राष्ट्र-चिंतन
‘पॉलटिक्स एनकांउटर‘ की खतरनाक राजनीति
कांग्रेस की शाखा बनी सीबीआई, भाजपा होगी आक्रामक
विष्णुगुप्त
कभी-कभी अतिरिक्त उत्साह और अति खतरनाक राजनीतिक नीतियां आत्मधाती भी साबित होती हैं और लेने के देने पड़ जाते हैं। कांग्रेस की गुजरात के प्रति अतिउत्साह दिखाना और नरेन्द्र मोदी को घेरेने के लिए गृह मंत्री अमित शाह पर सीबीआई की शक्ति दिखाना कर्ही न कहीं कांग्रेस की खतरनाक राजनीति की ओर इशारा करता है। गुजरात/ नरेन्द्र मोदी/ अमित शाह आदि पर कांग्रेस की यह खतरनाक राजनीति आत्मघाती होती है या नही? इस प्रसंग पर फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता है। पर इतना जरूर दिख रहा है कि देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में ‘पॉलटिक्सि एनकांउटर‘ की जमीन कांग्रेस ने तैयार कर दी है। अब लोकतंत्र में मताधिकार के माध्यम से हार-जीत का फैसला बाद में आयेगा, पहले सीबीआई-पुलिस और न्यायापालिका के माध्यम से राजनीतिक पार्टियों, और विरोधी राजनेताओं को निपटाने का ‘पालटिक्स एनकांउटर‘ का खेल होगा। माना कि कांग्रेस केन्द्र की सत्ता में है और इस लिए उसके पास सीबीआई और न्यायपालिका की शक्ति है। इसलिए कांग्रेस मौजूदा समय में पॉलटिक्स एनकाउंटर के खेल का अपने आप को चैम्पियन मान सकती है। पर कांग्रेस की इस नीति का भविष्य क्या हो सकता है? कांग्रेस शायद इस पर आत्मविश्लेषण नहीं कर रहे होंगे। वह भी वैसी परिस्थिति में जब कांग्रेस के पास सत्ता नहीं होगी और सत्ता बीजेपी के पास होगी? भाजपा भी क्वात्रोची को क्लीनचिट दिलाने में सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह की भूमिका का पुलिसिया पॉलटिक्स एनकांउटर कर सकती है। सीधेतौर पर सोनिया-मनमोहन सिंह पर न्यायिक सक्रियता बढेगी और ये क्वात्रोची को सत्ता लाभ दिलाने के दोषी हो्रगे। कांग्रेस का यह कहना कि सिर्फ और सिर्फ न्यायापालिका की सक्रियता है और कांग्रेस व यूपीए सरकार का इसमें कोई भूमिका नहीं है। इन सभी तर्को का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। देश में फर्जी एकनाकाउंटर के हजारों मुकदमें सुप्रीम कोर्ट में लम्बित है। उन मुकदमों पर सहराबुउीन की तहर सीबीआई को हवा की भी तेज गति से सक्रिय करने की प्रक्रिया चलती है क्या? इशरत को पाक साफ बताने की कांग्रेस और अन्य तथाकथित बुद्धीजीवियों की हेहडी रहस्योघाटन से पोल खुल चुकी है। न्यायापालिका भी इशरत प्रकरण में एक पार्टी के तौर पर खड़ी दिखी थी। सत्ता में आते ही सोनिया गांधी के घोर विरोधी जार्ज फर्नाडीस के दामन को दागदार करने की कांग्रेसी राजनीति चली थी? लालू/मायावती/मुलायम पर भी सीबीआई-कांग्रेस के निशाने पर खड़े रहे हैं।
मायावती/लालू/ मुलायम/ आदि पर भी सीबीआई की तलवार लटक रही है। आखिर अपनी राजनीतिक शक्ति की कीमत पर मायावती/लालू-मुलायम बार-बार संसद में कांग्रेस के समर्थकन के लिए क्यों बाध्य होते हैं? इसके पीछे कांग्रेस की ब्लैकमैंलिग राजनीति है। कांग्रेस ने सत्ता में आने के साथ सोनिया की घोर विरोधी जार्ज फर्नाडीस के दामन को दागदार करने की असफल कोशिश की थी। केन्द्रीय सत्ता की असली चाभी बिहार-उत्तर प्रदेश से निकलती है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश मंे अप्रत्याशित सफलता पायी थी पर बिहार के लोगों ने कांग्रेस को नकार ही दिया था। बिहार विधान सभा चुनावों में गुजरात/ अमित शाह/ नरेन्द्र मोदी के प्रसंग पर लाभ उठाना चाहती है कांग्रेस। कांग्रेस ने देश की राजनीति में तकरार और टकराव की जमीन तैयार तो की है इसके अलावा भाजपा को भी फिर से अपनी खोयी हुई जमीन तलाशने का सुनहरी अवसर दिया है।
दो दिन बनाम 30 हजार पेज...............................................
सीबीआई की विश्वसनीयता पर जो सवाल उठे हैं उसके पीछे कोई सतही नहीं बल्कि ठोस कारण है, तथ्य हैं। कारण और तथ्य यह साबित करने के लिए काफी हैं कि सीबीआई कहीं न कहीं मोहरे के रूप में काम कर रही है। सीबीआई को मोहरा कौन बनाता है? यह भी छुपी हुई बात नहीं हो सकती है। सीबीआई के प्रायः सभी रिटायर्ड प्रमुखों ने बार-बार स्वीकार किया है कि सही में सीबीआई दबाव और मोहरे के रूप में खड़ी रहती है। सत्ता हमेशा सीबीआई को कठपुतली की तरह नचाती रहती है। सहराबुउीन प्रकरण में सीबीआई की भूमिका संदेहास्पद रही है। सोहराबुउीन का एनकाउंटर पर न्यायिक फैसला आना बाकी है। न्यायिक फैसले तक पहुंचने में सीबीआई के तर्क और जुटाये गये तथ्य कितने ठोस होंगे उसका परीक्षण होगा। अमित शाह ने सीबीआई के सामने आत्मसमर्पण करने के पहले जो आरोप कांग्रेस और सीबीआई पर लगाये हैं उसका भी निष्पक्ष्ता के साथ परीक्षण होना चाहिए। सहराबुउदीन एनकाउंटर में अमित शाह सहित 15 नौकरशाहों पर आरोप लगाया गया हैं। आरोपित नौकरशाहों को अपना पक्ष रखने के लिए 15-15 दिनों का समय दिया गया पर अमित शाह को मात्र एक घंटा का समय दिया गया। एक घंटे के अंदर पेश नहीं होने पर सीबीआई ने अमित शाह को भगोड़ा घोषित कर दिया। अपना पक्ष रखने के लिए अमित शाह को सिर्फ एक घंटा का समय ही क्यों? अमित शाह अपना पक्ष रखने के लिए उन्होंने दो दिन का समय मांगा था। इतना ही नहीं बल्कि मात्र दो दिनों में सीबीआई ने 30 हजार पेज का आरोप पत्र दाखिल कर दिया। आखिर दो दिनों में सीबीआई ने 30 हजार पेज की आरोप पत्र कैसे तैयार की? आरोप पत्र पहले से ही सीबीआई ने तैयार कर रखी थी?
कांग्रेस की संकट मोचक बनी सीबीआई..................................
सीबीआई का दो चेहरा हमारे सामने है। एक चेहरे में सीबीआई मुख्य विपक्षी राजनीति भाजपा को बदनाम करने, हतोत्साहित करने और राजनीति शक्ति की कमजोर करने की औजार बनी है तो दूसरे चेहरे में सीबीआई सोनिया गाधी और कांग्रेस के लिए संकट मोचक बनी है। गुजरात/ नरेन्द्र मोदी/ अमित शाह प्रकरण को छोड़ दीजिए। इससे इत्तर कांग्रेस की भूमिका आप देख लीजिए। लम्बे वनवास के बाद 2004 में कांग्रेस सत्ता मे आयी थी। सत्ता में आने के साथ ही साथ कांग्रेस ने अपने और सोनिया गांधी के खानदान के पाप को सीबीआर्इ्र के माध्यम से धुलवाने की सफल कोशिश की। क्वात्रोचि प्रकरण की याद दिलाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। क्वात्रोचि की भूमिका सीधेतौर पर बोफोर्स डील कांड से जुड़ी हुई थी। उस समय क्वात्रोचि राजीव-सोनिया गांधी के अति निकट का चेहरा था। उसने बोफोर्स में दलाली खायी। सीबीआई के पास पर्याप्त सबूत भी था। पर कांग्रेस ने क्वात्रोचि को सीबीआई के माध्यम से क्लिन चिट दिला दिया। करोड़ों डालर विदेशी खातों में क्वात्रोचि के जमा धन को निकालने की छूट दिलायी गयी। इसलिए कि क्वात्रोचि ने सोनिया गांधी को बोफोर्स के पूरी तह खोलने व बदनाम करने की धमकी पिलायी थी। इसलिए सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह की जुगलजोड़ी के पास क्वात्रोचि को क्लिनचिट दिलाने के अलाव और कोई चारा नहीं था। सीबीआई के माध्यम से कांग्रेस ने सिख दंगों में रक्तरंजित कांग्रेस चेहरों को बचाने जैसे करनामे भी कर दिखाये हैं।
मायावती/लालू/ मुलायम पर भी सीबीआई की तलवार...................................
राजनीतिक गलियारे में एक बात हमेशा उठी है कि मायावती, लालू और मुलायम जैसी अन्य राजनीतिक हस्तियां कांग्रेस के सामने समर्थन करने के लिए विवश कैसी है? बार-बार ये वामपंथी राजनीतिक पार्टियों से अपना गठजोड़ तोड़ने के लिए क्यों बाध्य होते हैं। परमाणु मुुद्दे पर ही नहीं बल्कि अन्य मुद्दों पर भी लालू/मायावती/ मुलायम आदि का कांग्रेस के सामने आत्मसमर्पण क्यो होता है। पिछले बार बजट सत्र में कटौती प्रस्तावों पर कांग्रेस की सत्ता संकट में फंसी थी। महंगाई को लेकर विरोध चरम पर था। लेकिन मुलायम/मायावती/ लालू ने कटौती प्रस्तावों पर भाजपा-वामपंथी दलों का साथ नहीं दिये। कई राजनीतिक कोणों से यह बात सामने आयी कि सीबीआई के माध्यम से लालू/ मुलायम/ मायावती को कांग्रेस ब्लैकमेल कर समर्थन करने के लिए बाध्य करती है। मायावती जब-जब कांग्रेस के विरोध में खड़ी होती है तब-तब सीबीआई की जवानी चढ़ जाती है और कोर्ट में मायावती पर आय से अधिक सम्पति रखने का प्रसंग गर्मी पैदा करता रहता है। मायावती जैसे ही अंदरूणी तौर पर कांग्रेस की बातें मान लेती है वैसे ही सीबीआई कोर्ट में ठंडी पड़ जाती है।
कांग्रेस का मुख्य निशाना.................................
कांग्रेस का मुख्य निशाना कहां पर है? क्या सिर्फ अमित/नरेन्द्र मोदी तक ही कांग्रेस की घेराबंदी मानी जानी चाहिए? नहीं। कांग्रेस की पूरी नीति भाजपा को बदनाम करने और उसकी राजनीतिक शक्ति समाप्त करने की है। भाजपा को कांग्रेस जितना बदनाम करेगी, जितनी घेराबंदी करेगी उतनी ही उसे अल्पसंख्यक यानी मुस्लिम शक्तियां पास आयेंगी। वर्तमान समय में बिहार में विधान सभा चुनाव है। केन्द्र की सत्ता की चाभी बिहार और उत्तर प्रदेश से निकलती है। बिहार में कांग्रेस दो दशकों से मरना सन्न है। पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को अप्रत्याशित सफलता मिली थी। पर बिहार में कांग्रेस को नकार दिया गया था। बिहार में होने वाले चुनाव में इस प्रसंग पर कांग्रेस लाभ उठाना चाहती है। बाबरी मस्जिद के विध्वंश के बाद मुसलमान कांग्रेस से दूर चले गये थे। कांग्रेस ने सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के माध्यम से मुस्लिमों को अपने पास खींचने की राजनीतिक सफलता पायी है।
राजनीतिक फलितार्थ......................................................
