Sunday, December 13, 2009

राष्ट्र - चिंतन


बंदे मातरम‘ पर मजहबी कहर

विष्णुगुप्त

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के पूर्व आजादी के दिवानों के लिए ‘ बंदे मातरम ‘ गीत प्रेरणास्त्रोत बन गयी थी। बांग्ला मानुष और संस्कृत के प्रंवड विद्वान बंकिम चंद चटोपध्याय ने 1876 में आनन्दमठ पुस्तक लिखी थी। इसी पुस्तक में ‘ बंदे मातरम ‘ गीत थी जो संस्कृत में थी। संस्कृत जन भाषा नहीं थी, फिर भी ‘बंदे मातरम गीत‘ की लोकप्रियता अल्पावधि में ही चरमोत्कर्ष पर पहुंच गयी। बंगाल की परिधि से निकल कर यह गीत पूरे देश के जन के दिलों में राज करने लगी। ऐसे ही यह गीत लोकप्रियता की सीढ़ीयां नहीं लांधी थी। देशज स्वाभिमान को जागृत करने के साथ ही साथ गुलामी की जंजीरों को तोड़ने और फिरंगी मानसिकता से धृणा करने की तंरगें निकलती थीं ‘बंदे मातरम‘ गीत से। स्वाधीनता शक्ति का प्रतीक भी। 1885 में कांग्रेस की स्थापना के साथ ही साथ उठी आजादी की लहरों को लहराने मे ‘बंदे मातरम‘ की भूमिका नायक की थी। बंग भंग आंदोलन का यह क्रांतिकारी स्लोगन था। बंग भंग आंदोलन में बंदे मातरम के उदघोष ने अंग्रेजों की अपनी अंग्रेजी शिक्षा और शासन को बेनामी बना दिया था। ऐसी देशज सोच और स्वाभिमान के साथ-साथ क्रांति की तरंगे उठाने वाली गीत की लोकप्रियता और जरूरत को क्या नजरअंदाज किया जा सकता था। कदापि नहीं। कांग्रेस ने 1905 के अपने वाराणसी अधिवेशन में बंदे मातरम गीत को सम्मान के साथ गाया था और स्वाधीनता के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया था। सरदार भगत सिंह, सुभाषचंद बोस, चन्द्रशेखर आजाद अशफाक उल्ला खान सहित आजादी के दिवानों ने हमेशा इस गीत को अपनी जुबान पर रखी। जाहिरतौर पर इस गीत ने अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने और देशज स्वाभिमान को जगाने में नायक की भूमिका निभायी थी। पर इस गीत पर मजहबी कहर ऐसी टूटी की बंदे मातरम की भूमिका खलनायक की हो गयी। इसे हिन्दू धर्म के प्रतीक के रूप में प्रत्यारोपित कर अछुत बना दिया गया। बंदे मातरम के खिलाफ अभी हाल में देवबंद में जमीयत उलेमा हिंद ने अपने राष्ट्रीय अधिवेशन में फतवा का जारी करना इसका प्रमाण है। दुर्भाग्य यह है कि जीमयत उलेमा हिंद ने केन्द्रय गृहमंत्री पी चितबंरम के मौजूदगी मे बंदे मातरम के खिलाफ फतवा जारी कियां।
धर्म के आधार पर देश का विभाजन हुआ। मुसलमानों ने अपने लिए अलग देश पाकिस्तान बना लिया। इसके बाद यह मान लिया गया था कि भारत की मुस्लिम समस्या और आबादी का भी प्रबंधन हो गया। लेकिन यह हुआ नहीं। आजादी के बाद ही इस वीभीषिका ग्रस्त हमारा संविधान और कानूनी व्यवस्था हो गयी। मुस्लिम धार्मिकता का पहला कहर उस बंदे मातरम गीत पर टूटा जिसने देश की आजादी की अलख जगाने में अपनी अतुलनीय भूमिका निभायी थी। देश का बहुमत बंदे मातरम को राष्ट्रगान बनाने की थी। लेकिन मुस्लिम वर्ग ने आपत्ति खड़ी कर दी। इतना