राष्ट्र-चिंतन
हेडली को भी ‘चिकन बिरयानी‘ खिलायेंगे क्या?
विष्णुगुप्त
‘ क्या चिकन बिरयानी खिलाने ‘ के लिए भारत हेडली को लाना चाहता है? अगर भारत अपने जेलों में रखकर ‘चिकन बिरयानी‘ खिलवाने के लिए लाना चाहता है तब देश भर में हेटली के प्रत्यर्पण पर उठ ज्वार और चिंता सही हो सकती है? क्या हमारी सरकार मुबंई हमले के आतंकवादी ‘कसाब‘ को ‘चिकन बिरयानी‘ नहीं खिला रही है? क्या संसद और लालकिला हमले के आतंकवादियों को मिली फासंी की सजा निलम्बित कर उन्हें जेलों में ‘चिकन बिरयानी‘ नहीं खिलायी जा रही है? किस आतंकवादी को अबतक कठोर सजा मिली है या फिर किस आतंकवादी को फांसी के फंदे पर चढ़ाया गया है? कुख्यात मुस्लिम आतंकवाद और पाकिस्तानी मूल के नागरिक हेडली के प्रत्यर्पण से अमेरिका के इनकार पर तरह-तरह के विचार और गुस्से सामने आ रहे हैं। कोई अमेरिकी इनकार पर उसकी दादागिरी कह रहा है तो कोई भारत के साथ उसकी दोस्ती पर सवाल उठा रहा है। अगर अमेरिका प्रत्यर्पण की भारतीय इच्छा की पूर्ति कर ही दे तो क्या भारत की कमजोर कानूनी प्रक्रिया और वोट की राजनीति के रक्षा कवज हेडली को नहीं मिलेगा? यकीन मानिये आज जो लोग हेटली को भारत लाकर उस पर मुकदमा चलाना चाहते हैं वही लोग कल भारतीय न्यायालय से हेडली को मिली सजा के खिलाफ उठ खड़े हो जायेंगे और मानवाधिकार सहित एक वर्ग विशेष को प्रताड़ित करने जैसी प्रक्रिया चलायेंगे? हेटली को सजा भारतीय कानूनों के तहत नहीं बल्कि अमेरिकी काूननों के तहत ही मिल सकती है। अमेरिकी काूननों के तहत हेडली को या तो मृत्यु दंड की सजा मिलेगी या फिर दो सौ से अधिक साल जेलों में सड़ने की सजा मिलनी तय है। प्रत्यर्पण पर अमेरिकी चुनौतियां व मजबूरी को हम नकार नहीं सकते हैं। भारतीय सुरक्षा व गुप्तचर एजेन्सियों कितनी दक्ष व गंभीर हैं? भारतीय सुरक्षा-गुप्तचर एजेन्सियों अंगभीता से अमेरिका को खतरा हो सकता है व अमेरिकी न्यायालय में सजा के लिए जुटाये गये ठोस सबूत प्रभावित हो सकते हैं। प्रत्यर्पण पर यह खतरा अमेरिका देख रहा है।
चाकचैबंद और गंभीर अमेरिकी काूननों के तहत ही हेडली-राणा की सजा संभव है। हेडली-राणा की सारी आतंकवादी प्रक्रिया का सबूत जुटा रही हैं। प्रत्यर्पण के खतरे कम नहीं है। अगर प्रत्यर्पण के बाद भारतीय गुप्तचर एजेन्सियां कुछ इत्तर और सबूत विहीन पिटारा बना ले तो फिर अमेरिकी सुरक्षा एजेन्सियां को अपने अदालतों से हेटली-राणा को सजा दिलाने में परेशानी होगी। भारतीय सुरक्षा और गुप्तचर एजेन्सियों की वीरता और चाकचैबंद कैसी है? क्या भारत आतंकवादियों को जेलों में रखकर ‘चिकन बिरयानी ‘ नहीं खिला रहा है।
भारत की सुरक्षा एजेन्सियों और सत्ता व्यवस्था को अमेरिका से सबक सीखना चाहिए। कैसे सुरक्षा और राष्ट्रीय हितों के खिलाफ उठने वाली आतंकवादी प्रक्रिया को सुलझाया जा सकता है और उस पर सत्ता व कानून का सौटा चलाया जा सकता है। अमेरिकी एजेन्सियां अखबारों की सुर्खियां नहीं बनाती हैं और न ही हवा में तीर मारती हैं, बल्कि साक्ष्य जुटाने और काूननी घेरेबंदी पर कार्य करती हैं। हेटली का ही उदाहरण सर्वश्रेष्ठ है। हेटली को अमेरिकी सुरक्षा एजेन्सियों ने कोई आज नहीं बल्कि छह माह पहले गिर था। हेटली की गिरफतारी की खबर दुनिया को कानो-कान तक नहीं लगी। हेटली की गिरफतारी अमेरिकी ने तभी दुनिया को जाहिर की जब उसने हेटली और उसके कुनबे से जुड़ी आतंकवाद के जंजाल को पूरी तरह से खंगाल न लिया। राणा-हेटली के पाकिस्तानी संबंध को खंगालना अमेरिका के ही बस की बात थी। अमेरिकी एजेन्सयों ने हेडली और राणा के विश्व भर में यात्राओं और संपर्को का भी पूरी जांच की है। पहले यह बात फैली थी कि हेडली सही में अमेरिकी नागरिक है पर जांच में यह खुलासा हुआ कि हेडली अमेरिकी नागरिक नहीं बल्कि पाकिस्तानी राजनयिक का बेटा है और वह मूल रूप से पाकिस्तानी है। सबसे बड़ी बात यह है कि 9/1ा की घटना के बाद अमेरिका ने अपने कमजोर कानूनों को बदला। नये कठोर कानून लागू कियें। सुरक्षा और गप्तचर एजेन्सियों को असीमित अधिकार दिये। इस कारण सुरक्षा और गुप्तचर एजेन्सियां चाकचैबंद हुई और आतंकवादियों को मांद से निकालकर अमेरिकी अदालतों की दुरूह और गंभीर कानूनी प्रक्रिया की घेरेंबंदी में डाला। यहां तक की विदेशी राष्ट्राध्यक्षों और मंत्रियों की पूरी जांच प्रक्रिया से गुजारी। उसने परवाह नहीं कि जांच में विदेशी राष्ट्रध्यक्षों और मंत्रियों के उत्पीड़न से अमेरिका की छवि खराब होती है।
अमेरिका का शुक्र्रगुजार मानना चाहिए। हेडली और राणा को किसने पकड़ा? क्या यह हेटली और राणा को पकड़ने और उसके आतंकवादी जंजाल को खंगालने का श्रेय भारतीय सुरक्षा एजेन्सियों का है? अगर अमेरिकी सुरक्षा एजेन्सियां राणा और हेडली को पकड़ा नहीं होता तो हम आज मुबंई आतंकवादी हमले की पूरी तह सामने नहीं आती। हेडली और राणा भारत में रह कर मुबंई आतंकवादी हमले को अंजाम दिया था। इन दोनो न सिर्फ मुबंई मे अपना जंजाल फैलाया था बल्कि देश के अन्य शहरों में भी शरणस्थली बनायी थी और आतंकवाद के लिए युवकों को तैयार किया था। मुबंई फिल्मी दुनिया में भी हेडली-राणा की पहुच थी। महेश भटट के बेटे तक हेडली का गाइड था। इसके बाद भी भारतीय सुरक्षा व गुप्तचर एजेन्सियों की भनक तक नहीं लगी थी। मुबंई हमले के बाद यह बात उठी थी कि बिना स्थानीय होमवर्क के इतना बड़ा आतंकवादी हमला हो ही नहीं सकता है। स्थानीय संपर्कों को खंगालने तक का काम नहीं हुआ। अगर मुबंई हमले के साथ ही स्थानीय संपर्को पर गुप्तचर एजेन्सियां काम करती तो शायद हेडली और राणा के नाम उजागर हो सकते थे। ऐसी स्थिति में हम हेडली और राणा को सौंपने पर हमारी नसीहतें कुछ और होती।
मान लीजिए कि अमेरिका हेडली ही नहीं राणा को भी भारत सौंप दे। इसके अलावा हेडली और राणा पर भारत में ही मुकदमा चलाने व सजा देने के लिए छोड़ दे। क्या हम हेडली और राणा को सजा दिला सकेंगें? क्या हमारी कानूनी और अदालती प्रक्रिया इतनी मजबूत व कड़ी है जिस आधार पर हेडली और राणा को कड़ी-सबककारी सजा दिलाने के लिए सफल होगी? अगर फांसी की सजा हो भी गयी तो क्या राजनीतिक नेतृत्व फांसी की सजा पर मुहर लगा सकता है। कदापि नहीं। एक तो हमारे देश में एक भी ऐसा कानून नहीं है जिसे आतंकवादियो को कड़ी और सबककारी सजा की धेरेबंदी में ला सकें। टाडा-पोटा कानून था जिसे कथित धर्मनिरपेक्षता के नाम पर शहीद कर दिया गया। प्रत्यारोपित यह किया गया कि टाडा-पोटा कानून से एक वर्ग विशेष का प्रतांडना होती है। वर्ग विशेष आधारित हमारी राजनीतिक व्यवस्था है। इसका उदाहरण संसद और लालकिला कांड है। लालकिला और संसद आतंकवादी हमले के आरोपियो को जेल में रखकर चिकन बिरयानी खिलाया जा रहा है। कसाब को एसोआराम के सभी अवसर दिये जा रहे हैं। फांसी की सजा पर राजनीतिक नेतृत्व उदासीन है। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा सुना चुकी है। राष्ट्रपति फांसी की सजा पर मुहर नहीं लगा रहे हैं। इसलिए कि राजनीतिक नेतृत्व फांसी की सजा देने पर मुस्लिम वोट बिदकने के डर से ग्रसित है। क्या हमारा राजनीतिक नेतृत्व हेडली और राणा पर भी संसद और लालकिला हमले के आतंकवादियों जैसी राजनीतिक उदासीनता नहीं दिखायेगी?
चाकचैबंद और गंभीर अमेरिकी काूननों के तहत ही हेडली-राणा की सजा संभव है। अमेरिकी गुप्तचर एजेन्सियां सही रास्ते पर चल रहीं है। हेडली-राणा की सारी आतंकवादी प्रक्रिया का सबूत जुटा रही हैं। सबूत को अदालत में प्रस्तुत करना उनकी एक गंभीर चुनौती हो सकती है। प्रत्यर्पण के खतरे कम नहीं है। अगर प्रत्यर्पण के बाद भारतीय गुप्तचर एजेन्सियां कुछ इत्तर और सबूत विहीन पिटारा बना ले तो फिर अमेरिकी सुरक्षा एजेन्सियां को अपने अदालतों से हेटली-राणा को सजा दिलाने में परेशानी होगी। भारतीय सुरक्षा और गुप्तचर एजेन्सियों की वीरता और चाकचैबंद कैसी है , यह बताने की जरूरत नहीं हैं। अमेरिका प्रत्यर्पण पर खतरा यही देख रहा है। इसीलिए वह प्रत्यर्पण से इनकार कर रहा है। भारन में जो चिंता पसरी हुई है वह जरूरी नहीं हैं। भारत को यह देखना चाहिए कि अमेरिकी अदालत से राणा-हेडली को सकककारी सजा मिले। इसके अलावा अमेरिकी गुप्तचर एजेन्सियों से मिली जानकारी के अनुसार भारतीय गुप्तचर व सुरक्षा एजेसिंयों को स्थानीय सूत्रधारों को दबोचने में भूमिका निभानी चाहिए।
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Friday, January 29, 2010
Thursday, January 28, 2010
श्रीलंका में महेन्द्रा राजपक्षे को फिर मिली सत्ता
राष्ट्र-चिंतन
श्रीलंका में महेन्द्रा राजपक्षे को फिर मिली सत्ता
तमिलों का विश्वास और विकास के सौपान गढ़ने की चुनौती
विष्णुगुप्त
श्रीलंका में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान उभरी सभी चिंताएं निर्मूल साबित हुई और पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल फोनसेका कोई चमत्कार करने में असफल साबित हुए। महेन्दा्र राजपक्षे फिर से श्रीलंका के राष्ट्रपति चुने गये हैं। महेन्द्रा राजपक्षे 20 लाख से अधिक वोटों से जनरल फोनसेंका को हराया है। श्रीलंका में राजपक्षे की जीत के साथ ही विपक्ष की आशाओं पर भी पानी फिर गया। इसलिए कि विपक्ष ने जनरल फोनसेकंा को अपना उम्मीदवार बनाया था और लिट्टे के खिलाफ युद्ध में जनरल फोनसेंका के करिशमा पर विपक्ष को भरोसा था। श्रीलंका की जनता ने सत्ता की स्थिरता को चुना है। श्रीलंका की जनता ने यह महसूस किया कि सत्ता सैनिक के हाथों में सौंपने के खतरे गंभीर होंगे और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लग सकता है? अब यहां सवाल उठता है कि महेन्द्रा राजपक्षे की जीत के मायने क्या है? क्या महेन्द्रा राजपक्षे तमिलों को राष्ट्र के मुख्यधारा में लाने और उनका विश्वास जीतने में सकरात्मक भूमिका अदा कर सकते हैं? इस समय श्रीलंका में विकास की धारा बहाने और अर्थव्यवस्था को मजबूती के लिए अंतर्राष्टीय सहायता और समर्थन की जरूरत होगी। वैश्विक समर्थन तभी हासिल हो सकता है जब श्रीलंका में राजनीतिक स्थिरता होगी और हिंसा की आशंकाएं नहीं होगी। गृहयुद्ध से श्रीलंका पहले से दयनीय व जर्जर स्थिति मे पहुंचा हुआ है।
लिट्टे के सफाये में किसकी भूमिका थी? राष्टपति महेन्द्रा राजपक्षे या जनरल फोंनसेंका। यही चुनाव का मुख्य मुद्द था। ये दोनों शख्सियत तमिलों के सफाये मे हीरों होने का दावा कर रहे थे। इसी दावे के साथ जनरल फेंानसेंका ने सेनाध्यक्ष के पद से इस्तीफा देकर राष्टपति पद का चुनाव लड़ा था। जनरल फोनसेंका का कहना था कि लिट्टे के सफाये में उनकी भूमिका थी और सेना ने राजनीतिक ईकांई की अवसरवादिता व विसंगतियो से प्रभावित हुए बिना लिट्टे को पराजित किया है। लिट्टे के सफाये मे सेनाध्यक्ष फोंनसेंका की भूमिका अहम तो थी, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन महेन्द्रा राजपक्षे की लिट्टे के खिलाफ कड़ी कूटनीतिक और दृढ़ इच्छाशक्ति को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता है। अकेले श्रीलंका की सेना में इतनी ताकत थी ही नहीं कि वह लिट्टे जैसे खूखार आतंकवादी संगठन को पराजित कर सके। महेन्द्रा राजपक्षे ने कूटनीतिक चतुराई दिखायी। चीन और पाकिस्तान जैसे देशो को लिट्टे के खिलाफ सैनिक कार्रवाई में मदद करने के लिए राजी किया। चीन ने श्रीलंका के सैनिक तंत्र को सटीक बमबारी करने औरी अन्य युद्ध कौशल के लिए प्रशिक्षित किया था। इतना ही नहीं बल्कि चीन का सैन्य तंत्र पूरी तरह लिट्टे के खिलाफ श्रीलंका सैनिकों के अभियान का निगरानी कर रहा था। पश्चिम समाचार माध्यमों ने यह भी रहस्योधाटन किया था कि लिट्टे से जीत में चीन और पाकिस्तान की भूमिका महत्वपूर्ण थी। चीन और पाकिस्तान की श्रीलंका में घुसपैठ से चिंतित भारत ने भी महेन्द्रा राजपक्षे की नीति को परवान चढ़ाया था और लिट्टे की गुप्तचर जानकारियां श्रींलंका को उपलब्ध कराया था। श्रीलंका के मतदाताओं को महेन्द्रा राजपक्षे की यह सफल कूटनीतिक सफलताएं प्रभावित किया।
राष्टपति का चुनाव परिणाम ने पूर्व राष्टपति कुमारतुंगा की प्रसिद्धि-प्रभाव पर भी बुलडोजर चला दिया। कभी महेन्द्रा राजपक्षे कुमारतुंगा की वैशाखी पर राष्टपति बने थे। महेन्द्रा राजपक्षे ने राष्टपति बनने के बाद कुमारतुंगा की छत्रछाया में रहने की बात कबूली नहीं और अलग राह बनाने की राजनीतिक बिसात बिछायी। कुमारतुंगा परिवार की श्रीलंका की राजनीति में पैठ और दबदबा वैसा ही है जैसा कि भारत में नेहरू खानदान और पाकिस्तान में भूट्टों खानदान की है। कुमारतुंगा महेन्द्रा राजपक्षे की अलग राह चलने से बौखलायी हुई थीं। जाहिरतौर पर वह नहीं चाहती थी कि महेन्द्रा राजपक्षे फिर से श्रीलंका का राष्टपति बनें। इसलिए उन्होंने जनरल फोनसेंका को समर्थन दिया था। कुमारतुंगा का समर्थन मिलने के बाद जनरल फोंनसेंका की चुनावी स्थिति मजबूत मानी जा रही थी। यह भी कहा जा रहा था कि महेन्दा राजपक्षे की हार निश्चित है। लेकिन श्रीलंका के मतदाताओ ने कुमारतुंगा के जनरल फोंनसेंका पर विश्वास जताने को लेकर भरोसा और विश्वास नहीं किया। महेन्द्रा राजपक्षे के पक्ष में गए चुनाव परिणाम ने एक तरह से पूर्व राष्टपति कुमार तुंगा की राजनीतिक आभा मंडल को घूल में मिला दिया। अब श्रीलंका की जनता पर महेन्द्रा राजपक्षे का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है।
जनरल फोंनसेंका की जीत होती तो श्रीलंका में अधिनायकी कामम हो सकती थी। जनरल फोंनसेंका की सैनिक मिजाज और सरोकार से चिंताएं उभरनी लाजमी थी। यह भी खतरा था कि श्रीलंका में फिर से जातीय समस्या विकराल हो सकती थी। जनरल फोंनसेंका घोर राष्टवादी हैं। सिघली राष्टीयता का उफान भी उनके साथ जुड़ा है। सिघली समुदाय श्रीलंका की बहुवत वाली धार्मिक इंकाई है। सिंघली समुदाय का घोर व एकमेव राष्टीयता ने ही श्रीलंका की जातीय समस्या के उपज के लिए जिम्मेदार थी। श्रीलंका का तमिल और मुस्लिम वर्ग अपने आप को असुरक्षित औैर उपेक्षित महसूस करता रहा है। लिट्ेटे की ताकत के पीछे यही तथ्य थे।
तमिल समुदाय आज घोर संकट के दौर गुजर रहा हैं। लिट्टे के सफाये के बाद उन पर सैनिक-पुलिस अत्याचार-उत्पीड़न की अंतहीन त्रासदी है। लगभग पांच लाख तमिल परिवार बेघर हो गये हैं। सैनिक-पुलिस के घेरे मे रहने के लिए वे मजबूत है। सैनिक-पुलिस की घेरेबंदी में राहत शिविरों की स्थिति के बारे में संयुक्त राष्टसंघ ने भी सवाल उठाये हैं। राहत शिविरों में तमिलों के साथ व्यवहार बुरा है। महिलाओं के खिलाफ सैक्स हिंसा भी चिंता जनक है। ऐसी स्थिति में वैश्विक स्तर पर श्रीलंका की छवि खराब होगी ही। तमिल समुदाय ने इस चुनाव में स्वतंत्र होकर मतदान किया है और उनका झुकाव महेन्द्रा राजपक्षे की ओर ही था। तमिल समुदाय अपना पुर्नवास चाहते हैं। शांति और विकास उनका मकसद है। महेन्द्रा राजपक्षे को तमिलो के विकास और शाति की चाहत पूरी करनी होगी। अन्यथा फिर से तमिल उग्रवाद पनप सकता है और अन्य कोई प्रभाकरण पैदा हो सकता हैं।
