राष्ट्र-चिंतन
मकबूल फिदा हुसैन की कतर नागरिकता पर सवाल
जरा सेक्सुअली परवर्टेड ‘पैगम्बर हजरत मोहम्मद‘ के खिलाफ पैटिंग्स बनाकर दिखाओ
विष्णुगुप्त
भारत में सलमान रूशदी की पुस्तक ‘सेटेनिक वर्सेज‘ प्रतिबंधित हुई। डेनमार्क के कार्टूनिस्ट की पैगम्बर हजरत मुहम्मद वाली कार्टून प्रतिबंधित हुई। हजरत मुहम्मद की कार्टून छापने वाले पत्रकार आलोक तोमर जेल गये। पर क्या आप जबाव दे सकते हैं कि हिन्दू धर्म की खिल्ली उड़ाने वाली कोई पुस्तक या फिर पेंटिंग्स प्रतिबंधित हुई है? क्या आप बता सकते हैं कि मकबुल हुसैन की भारत माता और सरस्वती की सेक्सुएली पैंटिग्स प्रतिबंधित हुई है? आलोक तोमर की तरह कोई पत्रकार और संपादक भारत माता व सरस्वती के सक्सुएली पैंटिग्स छापने पर जेल गया? अगर मकबुल हुसैन ने इस्लाम-ईसायत पर आपत्तिजनक पैंटिग्स बनायी होती तो निश्चित तौर पर उनकी वह पैटिंग्स भारत में प्रतिबंधित होती। क्या कोई मुस्लिम देश सलमान रूशदी या फिर तस्लीमा नसरीन को मकबुल हुसैन की तरह नागरिकता देगा। आज तक सलमान रूशदी और तस्लीमा नसरीन की प्रतिबधित जीवन के खिलाफ हमारे देश के बुद्धीजीवियों का आंसू क्यो नहीं टपकता। देशी बुद्धीजीवियों का आंसू मकबुल हुसैन के पक्ष में ही क्यों टपकता है?
चित्रकार मकबुल हुसैन के कतर नागरिकता प्राप्त कर लेने पर देश में तूफान उठना और हिन्दू सांप्रदायिकता जैसे लांछनों का दौर चलना कहीं से भी अप्रत्याशित नहीं है। धर्मनिरपेक्ष भारत पर काला धब्बा जैसे विचार प्रक्रिया आगे बढ़ रही है। मकबुल हुसैन के कतर नागरिकता के लिए हिन्दूओं की सांप्रदायितकता को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। यह सही है कि हुसैन के चित्रों से हिन्दू संवर्ग की भावनाएं आहत हुई थी और वे हिन्दू धर्म की देवी-देवताओं की अश्लीलता से परिपूर्ण चित्रो की श्रृंखलाएं चलायी थी। एक तर्क यह दिया जाता रहा है कि ‘हिन्दू धर्म‘ के अंदर परमपरायें पुरानी हैं, इसलिए मकबुल हुसैन की हिन्दू देवी-देवताओं के साथ सेक्सुएली चित्र न तो आपत्तिजनक और न ही अश्लील है। इससे न तो हिन्दुओं की भावनाएं आहत होनी चाहिए और न ही आक्रोश होना चाहिएं। सवाल यह उठता है कि सिर्फ हिन्दू देवी-देवताओ पर ही सेक्सुएली चित्रांकन क्यों? क्या अन्य मजहब के देवी-देवताओं या फिर अराधना के प्रतीक चिन्हों पर चित्रांकन क्यो नहीं? हुसैन साहब खुद धर्मनिरपेक्ष हैं क्या? अगर हैं तो फिर उन्होंने क्या कभी इस्लाम या ईसाईत के अराधना की प्रतीक शख्सियतों पर कुच्ची चलायी है? अगर चलायी होती तो निश्चिततौर पर मानिये कि आज जो लोग हायतौबा मचा रहे हैं वही लोग मकबुल हुसैन के खिलाफ में खड़ा होते और उनके कृत्य को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अतिरंजना बताते। इस देश में हिन्दुत्व की आलोचना करना और खिल्ली उड़ाना एक फैशन ही नहीं बल्कि बुद्धीजीवी और धर्मनिरपेक्षत होने का प्रेरक मान लिया गया है।
मकबुल हुसैन अगर हजरत मुहम्मद की अश्लील और सेक्सुएली चित्रांकन की होती तो क्या उहें कतर की नागरिकता मिल सकती थी। क्या कतर जैसे अन्य मुस्लिम देश मकबुल हुसैन को अपने देश में रहने की इजाजत दे सकते थे। कदापि नहीं। हजरत मुहम्मद के बारे कितने मिथक हैं? कितनी विभुतियां लगी हुई हैं। क्या इन पर कोई कुच्ची चलाने की हिम्मत कर सकता है। हजरत मुहम्मद ने वृद्धा अवस्था में ग्यारह साल की अल्पवयस्क बच्ची से शादी की थी। कोई भी स्वतंत्र चिंतक ग्यारह साल की अल्पव्यवस्क बच्ची के साथ शादी करने वाले को कोई पैगम्बर मान सकता है? क्या इसमें पैगम्बर की सेक्स के प्रति अति पागलपन नहीं सलझकता। कई पत्नियो के रहते एक बच्ची के साथ शादी करने की हजरत मुहम्मद को कभी कटघरे मे लाने की कोशिश होती है। जिस तरह से सरस्वती और भारत माता को सेक्स करते पैंटिंग में दिखाया उसी तरह हजरत मुहम्मद जैसे पागल पैगम्बर को क्या ग्यारह साल की बच्ची के साथ सेक्स करते हुसैन दिखा सकते हैं? डेनमार्क का काूर्टन प्रकरण भी चर्चा जरूरी है। डेनमार्क के एक कार्टूनिस्ट ने हजरत मुहम्मद की कार्टून बनायी थी। कार्टून के अखबार में छपते ही दुनिया में तहलका मच गया। मुस्लिम देशों मे तूफान मच गया। हजरत मुहम्मद के खिलाफ कार्टून बनाने वाले कार्टूनिस्ट के खिलाफ फतवों की बाढ़ आ गयी। सउदी अरब, इरान, पाकिस्तान आदि देशों में प्रर्दशनों की सिलसिला महीनों तक जारी रही। डेनमार्क से राजनीतिक-कूटनीतिक संबंध तोड़ डाले गये। भारत में दिल्ली ही नहीं देश के अन्य शहरों में रोसपूर्ण प्रदर्शन हुए। लखनउ में मुसलमानो के प्रदर्शन में हिन्दुओं की जानें तक गयी। मुस्लिम देशों और मुसलमानों के आक्रोश के सामने इंटरनेट की दुनिया भी डर गयी। इंटरनेट को सूचना का मुक्त प्रवाह माना जाता है। पर इंटरनेट से हजरत मुहम्मद के खिलाफ बनी कार्टूनें हटा दी गयी।
सलमान रूश्दी और तसलीमा नसरीन के उदाहरण भी हमारे सामने हैं। मकबुल हुसैन को अपने घर में जगह देने वाले मुस्लिम देश सलमान रूशदी या फिर तसलीमा नसरीन को क्या कभी अपने यहां जगह दी या भविष्य में जगह देंगे। उत्तर होगा नहीं। सलमान रूश्दी ने इस्लाम की कूरीतियों पर कलम चलायी थी। उनकी पुस्तक सेटेनिक वर्सेज पर कितनी तेज तलवरें भांजी थी मुस्लिम देशों ने ? ईरान का तत्कालीन शासक आयातुल्ला खुमैनी ने सलमान रूशदी पर मौत का फतवा जारी किया था। सलमान रूशदी की हत्या करने वालों को दौलत से भरने की पेशकश हुई थीं। आयातुल्ला खुमैनी की फतवा आज भी जारी है। फतवे के आतंक ने सलमान रूशदी के जीवन को नर्क बना दिया है। सुरक्षा घेरे मे सलमान रूशदी को अपना जीवन गुजारने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है। सलमान रूश्दी की पुस्तक सेटेनिक वर्सेज प्रतिबंधित कर दी गयी। तस्लीमा नसरीन ने अपने देश में हिन्दुओं के साथ ज्यादती पर सवाल भर उठाया। तस्लीमा नसरीन आज मुस्लिम समुदाय का सबसे बड़ा दुश्मन मान लिया गया। आज वह डर से एंकात और त्रासदपूर्ण जिंदगी गुजार रही है। कभी वह भारत तो कभी फंास में रहने को मजबूर है। भारत में रहने का स्थायी बीजा तक तस्लीमा नसरीन को नहीं मिल रही है।
धर्मनिरपेक्ष भारत की एक तस्वीर देख लीजिए। साथ में भारतीय बुद्धीजीवियो का भी एक चेहरा देख लीजिए। हिन्दू देवी-देवताओं के सेक्सुएली तस्वीर पर भारत में प्रतिबंध नहीं लगा पर दूसरी ओर सेक्सुएली पागल पैगम्बर हजरत मुहम्मद के खिलाफ डेनमार्क के कार्टूननिस्ट के कार्टूनो पर प्रतिबंध लगा। हजरत मुहम्मद पर बनायी गयी कार्टून को छापने पर आलोक तोमर जैसे पत्रकार को जेल की हवा खानी पड़ी। इतना ही नहीं बल्कि आलोक तोमर को कई दिनो तक घर से निकलना मुश्किल हो गया। भारत सरकार का फरमान जारी हो गया कि पैगम्बर हजरत मुहम्मद के कार्टून छापना जुर्म माना जायेगां। इसका परिणाम यह हुआ कि अखबार और टेलीविजन से हजरत मुहम्मद वाली कार्टूनें छपनी बंद हो गयी। मुस्लिम समुदाय की आक्रमकता और मजहबी कट्टरता से भारत सरकार डर गयी। भारत सरकार को यह डर हमेशा सताती रहती है कि उसे कहीं मुस्लिम वोट बैंक की थोक खरीददारी से हाथ न धोना पड़ा। इसी कारण मुस्लिम समुदाय की मजहबी कट्टरता का खाद-पानी देना सत्ता संस्थान की मजबूरी होती है।