लोकतंत्र में जय-पराजय का माध्यम मत-समर्थन होता है। नीतियां और कार्यक्रम के सहारे लोकतंत्र में सत्ता की लड़ायी लड़ी जाती है। मुगलों की सत्ता संस्कृति में तलवार के बल पर सत्ता लूटा जाता था। बाप को बंधक बनाकर बेटा ख्द राजा बन जाता था। लोकतंत्र में ऐसी प्रक्रिया खतरनाक होती है। पहले कांग्रेस ने कारगिल युद्ध में भ्रष्टाचार को लेकर जार्ज फर्नाडील को बदनाम किया। जांच रिपोर्ट आने पर र्जाज फर्नाडीस के दामन पर लगाये गये रिपोर्ट कहीं नहीं ठहरे। अब कांग्रेस गुजरात में यह खेल खेल रही है। कल भाजपा भी सत्ता में आने पर सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह आदि क्वात्रोचि-सिख दगों पर सीबीआई को मोहरा बनाकर घेराबंदी कर सकती है। लोकतंत्र में यह खेल खतरनाक मानी जा सकती है। इतना ही नहीं बल्कि भाजपा अपने अंदर के गतिरोधों और विसंगतियों से मरन्ना सन्न थी। अब उसे कांग्रेस ने जिंदा करने या आक्शीजन देने का काम किया है। अगर भाजपा ने उग्र हिन्दुत्व के रास्ते पर उतर आये तो देश में गतिरोध और टकराव का एक नया संकट खड़ा हो जायेगा। कांग्रेस को ऐसी खतरनाक राजनीति पर चिंतन करने की जरूरत होगी।
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Tuesday, July 27, 2010
Tuesday, July 20, 2010
बोल ममता......... और कितनी रेल यात्रियों की जान लोगी
राष्ट्र-चिंतन
बोल ममता...और कितनी रेल यात्रियों की जान लोगी
विष्णुगुप्त
पश्चिम बंगाल के वीरभूम के समीप में हुए रेल दुर्घटना के एक दिन पूर्व ही लोकसभा के उपाध्यक्ष कड़िया मुंडा ने इस टिप्पणीकार से बातचीत में कहा था कि सांसदों की सिफारिश को छोड़ दीजिए, सांसदों को स्वयं के लिए भारतीय रेल मंत्रालय से ‘बर्थ आरक्षण‘ के लिए जुझना पड़ता है। कड़िया मुंडा जी संवैधानिक पद पर बैठे हैं, इसलिए रेल मंत्रालय में ‘खुला खेल फारूखाबाजी‘ जैसी स्थिति की सीधी आलोचना और रेल मंत्री की उदासीनता-कर्तव्यहीनता पर प्रत्यक्ष टिप्पणी नहीं कर सकते थे। पर उन्होंने सांसदों को भी अपने बर्थ आरक्षण के लिए जुझने की बात कहकर यह जाहिर ही कर दिया कि रेल मंत्रालय में पूर्णकालिक मंत्री का अभाव और ममता बनती के एजेन्डे में पश्चिम बंगाल के होने से रेल मंत्रालय का महकमा कितना अराजक और बेलगाम हो गया है। इसकी कीमत रेल यात्रियों की जान चुका रही है। ममता बनर्जी ऐसी पहली रेल मंत्री हैं जिनके कार्यकाल में एक पर एक रेल दुर्घटनाएं हो रही हैं, नक्सलियों द्वारा रेल गाड़ियों को विस्फोटों और पटरियों को उखाड़ कर निर्दोष रेल यात्रियों की हत्याएं हो रही हैं, इसके बावजूद भी ममता बनर्जी न तो रेल यात्रियों की जानमाल की सुरक्षा के प्रति गंभीर हो रही हैं और न ही रेल मंत्रालय को अलविदा कहकर रही हैं।
रेल मंत्री की पहली प्राथमिकतां पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे की सरकार को उखाड़ फेंकना है। पर इसकी कीमत निर्दोष यात्री अपनी जान देकर क्यों चुकाये? यात्रियों की जान-माल की सुरक्षा की जिम्मेदारी रेलवे की है। अगर रेलवे अपनी जिम्मेदारी को निभाने में विफल है तो क्या रेल मंत्रालय के अधिकारियों-कर्मचारियों सहित रेल मंत्री ममता बनर्जी दोषी नहीं है? क्या इन पर यात्रियों की हत्या जैसे अपराधो तहत मुकदमा नहीं चलना चाहिए। अगर ममता बनर्जी किसी यूरोप या अमेरिका में रेल मंत्री होती तो निश्चित मानिये की उनका मंत्री पद कबका छिन्न गया होता या फिर ममता को सिविल सोसाइटी न्यायालयों में घसीटकर जेलों में सड़ने के लिए भेजवा देता । अपने देश में भी लाल बहादुर शास्त्री का उदाहरण मौजूद है। दुर्भाग्य यह है कि आज के नेता अपने निजी स्वार्थो के लिए कुर्सी छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं होते हैं। गठबंधन राजमीति की मजबूरी भी कहा जा सकता है जिसमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी जैसे केन्द्रीय सत्ता के सर्वोच्च नियामक भी भारतीय रेल यात्रियों की हत्याओं पर खामोश और लाचार है। आखिर यात्रियों की जान की कीमत पर ममता बनर्जी का बोझ कब तक हम ढोयेंगे। देश की जनता को यह सब जानने का क्या अधिकार नहीं है?
देश में बड़ी रेल दुर्घटनाएं---
1. ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस पर नक्सली हमला
2. 16 जनवरी 2010 उतर प्रदेश के फिरोजाबाद में श्रमीजवी और कालिदी
एक्सप्रेस मे टक्क्र/ तीन की मौत / 16 घायल
3. 14 नवम्बर 2009 को राजस्थान के जोधपुर में मंडौल एक्सप्रेस दुर्धटनाग्रस्त
/ सात लोग मारे गये/ कई घायल
4. एक नवम्बर 2009 में गोरखपुर रेल खंड के पास पैसेंजर और टक के भिड़त
में 14 यात्रियों की मौत
5. 21 अक्टूबर 2009 में मथुरा के पास गोवा और मेवाड़ एक्सप्रेस में टक्कर में
22 लोग की मृत्यु और सैकड़ों घायल
6. 24 फरवरी 2009 में उड़ीसा के धनगौड़ा स्टेशन पर हुई वैन और रेल गाड़ी की
टक्कर में 14 लोगों की मौत/ दर्जनों घायल
7. 14 फरवरी 2009 को कोरोमंडल एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त/ 16 मरे
8. अगस्त 2008 को गौतमी एक्सप्रेस मे लगी आग /32 लोग आग में स्वाहा हुए
9. - 21 अप्रैल 2005 साबामती एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त/ 17 मरे/ सैकड़ो घायल
10. - 22 जून 2003 में महाराष्ट में रेल दुर्घटना में 51 यात्रियों की मौत/
दो सौ से अधिक घायल
ममता बनर्जी के पास इस बार कोई बहाना भी नहीं है। नक्सलियों का ढ़ाल भी वह नहीं ले सकती है। दिल्ली में रेलवे स्टेशन पर हुई दुर्घटना में यात्रियों को ही दोषी ठहराये जाने जैसी मुर्खतापूर्ण और बेहायी प्रक्रिया भी ममता नहीं चला सकती हैं। नक्सलियों द्वारा पटरियों को उखाड़ने और अन्य विस्फोटों के माध्यम से रेल दुर्घटनाएं कराने पर ममता बनर्जी के पास अपने बचाव के लिए तर्क होते थे। उनके पास यह भी तर्क होता था कि सुरक्षा की जिम्मेदारी राज्यो की होती है, इसलिए नक्सलियो के कारनामों से निपटना उनकी नहीं बल्कि राज्य सरकारों की है। वीरभूम में हुई रेल दुर्घटना में न तो नक्सलियों का हाथ है और न ही कोई प्राकृतिक आपदा से उत्पन्न रेल दुर्घटना है। यह सीधेतौर पर परिचालन में हीलाहवाली और उदासीनता ही नहीं बल्कि घोर लापरवाही का प्रसंग है। दुर्घटना कोई बीहड़ जंगली या दुरूह क्षेत्रों में भी नहीं घटी है। दुर्घटना रेल स्टेशन पर ही घटी है और रेल स्टेशन पर खड़ी रेल यात्रि गाड़ी को पीछे से आने वाली रेल यात्री गाड़ी ने जोरदार टक्कर दे मारी। वीरभूम जिले के सेतिया रेल स्टेशन पर पहले से वनांचल एक्सप्रेस खड़ी थी। पीछे से आ रही उत्तरबंगा एक्सप्रेस ने टक्कर मारी। यह सिंगल फेल होने या रेल ड्राइवर द्वारा सिंगल को नजरअंदाज करने का भी मामला नहीं है। अब सवाल यह उठता है कि जब वनांचल एक्सप्रसे सेतिया रेल स्टेशन पर खड़ी थी तब उसी लाइन पर उत्तरबंगा एक्सप्रेस को आने की तकनीकि इजाजत कैसे मिली? यह सीधेतौर परिचालन में अपराधिक चूक का मुकदमा है। रेल परिचालन में लगे कर्मचारियों और रेल अधिकारियों का दोष है। टक्कर कितनी भयानक थी, इसका अंदाजा तो इसी से लगता है कि तीन रेल बोगी पूर्ण रूप से चकनाचुर हो गयी।
रेल मंत्रालय की असली चिंता रेल यात्रियो की जान की रक्षा होती ही नहीं है। उनकी असली चिंता रेल अधिकारियों और कर्मचारियों को बचाने में होती है। इस काम में ममता बनर्जी ही नहीं आगे रही हैं बल्कि लालू, पासवान, नीतिस और जाफर शरीफ जैसे अन्य रेल मंत्रियों की भी यही कहानी है। आज तक जितनी भी रेल दुर्घटनाएं हुई हैं उनमें अधिकतर रेल दुर्घटनाओं के लिए रेल अधिकारी और कर्मचारी सीधेतौर पर दोषी रहे हैं। रेल अधिकारियों -कर्मचारियों को रेल दुर्घटना का दोषी मानकर उन पर गंभीर संहिताओं के तहत मुकदमा चलाने की बात तो दूर रही बल्कि विभागीय कार्रवाई तक नहीं होती है। मानवीय भूल इनकी सबसे बड़ी ढाल होती है। मानवीय भूल कहकर दुर्घटनाओं पर पर्दा डाला जाता है। जनाक्रोश को जांच आयोग बनाकर दबाने की कोशिश होती है। अधिकतर बड़ी दुर्घटनाओं पर जांच आयोग बैठाये गये हैं। जांच आयोगो के रिपोर्ट का क्या होता है, यह जाहिर ही नहीं होता है। रेल मंत्रालय जांच रिपोर्टों को दबाने का काम ही करता है। जनता और राजनीतिज्ञ भी बड़ी दुर्घटनाओं और जांच आयोगों को बाद में भूल जाते हैं और रेल अधिकारी-कर्मचारी अपनी-अपनी उन्नति की सीढ़ीययां नापते रहते हैं। कुछ समय पूर्व दिल्ली में रेलवे स्टेशन पर बड़ी दुर्घटना हुई थी। बिहार जाने वाली गाड़ी पर चढ़ने के लिए प्रतिस्पर्द्धा में हुई भगदड़ में कई लोगो की जानें गयी थी। नियमानुसार रेल स्टेशनों पर भीड़ का प्रबंधन करना रेल मंत्रालय का दायित्व है। रेल मंत्रालय ने अपना दायित्व तो निभाया नहीं पर दुर्घटना का दोष रेल यात्रियों पर ही मढ़ दिया था। ममता बनर्जी ने खुद मुर्खताभरी हुंकार भरी थी। बिहारी मजदूरों को निशाना बनाने की कोशिश की थी। उस दुर्घटना की जांच के लिए जांच कमेटी भी बैठी थी। कितने रेल अधिकारी दंडित हुए। लापरवाही के आरोप मे कितने अधिकारियों और कर्मचारियों पर मुकदमा चलाने की कार्यवाही हुई? ममता बनर्जी और रेल मंत्रालय क्या इस पर अपनी सफाई पेश करेगी? नहीं। क्योंकि रेल मंत्रालय और रेल मंत्री की कलई खुल जायेगी?