गृहयुद्ध के लम्बे काल ने श्रीलंका को जर्जर बना दिया है। अर्थव्यस्था की बूरी स्थिति है। गरीबी और बेकारी पसरी है। यह वैश्विक दौर है। वैश्विक दौर में प्रगति का एकमात्र रास्ता शांति और राजनीतिक स्थिरता है। श्रीलंका की जनता ने शांति और राजनीति स्थिरिता को चुना है। अब जिम्मेदारी महेन्द्रा राजपक्षे की हैं। श्रींका के पुनर्निर्माण में विदेशी सहायता और समर्थन की जरूरत होगी। विदेशी सहायता और समर्थन तभी संभव है जब श्रीलंका में मानवीय अधिकार सुरक्षित होंगे और तमिलों पर अत्याचारों की शिकायतें बंद होगी। इसके लिए महेन्द्राराजपक्षे को पुलिस व सैनिक तंत्र में मानवाधिकार के प्रति संवेदना जगानी होगी। श्रीलंका में लोकतंत्र की धारा कायम रही यह भारत के लिए भी सकारात्मक स्थिति है। भारत को तमिलों के हित सुरक्षित रखने के लिए महेन्द्रा राजपक्षे पर दबाव बनाना होगा। महेन्द्रा राजपक्षे राजनीति के चुतर खिलाड़ी हैं। उन्हे इस मंत्र को समझना ही होगा।
मोबाइल- 09968997060
श्रीलंका में महेन्द्रा राजपक्षे को फिर मिली सत्ता
तमिलों का विश्वास और विकास के सौपान गढ़ने की चुनौती
विष्णुगुप्त
श्रीलंका में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान उभरी सभी चिंताएं निर्मूल साबित हुई और पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल फोनसेका कोई चमत्कार करने में असफल साबित हुए। महेन्दा्र राजपक्षे फिर से श्रीलंका के राष्ट्रपति चुने गये हैं। महेन्द्रा राजपक्षे 20 लाख से अधिक वोटों से जनरल फोनसेंका को हराया है। श्रीलंका में राजपक्षे की जीत के साथ ही विपक्ष की आशाओं पर भी पानी फिर गया। इसलिए कि विपक्ष ने जनरल फोनसेकंा को अपना उम्मीदवार बनाया था और लिट्टे के खिलाफ युद्ध में जनरल फोनसेंका के करिशमा पर विपक्ष को भरोसा था। श्रीलंका की जनता ने सत्ता की स्थिरता को चुना है। श्रीलंका की जनता ने यह महसूस किया कि सत्ता सैनिक के हाथों में सौंपने के खतरे गंभीर होंगे और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लग सकता है? अब यहां सवाल उठता है कि महेन्द्रा राजपक्षे की जीत के मायने क्या है? क्या महेन्द्रा राजपक्षे तमिलों को राष्ट्र के मुख्यधारा में लाने और उनका विश्वास जीतने में सकरात्मक भूमिका अदा कर सकते हैं? इस समय श्रीलंका में विकास की धारा बहाने और अर्थव्यवस्था को मजबूती के लिए अंतर्राष्टीय सहायता और समर्थन की जरूरत होगी। वैश्विक समर्थन तभी हासिल हो सकता है जब श्रीलंका में राजनीतिक स्थिरता होगी और हिंसा की आशंकाएं नहीं होगी। गृहयुद्ध से श्रीलंका पहले से दयनीय व जर्जर स्थिति मे पहुंचा हुआ है।
लिट्टे के सफाये में किसकी भूमिका थी? राष्टपति महेन्द्रा राजपक्षे या जनरल फोंनसेंका। यही चुनाव का मुख्य मुद्द था। ये दोनों शख्सियत तमिलों के सफाये मे हीरों होने का दावा कर रहे थे। इसी दावे के साथ जनरल फेंानसेंका ने सेनाध्यक्ष के पद से इस्तीफा देकर राष्टपति पद का चुनाव लड़ा था। जनरल फोनसेंका का कहना था कि लिट्टे के सफाये में उनकी भूमिका थी और सेना ने राजनीतिक ईकांई की अवसरवादिता व विसंगतियो से प्रभावित हुए बिना लिट्टे को पराजित किया है। लिट्टे के सफाये मे सेनाध्यक्ष फोंनसेंका की भूमिका अहम तो थी, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन महेन्द्रा राजपक्षे की लिट्टे के खिलाफ कड़ी कूटनीतिक और दृढ़ इच्छाशक्ति को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता है। अकेले श्रीलंका की सेना में इतनी ताकत थी ही नहीं कि वह लिट्टे जैसे खूखार आतंकवादी संगठन को पराजित कर सके। महेन्द्रा राजपक्षे ने कूटनीतिक चतुराई दिखायी। चीन और पाकिस्तान जैसे देशो को लिट्टे के खिलाफ सैनिक कार्रवाई में मदद करने के लिए राजी किया। चीन ने श्रीलंका के सैनिक तंत्र को सटीक बमबारी करने औरी अन्य युद्ध कौशल के लिए प्रशिक्षित किया था। इतना ही नहीं बल्कि चीन का सैन्य तंत्र पूरी तरह लिट्टे के खिलाफ श्रीलंका सैनिकों के अभियान का निगरानी कर रहा था। पश्चिम समाचार माध्यमों ने यह भी रहस्योधाटन किया था कि लिट्टे से जीत में चीन और पाकिस्तान की भूमिका महत्वपूर्ण थी। चीन और पाकिस्तान की श्रीलंका में घुसपैठ से चिंतित भारत ने भी महेन्द्रा राजपक्षे की नीति को परवान चढ़ाया था और लिट्टे की गुप्तचर जानकारियां श्रींलंका को उपलब्ध कराया था। श्रीलंका के मतदाताओं को महेन्द्रा राजपक्षे की यह सफल कूटनीतिक सफलताएं प्रभावित किया।
राष्टपति का चुनाव परिणाम ने पूर्व राष्टपति कुमारतुंगा की प्रसिद्धि-प्रभाव पर भी बुलडोजर चला दिया। कभी महेन्द्रा राजपक्षे कुमारतुंगा की वैशाखी पर राष्टपति बने थे। महेन्द्रा राजपक्षे ने राष्टपति बनने के बाद कुमारतुंगा की छत्रछाया में रहने की बात कबूली नहीं और अलग राह बनाने की राजनीतिक बिसात बिछायी। कुमारतुंगा परिवार की श्रीलंका की राजनीति में पैठ और दबदबा वैसा ही है जैसा कि भारत में नेहरू खानदान और पाकिस्तान में भूट्टों खानदान की है। कुमारतुंगा महेन्द्रा राजपक्षे की अलग राह चलने से बौखलायी हुई थीं। जाहिरतौर पर वह नहीं चाहती थी कि महेन्द्रा राजपक्षे फिर से श्रीलंका का राष्टपति बनें। इसलिए उन्होंने जनरल फोनसेंका को समर्थन दिया था। कुमारतुंगा का समर्थन मिलने के बाद जनरल फोंनसेंका की चुनावी स्थिति मजबूत मानी जा रही थी। यह भी कहा जा रहा था कि महेन्दा राजपक्षे की हार निश्चित है। लेकिन श्रीलंका के मतदाताओ ने कुमारतुंगा के जनरल फोंनसेंका पर विश्वास जताने को लेकर भरोसा और विश्वास नहीं किया। महेन्द्रा राजपक्षे के पक्ष में गए चुनाव परिणाम ने एक तरह से पूर्व राष्टपति कुमार तुंगा की राजनीतिक आभा मंडल को घूल में मिला दिया। अब श्रीलंका की जनता पर महेन्द्रा राजपक्षे का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है।
जनरल फोंनसेंका की जीत होती तो श्रीलंका में अधिनायकी कामम हो सकती थी। जनरल फोंनसेंका की सैनिक मिजाज और सरोकार से चिंताएं उभरनी लाजमी थी। यह भी खतरा था कि श्रीलंका में फिर से जातीय समस्या विकराल हो सकती थी। जनरल फोंनसेंका घोर राष्टवादी हैं। सिघली राष्टीयता का उफान भी उनके साथ जुड़ा है। सिघली समुदाय श्रीलंका की बहुवत वाली धार्मिक इंकाई है। सिंघली समुदाय का घोर व एकमेव राष्टीयता ने ही श्रीलंका की जातीय समस्या के उपज के लिए जिम्मेदार थी। श्रीलंका का तमिल और मुस्लिम वर्ग अपने आप को असुरक्षित औैर उपेक्षित महसूस करता रहा है। लिट्ेटे की ताकत के पीछे यही तथ्य थे।
तमिल समुदाय आज घोर संकट के दौर गुजर रहा हैं। लिट्टे के सफाये के बाद उन पर सैनिक-पुलिस अत्याचार-उत्पीड़न की अंतहीन त्रासदी है। लगभग पांच लाख तमिल परिवार बेघर हो गये हैं। सैनिक-पुलिस के घेरे मे रहने के लिए वे मजबूत है। सैनिक-पुलिस की घेरेबंदी में राहत शिविरों की स्थिति के बारे में संयुक्त राष्टसंघ ने भी सवाल उठाये हैं। राहत शिविरों में तमिलों के साथ व्यवहार बुरा है। महिलाओं के खिलाफ सैक्स हिंसा भी चिंता जनक है। ऐसी स्थिति में वैश्विक स्तर पर श्रीलंका की छवि खराब होगी ही। तमिल समुदाय ने इस चुनाव में स्वतंत्र होकर मतदान किया है और उनका झुकाव महेन्द्रा राजपक्षे की ओर ही था। तमिल समुदाय अपना पुर्नवास चाहते हैं। शांति और विकास उनका मकसद है। महेन्द्रा राजपक्षे को तमिलो के विकास और शाति की चाहत पूरी करनी होगी। अन्यथा फिर से तमिल उग्रवाद पनप सकता है और अन्य कोई प्रभाकरण पैदा हो सकता हैं।
गृहयुद्ध के लम्बे काल ने श्रीलंका को जर्जर बना दिया है। अर्थव्यस्था की बूरी स्थिति है। गरीबी और बेकारी पसरी है। यह वैश्विक दौर है। वैश्विक दौर में प्रगति का एकमात्र रास्ता शांति और राजनीतिक स्थिरता है। श्रीलंका की जनता ने शांति और राजनीति स्थिरिता को चुना है। अब जिम्मेदारी महेन्द्रा राजपक्षे की हैं। श्रींका के पुनर्निर्माण में विदेशी सहायता और समर्थन की जरूरत होगी। विदेशी सहायता और समर्थन तभी संभव है जब श्रीलंका में मानवीय अधिकार सुरक्षित होंगे और तमिलों पर अत्याचारों की शिकायतें बंद होगी। इसके लिए महेन्द्राराजपक्षे को पुलिस व सैनिक तंत्र में मानवाधिकार के प्रति संवेदना जगानी होगी। श्रीलंका में लोकतंत्र की धारा कायम रही यह भारत के लिए भी सकारात्मक स्थिति है। भारत को तमिलों के हित सुरक्षित रखने के लिए महेन्द्रा राजपक्षे पर दबाव बनाना होगा। महेन्द्रा राजपक्षे राजनीति के चुतर खिलाड़ी हैं। उन्हे इस मंत्र को समझना ही होगा।
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अतिवादी-हिंसक विचारों पर फांसी का प्रहार
अतिवादी-हिंसक विचारों पर फांसी का प्रहार
विष्णुगुप्त
बांग्लादेश के निर्माता शेख मजीबुर्रहमान की हत्या के दोषी पांच पाकिस्तान समर्थक अतिवादी-हिंसक विचार वाले पूर्व सैन्य अधिकारियों को फांसी की सजा को दक्षिण एशिया मे अमन व शांति के लिए जरूरी और साथ ही साथ अतिवादी-हिसक विचारों पर प्रहार के तौर पर देखा जा रहा है। जिन पांच सैन्य अधिकारियों को फांसी पर लटकाया गया है उनमें मेजर मजबूल हुदा, लेॅफटीनेंट जनरल मोहीउदीन अहमद, लेफिटनेंट कर्नल सैयद फारूख रर्हमान, लेफिटनेंट कर्नल सुत्तान राशिद खान और सेनानायक एकेएम मोहीउदीन शामिल हैं। इन पांचो सैन्य अधिकारियों पर बंग बंधु ‘शेख मजीबुर्रहमान‘ की हत्या का आरोप था। बांग्लादेश की राजधानी ढाका की सेंटंल जेल में जब पांचों अभियुक्तो को आधी रात के दौरान फांसी पर लटकाया जा रहा था उस समय हजारों की संख्या में लोग जमा थे और शेख मजीबुर्रहमान अमर रहें के नारे में लगा रहे थे। यह इस बात का द्योतक है कि मजीबुर्रहमान के प्रति अभी भी बांग्लादेश की वासियों में कितना प्रेम है और उनके हत्यारों के प्रति कितना आका्रेश है। यह भी सही है कि बांग्लादेश में अतिवाद की खेती लहरा रही है। पाकिस्तान की आईएसआई और दुनिया भर के इस्लामिक आतंकवादी यहां पनाह पाये हुए हैं जिसे दफन करना एक बड़ी चुनौती है। प्रधानमंत्री शेख हसीना बेहद सकारात्मक और उदारवादी सोच की प्रतीक हैं। वे सच्चाई जानती हैं। इसलिए अतिवादी विचारों के दमन का कोई अवसर वह गंवाना नहीं चाहती है। निश्चिततौर पर कहा जा सकता है कि शेख मजीबुर्रहमान के हत्यारों को फांसी पर लटकाने से दक्षिण एशिया में इस्लामिक अतिवादी-हिंसक विचारों के प्रवाह पर प्रहार हुआ है और बांग्लादेश में आजादी के विचारों को फिर से एक नयी दिशा और सम्मान भी मिला है।
1971 में बांग्लादेश की आजादी को पाकिस्तान आजतक नहीं पचा पाया है। पाकिस्तान की साजिशें और इस्लामिक अतिवाद की नीति ने 1975 में दुष्परिणाम दिखायी थी। पाकिस्तान समर्थक सैन्य अधिकारियों ने 1975 में बंग बंधु शेख मजीबुर्रहमान सहित उनके 18 परिवारिक सदस्यों की हत्या कर दी। शेख मजीबुर्रहमान के परिवार में उनकी दो बेटियां ही जीवीत था जो उस समय ब्रिटेन में रह रही थीं। इसके बाद बनी सरकार ने शेख मजीबुर्रहमान की बेटियों शेख हसीना और रेहना को बांग्लादेश आने से प्रतिबंधित कर दिया था। शेख मजीबुर्रहमान की बड़ी बेटी शेख हसीना छह सालों तक भारत में रही और इस दौरान अपने देश बांग्लादेश में नागरिक स्वतंत्रता की लड़ाई लडती रही। इसके विपरीत बांग्लादेश में मजीबुर्रहमान की सभी निशानियां और आजादी के सभी स्तंभों को मिटाने की भरपुर कोशिश हुई। पाकिस्तान से आजादी की लड़ाई लड़ने वाले लगातार हासिये पर ढकेले गये और उन्हें जेलों में डालने की अनगिनित कोशिशें हुई। शेख मजीबुर्रहमान के हत्यारों को सत्ता का संरक्षण मिला। हत्या से जुड़ी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तथ्य तहस-नहस किये गयें। नयी पीढ़ी को आजादी की लड़ाई से जोड़ने की जगह उनमें मजहब के अतिवाद और हिंसा की खेती उगायी गयी। जिसका परिणाम यह हुआ कि बांग्लादेश पूरी तरह इस्लामिक आतंकवाद-हिंसा पर आधारित राजनीतिक खेती लहरायी।
पहली सत्ता में शेख हसीना भी कुछ नहीं कर पायी थी। सेना और न्यायालय के डर से वह अपने पिता के हत्यारों और मजहबी अतिवादियों पर कानून का सोटा नहीं चला सकी। पर दूसरी सत्ता का अधिकार मिलने के बाद से ही शेख हसीना के तेवर काफी तीखे और प्रहारक हैं। उन्होंने यह महसूस कर लिया कि अितिवादी विचारों और हिंसक गतिविधियों का दफन किये बिना सुनहरी तस्वीर नहीं बनायी जा सकती है। उन्होंने सबसे पहले आईएसआई की गतिविधियों को रोका। सबसे बड़ी बात यह थी कि पाकिस्तान समर्थक तत्वों ने शेख मजीबुर्रहमान के योगदान पर सवाल खड़े किये थे। इन तत्वों का कहना था कि शेख मजीबुर्रहमान असल में बांग्लादेश के निर्माता नहीं है। उन्होंने सबसे पहले आजादी का स्वर नहीं दिया था। यह मामला न्यायालय तक पहुंचा। बांग्लादेश की सुप्रीम न्यायालय ने पिछले साल ही फैसला सुनाया था कि बांग्लादेश का असली निर्माता शेख मजीबुर्रहमान ही हैं। यह फैसला शेख हसीना की जीत थी। इसके बाद उन्होंने अपने पिता के हत्यारों को फांसी पर लटकाने के लिए कमर कसी। शेख हसीना सरकार ने न्यायालय में पूरे तथ्य रखने में सफल हुई और न्यायपालिका ने भी उस लोमहर्षक हत्याकांड के दोषियो को सजा देकर अतिवाद और हिंसा की प्रायोजित राजनीति पर अंकुश लगाया। शेख मजीबुर्रहमान के हत्यारे पाकिस्तान की इस्लामिक व्यवस्था से प्रभावित थे और वे शेख मजीबुर्रहमान की सत्ता को इस्लाम विरोधी मानते थे।
विरासत वाली पीढ़ी धीरे-धीरे अवसान की ओर है। 1971 की आजादी में शामिल होने वाले लोग अब कम बचे हैं और उनमें विरासत को संरक्षण देने के लिए राजनीतिक प्रक्रिया चलाने की अब उतनी ताकत भी नही बची है। इसका दुष्परिणाम यह निकला कि बांग्लादेश में पाकिस्तान समर्थक और हिंसा-अतिवाद से लैश वैचारिक दृष्टि फैल गयी। नयी पीढ़ी में विरासत की वैचारिक सरोकार और दृष्टि है ही नहीं। बैरोजगारी और बेकारी जैसी स्थिति से ऐसे भी राष्टवाद मजबूत नहीं हो सकता है और दूसरी राजनीतिक-मजहबी प्रक्रियाएं घर जमायेगी ही। इससे इनकार नहीं किया जा सकता हैं। यह सब बांग्लादेश मे देखा जा सकता है। नयी पीढी को अतिवादी-हिंसक विचारों के प्रवाह से बचाना एक बड़ी चुनौती है। पर सुखद स्थिति यह है कि बांग्लादेश की वर्तमान सत्ता और न्यायपालिका का दृष्टिकोण सकारात्मक है। खासकर न्यायपालिका ने बांग्लादेश को पाकिस्तान या अफगानिस्तान बनने से रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। न्यायपालिका ने अब तक नफरत और हिंसा का व्यापार करने वाले दर्जनों आतंकवादियों को फांसी पर लटकाने का फैसला सुनाया है और अतिवादी-आतंकवादी संगठनों पर प्रतिबंध लगाने जैसी सक्रियता दिखायी है।