मकबुल हुसैन को लेकर हिन्दू सांप्रदायिकता को कोसने वाले यही बुद्धीजीवि हजरत मुहम्मद के कार्टून छापने वाले डेनमार्क के कार्टूनिस्ट की यह कहकर आलोचना करते थे कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अति है। यही भारतीय बुद्धीजीवी सलमान रूशदी की पुस्तक सेटेनिक वर्सेज पर देश में लगे प्रतिबंध के खिलाफ चुप्पी साध रखे थे। कभी इन्होंने सेटेनिक वर्सेज पुस्तक पर प्रतिबंध के खिलाफ आवाज नहीं उठायी। तस्लीमा नसरीन बार-बार भारत मे रहने का स्थायी बिजा मांग रही है। भारत सरकार मुस्लिम समुदाय के डर से तस्लमा नसरीन को भारत मे स्थायी नागरिकता नहीं दे रही है। तस्लीमा नसरीन के पक्ष में कोई बुद्धीजीवी आगे आता है क्या? वास्तव में हिन्दू समाज का खिल्ली उड़ाना एक फैशन हो गया है। हिन्दू धर्म के प्रतीकों का हास्य उड़ाना धर्मनिरपेक्षता का निशानी भी हो गया है।
आखिर हिन्दू धर्म के प्रतीकों के साथ ही खिलवाड़ क्यों होता है? सेटेनिक वर्सेज और हजरत हुसैन की कार्टून की तरह भारत माता और सरस्वती की सैक्सुएली रेखांकन पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगता। इसलिए कि हिन्दू समाज उदार से सहिष्णुता से परिपूर्ण है। इतना ही नहीं बल्कि हिन्दू समाज मे अपने अराध्य प्रतीकों के प्रति गौरव भाव नहीं रखता है। अगर हिन्दू समाज अपने प्रतीको के प्रति गौरव भाव रखता और उदार न होता तो कोई भी सत्ता और शख्सियत मकबुल हुसैन जैसा कृत्य करने का साहस नहीं कर सकता था। ऐसी स्थिति में सत्ता संस्थान को भी सत्ता जाने का डर होता। मकबुल हुसैन की सरस्वती और भारत माता की सेक्सुएली पैंटिंगें भी प्रतिबंधित भी हुोती?
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Saturday, February 27, 2010
Tuesday, February 23, 2010
इस्लाम स्वीकारो या फिर ‘सिर कलम‘
राष्ट्र-चिंतन
तालिबान द्वारा दो सिखो का सिर कलम
इस्लाम स्वीकारो या फिर ‘सिर कलम‘
विष्णुगुप्त
‘हत्या‘ शव्द अपने आप में क्रूरतम और जघन्य होती है। प्रत्येक हत्याओं में हत्यारे की क्रूरता तथा हैवानियत ही होती है। पर कुछ हत्याएं ऐसी होती है जो क्रूरता और हैवानियत को भी मात दे देती हैं। पाकिस्तान में तालिबान द्वारा दो सिखों की हत्या जघन्य और हैवानियत को भी पार करने वाली है। सिखों का न केवल ‘सर कलम‘ किया बल्कि गुरूद्वारे में उन दोनों सिखों के शवों को भेजवा भी दिया गया। एक-दो दिन नहीं बल्कि दो महीने से दोनों सिख तालिबान के कब्जे में थे। इस दौरान उनके परिवारवालों और सिख समुदाय से करोड़ों की जजिया टैक्स मांगी गयी और इस्लाम स्वीकार करने का फरमान था। पहली बात तो यह कि गरीब और फटेहाल सिख समुदाय करोड़ा का जजिया टैक्स देता भी तो कैसे? पूरे सिख समुदाय द्वारा इस्लाम स्वीकार करना मंजूर होता तो कैसे? यह भी समझना मुर्खता होगी कि तालिबान की यह अकेली और आखिरी क्रूरता है, हैवानियत है। सिख, हिन्दुओं और ईसाईयों पर तालिबान का कहर टूटता ही रहता है। तालिबान के खिलाफ पूरी दुनिया में आक्रोश पनपा है। भारत सरकार भी बयानबाजी की परमपरा की भूमिका पेश की और विदेश मंत्री एस एम कृष्णा ने कहा कि सिखों की हत्या पर पाकिस्तान से बातचीत होगी। बातचीत उस पाकिस्तान से करेंगे जिसने अपहृत सिखों की रिहाई के लिए कोई भी कदम उठाना मुनासिब नहीं समझा था। इतना ही नहीं बल्कि सिखों की हत्या जिस गुट ने की है उस गुट को पाकिस्तान ‘गुड तालिबान‘ कहता है।
जजिया टैक्स‘ की मजहबी अर्थ पर कभी चर्चा होती ही नहीं है। इसके उद्देश्य पर भी घालमेल होता है। ‘जजिया टैक्स‘ सीधेतौर पर इस्लाम की अनुदारता का प्रतीक है। इस्लाम स्वीकार नहीं करने वाले गैर इस्लामिक धार्मिक समुदाय से जजिया टैक्स वसूली जाती है। भारत में मुगल शासक औरेंगजेब ने हिन्दुओं पर ‘जजिया टैक्स‘ लगाया था। एक प्रकार से यह इस्लाम स्वीकार कराने का हथकंडा है। तालिबान या अलकायदा अमेरिकी-यूरोपीय का आधुनिक उपनिवेशवाद के खिलाफ जंग नहीं लड़ रहे हैं। तालिबान-अलकायदा का एकनिष्ठ उद्देश्य पूरी दुनिया को इस्लाम स्वीकार कराना है। तालिबान-अलकायदा बार-बार अपने बयानों में दुनिया से इस्लाम स्वीकार करने या फिर परिणाम भुगतने की धमकी पिलाते रहे है। पाकिस्तान में तालिबान की यह इच्छा किसी से छिपी हुई है क्या? तालिबान को यह मान्य नहीं है कि हिन्दू,सिख और ईसाई पाकिस्तान में रहें। उनका सीधा फरमान होता है कि अगर यहां रहना है तो उन्हें इस्लाम स्वीकार करना ही होगा। सिखों, हिन्दुओं और ईसाइयों के धर्म अनुष्ठानों और पद्धतियों को ये गैरइस्लामी मानते हैं। यह घृणा तालिबान उदय के पहले से चली आ रही है। पाकिस्तान का निर्माण इस्लाम के नाम पर हुआ और उसके गठन के तुरंत बाद ही यह मजहबी घृणा गैर इस्लामिक धार्मिक समुदाय के सिर पर काल के समान नाची। 1947 में विभाजन के बाद पाकिस्तान में करीब 30 प्रतिशत हिन्दुओं, सिखों और ईसाइयों की आबादी थी जो आज इनकी पांच प्रतिशत आबादी भी नही ंबची हैं। अधिकांश हिन्दुओं, सिखों और ईसाइयों को इस्लाम स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
गैर इस्लामिक धार्मिक समुदाय के उत्पीड़न, दमन के लिए सिर्फ तालिबान को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। यह एक नियमित और स्थायी प्रक्रिया है। आखिर तालिबानी विचार पनपता कैसे है? और इस्लामिक बहुलतावाली संस्कृति में ही गैर इस्लामिक धार्मिक समुदाय उत्पीडित क्यों होता है। अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय की संस्कृति की रक्षा की राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक धारा क्यों नहीं बहती है? यह विचारणीय विषय है। सिर्फ तालिबानी उपस्थ्तिि वाली अंधेरगर्दी क्षेत्रों की ही बात नहीं है। जहां भी इस्लाम की बहुलता है वहां तालिबान जैसे हजारों मजहबी संगठन होते हैं जिनका एक मात्र मकसद इस्लाम स्वीकार कराना ही होता है। जहां तक पाकिस्तान की बात है तो निश्चिततौर पर पाकिस्तान समाज से ही तालिबानी विचारों को खाद-पानी मिलता है। तालिबान-अलकायदा का पाकिस्तानी मजहबी समाज में पैठ गहरी है और उसे पाकिस्तानी समाज से संरक्षण व सहयोग भी मिलता रहता है। कबायली इलाकों में ही नहंी बल्कि पंजाब के लाहौर और सिंघ के करांची जैसे क्षेत्रों में भी हिन्दुओं, सिखों और ईसाइयों को मजहबी ंिहसा का शिकार होना पड़ता है। आपसी दुश्मनी निकालने के लिए मजहबी काूननों का सहारा लिया जाता हैं। पाकिस्तान में एक काूनन है ईशनिंदा। ईशनिंदा कानून के तहत अब तक गैर इस्लामिक धार्मिक समुदाय के सैकड़ों लोग जान गंवा चुके हैं। ईशनिंदा कानून में पैगम्बर मुहम्मद की आलोचना करने पर सीधे मौत की सजा है।इसके लिए सिर्फ एक गवाह की गवाही ही काफी होती है। कई मामलों में ऐसा देखा गया है कि हत्या कर देने के बाद बचाव में ईशनिंदा कानून का सहारा लिया गया। यह काूनन तानाशाह जियाउल हक ने बनायी थी। ईशनिंदा कानून का समाप्त होना भी एक जटिल प्रश्न है?