ही नहीं बल्कि बंदे मातरम गीत के खिलाफ धार्मिक धृणा का वीजारोपन भी कर दिया गया। प्रत्यारोपित यह किया गया कि यह गीत हिन्दू धर्म की महिमा करण करता है, इससे भारत का हिन्दूकरण हो जायेंगा। इत्यादि-इत्यादि। परिणाम यह हुआ कि बहुमत के जनमत की आशाएं धरी की धरी रह गयीं और ‘बंदे मातरम‘ गीत को राष्ट्र्रगान का सम्मान देने से इनकार कर दिया गया। बंदे मातरम की जगह रविन्द नाथ टैगोर द्वारा रचित जन-गन-मन को राष्ट्रगीत बना डाला गया। आज हमारा जन-गन-मन राष्ट्रगीत है। जिस पर हम गर्व करते हैं। लेकिन जन-गन-मन की सच्चाई जगजाहिर है। जार्ज पंचम के भारत आगमन के समय स्वागत भाषण के लिए जन-गन-मन लिखा और गाया गया था। जार्ज पंचम को भारत भाग्य विधाता कहा गया है। इस राष्ट्र्रगान की यह पक्ति ‘जच हो भारत भाग्य विधाता‘ क्या कहीं से भी एक स्वतंत्र और संप्रभुता सम्पन्न राष्ट्र के गौरव-स्वाभिमान का प्रतीक माना जा सकता है। जार्ज पंचम हमारा भाग्य विधाता नहीं बल्कि गुलामी के जजीरों में कैद करने वाला उपनिवेशक था, जिसकी आवाभगत में हमनें अपना भाग्य विधाता मान लिया था। आजादी के बाद ऐसे सभी प्रतीको से हमें किनारा कर लेना चाहिए था लेकिन हमने किनारा उस प्रेरणास्रोत और स्वाभिमान को जगाने वाली गीत बंदे मातरम से किया।
2005 में बदे मातरम गीत की शताब्दी वर्ष थी। 2005 में ही कांग्रेस की वाराणसी अधिवेशक के सौ वर्ष पूरे हुए थे। इसके साथ ही साथ बंदे मातरम गीत को आंगीकार करने के सौ वर्ष पूरे हुए थे। 2005 के वाराणसी अधिवेशन में ही कांग्रेस ने पहली बार बंदे मातरम गीत को सम्मान के साथ गाया था और इसे आजादी के उदधोष के रूप में स्वीकार किया था। सत्तासीन कांग्रेस ने अपने वाराणसी अधिवेशन और बंदे मातरम गीत की शताब्दी मनाने का निश्चय किया था। इसके लिए पूरे वर्ष कार्यक्रम करने के साथ ही साथ आजादी के दिवानों और उन्हें तंरगित और शक्ति प्रदान करने वाले सभी प्रकार के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक प्रतीकों पर सम्मान प्रदर्शित करने की नीति कांग्रेस ने बनायी थी। खासकर बंदे मातरम गीत को लेकर कुछ संजीदापूर्ण कार्यक्रम करने का कांग्रेस पर दबाव था। इसलिए कि राष्ट्र की चिंतनधारा का दबाव कांग्रेस के उपर था। कांग्रेस ने एलान किया कि सभी सरकारी और प्राइवेट स्कूलों में बंदे मातरम गीत को गाने और इससे संबधित कार्यक्रम किये जायेगे। इसके लिए सरकारी फरमान भी जारी कर दिया गया। कांग्रेस शायद यह भूल गयी थी कि वह तुष्टीकरण की नीति पर चलती है और उसके लिए मुस्लिम धर्मावलम्बी सत्ता कब्जाने के हथियार हैं। बंदे मातरम गीत गाने के फरमान जारी होते ही बंवडर मच गया। मुस्लिम वर्ग से पहले तथाकथित धर्मनिरपेक्ष तबके और कम्युनिस्टों ने मुस्लिमपरस्ती का झंडा उठा लिया। इससे मौलानाओं और कट्टरपंथियों को सह मिली। धमकी और नसीहतें पिलाने की प्रक्रिया चली। बंदे मातरम गीत नहीं गाने और कांग्रेस को परिणाम भुगतने जैसे निर्णय सुना दिये गये। कांग्रेस में इतनी शक्ति-राष्ट्रहित चेतना है नहीं कि वह अपने निर्णय पर अडिग रहती। उसने बंदे मातरम गीत गाने की अनिवार्यता को फौरन वापस ले लिया। बंदे मातरम गाने या न गाने का निर्णय शिक्षण संस्थानों पर छोड़ दिया। यानी एच्छिक बना दिया गया।
