहर कर सकता है। मजदूर अपनी हक के लिए आंदोलन कर नहीं सकते हैं। मजदूरों के आंदोलन करने पर कडी सजा है। चीन के अंदर मानवाधिकार की बात सोची तक नहीं जा सकती है। यही कारण है कि दुनिया भर की कपंनियां सस्ते मजदूर के लालच में चीन में अपर्नी इंकाइयां लगाती है। इसी कसौटी पर चीन के अंदर में दुनिया की नामी-नामी कंपनियों के उत्पादन ईकाइंयां लगी हुई है। अगर सस्ता श्रम व्यवस्था नहीं होती और श्रम तथा अन्य कानूनो से छूट नहीं मिली हुई होती तो चीन के अंदर में दुनिया भर की कपंनियां क्यों और किस लिए जाती? अधिकतम लाभ अर्जित करना पूंजी का सिद्धांत है।
माओवाद भारत की जनता का आईकॉन कभी नहीं बन सकता है? माओवाद भारत की जनता का आईकॉल क्यों नहीं बन सकता है? इसके पीछे कौन-कौन से अवरोधक विन्दु हैं, जिस पर विचार किया जाना चाहिए। सबसे पहली बात तो यह है कि माओवाद एक विदेशी अवधारणा है,  माओवाद चीन के अंदर ही दफन हो चुका है, माओवाद एक हिंसक अवधारणा है, एक शत्रु अवधारणा है।  भारत के माओवादी चाहे जिनता भी हिंसा कर लें, भारतीय माओवादी चाहे जितना भी खून बहा दें, आगे भी सालों-सालों तक जंगली क्षेत्रों में हाहाकार मचाते रहें पर भारत की जनता माओवाद को अपना नहीं सकती हैं। भारत में माओवाद तो उसी दिन दफन हो गया था जिस माओत्से तुंग ने भारत पर हमला किया था और जिस दिन माओवादियों तथा कम्युनिस्ट पार्टियों ने माओत्से तुग को अपना आईकॉन, अपना गौड फादर घोषित किया था और यह कहा था कि माओत्से तुंग माई चैयमैन यानी हमारा प्रधानमंत्री। चीनी सैनिकों के स्वागत में बैनर लगाये थे, भारतीय रक्षा उत्पादन कारखानों में हड़ताल करायी थी, ताकि भारतीय सैनिकों को हथियार उपलब्ध न हो सके और चीनी सैनिकों की जीत हो सके। भारत के माओवादियों ने माओत्से तुंग के बदलौत भारत में कम्युनिस्ट सरकार कायम करना चाहते थे। आज भी माओवादी और कम्युनिस्ट पार्टियां चीन को हमलावर या फिर माओत्से तुंग को रक्तपिसाचु मानने से इनकार करते हैं। माओत्से तुंग ने लगभग एक करोड गरीब जनता को अपने देश में भूखे मार दिया था। जिस माओत्से तंुग ने हमारे पांच हजार सैनिकों की हत्या की थी, जिस माओत्से तुंग ने हमारी 90 हजार वर्ग मील भूमि कब्जाई थी उस माआत्से तुग को देश की जनता कैसे स्वीकार कर सकती है?
नेपाल के माओवादियों से भी भारत के माओवादी सीख लेने के लिए तैयार नहीं हैं। नेपाल में माओवादियों ने तानाशाही को छोड़कर लोकतंत्र को अपना लिया। आज माओवादी संसदीय प्रणाली के वाहक हैं, संसदीय चुनाव लडते हैं, संसदीय चुनाव के माध्यम से सत्ता हासिल करते हैं। आज नेपाल में कम्युनिस्ट सत्ता बैठी हुई है। नेपाल की क्युनिस्ट सत्ता भी देशभक्ति और राष्टीयता की कसौटी पर चलती-बढती है। पर भारत के माओवादी देशभक्ति और राष्टीयता को बुरी चीज मानते हैं। अभी भी ये माओत्से तुंग के सिद्धांत से अलग हटने के लिए तैयार नहीं हैं। माओवादी जब हिंसा नहीं छोडेगे तब प्रतिहिंसा उन पर टूटती रहेगी। छत्तीसगढ की जनता की वीरता की प्रशंसा करनी चाहिए। राज्य सत्ता को भी चाकचौबंद रहना चाहिए ताकि मतदान करने वाली जनता को सुरक्षा मिले। माओवादी अपनी हिंसा का शिकार मतदान करने वाली जनता को बना सकते हैं।

संपर्क...