तालिबानी विचारों की खेती लहराती जायेगी। तालिबान विचारों का उद्योग फलता-फूलता रहेगा। इसमें कोई शक की बात नहीं है। पाकिस्तान में तालिबानी विचारों की खेती और उद्योग ही तो है जिसने पाकिस्तान की आवाम का चुल्हा जला रहा है। अर्थव्यवस्था का एक मात्र आधार तालिबानी विचारों की खेती और उद्योग नहीं हैं क्या? आखिर अमेरिका या यूरोप का पैसा देने के आधार को देख लीजिए। तालिबान और अलकायदा के खिलाफ सैनिक अभियान के लिए अमेरिका-यूरोप से करोड़ों डालर मिलते हैं। आज अमेरिकी-यूरोपीय सहायता बंद हुई और कल पाकिस्तान की पूरी अर्थव्यवस्था दिवालिया हो जायेगी? पूरी जीवन रेखा ठहर जायेगी। क्या इस खेती और उद्योग को पाकिस्तान कभी भी बंद करना चाहेगा? पाकिस्तान को मालूम है कि जबतक उनके यहां तालिबान हैं और अलकायदा है, तभी तक अमेरिका-यूरोप की करोड़ों-करोड़ डालर की सहायता मिलेगी? यही लालसा तालिबान-अलकायदा के सफाये में रोड़ा है। पहले तानाशाह मुशर्रफ ने अमेरिका को मूर्ख बनाया और अब पाकिस्तान की वर्तमान सत्ता सिर्फ खानापूर्ति के नाम पर अमेरिका-यूरोप से सहायता लूट रही है। तालिबान-अलकायदा को सैनिक कार्रवाई से पहले ही सूचना क्यों और कैसे मिल जाती है?
इधर पाकिस्तान ने ‘गुड तालिबान‘ की थ्योरी निकाली है। तालिबान के एक गुट को गुड तालिबान की पदवि मिली है। गुड तालिबान गुट की पैरबी पाकिस्तान अमेरिका से करता रहा है। पाकिस्तान का कहना है कि गुड तालिबान से सुलह-समझौता कर अफगानिस्तान में शांति लायी जा सकती है। जानना यह भी जरूरी है कि पाकिस्तान का गुड तालिबान गुट ने ही सिखो का अपहरण किया, करोड़ो का जजिया टैक्स मांगा और उनका सिर कलम किया। इस गुड तालिबान की हैवानियत पर अब पाकिस्तान क्या कहेगा?
हिन्दुओं, सिंखों और ईसाइयो के पास विकल्प क्या है? विकल्प सिर्फ इस्लाम स्वीकार करने का ही है। पाकिस्तान सरकार इन्हें सुरक्षा दे ही नहीं सकती है। तालिबान-अलकायदा की अंधेरगर्दी और मजहबी हैवानियत भी रूकने वाली नहीं है। ऐसी स्थिति में सिखों, हिन्दुओं और ईसाइयों के पास पाकिस्तान छोड़ने या फिर उन्हें अपने मूल धर्म को छोड़कर इस्लाम स्वीकार करने का ही विकल्प बचते है। भारत ही नहीं अपितु दुनिया भर में इस हैवानियत के खिलाफ आक्रोश पनपा है। पाकिस्तान पर दबाव डालने और अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करने की बात उठी है। सतही तौर पर ये सभी बातें सुनने और देखने में अच्छी लगती है। पाकिसतन पर अभी तक दुनिया कोई ठोस पहल करने या फिर उसके आतंकवाद को संरक्षण देने के खेल को बंद कराने में नाकाम रही है। आगे भी दुनिया की यह मजबूरी रूकेगी नहीं। पाकिस्तान की सेना और आईएसआई संकट की असली जड़ है। पाकिस्तान की सेना और आईएसआई बातचीत की भाषा सुनने वाली नहीं है? ये बल प्रयोग की भाषा ही सुन सकते हैं। फिलहाल सिखो, हिन्दुओं और ईसाइयों को तालिबानी हैवानियत से बचाने की जरूरत है।
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तालिबान द्वारा दो सिखो का सिर कलम
इस्लाम स्वीकारो या फिर ‘सिर कलम‘
विष्णुगुप्त
‘हत्या‘ शव्द अपने आप में क्रूरतम और जघन्य होती है। प्रत्येक हत्याओं में हत्यारे की क्रूरता तथा हैवानियत ही होती है। पर कुछ हत्याएं ऐसी होती है जो क्रूरता और हैवानियत को भी मात दे देती हैं। पाकिस्तान में तालिबान द्वारा दो सिखों की हत्या जघन्य और हैवानियत को भी पार करने वाली है। सिखों का न केवल ‘सर कलम‘ किया बल्कि गुरूद्वारे में उन दोनों सिखों के शवों को भेजवा भी दिया गया। एक-दो दिन नहीं बल्कि दो महीने से दोनों सिख तालिबान के कब्जे में थे। इस दौरान उनके परिवारवालों और सिख समुदाय से करोड़ों की जजिया टैक्स मांगी गयी और इस्लाम स्वीकार करने का फरमान था। पहली बात तो यह कि गरीब और फटेहाल सिख समुदाय करोड़ा का जजिया टैक्स देता भी तो कैसे? पूरे सिख समुदाय द्वारा इस्लाम स्वीकार करना मंजूर होता तो कैसे? यह भी समझना मुर्खता होगी कि तालिबान की यह अकेली और आखिरी क्रूरता है, हैवानियत है। सिख, हिन्दुओं और ईसाईयों पर तालिबान का कहर टूटता ही रहता है। तालिबान के खिलाफ पूरी दुनिया में आक्रोश पनपा है। भारत सरकार भी बयानबाजी की परमपरा की भूमिका पेश की और विदेश मंत्री एस एम कृष्णा ने कहा कि सिखों की हत्या पर पाकिस्तान से बातचीत होगी। बातचीत उस पाकिस्तान से करेंगे जिसने अपहृत सिखों की रिहाई के लिए कोई भी कदम उठाना मुनासिब नहीं समझा था। इतना ही नहीं बल्कि सिखों की हत्या जिस गुट ने की है उस गुट को पाकिस्तान ‘गुड तालिबान‘ कहता है।
जजिया टैक्स‘ की मजहबी अर्थ पर कभी चर्चा होती ही नहीं है। इसके उद्देश्य पर भी घालमेल होता है। ‘जजिया टैक्स‘ सीधेतौर पर इस्लाम की अनुदारता का प्रतीक है। इस्लाम स्वीकार नहीं करने वाले गैर इस्लामिक धार्मिक समुदाय से जजिया टैक्स वसूली जाती है। भारत में मुगल शासक औरेंगजेब ने हिन्दुओं पर ‘जजिया टैक्स‘ लगाया था। एक प्रकार से यह इस्लाम स्वीकार कराने का हथकंडा है। तालिबान या अलकायदा अमेरिकी-यूरोपीय का आधुनिक उपनिवेशवाद के खिलाफ जंग नहीं लड़ रहे हैं। तालिबान-अलकायदा का एकनिष्ठ उद्देश्य पूरी दुनिया को इस्लाम स्वीकार कराना है। तालिबान-अलकायदा बार-बार अपने बयानों में दुनिया से इस्लाम स्वीकार करने या फिर परिणाम भुगतने की धमकी पिलाते रहे है। पाकिस्तान में तालिबान की यह इच्छा किसी से छिपी हुई है क्या? तालिबान को यह मान्य नहीं है कि हिन्दू,सिख और ईसाई पाकिस्तान में रहें। उनका सीधा फरमान होता है कि अगर यहां रहना है तो उन्हें इस्लाम स्वीकार करना ही होगा। सिखों, हिन्दुओं और ईसाइयों के धर्म अनुष्ठानों और पद्धतियों को ये गैरइस्लामी मानते हैं। यह घृणा तालिबान उदय के पहले से चली आ रही है। पाकिस्तान का निर्माण इस्लाम के नाम पर हुआ और उसके गठन के तुरंत बाद ही यह मजहबी घृणा गैर इस्लामिक धार्मिक समुदाय के सिर पर काल के समान नाची। 1947 में विभाजन के बाद पाकिस्तान में करीब 30 प्रतिशत हिन्दुओं, सिखों और ईसाइयों की आबादी थी जो आज इनकी पांच प्रतिशत आबादी भी नही ंबची हैं। अधिकांश हिन्दुओं, सिखों और ईसाइयों को इस्लाम स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
गैर इस्लामिक धार्मिक समुदाय के उत्पीड़न, दमन के लिए सिर्फ तालिबान को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। यह एक नियमित और स्थायी प्रक्रिया है। आखिर तालिबानी विचार पनपता कैसे है? और इस्लामिक बहुलतावाली संस्कृति में ही गैर इस्लामिक धार्मिक समुदाय उत्पीडित क्यों होता है। अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय की संस्कृति की रक्षा की राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक धारा क्यों नहीं बहती है? यह विचारणीय विषय है। सिर्फ तालिबानी उपस्थ्तिि वाली अंधेरगर्दी क्षेत्रों की ही बात नहीं है। जहां भी इस्लाम की बहुलता है वहां तालिबान जैसे हजारों मजहबी संगठन होते हैं जिनका एक मात्र मकसद इस्लाम स्वीकार कराना ही होता है। जहां तक पाकिस्तान की बात है तो निश्चिततौर पर पाकिस्तान समाज से ही तालिबानी विचारों को खाद-पानी मिलता है। तालिबान-अलकायदा का पाकिस्तानी मजहबी समाज में पैठ गहरी है और उसे पाकिस्तानी समाज से संरक्षण व सहयोग भी मिलता रहता है। कबायली इलाकों में ही नहंी बल्कि पंजाब के लाहौर और सिंघ के करांची जैसे क्षेत्रों में भी हिन्दुओं, सिखों और ईसाइयों को मजहबी ंिहसा का शिकार होना पड़ता है। आपसी दुश्मनी निकालने के लिए मजहबी काूननों का सहारा लिया जाता हैं। पाकिस्तान में एक काूनन है ईशनिंदा। ईशनिंदा कानून के तहत अब तक गैर इस्लामिक धार्मिक समुदाय के सैकड़ों लोग जान गंवा चुके हैं। ईशनिंदा कानून में पैगम्बर मुहम्मद की आलोचना करने पर सीधे मौत की सजा है।इसके लिए सिर्फ एक गवाह की गवाही ही काफी होती है। कई मामलों में ऐसा देखा गया है कि हत्या कर देने के बाद बचाव में ईशनिंदा कानून का सहारा लिया गया। यह काूनन तानाशाह जियाउल हक ने बनायी थी। ईशनिंदा कानून का समाप्त होना भी एक जटिल प्रश्न है?