‘हिन्दू‘ इस भूभाग की मूल संस्कृति है और संस्कृत इस भूभाग के देवों की भाषा है। आधुनिक खोजों से यह प्रमाणित हो चुकी है कि संस्कृति विश्व की तमाम भाषाओं और जीवन पद्धति प्रक्रिया को संचालित करने की स्रोत भी रही है। इस्लाम आयातित संस्कृति है। हिन्दू संस्कृति घृणा, अलगाव और कट्टरता में विश्वास नहीं करती है। सबको अपने में समेटने में विश्वास रखती है। यही वह स्थिति है जिसमें इस्लाम के आयातित संस्कृति होने के बाद भी फलने-फुलने का मौका दिया। मुगल शासनकाल में जबरदस्ती धर्म परिवर्तन कराने, जजिया टैक्स लगाने जैसी राजनीतिक-धार्मिक प्रक्रिया के बाद भी हिन्दू संस्कृति ने इस्लाम से बदला लेने की प्रक्रिचा नहीं चलायी। संस्कृत में लिखे जाने मात्र से ‘बंदे मातरम‘ के खिलाफ धार्मिकता का कहर बरपाने जैसी प्रक्रिया अचरज में डालने वाली ही नहीं है बल्कि इस भूभाग की मूल संस्कृति के खिलाफ उठा हुआ कदम भी माना जा सकता है। इस भूभाग के मूल हिन्दू संस्कृति की उदारता के कारण ही देवबंद जैसे धार्मिकता का जहर फैलाने वाले संस्थानों की अंधेरगर्दी चलती है। क्या मुस्लिम बहुल आबादी में कोई अन्य अल्पंसंख्यक समुदाय इस्लामिक संस्कृति से जुड़े अध्यायों को नहीं मानने की हिम्मत तक दिखा सकता है। दुनिया में 62 मुस्लिम देश है जहां पर पूर्ण इस्लामिक व्यवस्था है। वहां पर गैर मुस्लिम धर्मो को भी इस्लामिक व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए विवश होना पड़ता है। पाकिस्तान, सउदी अरब, ईरान में तो ईशनिंदा की सजा सिर्फ और सिर्फ मौत है। एक मात्र गवाह की गवाही चाहिए। झूठी या सच्ची। सुविधा और अंधेरगर्दी मचाने के लिए इस्लाम को ढ़ाल के रूप में प्रदशर््िात करने की यह वैश्विक समस्या है। इस समस्या से भारत ही नहीं बल्कि उदार धार्मिक व्यवस्था के लिए जाना जाने वाला यूरोपीय देश भी जुझ रहे हैं। यूरोप में भी इस्लाम अरब और अप्रीका जैसी अंधेरगर्दी मचाने की मानसिकता को आगे बढ़ा रहा है। भारत तो पूरी तरह से इस्लामिक धार्मिकता के चंगुल में फंसा हुआ है। देवबंद में जमीयत उलेमा हिंद के ‘बंदे मातरम‘ के खिलाफ फतवा देने के खिलाफ राजनीतिक प्रतिक्रिया का शून्य होना तुष्टीकरण व वोट की राजनीति का ही परिणाम माना जाना चाहिए। तुष्टीकरण और वोट की राजनीति के कारण बंदे मातरत गीत को अधिकारिक तौर पर राष्ट्रगान नहीं बनने दिया गया पर इससे ‘बदे मातरम‘ गीत की लोकप्रियता कम नहीं होती है। ‘बंदे मातरम‘ गीत आज भी देश के स्वाभिमान पर गर्व करने वालों लोगों के दिलों में विराजमान है। बंकिम चंद चटोपध्याय और उनका क्रांति के उदघोष का प्रतीक गीत ‘बदे मातरम‘ अमर है और रहेगा।