ऐसी स्थिति क्यों आई कि रेल मंत्रालय पूरी तरह से अराजक हो गया है। रेल अधिकारी और कर्मचारी बेलगाम हैं। रेल मंत्रालय के आला अधिकारी अपने निजी स्वार्थो की पूति में लगे हुए हैं। उन पर नियंत्रण का अभाव है। देश के दुरदराज की स्थिति क्या होगी यह नहीं कहा जा सकता है। पर दिल्ली में रेल मंत्रालय का नजारा जाकर आप देख सकते हैं। दलाल और पहुंच वाले व्यक्ति पास लेकर सीधे उपर चले जाते हैं। पर शिकायत लिये आम आदमी स्वागत काउंटर से ही वापस चला जाता है। आम आदमी को रेल अधिकारियो से मिलने या फिर अपनी शिकायत प्रत्यक्षतौर पर देने की इजाजत मिलती ही नहीं है। स्वागत काउंटर पर यह कहा जाता है कि आप टेलीफोन से मिलने की इजाजत लीजिए। टेलीफोन हमेशा व्यस्त मिलता है। रेल अधिकारी और कर्मचारी हमेशा निजी बातों में मशगुल रहकर टेलीफोन लाइन खाली रखते ही नहीं हैं। लाचार होकर आम आदमी वापस हो जाता है। यह स्थिति आम आदमी के साथ ही नहीं है। बल्कि पत्रकारो, सांसदों और अन्य प्रमुख लोगों के साथ भी उपस्थित होती है। पत्रकारों को रेलवे के पीआर डाइरेक्टर से बात करने में लोहे के चने चबाने पड़ते हैं। पीआर डाइरेक्टर का दूरभाष अनवरण और अनिश्चितकाल के लिए अति व्यस्त की स्थिति मे होता है। हां अगर पीआर डाइरेक्टर या फिर अन्य बड़े रेल अधिकारियों को यह मालूम है कि आप ममता बनर्जी तक पहुंच रखते हैं तब आपकी शिकायते या फिर अन्य सुविधाएं मिनटो मे मिल जायेंगी। सांसदों की सिफारिश पत्रों को भी फाड़कर फेंक दिया जाता है। बर्थ आरक्षण तो पूरी तरह दलालो के शिकंजे मे हैं। दलालों से रेल अधिकारी कर्मचारी अपनी जेबें गर्म करते हैं। इसीलिए सांसदों और पत्रकारों के रिर्जब कोटे दलालो के काम आते हैं।
यह निश्चित हो गया है कि ममता बनर्जी के पास रेल मंत्रालय के लिए समय नहीं है। रेल मंत्रालय उनकी पहली प्राथमिकता में है भी नहीं। उनकी पहली प्राथमिकता पश्चिम बंगाल की वाममोर्चे सरकार को उखाड़ फेंकना है। ममता बनर्जी दिल्ली में बैठने की जगह कोलकोता मे बैठती है। जब उनके पास रेल मंत्रालय के लिए समय नहीं है तब फिर वे अपने को अलविदा क्यों नहीं कह रही हैं। आखिर कब तक वे यात्रियों की जान से खेलती रहेंगी। भारतीय रेल भारतीय लोकतंत्र का मजबूत पहिया है। करोड़ो लोग प्रतिदिन सफर करते हैं। सबसे बड़ी बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की ममता के प्रति अतिरिक्त संरक्षण वादी नीति है। यह सही है कि मनमोहन सिह और सोनिया गांधी के पास गठबंधन राजनीति की मजबूरी है। लोकतंत्र में पूर्ण जिम्मेदारी प्रधानमंत्री के पास होता है। आखिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ममता बनर्जी की जिद और कर्तव्यहीनता पर कब तक खामोश रहेंगे। क्या इसी तरह यात्रियों को मौत की मुंह जाने की खामोशी पूर्ण नीति आगे भी जारी रहेगी?
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बोल ममता...और कितनी रेल यात्रियों की जान लोगी
विष्णुगुप्त
पश्चिम बंगाल के वीरभूम के समीप में हुए रेल दुर्घटना के एक दिन पूर्व ही लोकसभा के उपाध्यक्ष कड़िया मुंडा ने इस टिप्पणीकार से बातचीत में कहा था कि सांसदों की सिफारिश को छोड़ दीजिए, सांसदों को स्वयं के लिए भारतीय रेल मंत्रालय से ‘बर्थ आरक्षण‘ के लिए जुझना पड़ता है। कड़िया मुंडा जी संवैधानिक पद पर बैठे हैं, इसलिए रेल मंत्रालय में ‘खुला खेल फारूखाबाजी‘ जैसी स्थिति की सीधी आलोचना और रेल मंत्री की उदासीनता-कर्तव्यहीनता पर प्रत्यक्ष टिप्पणी नहीं कर सकते थे। पर उन्होंने सांसदों को भी अपने बर्थ आरक्षण के लिए जुझने की बात कहकर यह जाहिर ही कर दिया कि रेल मंत्रालय में पूर्णकालिक मंत्री का अभाव और ममता बनती के एजेन्डे में पश्चिम बंगाल के होने से रेल मंत्रालय का महकमा कितना अराजक और बेलगाम हो गया है। इसकी कीमत रेल यात्रियों की जान चुका रही है। ममता बनर्जी ऐसी पहली रेल मंत्री हैं जिनके कार्यकाल में एक पर एक रेल दुर्घटनाएं हो रही हैं, नक्सलियों द्वारा रेल गाड़ियों को विस्फोटों और पटरियों को उखाड़ कर निर्दोष रेल यात्रियों की हत्याएं हो रही हैं, इसके बावजूद भी ममता बनर्जी न तो रेल यात्रियों की जानमाल की सुरक्षा के प्रति गंभीर हो रही हैं और न ही रेल मंत्रालय को अलविदा कहकर रही हैं।
रेल मंत्री की पहली प्राथमिकतां पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे की सरकार को उखाड़ फेंकना है। पर इसकी कीमत निर्दोष यात्री अपनी जान देकर क्यों चुकाये? यात्रियों की जान-माल की सुरक्षा की जिम्मेदारी रेलवे की है। अगर रेलवे अपनी जिम्मेदारी को निभाने में विफल है तो क्या रेल मंत्रालय के अधिकारियों-कर्मचारियों सहित रेल मंत्री ममता बनर्जी दोषी नहीं है? क्या इन पर यात्रियों की हत्या जैसे अपराधो तहत मुकदमा नहीं चलना चाहिए। अगर ममता बनर्जी किसी यूरोप या अमेरिका में रेल मंत्री होती तो निश्चित मानिये की उनका मंत्री पद कबका छिन्न गया होता या फिर ममता को सिविल सोसाइटी न्यायालयों में घसीटकर जेलों में सड़ने के लिए भेजवा देता । अपने देश में भी लाल बहादुर शास्त्री का उदाहरण मौजूद है। दुर्भाग्य यह है कि आज के नेता अपने निजी स्वार्थो के लिए कुर्सी छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं होते हैं। गठबंधन राजमीति की मजबूरी भी कहा जा सकता है जिसमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी जैसे केन्द्रीय सत्ता के सर्वोच्च नियामक भी भारतीय रेल यात्रियों की हत्याओं पर खामोश और लाचार है। आखिर यात्रियों की जान की कीमत पर ममता बनर्जी का बोझ कब तक हम ढोयेंगे। देश की जनता को यह सब जानने का क्या अधिकार नहीं है?
देश में बड़ी रेल दुर्घटनाएं---
1. ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस पर नक्सली हमला
2. 16 जनवरी 2010 उतर प्रदेश के फिरोजाबाद में श्रमीजवी और कालिदी
एक्सप्रेस मे टक्क्र/ तीन की मौत / 16 घायल
3. 14 नवम्बर 2009 को राजस्थान के जोधपुर में मंडौल एक्सप्रेस दुर्धटनाग्रस्त
/ सात लोग मारे गये/ कई घायल
4. एक नवम्बर 2009 में गोरखपुर रेल खंड के पास पैसेंजर और टक के भिड़त
में 14 यात्रियों की मौत
5. 21 अक्टूबर 2009 में मथुरा के पास गोवा और मेवाड़ एक्सप्रेस में टक्कर में
22 लोग की मृत्यु और सैकड़ों घायल
6. 24 फरवरी 2009 में उड़ीसा के धनगौड़ा स्टेशन पर हुई वैन और रेल गाड़ी की
टक्कर में 14 लोगों की मौत/ दर्जनों घायल
7. 14 फरवरी 2009 को कोरोमंडल एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त/ 16 मरे
8. अगस्त 2008 को गौतमी एक्सप्रेस मे लगी आग /32 लोग आग में स्वाहा हुए
9. - 21 अप्रैल 2005 साबामती एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त/ 17 मरे/ सैकड़ो घायल
10. - 22 जून 2003 में महाराष्ट में रेल दुर्घटना में 51 यात्रियों की मौत/
दो सौ से अधिक घायल
ममता बनर्जी के पास इस बार कोई बहाना भी नहीं है। नक्सलियों का ढ़ाल भी वह नहीं ले सकती है। दिल्ली में रेलवे स्टेशन पर हुई दुर्घटना में यात्रियों को ही दोषी ठहराये जाने जैसी मुर्खतापूर्ण और बेहायी प्रक्रिया भी ममता नहीं चला सकती हैं। नक्सलियों द्वारा पटरियों को उखाड़ने और अन्य विस्फोटों के माध्यम से रेल दुर्घटनाएं कराने पर ममता बनर्जी के पास अपने बचाव के लिए तर्क होते थे। उनके पास यह भी तर्क होता था कि सुरक्षा की जिम्मेदारी राज्यो की होती है, इसलिए नक्सलियो के कारनामों से निपटना उनकी नहीं बल्कि राज्य सरकारों की है। वीरभूम में हुई रेल दुर्घटना में न तो नक्सलियों का हाथ है और न ही कोई प्राकृतिक आपदा से उत्पन्न रेल दुर्घटना है। यह सीधेतौर पर परिचालन में हीलाहवाली और उदासीनता ही नहीं बल्कि घोर लापरवाही का प्रसंग है। दुर्घटना कोई बीहड़ जंगली या दुरूह क्षेत्रों में भी नहीं घटी है। दुर्घटना रेल स्टेशन पर ही घटी है और रेल स्टेशन पर खड़ी रेल यात्रि गाड़ी को पीछे से आने वाली रेल यात्री गाड़ी ने जोरदार टक्कर दे मारी। वीरभूम जिले के सेतिया रेल स्टेशन पर पहले से वनांचल एक्सप्रेस खड़ी थी। पीछे से आ रही उत्तरबंगा एक्सप्रेस ने टक्कर मारी। यह सिंगल फेल होने या रेल ड्राइवर द्वारा सिंगल को नजरअंदाज करने का भी मामला नहीं है। अब सवाल यह उठता है कि जब वनांचल एक्सप्रसे सेतिया रेल स्टेशन पर खड़ी थी तब उसी लाइन पर उत्तरबंगा एक्सप्रेस को आने की तकनीकि इजाजत कैसे मिली? यह सीधेतौर परिचालन में अपराधिक चूक का मुकदमा है। रेल परिचालन में लगे कर्मचारियों और रेल अधिकारियों का दोष है। टक्कर कितनी भयानक थी, इसका अंदाजा तो इसी से लगता है कि तीन रेल बोगी पूर्ण रूप से चकनाचुर हो गयी।
रेल मंत्रालय की असली चिंता रेल यात्रियो की जान की रक्षा होती ही नहीं है। उनकी असली चिंता रेल अधिकारियों और कर्मचारियों को बचाने में होती है। इस काम में ममता बनर्जी ही नहीं आगे रही हैं बल्कि लालू, पासवान, नीतिस और जाफर शरीफ जैसे अन्य रेल मंत्रियों की भी यही कहानी है। आज तक जितनी भी रेल दुर्घटनाएं हुई हैं उनमें अधिकतर रेल दुर्घटनाओं के लिए रेल अधिकारी और कर्मचारी सीधेतौर पर दोषी रहे हैं। रेल अधिकारियों -कर्मचारियों को रेल दुर्घटना का दोषी मानकर उन पर गंभीर संहिताओं के तहत मुकदमा चलाने की बात तो दूर रही बल्कि विभागीय कार्रवाई तक नहीं होती है। मानवीय भूल इनकी सबसे बड़ी ढाल होती है। मानवीय भूल कहकर दुर्घटनाओं पर पर्दा डाला जाता है। जनाक्रोश को जांच आयोग बनाकर दबाने की कोशिश होती है। अधिकतर बड़ी दुर्घटनाओं पर जांच आयोग बैठाये गये हैं। जांच आयोगो के रिपोर्ट का क्या होता है, यह जाहिर ही नहीं होता है। रेल मंत्रालय जांच रिपोर्टों को दबाने का काम ही करता है। जनता और राजनीतिज्ञ भी बड़ी दुर्घटनाओं और जांच आयोगों को बाद में भूल जाते हैं और रेल अधिकारी-कर्मचारी अपनी-अपनी उन्नति की सीढ़ीययां नापते रहते हैं। कुछ समय पूर्व दिल्ली में रेलवे स्टेशन पर बड़ी दुर्घटना हुई थी। बिहार जाने वाली गाड़ी पर चढ़ने के लिए प्रतिस्पर्द्धा में हुई भगदड़ में कई लोगो की जानें गयी थी। नियमानुसार रेल स्टेशनों पर भीड़ का प्रबंधन करना रेल मंत्रालय का दायित्व है। रेल मंत्रालय ने अपना दायित्व तो निभाया नहीं पर दुर्घटना का दोष रेल यात्रियों पर ही मढ़ दिया था। ममता बनर्जी ने खुद मुर्खताभरी हुंकार भरी थी। बिहारी मजदूरों को निशाना बनाने की कोशिश की थी। उस दुर्घटना की जांच के लिए जांच कमेटी भी बैठी थी। कितने रेल अधिकारी दंडित हुए। लापरवाही के आरोप मे कितने अधिकारियों और कर्मचारियों पर मुकदमा चलाने की कार्यवाही हुई? ममता बनर्जी और रेल मंत्रालय क्या इस पर अपनी सफाई पेश करेगी? नहीं। क्योंकि रेल मंत्रालय और रेल मंत्री की कलई खुल जायेगी?