दक्षिण एशिया में शांति की लौ पर अतिवादी विचारों और हिंसाओं का पहरा है। बांग्लोदश ही नहीं बल्कि भारत भी ऐसे मजहबी अतिवादी से संक्रमित है। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने पूरी दखिण एशिया को लहुलहुान कर छोड़ा हैं। चीन जैसे कम्युनिस्ट देश में भी मुस्लिम आतंकवाद राष्टवाद पर भारी पड़ रहा है। लिट्टे का सफाया होना जरूर शांति की उम्मीद श्रीलंका में जगाती है। लेकिन पाकिस्तान खलनायक के तौर पर दक्षिण एशिया के लिए अभी भी अभिश्राप है। पाकिस्तान से जबतक आतंकवाद की खेती लहराती रहेगी और उसके बीज का आउटसोर्सिंग होता रहेगा तब तक दक्षिण एशिया में क्या पूरी दुनिया में शांति की बात नहीं कही नहीं जा सकती है। इसीलिए अमेरिका-ब्रिटन का आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक प्रक्रिया दम तोड रही हैं। अलकायदा जैसी आतंकवादी प्रक्रिया और मजबूत हो रही है।
शेख मजीबुर्रहमान के हत्यारों को फांसी पर लटकाने का संदेश क्या है। संदेश अतिवादी’-हिंसक विचारों पर प्रहार है। निश्चिततौर पर शेख हसीना ने अपने पिता के हत्यारों को फांसी पर लटकवा कर अतिवादी-हिंसक विचारों के प्रवाह पर बुलडोजर चलाया है। आतंकवादी और आतंकवादी संगठनों को नसीहत मिली है। अतिवादी-हिंसक खेती करने वाले देशों के लिए बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेंख हसीना एक नजीर है। खासकर भारत को भी सीख लेने की जरूरत है। आतंकवादियों और आतंकवादी संगठनों को भारत में मिल रहे समर्थन क्या आतंकवादी विचारों को और प्रवाहित नहीं करता है? भारत में आतंकवादियो को फांसी पर लटकाने की जगह जेलों में रखकर चिकन बिरयानी खिलाया जा रहा है। पर क्या भारत शेख हसीना से कुछ सीख लेने के लिए तैयार है और आतंकवादियों के खिलाफ कड़े कदम उठायेगा भारत। असली सवाल यही है। शेख हसीना को मजहबी अतिवादी विचारों को कुचलने के लिए सलाम।
मोबाइल - 09968997060
विष्णुगुप्त
बांग्लादेश के निर्माता शेख मजीबुर्रहमान की हत्या के दोषी पांच पाकिस्तान समर्थक अतिवादी-हिंसक विचार वाले पूर्व सैन्य अधिकारियों को फांसी की सजा को दक्षिण एशिया मे अमन व शांति के लिए जरूरी और साथ ही साथ अतिवादी-हिसक विचारों पर प्रहार के तौर पर देखा जा रहा है। जिन पांच सैन्य अधिकारियों को फांसी पर लटकाया गया है उनमें मेजर मजबूल हुदा, लेॅफटीनेंट जनरल मोहीउदीन अहमद, लेफिटनेंट कर्नल सैयद फारूख रर्हमान, लेफिटनेंट कर्नल सुत्तान राशिद खान और सेनानायक एकेएम मोहीउदीन शामिल हैं। इन पांचो सैन्य अधिकारियों पर बंग बंधु ‘शेख मजीबुर्रहमान‘ की हत्या का आरोप था। बांग्लादेश की राजधानी ढाका की सेंटंल जेल में जब पांचों अभियुक्तो को आधी रात के दौरान फांसी पर लटकाया जा रहा था उस समय हजारों की संख्या में लोग जमा थे और शेख मजीबुर्रहमान अमर रहें के नारे में लगा रहे थे। यह इस बात का द्योतक है कि मजीबुर्रहमान के प्रति अभी भी बांग्लादेश की वासियों में कितना प्रेम है और उनके हत्यारों के प्रति कितना आका्रेश है। यह भी सही है कि बांग्लादेश में अतिवाद की खेती लहरा रही है। पाकिस्तान की आईएसआई और दुनिया भर के इस्लामिक आतंकवादी यहां पनाह पाये हुए हैं जिसे दफन करना एक बड़ी चुनौती है। प्रधानमंत्री शेख हसीना बेहद सकारात्मक और उदारवादी सोच की प्रतीक हैं। वे सच्चाई जानती हैं। इसलिए अतिवादी विचारों के दमन का कोई अवसर वह गंवाना नहीं चाहती है। निश्चिततौर पर कहा जा सकता है कि शेख मजीबुर्रहमान के हत्यारों को फांसी पर लटकाने से दक्षिण एशिया में इस्लामिक अतिवादी-हिंसक विचारों के प्रवाह पर प्रहार हुआ है और बांग्लादेश में आजादी के विचारों को फिर से एक नयी दिशा और सम्मान भी मिला है।
1971 में बांग्लादेश की आजादी को पाकिस्तान आजतक नहीं पचा पाया है। पाकिस्तान की साजिशें और इस्लामिक अतिवाद की नीति ने 1975 में दुष्परिणाम दिखायी थी। पाकिस्तान समर्थक सैन्य अधिकारियों ने 1975 में बंग बंधु शेख मजीबुर्रहमान सहित उनके 18 परिवारिक सदस्यों की हत्या कर दी। शेख मजीबुर्रहमान के परिवार में उनकी दो बेटियां ही जीवीत था जो उस समय ब्रिटेन में रह रही थीं। इसके बाद बनी सरकार ने शेख मजीबुर्रहमान की बेटियों शेख हसीना और रेहना को बांग्लादेश आने से प्रतिबंधित कर दिया था। शेख मजीबुर्रहमान की बड़ी बेटी शेख हसीना छह सालों तक भारत में रही और इस दौरान अपने देश बांग्लादेश में नागरिक स्वतंत्रता की लड़ाई लडती रही। इसके विपरीत बांग्लादेश में मजीबुर्रहमान की सभी निशानियां और आजादी के सभी स्तंभों को मिटाने की भरपुर कोशिश हुई। पाकिस्तान से आजादी की लड़ाई लड़ने वाले लगातार हासिये पर ढकेले गये और उन्हें जेलों में डालने की अनगिनित कोशिशें हुई। शेख मजीबुर्रहमान के हत्यारों को सत्ता का संरक्षण मिला। हत्या से जुड़ी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तथ्य तहस-नहस किये गयें। नयी पीढ़ी को आजादी की लड़ाई से जोड़ने की जगह उनमें मजहब के अतिवाद और हिंसा की खेती उगायी गयी। जिसका परिणाम यह हुआ कि बांग्लादेश पूरी तरह इस्लामिक आतंकवाद-हिंसा पर आधारित राजनीतिक खेती लहरायी।
पहली सत्ता में शेख हसीना भी कुछ नहीं कर पायी थी। सेना और न्यायालय के डर से वह अपने पिता के हत्यारों और मजहबी अतिवादियों पर कानून का सोटा नहीं चला सकी। पर दूसरी सत्ता का अधिकार मिलने के बाद से ही शेख हसीना के तेवर काफी तीखे और प्रहारक हैं। उन्होंने यह महसूस कर लिया कि अितिवादी विचारों और हिंसक गतिविधियों का दफन किये बिना सुनहरी तस्वीर नहीं बनायी जा सकती है। उन्होंने सबसे पहले आईएसआई की गतिविधियों को रोका। सबसे बड़ी बात यह थी कि पाकिस्तान समर्थक तत्वों ने शेख मजीबुर्रहमान के योगदान पर सवाल खड़े किये थे। इन तत्वों का कहना था कि शेख मजीबुर्रहमान असल में बांग्लादेश के निर्माता नहीं है। उन्होंने सबसे पहले आजादी का स्वर नहीं दिया था। यह मामला न्यायालय तक पहुंचा। बांग्लादेश की सुप्रीम न्यायालय ने पिछले साल ही फैसला सुनाया था कि बांग्लादेश का असली निर्माता शेख मजीबुर्रहमान ही हैं। यह फैसला शेख हसीना की जीत थी। इसके बाद उन्होंने अपने पिता के हत्यारों को फांसी पर लटकाने के लिए कमर कसी। शेख हसीना सरकार ने न्यायालय में पूरे तथ्य रखने में सफल हुई और न्यायपालिका ने भी उस लोमहर्षक हत्याकांड के दोषियो को सजा देकर अतिवाद और हिंसा की प्रायोजित राजनीति पर अंकुश लगाया। शेख मजीबुर्रहमान के हत्यारे पाकिस्तान की इस्लामिक व्यवस्था से प्रभावित थे और वे शेख मजीबुर्रहमान की सत्ता को इस्लाम विरोधी मानते थे।
विरासत वाली पीढ़ी धीरे-धीरे अवसान की ओर है। 1971 की आजादी में शामिल होने वाले लोग अब कम बचे हैं और उनमें विरासत को संरक्षण देने के लिए राजनीतिक प्रक्रिया चलाने की अब उतनी ताकत भी नही बची है। इसका दुष्परिणाम यह निकला कि बांग्लादेश में पाकिस्तान समर्थक और हिंसा-अतिवाद से लैश वैचारिक दृष्टि फैल गयी। नयी पीढ़ी में विरासत की वैचारिक सरोकार और दृष्टि है ही नहीं। बैरोजगारी और बेकारी जैसी स्थिति से ऐसे भी राष्टवाद मजबूत नहीं हो सकता है और दूसरी राजनीतिक-मजहबी प्रक्रियाएं घर जमायेगी ही। इससे इनकार नहीं किया जा सकता हैं। यह सब बांग्लादेश मे देखा जा सकता है। नयी पीढी को अतिवादी-हिंसक विचारों के प्रवाह से बचाना एक बड़ी चुनौती है। पर सुखद स्थिति यह है कि बांग्लादेश की वर्तमान सत्ता और न्यायपालिका का दृष्टिकोण सकारात्मक है। खासकर न्यायपालिका ने बांग्लादेश को पाकिस्तान या अफगानिस्तान बनने से रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। न्यायपालिका ने अब तक नफरत और हिंसा का व्यापार करने वाले दर्जनों आतंकवादियों को फांसी पर लटकाने का फैसला सुनाया है और अतिवादी-आतंकवादी संगठनों पर प्रतिबंध लगाने जैसी सक्रियता दिखायी है।
दक्षिण एशिया में शांति की लौ पर अतिवादी विचारों और हिंसाओं का पहरा है। बांग्लोदश ही नहीं बल्कि भारत भी ऐसे मजहबी अतिवादी से संक्रमित है। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने पूरी दखिण एशिया को लहुलहुान कर छोड़ा हैं। चीन जैसे कम्युनिस्ट देश में भी मुस्लिम आतंकवाद राष्टवाद पर भारी पड़ रहा है। लिट्टे का सफाया होना जरूर शांति की उम्मीद श्रीलंका में जगाती है। लेकिन पाकिस्तान खलनायक के तौर पर दक्षिण एशिया के लिए अभी भी अभिश्राप है। पाकिस्तान से जबतक आतंकवाद की खेती लहराती रहेगी और उसके बीज का आउटसोर्सिंग होता रहेगा तब तक दक्षिण एशिया में क्या पूरी दुनिया में शांति की बात नहीं कही नहीं जा सकती है। इसीलिए अमेरिका-ब्रिटन का आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक प्रक्रिया दम तोड रही हैं। अलकायदा जैसी आतंकवादी प्रक्रिया और मजबूत हो रही है।
शेख मजीबुर्रहमान के हत्यारों को फांसी पर लटकाने का संदेश क्या है। संदेश अतिवादी’-हिंसक विचारों पर प्रहार है। निश्चिततौर पर शेख हसीना ने अपने पिता के हत्यारों को फांसी पर लटकवा कर अतिवादी-हिंसक विचारों के प्रवाह पर बुलडोजर चलाया है। आतंकवादी और आतंकवादी संगठनों को नसीहत मिली है। अतिवादी-हिंसक खेती करने वाले देशों के लिए बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेंख हसीना एक नजीर है। खासकर भारत को भी सीख लेने की जरूरत है। आतंकवादियों और आतंकवादी संगठनों को भारत में मिल रहे समर्थन क्या आतंकवादी विचारों को और प्रवाहित नहीं करता है? भारत में आतंकवादियो को फांसी पर लटकाने की जगह जेलों में रखकर चिकन बिरयानी खिलाया जा रहा है। पर क्या भारत शेख हसीना से कुछ सीख लेने के लिए तैयार है और आतंकवादियों के खिलाफ कड़े कदम उठायेगा भारत। असली सवाल यही है। शेख हसीना को मजहबी अतिवादी विचारों को कुचलने के लिए सलाम।
मोबाइल - 09968997060
अतिवादी-हिंसक विचारों पर फांसी का प्रहार
अतिवादी-हिंसक विचारों पर फांसी का प्रहार
विष्णुगुप्त
बांग्लादेश के निर्माता शेख मजीबुर्रहमान की हत्या के दोषी पांच पाकिस्तान समर्थक अतिवादी-हिंसक विचार वाले पूर्व सैन्य अधिकारियों को फांसी की सजा को दक्षिण एशिया मे अमन व शांति के लिए जरूरी और साथ ही साथ अतिवादी-हिसक विचारों पर प्रहार के तौर पर देखा जा रहा है। जिन पांच सैन्य अधिकारियों को फांसी पर लटकाया गया है उनमें मेजर मजबूल हुदा, लेॅफटीनेंट जनरल मोहीउदीन अहमद, लेफिटनेंट कर्नल सैयद फारूख रर्हमान, लेफिटनेंट कर्नल सुत्तान राशिद खान और सेनानायक एकेएम मोहीउदीन शामिल हैं। इन पांचो सैन्य अधिकारियों पर बंग बंधु ‘शेख मजीबुर्रहमान‘ की हत्या का आरोप था। बांग्लादेश की राजधानी ढाका की सेंटंल जेल में जब पांचों अभियुक्तो को आधी रात के दौरान फांसी पर लटकाया जा रहा था उस समय हजारों की संख्या में लोग जमा थे और शेख मजीबुर्रहमान अमर रहें के नारे में लगा रहे थे। यह इस बात का द्योतक है कि मजीबुर्रहमान के प्रति अभी भी बांग्लादेश की वासियों में कितना प्रेम है और उनके हत्यारों के प्रति कितना आका्रेश है। यह भी सही है कि बांग्लादेश में अतिवाद की खेती लहरा रही है। पाकिस्तान की आईएसआई और दुनिया भर के इस्लामिक आतंकवादी यहां पनाह पाये हुए हैं जिसे दफन करना एक बड़ी चुनौती है। प्रधानमंत्री शेख हसीना बेहद सकारात्मक और उदारवादी सोच की प्रतीक हैं। वे सच्चाई जानती हैं। इसलिए अतिवादी विचारों के दमन का कोई अवसर वह गंवाना नहीं चाहती है। निश्चिततौर पर कहा जा सकता है कि शेख मजीबुर्रहमान के हत्यारों को फांसी पर लटकाने से दक्षिण एशिया में इस्लामिक अतिवादी-हिंसक विचारों के प्रवाह पर प्रहार हुआ है और बांग्लादेश में आजादी के विचारों को फिर से एक नयी दिशा और सम्मान भी मिला है।
1971 में बांग्लादेश की आजादी को पाकिस्तान आजतक नहीं पचा पाया है। पाकिस्तान की साजिशें और इस्लामिक अतिवाद की नीति ने 1975 में दुष्परिणाम दिखायी थी। पाकिस्तान समर्थक सैन्य अधिकारियों ने 1975 में बंग बंधु शेख मजीबुर्रहमान सहित उनके 18 परिवारिक सदस्यों की हत्या कर दी। शेख मजीबुर्रहमान के परिवार में उनकी दो बेटियां ही जीवीत था जो उस समय ब्रिटेन में रह रही थीं। इसके बाद बनी सरकार ने शेख मजीबुर्रहमान की बेटियों शेख हसीना और रेहना को बांग्लादेश आने से प्रतिबंधित कर दिया था। शेख मजीबुर्रहमान की बड़ी बेटी शेख हसीना छह सालों तक भारत में रही और इस दौरान अपने देश बांग्लादेश में नागरिक स्वतंत्रता की लड़ाई लडती रही। इसके विपरीत बांग्लादेश में मजीबुर्रहमान की सभी निशानियां और आजादी के सभी स्तंभों को मिटाने की भरपुर कोशिश हुई। पाकिस्तान से आजादी की लड़ाई लड़ने वाले लगातार हासिये पर ढकेले गये और उन्हें जेलों में डालने की अनगिनित कोशिशें हुई। शेख मजीबुर्रहमान के हत्यारों को सत्ता का संरक्षण मिला। हत्या से जुड़ी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तथ्य तहस-नहस किये गयें। नयी पीढ़ी को आजादी की लड़ाई से जोड़ने की जगह उनमें मजहब के अतिवाद और हिंसा की खेती उगायी गयी। जिसका परिणाम यह हुआ कि बांग्लादेश पूरी तरह इस्लामिक आतंकवाद-हिंसा पर आधारित राजनीतिक खेती लहरायी।
पहली सत्ता में शेख हसीना भी कुछ नहीं कर पायी थी। सेना और न्यायालय के डर से वह अपने पिता के हत्यारों और मजहबी अतिवादियों पर कानून का सोटा नहीं चला सकी। पर दूसरी सत्ता का अधिकार मिलने के बाद से ही शेख हसीना के तेवर काफी तीखे और प्रहारक हैं। उन्होंने यह महसूस कर लिया कि अितिवादी विचारों और हिंसक गतिविधियों का दफन किये बिना सुनहरी तस्वीर नहीं बनायी जा सकती है। उन्होंने सबसे पहले आईएसआई की गतिविधियों को रोका। सबसे बड़ी बात यह थी कि पाकिस्तान समर्थक तत्वों ने शेख मजीबुर्रहमान के योगदान पर सवाल खड़े किये थे। इन तत्वों का कहना था कि शेख मजीबुर्रहमान असल में बांग्लादेश के निर्माता नहीं है। उन्होंने सबसे पहले आजादी का स्वर नहीं दिया था। यह मामला न्यायालय तक पहुंचा। बांग्लादेश की सुप्रीम न्यायालय ने पिछले साल ही फैसला सुनाया था कि बांग्लादेश का असली निर्माता शेख मजीबुर्रहमान ही हैं। यह फैसला शेख हसीना की जीत थी। इसके बाद उन्होंने अपने पिता के हत्यारों को फांसी पर लटकाने के लिए कमर कसी। शेख हसीना सरकार ने न्यायालय में पूरे तथ्य रखने में सफल हुई और न्यायपालिका ने भी उस लोमहर्षक हत्याकांड के दोषियो को सजा देकर अतिवाद और हिंसा की प्रायोजित राजनीति पर अंकुश लगाया। शेख मजीबुर्रहमान के हत्यारे पाकिस्तान की इस्लामिक व्यवस्था से प्रभावित थे और वे शेख मजीबुर्रहमान की सत्ता को इस्लाम विरोधी मानते थे।