मोबाइल- 09968997060

Thursday, December 10, 2009

तेलंगाना राज्य का उदय

राष्ट्र-चिंतन संपादकीय लेख




तेलंगाना राज्य का उदय
विष्णुगुप्त

अब ‘तेलंगाना‘ भारतीय गणराज्य का 29 राज्य होगा। यूपीए सरकार ने तेलंगाना राज्य निर्माण की बात मान ली है। आंध्र प्रदेश विधान सभा में तेलंगाना राज्य निर्माण से संबंधित विधेयक जल्द लाया जायेगा। तेलंगाना के प्रश्न पर आंध्र प्रदेश की कांग्रेस राजनीति में उफान आना स्वाभाविक है। तेलंगाना के विरोधी भी सक्रिय जरूर हैं पर तेलंगाना राष्ट्र समिति की जनविद्रोह के आगे विरोधियों की सभी कोशिशें बेकार ही साबित होंगी। आंध्र प्रदेश में अलग तेलंगाना राज्य की मांग के साथ जन जुड़ाव व तेलगांना राष्ट्र समिति के नेतृत्व में जिस प्रकार से राजनीतिक उफान उठा था उसे दबाना मुश्किल था। संसद में भी कांग्रेस इस मुद्दे पर विपक्षियों से धिरी हुई थी और तेलंगाना राष्ट्र समिति के प्रमुख चन्द्रशेखर राव के अनशन से गिरते स्वास्थ्य की भी चिंता पसरी थी। पिछले दो दशक से भारतीय गणराज्य में भाषा, क्षेत्रीयता और मूल के नाम पर अलग राज्य की मांग ही नहीं बढ़ी हैं बल्कि आंदोलन भी तेज हुए हैं। आदिवासी मूल के नाम पर झारखंड बना तो क्षेत्रीयता और अन्य मुद्दो को लेकर छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड बना। पूर्वोत्तर में मूल, भाषा के नाम पर छोटे-छोटे राज्य बने। धारणा विकसित यह रही है कि बड़े राज्यों से सभी मूल या क्षेत्र के लोगों का विकास अवरूद्ध हो जाता है, प्रशासन की जटिलताएं बड़ी-दुरूह जाती हैं। इसलिए छोटे राज्यों की परिकल्पना जरूरी है। पर देखा यह गया है कि नये बने छोटे राज्यों में वही राजनीतिक बुराइयां घर कर गयीं जिन बुराइयों की छुटकारा के नाम पर छोटे राज्य बने थे। झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में विकास के सौपान बनाने की जगह भ्रष्टाचार, हिंसा-प्रतिहिंसा की आग जल-जलायी जा रही है। ऐसे में छोटे राज्य की परिकल्पना का सार्थक परिणाम नहीं निकलना भी स्वाभाविक परिणति है।
तेलंगाना अलग राज्य पर कांग्रेस ने बईमानी की थी। तेलंगाना के जनकांक्षा और तेलंगाना राष्ट्रसमिति के साथ वायदा खिलाफी ही नहीं बल्कि इनकी भावनाओं के साथ भी कांग्रेस ने खिलवाड़ की थी। 2004 के आंध्र प्रदेश विधान सभा चुनाव में कांग्रेस की नीति को याद कीजिए। चन्द्रबाबू नायडू के शासन के खिलाफ कांग्रेस ने दो महत्वपूर्ण शक्तियों के साथ राजनीतिक गठजोड़ किया था। पहली राजनीतिक शक्ति थी यही तेलंगाना राष्ट्र समिति और दूसरी शक्ति थी नक्सली ग्रुप। कांग्रेस ने जहां अलग तेलंगाना राज्य बनाने का आश्वासन देकर तेलंगाना राष्ट्र समिति को अपने साथ किया था वहीं नक्सली ग्रुपों को वार्ता और जनमत निर्माण की छूट का आश्वासन देने का काम किया था। तेलंगाना राष्ट्र समिति और नक्सली संगठनों के समर्थन-सहयोग से कांग्रेस ने 2004 के प्रदेश विधान सभा चुनावों में चन्द्रबाबू नायडू को पराजित करने में सफलता पायी थी। तेलंगाना राज्य और नक्सलियों से वात्र्ता के जनक राज शेखर रेड्््््््््््डी आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। सत्ता आते के साथ कांग्रेस ने पलटी मारी। नक्सली संगठन के साथ दोस्ती सत्ता के मूल सिद्धांतों के विपरीत थी। पर तेलंगाना राष्ट्र समिति के साथ कांग्रेस ने सीधेतौर बेईमानी पर उतर आयी। तेलंगाना अलग राज्य का सवाल कांग्रेस को चूभने लगा। स्वर्गीय राजशेखर रेड्डी राजनीति के चतुर खिलाड़ी थे। उन्होंने तेलंगाना के मुद्दे से निपटने के लिए तेलंगाना राष्ट्र समिति को ही निपटाने में शामिल हो गये। तेलंगाना राष्ट्र समिति के विधायको को लालच देकर कांग्रेस में मिलाया गया। चन्द्रशेखर राव की राजनीतिक शक्ति कमजोर करने की कोशिश हुई। पिछले विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने तेलंगाना राष्ट्र समिति के विरोध के बाद भी सत्ता हासिल की थी। चन्द्रशेखर राव खुद लोकसभा चुनाव हार गये थे।