ऐसी स्थिति क्यों आई कि रेल मंत्रालय पूरी तरह से अराजक हो गया है। रेल अधिकारी और कर्मचारी बेलगाम हैं। रेल मंत्रालय के आला अधिकारी अपने निजी स्वार्थो की पूति में लगे हुए हैं। उन पर नियंत्रण का अभाव है। देश के दुरदराज की स्थिति क्या होगी यह नहीं कहा जा सकता है। पर दिल्ली में रेल मंत्रालय का नजारा जाकर आप देख सकते हैं। दलाल और पहुंच वाले व्यक्ति पास लेकर सीधे उपर चले जाते हैं। पर शिकायत लिये आम आदमी स्वागत काउंटर से ही वापस चला जाता है। आम आदमी को रेल अधिकारियो से मिलने या फिर अपनी शिकायत प्रत्यक्षतौर पर देने की इजाजत मिलती ही नहीं है। स्वागत काउंटर पर यह कहा जाता है कि आप टेलीफोन से मिलने की इजाजत लीजिए। टेलीफोन हमेशा व्यस्त मिलता है। रेल अधिकारी और कर्मचारी हमेशा निजी बातों में मशगुल रहकर टेलीफोन लाइन खाली रखते ही नहीं हैं। लाचार होकर आम आदमी वापस हो जाता है। यह स्थिति आम आदमी के साथ ही नहीं है। बल्कि पत्रकारो, सांसदों और अन्य प्रमुख लोगों के साथ भी उपस्थित होती है। पत्रकारों को रेलवे के पीआर डाइरेक्टर से बात करने में लोहे के चने चबाने पड़ते हैं। पीआर डाइरेक्टर का दूरभाष अनवरण और अनिश्चितकाल के लिए अति व्यस्त की स्थिति मे होता है। हां अगर पीआर डाइरेक्टर या फिर अन्य बड़े रेल अधिकारियों को यह मालूम है कि आप ममता बनर्जी तक पहुंच रखते हैं तब आपकी शिकायते या फिर अन्य सुविधाएं मिनटो मे मिल जायेंगी। सांसदों की सिफारिश पत्रों को भी फाड़कर फेंक दिया जाता है। बर्थ आरक्षण तो पूरी तरह दलालो के शिकंजे मे हैं। दलालों से रेल अधिकारी कर्मचारी अपनी जेबें गर्म करते हैं। इसीलिए सांसदों और पत्रकारों के रिर्जब कोटे दलालो के काम आते हैं।
यह निश्चित हो गया है कि ममता बनर्जी के पास रेल मंत्रालय के लिए समय नहीं है। रेल मंत्रालय उनकी पहली प्राथमिकता में है भी नहीं। उनकी पहली प्राथमिकता पश्चिम बंगाल की वाममोर्चे सरकार को उखाड़ फेंकना है। ममता बनर्जी दिल्ली में बैठने की जगह कोलकोता मे बैठती है। जब उनके पास रेल मंत्रालय के लिए समय नहीं है तब फिर वे अपने को अलविदा क्यों नहीं कह रही हैं। आखिर कब तक वे यात्रियों की जान से खेलती रहेंगी। भारतीय रेल भारतीय लोकतंत्र का मजबूत पहिया है। करोड़ो लोग प्रतिदिन सफर करते हैं। सबसे बड़ी बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की ममता के प्रति अतिरिक्त संरक्षण वादी नीति है। यह सही है कि मनमोहन सिह और सोनिया गांधी के पास गठबंधन राजनीति की मजबूरी है। लोकतंत्र में पूर्ण जिम्मेदारी प्रधानमंत्री के पास होता है। आखिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ममता बनर्जी की जिद और कर्तव्यहीनता पर कब तक खामोश रहेंगे। क्या इसी तरह यात्रियों को मौत की मुंह जाने की खामोशी पूर्ण नीति आगे भी जारी रहेगी?
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Saturday, July 17, 2010
बुर्का प्रतिबंध और विरोध की इस्लामिक रुढ़ियां
राष्ट्र-चिंतन
बुर्का प्रतिबंध और विरोध की इस्लामिक रुढ़ियां
विष्णुगुप्त
फ्रांस में बुर्के पर प्रतिबंध की चर्चा थोड़ा बाद में। पहले मैं अपना तीस साल पुराना अनुव बताना चाहता हूं। 1980 की घटना है। जनता पार्टी सरकार के पतन के बाद हुए लोकसा चुनाव से जुड़ा प्रसंग है। तब मैं एक प्रतिबद्ध राजनीतिक कार्यकर्ता था और बूथ पर अपने संबंधित दल का बूथ एजेंट था। बुर्के की आड़ में तब चार-पांच महिलाओं ने ही पूरी मुस्लिम महिलाओं के बोगस वोट डाल दिये। विरोध दर्ज कराने पर सांप्रदायिक स्थितियां उत्पन्न हो गयी। मतदानकर्मी लाचार थे। लोकतंत्र का कबाड़ा निकल चुका था। लोकतंत्र का यह कबाड़ा न सिर्फ हमारे बूथ पर निकला था बल्कि अन्य बूथों का ी यही हाल था। उस समय पहचान पत्र जैसी बाध्यता ी नहीं थी। ताकि चेहरा न सही पहचान पत्र को देख कर ही, सही-गलत मतदान का अनुमान लगाया जा सके। इसलिए बुर्का सिर्फ महिलाओं का आवरण र न होकर बल्कि कई मजहबी हिंसाओं, रुढ़ियों और विचार प्रवाहों को गति देने का ढ़ाल समझा जाना चाहिए। समानता के अधिकार का हनन तो होता ही है, इसके अलावा दुनिया में सुरक्षा के नये-नये संकटों को और गंीर बनाता है। सुरक्षा के दृष्टिकोण पर ी बुर्का की मजहबी नीति खतरनाक मानी जानी चाहिए। ांस को इस समस्या के समाधान के लिए और मुस्लिम महिलओं को गुलामी का स्थायी प्रक्रिया से निकालने के लिए साधुबाद।
मुस्लिम महिलाओं के हक में अच्छी खबर मानी जानी चाहिए कि फ्रांस ने अपने यहां बुर्का पर प्रतिबंध लगा दिया है। बुर्का पर न केवल प्रतिबंध लगाया गया है बल्कि बुर्का पहने और पहनाने वाले लोगों को दंड विधान का दोषी ठहराया गया है। दंड विधान के तहत बुर्का पहने वाली महिलाओं पर 150 यूरो और बुर्का पहनने के लिए बाध्य करने वाले पुरुषों को 30 हजार यूरो का दंड लगेगा। एक साल की सजा ी होगी। फ्रांस के इस कदम पर वैश्विक प्रतिक्रिया काफी गहरी है और विवाद का कूटनीतिक स्वरूप तेजी से विकसित होगा। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जहां इस पर असहमति दर्शायी है वही इस्लामिक दुनिया ने इसे इस्लाम के प्रति अनादर घोषित किया है। इस्लामिक दुनिया ने फ्रांस पर सीधा आरोप लगाते हुए कहा है कि बुर्का पर प्रतिबंध से मुस्लिमों की आवाज व व्यक्तिगत आजादी पर ताला लगेगा। दुनिया के कई मानवाधिकार संगठनों की राय इस्लामिक दुनिया से मेल खाती है। इस्लामिक दुनिया और मानवाधिकार संगठनों की जुगलबंदी से यह जरूर आास होता है कि इस सूचना क्रांति के विस्फोट के दौर में ी मजहबी रुढ़ियों के खिलाफ आवाज उठाना या फिर उसे समाप्त करने की संवैधानिक संघर्ण और निर्णय करने के बाद ी कैसी कूटनीतिक-मजहबी प्रक्रिया चलेगी और सामना करना पड़ेगा। जिसकी आग से बचना मुश्किल है। जबकि बुर्के पर प्रतिबंध को लेकर कई सालों तक वाद-विवाद की लम्बी प्रक्रिया चली। बहसे हुई। सर्वेक्षणों में प्रतिबंध पर बहुमत रायशुमारी थी।
बुर्के पर प्रतिबंध की परिस्थितियां अचानक उत्पन्न हुई है क्या? सही में इस्लामिक आबादी की व्यक्तिगत आजादी को कुचलने की नीयत से बुर्के पर प्रतिबंध जैसी संवैधानिक प्रक्रिया चलायी गयी है? अब फ्रांस का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप खंडित हो जायेगा क्या? क्या इसे मुस्लिम समाज की आधी आबादी को उत्पीड़न और गुलामी जैसी मानसिकता से निजात दिलाने का सत्यकर्म माना जाना चाहिए? ये सी प्रश्न अति महत्वपूर्ण हैं। फ्रांसीसी समाज में बुर्के के खिलाफ परिस्थितियां अचानक नहीं बनी है। पिछले एक दशक से फ्रांस में बुर्के को लेकर राजनीतिक गर्मी उत्पन्न हो रही थी। कई मजहबी विचार प्रक्रियाओं से जुड़कर बुर्के का प्रश्न खतरनाक माना गया। फ्रांस के धर्मनिरपेक्ष समाज में बुर्का कांटे की तरह चु रहा था। फ्रांस के वर्तमान राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी से पहले तत्कालीन राष्ट्रपति जाक शिराक ने बुर्के को गंीरता से लिया था। जॉक शिराक ने महसूस किया था कि फ्रांस की धर्मनिरपेक्ष समाज में बुर्के की मजहबी नीति ने केवल कट्टरता का विस्तार कर रहा है बल्कि आधी आबादी को मजहबी मानसिकता के आ़ड लेकर शोषण और उत्पीड़न का माध्यम ी बना रहा है। प्राथमिक विद्यालयों से लेकर कार्यस्थलों व सुरक्षा नियामकों तक बुर्का के कारण असुविधा उत्पन्न हो रही थी। हेड स्कार्फ से स्कूलों में गैर मुस्लिम बच्चों और मुस्लिम बच्चों में ेदाव और घृणा की दीवार खतरनाक ढंग से चौड़ी हो रही थी। मुस्लिम मदरसों में हेड स्कार्फ को लेकर समस्या थी नहीं पर सामान्य स्कूलों में हेड स्कार्फ से सीधेतौर पर मजहबी पहचान रेखांकित होती थी। फ्रांस की राजनीतिक इकाई ने 2004 में संसद में प्रस्ताव पारित कर स्कूलों और कालेजों में हेड स्कार्फ पर प्रतिबंध लगा दिया था। फ्रांस के स्कूल कालेज आज मजहबी पहचान से परे हैं।
बुर्का पहनना या न पहनना महिलाओं का व्यक्तिगत अधिकार है। मुस्लिम महिलाएं अपनी मर्जी से बुर्का पहनती है क्या? क्या बुर्का पहनने या फिर अन्य मजहबी रुढ़ियों के शिकार बनने के लिए मजहबी ठेकेदार औरतों को बाध्य नहीं करते है। फ्रांस की तरह हमारे देश में बुर्का सहित अन्य मजहबी पहचान एक संकट के तौर पर खड़ा है। साख कर आतंकवाद जैसी वीीषिका के दौर में। जांच एजेंसियों को बुर्का जैसी समस्या से हमेशा दो-चार होना पड़ता है। फ्रांस ने बुर्के पर प्रतिबंध लगाकर राजनीतिक शक्ति दिखायी है। फ्रांस के इस कदम का कूटनीतिक और राजनीतिक समर्थन की जरूरत है। मुस्लिम महिलाओं की आजादी के तौर पर ही इसे देखा जाना चाहिए। सही तो यह है कि देश के बुद्धिजीवी और धर्मनिरपेक्ष तबका हमेशा से मुस्लिम सवाल का हितरक्षक के तौर पर खड़े होते हैं।
ब़ुर्का की आड़ में यह खेल......