विरासत वाली पीढ़ी धीरे-धीरे अवसान की ओर है। 1971 की आजादी में शामिल होने वाले लोग अब कम बचे हैं और उनमें विरासत को संरक्षण देने के लिए राजनीतिक प्रक्रिया चलाने की अब उतनी ताकत भी नही बची है। इसका दुष्परिणाम यह निकला कि बांग्लादेश में पाकिस्तान समर्थक और हिंसा-अतिवाद से लैश वैचारिक दृष्टि फैल गयी। नयी पीढ़ी में विरासत की वैचारिक सरोकार और दृष्टि है ही नहीं। बैरोजगारी और बेकारी जैसी स्थिति से ऐसे भी राष्टवाद मजबूत नहीं हो सकता है और दूसरी राजनीतिक-मजहबी प्रक्रियाएं घर जमायेगी ही। इससे इनकार नहीं किया जा सकता हैं। यह सब बांग्लादेश मे देखा जा सकता है। नयी पीढी को अतिवादी-हिंसक विचारों के प्रवाह से बचाना एक बड़ी चुनौती है। पर सुखद स्थिति यह है कि बांग्लादेश की वर्तमान सत्ता और न्यायपालिका का दृष्टिकोण सकारात्मक है। खासकर न्यायपालिका ने बांग्लादेश को पाकिस्तान या अफगानिस्तान बनने से रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। न्यायपालिका ने अब तक नफरत और हिंसा का व्यापार करने वाले दर्जनों आतंकवादियों को फांसी पर लटकाने का फैसला सुनाया है और अतिवादी-आतंकवादी संगठनों पर प्रतिबंध लगाने जैसी सक्रियता दिखायी है।
दक्षिण एशिया में शांति की लौ पर अतिवादी विचारों और हिंसाओं का पहरा है। बांग्लोदश ही नहीं बल्कि भारत भी ऐसे मजहबी अतिवादी से संक्रमित है। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने पूरी दखिण एशिया को लहुलहुान कर छोड़ा हैं। चीन जैसे कम्युनिस्ट देश में भी मुस्लिम आतंकवाद राष्टवाद पर भारी पड़ रहा है। लिट्टे का सफाया होना जरूर शांति की उम्मीद श्रीलंका में जगाती है। लेकिन पाकिस्तान खलनायक के तौर पर दक्षिण एशिया के लिए अभी भी अभिश्राप है। पाकिस्तान से जबतक आतंकवाद की खेती लहराती रहेगी और उसके बीज का आउटसोर्सिंग होता रहेगा तब तक दक्षिण एशिया में क्या पूरी दुनिया में शांति की बात नहीं कही नहीं जा सकती है। इसीलिए अमेरिका-ब्रिटन का आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक प्रक्रिया दम तोड रही हैं। अलकायदा जैसी आतंकवादी प्रक्रिया और मजबूत हो रही है।
शेख मजीबुर्रहमान के हत्यारों को फांसी पर लटकाने का संदेश क्या है। संदेश अतिवादी’-हिंसक विचारों पर प्रहार है। निश्चिततौर पर शेख हसीना ने अपने पिता के हत्यारों को फांसी पर लटकवा कर अतिवादी-हिंसक विचारों के प्रवाह पर बुलडोजर चलाया है। आतंकवादी और आतंकवादी संगठनों को नसीहत मिली है। अतिवादी-हिंसक खेती करने वाले देशों के लिए बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेंख हसीना एक नजीर है। खासकर भारत को भी सीख लेने की जरूरत है। आतंकवादियों और आतंकवादी संगठनों को भारत में मिल रहे समर्थन क्या आतंकवादी विचारों को और प्रवाहित नहीं करता है? भारत में आतंकवादियो को फांसी पर लटकाने की जगह जेलों में रखकर चिकन बिरयानी खिलाया जा रहा है। पर क्या भारत शेख हसीना से कुछ सीख लेने के लिए तैयार है और आतंकवादियों के खिलाफ कड़े कदम उठायेगा भारत। असली सवाल यही है। शेख हसीना को मजहबी अतिवादी विचारों को कुचलने के लिए सलाम।
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विष्णुगुप्त
बांग्लादेश के निर्माता शेख मजीबुर्रहमान की हत्या के दोषी पांच पाकिस्तान समर्थक अतिवादी-हिंसक विचार वाले पूर्व सैन्य अधिकारियों को फांसी की सजा को दक्षिण एशिया मे अमन व शांति के लिए जरूरी और साथ ही साथ अतिवादी-हिसक विचारों पर प्रहार के तौर पर देखा जा रहा है। जिन पांच सैन्य अधिकारियों को फांसी पर लटकाया गया है उनमें मेजर मजबूल हुदा, लेॅफटीनेंट जनरल मोहीउदीन अहमद, लेफिटनेंट कर्नल सैयद फारूख रर्हमान, लेफिटनेंट कर्नल सुत्तान राशिद खान और सेनानायक एकेएम मोहीउदीन शामिल हैं। इन पांचो सैन्य अधिकारियों पर बंग बंधु ‘शेख मजीबुर्रहमान‘ की हत्या का आरोप था। बांग्लादेश की राजधानी ढाका की सेंटंल जेल में जब पांचों अभियुक्तो को आधी रात के दौरान फांसी पर लटकाया जा रहा था उस समय हजारों की संख्या में लोग जमा थे और शेख मजीबुर्रहमान अमर रहें के नारे में लगा रहे थे। यह इस बात का द्योतक है कि मजीबुर्रहमान के प्रति अभी भी बांग्लादेश की वासियों में कितना प्रेम है और उनके हत्यारों के प्रति कितना आका्रेश है। यह भी सही है कि बांग्लादेश में अतिवाद की खेती लहरा रही है। पाकिस्तान की आईएसआई और दुनिया भर के इस्लामिक आतंकवादी यहां पनाह पाये हुए हैं जिसे दफन करना एक बड़ी चुनौती है। प्रधानमंत्री शेख हसीना बेहद सकारात्मक और उदारवादी सोच की प्रतीक हैं। वे सच्चाई जानती हैं। इसलिए अतिवादी विचारों के दमन का कोई अवसर वह गंवाना नहीं चाहती है। निश्चिततौर पर कहा जा सकता है कि शेख मजीबुर्रहमान के हत्यारों को फांसी पर लटकाने से दक्षिण एशिया में इस्लामिक अतिवादी-हिंसक विचारों के प्रवाह पर प्रहार हुआ है और बांग्लादेश में आजादी के विचारों को फिर से एक नयी दिशा और सम्मान भी मिला है।
1971 में बांग्लादेश की आजादी को पाकिस्तान आजतक नहीं पचा पाया है। पाकिस्तान की साजिशें और इस्लामिक अतिवाद की नीति ने 1975 में दुष्परिणाम दिखायी थी। पाकिस्तान समर्थक सैन्य अधिकारियों ने 1975 में बंग बंधु शेख मजीबुर्रहमान सहित उनके 18 परिवारिक सदस्यों की हत्या कर दी। शेख मजीबुर्रहमान के परिवार में उनकी दो बेटियां ही जीवीत था जो उस समय ब्रिटेन में रह रही थीं। इसके बाद बनी सरकार ने शेख मजीबुर्रहमान की बेटियों शेख हसीना और रेहना को बांग्लादेश आने से प्रतिबंधित कर दिया था। शेख मजीबुर्रहमान की बड़ी बेटी शेख हसीना छह सालों तक भारत में रही और इस दौरान अपने देश बांग्लादेश में नागरिक स्वतंत्रता की लड़ाई लडती रही। इसके विपरीत बांग्लादेश में मजीबुर्रहमान की सभी निशानियां और आजादी के सभी स्तंभों को मिटाने की भरपुर कोशिश हुई। पाकिस्तान से आजादी की लड़ाई लड़ने वाले लगातार हासिये पर ढकेले गये और उन्हें जेलों में डालने की अनगिनित कोशिशें हुई। शेख मजीबुर्रहमान के हत्यारों को सत्ता का संरक्षण मिला। हत्या से जुड़ी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तथ्य तहस-नहस किये गयें। नयी पीढ़ी को आजादी की लड़ाई से जोड़ने की जगह उनमें मजहब के अतिवाद और हिंसा की खेती उगायी गयी। जिसका परिणाम यह हुआ कि बांग्लादेश पूरी तरह इस्लामिक आतंकवाद-हिंसा पर आधारित राजनीतिक खेती लहरायी।
पहली सत्ता में शेख हसीना भी कुछ नहीं कर पायी थी। सेना और न्यायालय के डर से वह अपने पिता के हत्यारों और मजहबी अतिवादियों पर कानून का सोटा नहीं चला सकी। पर दूसरी सत्ता का अधिकार मिलने के बाद से ही शेख हसीना के तेवर काफी तीखे और प्रहारक हैं। उन्होंने यह महसूस कर लिया कि अितिवादी विचारों और हिंसक गतिविधियों का दफन किये बिना सुनहरी तस्वीर नहीं बनायी जा सकती है। उन्होंने सबसे पहले आईएसआई की गतिविधियों को रोका। सबसे बड़ी बात यह थी कि पाकिस्तान समर्थक तत्वों ने शेख मजीबुर्रहमान के योगदान पर सवाल खड़े किये थे। इन तत्वों का कहना था कि शेख मजीबुर्रहमान असल में बांग्लादेश के निर्माता नहीं है। उन्होंने सबसे पहले आजादी का स्वर नहीं दिया था। यह मामला न्यायालय तक पहुंचा। बांग्लादेश की सुप्रीम न्यायालय ने पिछले साल ही फैसला सुनाया था कि बांग्लादेश का असली निर्माता शेख मजीबुर्रहमान ही हैं। यह फैसला शेख हसीना की जीत थी। इसके बाद उन्होंने अपने पिता के हत्यारों को फांसी पर लटकाने के लिए कमर कसी। शेख हसीना सरकार ने न्यायालय में पूरे तथ्य रखने में सफल हुई और न्यायपालिका ने भी उस लोमहर्षक हत्याकांड के दोषियो को सजा देकर अतिवाद और हिंसा की प्रायोजित राजनीति पर अंकुश लगाया। शेख मजीबुर्रहमान के हत्यारे पाकिस्तान की इस्लामिक व्यवस्था से प्रभावित थे और वे शेख मजीबुर्रहमान की सत्ता को इस्लाम विरोधी मानते थे।
विरासत वाली पीढ़ी धीरे-धीरे अवसान की ओर है। 1971 की आजादी में शामिल होने वाले लोग अब कम बचे हैं और उनमें विरासत को संरक्षण देने के लिए राजनीतिक प्रक्रिया चलाने की अब उतनी ताकत भी नही बची है। इसका दुष्परिणाम यह निकला कि बांग्लादेश में पाकिस्तान समर्थक और हिंसा-अतिवाद से लैश वैचारिक दृष्टि फैल गयी। नयी पीढ़ी में विरासत की वैचारिक सरोकार और दृष्टि है ही नहीं। बैरोजगारी और बेकारी जैसी स्थिति से ऐसे भी राष्टवाद मजबूत नहीं हो सकता है और दूसरी राजनीतिक-मजहबी प्रक्रियाएं घर जमायेगी ही। इससे इनकार नहीं किया जा सकता हैं। यह सब बांग्लादेश मे देखा जा सकता है। नयी पीढी को अतिवादी-हिंसक विचारों के प्रवाह से बचाना एक बड़ी चुनौती है। पर सुखद स्थिति यह है कि बांग्लादेश की वर्तमान सत्ता और न्यायपालिका का दृष्टिकोण सकारात्मक है। खासकर न्यायपालिका ने बांग्लादेश को पाकिस्तान या अफगानिस्तान बनने से रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। न्यायपालिका ने अब तक नफरत और हिंसा का व्यापार करने वाले दर्जनों आतंकवादियों को फांसी पर लटकाने का फैसला सुनाया है और अतिवादी-आतंकवादी संगठनों पर प्रतिबंध लगाने जैसी सक्रियता दिखायी है।
दक्षिण एशिया में शांति की लौ पर अतिवादी विचारों और हिंसाओं का पहरा है। बांग्लोदश ही नहीं बल्कि भारत भी ऐसे मजहबी अतिवादी से संक्रमित है। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने पूरी दखिण एशिया को लहुलहुान कर छोड़ा हैं। चीन जैसे कम्युनिस्ट देश में भी मुस्लिम आतंकवाद राष्टवाद पर भारी पड़ रहा है। लिट्टे का सफाया होना जरूर शांति की उम्मीद श्रीलंका में जगाती है। लेकिन पाकिस्तान खलनायक के तौर पर दक्षिण एशिया के लिए अभी भी अभिश्राप है। पाकिस्तान से जबतक आतंकवाद की खेती लहराती रहेगी और उसके बीज का आउटसोर्सिंग होता रहेगा तब तक दक्षिण एशिया में क्या पूरी दुनिया में शांति की बात नहीं कही नहीं जा सकती है। इसीलिए अमेरिका-ब्रिटन का आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक प्रक्रिया दम तोड रही हैं। अलकायदा जैसी आतंकवादी प्रक्रिया और मजबूत हो रही है।
शेख मजीबुर्रहमान के हत्यारों को फांसी पर लटकाने का संदेश क्या है। संदेश अतिवादी’-हिंसक विचारों पर प्रहार है। निश्चिततौर पर शेख हसीना ने अपने पिता के हत्यारों को फांसी पर लटकवा कर अतिवादी-हिंसक विचारों के प्रवाह पर बुलडोजर चलाया है। आतंकवादी और आतंकवादी संगठनों को नसीहत मिली है। अतिवादी-हिंसक खेती करने वाले देशों के लिए बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेंख हसीना एक नजीर है। खासकर भारत को भी सीख लेने की जरूरत है। आतंकवादियों और आतंकवादी संगठनों को भारत में मिल रहे समर्थन क्या आतंकवादी विचारों को और प्रवाहित नहीं करता है? भारत में आतंकवादियो को फांसी पर लटकाने की जगह जेलों में रखकर चिकन बिरयानी खिलाया जा रहा है। पर क्या भारत शेख हसीना से कुछ सीख लेने के लिए तैयार है और आतंकवादियों के खिलाफ कड़े कदम उठायेगा भारत। असली सवाल यही है। शेख हसीना को मजहबी अतिवादी विचारों को कुचलने के लिए सलाम।
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Sunday, January 24, 2010
राष्ट्र-चिंतन
पाकिस्तानी क्रिकेटरों का मजहबी व्यापार
दोस्ती, आतंकवाद और आईपीएल-थ्री साथ-साथ नहीं चल सकते
विष्णुगुप्त
पाकिस्तानी क्रिकेटर मजहबी व्यापार पर उतर आये हैं। पाकिस्तानी खिलाड़ी शाहिद अफरीदी के वक्तव्य पर संज्ञान लीजिए। शाहिद अफरीदी का कहना है कि भारत ने हमारे पूरे ‘ कोम ‘ को बदनाम किया है। उसका यथार्थ यही है कि भारत ने इस्लाम को बदनाम किया है। जबकि पाकिस्तान के गृहमंत्री ने इसका भारत से बदला लेने की धमकी दी है। पाकिस्तान के गृहमंत्री अपने खिलाड़ियों के नहीं चुनने पर भारत से किस प्रकार बदला लेंगे, इसका खुलासा उन्होंने नहीं किया है। पाकिस्तान के राजनीतिज्ञ, मीडियाकर्मी और बुद्धीजीवी भी भड़के हुए हैं। इन सबों का एक ही राय है कि भारत ने अन्याय किया है, पाकिस्तान को बदनाम किया है। यह तो रही पाकिस्तान की बात। अब देशी मीडिया और बुद्धीजीवियों की बात देखिये। भारतीय मीडिया और बुद्धीजीवियो का कहना है कि भारत सरकार के दबाव में आइ्रपीएल- थ्री में पाकिस्तानी खिलाड़ियो की विक्री रोकी गयी और इसका दुष्परिणाम भारत-पाकिस्तान संबंधों पर पड़ेगा। यह भी कहा जा रहा है कि पीपुल्स टू-पीपुल्स की धारा भी रूक जायेगी। पाकिस्तानी -भारतीय मीडिया-बुद्धीजीवियों की जुगलबंदी में भारत सरकार और भारतीय की जनता खलनायक के के रूप में खड़ी है। यहां स्वतंत्र विचारण यह है कि क्या भारत ने इस्लाम को सही में बदनाम किया है? क्या अतीत में किये गये व्यवहारों और निर्दोष भारतीयों को खूनी प्रक्रिया से दग्ध बनाने की पाकिस्तानी नीति से मुंह चुरा लिया जाना चाहिए? भारत की दोस्ती पर पाकिस्तान ने कभी भी सकारात्मक चेहरा क्यों नहीं दिखाया? क्रिकेट को राजनीति से अलग रखने पर जोर दिया जा रहा है पर यह याद भी रखना चाहिए कि जब देश है तभी क्रिकेट है? आपीएल- थ्री के संदेश पर पाकिस्तान समाज और उनके रहनुमाओं को खुद का चेहरा देखना होगा? आतंकवाद, कूटनीति और क्रिकेट साथ-साथ नहीं चल सकता हैै? मजहबी सोच और आतंकवाद से दोस्ती और खुद की बेहत्तर तकदीर नहीं बनायी जा सकती है। इसी मजहबी सोच ने दुनिया में इस्लाम के प्रति कैसी सोच और दहशत फैलायी है यह जगजाहिर ही है। आज पूरी दुनिया में मुस्लिम समाज आतंकवाद के पर्याय हो गये हैं और उन्हें अन्य धार्मिक समूहों से धृणा जैसी बुराइयां भी घायल कर रही हैं।
पीपुल्स टू पीपुल्स टाॅक के विद्वान कौन लोग हैं? क्या ये सही में भारतीयों का प्रतिनिधित्व करते हैं। फैशनपरती और हिन्दुत्व विरोध की इनकी राजनीतिक-कूटनीतिक प्रक्रिया क्या देश के हितों को नुकसान नहीं पहुंचाती है? याद कीजिए पीपुल्स टू पीपुल्स की धारा को । 9/11 की घटना के पूर्व पीपुल्स टू पीपुल्स के योद्धा कुलदीप नैयर बाधा बाॅर्डर पर शांति की मोमबती जलाने जाते थे लेकिन पाकिस्तान की तरफ से शांति की धारा नहीं बहती थी और न ही मोमबती जलाने के लिए बाधा बाॅर्डर पर पाकिस्तानी बुद्धीजीवी और मीडिया के लोग आते थे। कारगिल घुसपैठ हो या फिर इंडियन एयर लाइन्स का विमान अपहरण कांड, किसी पाकिस्तानी खिलाड़ी और बुद्धीजीवियों ने अपनी जबान नहीं खोली थी। उस दौरान पाकिस्तान मीडिया और बुद्धीजीवियो का हीरो तो तालिबान और कश्मीरी आतंकवादी थे। इन्हें लगता था कि तालिबान भारत को तहस-नहस करने और भारत में इस्लाम का झंडा फहराने में पाकिस्तान कामयाब हो जायेगा। इनकी नीयत और जबान 9/11 की घटना ने बदली। अफगानिस्तान में तालिबान के पतन के बाद इनकी नींद टूटी और आतंकवाद व अमेरिका इनके लिए दुश्मन दिखने लगा। फिर शुरू हुई पाकिस्तान के बुद्धीजीवियों और मीडिया की शख्सियों का भारत में पीपुल्स टू पीपुल्स की कूटनीति और राजनीति। यह भी बात उठी है कि इस समय पाकिस्तान खुद आतंकवाद से घिरा हुआ है और उसके अस्तित्व के लिए खतरनाक पहलुू है। इसलिए भारत को पाकिस्तन की मदद करनी चाहिए। लेकिन पाकिस्तान अपनी आतंकवादी नीति और आतंकवादियों को कानूनी संरक्षण देने की प्रक्रिया क्यों नहीं बंद कर रहा है? इस प्रश्न का जवाब पाकिस्तानी पक्ष के खैवनहार भारतीय बुद्धीजीवियों को क्यों नहीं बतलाना चाहिए?