9315206123

Saturday, November 3, 2018

                  राष्ट्र-चिंतन   

पाक को कंगाल होने से कौन बचायेगा ?

मुद्रा कोश और सउदी अरब, पाकिस्तान को कंगाल होने से बचा सकते हैं पर डोनाल्ड ट्रम्प की धमकी के सामने ये दोनों भी डरे हुए हैं। कंगाल होने से बचने के लिए 1200 करोड अमेरिकी डाॅलर की जरूरत है। अब पाकिस्तान को समझ में आ जाना चाहिए कि दूसरों के घरों में आग लगा कर खुशी मनाने का दुष्परिणाम क्या होता है। जिस चीन के बल पर पाकिस्तान फूलता था वह चीन पाकिस्तान को कंगाल होने से बचाने के लिए क्यों नहीं आगे आ रहा है। पाकिस्तान को अमेरिका और मुद्रा कोश, सउदी अरब के सामने कटोरा लेकर क्यों दौडना पड रहा है? अगर पाकिस्तान अपना भविष्य सुरक्षित रखना चाहता है तो फिर उसे अमेरिका-भारत के साथ रिश्ते मुधर करने ही होंगे, चीनी हथकंडों से मुक्त होना ही होगा, हिंसा की आग पर पानी डालना ही होगा?