फ्रास में 65 लाख से अधिक मुस्लिम आबादी है। मुस्लिम आबादी न केवल फ्रांस के वििन्न बड़े शहरों में बसी है बल्कि ग्रामीण पृष्ठूमि और व्यवस्था में ी मुस्लिम आबादी का दबदबा गहरा है। फ्रांस में एशिया और अफ्रीका मूल की मुस्लिम आबादी है जो दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद ांस में जाकर बसी थी। ांस ही नहीं बल्कि पूरे यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अतिरिक्त मानव संसाधन की आवश्यकता थी। अतएव सहित पूरे यूरोप ने मुस्लिम आबादी का स्वागत अपने यहां पूरे मनोाव से किया था। यूरोप का खुल्ला समाज ने मुस्लिम आबादी को पलने-बढ़ने का अवसर दिया। की श्रमिकों और कारीगरों के तौर पर गयी मुस्लिम आबादी आज गोरी आबादी के समकक्ष खड़ी हो गयी। फ्रांस का समाज पूरे यूरोप ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में अपने तरह का अकेला है जहां पर धर्मनिरपेक्षता और समान व्यवहार की धारा बहती है। धार्मिक और व्यक्तिगत आजादी की ी धारा की बाधित नहीं होती है। पर मुस्लिम आबादी अब कट्टरता का खेल-खेल रही है। मजहबी कट्टरता का खतरनाक प्राव तो पत्रडा ही है इसके अलावा अपने लिए अलग कानून व्यवस्था की मांग ी मुस्लिम आबादी कर रही है। मुस्लिम आबादी की यह राजनीतिक प्रक्रिया यूरोप को मजहबी खाई में त्रढकेल रही है। बुर्का सहित अन्य रुत्रिढयों को बनाये रखने के पीछे का राजनीतिक खेल यही है।
म़ुस्लिम देशों की प्रतिक्रिया क्यों?......
मुस्लिम देशों का खुद का आईना कितना खतरनाक है, यह बात किसी से छुपी हुई है क्या? मुस्लिम दुनिया ने बुर्के को इस्लाम से जोड़कर मजहबी व व्यक्तिगत आजादी का कुठराधात करार दिया है। खुद मुस्लिम दुनिया औरतों के प्रति कितना सहिष्णुता रखता है, यह बताना पड़ेगा क्या? अी हाल ही में सउदी अरब का एक प्रसंग की चर्चा करना जरूरी जान पड़ता है। एक जोड़ा एक रेस्टोरेंट में एक-दूसरे के हाथ पकड़े हुए बैठा था। उस विदेशी जोड़े को हाथ पर हाथ धरे बैठना मंहगा पड़ा और उसे इस्लामिक कानूनों के खिलाफ मान लिया गया। कई दिनों तक उस जोड़ों को जेलों में गुजारना पत्रडा। उसके बाद जाकर रिहाई सुुनिश्चित हुई। मुस्लिम दुनिया यूरोप और अन्य गैर मुस्लिम देशों में इस्लामिक मूल्यों का सम्मान चाहता है। इसमें कोई अचरज की बात नहीं होनी चाहिए। पर हमें यह ी देखना होगा कि मुस्लिम दुनिया का खुद का चेहरा कितना निरापद है? टीबी देखना, एडल्ट फिल्म देखना और इंटरनेट की संपूर्ण प्रक्रिया से जुड़ना गैर इस्लामिक माना जाता है। कई मुस्लिम देशों में इंटरनेट की सोशल व पोर्न साइटों पर पूर्ण प्रतिबंध है। इन सी गैर इस्लामिक प्रक्रियाओं का ग्राह गैर इस्लामिक आबादी पर क्यों लादा जाता है। क्या बुर्का पर सवाल उठाने वाले मुस्लिम देश इसका जवाब देंगे? मुस्लिम देशों में गैर मुस्लिम आबादी का टीवी देखना, पोर्न साइट देखना आदि क्या व्यक्तिगत आजादी नहीं है। फिर क्यों गैर मुस्लिम आबादी को इस्लामिक कानूनों का ग्राह बनाया जाता है।
म़जहबी रूढ़ियां और महिलाएं.......
धार्मिक समूहों में परस्पर विचार की प्रक्रिया चलाने और समानता का आधार विकसित करने में इस्लाम की रुढियां खलनायक साबित होती है। इस्लाम को छोत्रडकर अन्य धार्मिक समूहों में रुत्रिढयों के खिलाफ सतत संघर्ष चलता है और अधिकतर रुढ़िया दम ी तोड़ चुकी है। पर जहां इस्लाम की बात आती है तो बर्बरकालीन रुढ़ियां अी ी खतरनाक ढंग से चली आ रही हैं। खासकर महिलाओं के खिलाफ इस्लामिक रुढ़िया सर चत्रढकर बोलती हैं। पुरुष गैर इस्लामिक हरकत कर सकता है। शराब पी सकता है, गलत ढंग से दौलत अर्जित कर सकता है, परóी पर गलत नजर डाल सकता है, पर उस पर इस्लामिक रुढ़िया काल नहीं बनती। आखिर महिलाओं को ही रुढ़ियों का शिकार क्यों बनाया जाता है। बुर्का पहना कर चाहारदीवारी में कैद रखना, आधुनिक तो क्या बल्कि प्राथमिक शिक्षा से ी दूर रखना और बात-बात पर तलाक दे देना क्या आधुनिक समाज व्यवस्था की आदर्श स्थिति है? पाकिस्तान-अफगानिस्तान तालिबान ने लड़कियों के सैकडों स्कूलों को जला कर राख करने का काम किया है। स्कूल जाने वाली लड़कियों पर तेजाब फैंक कर मारने जैसी मजहबी प्रक्रिया इस्लामिक रुढ़ियां से ही निकलती हैं। आखिर कब तक महिलाओं को मजहबी रुढ़ियों का शिकार बनाया जाता रहेगा?
द़ेशी बुद्धिजीवियिो को सन्निपात........
बुर्के पर प्रतिबंध फ्रांस में लगा है पर आोशित हमारे देश के तथाकथित बुद्धिजीवी और धर्मनिरपेक्ष समाज है। मुस्लिम धर्म संस्थानों की प्रतिक्रिया तो बुर्के पर प्रतिबंध के खिलाफ होगी ही। बुद्धिजीवी और धर्मनिरपेक्ष तबका लाल-पीला क्यों हो रहा है? इस पर इनका स्वार्थ क्या हो सकता है। बुद्धिजीवी और धर्मनिरपेक्ष तबका कहता है कि बुर्के पर प्रतिबंध लगा कर फ्रांस ने व्यक्ति की धार्मिक आजादी को तोड़ा है। धर्मनिरपेक्ष तबका का मुस्लिम परस्त नीति सामने आयी थी। गुड़िया प्रकरण में भी बुद्धीजीवियों और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष तबके का मुस्लिम परस्त चेहरा सामने आया था।
बुर्का पहनना या न पहनना महिलाओं का व्यक्तिगत अधिकार है। मुस्लिम महिलाएं अपनी मर्जी से बुर्का पहनती है क्या? क्या बुर्का पहनने या फिर अन्य मजहबी रुढ़ियों के शिकार बनने के लिए मजहबी ठेकेदार औरतों को बाध्य नहीं करते है। फ्रांस की तरह हमारे देश में बुर्का सहित अन्य मजहबी पहचान एक संकट के तौर पर खड़ा है। साख कर आतंकवाद जैसी वीीषिका के दौर में। जांच एजेंसियों को बुर्का जैसी समस्या से हमेशा दो-चार होना पड़ता है। फ्रांस ने बुर्के पर प्रतिबंध लगाकर राजनीतिक शक्ति दिखायी है। फ्रांस के इस कदम का कूटनीतिक और राजनीतिक समर्थन की जरूरत है। मुस्लिम महिलाओं की आजादी के तौर पर ही इसे देखा जाना चाहिए। सही तो यह है कि देश के बुद्धिजीवी और धर्मनिरपेक्ष तबका हमेशा से मुस्लिम सवाल का हितरक्षक के तौर पर खड़े होते हैं।
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बुर्का प्रतिबंध और विरोध की इस्लामिक रुढ़ियां
विष्णुगुप्त
फ्रांस में बुर्के पर प्रतिबंध की चर्चा थोड़ा बाद में। पहले मैं अपना तीस साल पुराना अनुव बताना चाहता हूं। 1980 की घटना है। जनता पार्टी सरकार के पतन के बाद हुए लोकसा चुनाव से जुड़ा प्रसंग है। तब मैं एक प्रतिबद्ध राजनीतिक कार्यकर्ता था और बूथ पर अपने संबंधित दल का बूथ एजेंट था। बुर्के की आड़ में तब चार-पांच महिलाओं ने ही पूरी मुस्लिम महिलाओं के बोगस वोट डाल दिये। विरोध दर्ज कराने पर सांप्रदायिक स्थितियां उत्पन्न हो गयी। मतदानकर्मी लाचार थे। लोकतंत्र का कबाड़ा निकल चुका था। लोकतंत्र का यह कबाड़ा न सिर्फ हमारे बूथ पर निकला था बल्कि अन्य बूथों का ी यही हाल था। उस समय पहचान पत्र जैसी बाध्यता ी नहीं थी। ताकि चेहरा न सही पहचान पत्र को देख कर ही, सही-गलत मतदान का अनुमान लगाया जा सके। इसलिए बुर्का सिर्फ महिलाओं का आवरण र न होकर बल्कि कई मजहबी हिंसाओं, रुढ़ियों और विचार प्रवाहों को गति देने का ढ़ाल समझा जाना चाहिए। समानता के अधिकार का हनन तो होता ही है, इसके अलावा दुनिया में सुरक्षा के नये-नये संकटों को और गंीर बनाता है। सुरक्षा के दृष्टिकोण पर ी बुर्का की मजहबी नीति खतरनाक मानी जानी चाहिए। ांस को इस समस्या के समाधान के लिए और मुस्लिम महिलओं को गुलामी का स्थायी प्रक्रिया से निकालने के लिए साधुबाद।
मुस्लिम महिलाओं के हक में अच्छी खबर मानी जानी चाहिए कि फ्रांस ने अपने यहां बुर्का पर प्रतिबंध लगा दिया है। बुर्का पर न केवल प्रतिबंध लगाया गया है बल्कि बुर्का पहने और पहनाने वाले लोगों को दंड विधान का दोषी ठहराया गया है। दंड विधान के तहत बुर्का पहने वाली महिलाओं पर 150 यूरो और बुर्का पहनने के लिए बाध्य करने वाले पुरुषों को 30 हजार यूरो का दंड लगेगा। एक साल की सजा ी होगी। फ्रांस के इस कदम पर वैश्विक प्रतिक्रिया काफी गहरी है और विवाद का कूटनीतिक स्वरूप तेजी से विकसित होगा। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जहां इस पर असहमति दर्शायी है वही इस्लामिक दुनिया ने इसे इस्लाम के प्रति अनादर घोषित किया है। इस्लामिक दुनिया ने फ्रांस पर सीधा आरोप लगाते हुए कहा है कि बुर्का पर प्रतिबंध से मुस्लिमों की आवाज व व्यक्तिगत आजादी पर ताला लगेगा। दुनिया के कई मानवाधिकार संगठनों की राय इस्लामिक दुनिया से मेल खाती है। इस्लामिक दुनिया और मानवाधिकार संगठनों की जुगलबंदी से यह जरूर आास होता है कि इस सूचना क्रांति के विस्फोट के दौर में ी मजहबी रुढ़ियों के खिलाफ आवाज उठाना या फिर उसे समाप्त करने की संवैधानिक संघर्ण और निर्णय करने के बाद ी कैसी कूटनीतिक-मजहबी प्रक्रिया चलेगी और सामना करना पड़ेगा। जिसकी आग से बचना मुश्किल है। जबकि बुर्के पर प्रतिबंध को लेकर कई सालों तक वाद-विवाद की लम्बी प्रक्रिया चली। बहसे हुई। सर्वेक्षणों में प्रतिबंध पर बहुमत रायशुमारी थी।