भारत की जनता ने पाकिस्तानी खिलाड़ियों, गायकों, कलाकारों और बुद्धीजीवियों को सर-आंखों पर बैठाया है। दर्जनों पाकिस्तानी गायक मुबंई फिल्म बाजार मंें गुलजार हैं। पाकिस्तान के कई कलाकारो की पहचान तो इसी भारतीय जनता के समर्थन से बनी है। भारतीय टेलीविजन शो में पाकिस्तानी गायकों और हंसोडों को तरजीह और मौका देने में भारतीय जनता ने कभी भी कंजूसी नहीं बरती। पाकिस्तान की मानवाधिकार कार्यकर्ता आस्मा जहांगीर सहित अन्य सभी बुद्धीजीवियों को भारत में न केवल सम्मान मिला है बल्कि समर्थन भी मिला है। क्रिकेट में भी भारत ने काफी नरमी बरती है। कश्मीर में पिछले तीन दशकों से जारी पाकिस्तानी आतंकवाद के बाद भी भारत ने पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेला। मुबंई हमले के बाद भारत ने जरूर अपनी क्रिंकेट नीति की समीक्षा की और पाकिस्तान के साथ क्रिकेट मैचो के आयोजन पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद भी पाकिस्तानी खिलाड़ियों को भारत आते रहे और भारतीय जनता का सम्मान पाते रहे। वसीम अकरम इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। वसीम अकरम शाहरूख खान की कोलकात्ता टीम के गेंदबाजी कोच हैं। उनकी नियुक्ति का कही्र भी विरोध नही हुआ। अकरम की क्र्रिकेट से जुड़ी हुई बयानों और सुझावों की हमेशा से सकरात्मक प्रतिक्रिया होती है।
मजहब का सहारा लेना कोई नयी बात नहीं है। शाहिद अफरीदी का यह कहना कि भारत ने पूरे इस्लाम को बदनाम किया है, यह उसका मजहबी सोच का ही परिणाम है। मजहब के आधार पर क्या कोई भेदभाव हुआ है? क्या आपीएल-थ्री में उन सभी की खरीददारी इसलिए नही हुई कि वे सभी मुसलमान है? अगर यह आधार होता तो क्या वसीम अकरम को आपीएल की कोलकात्ता टीम का गेंदबाजी कोच बनाया जाता? भारत सरकार ने पहले ही यह बता दिया है कि उनकी कोई भूमिका आईपीएल-थ्री की खरीददारी में नहीं रही है। अब यहां सवाल उठता है कि अफरीदी और अन्य खिलाड़ियों ने इस्लाम को बदनाम करने जैसे आरोप क्यों लगाये? इसके निहितार्थ क्या है? पाकिस्तान या अन्य सभी मुस्लिम देशों में मजहब का सहारा लेना आम बात है। मजहब की विसंगतियां उनके सिर पर चढ़कर बोलती है। याद कीजिए जब यूनिस खान के नेतृत्व में पाकिस्तान की टीम भारत आयी थी। उस समय यूनिस खान ने कहा था कि भारत के मुसलमान पाकिस्तान का साथ देंगें। इसलिए कि हम मुसलमान हैं और हमारा मुकाबला हिन्दुओं से है। उस समय भारतीय टीम में जहीर खान, इरफान पठान सहित तीन मुस्लिम थे। सीधेतौर पर अफरीदी के इस मजहब के मोहरे का अर्थ भारतीय मुसलमानों की मजहबी भावनाएं अपने पक्ष में करने की है। ताकि भारत सरकार इसका परिणाम भुगते और भविष्य में ऐसी उपेक्षाओं से तोबा करें। इस्लाम के नाम पर पूरी दुनिया किस तरह की खूनी प्रक्रिया झेल रही है? यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। भारत की जनता ने इस्लाम के नाम पर होने वाली अंतहीन खूनी प्रक्रिया झेली है। इसलिए अफरीदी द्वारा इस्लाम का सहारा लेने से कोई लाभ होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। अफरीदी पाकिस्तान की मजहबी जनता में जहर घोल जरूर दिया है। पाकिस्तानी समाज खुद मजहबी आग में जल रही है। इसलिए ऐसे विचारों से शाहिद अफरीदी पाकिस्तानी समाज का भी भला नहीं करेगें।
पाकिस्तान हमारा कौन सा अच्छा दोस्त है? पाकिस्तान के हिमायती भारतीय बुद्धीजीवियों को यह बताना चाहिए? पिछले तीन दशक से हम पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की कीमत चुका रहे हैं। मुंबई हमले के आतंकवादियो को उसने आज तक सजा नहीं दिया है और न ही उसने भारत की चिंताओं को दूर करने की कोशिश की है। कश्मीर में पहले जैसा ही घुसपैठ और आतंकवाद की प्रक्रिया चल रही हैं। ऐसी स्थिति में पाकिस्तान के साथ दोस्ती का क्या मतलब रह जाता है? पाकिस्तान के गृहमंत्री का यह कहना भी आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों के नहीं चुनने पर भारत को सबक सिखाया जायेगा, हस्यास्पद ही है। पाकिस्तान को पहले अपने घर की चिंता करनी चाहिए। पाकिस्तान को अब समझ में आ ही जाना चाहिए कि आतंकवाद, दोस्ती और क्रिकेट एक साथ नहीं चल सकती है। अब तक पाकिस्तान ने भारत की सत्ता का उदार रूख का फायदा उठाया है। आईपीएल-थ्री विवाद से पाकिस्तान को सबक लेना चाहिए। पाकिस्तानी खिलाड़ियो, कलाकारों, बुद्धीजीवियों को सोचना होगा कि आखिर भारत कब तक अपनी जनता के जीवन की कीमत पर पाकिस्तान के साथ दोस्ती की नीति पर चलेगा?
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पाकिस्तानी क्रिकेटरों का मजहबी व्यापार
दोस्ती, आतंकवाद और आईपीएल-थ्री साथ-साथ नहीं चल सकते
विष्णुगुप्त
पाकिस्तानी क्रिकेटर मजहबी व्यापार पर उतर आये हैं। पाकिस्तानी खिलाड़ी शाहिद अफरीदी के वक्तव्य पर संज्ञान लीजिए। शाहिद अफरीदी का कहना है कि भारत ने हमारे पूरे ‘ कोम ‘ को बदनाम किया है। उसका यथार्थ यही है कि भारत ने इस्लाम को बदनाम किया है। जबकि पाकिस्तान के गृहमंत्री ने इसका भारत से बदला लेने की धमकी दी है। पाकिस्तान के गृहमंत्री अपने खिलाड़ियों के नहीं चुनने पर भारत से किस प्रकार बदला लेंगे, इसका खुलासा उन्होंने नहीं किया है। पाकिस्तान के राजनीतिज्ञ, मीडियाकर्मी और बुद्धीजीवी भी भड़के हुए हैं। इन सबों का एक ही राय है कि भारत ने अन्याय किया है, पाकिस्तान को बदनाम किया है। यह तो रही पाकिस्तान की बात। अब देशी मीडिया और बुद्धीजीवियों की बात देखिये। भारतीय मीडिया और बुद्धीजीवियो का कहना है कि भारत सरकार के दबाव में आइ्रपीएल- थ्री में पाकिस्तानी खिलाड़ियो की विक्री रोकी गयी और इसका दुष्परिणाम भारत-पाकिस्तान संबंधों पर पड़ेगा। यह भी कहा जा रहा है कि पीपुल्स टू-पीपुल्स की धारा भी रूक जायेगी। पाकिस्तानी -भारतीय मीडिया-बुद्धीजीवियों की जुगलबंदी में भारत सरकार और भारतीय की जनता खलनायक के के रूप में खड़ी है। यहां स्वतंत्र विचारण यह है कि क्या भारत ने इस्लाम को सही में बदनाम किया है? क्या अतीत में किये गये व्यवहारों और निर्दोष भारतीयों को खूनी प्रक्रिया से दग्ध बनाने की पाकिस्तानी नीति से मुंह चुरा लिया जाना चाहिए? भारत की दोस्ती पर पाकिस्तान ने कभी भी सकारात्मक चेहरा क्यों नहीं दिखाया? क्रिकेट को राजनीति से अलग रखने पर जोर दिया जा रहा है पर यह याद भी रखना चाहिए कि जब देश है तभी क्रिकेट है? आपीएल- थ्री के संदेश पर पाकिस्तान समाज और उनके रहनुमाओं को खुद का चेहरा देखना होगा? आतंकवाद, कूटनीति और क्रिकेट साथ-साथ नहीं चल सकता हैै? मजहबी सोच और आतंकवाद से दोस्ती और खुद की बेहत्तर तकदीर नहीं बनायी जा सकती है। इसी मजहबी सोच ने दुनिया में इस्लाम के प्रति कैसी सोच और दहशत फैलायी है यह जगजाहिर ही है। आज पूरी दुनिया में मुस्लिम समाज आतंकवाद के पर्याय हो गये हैं और उन्हें अन्य धार्मिक समूहों से धृणा जैसी बुराइयां भी घायल कर रही हैं।
पीपुल्स टू पीपुल्स टाॅक के विद्वान कौन लोग हैं? क्या ये सही में भारतीयों का प्रतिनिधित्व करते हैं। फैशनपरती और हिन्दुत्व विरोध की इनकी राजनीतिक-कूटनीतिक प्रक्रिया क्या देश के हितों को नुकसान नहीं पहुंचाती है? याद कीजिए पीपुल्स टू पीपुल्स की धारा को । 9/11 की घटना के पूर्व पीपुल्स टू पीपुल्स के योद्धा कुलदीप नैयर बाधा बाॅर्डर पर शांति की मोमबती जलाने जाते थे लेकिन पाकिस्तान की तरफ से शांति की धारा नहीं बहती थी और न ही मोमबती जलाने के लिए बाधा बाॅर्डर पर पाकिस्तानी बुद्धीजीवी और मीडिया के लोग आते थे। कारगिल घुसपैठ हो या फिर इंडियन एयर लाइन्स का विमान अपहरण कांड, किसी पाकिस्तानी खिलाड़ी और बुद्धीजीवियों ने अपनी जबान नहीं खोली थी। उस दौरान पाकिस्तान मीडिया और बुद्धीजीवियो का हीरो तो तालिबान और कश्मीरी आतंकवादी थे। इन्हें लगता था कि तालिबान भारत को तहस-नहस करने और भारत में इस्लाम का झंडा फहराने में पाकिस्तान कामयाब हो जायेगा। इनकी नीयत और जबान 9/11 की घटना ने बदली। अफगानिस्तान में तालिबान के पतन के बाद इनकी नींद टूटी और आतंकवाद व अमेरिका इनके लिए दुश्मन दिखने लगा। फिर शुरू हुई पाकिस्तान के बुद्धीजीवियों और मीडिया की शख्सियों का भारत में पीपुल्स टू पीपुल्स की कूटनीति और राजनीति। यह भी बात उठी है कि इस समय पाकिस्तान खुद आतंकवाद से घिरा हुआ है और उसके अस्तित्व के लिए खतरनाक पहलुू है। इसलिए भारत को पाकिस्तन की मदद करनी चाहिए। लेकिन पाकिस्तान अपनी आतंकवादी नीति और आतंकवादियों को कानूनी संरक्षण देने की प्रक्रिया क्यों नहीं बंद कर रहा है? इस प्रश्न का जवाब पाकिस्तानी पक्ष के खैवनहार भारतीय बुद्धीजीवियों को क्यों नहीं बतलाना चाहिए?
भारत की जनता ने पाकिस्तानी खिलाड़ियों, गायकों, कलाकारों और बुद्धीजीवियों को सर-आंखों पर बैठाया है। दर्जनों पाकिस्तानी गायक मुबंई फिल्म बाजार मंें गुलजार हैं। पाकिस्तान के कई कलाकारो की पहचान तो इसी भारतीय जनता के समर्थन से बनी है। भारतीय टेलीविजन शो में पाकिस्तानी गायकों और हंसोडों को तरजीह और मौका देने में भारतीय जनता ने कभी भी कंजूसी नहीं बरती। पाकिस्तान की मानवाधिकार कार्यकर्ता आस्मा जहांगीर सहित अन्य सभी बुद्धीजीवियों को भारत में न केवल सम्मान मिला है बल्कि समर्थन भी मिला है। क्रिकेट में भी भारत ने काफी नरमी बरती है। कश्मीर में पिछले तीन दशकों से जारी पाकिस्तानी आतंकवाद के बाद भी भारत ने पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेला। मुबंई हमले के बाद भारत ने जरूर अपनी क्रिंकेट नीति की समीक्षा की और पाकिस्तान के साथ क्रिकेट मैचो के आयोजन पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद भी पाकिस्तानी खिलाड़ियों को भारत आते रहे और भारतीय जनता का सम्मान पाते रहे। वसीम अकरम इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। वसीम अकरम शाहरूख खान की कोलकात्ता टीम के गेंदबाजी कोच हैं। उनकी नियुक्ति का कही्र भी विरोध नही हुआ। अकरम की क्र्रिकेट से जुड़ी हुई बयानों और सुझावों की हमेशा से सकरात्मक प्रतिक्रिया होती है।
मजहब का सहारा लेना कोई नयी बात नहीं है। शाहिद अफरीदी का यह कहना कि भारत ने पूरे इस्लाम को बदनाम किया है, यह उसका मजहबी सोच का ही परिणाम है। मजहब के आधार पर क्या कोई भेदभाव हुआ है? क्या आपीएल-थ्री में उन सभी की खरीददारी इसलिए नही हुई कि वे सभी मुसलमान है? अगर यह आधार होता तो क्या वसीम अकरम को आपीएल की कोलकात्ता टीम का गेंदबाजी कोच बनाया जाता? भारत सरकार ने पहले ही यह बता दिया है कि उनकी कोई भूमिका आईपीएल-थ्री की खरीददारी में नहीं रही है। अब यहां सवाल उठता है कि अफरीदी और अन्य खिलाड़ियों ने इस्लाम को बदनाम करने जैसे आरोप क्यों लगाये? इसके निहितार्थ क्या है? पाकिस्तान या अन्य सभी मुस्लिम देशों में मजहब का सहारा लेना आम बात है। मजहब की विसंगतियां उनके सिर पर चढ़कर बोलती है। याद कीजिए जब यूनिस खान के नेतृत्व में पाकिस्तान की टीम भारत आयी थी। उस समय यूनिस खान ने कहा था कि भारत के मुसलमान पाकिस्तान का साथ देंगें। इसलिए कि हम मुसलमान हैं और हमारा मुकाबला हिन्दुओं से है। उस समय भारतीय टीम में जहीर खान, इरफान पठान सहित तीन मुस्लिम थे। सीधेतौर पर अफरीदी के इस मजहब के मोहरे का अर्थ भारतीय मुसलमानों की मजहबी भावनाएं अपने पक्ष में करने की है। ताकि भारत सरकार इसका परिणाम भुगते और भविष्य में ऐसी उपेक्षाओं से तोबा करें। इस्लाम के नाम पर पूरी दुनिया किस तरह की खूनी प्रक्रिया झेल रही है? यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। भारत की जनता ने इस्लाम के नाम पर होने वाली अंतहीन खूनी प्रक्रिया झेली है। इसलिए अफरीदी द्वारा इस्लाम का सहारा लेने से कोई लाभ होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। अफरीदी पाकिस्तान की मजहबी जनता में जहर घोल जरूर दिया है। पाकिस्तानी समाज खुद मजहबी आग में जल रही है। इसलिए ऐसे विचारों से शाहिद अफरीदी पाकिस्तानी समाज का भी भला नहीं करेगें।
पाकिस्तान हमारा कौन सा अच्छा दोस्त है? पाकिस्तान के हिमायती भारतीय बुद्धीजीवियों को यह बताना चाहिए? पिछले तीन दशक से हम पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की कीमत चुका रहे हैं। मुंबई हमले के आतंकवादियो को उसने आज तक सजा नहीं दिया है और न ही उसने भारत की चिंताओं को दूर करने की कोशिश की है। कश्मीर में पहले जैसा ही घुसपैठ और आतंकवाद की प्रक्रिया चल रही हैं। ऐसी स्थिति में पाकिस्तान के साथ दोस्ती का क्या मतलब रह जाता है? पाकिस्तान के गृहमंत्री का यह कहना भी आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों के नहीं चुनने पर भारत को सबक सिखाया जायेगा, हस्यास्पद ही है। पाकिस्तान को पहले अपने घर की चिंता करनी चाहिए। पाकिस्तान को अब समझ में आ ही जाना चाहिए कि आतंकवाद, दोस्ती और क्रिकेट एक साथ नहीं चल सकती है। अब तक पाकिस्तान ने भारत की सत्ता का उदार रूख का फायदा उठाया है। आईपीएल-थ्री विवाद से पाकिस्तान को सबक लेना चाहिए। पाकिस्तानी खिलाड़ियो, कलाकारों, बुद्धीजीवियों को सोचना होगा कि आखिर भारत कब तक अपनी जनता के जीवन की कीमत पर पाकिस्तान के साथ दोस्ती की नीति पर चलेगा?