तालिबानी विचारों की खेती लहराती जायेगी। तालिबान विचारों का उद्योग फलता-फूलता रहेगा। इसमें कोई शक की बात नहीं है। पाकिस्तान में तालिबानी विचारों की खेती और उद्योग ही तो है जिसने पाकिस्तान की आवाम का चुल्हा जला रहा है। अर्थव्यवस्था का एक मात्र आधार तालिबानी विचारों की खेती और उद्योग नहीं हैं क्या? आखिर अमेरिका या यूरोप का पैसा देने के आधार को देख लीजिए। तालिबान और अलकायदा के खिलाफ सैनिक अभियान के लिए अमेरिका-यूरोप से करोड़ों डालर मिलते हैं। आज अमेरिकी-यूरोपीय सहायता बंद हुई और कल पाकिस्तान की पूरी अर्थव्यवस्था दिवालिया हो जायेगी? पूरी जीवन रेखा ठहर जायेगी। क्या इस खेती और उद्योग को पाकिस्तान कभी भी बंद करना चाहेगा? पाकिस्तान को मालूम है कि जबतक उनके यहां तालिबान हैं और अलकायदा है, तभी तक अमेरिका-यूरोप की करोड़ों-करोड़ डालर की सहायता मिलेगी? यही लालसा तालिबान-अलकायदा के सफाये में रोड़ा है। पहले तानाशाह मुशर्रफ ने अमेरिका को मूर्ख बनाया और अब पाकिस्तान की वर्तमान सत्ता सिर्फ खानापूर्ति के नाम पर अमेरिका-यूरोप से सहायता लूट रही है। तालिबान-अलकायदा को सैनिक कार्रवाई से पहले ही सूचना क्यों और कैसे मिल जाती है?
इधर पाकिस्तान ने ‘गुड तालिबान‘ की थ्योरी निकाली है। तालिबान के एक गुट को गुड तालिबान की पदवि मिली है। गुड तालिबान गुट की पैरबी पाकिस्तान अमेरिका से करता रहा है। पाकिस्तान का कहना है कि गुड तालिबान से सुलह-समझौता कर अफगानिस्तान में शांति लायी जा सकती है। जानना यह भी जरूरी है कि पाकिस्तान का गुड तालिबान गुट ने ही सिखो का अपहरण किया, करोड़ो का जजिया टैक्स मांगा और उनका सिर कलम किया। इस गुड तालिबान की हैवानियत पर अब पाकिस्तान क्या कहेगा?
हिन्दुओं, सिंखों और ईसाइयो के पास विकल्प क्या है? विकल्प सिर्फ इस्लाम स्वीकार करने का ही है। पाकिस्तान सरकार इन्हें सुरक्षा दे ही नहीं सकती है। तालिबान-अलकायदा की अंधेरगर्दी और मजहबी हैवानियत भी रूकने वाली नहीं है। ऐसी स्थिति में सिखों, हिन्दुओं और ईसाइयों के पास पाकिस्तान छोड़ने या फिर उन्हें अपने मूल धर्म को छोड़कर इस्लाम स्वीकार करने का ही विकल्प बचते है। भारत ही नहीं अपितु दुनिया भर में इस हैवानियत के खिलाफ आक्रोश पनपा है। पाकिस्तान पर दबाव डालने और अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करने की बात उठी है। सतही तौर पर ये सभी बातें सुनने और देखने में अच्छी लगती है। पाकिसतन पर अभी तक दुनिया कोई ठोस पहल करने या फिर उसके आतंकवाद को संरक्षण देने के खेल को बंद कराने में नाकाम रही है। आगे भी दुनिया की यह मजबूरी रूकेगी नहीं। पाकिस्तान की सेना और आईएसआई संकट की असली जड़ है। पाकिस्तान की सेना और आईएसआई बातचीत की भाषा सुनने वाली नहीं है? ये बल प्रयोग की भाषा ही सुन सकते हैं। फिलहाल सिखो, हिन्दुओं और ईसाइयों को तालिबानी हैवानियत से बचाने की जरूरत है।
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Wednesday, February 17, 2010
सोनिया गांधी बताओ, अब तुम आजमगढ़ जाओगी या जर्मन बेकरी
राष्ट्र-चिंतन
जर्मन बेकरी विस्फोट कांड
सोनिया गांधी बताओ, अब तुम आजमगढ़ जाओगी या जर्मन बेकरी
विष्णुगुप्त
सोनिया गांधी और राहुल गांधी अब आतंकवाद की नर्सरी ‘आजमगढ़‘ जायेगी या फिर साइबर सिटी पूणे की जर्मन बेकरी? आतंकवादियों ने पूणे स्थित जर्मन बेकरी के समीप विस्फोट कर एक बार फिर निर्दोष जिंदगियों का छीना है, लहुलूहान किया है। एक सबल और संप्रभुता सम्पन्न राष्ट्र की अस्मिता को दंग्ध किया है। यह भी अहसास कराया और चुनौती दी है कि भारत अब भी आतंकवादियों के चंगुल से मुक्त नहीं है। भविष्य में भी आतंकवादी संगठन इसी तरह का खेल खेल सकते हैं। आतंकवाद के फन को मरोड़ने को लेकर भारत सरकार की सभी घोषणाएं कागजी और बयानबाजी से कुछ ज्यादा नहीं रही है। अभी कुछ दिन पूर्व ही कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह आतंकवाद की नर्सरी आजमगढ़ जाकर बटला हाउस कांड के आतंकवादियों के परिवार से मिले थे और उन सभी परिजनों के प्रति सहानुभूति प्रकट की थी जिनके सदस्य आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न रहेे हैं और निर्दोष जिंदगियों को अपना निशाना बनाने जैसे आतंकवादी गतिविधियों मे संलग्न थे। दिग्विजय सिंह के बाद कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी आजमगढ़ जाकर आतंकवादियों के परिजनों से मिलने की इच्छा जतायी थी। सोनिया गांधी-राहुल गांधी अभी तक आजमगढ़ नहीं जा सकी है। अब वह आजमगढ़ जायेगी या जर्मन बेकरी? क्या वह जर्मन बेकरी विस्फोट कांड में संदिग्ध आतंकवादियों के परिजनों से मिलकर उनके साथ सहानुभूति प्रकट कर सकती है? जब कांग्रेस के महासिचव दिग्विजय सिंह आजमगढ़ जाकर बटला हाउस कांड के आतंकवादियों के परिजनों से मिलकर सहानुभूति प्रकट कर सकते हैं और बटला हाउस आतंकी घटना में पुलिस की कार्रवाई पर शक जाहिर कर सकते हैं और सोनिया गांधी-राहुल गांधी भी आजमगढ़ जाने की इच्छा प्रकट कर सकते हैं तब फिर जर्मन बेकरी कांड में शामिल आतंकवादियों के परिजनों से भी सोनिया गांधी-राहुल गांधी को क्यों नहीं मिलना चाहिए? कल अगर यह भी कहा जाने लगे कि जर्मन बेकरी विस्फोट कांड में शामिल आतंकवादी निर्दोष हैं और पुलिस मुसलमानों का उत्पीड़न कर रही है तो कोई आश्चर्य की बात नही मानी चाहिए। पुलिस और सैन्यतंत्र या फिर गुप्तचर एजेन्सियों की विफलता की कहानी प्रचारित करना तो सिर्फ एक परमपरा है, एक ढ़ाल है। आक्रोश और आलोचना से बचने व सरकारी खास को बचाये रखने की राजनीतिक प्रक्रिया है। आतंकवादियों को महिमामंडन करने की राजनीतिक प्रक्रिया हमारे देश में नहीं चलती है क्या? पुलिस पर कार्रवाई के दशा-दिशा भटकाने का राजनीतिक प्रपंच नहीं है क्या?