बुर्के पर प्रतिबंध की परिस्थितियां अचानक उत्पन्न हुई है क्या? सही में इस्लामिक आबादी की व्यक्तिगत आजादी को कुचलने की नीयत से बुर्के पर प्रतिबंध जैसी संवैधानिक प्रक्रिया चलायी गयी है? अब फ्रांस का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप खंडित हो जायेगा क्या? क्या इसे मुस्लिम समाज की आधी आबादी को उत्पीड़न और गुलामी जैसी मानसिकता से निजात दिलाने का सत्यकर्म माना जाना चाहिए? ये सी प्रश्न अति महत्वपूर्ण हैं। फ्रांसीसी समाज में बुर्के के खिलाफ परिस्थितियां अचानक नहीं बनी है। पिछले एक दशक से फ्रांस में बुर्के को लेकर राजनीतिक गर्मी उत्पन्न हो रही थी। कई मजहबी विचार प्रक्रियाओं से जुड़कर बुर्के का प्रश्न खतरनाक माना गया। फ्रांस के धर्मनिरपेक्ष समाज में बुर्का कांटे की तरह चु रहा था। फ्रांस के वर्तमान राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी से पहले तत्कालीन राष्ट्रपति जाक शिराक ने बुर्के को गंीरता से लिया था। जॉक शिराक ने महसूस किया था कि फ्रांस की धर्मनिरपेक्ष समाज में बुर्के की मजहबी नीति ने केवल कट्टरता का विस्तार कर रहा है बल्कि आधी आबादी को मजहबी मानसिकता के आ़ड लेकर शोषण और उत्पीड़न का माध्यम ी बना रहा है। प्राथमिक विद्यालयों से लेकर कार्यस्थलों व सुरक्षा नियामकों तक बुर्का के कारण असुविधा उत्पन्न हो रही थी। हेड स्कार्फ से स्कूलों में गैर मुस्लिम बच्चों और मुस्लिम बच्चों में ेदाव और घृणा की दीवार खतरनाक ढंग से चौड़ी हो रही थी। मुस्लिम मदरसों में हेड स्कार्फ को लेकर समस्या थी नहीं पर सामान्य स्कूलों में हेड स्कार्फ से सीधेतौर पर मजहबी पहचान रेखांकित होती थी। फ्रांस की राजनीतिक इकाई ने 2004 में संसद में प्रस्ताव पारित कर स्कूलों और कालेजों में हेड स्कार्फ पर प्रतिबंध लगा दिया था। फ्रांस के स्कूल कालेज आज मजहबी पहचान से परे हैं।
बुर्का पहनना या न पहनना महिलाओं का व्यक्तिगत अधिकार है। मुस्लिम महिलाएं अपनी मर्जी से बुर्का पहनती है क्या? क्या बुर्का पहनने या फिर अन्य मजहबी रुढ़ियों के शिकार बनने के लिए मजहबी ठेकेदार औरतों को बाध्य नहीं करते है। फ्रांस की तरह हमारे देश में बुर्का सहित अन्य मजहबी पहचान एक संकट के तौर पर खड़ा है। साख कर आतंकवाद जैसी वीीषिका के दौर में। जांच एजेंसियों को बुर्का जैसी समस्या से हमेशा दो-चार होना पड़ता है। फ्रांस ने बुर्के पर प्रतिबंध लगाकर राजनीतिक शक्ति दिखायी है। फ्रांस के इस कदम का कूटनीतिक और राजनीतिक समर्थन की जरूरत है। मुस्लिम महिलाओं की आजादी के तौर पर ही इसे देखा जाना चाहिए। सही तो यह है कि देश के बुद्धिजीवी और धर्मनिरपेक्ष तबका हमेशा से मुस्लिम सवाल का हितरक्षक के तौर पर खड़े होते हैं।
ब़ुर्का की आड़ में यह खेल......
फ्रास में 65 लाख से अधिक मुस्लिम आबादी है। मुस्लिम आबादी न केवल फ्रांस के वििन्न बड़े शहरों में बसी है बल्कि ग्रामीण पृष्ठूमि और व्यवस्था में ी मुस्लिम आबादी का दबदबा गहरा है। फ्रांस में एशिया और अफ्रीका मूल की मुस्लिम आबादी है जो दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद ांस में जाकर बसी थी। ांस ही नहीं बल्कि पूरे यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अतिरिक्त मानव संसाधन की आवश्यकता थी। अतएव सहित पूरे यूरोप ने मुस्लिम आबादी का स्वागत अपने यहां पूरे मनोाव से किया था। यूरोप का खुल्ला समाज ने मुस्लिम आबादी को पलने-बढ़ने का अवसर दिया। की श्रमिकों और कारीगरों के तौर पर गयी मुस्लिम आबादी आज गोरी आबादी के समकक्ष खड़ी हो गयी। फ्रांस का समाज पूरे यूरोप ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में अपने तरह का अकेला है जहां पर धर्मनिरपेक्षता और समान व्यवहार की धारा बहती है। धार्मिक और व्यक्तिगत आजादी की ी धारा की बाधित नहीं होती है। पर मुस्लिम आबादी अब कट्टरता का खेल-खेल रही है। मजहबी कट्टरता का खतरनाक प्राव तो पत्रडा ही है इसके अलावा अपने लिए अलग कानून व्यवस्था की मांग ी मुस्लिम आबादी कर रही है। मुस्लिम आबादी की यह राजनीतिक प्रक्रिया यूरोप को मजहबी खाई में त्रढकेल रही है। बुर्का सहित अन्य रुत्रिढयों को बनाये रखने के पीछे का राजनीतिक खेल यही है।
म़ुस्लिम देशों की प्रतिक्रिया क्यों?......
मुस्लिम देशों का खुद का आईना कितना खतरनाक है, यह बात किसी से छुपी हुई है क्या? मुस्लिम दुनिया ने बुर्के को इस्लाम से जोड़कर मजहबी व व्यक्तिगत आजादी का कुठराधात करार दिया है। खुद मुस्लिम दुनिया औरतों के प्रति कितना सहिष्णुता रखता है, यह बताना पड़ेगा क्या? अी हाल ही में सउदी अरब का एक प्रसंग की चर्चा करना जरूरी जान पड़ता है। एक जोड़ा एक रेस्टोरेंट में एक-दूसरे के हाथ पकड़े हुए बैठा था। उस विदेशी जोड़े को हाथ पर हाथ धरे बैठना मंहगा पड़ा और उसे इस्लामिक कानूनों के खिलाफ मान लिया गया। कई दिनों तक उस जोड़ों को जेलों में गुजारना पत्रडा। उसके बाद जाकर रिहाई सुुनिश्चित हुई। मुस्लिम दुनिया यूरोप और अन्य गैर मुस्लिम देशों में इस्लामिक मूल्यों का सम्मान चाहता है। इसमें कोई अचरज की बात नहीं होनी चाहिए। पर हमें यह ी देखना होगा कि मुस्लिम दुनिया का खुद का चेहरा कितना निरापद है? टीबी देखना, एडल्ट फिल्म देखना और इंटरनेट की संपूर्ण प्रक्रिया से जुड़ना गैर इस्लामिक माना जाता है। कई मुस्लिम देशों में इंटरनेट की सोशल व पोर्न साइटों पर पूर्ण प्रतिबंध है। इन सी गैर इस्लामिक प्रक्रियाओं का ग्राह गैर इस्लामिक आबादी पर क्यों लादा जाता है। क्या बुर्का पर सवाल उठाने वाले मुस्लिम देश इसका जवाब देंगे? मुस्लिम देशों में गैर मुस्लिम आबादी का टीवी देखना, पोर्न साइट देखना आदि क्या व्यक्तिगत आजादी नहीं है। फिर क्यों गैर मुस्लिम आबादी को इस्लामिक कानूनों का ग्राह बनाया जाता है।
म़जहबी रूढ़ियां और महिलाएं.......
धार्मिक समूहों में परस्पर विचार की प्रक्रिया चलाने और समानता का आधार विकसित करने में इस्लाम की रुढियां खलनायक साबित होती है। इस्लाम को छोत्रडकर अन्य धार्मिक समूहों में रुत्रिढयों के खिलाफ सतत संघर्ष चलता है और अधिकतर रुढ़िया दम ी तोड़ चुकी है। पर जहां इस्लाम की बात आती है तो बर्बरकालीन रुढ़ियां अी ी खतरनाक ढंग से चली आ रही हैं। खासकर महिलाओं के खिलाफ इस्लामिक रुढ़िया सर चत्रढकर बोलती हैं। पुरुष गैर इस्लामिक हरकत कर सकता है। शराब पी सकता है, गलत ढंग से दौलत अर्जित कर सकता है, परóी पर गलत नजर डाल सकता है, पर उस पर इस्लामिक रुढ़िया काल नहीं बनती। आखिर महिलाओं को ही रुढ़ियों का शिकार क्यों बनाया जाता है। बुर्का पहना कर चाहारदीवारी में कैद रखना, आधुनिक तो क्या बल्कि प्राथमिक शिक्षा से ी दूर रखना और बात-बात पर तलाक दे देना क्या आधुनिक समाज व्यवस्था की आदर्श स्थिति है? पाकिस्तान-अफगानिस्तान तालिबान ने लड़कियों के सैकडों स्कूलों को जला कर राख करने का काम किया है। स्कूल जाने वाली लड़कियों पर तेजाब फैंक कर मारने जैसी मजहबी प्रक्रिया इस्लामिक रुढ़ियां से ही निकलती हैं। आखिर कब तक महिलाओं को मजहबी रुढ़ियों का शिकार बनाया जाता रहेगा?
द़ेशी बुद्धिजीवियिो को सन्निपात........
बुर्के पर प्रतिबंध फ्रांस में लगा है पर आोशित हमारे देश के तथाकथित बुद्धिजीवी और धर्मनिरपेक्ष समाज है। मुस्लिम धर्म संस्थानों की प्रतिक्रिया तो बुर्के पर प्रतिबंध के खिलाफ होगी ही। बुद्धिजीवी और धर्मनिरपेक्ष तबका लाल-पीला क्यों हो रहा है? इस पर इनका स्वार्थ क्या हो सकता है। बुद्धिजीवी और धर्मनिरपेक्ष तबका कहता है कि बुर्के पर प्रतिबंध लगा कर फ्रांस ने व्यक्ति की धार्मिक आजादी को तोड़ा है। धर्मनिरपेक्ष तबका का मुस्लिम परस्त नीति सामने आयी थी। गुड़िया प्रकरण में भी बुद्धीजीवियों और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष तबके का मुस्लिम परस्त चेहरा सामने आया था।
बुर्का पहनना या न पहनना महिलाओं का व्यक्तिगत अधिकार है। मुस्लिम महिलाएं अपनी मर्जी से बुर्का पहनती है क्या? क्या बुर्का पहनने या फिर अन्य मजहबी रुढ़ियों के शिकार बनने के लिए मजहबी ठेकेदार औरतों को बाध्य नहीं करते है। फ्रांस की तरह हमारे देश में बुर्का सहित अन्य मजहबी पहचान एक संकट के तौर पर खड़ा है। साख कर आतंकवाद जैसी वीीषिका के दौर में। जांच एजेंसियों को बुर्का जैसी समस्या से हमेशा दो-चार होना पड़ता है। फ्रांस ने बुर्के पर प्रतिबंध लगाकर राजनीतिक शक्ति दिखायी है। फ्रांस के इस कदम का कूटनीतिक और राजनीतिक समर्थन की जरूरत है। मुस्लिम महिलाओं की आजादी के तौर पर ही इसे देखा जाना चाहिए। सही तो यह है कि देश के बुद्धिजीवी और धर्मनिरपेक्ष तबका हमेशा से मुस्लिम सवाल का हितरक्षक के तौर पर खड़े होते हैं।
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Thursday, July 15, 2010
कश्मीर में ‘आतंकवादी मनी‘ के प्रवाह पर चिंता मुक्त क्यों?