तेलंगाना मुद्दे पर कांग्रेस की बईमानी और पलटी से जनभावना आहत हुई थी। इसका उदाहरण तेलंगाना मुद्दे पर आंध्र प्रदेश में हुई हिंसा और उठा तूफान है। आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद ही नहीं बल्कि अन्य शहरो में भी व्यापक जन जुड़ाव आंदोलन के साथ था। यही आंदोलन और जन जुड़ाव चन्द्रशेखर राव की राजनीतिक शक्ति थी। चूंकि अलग राज्य के सवाल पर जनता की गोलबंदी थी। इसलिए यह कहा जा सकता है कि तेलंगाना राष्ट्र समिति कांग्रेस की बईमानी और कल-छपट से कमजोर जरूर थी पर उसे जनता का समर्थन जरूर प्राप्त था। जरूरत थी जनता को विश्वास दिलाने की। इधर सबसे बड़ी बात आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की राजनीति में उठा तूफान और शह-मात का खेल। हवाई दुर्घटना में राज शेखर रेड्डी की मौत के बाद कांग्रेस के अंदर वर्चस्व की लड़ाई शुरू हुई हैं। राजशेखर रेड़डी के बेटे मगन को मुख्यमंत्री बनाने की ताल ठोकी गयी। आंध्र प्रदेश का मौजूदा मुख्यमंत्री अपनी राजनीतिक-जनादेशिक वैसी शक्ति हासिल नहीं कर सके जैसी राजशेखर रेड्डी के साथ शक्ति जुड़ी थी। कमजोर राजनीतिक नेतृत्व का बड़े मुददो पर उठे जनज्वार को थामना मुश्किल है। यही आंध्र प्रदेश में हुआ। तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष चन्द्रशेखर राव भी राजनीति के चतुर खिलाड़ी हैं। उन्हें यह अवसर सबसे उचित लगा। उन्हें मालूम था कि कांग्रेस की वर्तमान कमजोरी का लाभ उठाकर अलग तेलंगाना आंदोलन को धार दिया जा सकता है। चन्द्रशेखर राव की यह रणनीति काम कर गयी। इसलिए भी कि संसद में भाजपा जैसी विपक्षी पार्टी भी अलग तेलंगाना राज्य के पक्ष में थी। कालांतर में चन्द्रशेखर राव और अन्य तेलंगाना राष्ट्र समिति के वरिष्ठ रणनीतिकार भाजपा से निकले हुए नेता रहे हैं।
कांग्रेस अपनी पीठ नहीं थपथपा सकती है। कोई फायदा भी उसे नहीं मिलेगा। कांग्रेस के लिए दोहरी मुश्किलें खड़ी होंगी। एक तो पूर्व में तेलंगाना के प्रश्न पर राजनीतिक बेईमानी की कीमत उसे चुकानी होगी और दूसरे में अलग तेलंगाना राज्य के विरोधी मानसिकता का कोपभाजन भी कांग्रेस को बनना पड़ेगा। आंध्र प्रदेश की राजनीतिक स्थिति विकट हो सकती है। मनमोहन सिंह सरकार द्वारा अलग तेलंगाना राज्य की बात मानने के साथ ही साथ इसके विरोध में भी कांग्रेस के अंदर लकीरें खतरनाक हुई हैं। कांग्रेस के विपक्ष में आवाज तेज हुई है। कांग्रेस विरोधी चन्द्रबाबू नायडू इस राजनीतिक परिस्थिति का लाभ उठाने की कोशिश करेंगे। ऐसी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। ऐसे भी चन्द्रबाबू नायडू घोर तेलंगाना विरोधी रहे हैं। वे किसी भी परिस्थिति में तेलंगाना राज्य के उदय के खिलाफ थे। तेलंगाना राष्ट्र समिति के आंदोलन और सक्रियता दबाने के लिए चन्द्रबाबू नायडू ने अपने शासनकाल में पुलिस दमन का सहयोग भी लिया था। जिसकी कीमत उन्होंने तेलंगाना क्षेत्र में चुकायी थी। जन सक्रियता उनके खिलाफ गयी थी। इसी कारण भी 2004 में चन्द्रबाबू नायडू की सत्ता गयी थीं।
तेलंगाना का अलग राज्य अब कुछ ही दिनों की बात रह गयी है। तेलंगाना क्षेत्र में खुशियां मनायी जा रही है। वैसी ही खुशियां मनायी जा रही है जैसी खुशी खासकर अलग झारखंड राज्य बनने पर आदिवासियों ने मनायी थी। झारखंड देश का सर्वाधिक खनिज सम्पदा वाला राज्य है। वन सम्पदा, जल सम्पदा, भूमि सम्पदा सहित कई सम्पदाओं से झारखंड की धरती पटी है। लेकिन झारखंड राजनीतिक चक्रव्यूह में फंस गया। आर्थिक दृष्टिकोण से सर्वाधिक सम्पन्न होने के बाद भी झारखंड की मूल जनता अपने आप को ठगी और हासियें पर खड़ी महसूस कर रही है। राजनेताओं का भ्रष्टाचार ने शर्मशार कर दिया। मधु कोड़ा प्रकरण ने झारखड़ियों की कैसी पीड़ा पहुचायी है, यह जगजाहिर ही है। झारखंड जैसी स्थिति तेलंगाना का न हों। तेलंगाना की जनता ने बेहिसाब कुर्बानियां दी है। उनका संधर्ष उनकी सबसे बड़ी पूंजी है। संघर्ष की अवधारणाएं अलग तेलंगाना राज्य में साकार हों। तेलंगाना राष्ट्र समिति के पास ही तेलगाना अलग राज्य की विरासत है। इसलिए तेलंगाना राष्ट्र समिति को संघर्ष की अवधारणाएं पूरी करनी होगी। राजनीतिक शुचिता और नैतिकता दिखानी होगी। विकास व उत्थान की नयी मंजिलें तय करनी होगी। अगर ऐसा नहीं हुआ तो जन समुदाय को अलग राज्य का लाभ भी तो नहीं मिलेगा। फिर छोटे राज्य बनाने का फायदा क्या होगा। उम्मीद होनी चाहिए कि अलग तेलंगाना राज्य के मुद्दे स्थान ग्रहण करेंगे और जनभावनाएं पूरी होंगी।