                   विष्णुगुप्त




पाक को कंगाल होने से कौन बचायेगा? यह प्रश्न न केवल पाकिस्तान की आतंरिक राजनीति को उथल-पुथल कर दिया है बल्कि मुस्लिम दुनिया और यूरोप-अमेरिका में भी ध्यान खींचा है, चर्चा का विषय बना हुआ है। मुस्लिम दुनिया और अमेरिका-यूरोप में चर्चा का विषय यह है कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में लगी आग में कौन अपना हाथ जलायेगा, कौन अपने हाथ और अपने हित को बलि देकर पाकिस्तान को कंगाल होने से बचायेगा, क्या ऐसे देश को कंगाल होने से बचाना जरूरी है जो देश अपनी आतंकवाद की आउटसोर्सिंग नीति से दुनिया की शांति और सदभाव को खतरनाक तौर पर विध्वंस करता हो और निर्दोष जिंदगियों को लहूलुहान कहरने की नीति पर चलता हो। जानना यह जरूरी है कि पाकिस्तान वर्तमान में कई तरह के संकटों से जूझ रहा है। एक तो उसकी अर्थव्यवस्था विध्वंस होने के कगार पर खडी है, अर्थव्यवस्था की गिरती रफतार को थामने की शक्ति पाकिस्तान की सरकार के अंदर में है नही, ंतो फिर अर्थव्यवस्था को विध्वंस होने से कैसे बचाया जा सकता है, विदेशी मुद्रा भंडार लगभग समाप्त हो गया है, कर्ज की अदायती की आर्थिक शक्ति नहीं है, पाकिस्तानी रूपये की कीमत लगभग 30 प्रतिशत घट गयी है। 
        जिन देशों और जिन संस्थानों से उम्मीद थी उन देशों ने और उन संस्थानों ने या तो हाथ खींच लिये हैं, आर्थिक मदद देने से इनकार कर दिये हैं या फिर उन देशों और उन संस्थानों ने ऐसी शर्ते थोपी हैं जिसकी पूर्ति संभव नहीं है, उन शर्तो को स्वीकार करना खतरनाक है, संप्रभुत्ता के साथ समझौता करना हो सकता है। पाकिस्तान के लिए सबसे बडी समस्या अमेरिका और डोनाल्ड ट्रम्प हैं। डोनाल्ड ट्रम्प पाकिस्तान को किसी भी परिस्थिति में सबक सीखाना चाहते हैं, पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था विध्वंस को सुनिश्चित होना देखना चाहते हैं। डोनाल्ड ट्रम्प ने मुद्रा कोश को सीधे तौर पर हडका दिया है कि अगर पाकिस्तान को आर्थिक सहायता दी तो फिर उसके दुष्परिणाम भयंकर होंगे? उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान सहायता के लिए मुद्रा कोश में बार-बार दस्तक दे रहा है और पाकिस्तान को उम्मीद है कि मुद्रा कोश ही उसकी अर्थव्यवस्था के विध्वंस को बचा सकता है।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की दिन-रात की नींद गायब है, उसके मंत्रिमंडल के सदस्यों की भी नींद हराम हो गयी है। कहने का अर्थ यह है कि इमरान खान और उसकी सरकार दिन-रात यही कोशिश में लगी हुई है कि किस संस्थान और किस देश से आर्थिक सहायता हासिल की जायें। सबसे बडी समस्या इमरान खान ही हैं, इमरान खान की साख ही नहीं है? अब यहां कोई प्रश्न कर सकता है कि इमरान खान की साख क्यों नहीं है? इसका उत्तर यह है कि इमरान खान मूल रूप से राजनीतिज्ञ नहीं हैं, इमरान खान मूल रूप से राजनीतिज्ञ होते तो उन्हें पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था, पाकिस्तान की संप्रभुत्ता और पाकिस्तान की आतंरिक रूढिंयों की समझ होती और इन सभी समस्याओं से निकलने की क्षमता भी होती। इमरान खान की छवि भी अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार फीट नहीं बैठती है। अंतर्राष्ट्रीय जगत में पहले से ही बात बैठी हुई है कि इमरान खान आतंकवाद के समर्थक हैं, आतंकवादियों को इमरान खान न केवल समर्थन देते हैं बल्कि संरक्षण भी देते हैं, आतंकवाद के बल पर चुनाव जीते हैं, सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि इमरान खान पाकिस्तान की सेना का मोहरा भी हैं। पाकिस्तान की सेना ने लोकतंत्र का हरण कर इमरान खान को प्रधानमंत्री बनवायी थी। यह आरोप पाकिस्तान की राजनीति में आम है, नवाज शरीफ ऐसे आरोप बार-बार लगाते हैं। अपनी छवि के लिए इमरान खान खुद जिम्मेदार हैं। इमरान खान ने चुनाव के दौरान अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की खूब खिल्लियां उठाया करते थे और कहा करते थे कि सत्ता में आने के तुरंत बाद अंतर्राष्ट्रीय समुदाय, अंतर्राष्ट्रीय नियामको और अतंराष्ट्रीय वित्त संस्थानों को पाकिस्तान की शक्ति दिखायी जायेगी, उनके छोटे-मोटे कर्ज को उनके मुंह पर मार दिया जायेगा, पाकिसतन को किसी की सहायता की जरूरत ही नहीं है। पर जब सत्ता में इमरान खान आये तब उन्हें दिन में ही तारे दिखायी देने लगे। पाकिस्तान की विध्वंस हो रही अर्थव्यवस्था इमरान खान के सिर पर भूत की तरह नाचने लगी।