यह हास-परिहास का विषय नहीं है? देश की राजनीति की यह बदनुमा और घातक सच्चाई है। इस बदनुमा और घातक सच्चाई के कारण ही आतंकवादियों के हौसले बढ़ते हैं और उनकी अंधेरगर्दी चलती है, खूनी राजनीतिक प्रक्रिया फलती-फूलती है। एक संप्रदाय विशेष की खूनी राजनीतक प्रक्रिया का सर्वद्धन होता है। इस दृष्टिकोण से भारत विश्व में अपने तरह का इकलौता जहां पर आतंकवाद जैसी वीभिषिका पर भी राजनीति होती है। आतंकवाद के उठे खतरनाक फन को मरोड़ने की जगह संरक्षण दिया जाता है। पर्दा डाला जाता है। संरक्षण देने और पर्दा डालने के लिए तरह-तरह के तथ्य और विचार गढ़े जाते हैं। आतंकवाद की घटनाएं होने और निर्दोष लोगों की जिंदगियां कुर्बान होने का दोषी पुलिस, अर्द्धसैनिक बलो, सेना और गुप्तचर एजेन्सियो को ठहरा दिया जाता है। बटल हाउस आतंकवादी घटना इसका उदाहरण है। बटला हाउस आतंकवादी घटना ने देश भर में कैसी राजनीतिक प्रक्रिया चलायी है, यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। दिल्ली पुलिस ने बहादुरी दिखाते हुए बटला हाउस मे छिपे हुए आतंकवादियों को पकड़ा था। इसमें दिल्ली पुलिस का एक बहादुर अधिकारी मोहन लाल शर्मा शहीद हुए थे। प्रचारित यह हुआ कि पुलिस ने अपने अधिकारी मोहन लाल शर्मा को गोली मारी थी। पुलिस के हाथों मारे गये और पकड़े गये लड़के आतंकवादी नहीं थे। ये छात्र थे। राजनीतिक दलों, बुद्धीजीवियों के साथ ही साथ जामिया इस्लामिया विश्वविद्यालय आतंकवादियों के पक्ष में खड़े हो गये। इतना ही नहीं बल्कि आतंकवादियों की रिहाई के लिए धन की उगाही भी हुई। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने बटला हाउस कांड की जांच की और उसने पाया कि बटला हाउस कांड फर्जी नहीं था। सुप्रीम कोर्ट ने भी मानवाधिकार आयोग की जांच रिपोर्ट को सही माना। फिर भीं बटला हाउस कांड के पक्ष में खडंा होने वाले बुद्धीजिवयों, राजनीतिक दलों और जामिया इस्लामिया विश्वविद्यालय की बेशर्मी नहीं गयी और उनकी आतंकवाद का महिमामंडल की प्रक्रिया समाप्त नहीं हुई।
जर्मन बेकरी विस्फोट कांड के कुछ दिन पूर्व ही कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह आजमगढ जाकर आतंकवादियों के परिजनों से मिले थे और दिल्ली पुलिस की कार्रवाई पर सवाल उठाये थे। कांग्रेस का कहना था कि मुसलमानों के बीच में भय का वातावरण है,उनके विश्वास को जीतना लोकतंत्र के लिए जरूरी है। विश्वासबहाली के लिए दिग्विजय सिंह आजमगढ गये थे। आजमगढ़ के मुसलमान बहुत गुस्से मे हैं। इसलिए उन्हें मनाने और उनकी शिकायत दूर करने के लिए सोनिया गांधी-राहुल गांधी आजमगढ़ जायेंगे? मुसलमानों की शिकायते दूर करने की राजनीतिक प्रक्रिया पर किसी को भी न तो शिकायत होनी चाहिए और न ही नाराजगी? पर अगर आतंकवादियों के परिजनों के प्रति सहानुभूमि प्रकट की जाये और उनका तुष्टीकरण किया जाये तो सवाल क्यों नहीं उठेंगे? इसके पीछे का रहस्य या खेल भी छीपा हुआ नहीं है। कांग्रेस के इस खेल में कहीं से भी स्वच्छ राजनीतिक प्रक्रिया नहीं मानी जा सकती है। स्वार्थ और सत्ता प्राप्ति की राजनीति है। कांग्रेस ने सत्ता प्राप्ति का मूल मंत्र तुष्टीकरण मानती है और तुष्टीकरण की राजनीतिक खेल खेलती रहती है। कांग्रेस का यह पुरानी और खानदानी पेशा है। जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गाध्ंाी ने तुष्टीकरण का खेल-खेला था। अब सोनिया गांधी-राहुल गाध्ंाी इस खेल को खेल रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में मुसलमानों ने कांग्रेस की सरकार बनाने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। कांग्रेस अब थोक के भाव में मुसलमानो का वोट खरीदना चाहती है। कांग्रेस के उभार के बाद मुसलमान वोट के अन्य खरीददार लालू-मुलायम और कम्युनिस्ट पार्टियां खुद हासिये पर खड़ी हैं। इसलिए कांग्रेस को इस खेल में चुनौती मिलने की उम्मीद ही नहीं है। इसीलिए सोनिया गाधी और राहुल गांधी आतंकवादियों के परिजनों से सहानुभूति प्रकट कर रही है और सहायता का आश्वासन जैसे घातक कार्रवाई करने से भी इन्हें परहेज नहीं है।
जर्मन बेकरी विस्फोट कांड में गुप्तचर एजेन्’िसयों की विफलता नहीं मानी जा रही है। केन्द्रीय गृहमंत्री पी चिदम्बरम का कहना है कि भारतीय गुप्तचर एजेसिंया विफल नही हुई है। यानी कि भारतीय गुप्तचर एजेन्सियो के पास जर्मन बेकरी विस्फोट कांड की पूरी और चाकचौबंद जानकारी थी। निश्चिततौर पर भारतीय गुप्तचर एजेन्सियां यह जानकारी भारत सरकार को उपलब्ध करायी होंगी। फिर सवाल यह उठता है कि जर्मन बेकारी विस्फोट कांड को रोका क्यो नही गया। उन आतंकवादियों को गर्दन क्यों नहीं मरोड़े गये जिन्होंने जर्मन बेकरी के पास निर्दोष लोगों की जिंदगियां उड़ायी, एक संप्रभुता सम्पन्न राज्य की सुरक्षा व्यवस्था की खिल्ली उड़ायी। क्या इन सभी निर्दोष लोगों की जिंदगियां जाने का दोषी भारत सरकार और महाराष्ट्र सरकार को नहीं माना जाना चाहिए। आतंकवादी घटना घटने की जानकारी होने के बाद भी आतंकवादियों का न पकड़ा जाने सीधेतौर पर भारत सरकार और महाराष्ट्र सरकार अपराधी के तौर पर खड़ी है। नियम कानून के अनुसार तो भारत सरकारर और महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ मुकदमा चलना चाहिए। नागरिकों की सुरक्षा की संवैधानिक जिम्मेदारी से सरकारें बधी होती है। संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं निभानेवाली सरकारों को क्या सत्ता मे बना रहना चाहिए?