सम्पर्क:
मोबाइल - 09968997060

Wednesday, December 2, 2009

देख तमाशा क्रिकेट का

 भारतीय क्रिकेट की दुर्दशा पर पूरा देश हैरान

हरभजन दोषी है और भारतीय क्रिकेट बोर्ड तथा टीमों को खरीदने वाले कारपोरेट घराने भी


 विष्णुगुप्त


भद्रजनों का खेल माने जने वाले क्रिकेट को नौटंकी का तमाशा बना दिया गया है। पैसा कमाना एकमेव लक्ष्य बना लिया गया है। आखिर क्यों राजनीतिज्ञ, व्यापारी और नौकरशाह क्रिकेट का भाग्यविधाता बने हुए हैं? इस प्रश्न का उत्तर भी क्रिकेट प्रेमियों को चाहिए।
पूरा देश हैरान है, क्रिकेट प्रेमी ही नहीं अपितु क्रिकेट में रूचि नहीं रखने वाले भी। एक ही आवाज उठ रही है, तू ने क्या किया हरभजन? हैरान होना स्वाभाविक है। इसलिए कि क्रिकेट को भद्रजनों का खेल माना जता है।
कलंकित करने वाली करतूत के लिए प्रत्यक्ष तौर पर हरभजन दोषी है, पर अप्रत्यक्ष तौर पर भारतीय क्रिकेट बोर्ड और टीमों को खरीदने वाले कारपोरेट घराने भी कठघरे में खड़े हैं। भद्रजनों का खेल माने जाने वाले क्रिकेट को नौटंकी का तमाशा बना दिया गया है। पैसा कमाना एकमेव लक्ष्य बना लिया गया है। आखिर क्यों राजनीतिज्ञ, व्यापारी और नौकरशाह क्रिकेट का भाग्यविधाता बने हुए हैं? इस प्रश्न का उत्तर भी क्रिकेट प्रेमियों को चाहिए।
हरभजन ने आवेश में उस मासूम और नादान को थप्पड़ मारकर अपनी छवि को रसातल में भेजा जो हमेशा उत्साहित रहता है, मैदान पर सौ प्रतिशत प्रदर्शन देने की कोशिश करता है, और जिसे अभी अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट की बारीकियां और व्यवहार सीखने हैं।
श्रीसंत ने न तो चिढ़ाया था और न ही गालियां दी थीं, सिर्फ हार्ट टास्क कहा था। इसमें चिढ़ने की कोई बात नहीं थी। पिछले दो सालों से हरभजन और श्रीसंत एक साथ भारतीय टीम में हैं। एक साथ खेलने के दौरान इतनी समझ तो होनी ही चाहिए थी कि कौन सी बात चिढ़ाने के वास्ते कही गयी है या फिर सहानुभूति दर्शाने के लिए कही गयी है।
हरभजन कोई जूनियर नहीं, सीनियर खिलाड़ी हैं। इसलिए हर किसी को यह उम्मीद होती है कि उनका व्यवहार शालीन और सलीकेदार हो। लेकिन हरभजन ने थप्पड़ के साथ जो अपने माथे पर कलंक लगा लिया है वह जल्दी से धुलेगा, इसकी उम्मीद नहीं है। निलम्बित तो वे हो ही चुके हैं और शायद सजा से भी नहीं बचेंगे। सिर्फ आईपीएल नहीं, आईसीसी की नजरों में भी हरभजन ने एक बिगडै़ल क्रिकेटर की पदवी हासिल कर ली है।