कौन-कौन देश है और कौन-कौन संस्थाएं हैं जहां से पाकिस्तान की उम्मीद बनती है और पाकिस्तान आर्थिक सहायता के लिए हाथ-पैर मार रहा है? कोई एक नहीं बल्कि दर्जनों देशों से पाकिस्तान ने कोशिश की थी पर हर जगह उसे निराशा हीे मिला है। सिर्फ दो जगह ही बचे हैं जहां पर पाकिस्तान की उम्मीद बची हुई हैं और जहां से पाकिस्तान को आर्थिक सहायता की उम्मीद बनती है। एक सउदी अरब है और दूसरा मुद्रा कोश है। सउदी अरब से पाकिस्तान की दोस्ती पुरानी है, पाकिस्तान को बार-बार सउदी अरब ने सहायता की है। पर कुछ सालों से पाकिस्तान और सउदी अरब के रिश्तों में खटास आ गयी है। यमन पर हमले में पाकिस्तान ने सउदी अरब का साथ नहीं दिया था, जिस कारण सउदी अरब नाराज है। एक अडचन यह है कि सउदी अरब की अर्थव्ववस्था खुद ही खराब हो रही है, उसकी अर्थव्ववस्था में इतनी शक्ति नहीं है कि वह पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को उबार सके। सउदी अरब ने पाकिस्तान को 300 करोड़ डालर का देने का वायदा किया है, ऐसा कहना पाकिस्तान की इमरान खान सरकार का है। पाकिस्तान को अगर सउदी अरब 300 करोड़ डाॅलर दे भी देगा तो भी पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की समस्या दूर हो जायेगाी, ऐसा नहीं माना जा सकता है। वर्तमान संकट से निकलने के लिए पाकिस्तान को करीब 1200 करोड़ अमेरिकी डालर की जरूरत है। मुद्रो कोश ने इसके पहले 13 बार पाकिस्तान की मदद की है और पाकिस्तान को बेलआउट पैकेज दिया है। पर इस बार पाकिस्तान पर मुद्रा कोश की नजर टेढी है। मुद्रा कोश की शर्त काफी खतरनाक हैं और स्वीकार के लायक नहीं हैं। सबसे बडी बात यह है कि मुद्रा कोश ने चीनी कर्ज के संबंध में जानकारी मांगी है। मुद्रा कोश को आशंका है कि पाकिस्तान उसके वित्तीय सहायता का इस्तेमाल चीनी कर्ज की अदायगी में कर सकता है। यही कारण है कि मुद्राकोश ने पाकिस्तान से चीनी कर्ज से संबंधित सभी जानकारियां और वह भी तथ्य परख ढंग से मांगी है। जानना यह भी जरूरी है कि पाकिस्तान के लिए चीन की सहायता से चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा अब पाकिस्तान के लिए गले की हड्डी बन गयी है, चीनी निवेश आधारित आर्थिक गलियारे के निर्माण में पाकिस्तान को अंशदान करने में भारी समस्या हो रही है। मलेशिया से भी पाकिस्तान उम्मीद कर रहा है। मलेशिया से पाकिस्तान हर साल 200 करोड डाॅलर का व्यापार करता है, मलेशिया से पाकिस्तान खाद्य तेल पदार्थ खरीदता है। पर मलेशिया की कोई रूचि है या नहीं, यह स्पष्ट अभी तक नहीं हुआ है।
इमरान खान की सत्ता स्थापित होते ही पाकिस्तान में मूल्य वृद्धि सातवें आसमान पर पहुंच गया है। जन जरूरतों पर आधारित खाद्य वस्तुएं की कीमत काफी बढी हैं। आम आदमी त्राहिमाम कर रहा है, आम आदमी की क्रय शक्ति घट रही है। पाकिस्तान के अंदर कोई ऐसा उद्योग-घंधा भी नहीं है जो आम जनता की समस्याओं को कम कर सके।
इमरान खान के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प एक काल के समान खडे हैं। डोनाल्ड ट्रम्प यह नहीं चाहते हैं कि कोई पाकिस्तान की आर्थिक सहायता करें। पाकिस्तान को जो भी आर्थिक सहायता देगा उसे डोनाल्ड ट्रम्प के तांडव से अभिशप्त होना होगा। डोनाल्ड ट्रम्प आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान की गर्दन को मरोडना चाहते हैं। सउदी अरब भी अंदर से डरा हुआ है। मुद्रा कोश को भी डोनाल्ड ट्रम्प की नाराजगी का भान है। अब पाकिस्तान को समझ में आ जाना चाहिए कि दूसरों के घरों में आग लगा कर खुशी मनाने का दुष्परिणाम क्या होता है। जिस चीन के बल पर पाकिस्तान फूलता था वह चीन पाकिस्तान को कंगाल होने से बचाने के लिए क्यों नहीं आगे आ रहा है। पाकिस्तान को अमेरिका और मुद्रा कोश, सउदी अरब के सामने कटोरा लेकर क्यों दौडना पड रहा है? अगर पाकिस्तान अपना भविष्य सुरक्षित रखना चाहता है तो फिर उसे अमेरिका-भारत के साथ रिश्ते मुधर करने ही होंगे, चीनी हथकंडों से मुक्त होना ही होगा, हिंसा की आग पानी डालना ही होगा?