हम आखिर कबतक पुलिस और गुप्तचर एजेन्सियों की साख के साथ समझौता करते रहेंगे। आखिर हम कबतक पुलिस और गुप्तचर एजेन्सियों को बदनाम करते रहेंगे? पुलिस और गुप्तचर एजेन्सियों के हाथ बांधने वाले कौन लोग हैं? क्या यह सब जगजाहिर नहीं है? जाहिर तो सबकुछ है। गुप्तचर एजेंिसयां सटीक जानकारी देती जरूर हैं पर कार्रवाई की जिम्मेदारी तो पुलिस के उपर ही होती है। पुलिस की भी अपनी मजबूरी है। पुलिस के हाथ बंधे होते हैं। सत्ता संस्थान गुप्तचर एजेन्सियों की जानकारी पर कार्रवाई के लिए पुलिस के हाथ बांध देती हैं। यही काम जर्मन बेकरी में हुआ है। महाराष्ट्र सरकार अपना पूरा ध्यान बाल ठाकरे को औकाता दिखाने और शाहरूख खान की फिल्म प्रदर्शित कराने में लगायी थी। गुप्तचर एजेन्सियों की जानकारी पर ध्यान ही नहीं दिया गया। अब जर्मन बेकरी कांड में जिन आतंकवादियों के नाम सरकार उजागर कर रही है, क्या उन्हें नहीं पकड़ा जा सकता था? यह भी कहा जा रहा है कि अमेरिकी नागरिक हेडली ने जर्मन बेकरी की रैकी की थी। दुर्भाग्य यह है कि अभी तक हेडली के सम्पर्को को खंगाला तक नहीं गया है। हेडली को भारत भ्रमण कराने वाले फिल्म निर्माता महेश भट्ट के बेटे राहुल भट सहित अन्य हीरो-हिरोइनों को पकड़ा तक नहीं गया है। वही महेश भट्ट आतंकवाद और राजनीतिक सुधार पर भारत में भाषण पिलाता है।
सत्ता संस्थान मुस्लिम परस्त नीति से अलग नहीं हो सकता है। कांग्रेस की धमनियों में यह रक्त दौड़ता रहता है। ऐसी स्थिति में हम क्या आतंकवादी घटनाओं को रोक सकते हैं। कदापि नहीं। पाकिस्तान के साथ सख्ती के साथ पेश आने की जगह उसके साथ समर्ग वार्ता चल रही है। आतंकवाद का जबतक सत्ता संस्थान द्वारा महिमामंडल का यह खेल चलता रहेगा तबतक हम आतंकवाद को पराजित करने की बात तक नहीं सोच सकते है। सत्ता संस्थान के खिलाफ जनज्वार पनपेगा तभी सत्ता संस्थान की मर्दानगी जागेगी और वह आतंकवाद के फन को कुचलने के लिए बाध्य होगा।
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जर्मन बेकरी विस्फोट कांड
सोनिया गांधी बताओ, अब तुम आजमगढ़ जाओगी या जर्मन बेकरी
विष्णुगुप्त
सोनिया गांधी और राहुल गांधी अब आतंकवाद की नर्सरी ‘आजमगढ़‘ जायेगी या फिर साइबर सिटी पूणे की जर्मन बेकरी? आतंकवादियों ने पूणे स्थित जर्मन बेकरी के समीप विस्फोट कर एक बार फिर निर्दोष जिंदगियों का छीना है, लहुलूहान किया है। एक सबल और संप्रभुता सम्पन्न राष्ट्र की अस्मिता को दंग्ध किया है। यह भी अहसास कराया और चुनौती दी है कि भारत अब भी आतंकवादियों के चंगुल से मुक्त नहीं है। भविष्य में भी आतंकवादी संगठन इसी तरह का खेल खेल सकते हैं। आतंकवाद के फन को मरोड़ने को लेकर भारत सरकार की सभी घोषणाएं कागजी और बयानबाजी से कुछ ज्यादा नहीं रही है। अभी कुछ दिन पूर्व ही कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह आतंकवाद की नर्सरी आजमगढ़ जाकर बटला हाउस कांड के आतंकवादियों के परिवार से मिले थे और उन सभी परिजनों के प्रति सहानुभूति प्रकट की थी जिनके सदस्य आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न रहेे हैं और निर्दोष जिंदगियों को अपना निशाना बनाने जैसे आतंकवादी गतिविधियों मे संलग्न थे। दिग्विजय सिंह के बाद कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी आजमगढ़ जाकर आतंकवादियों के परिजनों से मिलने की इच्छा जतायी थी। सोनिया गांधी-राहुल गांधी अभी तक आजमगढ़ नहीं जा सकी है। अब वह आजमगढ़ जायेगी या जर्मन बेकरी? क्या वह जर्मन बेकरी विस्फोट कांड में संदिग्ध आतंकवादियों के परिजनों से मिलकर उनके साथ सहानुभूति प्रकट कर सकती है? जब कांग्रेस के महासिचव दिग्विजय सिंह आजमगढ़ जाकर बटला हाउस कांड के आतंकवादियों के परिजनों से मिलकर सहानुभूति प्रकट कर सकते हैं और बटला हाउस आतंकी घटना में पुलिस की कार्रवाई पर शक जाहिर कर सकते हैं और सोनिया गांधी-राहुल गांधी भी आजमगढ़ जाने की इच्छा प्रकट कर सकते हैं तब फिर जर्मन बेकरी कांड में शामिल आतंकवादियों के परिजनों से भी सोनिया गांधी-राहुल गांधी को क्यों नहीं मिलना चाहिए? कल अगर यह भी कहा जाने लगे कि जर्मन बेकरी विस्फोट कांड में शामिल आतंकवादी निर्दोष हैं और पुलिस मुसलमानों का उत्पीड़न कर रही है तो कोई आश्चर्य की बात नही मानी चाहिए। पुलिस और सैन्यतंत्र या फिर गुप्तचर एजेन्सियों की विफलता की कहानी प्रचारित करना तो सिर्फ एक परमपरा है, एक ढ़ाल है। आक्रोश और आलोचना से बचने व सरकारी खास को बचाये रखने की राजनीतिक प्रक्रिया है। आतंकवादियों को महिमामंडन करने की राजनीतिक प्रक्रिया हमारे देश में नहीं चलती है क्या? पुलिस पर कार्रवाई के दशा-दिशा भटकाने का राजनीतिक प्रपंच नहीं है क्या?
यह हास-परिहास का विषय नहीं है? देश की राजनीति की यह बदनुमा और घातक सच्चाई है। इस बदनुमा और घातक सच्चाई के कारण ही आतंकवादियों के हौसले बढ़ते हैं और उनकी अंधेरगर्दी चलती है, खूनी राजनीतिक प्रक्रिया फलती-फूलती है। एक संप्रदाय विशेष की खूनी राजनीतक प्रक्रिया का सर्वद्धन होता है। इस दृष्टिकोण से भारत विश्व में अपने तरह का इकलौता जहां पर आतंकवाद जैसी वीभिषिका पर भी राजनीति होती है। आतंकवाद के उठे खतरनाक फन को मरोड़ने की जगह संरक्षण दिया जाता है। पर्दा डाला जाता है। संरक्षण देने और पर्दा डालने के लिए तरह-तरह के तथ्य और विचार गढ़े जाते हैं। आतंकवाद की घटनाएं होने और निर्दोष लोगों की जिंदगियां कुर्बान होने का दोषी पुलिस, अर्द्धसैनिक बलो, सेना और गुप्तचर एजेन्सियो को ठहरा दिया जाता है। बटल हाउस आतंकवादी घटना इसका उदाहरण है। बटला हाउस आतंकवादी घटना ने देश भर में कैसी राजनीतिक प्रक्रिया चलायी है, यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। दिल्ली पुलिस ने बहादुरी दिखाते हुए बटला हाउस मे छिपे हुए आतंकवादियों को पकड़ा था। इसमें दिल्ली पुलिस का एक बहादुर अधिकारी मोहन लाल शर्मा शहीद हुए थे। प्रचारित यह हुआ कि पुलिस ने अपने अधिकारी मोहन लाल शर्मा को गोली मारी थी। पुलिस के हाथों मारे गये और पकड़े गये लड़के आतंकवादी नहीं थे। ये छात्र थे। राजनीतिक दलों, बुद्धीजीवियों के साथ ही साथ जामिया इस्लामिया विश्वविद्यालय आतंकवादियों के पक्ष में खड़े हो गये। इतना ही नहीं बल्कि आतंकवादियों की रिहाई के लिए धन की उगाही भी हुई। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने बटला हाउस कांड की जांच की और उसने पाया कि बटला हाउस कांड फर्जी नहीं था। सुप्रीम कोर्ट ने भी मानवाधिकार आयोग की जांच रिपोर्ट को सही माना। फिर भीं बटला हाउस कांड के पक्ष में खडंा होने वाले बुद्धीजिवयों, राजनीतिक दलों और जामिया इस्लामिया विश्वविद्यालय की बेशर्मी नहीं गयी और उनकी आतंकवाद का महिमामंडल की प्रक्रिया समाप्त नहीं हुई।
जर्मन बेकरी विस्फोट कांड के कुछ दिन पूर्व ही कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह आजमगढ जाकर आतंकवादियों के परिजनों से मिले थे और दिल्ली पुलिस की कार्रवाई पर सवाल उठाये थे। कांग्रेस का कहना था कि मुसलमानों के बीच में भय का वातावरण है,उनके विश्वास को जीतना लोकतंत्र के लिए जरूरी है। विश्वासबहाली के लिए दिग्विजय सिंह आजमगढ गये थे। आजमगढ़ के मुसलमान बहुत गुस्से मे हैं। इसलिए उन्हें मनाने और उनकी शिकायत दूर करने के लिए सोनिया गांधी-राहुल गांधी आजमगढ़ जायेंगे? मुसलमानों की शिकायते दूर करने की राजनीतिक प्रक्रिया पर किसी को भी न तो शिकायत होनी चाहिए और न ही नाराजगी? पर अगर आतंकवादियों के परिजनों के प्रति सहानुभूमि प्रकट की जाये और उनका तुष्टीकरण किया जाये तो सवाल क्यों नहीं उठेंगे? इसके पीछे का रहस्य या खेल भी छीपा हुआ नहीं है। कांग्रेस के इस खेल में कहीं से भी स्वच्छ राजनीतिक प्रक्रिया नहीं मानी जा सकती है। स्वार्थ और सत्ता प्राप्ति की राजनीति है। कांग्रेस ने सत्ता प्राप्ति का मूल मंत्र तुष्टीकरण मानती है और तुष्टीकरण की राजनीतिक खेल खेलती रहती है। कांग्रेस का यह पुरानी और खानदानी पेशा है। जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गाध्ंाी ने तुष्टीकरण का खेल-खेला था। अब सोनिया गांधी-राहुल गाध्ंाी इस खेल को खेल रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में मुसलमानों ने कांग्रेस की सरकार बनाने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। कांग्रेस अब थोक के भाव में मुसलमानो का वोट खरीदना चाहती है। कांग्रेस के उभार के बाद मुसलमान वोट के अन्य खरीददार लालू-मुलायम और कम्युनिस्ट पार्टियां खुद हासिये पर खड़ी हैं। इसलिए कांग्रेस को इस खेल में चुनौती मिलने की उम्मीद ही नहीं है। इसीलिए सोनिया गाधी और राहुल गांधी आतंकवादियों के परिजनों से सहानुभूति प्रकट कर रही है और सहायता का आश्वासन जैसे घातक कार्रवाई करने से भी इन्हें परहेज नहीं है।
जर्मन बेकरी विस्फोट कांड में गुप्तचर एजेन्’िसयों की विफलता नहीं मानी जा रही है। केन्द्रीय गृहमंत्री पी चिदम्बरम का कहना है कि भारतीय गुप्तचर एजेसिंया विफल नही हुई है। यानी कि भारतीय गुप्तचर एजेन्सियो के पास जर्मन बेकरी विस्फोट कांड की पूरी और चाकचौबंद जानकारी थी। निश्चिततौर पर भारतीय गुप्तचर एजेन्सियां यह जानकारी भारत सरकार को उपलब्ध करायी होंगी। फिर सवाल यह उठता है कि जर्मन बेकारी विस्फोट कांड को रोका क्यो नही गया। उन आतंकवादियों को गर्दन क्यों नहीं मरोड़े गये जिन्होंने जर्मन बेकरी के पास निर्दोष लोगों की जिंदगियां उड़ायी, एक संप्रभुता सम्पन्न राज्य की सुरक्षा व्यवस्था की खिल्ली उड़ायी। क्या इन सभी निर्दोष लोगों की जिंदगियां जाने का दोषी भारत सरकार और महाराष्ट्र सरकार को नहीं माना जाना चाहिए। आतंकवादी घटना घटने की जानकारी होने के बाद भी आतंकवादियों का न पकड़ा जाने सीधेतौर पर भारत सरकार और महाराष्ट्र सरकार अपराधी के तौर पर खड़ी है। नियम कानून के अनुसार तो भारत सरकारर और महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ मुकदमा चलना चाहिए। नागरिकों की सुरक्षा की संवैधानिक जिम्मेदारी से सरकारें बधी होती है। संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं निभानेवाली सरकारों को क्या सत्ता मे बना रहना चाहिए?