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Sunday, January 17, 2010
हिन्दू आतंकवाद की प्रत्यारोपित कहानी
राष्ट्र-चिंतन
हिन्दू आतंकवाद की प्रत्यारोपित कहानी
विष्णुगुप्त
हिन्दू धर्म सदियों से धार्मिक हमले झेलते और उत्पीड़ित होते आये हैं। इसके बाद भी पर दूसरी धार्मिक आबादी को शरण देने और विकास-विस्तार के साथ ही साथ फलने-फुलने की आजादी दी है। मुस्लिम आतंकवाद की भयानक त्रासदी और परिणाम बहुसंख्यक समाज ने ही झेला है फिर भी बदले की भावना नहीं पाली।हिन्दू धर्म को राजनीतिक निशाना इसीलिए बनाया जाता है कि ये प्रतिक्रिया वादी नहीं हैं। मुस्लिम समाज की तरह हिन्दू समाज भी प्रकिक्र्रियावादी होते तो गृहमंत्री पी चिदम्बरम की चीभ नहीं चलती। उनकी जीभ जनादेश की राजनीति की धेरेबंदी में मिमियाने लगती।
केन्द्रीय गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने हाल ही में कहा है कि देश में ‘ हिन्दू आतंकवाद‘ की आग भी सुलगायी जा रही है जो राष्ट्रीय एकता के लिए खतरनाक है। आतंकवाद या कोई भी हिंसा मानवजाति के लिए खतरनाक मानी जायेगी। राष्ट्रीय गृहमंत्री ने जिस ‘हिन्दू आतंकवाद‘ का खतरा देख रहे हैं उसका सही अर्थों में कोई अस्तित्व है भी की नहीं? अभी तक हिन्दू आतंकवाद के रूप मात्र दो घटनाएं सामने आयी हैं जिसकी सत्यता पर प्रश्नचिन्ह पहले से ही लगे है और इसमें राजनीतिक दबाव और जनादेश की चिंता से निकली हुई और प्रत्यारोपित हुई घटनाएं ही परिलक्षित हुई है। पहली धटना में साध्वी प्रज्ञा और दूसरी घटना में गोवा में पाटिल नामक की शख्सियत पर ‘हिन्दू आतंकवाद‘ फैलाने के आरोप हैं। गोवा के बम विस्फोट में पाटिल पर अभी न्यायिक प्रक्रिया तेज नहीं हुई है और उसके संलिप्तता पर वर्तमान में कुछ भी कहना मुश्किल हैं। पर साध्वी प्रज्ञा ठाकुर का प्रसंग की सच्चाई अब सामने आ चुकी है। अभी तक कोई ठोस सबूत मिला भी नहीं है। न्यायालय भी सबूतों पर उंगली उठा चुकी है। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की जमानत इसलिए ठहरी हुई है कि उस पर महाराष्ट्र अपराध नियंत्रण कानून लगा हुआ है जो गैर जमानती है और लम्बे समय तक जमानत को प्रतिबंधित करता है। इन दो कथित और मनगढंत संलिप्तता को छोड़कर ऐसी कोई अन्य धटना सामने नहीं आयी है। इसके उपरांत भी राष्ट्रीय गृहमंत्री का ‘हिन्दू आतंकवाद‘ की आग वाली बयान देना खतरनाक है ही इसके अलावा हिन्दू समाज की शांतिप्रियता-संप्रभुता पर गहरी चोट है। जब हमारे गृहमंत्री ही हिन्दू आतंकवाद की बात प्रचारित करेंगे तब पाकिस्तान अन्य विरोधी देश क्या कहेंगे? पाकिस्तान को इसीलिए कहने का मौका मिलता है कि आतंकवाद हम नहीं बल्कि भारत फैला रहा हैं और हिन्दू भी आतंकवादी हैं।
हमारे राष्ट्रीय गृहमंत्री को शायद महाराष्ट्र आतंकवादी विरोधी दस्ते की कारस्तानी याद नहीं है? प्रज्ञा ठाकुर की गिरफ्तारी के बाद महाराष्ट्र आतंकवादी विरोधी दस्ते के प्रमुख हेमंत करकरे दिन-प्रतिदिन नये-नये और आश्चर्यचकित करने वाले तथ्य का रहस्योघाटन कर रहे थे। दस्ते के अनुसार मालेगांव के बम विस्फोट की घटना ही नहीं बल्कि हरियाण में पाकिस्तान जाने वाली ट्रेन में हुए बम विस्फोट और जयपुर में हुए बम विस्फोटों में प्रज्ञा ठाकुर की संलिप्तता थी। प्रज्ञा ठाकुर के सम्पर्को और उनके गिरोह मे शामिल लोगों के बारे में भी थोक के भाव में खुलासा हो रहे थे। मीडिया के लिए हेमंत करकरे और उनकी टीम खबर की खान थी। महाराष्ट्र आतंकवाद विरोधी दस्ते ने मीडिया में जिन तथ्यों और साजिशो का खुलासा की थी आज उसकी सच्चायी कहां गुम हो गयी? पी चिदम्बरम की सरकार उन सच्चाइयों पर चुप क्यों है? न्यायालय में मीडिया में उछाले गये सबूतों और अन्य तथ्यों के साथ साजिश में शामिल अन्य लोगों की भूमिका क्यों नहीं उपस्थित की गयी? महाराष्ट्र आतंकवाद विरोधी दस्ता कितना चुस्त-दुरूस्त था उसका उदाहरण तो मुबंई आतंकवादी हमले के दौरान मिल गया। महाराष्ट्र आतंकवाद विरोधी दस्ते के प्रमुख हेमंत करकरे आतंकवादियों का सामना किये बिना ही आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हो गये। जिस समय मुबंई में आंतकवादी निर्दोष लोगों का निशाना बना रहे थे उस समय हेमंत करकरे आतंकवादियों द्वारा हुए हमले की जगहो पर ऐसे मुआयना कर रहे थे जैसे कोई फिल्मों में शुटिंग की भूमिका निभा रहें हों। बिना वीरता दिखाये ही वे मारे गये। इसके वाबजूद भी हेमंत करकरे को वीरता का ‘अशोक चक्र ‘ क्यों दिया गया? बिना लड़े हुए पुलिस अधिकारी को अशोक चक्र मिलना आजाद भारत की पहली घटना थी। क्या प्रज्ञा ठाकुर को मालेगांव बम विस्फोट कांड में फंसा कर हिन्दुओं को अपमानित करने का पुरस्कार हेमंत करकरे को ‘अशोक चक्र‘ के रूप में मिला था।
सच भी यही था कि हेमंत करकरे केन्द्र व महाराष्ट्र की यूपीए सरकार का मोहरा था। एक पर एक आतंकवादी घटनाओं से यूपीए को दुबारा सत्ता में आने की संभावनाएं कम थी। भारतीय जनता पार्टी आतंकवाद के प्रसंग पर कांग्रेस की घेरेंबंदी कर रखी थी। देश के बहुसंख्यक समाज मे ‘मुस्लिम आतंकवाद‘ को लेकर जबरदस्त नाराजगी थी। नाराजगी इस बात को लेकर भी थी कि कांग्रेस और उनका कुनबा मुस्लिम आतंकवाद पर नियंत्रण को लेकर उदासीनता की नीति ओढ़ रखी है। इसके अलावा कांग्रेस की नीति मुस्लिम मानसिकता को तुष्ट करने की थी। आतंकवाद को लेकर मुस्लिम आबादी पर जिस तरह से हमले तेज हो रहे थे और राजनीतिक बाधताएं टूट रही थीं उस से मुस्लिम समुदाय कांग्रेस की ओर झुक रहा था। पिछले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रख कर भाजपा को लाभार्थी बनने से रोकने की नीति बनी। इसी नीति से ‘हिन्दू आतंकवाद‘ का शगूफा निकला। मालेगांव विस्फोट कांड में प्रज्ञा ठाकुर की संलिप्तता प्रत्यारोपित की गयी। इसका परिणाम यह निकला कि मुस्लिम समुदाय पूरी तरह से कांग्रेस के पक्ष में खड़ा हो गया। हिन्दू समुदाय में भी भाजपा और हिन्दूवादी संगठनों के खिलाफ बदनाम करने की राजनीतिक प्रक्रिया चलायी गयी। यह स्थापित करने में कांग्रेस को सफलता मिली कि देश में ‘हिन्दू आतंकवाद‘ का फैलाव तेजी से हो रहा है। जाहिरतौर पर इससे हिन्दुओ की शांतिप्रियता और संप्रभुता की खिल्ली उड़ायी गयी। इसी कारण पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा का आतंकवाद का मुद्दा नहीं चला और कांग्रेस अप्रत्याशित ढंग से सत्ता में आ गयी।
सबसे ज्यादा चिंतित और राष्ट्रहित को तिलांजलि देने जैसी प्रक्रिया पाकिस्तान जाने वाली ट्रेन में प्रज्ञा ठाकुर द्वारा किये गये बम विस्फोट की झूठी और प्रत्यारोपित खबर उड़ाने की थी। इसका असर कैसा हुआ। यह जानना भी जरूरी है। पाकिस्तान को मौका मिला। पाकिस्तान ने कहना शुरू कर दिया कि ट्रेन में विस्फोट कर पाकिस्तानी नागरिकों की हत्या करने वाले हिन्दू आतंकवादियो को हमें सौंपो। तभी हम मुबंई आतंकवादी हमले में शामिल पाकिस्तानी नागरिकों पर कार्रवाई करने की बात सोचेंगे? पाकिस्तान ने दुनिया में यह स्थापित करने की पूरी कोशिश की कि ‘हिन्दू‘ भी आतंकवादी है और भारत मे हिन्दू आतंकवादियों के सफाये के लिए विश्व समुदाया को सैनिक अभियान चलाना चाहिए। आखिर पाकिस्तान को मौका तो भारत ने ही दिया। राष्ट्रीय हितों को लेकर ियूपीए सरकार कितना गंभीर है? इसका एक उदाहरण सर्वश्रेष्ठ है। भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मिश्र में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री गिलानी के साथ समर्ग वार्ता में यह मानलिया कि पाकिस्तान के अराजक-अशांत क्षेत्रो में आतंकवाद के विस्तार में भारत की भूमिका है। इस भूल के उजागर होने पर मनमोहन सिंह को न फजीहत झेलनी पड़ी बल्कि झूठ पर झूठ बोलना पड़ा।
हिन्दू समाज स्वभाव से शांति प्रिय हैं। दूसरे धर्म की संप्रभुता का आदर और सम्मान हिन्दू धर्म की विश्ेाषता रही हैं। हिन्दू धर्म सदियों से धार्मिक हमले झेलते और उत्पीड़ित होते आये हैं। इसके बाद भी दूसरी धार्मिक आबादी को शरण देने और विकास-विस्तार के साथ ही साथ फलने-फुलने की आजादी दी है। मुस्लिम आतंकवाद की भयानक त्रासदी और परिणाम बहुसंख्यक समाज ने ही झेला है फिर भी बदले की भावना नहीं पाली। कश्मीर में मुस्लिम आतंकवादियों ने पांच लाख हिन्दुओं को पलायन करने के लिए मजबूर किया। यह सब हिन्दू धर्म की शांतिप्रियता के उदाहरण हैं। हिन्दू आतंकवाद की कहानी मनगढंत और प्रत्यारोपित है। मात्र दो घटनाओं को आधार मानकर हिन्दू आतंकवाद की आग सुलगने जैसे बयान या फिर राजनीतिक प्रक्रिया को गति देना खतरनाक है। इन दोनों घटनाओ की सच्चाई भी सामने आ चुकी है। हिन्दू धर्म को राजनीतिक निशाना इसीलिए बनाया जाता है कि ये प्रतिक्रिया वादी नहीं हैं। मुस्लिम समाज की तरह हिन्दू समाज भी प्रकिक्र्रियावादी होते तो गृहमंत्री पी चिदम्बरम की चीभ नहीं चलती। उनकी जीभ वोट की राजनीति की धेरेबंदी में मिमियाने लगती।
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हिन्दू आतंकवाद की प्रत्यारोपित कहानी
विष्णुगुप्त
हिन्दू धर्म सदियों से धार्मिक हमले झेलते और उत्पीड़ित होते आये हैं। इसके बाद भी पर दूसरी धार्मिक आबादी को शरण देने और विकास-विस्तार के साथ ही साथ फलने-फुलने की आजादी दी है। मुस्लिम आतंकवाद की भयानक त्रासदी और परिणाम बहुसंख्यक समाज ने ही झेला है फिर भी बदले की भावना नहीं पाली।हिन्दू धर्म को राजनीतिक निशाना इसीलिए बनाया जाता है कि ये प्रतिक्रिया वादी नहीं हैं। मुस्लिम समाज की तरह हिन्दू समाज भी प्रकिक्र्रियावादी होते तो गृहमंत्री पी चिदम्बरम की चीभ नहीं चलती। उनकी जीभ जनादेश की राजनीति की धेरेबंदी में मिमियाने लगती।
केन्द्रीय गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने हाल ही में कहा है कि देश में ‘ हिन्दू आतंकवाद‘ की आग भी सुलगायी जा रही है जो राष्ट्रीय एकता के लिए खतरनाक है। आतंकवाद या कोई भी हिंसा मानवजाति के लिए खतरनाक मानी जायेगी। राष्ट्रीय गृहमंत्री ने जिस ‘हिन्दू आतंकवाद‘ का खतरा देख रहे हैं उसका सही अर्थों में कोई अस्तित्व है भी की नहीं? अभी तक हिन्दू आतंकवाद के रूप मात्र दो घटनाएं सामने आयी हैं जिसकी सत्यता पर प्रश्नचिन्ह पहले से ही लगे है और इसमें राजनीतिक दबाव और जनादेश की चिंता से निकली हुई और प्रत्यारोपित हुई घटनाएं ही परिलक्षित हुई है। पहली धटना में साध्वी प्रज्ञा और दूसरी घटना में गोवा में पाटिल नामक की शख्सियत पर ‘हिन्दू आतंकवाद‘ फैलाने के आरोप हैं। गोवा के बम विस्फोट में पाटिल पर अभी न्यायिक प्रक्रिया तेज नहीं हुई है और उसके संलिप्तता पर वर्तमान में कुछ भी कहना मुश्किल हैं। पर साध्वी प्रज्ञा ठाकुर का प्रसंग की सच्चाई अब सामने आ चुकी है। अभी तक कोई ठोस सबूत मिला भी नहीं है। न्यायालय भी सबूतों पर उंगली उठा चुकी है। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की जमानत इसलिए ठहरी हुई है कि उस पर महाराष्ट्र अपराध नियंत्रण कानून लगा हुआ है जो गैर जमानती है और लम्बे समय तक जमानत को प्रतिबंधित करता है। इन दो कथित और मनगढंत संलिप्तता को छोड़कर ऐसी कोई अन्य धटना सामने नहीं आयी है। इसके उपरांत भी राष्ट्रीय गृहमंत्री का ‘हिन्दू आतंकवाद‘ की आग वाली बयान देना खतरनाक है ही इसके अलावा हिन्दू समाज की शांतिप्रियता-संप्रभुता पर गहरी चोट है। जब हमारे गृहमंत्री ही हिन्दू आतंकवाद की बात प्रचारित करेंगे तब पाकिस्तान अन्य विरोधी देश क्या कहेंगे? पाकिस्तान को इसीलिए कहने का मौका मिलता है कि आतंकवाद हम नहीं बल्कि भारत फैला रहा हैं और हिन्दू भी आतंकवादी हैं।
हमारे राष्ट्रीय गृहमंत्री को शायद महाराष्ट्र आतंकवादी विरोधी दस्ते की कारस्तानी याद नहीं है? प्रज्ञा ठाकुर की गिरफ्तारी के बाद महाराष्ट्र आतंकवादी विरोधी दस्ते के प्रमुख हेमंत करकरे दिन-प्रतिदिन नये-नये और आश्चर्यचकित करने वाले तथ्य का रहस्योघाटन कर रहे थे। दस्ते के अनुसार मालेगांव के बम विस्फोट की घटना ही नहीं बल्कि हरियाण में पाकिस्तान जाने वाली ट्रेन में हुए बम विस्फोट और जयपुर में हुए बम विस्फोटों में प्रज्ञा ठाकुर की संलिप्तता थी। प्रज्ञा ठाकुर के सम्पर्को और उनके गिरोह मे शामिल लोगों के बारे में भी थोक के भाव में खुलासा हो रहे थे। मीडिया के लिए हेमंत करकरे और उनकी टीम खबर की खान थी। महाराष्ट्र आतंकवाद विरोधी दस्ते ने मीडिया में जिन तथ्यों और साजिशो का खुलासा की थी आज उसकी सच्चायी कहां गुम हो गयी? पी चिदम्बरम की सरकार उन सच्चाइयों पर चुप क्यों है? न्यायालय में मीडिया में उछाले गये सबूतों और अन्य तथ्यों के साथ साजिश में शामिल अन्य लोगों की भूमिका क्यों नहीं उपस्थित की गयी? महाराष्ट्र आतंकवाद विरोधी दस्ता कितना चुस्त-दुरूस्त था उसका उदाहरण तो मुबंई आतंकवादी हमले के दौरान मिल गया। महाराष्ट्र आतंकवाद विरोधी दस्ते के प्रमुख हेमंत करकरे आतंकवादियों का सामना किये बिना ही आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हो गये। जिस समय मुबंई में आंतकवादी निर्दोष लोगों का निशाना बना रहे थे उस समय हेमंत करकरे आतंकवादियों द्वारा हुए हमले की जगहो पर ऐसे मुआयना कर रहे थे जैसे कोई फिल्मों में शुटिंग की भूमिका निभा रहें हों। बिना वीरता दिखाये ही वे मारे गये। इसके वाबजूद भी हेमंत करकरे को वीरता का ‘अशोक चक्र ‘ क्यों दिया गया? बिना लड़े हुए पुलिस अधिकारी को अशोक चक्र मिलना आजाद भारत की पहली घटना थी। क्या प्रज्ञा ठाकुर को मालेगांव बम विस्फोट कांड में फंसा कर हिन्दुओं को अपमानित करने का पुरस्कार हेमंत करकरे को ‘अशोक चक्र‘ के रूप में मिला था।
सच भी यही था कि हेमंत करकरे केन्द्र व महाराष्ट्र की यूपीए सरकार का मोहरा था। एक पर एक आतंकवादी घटनाओं से यूपीए को दुबारा सत्ता में आने की संभावनाएं कम थी। भारतीय जनता पार्टी आतंकवाद के प्रसंग पर कांग्रेस की घेरेंबंदी कर रखी थी। देश के बहुसंख्यक समाज मे ‘मुस्लिम आतंकवाद‘ को लेकर जबरदस्त नाराजगी थी। नाराजगी इस बात को लेकर भी थी कि कांग्रेस और उनका कुनबा मुस्लिम आतंकवाद पर नियंत्रण को लेकर उदासीनता की नीति ओढ़ रखी है। इसके अलावा कांग्रेस की नीति मुस्लिम मानसिकता को तुष्ट करने की थी। आतंकवाद को लेकर मुस्लिम आबादी पर जिस तरह से हमले तेज हो रहे थे और राजनीतिक बाधताएं टूट रही थीं उस से मुस्लिम समुदाय कांग्रेस की ओर झुक रहा था। पिछले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रख कर भाजपा को लाभार्थी बनने से रोकने की नीति बनी। इसी नीति से ‘हिन्दू आतंकवाद‘ का शगूफा निकला। मालेगांव विस्फोट कांड में प्रज्ञा ठाकुर की संलिप्तता प्रत्यारोपित की गयी। इसका परिणाम यह निकला कि मुस्लिम समुदाय पूरी तरह से कांग्रेस के पक्ष में खड़ा हो गया। हिन्दू समुदाय में भी भाजपा और हिन्दूवादी संगठनों के खिलाफ बदनाम करने की राजनीतिक प्रक्रिया चलायी गयी। यह स्थापित करने में कांग्रेस को सफलता मिली कि देश में ‘हिन्दू आतंकवाद‘ का फैलाव तेजी से हो रहा है। जाहिरतौर पर इससे हिन्दुओ की शांतिप्रियता और संप्रभुता की खिल्ली उड़ायी गयी। इसी कारण पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा का आतंकवाद का मुद्दा नहीं चला और कांग्रेस अप्रत्याशित ढंग से सत्ता में आ गयी।
सबसे ज्यादा चिंतित और राष्ट्रहित को तिलांजलि देने जैसी प्रक्रिया पाकिस्तान जाने वाली ट्रेन में प्रज्ञा ठाकुर द्वारा किये गये बम विस्फोट की झूठी और प्रत्यारोपित खबर उड़ाने की थी। इसका असर कैसा हुआ। यह जानना भी जरूरी है। पाकिस्तान को मौका मिला। पाकिस्तान ने कहना शुरू कर दिया कि ट्रेन में विस्फोट कर पाकिस्तानी नागरिकों की हत्या करने वाले हिन्दू आतंकवादियो को हमें सौंपो। तभी हम मुबंई आतंकवादी हमले में शामिल पाकिस्तानी नागरिकों पर कार्रवाई करने की बात सोचेंगे? पाकिस्तान ने दुनिया में यह स्थापित करने की पूरी कोशिश की कि ‘हिन्दू‘ भी आतंकवादी है और भारत मे हिन्दू आतंकवादियों के सफाये के लिए विश्व समुदाया को सैनिक अभियान चलाना चाहिए। आखिर पाकिस्तान को मौका तो भारत ने ही दिया। राष्ट्रीय हितों को लेकर ियूपीए सरकार कितना गंभीर है? इसका एक उदाहरण सर्वश्रेष्ठ है। भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मिश्र में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री गिलानी के साथ समर्ग वार्ता में यह मानलिया कि पाकिस्तान के अराजक-अशांत क्षेत्रो में आतंकवाद के विस्तार में भारत की भूमिका है। इस भूल के उजागर होने पर मनमोहन सिंह को न फजीहत झेलनी पड़ी बल्कि झूठ पर झूठ बोलना पड़ा।