राष्ट्र-चिंतन
कश्मीर में ‘आतंकवादी मनी‘ के प्रवाह पर चिंता मुक्त क्यों?
विष्णुगुप्त
हुर्रियत के सभी नेता कभी न कभी आतंकवादी रहे हैं और इनके हाथ कश्मीरी अवाम व सुरक्षा बलों के खूनों से रंगे हुए हैं। प्रत्यक्ष आतंकवाद की जगह जनसंगठन का बुर्का पहन कर हुर्रियत के नेता खड़े हो गये। उनकी इस चालाकी और पैंतरेबाजी का खाद-पानी हमारी सत्ता व्यवस्था की उदासीनता से मिला। हम कभी भी हुर्रियत के असली मंशा और उसकी आतंकवादी प्रक्रिया का सही आकलन और विश्लेषण नहीं की और कश्मीर सहित लद्दाख व जम्मू की जनता का भी असली प्रतिनिधि हुर्रियत को ही मान लिया गया। हुर्रियत की पाकिस्तान परस्ती नीति क्या ओझल है। सही तो यह है कि हुर्रियत के नेताओं ने पूरे कश्मीर में मुफ्तखोरी और आतंकवादी बन कर एसोआराम ही नहीं बल्कि भोग-बिलास की जिंदगी जीने की प्रक्रिया चलायी है। इस दुष्चर्क में हुर्रियत के साथ भारत सरकार बराबर का खलनायक है।
उदाहरण के लिए हुर्रियत के प्रायः सभी नेताओं का जीवन शैली देख लीजिए। उनके पास चमकीली और तड़क-भड़क जिंदगी के लिए आय के स्रोत कौन सा है? अधिकतर हुर्रियत नेताओ की आय का स्रोत शून्य है। फांकेकशी की जिंदगी जीने वाले हुर्रियत नेताओं की जिंदगी आतंकवादी बनते ही बदल गयी। उनके पास विदेशी वीवी, महंगी कारें, आलीशान आवास सहित भोग-बिलास की अन्य सभी सुख-सुविधाएं रातोरात मिल गयी। पाकिस्तान ही नहीं बल्कि अमेरिका-युरोप के दौरे पर आमंत्रित होने लगे। भारत सरकार द्वारा हुर्रियत के नेताओं की शान-शौकत बढ़ाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी गयी। मीडिया में दिन-प्रतिदिन उनकी तस्वीरें लहलहाती हैं। मुबंई हमले में जिंदा पकड़ा गया आतंकवाद कसाब को भी पुरस्कार में लाखों रूपये देने के साथ ही साथ कश्मीरी लडक्रियों से संगत कराने का लालच दिया गया था। ऐसी स्थिति में कश्मीर के युवाओं ही नहीं बल्कि पूरे आवाम में हुर्रियत नेता उनके प्रतीक और प्रेरणास््रत्रोत बन जाते हैं। आज कश्मीर के युवा संवर्ग अपने मेहनत के बल पर अपनी जिंदगी चमकीली बनाने की जगह पत्थरबाजी जैसी खतरनाक-खूनी प्रक्रिया से जुड़ रहे हैं और हुर्रियत-आतंकवादियों के जाल में फंस कर अशांति के कारण बने हुए हैं।
फांकेकशी की जिंदगी जीने वाले हुर्रियत नेताओं की जिंदगी आतंकवादी बनते ही बदल गयी। उनके पास विदेशी वीवी, महंगी कारें, आलीशान आवास सहित भोग-बिलास की अन्य सभी सुख-सुविधाएं रातोरात मिल गयी। मीडिया में दिन-प्रतिदिन उनकी तस्वीरें लहलहाती हैं। ऐसे में कश्मीर के युवाओं में हुर्रियत नेता उनके प्रतीक और प्रेरणास््रत्रोत बन जाते हैं। आज कश्मीर के युवा संवर्ग अपनी मेहनत के बल पर अपनी जिंदगी चमकीली बनाने की जगह पत्थरबाजी जैसी खतरनाक-खूनी प्रक्रिया से जुड़ रहे हैं। हुर्रियत के नेताओ की भोग-बिलास की जिंदगी कानूनों के दायरे में क्यों नहीं लाया जाना चाहिए।
हुर्रियत संवर्ग या फिर आतंकवादियों को अपनी जिंदगी भोग-बिलास में तब्दील करने या फिर आतंकवाद के लिए बैरोजगार युवाओं की भर्ती कराने के लिए मनी कहां से आती है? जाहिरतौर पर आईएसआई कश्मीर में सक्रिय आतंकवादी ग्रुपों और हुर्रियत जैसे संगठनों को धन उपलब्ध कराती रही है। आईएसआई का खेल तो जाहिर है पर आतंकवादी मनी का खेल में सिर्फ आईएसआई या फिर पाकिस्तान की सैनिक-असैनिक सत्ता ही नहीं शामिल है। कई ऐसे सुरंग हैं जिस रास्ते से आतंकवादी मनी आती है। अप्रत्यक्षतौर पर सेवा भाव के नाम पर विदेशों से लाखों-करोड़ों डालर प्रतिवर्ष आते हैं। सेवा भाव के नाम पर आने वाली मनी का असली उपयोग राष्ट्र विरोधी हरकतों और दुनिया में देश की छवि बदनाम कराने में उपयोग होता है। सिर्फ कश्मीर में ही नहीं बल्कि देश के दूसरे भागों में भी आतंकवादी मनी आ रही है। केरल, त्रिपुरा, असम और पश्चिम बंगाल जैसे प्रदेशों में भी आतंकवादी मनी का अस्तित्व है। पिछले वर्ष ही दुनिया के शिया देशों ईरान,लीबिया जैसे मुस्लिम देशों ने केरल, त्रिपुरा और असम के मुस्लिम बहुल इलाकों में अपने पक्ष में वातावरण तैयार करने व अमेरिका विरोध के लिए राजनीतिक प्रक्रिया चलाने के नीयत से करोड़ों डालर खर्च किये थे। भारतीय गुप्तचर इंकाइयों के पास ईरान, लीबिया जैसे देशों द्वारा करोड़ों डालर बांटने के सबूत मौजूद हैं। पर भारतीय सरकार ने इस पर कोई एक्शन लेने की जरूरत नहीं समझी।
हुर्रियत की एक नेत्री का प्रसंग भी जानना जरूरी है। एनडीए सरकार के कार्यकाल में हुर्रियत की एक महिला नेत्री दिल्ली में गिरफ्तार हुई थी। हुर्रियत की उस महिला नेत्री एक हवाला एजेंट से लाखों रूपये लेते हुए रंगे हाथ पकड़ी गयी थी। चार साल तक जेलों में रहने के दौरान वह महिला सजा काट कर जेल से बाहर हो गयी। भारतीय गुप्तचर एजेेंसियों को उस महिला ने साफ तौर पर बताया था कि पाकिस्तान ही नहीं बल्कि खाड़ी देशों से भी पैसे जनसंगठनों के नाम फर सक्रिय आतंकवादी संगठनों को मिलते हैं। खाड़ी देशों की कश्मीर में रूचि जगजाहिर है। खाड़ी देश कश्मीर को मुस्लिम प्रश्न के तौर पर देखते हैं और हमेशा आतंकवादियों की खूनी राजनीति को आजादी का प्रश्न बताते हैं। सउदी अरब तो खुलकर पाकिस्तान का साथ देता है और कश्मीर में सक्रिय आतंकवादी सगंठनों को मदद करता रहा है। सउदी अरब के संबंध में एक खतरनाक अध्याय भी जुड़ा हुआ है जिसे अमेरिका नजरअंदाज कर दिया। वह अध्याय ओसामा बिन लादेन को पालने और धन मुहैया कराने का है। ओसामा बिन लादेन सउदी अरब का नागरिक है। सउदी अरब ने लादेन के साथ एक गुप्त समझौता किया था और ओसामा बिन लादेन को सउदी अरब से दूर रहने के एवज में प्रतिमाह लाखों डालर देता था। यह बात सउदी अरब ने खुद स्वीकारी है। यूरोप और अमेरिका में बसे मुस्लिम संवर्ग के धनी लोग भी हवाला सहित अन्य माध्यमों से भारत में आतंकवादी मनी भेजते हैं। वर्ल्ड इस्लामिक बैंक की भूमिका ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संदिग्ध रही है।
पत्थरबाजी में आंतकवादी मनी का निवेश है। पत्थरबाजों को मोटी रकम मिलती है। हुर्रियत और आतंकवादी संगठन इसके लिए प्रेरित करते हैं। यह भी सही है कि कश्मीर में युवाओं और अन्य लोगों को मुफ्तखोरी और हंगामा खड़ा करने की आदत पड़ गयी है। एक तो भारत सरकार की कई रियायतों और सुविधाओं से कश्मीरियों में मुफ्तखोरी करने की लालच बढ़ी है और दूसरे मेंु हुर्रियत के नक्शे पर चल कर अपनी जिंदगी चमकीली ही नहीं बल्कि भोगभिलास में तब्दील करने की प्रक्रिया सिर पर चढ़कर बोलती है। कश्मीर के युवा देखते हैं कि जब हुर्रियत के नेता खूनी राजनीति करने के बाद भी जेलों में नहीं सड़ते और न ही उनकी जिंदगी फांकेकशी में गुजरती है बल्कि उनका जीवन भोग-बिलास में गुजरता है तो फिर हम क्यों नहीं ऐसा कर सकते हैं? पाकिस्तान, आईएसआई, यूरोप और अमेरिका तो हुर्रियत नेताओं को सिर पर उठाता ही है, इसके अलावा भारत सरकार भी हुर्रियत के शान-शौकत में हमेशा नतमस्तक रहती है। जम्मू कश्मीर में तीन संभाग हैं। एक कश्मीर, दूसरा लद्दाख और तीसरा जम्मू। हुर्रियत के नेता सिर्फ कश्मीर का ही प्रतिनिधित्व करते हैं पर भारत सरकार हुर्रियत को पूरे जम्मू-कश्मीर का प्रतिनिधि मानकर बात करती है। इससे हुर्रियत की हुजतबाजी बढेगी तो क्यों नहीं?
आतंकवादी मनी को रोकने की अंतर्राष्ट्रीय संहिता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने आतंकवादी मनी के प्रवाह करने वालों को प्रतिबंधित करने की संहिता बनायी है। आतंकवादी मनी प्रवाह करने वाले कई संगठनों पर प्रतिबंध भी लग चुका है। अमेरिका-यूरोप ने अपने यहां यह प्रक्रिया चाकचौबंद बनायी है।। अमेरिका-यूरोप की तुलना में भारत अभी तक आतंकवादी मनी के प्रवाह को रोकने में गंभीर रूचि तक नहीं दिखायी है। जाहिर सी बात है कि जब तक आतंकवादी मनी का प्रवाह नहीं रोका जायेगा तबतक हम आतंकवाद को रोक नहीं सकते हैं और खूनी राजनीति की प्रक्रिया चलती ही रहेगी। हाल के वर्षों में कश्मीर की स्थिति सुधरी थी और लोकतांत्रित प्रक्रिया मजबूत भी हुंई थी। मनमोहन ंिसह की सरकार ने उदसीनता अपनायी। मनमोहन सरकार ने दूरदर्शिता दिखायी होती तो आज कश्मीर की स्थिति इतनी नहीं बिगड़ती और हुर्रियत को फिर से खड़े होने का मौका शायद ही मिलता। हुर्रियत को मिलने वाली तरजीह बंद होनी चाहिए। हुर्रियत के पास आने वाला आतंकवादी मनी का स्रोत पर कानून का सोंटा चलना चाहिए। आतंकवादी मनी के प्रवाह करने वाले देशों और संगठनों पर संयुक्त राष्ट्रसंघ की संहिता के तहत कार्रवाई कराने की प्रक्रिया चलनी चाहिए। हुर्रियत के नेताओं के भोग-बिलास की जिंदगी पर भारतीय कानूनों का सोंटा चलना चाहिए।
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कश्मीर में ‘आतंकवादी मनी‘ के प्रवाह पर चिंता मुक्त क्यों?