हम आखिर कबतक पुलिस और गुप्तचर एजेन्सियों की साख के साथ समझौता करते रहेंगे। आखिर हम कबतक पुलिस और गुप्तचर एजेन्सियों को बदनाम करते रहेंगे? पुलिस और गुप्तचर एजेन्सियों के हाथ बांधने वाले कौन लोग हैं? क्या यह सब जगजाहिर नहीं है? जाहिर तो सबकुछ है। गुप्तचर एजेंिसयां सटीक जानकारी देती जरूर हैं पर कार्रवाई की जिम्मेदारी तो पुलिस के उपर ही होती है। पुलिस की भी अपनी मजबूरी है। पुलिस के हाथ बंधे होते हैं। सत्ता संस्थान गुप्तचर एजेन्सियों की जानकारी पर कार्रवाई के लिए पुलिस के हाथ बांध देती हैं। यही काम जर्मन बेकरी में हुआ है। महाराष्ट्र सरकार अपना पूरा ध्यान बाल ठाकरे को औकाता दिखाने और शाहरूख खान की फिल्म प्रदर्शित कराने में लगायी थी। गुप्तचर एजेन्सियों की जानकारी पर ध्यान ही नहीं दिया गया। अब जर्मन बेकरी कांड में जिन आतंकवादियों के नाम सरकार उजागर कर रही है, क्या उन्हें नहीं पकड़ा जा सकता था? यह भी कहा जा रहा है कि अमेरिकी नागरिक हेडली ने जर्मन बेकरी की रैकी की थी। दुर्भाग्य यह है कि अभी तक हेडली के सम्पर्को को खंगाला तक नहीं गया है। हेडली को भारत भ्रमण कराने वाले फिल्म निर्माता महेश भट्ट के बेटे राहुल भट सहित अन्य हीरो-हिरोइनों को पकड़ा तक नहीं गया है। वही महेश भट्ट आतंकवाद और राजनीतिक सुधार पर भारत में भाषण पिलाता है।
सत्ता संस्थान मुस्लिम परस्त नीति से अलग नहीं हो सकता है। कांग्रेस की धमनियों में यह रक्त दौड़ता रहता है। ऐसी स्थिति में हम क्या आतंकवादी घटनाओं को रोक सकते हैं। कदापि नहीं। पाकिस्तान के साथ सख्ती के साथ पेश आने की जगह उसके साथ समर्ग वार्ता चल रही है। आतंकवाद का जबतक सत्ता संस्थान द्वारा महिमामंडल का यह खेल चलता रहेगा तबतक हम आतंकवाद को पराजित करने की बात तक नहीं सोच सकते है। सत्ता संस्थान के खिलाफ जनज्वार पनपेगा तभी सत्ता संस्थान की मर्दानगी जागेगी और वह आतंकवाद के फन को कुचलने के लिए बाध्य होगा।
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Wednesday, February 10, 2010
महाराष्ट के गृह राज्य मंत्री रमेश द्वारा राहुल गांधी की चप्पल ढोना
राष्ट्र-चिंतन
महाराष्ट के गृह राज्य मंत्री रमेश द्वारा राहुल गांधी की चप्पल ढोना
कांग्रेसियो, शर्म करो, लोकतंत्र को चमचागीरी का पर्याय मत बनाओ
नारायण दत्त तिवारी और शंकर राव चव्हान भी संजय गांधी की चप्पल ढोये थे।
विष्णुगुप्त
महाराष्ट के गृहराज्य मंत्री द्वारा राहुल गांधी की चप्पल ढोने की यह अकेली घटना नहीं हैं। इसके पहले उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी और वर्तमान में महाराष्ट के मुख्यमंत्री अशोक चव्हान के पिता और तत्कालीन मुख्यमंत्री शंकर राव चव्हान ने संजय गांधी के चप्पल ढोये थे। तब संजय गांधी की कांग्रेस की राजनीति में तूती बोलती थी और राजनीति सोपान तय करने का एक मात्र रास्ता संजय गांधी की कृपा होती थी। सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी पूरी तरह से चाटूकारों और चमचों की टोली से घिरे हुए हैं और गृहराज्य मंत्री रमेश जैसे चाटूकार इन्हें पंसद भी हैं।
‘भारतीय राष्टीय कांग्रेस पार्टी‘ के विघटन की इच्छा महात्मा गांधी की थी। उनके पास कांग्रेस के विघटन के तर्क थे और दूरदृष्टि भी थी। इसलिए कि कांग्रेस के पास आजादी की धरोहर थी। कांग्रेस का मुख्य लक्ष्य आजादी था। 1947 में आजादी मिलने के बाद कांग्रेस का मुख्य लक्ष्य की प्राप्ति भी हो गयी थी। महात्मा गांधी ने यह महसूस किया था कि ‘कांग्रेस‘ के पास आजादी के इस धरोहर के साथ खिलवाड़ और नैतिकता के साथ ही साथ जनविरोधी राजनीति का पर्याय बनाया जा सकता है। इसलिए कांग्रेस का विघटन जरूरी है। महात्मा गांधी के इस इच्छा का समान न हुआ और जवाहर लाल नेहरू ने कांग्रेस को अपने परिवारिक सत्ता उत्थान का मोहरा बना दिया। आज कांग्रेस के अंदर घटने वाली धटनाएं यह कहने और बताने के लिए तत्पर हैं कि महात्ता गांधी की वह इच्छा कितनी सटीक और दूरदृष्टि से परिपूर्ण थी। राहुल गांधी के मुबंई दौरे के दौरान जिस तरह की नैतिकता का पतन और चाटूकारिता की अथाह गर्त मे गिरने की राजनीतिक पारिपार्टी-अपसंस्कृति देखी गयी, उससे भारतीय लोकतंत्र की जड़ें न तो मजबूत हो सकती है और न ही प्रेरणादायक हो सकती है। महाराष्ट के गृहराज्य मंत्री रमेश ने राहुल गांधी का न केवल चप्पल उठाया बल्कि चप्पल उठाकर चलते भी देखे गये। गृहराज्य मंत्री की इस चाटूकारिता पर राहुल गांधी को भी कोई कोप नहंी हुआ बल्कि राहुल गांधी अपना कुटिल मुस्कान बिखरते हुए मुकभाव से प्रंससित भी थे। जबकि राहुल गांधी बार-बार यह कहते हुए नहीं थकते हैं कि कांग्रेस में अब चाटूकारिता नहीं चलेगी, पंहुच भी नहीं चलेगी। जन से जुड़े हुए राजनीतिज्ञ ही कांग्रेस में सौपान लांघेंगे। क्या गृह राज्यमंत्री जैसे पद पर बैठे शख्सियत द्वारा चप्पल उठा कर चलना चाटूकारिता नहीं है? लोकतंत्र को शर्मशार करनेवाली ऐसी घटनाएं कांग्रेस का सिर्फ अंदरूणी चाटूकारिता की संस्कृति मानकर खारिज कर दिया जाना चाहिए? कदापि नहीं । इसलिए कि कांग्रेस के साथ आजादी की धरोहर जुड़ी हुई है।
चाटूकारिता और अनैतिकता कांग्रेस की खून में रची-बसी हुई है और उसकी राजनीतिक धमनियों में यह सब अनवरत बहती रहती है। चाटूकारिता और अनैतिकता की पौबारह बहाने का जिम्मेदार जवाहर लाल नेहरू थे। कांग्रेस में उन्होंने आजादी की धरोहर से जुड़े हुए राजनीति की धाराएं रोंकी और इसकी जगह चाटूकार और अनैतिकता से भरी हुई राजनीतिक शख्सियतों को स्थापित कराया। नेहरू ने चन्द्रभाणू गुप्त,विधानचंद्र राय, मोरार जी देशाई जैसे अनेकों आजादी की शख्सियतों को हासिये पर खदेड़ा। संसद और राज्य विधान सभाओं के साथ ही साथ सरकारों पर नेहरू की जाति ब्राम्हणों का आधिपत्य हुआ। परिवारवाद का वृक्षारोपण हुआ। इसका उदाहरण था नेहरू द्वारा अपनी पुत्री इंदिरा गांधी को अपना उतराधिकारी घोषित करना और कांग्रेस की अध्यक्ष पद पर बैठाना। उस समय इंदिरा गांधी की राजनीतिक कमाई इतनी भर थी कि वह जवाहर लाल नेहरू की पुत्री थी। कांग्रेस की अध्यक्ष के रूप में इंदिरा गांधी ने वरिष्ठ और नैतिकता वाले कांग्रेसियों को बाहर करने में कोई कंजूसी नहीं बरती। लाल बहादुर शास्त्री की असमय मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री पद पर जा बैठी। अपने मनपंसद उम्मीदवार को राष्टपति का उम्मीदवार नहीं बनाये जाने पर इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी के राष्टपति पद के उम्मीदवार नीलम संजीवा रेड्डी को परास्त कराया और निर्दलीय बीबी गिरी को राष्टपति बनाया। लोकतंत्र में ऐसा उदाहरण और नहीं मिलेगा जिसमें प्रधानमंत्री खुद अपने दल द्वारा घोषित राष्टपति के उम्मीदवार को पराजित कराने की राजनीतिक चाल चली हो।