संपर्क...

मोबाइल ...  9315206123

Tuesday, July 10, 2018

       
                        राष्ट्र-चिंतन
 
       तालिबानी संस्कृति की रही है सहचर / पाकिस्तानी डे का करती थी आयोजन
आसिया अंद्राबी की पाकिस्तानी परस्ती पर प्रहार
               
                   विष्णुगुप्त

 
आसियां अंद्राबी की गिरफ्तारी पर अलगाववादी, विखंडनकारी और पाकिस्तान परस्त बिलबिलाये पडे हैं, उल्टे-पुलटे आरोप जड रहे हैं, भारत सरकार को खलनायक बता रहे हैं, आसिया अंद्राबी को निर्दोष और अपने आप को पीडि़त भी बता रहे हैं, धमकियां दे रहे हैं, कि इसके खिलाफ दुष्परिणाम भयानक होंगे? उल्लेखनीय है कि पाकिस्तानी परस्ती और आतंकवाद का संरक्षण-समर्थन देने के आरोप में तालिबानी संगठन दुख्तरान ए मिल्लत की प्रमुख आसियां अद्राबी को एनआईए ने गिरफ्तार किया है। दुष्परिणाम भयानक क्या होंगे? अलगाववादी, विखंडनकारी और पाकिस्तान परस्त आतंकवादी आतंकवाद का कौन सा अवसर छोड़ते हैं, वे तो आतंकवाद व हिंसा का हर अवसर को लपकने के लिए तैयार होते हैं। उनके आरोप और उनकी चेतावनियां-धमकियां कोई ज्यादा असरकारी होंगी नहीं और न ही भारत सरकार अपना रूख बदलने वाली है, और न ही भारतीय सेना तथा अन्य भारतीय सुरक्षा एजेंसियां अलगाववादियों, विखंडनकारियों और पाकिस्तान परस्तों को कोई रियायत देने के लिए तैयार होंगी।मान-मनव्वल का समय समय समाप्त हो गया है, मान-मनव्वल के समय में अलगाववादियों, विखंडकारियों और पाकिस्तान परस्तों की हर मांग पर सहानुभूति पूर्वक विचार होता था, उनकी हर हिंसा को नजरअंदाज कर दिया जाता था। आखिर क्यों? इसलिए कि इन्हंें शंाति और वार्ता का अवसर दिया जाये। इसलिए सैकड़ों पत्थरबाजों को माफी दी गयी, रमजान के अवसर पर एक तरफा युद्ध विराम किया गया। पत्थरबाजों की माफी और रमजान के अवसर पर एक तरफा युद्ध विराम का दुष्परिणाम क्या निकला, यह कौन नहीं जानता है, आतंकवादी हिंसा बढी, पाकिस्तान की तरफ से फायरिंग बढी। विखंडकारी और पाकिस्तान परस्त यह खुशफहमी पाल रखे थे कि अब भारत सरकार तो कुछ करने ही वाली नहीं है।जब नाउम्मीदी उत्पन्न होती है तब सैनिक-पुलिस कार्यवाही का विकल्प बचता है, भारत सरकार इसी विकल्प का प्रयोग कर रही है। अब आतंकवादी समर्थक राजनीति कश्मीर में नहीं चल सकती है।
       जब-जब लोकतांत्रिक शासन कश्मीर के अंदर अस्तित्व में होता है-तब-तब आतंकवाद और हिंसा बढ जाती है, राष्ट्र विराधी अराजक हो जाते हैं, उनकी अराजकता शांति को भंग करती है, पुलिस और सेना पर हिंसक बन कर टूटती है। लोकतांत्रिक शासन में नरम रूख अख्यिार किया जाता है, सुधरने का अवसर दिया जाता है, इंतजार भी किया जाता है, समस्या के समाधन की पिच भी बनायी जाती है। पर कश्मीर का इतिहास यह कहता है कि जब-जब लोकतांत्रिक शासन ने कश्मीर समस्या के प्रति गंभीरता दिखायी है, समाधान के विन्दु तलाशे हैं, तब-तब पाकिस्तान की पैंतरेबाजी सामने आयी, पाकिस्तान की हिंसक कारस्तानी सामने आयी, पाकिस्तान ने अपने मोहरे संगठनों को हिंसक रूप से सक्रिय कर दिया, हिंसा और आतंकवाद की बर्बर सक्रियता दिखायी। भाजपा ने भी पीडीपी के साथ मिलकर लोकतांत्रित सरकार की स्थापना की थी। पीडीपी की करतूत और पीडीपी की हिंसक व विखंडन प्रक्रिया के साथ दोस्ती जगजाहिर थी , परन्तु भाजपा यह समझती भी थी कि पीडीपी और विखंडनकारियों की दोस्ती जल्द छूटने वाली नहीं है। फिर भी भाजपा ने पीडीपी के साथ मिल कर लोकतांत्रिक सरकार बनायी थी। भाजपा को उम्मीद थी कि अच्छी सरकार और अच्छा प्रशासन का लाभ उठाया जा सकता है, अच्छी सरकार और अच्छा प्रशासन देकर अलगाववादियों, विखंडनकारियों और पाकिस्तान परस्तों की सक्रियता तोडी जाये उनके समर्थन को तोड़ा जाये। पर पीडीपी के अघ्यक्ष महबूबा मुफ्ती की विखंडनकारी सोच टूटी नहीं। महबूबा की सोच हमेशा की तरह विखंडनकारियों के प्रति नरम रही। दरअसल पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती की सोच गलत थी, वह सोचती थी कि भाजपा की मजबूरी के कारण उसकी अराजकता और आतंकवादी समर्थक नीति चलती रहेगी। सेना के अधिकारियों पर मुकदमा चलने लगे, पुलिस और सेना के अधिकारियों का मनोबल तोडा जाने लगा। फलस्वरूप लोकतांत्रिक सरकार दफन हुई। मोदी पर आतंकवादी संगठनों और पाकिस्तान पर कड़ा प्रहार करने का दबाव था।
         आसिंया अंद्राबी जैसे हिंसक और विखंडनकारी और पाकिस्तान परस्त आतंकवादियों को तभी समझ में आ जाना चाहिए था जब भाजपा ने पीडीपी के साथ गठबंधन तोडा था और जम्मू-कश्मीर की सरकार गिरायी थी। नरेन्द्र मोदी सरकार के सामने और कोई दूसरा चारा भी नहीं था। अगर वह आतंकवादियों पर सख्त कार्रवाई करने के लिए तैयार नहीं होती तो फिर उनका आधार ही समाप्त हो जाता। खुद आतंकवादी अपने करतूतों से समर्थन नेटवर्क को जमींदोज किये हैं।आतंकवादी संगठन के पाकिस्तान परस्ती एक अहम प्रश्न है,पाकिस्तान परस्ती के कारण कश्मीर के आतंकवादी संगठनों की छवि हमेशा खराब रहती है। पाकिस्तान अब पहले की तरह मजबूत नहीं है, पहले की तरह वह अतंराष्ट्रीय स्तर पर भारत विरोधी भावनाएं नहीं भडका सकता है, क्योंकि उसकी छवि एक आतंकवादी देश की है, दुनिया यह जान चुकी है, दुनिया यह मान चुकी है कि पाकिस्तान दुनिया भर में आतंकवाद का आउटसोर्सिंग करता है, कश्मीर में पाकिस्तान ही आतंकवादी हिंसा की जड में है। भारत अब मजबूती के साथ दुनिया के नियामकों के अंदर में पाकिस्तान परस्त आतंकवाद का पोल खोलते रहा है और दुनिया को आईना दिखाता रहा है कि पाकिस्तान परस्त आतंकवाद सिर्फ भारत के लिए नहीं बल्कि पूरी मानवता के लिए खतरनाक है।
          आसियंा अंद्राबी के आतंकवादी कारनामें कोई छोटे नहीं है, इनके आतंकवादी कारनामे नजरअंदाज करने वाले नहीं हैं। इनके कारनामे बडे हिंसक है, इनके कारनामें बडे खतरनाक हैं, इनके कारनामे मानवता के शर्मसार करने वाले हैं, इनके कारनामे तालिबानी हैं। इनकी मानसिकता आईएस की है, इनकी मानसिकता अलकायदा की है।  