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि आस्ट्रेलियनों को एक मौका और मिल गया है। पिछली श्रृंखला के दौरान आस्ट्रेलिया के खिलाड़ियों के निशाने पर हरभजन थे। हरभजन पर साइमंड के खिलाफ नस्ली टिप्पणी के आरोप लगे थे। बड़ी मुश्किल से बीसीसीआई ने उन्हें सजा से मुक्त कराया था। मैथ्यू हैडन ने खुजली करने वाला झड़ी कहा था हरभजन को। साइमंड और मैथ्यू हैडन आज सर्वाधिक खुश होंगे, क्योंकि आस्ट्रेलियनों ने हरभजन को जिस रूप में स्थापित करने की कोशिश की थी, हरभजन अपने करतूतों से क्रिकेट जगत के सामने उसी रूप में खड़े हो गये हैं। आस्ट्रेलिया के मीडिया में हरभजन छाये हुए हैं। आस्ट्रेलिया के मीडिया का कहना है कि अगर हरभजन को पहले ही सजा मिल गयी होती तो शायद इस तरह की करतूत करने से वह बाज आता। हालांकि आस्ट्रेलियाई क्रिकेटर और मीडिया खुद अपने करतूतों के लिए दुनिया में कुख्यात हैं।
क्रिकेट में आज जो कुछ इतर दिख रहा है, उसके जनक तो आस्ट्रेलियाई क्रिकेटर ही हैं। विजेता का कोई माप दंड नहीं होता। आस्ट्रेलियनों ने वर्ल्ड चैम्पियन बनने के लिए साम, दाम, दंड, भेद जैसे सभी रास्ते अपनाये। इसलिए उन आस्ट्रेलियनों से सीख लेने की जरूरत नहीं है। पर मौका तो हमने ही उन्हें दिया है।
इसके लिए भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड भी कम दोषी नहीं है। बहरहाल यह साफ हो गया है कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के लिए क्रिकेट की शुचिता और विस्तार की जगह पैसा जरूरी हो गया है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड एक कारपोरेट कम्पनी के रूप में तब्दील हो चुका है। आईसीएल से मिली चुनौती को तोड़ने के लिए उसने ऐसा जाल-जंजाल बुना कि सारे के सारे सिद्धांत और परम्परा धरे के धरे रह गये। क्रिकेटरों की खुले बाजर में बिक्री हुई। जैसे वे क्रिकेटर नहीं, अपितु घोड़े या गद़हे हों और बिक्री के लिए पशु बाजार में रखे गये हों। चीयर्स गर्ल्स की अश्लीलता भी कम आपत्तिजनक नहीं है। इसीलिए राजनीति सहित अन्य हलकों से चीयर्स गर्ल्स की अश्लीलता के खिलाफ आवाज उठी है। अधिक पैसा कमाने के लालच में यह देखने की कोशिश ही नहीं हुई कि आखिर क्रिकेटर भी इंसान हैं। उनकी भी शारीरिक और मानसिक सीमाएं हैं। बिना रेस्ट के लगातार खेलते रहने से उनकी मानसिक स्थिति प्रभावित होती है। इसके अतिरिक्त एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन कारपोरेट घरानों ने टीमों को खरीदने के लिए पैसे लगाये हैं, उन्हें अपनी कम्पनी के प्रचार और प्रसार के साथ-साथ लगाये गये पैसे की वसूली भी चाहिए। ऐसे में खिलाड़ियों पर मैच जीतने का दबाव रहना ही है और मैच हारने के बाद झुंझलाहट का आना स्वाभाविक है।
हरभजन को निलम्बित करना एकदम सही कदम है। निलम्बन ही क्यों ,सजा भी होनी चाहिए, ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं से शर्मसार होने से बचा ज सके।(समाप्त)