हिन्दू समाज स्वभाव से शांति प्रिय हैं। दूसरे धर्म की संप्रभुता का आदर और सम्मान हिन्दू धर्म की विश्ेाषता रही हैं। हिन्दू धर्म सदियों से धार्मिक हमले झेलते और उत्पीड़ित होते आये हैं। इसके बाद भी दूसरी धार्मिक आबादी को शरण देने और विकास-विस्तार के साथ ही साथ फलने-फुलने की आजादी दी है। मुस्लिम आतंकवाद की भयानक त्रासदी और परिणाम बहुसंख्यक समाज ने ही झेला है फिर भी बदले की भावना नहीं पाली। कश्मीर में मुस्लिम आतंकवादियों ने पांच लाख हिन्दुओं को पलायन करने के लिए मजबूर किया। यह सब हिन्दू धर्म की शांतिप्रियता के उदाहरण हैं। हिन्दू आतंकवाद की कहानी मनगढंत और प्रत्यारोपित है। मात्र दो घटनाओं को आधार मानकर हिन्दू आतंकवाद की आग सुलगने जैसे बयान या फिर राजनीतिक प्रक्रिया को गति देना खतरनाक है। इन दोनों घटनाओ की सच्चाई भी सामने आ चुकी है। हिन्दू धर्म को राजनीतिक निशाना इसीलिए बनाया जाता है कि ये प्रतिक्रिया वादी नहीं हैं। मुस्लिम समाज की तरह हिन्दू समाज भी प्रकिक्र्रियावादी होते तो गृहमंत्री पी चिदम्बरम की चीभ नहीं चलती। उनकी जीभ वोट की राजनीति की धेरेबंदी में मिमियाने लगती।
मोबाइल - 09968997060
आतंकवाद की तीसरी शरणस्थली
आतंकवाद की तीसरी शरणस्थली
विष्णुगुप्त
पाकिस्तान, अफगानिस्तान के बाद अब अरब देश ‘यमन‘ आतंकवाद का नया घर बन गया है। पश्चिमी मीडिया का कहना है कि अलकायदा ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान में ‘नाटो‘ सैनिकों के हमले से आक्रांत होकर अरब देश ‘यमन‘ में अपनी शरण स्थली बनायी हैं। दुनिया भर में आतंकवादी हमले की साजिश यमन से ही रची जा रही है। ब्रिटेन ने साफतौर पर कहा है कि ‘यमन‘ एक विफल देश बनने की ओर बढ़ रहा है। ब्रिटेन यमन को हर साल दस करोड़ डालर की सहायता देता है और पिछले कई सालों से आतंकवाद से लड़ने के लिए यमन के सैनिकों को प्रशिक्षित भी कर रहा था। अमेरिका ने अलकायदा के हमलों के डर से यमन स्थित अपना दूतावासा बंद कर दिया है और अपने नागरिको को यमन छोड़ने का भी फरमान थमा दिया है। कुछ दिन पूर्व ही सोमालिया का आतंकवादी संगठन ‘अल सबाब‘ ने यमन में अलकायदा की मदद करने की घोषणा की थी। अभी हाल ही में अमेरिकी विमान को उड़ाने का प्रयास कर रहा नाइजिरियाई मुस्लिम युवक ‘अब्दुल मुतालब‘ की ट्रैनिंग यमन में ही हुई थी। अब विश्व समुदाय को यमन में आतंकवाद के दमन के लिए जुझना पड़ेगा। क्या अमेरिका-ब्रिटेन यमन में भी अलकायदा के खिलाफ एक और जंग छेडेंगे? इसकी पृष्ठभूमि बन ही रही है।
अरब देशों मे यमन सर्वाधिक निर्धन देश है। निर्धनता आतंकवादी संगठनों का एक बड़ा बाजार है। बेकार-बेरोजगार युवकों को आतंकवादी गतिविधियों की मानसिकता से आसानी से जोड़ लेते हैं। अलकायदा ने यमन की गरीबी का लाभ उठा कर यमन मे अपना नेटवर्क कायम किया है। अलकायदा के बडे-बड़े सरगना यमन में ही शरण लिये हुए हैं और यमन की आबादी उनके लिए रक्षा कवच है। इसलिए कि 9/11 की धटना के बाद अलकायदा सहित अन्य सभी आतंकवादी संगठन भूमिगत आतंकवादी गतिविधयों की नीति अपना रखी है। उन्हें यह मालूम हो गया है कि उनकी ‘ओपेन सक्रियता‘ अमेरिकी हमलों से दग्ध हो सकती है। अफगानिस्तान में तालिबान सत्ता के कब्जा के बाद अधिकतर तालिबानी और अलकायदा के आतंकवादी पाकिस्तान के कबिलायी क्षेत्रों मे जाकर छिप गये गये थे। फिलहाल अमेरिका-पाकिस्तान मिलकर अलकायदा और तालिबान के खिलाफ सैनिक अभियान चला रहे हैं। अमेरिकी लड़ाकू विमानों ने पाकिस्तान के कबिलायी इलाकों में अलकायदा-तालिबान को जबरदस्त क्षति पहुंचायी है। अमेरिकी हमलो के डर से अलकायदा और तालिबान ने यमन को अपना नया घर चुना है।
अरब आबादी में अलकायदा और अन्य आतंकवादी संगठनों को वैचारिक संरक्षण मिलता है। मजहब के नाम पर आतंकवादी संगठनों की हिंसक और खूनी आतंकवादी कार्रवाइयों का व्यापक समर्थन भी मिलता है। सरकारें भी आतंकवादी मानसिकता के प्रचार-प्रसार रोकने की जगह प्रोत्साहन की प्रक्रिया चलाती हैं। अभी हाल ही ईरान ने इस्लामिक संगठनों के लिए करोड़ो डालर की वित्तीय सहायता की घोषणा की है जो अमेरिका के खिलाफ विश्व भर में मुहिम चलाती है। जाहिरतौर पर ईरान द्वारा घोषित वित्तीय सहायता आतंकवादी संगठनों के पास ही जायेगा। गरीब मुस्लिम देशों की वित्तीय सहायता करने की इनकी इच्छा होती नहीं पर इस्लाम के नाम फैले चरमपंथी संगठनों की सहायता करने में अरब देश जरूर आगे होते हैं। हमास का उदाहरण देख लें। हमास फिलिस्तीन का आतंकवादी संगठन है। सउदी अरब और ईरान जैसे मुस्लिम देश हमास को आतंकवाद की पाठशाला चलाने के लिए प्रतिवर्ष करोड़ों डालर की सहायता देते हैं पर गरीब फिलिस्तीन की आबादी की बेहतरी इनकी नीति से बाहर है। पश्चिमी देशों की आर्थिक सहायता पर ही फिलिस्तिनियों का चुल्हा जलता है।
यमन में अफ्रीकी देशों के मुस्लिम आतंकवादी संगठनों का नेटवर्क खतरनाक ढ़ंग से जुड़ा है। सोमालिया का आतंकवादी संगठन ‘ अल सबाब ‘ ने हाल ही में घोषणा की थी कि वह अफ्रीकी महासंघ की सीमा लांघ कर अरब में अलकायदा के साथ मिलकर जेहाद करेगा और उसका केन्द्र यमन होगा। ‘अल सबाब‘ की यह घोषणा दुनिया की शांति के लिए खतरे की घंटी थी। इसलिए कि ‘अल सबाब‘ अफ्रीका में अलकायदा से भी खतरनाक आतंकवादी संगठन है। संधर्षरत सोमालिया के बड़े भूभाग पर ‘अल सबाब‘ का कब्जा है। उसने अन्य अफ्रीकी मुस्लिम देश नाईजीरिया, युगांडा, आदि देशों में भी जेहाद के नाम पर खूनी आतंकवादी गतिविधियां चला रखा है। अफ्रीका भूभाग में निर्धनता पसरी हुई है। इस्लामिक संधर्ष का परिणाम यह निकला कि अफ्रीका में आजीविका का मुख्य आधार लूट-हत्या हो गयी। सोमालिया डाकूओं ने समुद्र में किस प्रकार भय-अपहरण का बाजार बनाया है? यह भी जगजाहिर है।
जिस नाइजीरियाई मुस्लिम आतंकवादी ‘अब्दुल मुतालब‘ ने अमेरिकी विमान को उड़ाने की कोशिश की थी और विस्फोटक सामग्री विमान में ले जाने मे कामयाब हुआ था उसकी आतंकवादी ट्रैनिंग ‘यमन‘ में ही हुई थी। अलकायदा के निशाने पर सिर्फ अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश नहीं है। बल्कि भारत,डेनमार्क और नार्वे जैसे देश हैं। डेनमार्क का कार्टून प्रकरण से अलकायदा आगबबुला है और इसका परिणाम वह दुनिया को बताना चाहता है। कुछ दिन पूर्व ही डेनमार्क में कार्टून बनाने वाले कार्टूनिस्ट के धर पर एक अफ्रीकी मुस्लिम युवक ने हमला करने की कोशिश की थी जिसे सुरक्षा बलो ने घायल कर पकड़ लिया था। अब्दुल मुतालब की गिरफ्तारी और खुलासे के बाद अमेरिका यमन को लेकर खासतौर पर चिंतित है।
यमन एक विफल देश की ओर तेजी से बढ़ रहा हैं। ब्रिटेन के संसदीय ग्रुप के उप सभापति मार्क प्रिटचर्ड का साफ कहना है कि यमन की स्थिति अफगानिस्तान और पाकिस्तान जैसी ही होती जा रही है। आतंकवाद के दमन के लिए ब्रिटेन प्रतिवर्ष दस करोड़ डालर वित्तीय सहायता देता है और प्रशिाक्षण भी देता रहा है। यमन की सरकार का कहना है कि आतंकवादी संगठनों से लड़ने के लिए उसे और वित्तीय सहायता सहित हथियार भी चाहिए। अफगानिस्तान, पाकिस्तान के बाद यमन का आतंकवाद का शरणस्थली के तौर पर आना दुनिया में शांति और सदभाव के लिए खतरे की घंटी है। दुनिया को अब यमन में आतंकवाद के दमन पर जुझना होगा।
मोबाइल - 09968997060
विष्णुगुप्त
पाकिस्तान, अफगानिस्तान के बाद अब अरब देश ‘यमन‘ आतंकवाद का नया घर बन गया है। पश्चिमी मीडिया का कहना है कि अलकायदा ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान में ‘नाटो‘ सैनिकों के हमले से आक्रांत होकर अरब देश ‘यमन‘ में अपनी शरण स्थली बनायी हैं। दुनिया भर में आतंकवादी हमले की साजिश यमन से ही रची जा रही है। ब्रिटेन ने साफतौर पर कहा है कि ‘यमन‘ एक विफल देश बनने की ओर बढ़ रहा है। ब्रिटेन यमन को हर साल दस करोड़ डालर की सहायता देता है और पिछले कई सालों से आतंकवाद से लड़ने के लिए यमन के सैनिकों को प्रशिक्षित भी कर रहा था। अमेरिका ने अलकायदा के हमलों के डर से यमन स्थित अपना दूतावासा बंद कर दिया है और अपने नागरिको को यमन छोड़ने का भी फरमान थमा दिया है। कुछ दिन पूर्व ही सोमालिया का आतंकवादी संगठन ‘अल सबाब‘ ने यमन में अलकायदा की मदद करने की घोषणा की थी। अभी हाल ही में अमेरिकी विमान को उड़ाने का प्रयास कर रहा नाइजिरियाई मुस्लिम युवक ‘अब्दुल मुतालब‘ की ट्रैनिंग यमन में ही हुई थी। अब विश्व समुदाय को यमन में आतंकवाद के दमन के लिए जुझना पड़ेगा। क्या अमेरिका-ब्रिटेन यमन में भी अलकायदा के खिलाफ एक और जंग छेडेंगे? इसकी पृष्ठभूमि बन ही रही है।
अरब देशों मे यमन सर्वाधिक निर्धन देश है। निर्धनता आतंकवादी संगठनों का एक बड़ा बाजार है। बेकार-बेरोजगार युवकों को आतंकवादी गतिविधियों की मानसिकता से आसानी से जोड़ लेते हैं। अलकायदा ने यमन की गरीबी का लाभ उठा कर यमन मे अपना नेटवर्क कायम किया है। अलकायदा के बडे-बड़े सरगना यमन में ही शरण लिये हुए हैं और यमन की आबादी उनके लिए रक्षा कवच है। इसलिए कि 9/11 की धटना के बाद अलकायदा सहित अन्य सभी आतंकवादी संगठन भूमिगत आतंकवादी गतिविधयों की नीति अपना रखी है। उन्हें यह मालूम हो गया है कि उनकी ‘ओपेन सक्रियता‘ अमेरिकी हमलों से दग्ध हो सकती है। अफगानिस्तान में तालिबान सत्ता के कब्जा के बाद अधिकतर तालिबानी और अलकायदा के आतंकवादी पाकिस्तान के कबिलायी क्षेत्रों मे जाकर छिप गये गये थे। फिलहाल अमेरिका-पाकिस्तान मिलकर अलकायदा और तालिबान के खिलाफ सैनिक अभियान चला रहे हैं। अमेरिकी लड़ाकू विमानों ने पाकिस्तान के कबिलायी इलाकों में अलकायदा-तालिबान को जबरदस्त क्षति पहुंचायी है। अमेरिकी हमलो के डर से अलकायदा और तालिबान ने यमन को अपना नया घर चुना है।
अरब आबादी में अलकायदा और अन्य आतंकवादी संगठनों को वैचारिक संरक्षण मिलता है। मजहब के नाम पर आतंकवादी संगठनों की हिंसक और खूनी आतंकवादी कार्रवाइयों का व्यापक समर्थन भी मिलता है। सरकारें भी आतंकवादी मानसिकता के प्रचार-प्रसार रोकने की जगह प्रोत्साहन की प्रक्रिया चलाती हैं। अभी हाल ही ईरान ने इस्लामिक संगठनों के लिए करोड़ो डालर की वित्तीय सहायता की घोषणा की है जो अमेरिका के खिलाफ विश्व भर में मुहिम चलाती है। जाहिरतौर पर ईरान द्वारा घोषित वित्तीय सहायता आतंकवादी संगठनों के पास ही जायेगा। गरीब मुस्लिम देशों की वित्तीय सहायता करने की इनकी इच्छा होती नहीं पर इस्लाम के नाम फैले चरमपंथी संगठनों की सहायता करने में अरब देश जरूर आगे होते हैं। हमास का उदाहरण देख लें। हमास फिलिस्तीन का आतंकवादी संगठन है। सउदी अरब और ईरान जैसे मुस्लिम देश हमास को आतंकवाद की पाठशाला चलाने के लिए प्रतिवर्ष करोड़ों डालर की सहायता देते हैं पर गरीब फिलिस्तीन की आबादी की बेहतरी इनकी नीति से बाहर है। पश्चिमी देशों की आर्थिक सहायता पर ही फिलिस्तिनियों का चुल्हा जलता है।
यमन में अफ्रीकी देशों के मुस्लिम आतंकवादी संगठनों का नेटवर्क खतरनाक ढ़ंग से जुड़ा है। सोमालिया का आतंकवादी संगठन ‘ अल सबाब ‘ ने हाल ही में घोषणा की थी कि वह अफ्रीकी महासंघ की सीमा लांघ कर अरब में अलकायदा के साथ मिलकर जेहाद करेगा और उसका केन्द्र यमन होगा। ‘अल सबाब‘ की यह घोषणा दुनिया की शांति के लिए खतरे की घंटी थी। इसलिए कि ‘अल सबाब‘ अफ्रीका में अलकायदा से भी खतरनाक आतंकवादी संगठन है। संधर्षरत सोमालिया के बड़े भूभाग पर ‘अल सबाब‘ का कब्जा है। उसने अन्य अफ्रीकी मुस्लिम देश नाईजीरिया, युगांडा, आदि देशों में भी जेहाद के नाम पर खूनी आतंकवादी गतिविधियां चला रखा है। अफ्रीका भूभाग में निर्धनता पसरी हुई है। इस्लामिक संधर्ष का परिणाम यह निकला कि अफ्रीका में आजीविका का मुख्य आधार लूट-हत्या हो गयी। सोमालिया डाकूओं ने समुद्र में किस प्रकार भय-अपहरण का बाजार बनाया है? यह भी जगजाहिर है।
जिस नाइजीरियाई मुस्लिम आतंकवादी ‘अब्दुल मुतालब‘ ने अमेरिकी विमान को उड़ाने की कोशिश की थी और विस्फोटक सामग्री विमान में ले जाने मे कामयाब हुआ था उसकी आतंकवादी ट्रैनिंग ‘यमन‘ में ही हुई थी। अलकायदा के निशाने पर सिर्फ अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश नहीं है। बल्कि भारत,डेनमार्क और नार्वे जैसे देश हैं। डेनमार्क का कार्टून प्रकरण से अलकायदा आगबबुला है और इसका परिणाम वह दुनिया को बताना चाहता है। कुछ दिन पूर्व ही डेनमार्क में कार्टून बनाने वाले कार्टूनिस्ट के धर पर एक अफ्रीकी मुस्लिम युवक ने हमला करने की कोशिश की थी जिसे सुरक्षा बलो ने घायल कर पकड़ लिया था। अब्दुल मुतालब की गिरफ्तारी और खुलासे के बाद अमेरिका यमन को लेकर खासतौर पर चिंतित है।
यमन एक विफल देश की ओर तेजी से बढ़ रहा हैं। ब्रिटेन के संसदीय ग्रुप के उप सभापति मार्क प्रिटचर्ड का साफ कहना है कि यमन की स्थिति अफगानिस्तान और पाकिस्तान जैसी ही होती जा रही है। आतंकवाद के दमन के लिए ब्रिटेन प्रतिवर्ष दस करोड़ डालर वित्तीय सहायता देता है और प्रशिाक्षण भी देता रहा है। यमन की सरकार का कहना है कि आतंकवादी संगठनों से लड़ने के लिए उसे और वित्तीय सहायता सहित हथियार भी चाहिए। अफगानिस्तान, पाकिस्तान के बाद यमन का आतंकवाद का शरणस्थली के तौर पर आना दुनिया में शांति और सदभाव के लिए खतरे की घंटी है। दुनिया को अब यमन में आतंकवाद के दमन पर जुझना होगा।
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कश्मीर की स्वायत्तता या फिर भारत विखंडन की नींव
राष्ट्र-चिंतन
कश्मीर की स्वायत्तता या फिर भारत विखंडन की नींव
विष्णुगुप्त
कश्मीर समस्या की बात जब होती है तब लद्दाख और जम्मू की आबादी के जनमत को क्यों नहीं शामिल किया जाता है? बोड़ो लैंड, नागालैंड, ग्रेटर मिजोरम, झारखंडमें कोल्हान जैसे आंदोलन चल रहे हैं जिन्हें भारतीय राष्ट्रव्यवस्था से इत्तर देश चाहिए। राष्ट्र में महाराष्ट्र की चिंतानी राजनीति की आग भी धधक रही है। ऐसे मे कश्मीर की स्वायत्तता क्या भारत विखंडन की प्रक्रिया नहीं चलायेगी? इस खतरे पर राजनीतिक भूचाल की जरूरत थी। लगातार जीतों से कांग्रेस अंहकारी हो गयी है। इसीलिए राष्ट्र की अस्मिता की चिंता उसकी है ही नहीं।
‘कश्मीर समस्या‘ जवाहर लाल नेहरू की व्यक्तिगत पाप की गठरी है। ‘लैडी लार्ड मांउटबैटन‘ की प्यार में पागल जवाहर लाल नेहरू लार्ड माउंडबैटन की हर बात-हर इच्छा को राष्ट्र की अस्मिता व सुरक्षा ही नहीं बल्कि एकता व अखंडता से उपर समझते थे। इसका विवादहीन उदाहरण कश्मीर की समस्या है। सरदार पटेल का हाथ कौन बांधा था ? जब ‘कश्मीर‘ को हड़पने के लिए कबायलियों की वेश में पाकिस्तानी सेना कश्मीर में धुसी थी तब सरदार पटेल तत्काल भारतीय सेना कश्मीर की घाटियों में उतारना चाहते थे। लेकिन नेहरू-लार्ड माउंटबैटन की जोड़ी ने अड़गा डाली। पाकिस्तानी सेना श्रीनगर के पास तक पहुच गयी तब नेहरू की नींद टूटी और सरदार पटेल की बात मानी गयी। भारतीय सेना श्रीनगर पहुंच कर पाकिस्तानी सेना को श्रीनगर के पास से खदेड़ा। भारतीय सेना और सरदार पटेल की इच्छा पूरे कश्मीर से पाकिस्तानी सैनिकों की खदेड़ने की थी लेकिन लार्ड माउंटबैटन की सलाह पर जवाहर लाल नेहरू ने सरदार पटेल की इच्छा और भारतीय सैनिकों के हाथों में बैडिंया पहना दी। जिसका परिणाम यह निकला कि गुलाम कश्मीर के रूप में पाकिस्तान आधा कश्मीर को हड़पने मे कामयाब रहा। लार्ड माउंटबैटन की सलाह पर नेहरू कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले गये। संयुक्त राष्ट्र संघ ने जनमत संग्रह की सलाह दी थी जिसे पाकिस्तान ने ठुकरा दिया। उस समय कश्मीर की आबादी भारतीय पक्ष की इच्छाधारी थी और राजा हरि सिंह ने अपने कश्मीर रियासत को दबावविहीन भारत मे विलय किया था।
कश्मीर पर नेहरू की यह नीति राष्ट्र की अस्मिता पर कैसी छूरी चलायी है, यह भी जगजाहिर है। एक देश दो संविधान और दो व्यवस्था की नींव डाली गयी थी। श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान ने नेहरू की इस प्रपंच व राष्ट्रीय अस्मिता को तार-तार करने वाली नीति को जमींदोज किया था। शेख अब्दुला ने भारतीय संविधान में विश्वसा व्यक्त किया। तब से आज तक कश्मीर का शासन व्यवस्था भारतीय संविधान और कानून से चलता आया है। पाकिस्तान ने यह समझ लिया कि युद्ध या मजहबी आक्रोश भी भड़का कर कश्मीर को हड़पना आसान नहीं है। इसलिए उसने प्रपंच और आतंकवाद की राजनीति कश्मीर में परोसी। कश्मीरी पंडितों को जबरन धाटी से पलायन करने या फिर इस्लाम स्वीकार करने का रास्ता दिया गया। दोनों विकल्पों में से किसी का भी चयन नहीं करने पर गोली खाने का तीसरा विकल्प भी मिला। परिणाम यह निकला कि ‘कश्मीरी पंडित‘ घाटी छोड़ने में ही अपने आप को सुरक्षित समझे। भारतीय सत्ता व्यवस्था की उदासीनता और कमजोर नीति का लाभ पाकिस्तान ने जमकर उठाया। पूरे कश्मीर मे उसने भारत विरोधी मजहबी मानसिकता फैलायी। मजहबी राजनीतिक विचारधाराएं स्थापित हुई। मजहबी मानसिकता और राजनीतिक विचारधाराओ को पाकिस्तान कठपुतली की तरह नचाती है। कश्मीर में हमारी सेना किस प्रकार की चुनौतियां झेल रहीं हैं, यह सर्वविदित है।
सत्ता व्यवस्था इतिहास से सबक लेती हैं और अपनी गलतियां-भूल सुधार कर आगे बढ़ती हैं। ऐसी सत्ता और व्यवस्थाएं ही प्रेरणा से ओत-पोत इतिहास बनाती हैं। क्या कांग्रेस ने इतिहास से कोई सबक लिया है? कांग्रेस ने अपने पूर्वज जवाहर लाल नेहरू की ना समझ और राष्ट्र को विखंडन की ओर ले जाने वाली नीतियों से कुछ भी सीखने के लिए राजी नहीं है। जिस प्रकार से जवाहर लाल नेहरू ने लार्ड माउंटबैटन की अनावश्यक और राष्ट्र अस्मिता के नुकसानकारक सलाह पर कश्मीर को पाकिस्तानी प्रपंच में डाला उसी तरह से कांग्रेस की वर्तमान सरकार और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी ने कश्मीर में स्वायत्तता का राष्ट्रविरोधी खेल-खेल रहे हैं। इस खेल का सीधा परिणाम देश की संधीय व्यवस्था पर पड़ेगा। इतना ही नहीं बल्कि भारत विखंडन की नींव भी पडेंगी। पूर्व न्यायाधीश सगीर अहमद वाली एक कमेटी ने कश्मीर को स्वायत्ता देने की सिफारिश की है। सगीर अहमद की स्वयत्तता वाली सिफारिश सीधेतौर पर असंवैधानिक है और मनगढंत के साथ ही साथ व्यक्तिगत सोच से निकली-स्थापित हुई सिफारिश है। केन्द्र-राज्य संबंधों पर आधारित पांच कमेटियां मनमोहन सिंह ने बनायी थी। पांचवी कमटी के अध्यक्ष थे पूर्व न्यायाधीश सगीर अहमद। सगीर अहमद वाली कमेटी में भाजपा, कांग्रेस, नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के सदस्य भी शामिल थे। इन सभी राजनीतिक दलों के विचार में भिन्नताएं और चिंताएं थीं। इस आधार पर सगीर अहमद वाली कमेटी कोई सिफारिश देने का अधिकार ही नहीं रखती थी। कमेटी में शामिल भारतीय जनता पार्टी के नेता अरूण जेटली शामिल थे। अरूण जेटली का आरोप है कि बिना बैठक, बिना विचार लिये यह सिफारिश हुई है। यानी पूर्व न्यायाधीश सगीर अहमद ने स्वयंभू सिफारिश की है। क्या कश्मीर पर सगीर अहमद भी मजहबी सोच और पाकिस्तानी प्रंपच का शिकार हो गये? इसकी पड़ताल और विश्लेषण होनी ही चाहिए।
स्वायत्तता की सिफारिश के खतरे क्या है? सिफारिश को अगर मान लिया गया तो एक देश में दो व्यवस्थाएं कायम हो जायेंगी। कश्मीर को स्वायत्ता दे देने पर राष्ट्र को सिफ विदेश-सुरक्षा और करेंसी पर ही एकाधिकार रहेगा। पिछले 60 सालों से जम्मू-कश्मीर की सत्ता भारतीय संविधान और कानून के तहत संचालित हो रहा है। 60 सालों में जम्मू-कश्मीरी में जितने भी केन्द्रीय कानून लागू हुए हैं उन सभी का स्वतः विलोप हो जायेगा। यह कश्मीर को आजाद करने का एक पड़ाव होगा। इसका परिणाम सिर्फ कश्मीर तक ही नहीं रहेगा? देश की संधीय व्यवस्था लहुलूहान होगी। कश्मीर में ही नहीं बल्कि देश के अन्य भागों में भी विभाजनकारी शक्तियां आंदोलित हैं। जैसे पूवोत्तर में बोड़ो लैंड, नागालैंड, ग्रेटर मिजोरम, झारखंडमें कोल्हान जैसे आंदोलन चल रहे हैं जिन्हें भारतीय राष्ट्रव्यवस्था से इत्तर देश चाहिए। राष्ट्र में महाराष्ट्र की चिंतानी राजनीति की आग भी धधक रही है। उपेक्षा और अन्याय के नाम पर देश के अन्य राज्य भी अपने लिए स्वायत्तता जैसी शक्तियां क्यो नहीं पाना चाहेंगे? ऐसी स्थिति में मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी क्या राष्ट्र को विखंडन की ओर नहीं ले जायेंगे? इस खतरे की नींव पर राजनीतिक भूचाल की जरूरत थी।
कश्मीर समस्या पर विचार करते हुए सिर्फ मजहबी बातें ही क्यो सुनी जाती है? पाकिस्तान परस्त मुट्ठी भर अतिवादी राजनीतिक संगठनो के सामने आखिर हमारी केन्द्रीय सत्ता कबतक झुकती रहेगी? सिर्फ घाटी में रहने वाली आबादी का नहीं है कश्मीर है। कश्मीर की बाज जब होती है तब हम लद्दाख और जम्मू की आबादी का जनमत क्यों नहीं शामिल किया जाता है। लद्दाख अपने लिए कश्मीर से अलग प्रदेश मांगता है। लद्दाख की बौद्ध आबादी कश्मीर की मजहबी राजनीति मे पिस रही है। बौद्ध आबादी को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए जुझ रही है। मजहबी धर्मातंरण से वे दग्ध हैं। जम्मू के लोग कदापि धाटी यानी कश्मीर की आबादी की सोच से सामनता नहीं रखते हैं। ऐसी स्थिति में कश्मीर पर कोई भी फैसला लेने के समय लद्दाख और जम्मू की आबादी का विचार क्यों प्रमुख नहीं होना चाहिए? क्या शांति से रहने वाले लद्दाख की बौद्ध आबादी और जम्मू की हिन्दू आबादी का जनमत कोई मायने नहीं रखता? क्या सत्ता सिर्फ आतंकवाद की ही बात सुनेगी वह भी पाकिस्तान परत आतंकवादी संगठनों की। फिर पाकिस्तान ने जिन भूभागों पर कब्जा कर रखा है वहां की आबादी के विचार क्यों नहीं सुना जाना चाहिए। गुलाम कश्मीर में पाकिस्तान के प्रति आक्रोश पनपा है। पाकिस्तान की सैनिक व्यवस्था और आतंकवादी बंदूको की नोक पर गुलाम कश्मीर के जनमत को बंधक बना छोड़े है। गिलगित-ब्लास्तितान के लोग अपने को पाकिस्तान से अलग करना चाहते हैं? पाकिस्तान क्या गुलाम कश्मीर और गिलगित-ब्लास्तिान को आजाद करने के लिए तैयार हैं। इधर हाल ही में पाकिस्तान ने गिलगित-ब्लास्तिान को अपना पाचवां राज्य धोषित किया है। गिलगित-ब्लास्तिान जम्मू-कश्मीर का हिस्सा रहा है। इस पर भारतीय चुप्पी खतरनका है।
स्वायत्तता के इस सिफारिश का सीधा लाभ पाकिस्तान और आतंकवादी उठायेंगे। इन्हें भारत विरोधी भावनाएं भड़काने में मदद मिलेगी? कश्मीर को हड़पने की उनकी नीति और आगे बढ़ेगी। भारत पर वैश्विक दबाव और बढ़ेगा। यह सब हमारी सत्ता की उदासीन और राष्ट्र अस्मिता के विरूद्ध वाली नीति के कारण होगा। कांग्रेस लगातार जीत से अहंकारी हो गयी है। इसी कारण भारत विखंडन की नींव डाल रही है। यह खेल राष्ट्र की एकता के लिए तत्काल बंद होनी चाहिए। कश्मीर में पाकिस्तान परस्त राजनीति का दमन जरूरी है।
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कश्मीर की स्वायत्तता या फिर भारत विखंडन की नींव
विष्णुगुप्त
कश्मीर समस्या की बात जब होती है तब लद्दाख और जम्मू की आबादी के जनमत को क्यों नहीं शामिल किया जाता है? बोड़ो लैंड, नागालैंड, ग्रेटर मिजोरम, झारखंडमें कोल्हान जैसे आंदोलन चल रहे हैं जिन्हें भारतीय राष्ट्रव्यवस्था से इत्तर देश चाहिए। राष्ट्र में महाराष्ट्र की चिंतानी राजनीति की आग भी धधक रही है। ऐसे मे कश्मीर की स्वायत्तता क्या भारत विखंडन की प्रक्रिया नहीं चलायेगी? इस खतरे पर राजनीतिक भूचाल की जरूरत थी। लगातार जीतों से कांग्रेस अंहकारी हो गयी है। इसीलिए राष्ट्र की अस्मिता की चिंता उसकी है ही नहीं।
‘कश्मीर समस्या‘ जवाहर लाल नेहरू की व्यक्तिगत पाप की गठरी है। ‘लैडी लार्ड मांउटबैटन‘ की प्यार में पागल जवाहर लाल नेहरू लार्ड माउंडबैटन की हर बात-हर इच्छा को राष्ट्र की अस्मिता व सुरक्षा ही नहीं बल्कि एकता व अखंडता से उपर समझते थे। इसका विवादहीन उदाहरण कश्मीर की समस्या है। सरदार पटेल का हाथ कौन बांधा था ? जब ‘कश्मीर‘ को हड़पने के लिए कबायलियों की वेश में पाकिस्तानी सेना कश्मीर में धुसी थी तब सरदार पटेल तत्काल भारतीय सेना कश्मीर की घाटियों में उतारना चाहते थे। लेकिन नेहरू-लार्ड माउंटबैटन की जोड़ी ने अड़गा डाली। पाकिस्तानी सेना श्रीनगर के पास तक पहुच गयी तब नेहरू की नींद टूटी और सरदार पटेल की बात मानी गयी। भारतीय सेना श्रीनगर पहुंच कर पाकिस्तानी सेना को श्रीनगर के पास से खदेड़ा। भारतीय सेना और सरदार पटेल की इच्छा पूरे कश्मीर से पाकिस्तानी सैनिकों की खदेड़ने की थी लेकिन लार्ड माउंटबैटन की सलाह पर जवाहर लाल नेहरू ने सरदार पटेल की इच्छा और भारतीय सैनिकों के हाथों में बैडिंया पहना दी। जिसका परिणाम यह निकला कि गुलाम कश्मीर के रूप में पाकिस्तान आधा कश्मीर को हड़पने मे कामयाब रहा। लार्ड माउंटबैटन की सलाह पर नेहरू कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले गये। संयुक्त राष्ट्र संघ ने जनमत संग्रह की सलाह दी थी जिसे पाकिस्तान ने ठुकरा दिया। उस समय कश्मीर की आबादी भारतीय पक्ष की इच्छाधारी थी और राजा हरि सिंह ने अपने कश्मीर रियासत को दबावविहीन भारत मे विलय किया था।
कश्मीर पर नेहरू की यह नीति राष्ट्र की अस्मिता पर कैसी छूरी चलायी है, यह भी जगजाहिर है। एक देश दो संविधान और दो व्यवस्था की नींव डाली गयी थी। श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान ने नेहरू की इस प्रपंच व राष्ट्रीय अस्मिता को तार-तार करने वाली नीति को जमींदोज किया था। शेख अब्दुला ने भारतीय संविधान में विश्वसा व्यक्त किया। तब से आज तक कश्मीर का शासन व्यवस्था भारतीय संविधान और कानून से चलता आया है। पाकिस्तान ने यह समझ लिया कि युद्ध या मजहबी आक्रोश भी भड़का कर कश्मीर को हड़पना आसान नहीं है। इसलिए उसने प्रपंच और आतंकवाद की राजनीति कश्मीर में परोसी। कश्मीरी पंडितों को जबरन धाटी से पलायन करने या फिर इस्लाम स्वीकार करने का रास्ता दिया गया। दोनों विकल्पों में से किसी का भी चयन नहीं करने पर गोली खाने का तीसरा विकल्प भी मिला। परिणाम यह निकला कि ‘कश्मीरी पंडित‘ घाटी छोड़ने में ही अपने आप को सुरक्षित समझे। भारतीय सत्ता व्यवस्था की उदासीनता और कमजोर नीति का लाभ पाकिस्तान ने जमकर उठाया। पूरे कश्मीर मे उसने भारत विरोधी मजहबी मानसिकता फैलायी। मजहबी राजनीतिक विचारधाराएं स्थापित हुई। मजहबी मानसिकता और राजनीतिक विचारधाराओ को पाकिस्तान कठपुतली की तरह नचाती है। कश्मीर में हमारी सेना किस प्रकार की चुनौतियां झेल रहीं हैं, यह सर्वविदित है।
सत्ता व्यवस्था इतिहास से सबक लेती हैं और अपनी गलतियां-भूल सुधार कर आगे बढ़ती हैं। ऐसी सत्ता और व्यवस्थाएं ही प्रेरणा से ओत-पोत इतिहास बनाती हैं। क्या कांग्रेस ने इतिहास से कोई सबक लिया है? कांग्रेस ने अपने पूर्वज जवाहर लाल नेहरू की ना समझ और राष्ट्र को विखंडन की ओर ले जाने वाली नीतियों से कुछ भी सीखने के लिए राजी नहीं है। जिस प्रकार से जवाहर लाल नेहरू ने लार्ड माउंटबैटन की अनावश्यक और राष्ट्र अस्मिता के नुकसानकारक सलाह पर कश्मीर को पाकिस्तानी प्रपंच में डाला उसी तरह से कांग्रेस की वर्तमान सरकार और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी ने कश्मीर में स्वायत्तता का राष्ट्रविरोधी खेल-खेल रहे हैं। इस खेल का सीधा परिणाम देश की संधीय व्यवस्था पर पड़ेगा। इतना ही नहीं बल्कि भारत विखंडन की नींव भी पडेंगी। पूर्व न्यायाधीश सगीर अहमद वाली एक कमेटी ने कश्मीर को स्वायत्ता देने की सिफारिश की है। सगीर अहमद की स्वयत्तता वाली सिफारिश सीधेतौर पर असंवैधानिक है और मनगढंत के साथ ही साथ व्यक्तिगत सोच से निकली-स्थापित हुई सिफारिश है। केन्द्र-राज्य संबंधों पर आधारित पांच कमेटियां मनमोहन सिंह ने बनायी थी। पांचवी कमटी के अध्यक्ष थे पूर्व न्यायाधीश सगीर अहमद। सगीर अहमद वाली कमेटी में भाजपा, कांग्रेस, नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के सदस्य भी शामिल थे। इन सभी राजनीतिक दलों के विचार में भिन्नताएं और चिंताएं थीं। इस आधार पर सगीर अहमद वाली कमेटी कोई सिफारिश देने का अधिकार ही नहीं रखती थी। कमेटी में शामिल भारतीय जनता पार्टी के नेता अरूण जेटली शामिल थे। अरूण जेटली का आरोप है कि बिना बैठक, बिना विचार लिये यह सिफारिश हुई है। यानी पूर्व न्यायाधीश सगीर अहमद ने स्वयंभू सिफारिश की है। क्या कश्मीर पर सगीर अहमद भी मजहबी सोच और पाकिस्तानी प्रंपच का शिकार हो गये? इसकी पड़ताल और विश्लेषण होनी ही चाहिए।
स्वायत्तता की सिफारिश के खतरे क्या है? सिफारिश को अगर मान लिया गया तो एक देश में दो व्यवस्थाएं कायम हो जायेंगी। कश्मीर को स्वायत्ता दे देने पर राष्ट्र को सिफ विदेश-सुरक्षा और करेंसी पर ही एकाधिकार रहेगा। पिछले 60 सालों से जम्मू-कश्मीर की सत्ता भारतीय संविधान और कानून के तहत संचालित हो रहा है। 60 सालों में जम्मू-कश्मीरी में जितने भी केन्द्रीय कानून लागू हुए हैं उन सभी का स्वतः विलोप हो जायेगा। यह कश्मीर को आजाद करने का एक पड़ाव होगा। इसका परिणाम सिर्फ कश्मीर तक ही नहीं रहेगा? देश की संधीय व्यवस्था लहुलूहान होगी। कश्मीर में ही नहीं बल्कि देश के अन्य भागों में भी विभाजनकारी शक्तियां आंदोलित हैं। जैसे पूवोत्तर में बोड़ो लैंड, नागालैंड, ग्रेटर मिजोरम, झारखंडमें कोल्हान जैसे आंदोलन चल रहे हैं जिन्हें भारतीय राष्ट्रव्यवस्था से इत्तर देश चाहिए। राष्ट्र में महाराष्ट्र की चिंतानी राजनीति की आग भी धधक रही है। उपेक्षा और अन्याय के नाम पर देश के अन्य राज्य भी अपने लिए स्वायत्तता जैसी शक्तियां क्यो नहीं पाना चाहेंगे? ऐसी स्थिति में मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी क्या राष्ट्र को विखंडन की ओर नहीं ले जायेंगे? इस खतरे की नींव पर राजनीतिक भूचाल की जरूरत थी।
कश्मीर समस्या पर विचार करते हुए सिर्फ मजहबी बातें ही क्यो सुनी जाती है? पाकिस्तान परस्त मुट्ठी भर अतिवादी राजनीतिक संगठनो के सामने आखिर हमारी केन्द्रीय सत्ता कबतक झुकती रहेगी? सिर्फ घाटी में रहने वाली आबादी का नहीं है कश्मीर है। कश्मीर की बाज जब होती है तब हम लद्दाख और जम्मू की आबादी का जनमत क्यों नहीं शामिल किया जाता है। लद्दाख अपने लिए कश्मीर से अलग प्रदेश मांगता है। लद्दाख की बौद्ध आबादी कश्मीर की मजहबी राजनीति मे पिस रही है। बौद्ध आबादी को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए जुझ रही है। मजहबी धर्मातंरण से वे दग्ध हैं। जम्मू के लोग कदापि धाटी यानी कश्मीर की आबादी की सोच से सामनता नहीं रखते हैं। ऐसी स्थिति में कश्मीर पर कोई भी फैसला लेने के समय लद्दाख और जम्मू की आबादी का विचार क्यों प्रमुख नहीं होना चाहिए? क्या शांति से रहने वाले लद्दाख की बौद्ध आबादी और जम्मू की हिन्दू आबादी का जनमत कोई मायने नहीं रखता? क्या सत्ता सिर्फ आतंकवाद की ही बात सुनेगी वह भी पाकिस्तान परत आतंकवादी संगठनों की। फिर पाकिस्तान ने जिन भूभागों पर कब्जा कर रखा है वहां की आबादी के विचार क्यों नहीं सुना जाना चाहिए। गुलाम कश्मीर में पाकिस्तान के प्रति आक्रोश पनपा है। पाकिस्तान की सैनिक व्यवस्था और आतंकवादी बंदूको की नोक पर गुलाम कश्मीर के जनमत को बंधक बना छोड़े है। गिलगित-ब्लास्तितान के लोग अपने को पाकिस्तान से अलग करना चाहते हैं? पाकिस्तान क्या गुलाम कश्मीर और गिलगित-ब्लास्तिान को आजाद करने के लिए तैयार हैं। इधर हाल ही में पाकिस्तान ने गिलगित-ब्लास्तिान को अपना पाचवां राज्य धोषित किया है। गिलगित-ब्लास्तिान जम्मू-कश्मीर का हिस्सा रहा है। इस पर भारतीय चुप्पी खतरनका है।
स्वायत्तता के इस सिफारिश का सीधा लाभ पाकिस्तान और आतंकवादी उठायेंगे। इन्हें भारत विरोधी भावनाएं भड़काने में मदद मिलेगी? कश्मीर को हड़पने की उनकी नीति और आगे बढ़ेगी। भारत पर वैश्विक दबाव और बढ़ेगा। यह सब हमारी सत्ता की उदासीन और राष्ट्र अस्मिता के विरूद्ध वाली नीति के कारण होगा। कांग्रेस लगातार जीत से अहंकारी हो गयी है। इसी कारण भारत विखंडन की नींव डाल रही है। यह खेल राष्ट्र की एकता के लिए तत्काल बंद होनी चाहिए। कश्मीर में पाकिस्तान परस्त राजनीति का दमन जरूरी है।
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