इस्लाम की हिंसा भूत बन कर इनके सिर पर नाचता रहा है। कश्मीर के अंदर वह तालिबानी शासन लागू करना चाहती थी, इसके लिए वह हिंसा का सहारा लेती थी। बुर्का पहनना वह अनिवार्य करना चाहती थी, बुर्का के समर्थन में वह अभियान भी चलायी थी। वह किसी भी स्थिति में कश्मीर के अंदर कैफे संस्कृति विकसित नहीं होने देना चाहती थी, कैफे जाने वाली लड़कियों पर हमला कराने का आरोप भी उस पर लगा था। वह कहती थी कि हर स्त्री को बुर्का पहनना अनिवार्य है और इस्लाम के अनुसार स्वीकार है। बुर्का न पहनने वाली महिलाएं और लडकिया इस्लाम विरोधी हैं, वह यह भी कहती थी कि जो महिलाएं और जो लडकियां इस्लाम का आदेश न मानकर बुर्का नहीं पहनती है वे सभी महिलाएं और लडकियां सजा की लायक हैं। आसियां आद्राबी के अभियान से प्रेरित होकर कई युवकों ने बुर्का न पहलने वाली लडकियों पर हिंसा भी बरपायी थी। आसिया की इस तालिबानी करतूत की कश्मीर में बडी आलोचना भी हुई थी। उदार संस्कृति के पक्षधर लोगों के बीच आसिया आद्रांबी डर पैदा करती थी। 
           आसिया अंद्राबी पर पाकिस्तान परस्ती हमेशा हावी रहती है। वह कहती है कि उसे पाकिस्तान में मिलना है, उसका संघर्ष पाकिस्तान के लिए है। पाकिस्तान में उसे मजहबी शांति मिलेगी। वह भारत को काफिर देश कहती है। काफिर की मानसिकता क्या है? काफिर की मानसिकता बड़ा ही खतरनाक और जहरीली है। गैर मुस्लिमों को काफिर कहा गया है। इस्लाम में काफिर का नामोनिशान मिटाने का आदेश है। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि वह हर साल पाकिस्तान डे मनाती है। पाकिस्तान डे पर वह न केवल पाकिस्तान की प्रशंसा करती है बल्कि भारत के खिलाफ आग उगलती है। भारत को वह हिंसक देश कहती है। 
          अब तक उसे पाकिस्तान डे मानाने की आजादी कैसे मिली? भारत सरकार की कमजोरी का लाभ उसने खूब उठाया है। भारत में रहकर पाकिस्तान परस्ती किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं है। एनआईए ने आसियां आद्राबी को गिरफ्तार कर प्रहारक संदेश दिया है। विखंडनकारी और हिंसक आतंकवादियों को इसके संदेश समझ लेना चाहिए। अब उनकी पाकिस्तान परस्ती चलने वाली नहीं है। दुनिया भी अब उनकी पाकिस्तान परस्ती पर संज्ञान लेने वाली नहीं है। दुनिया अब कश्मीर की आतंकवादी हिंसा की जड समझ चुकी है। कश्मीर में पाकिस्तान परस्त आतंकवादी संगठनों की सबसे बडी शक्ति भारत और दुनिया के मानवाधिकार संगठन रहे हैं। पर मानवाधिकार संगठन अब खूद ही संदेह के घेरे में हैं। दुनिया की जनमत मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्ट पर विश्वास नहीं कर रही है। मानवाधिकार संगठन यह कहते हैं कि आतंकवादियों के भी मानवाधिकार हैं पर दुनिया की जनमत अब कहती है कि आतंकवादियों द्वारा मारे गये निर्दोष लोगों और आतंकवादियों की हिंसा से प्रभावित लोगो के भी मानवाधिकार हैं। इसीलिए आसिया आद्राबी की गिरफ्तारी पर कोई बडा देश या बडा नियामक विरोध में सामने नहीं आये हैं।
सेना और पुलिस के दबाव से पाकिस्तान परस्त आतंकवादी संगठनों के हौसले पस्त हैं। कई कुख्यात आतंकवादी सरगानाए मारे गये हैं। भारत सरकार को अब किसी भी स्थिति में विखंडनकारियों को कोई अवसर नहीं दिया जाना चाहिए, क्योंकि ये विखंडनकारी शांति और सदभाव की बात सुनते ही नहीं है। अब पाकिस्तान परस्त आतंकवाद पर अंतिम कील ठोकने की जरूरत है। इसकी शुरूआत आसिया आद्राबी की गिरफ्तारी से हो चुकी है।


संपर्क...

मोबाइल नंबर ... 9968997060