अपनी ही लगाई आग में झुलसती आईएसआई

अपनी ही लगाई आग में झुलसती आईएसआई




मुद्दा:

विष्रुगुप्त


आईएसआई दोहरे संकट में है। एक आ॓र जिन आतंकवादी संगठनों को पाल-पोसकर उसने विश्वभर में आउटसोर्सिंग की वही अब उसके दुश्मन बन गये हैं। कुछ समय पहले पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ यह कहकर खलबली मचा चुके हैं कि सभी आतंकवादी संगठनों में आईएसआई की घुसपैठ है और आईएसआई के अधिकारियों की कमान से ही आतंकवादी संगठनों की सक्रियता चलती है। पहली बार पाकिस्तान की सत्ता पर बैठे किसी शख्स ने आईएसआई के आतंकवादी संगठनों से जुड़े तार उजागर किये। आईएसआई मुशर्रफ के बयान से उबर भी नहीं पायी थी कि आतंकी संगठनों ने उसके ही ठिकानों पर हमला कर जता दिया कि अब खुद की लगायी आग में खुद झुलसे? बहरहाल आईएसआई के खूनी खेल को बंद करने का उचित समय आ गया है। अमेरिका नयी रणनीति-कूटनीति से यह काम कर सकता है। तानाशाही या गैर तानाशाही शासन व्यवस्था में आईएसआई को कभी चुनौती मिली ही नहीं। यह माना जाता है कि जुल्फीकार अली भुट्टो की दूरगामी नीति से आईएसआई ने खूनी-हिंसक भूमिका बनायी थी पर उसकी आतंकवादी भूमिका जियाउल हक के समय तय हुई थी। असल में भारत के साथ तीन युद्धों में मिली घोर पराजय ने सीधे तौर पर कश्मीर हपड़ने के पाकिस्तानी शासकों के सपने तोड़ दिये थे। जियाउल हक के कार्यकाल में ही अफगानिस्तान में सोवियत संघ का कब्जा हुआ और अमेरिका ने सोवियत संघ के विरूद्ध आतंकवाद का बीजारोपण किया। कश्मीर और अफगानिस्तान के रूप में आईएसआई को दोहरी भूमिका मिली। उसने कश्मीर और अफगानिस्तान में न केवल आतंकवाद बढ़ाया बल्कि दुनिया भर में आतंकवाद की आउटसोर्सिग भी की। नतीजे में भारत जहां खूनी आतकवाद का शिकार हुआ, वहीं अमेरिका के वर्ल्ड टेड सेंटर पर भी हमला हुआ। इन हमलों से दुनिया में आईएसआई का असली चेहरा और भूमिका उजागर हुई। आईएसआई की दो भूमिकाएं- आतंकवाद और इस्लाम का विस्तार खुद पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए उसके ताबूत की अंतिम कील साबित हुईं। वहां सत्ता और विकास केन्द्रों का इस्लामीकरण हुआ। विकासोन्मुख शिक्षा की जगह आतंकवाद की खेती पनपी। इसलिए उदारवाद और लोकतंत्र की जड़ें पनप ही न सकीं। कभी यह सोचने-समझने की प्रक्रिया ही नहीं चली कि आईएसआई की खूनी भूमिका का दूरगामी प्रभाव क्या होगा? अमेरिकी वर्ल्ड टेड सेंटर पर अलकायदा के हमले और अफगानिस्तान में तालिबानी सत्ता समाप्त होने के बाद आईएसआई पर शिकंजा कसना शुरू हुआ। आईएसआई पर अलकायदा जैसे इस्लामी आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई करने और उन्हें नेस्तनाबूत करने के लिए दबाव पड़ा। आतंकवाद के कारखानों और आउटसोर्सिंग पर न चाहते हुए पर्दा डालना पड़ा। मुशर्रफ के जाने के बाद नागरिक सरकार ने आईएसआई की भूमिका सीमित करने की कोशिश जरूर की पर सेना के समर्थन के चलते कामयाबी नहीं मिली। मुबंई हमले के बाद आईएसआई की भूमिका को लेकर एक बार फिर मुहिम चली। अमेरिका सहित पूरी दुनिया ने मान लिया कि मुबंई हमले मे आईएसआई की भूमिका थी। मुबंई हमलावरों को आईएसआई के अधिकारियों ने ही प्रशिक्षित किया था। उधर अफगानिस्तान की करजई सरकार ने तालिबान की सहायता को लेकर आईएसआई पर निशाना साधा। अमेरिका ने पाकिस्तान की संप्रभुता की परवाह किये बिना कबायली इलाकों में हमले शुरू कर दिये। इन हमलों में पाकिस्तानी सेना और आईएसआई को बेमन से शामिल होना पड़ा। बहरहाल जिस आतंकवाद की आग आईएसआई ने लगायी थी, आज वह खुद उसमें झुलस रही है। आईएसआई के पंजों को मरोड़ने के लिए राजनीतिक-कूटनीतिक नीति की जरूरत है। यह काम दो व्यवस्थाओं से पूरा हो सकता है। एक पाकिस्तान की नागरिक सरकार और दूसरा अमेरिका। सेना की जगह नागरिक सरकार की सर्वश्रेष्ठता जरूरी है। आतंकवाद पर तभी अंकुश लगेगा जब आईएसआई की भूमिका एक जिम्मेदार संगठन के तौर पर होगी। अमेरिका अब तक आईएसआई को नियंत्रित करने में सक्षम नहीं हुआ है। उसने आंख मूंदकर उसे आर्थिक सहायता दी है। अमेरिका पाकिस्तान की नागरिक सरकार पर दबाव बना सकता है कि जब तक सेना और आईएसआई की भूमिका नियंत्रित नहीं होगी तब तक उसे आर्थिक और अन्य सहायताएं नहीं मिल सकतीं। भारत के दृष्टिकोण से भी आईएसआई की भूमिका नियंत्रित होना जरूरी है। भारत को भी अपनी कूटनीति एक्सरसाइज जारी रखनी चाहिए।

Tuesday, December 1, 2009

Vishnu Gupt