विष्णुगुप्त
हुर्रियत के सभी नेता कभी न कभी आतंकवादी रहे हैं और इनके हाथ कश्मीरी अवाम व सुरक्षा बलों के खूनों से रंगे हुए हैं। प्रत्यक्ष आतंकवाद की जगह जनसंगठन का बुर्का पहन कर हुर्रियत के नेता खड़े हो गये। उनकी इस चालाकी और पैंतरेबाजी का खाद-पानी हमारी सत्ता व्यवस्था की उदासीनता से मिला। हम कभी भी हुर्रियत के असली मंशा और उसकी आतंकवादी प्रक्रिया का सही आकलन और विश्लेषण नहीं की और कश्मीर सहित लद्दाख व जम्मू की जनता का भी असली प्रतिनिधि हुर्रियत को ही मान लिया गया। हुर्रियत की पाकिस्तान परस्ती नीति क्या ओझल है। सही तो यह है कि हुर्रियत के नेताओं ने पूरे कश्मीर में मुफ्तखोरी और आतंकवादी बन कर एसोआराम ही नहीं बल्कि भोग-बिलास की जिंदगी जीने की प्रक्रिया चलायी है। इस दुष्चर्क में हुर्रियत के साथ भारत सरकार बराबर का खलनायक है।
उदाहरण के लिए हुर्रियत के प्रायः सभी नेताओं का जीवन शैली देख लीजिए। उनके पास चमकीली और तड़क-भड़क जिंदगी के लिए आय के स्रोत कौन सा है? अधिकतर हुर्रियत नेताओ की आय का स्रोत शून्य है। फांकेकशी की जिंदगी जीने वाले हुर्रियत नेताओं की जिंदगी आतंकवादी बनते ही बदल गयी। उनके पास विदेशी वीवी, महंगी कारें, आलीशान आवास सहित भोग-बिलास की अन्य सभी सुख-सुविधाएं रातोरात मिल गयी। पाकिस्तान ही नहीं बल्कि अमेरिका-युरोप के दौरे पर आमंत्रित होने लगे। भारत सरकार द्वारा हुर्रियत के नेताओं की शान-शौकत बढ़ाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी गयी। मीडिया में दिन-प्रतिदिन उनकी तस्वीरें लहलहाती हैं। मुबंई हमले में जिंदा पकड़ा गया आतंकवाद कसाब को भी पुरस्कार में लाखों रूपये देने के साथ ही साथ कश्मीरी लडक्रियों से संगत कराने का लालच दिया गया था। ऐसी स्थिति में कश्मीर के युवाओं ही नहीं बल्कि पूरे आवाम में हुर्रियत नेता उनके प्रतीक और प्रेरणास््रत्रोत बन जाते हैं। आज कश्मीर के युवा संवर्ग अपने मेहनत के बल पर अपनी जिंदगी चमकीली बनाने की जगह पत्थरबाजी जैसी खतरनाक-खूनी प्रक्रिया से जुड़ रहे हैं और हुर्रियत-आतंकवादियों के जाल में फंस कर अशांति के कारण बने हुए हैं।
फांकेकशी की जिंदगी जीने वाले हुर्रियत नेताओं की जिंदगी आतंकवादी बनते ही बदल गयी। उनके पास विदेशी वीवी, महंगी कारें, आलीशान आवास सहित भोग-बिलास की अन्य सभी सुख-सुविधाएं रातोरात मिल गयी। मीडिया में दिन-प्रतिदिन उनकी तस्वीरें लहलहाती हैं। ऐसे में कश्मीर के युवाओं में हुर्रियत नेता उनके प्रतीक और प्रेरणास््रत्रोत बन जाते हैं। आज कश्मीर के युवा संवर्ग अपनी मेहनत के बल पर अपनी जिंदगी चमकीली बनाने की जगह पत्थरबाजी जैसी खतरनाक-खूनी प्रक्रिया से जुड़ रहे हैं। हुर्रियत के नेताओ की भोग-बिलास की जिंदगी कानूनों के दायरे में क्यों नहीं लाया जाना चाहिए।
हुर्रियत संवर्ग या फिर आतंकवादियों को अपनी जिंदगी भोग-बिलास में तब्दील करने या फिर आतंकवाद के लिए बैरोजगार युवाओं की भर्ती कराने के लिए मनी कहां से आती है? जाहिरतौर पर आईएसआई कश्मीर में सक्रिय आतंकवादी ग्रुपों और हुर्रियत जैसे संगठनों को धन उपलब्ध कराती रही है। आईएसआई का खेल तो जाहिर है पर आतंकवादी मनी का खेल में सिर्फ आईएसआई या फिर पाकिस्तान की सैनिक-असैनिक सत्ता ही नहीं शामिल है। कई ऐसे सुरंग हैं जिस रास्ते से आतंकवादी मनी आती है। अप्रत्यक्षतौर पर सेवा भाव के नाम पर विदेशों से लाखों-करोड़ों डालर प्रतिवर्ष आते हैं। सेवा भाव के नाम पर आने वाली मनी का असली उपयोग राष्ट्र विरोधी हरकतों और दुनिया में देश की छवि बदनाम कराने में उपयोग होता है। सिर्फ कश्मीर में ही नहीं बल्कि देश के दूसरे भागों में भी आतंकवादी मनी आ रही है। केरल, त्रिपुरा, असम और पश्चिम बंगाल जैसे प्रदेशों में भी आतंकवादी मनी का अस्तित्व है। पिछले वर्ष ही दुनिया के शिया देशों ईरान,लीबिया जैसे मुस्लिम देशों ने केरल, त्रिपुरा और असम के मुस्लिम बहुल इलाकों में अपने पक्ष में वातावरण तैयार करने व अमेरिका विरोध के लिए राजनीतिक प्रक्रिया चलाने के नीयत से करोड़ों डालर खर्च किये थे। भारतीय गुप्तचर इंकाइयों के पास ईरान, लीबिया जैसे देशों द्वारा करोड़ों डालर बांटने के सबूत मौजूद हैं। पर भारतीय सरकार ने इस पर कोई एक्शन लेने की जरूरत नहीं समझी।
हुर्रियत की एक नेत्री का प्रसंग भी जानना जरूरी है। एनडीए सरकार के कार्यकाल में हुर्रियत की एक महिला नेत्री दिल्ली में गिरफ्तार हुई थी। हुर्रियत की उस महिला नेत्री एक हवाला एजेंट से लाखों रूपये लेते हुए रंगे हाथ पकड़ी गयी थी। चार साल तक जेलों में रहने के दौरान वह महिला सजा काट कर जेल से बाहर हो गयी। भारतीय गुप्तचर एजेेंसियों को उस महिला ने साफ तौर पर बताया था कि पाकिस्तान ही नहीं बल्कि खाड़ी देशों से भी पैसे जनसंगठनों के नाम फर सक्रिय आतंकवादी संगठनों को मिलते हैं। खाड़ी देशों की कश्मीर में रूचि जगजाहिर है। खाड़ी देश कश्मीर को मुस्लिम प्रश्न के तौर पर देखते हैं और हमेशा आतंकवादियों की खूनी राजनीति को आजादी का प्रश्न बताते हैं। सउदी अरब तो खुलकर पाकिस्तान का साथ देता है और कश्मीर में सक्रिय आतंकवादी सगंठनों को मदद करता रहा है। सउदी अरब के संबंध में एक खतरनाक अध्याय भी जुड़ा हुआ है जिसे अमेरिका नजरअंदाज कर दिया। वह अध्याय ओसामा बिन लादेन को पालने और धन मुहैया कराने का है। ओसामा बिन लादेन सउदी अरब का नागरिक है। सउदी अरब ने लादेन के साथ एक गुप्त समझौता किया था और ओसामा बिन लादेन को सउदी अरब से दूर रहने के एवज में प्रतिमाह लाखों डालर देता था। यह बात सउदी अरब ने खुद स्वीकारी है। यूरोप और अमेरिका में बसे मुस्लिम संवर्ग के धनी लोग भी हवाला सहित अन्य माध्यमों से भारत में आतंकवादी मनी भेजते हैं। वर्ल्ड इस्लामिक बैंक की भूमिका ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संदिग्ध रही है।
पत्थरबाजी में आंतकवादी मनी का निवेश है। पत्थरबाजों को मोटी रकम मिलती है। हुर्रियत और आतंकवादी संगठन इसके लिए प्रेरित करते हैं। यह भी सही है कि कश्मीर में युवाओं और अन्य लोगों को मुफ्तखोरी और हंगामा खड़ा करने की आदत पड़ गयी है। एक तो भारत सरकार की कई रियायतों और सुविधाओं से कश्मीरियों में मुफ्तखोरी करने की लालच बढ़ी है और दूसरे मेंु हुर्रियत के नक्शे पर चल कर अपनी जिंदगी चमकीली ही नहीं बल्कि भोगभिलास में तब्दील करने की प्रक्रिया सिर पर चढ़कर बोलती है। कश्मीर के युवा देखते हैं कि जब हुर्रियत के नेता खूनी राजनीति करने के बाद भी जेलों में नहीं सड़ते और न ही उनकी जिंदगी फांकेकशी में गुजरती है बल्कि उनका जीवन भोग-बिलास में गुजरता है तो फिर हम क्यों नहीं ऐसा कर सकते हैं? पाकिस्तान, आईएसआई, यूरोप और अमेरिका तो हुर्रियत नेताओं को सिर पर उठाता ही है, इसके अलावा भारत सरकार भी हुर्रियत के शान-शौकत में हमेशा नतमस्तक रहती है। जम्मू कश्मीर में तीन संभाग हैं। एक कश्मीर, दूसरा लद्दाख और तीसरा जम्मू। हुर्रियत के नेता सिर्फ कश्मीर का ही प्रतिनिधित्व करते हैं पर भारत सरकार हुर्रियत को पूरे जम्मू-कश्मीर का प्रतिनिधि मानकर बात करती है। इससे हुर्रियत की हुजतबाजी बढेगी तो क्यों नहीं?
आतंकवादी मनी को रोकने की अंतर्राष्ट्रीय संहिता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने आतंकवादी मनी के प्रवाह करने वालों को प्रतिबंधित करने की संहिता बनायी है। आतंकवादी मनी प्रवाह करने वाले कई संगठनों पर प्रतिबंध भी लग चुका है। अमेरिका-यूरोप ने अपने यहां यह प्रक्रिया चाकचौबंद बनायी है।। अमेरिका-यूरोप की तुलना में भारत अभी तक आतंकवादी मनी के प्रवाह को रोकने में गंभीर रूचि तक नहीं दिखायी है। जाहिर सी बात है कि जब तक आतंकवादी मनी का प्रवाह नहीं रोका जायेगा तबतक हम आतंकवाद को रोक नहीं सकते हैं और खूनी राजनीति की प्रक्रिया चलती ही रहेगी। हाल के वर्षों में कश्मीर की स्थिति सुधरी थी और लोकतांत्रित प्रक्रिया मजबूत भी हुंई थी। मनमोहन ंिसह की सरकार ने उदसीनता अपनायी। मनमोहन सरकार ने दूरदर्शिता दिखायी होती तो आज कश्मीर की स्थिति इतनी नहीं बिगड़ती और हुर्रियत को फिर से खड़े होने का मौका शायद ही मिलता। हुर्रियत को मिलने वाली तरजीह बंद होनी चाहिए। हुर्रियत के पास आने वाला आतंकवादी मनी का स्रोत पर कानून का सोंटा चलना चाहिए। आतंकवादी मनी के प्रवाह करने वाले देशों और संगठनों पर संयुक्त राष्ट्रसंघ की संहिता के तहत कार्रवाई कराने की प्रक्रिया चलनी चाहिए। हुर्रियत के नेताओं के भोग-बिलास की जिंदगी पर भारतीय कानूनों का सोंटा चलना चाहिए।
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