इंदिरा गांधी को जमीर और जनाधार वालेे राजनीतिज्ञों से चीड थी। इसलिए उन्होंने भारतीय राजनीति में चाटूकारिता और अनैतिकता से भरी शख्सियतों की धारा बहायी। देवकांत बरूआ की चाटूकारिता भारतीय राजनीति में हमेशा चर्चित रही है। देवकांत बरूआ ने इंदिरा गांधी की चमचागिरी में कहा था कि ‘इंदिरा इज ए इंडिया-इंडिया इज ए इंडिया ‘। इंदिरा गांधी के मुंह से निकलने वाला हर शब्द को सिरोधार्य माना जाने लगा। इंदिरा गंाधी ने केवल राजनीति में ही मोहरे बैठाये बल्कि संवैधानिक संस्थाओं में भी चाटूकारिता और अनैतिकता वाली शख्यितों को बैठाया। इसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस पूरी तरह से चाटूकारों के चंगुल में फंस गयी। विरोध प्रकट करने और लोकतंत्र की धारा रूक गयी। इंदिरा गंाधी निरंकुश हो गयी। 1971 में बांग्लादेश में हुई जीत ने इंिदरा गांधी की निरंकुशता और बढ़ गयी। चारो तरफ गुणगाण करने वालों की भीड़ लग गयी। ऐसी स्थिति बड़ी सी बड़ी राजनीतिक शख्सियत को भी सोचने-समझने की शक्ति समाप्त कर देती है। इंदिरा गाधी की आपातकाल इसी दृष्टिकोण का परिणाम था। आपातकाल ने हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर कैसी संकट खंडी थी, यह भी जगजाहिर है।
चप्पल उठाने और चाटूकारिता का नायाब नमूना पेश करने की यह न तो पहली घटना है और न ही आखिरी घटना के तौर पर देखी जानी चाहिए। कांग्रेस की राजनीति में ऐसी घटना पहले भी घटी थी और भविष्य में यह चमचागिरी रूकने वाली नहीं है। पूर्व में घटी घटनाएं और भी सवाल उठाती हैं। राहुल गांधी के चाचा और इंदिरा गाधी के सुपुत्र संजय गांधी की चप्पल उठाने वाले दो तत्कालीन मुख्यमंत्रियों के किस्से आज भी भारतीय राजनीति मे आम है। लखनउ में तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी और मुबंई में महाराष्ट के तत्कालीन मुख्यमंत्री शंकर राव चव्हान ने संजय गांधी के चप्पटल ढोये थे। शंकर राव चव्हान महाराष्ट के वर्तमान मुख्यमंत्री अशोक चव्हान के पिता थे। उस समय संजय गांधी की तूती बोलती थी और पूरी कांग्रेस संजय गांधी के सामने नतमस्तक थी और राजनीतिक सौपान हासिल करने का एकमात्र माध्यम संजय गांधी की कृपा थी। शंकर राव चव्हान तो अब जिंदा नहीं हैं पर नारायण दत्त तिवारी जिंदा हैं। हाल ही में नारायण दत्त तिवारी ने आंध प्रदेश के राज्यपाल के रूप में अनैतिकता की कैसी परिभाषा गढ़ी हैं यह भी जगजाहिर है। सोनिया गंाधी भी यह दावा नहीं कर सकती है कि उसकी टीम में चाटूकारों और चमचों की भीड़ नहीं है।
राहुल गांधी का दोहरा चरित्र देख लिया जाना चाहिए? एक बार नहीं बार-बार राहुल गांधी यह कहते नहीं थकते कि कांग्रेस मेें दलाल संस्कृति नहीं चलेगी? चाटूकारिता के दिन लद गये। जन से जुड़े कार्यकर्ता ही कांग्रेस में आगे बढ़ेंगे। यह सुवचन सुनने मे अच्छा तो लग सकता है लेकिन असली सवाल अमल का है। सुवचन पर अमल भी तो होना चाहिए। राहुल गांधी का चप्पल जब महाराष्ट का गृहराज्य मंत्री रमेश चल रहा था तब राहुल इस पर उक्त गृहराज्य मंत्री टोकने या चाटूकारिता से बाज आने की पाठ पढ़ाने की जगह कुटिल मुस्कान बिखेर रहे थे। कांगेस के अंदर जन से जुड़े कार्यकर्ताओं की ऐसी संस्कृति में आगे बढ़ाने की कहीं से उम्मीद भी बचती है क्या?
क्या इसे कांग्रेस का अदंरूणी अपसंस्कृति और चाटूकारिता मानकर नजरअंदाज किया जाना चाहिए? क्या इस तरह संस्कृति से लोकतांत्रिक व्यवस्था के मान्य परमपराओं और सिद्धांतों के साथ खिलवाड़ नहीं हो रहा है? कांग्रेस अपने आप को आजादी की लड़ाई से जोड़ती है। आजादी की लड़ाई को अपनी विरासत मानती है। इसलिए आजादी की लड़ाई लड़ने वाले वीरों की भावनाएं कांग्रेस के साथ जुड़ी हुई है। आज हजारो आजादी के वीर जिंदा हैं जिन्हें यह दृश्य देखकर कितना आक्रोश आता होगा? क्या इसका भान कांग्रेस को है। कांग्रेस आज देश की सत्ता पर काबिज है, इसलिए लोकतंत्र की परमपराओ को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी भी कांग्रेस के उपर हैं। पिछले कई चुनावों में मिल रही जीत ने कांग्रेस को निरकुंश बना दिया है। राजनीति में चाटूकारिता की बढ़ती संस्कृति खतरनाक है। इसे रोकना जरूरी है पर हम सोनिया गांधी या राहुल गांधी से उम्मीद भी तो नहीं कर सकते है?
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महाराष्ट के गृह राज्य मंत्री रमेश द्वारा राहुल गांधी की चप्पल ढोना
कांग्रेसियो, शर्म करो, लोकतंत्र को चमचागीरी का पर्याय मत बनाओ
नारायण दत्त तिवारी और शंकर राव चव्हान भी संजय गांधी की चप्पल ढोये थे।
विष्णुगुप्त
महाराष्ट के गृहराज्य मंत्री द्वारा राहुल गांधी की चप्पल ढोने की यह अकेली घटना नहीं हैं। इसके पहले उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी और वर्तमान में महाराष्ट के मुख्यमंत्री अशोक चव्हान के पिता और तत्कालीन मुख्यमंत्री शंकर राव चव्हान ने संजय गांधी के चप्पल ढोये थे। तब संजय गांधी की कांग्रेस की राजनीति में तूती बोलती थी और राजनीति सोपान तय करने का एक मात्र रास्ता संजय गांधी की कृपा होती थी। सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी पूरी तरह से चाटूकारों और चमचों की टोली से घिरे हुए हैं और गृहराज्य मंत्री रमेश जैसे चाटूकार इन्हें पंसद भी हैं।
‘भारतीय राष्टीय कांग्रेस पार्टी‘ के विघटन की इच्छा महात्मा गांधी की थी। उनके पास कांग्रेस के विघटन के तर्क थे और दूरदृष्टि भी थी। इसलिए कि कांग्रेस के पास आजादी की धरोहर थी। कांग्रेस का मुख्य लक्ष्य आजादी था। 1947 में आजादी मिलने के बाद कांग्रेस का मुख्य लक्ष्य की प्राप्ति भी हो गयी थी। महात्मा गांधी ने यह महसूस किया था कि ‘कांग्रेस‘ के पास आजादी के इस धरोहर के साथ खिलवाड़ और नैतिकता के साथ ही साथ जनविरोधी राजनीति का पर्याय बनाया जा सकता है। इसलिए कांग्रेस का विघटन जरूरी है। महात्मा गांधी के इस इच्छा का समान न हुआ और जवाहर लाल नेहरू ने कांग्रेस को अपने परिवारिक सत्ता उत्थान का मोहरा बना दिया। आज कांग्रेस के अंदर घटने वाली धटनाएं यह कहने और बताने के लिए तत्पर हैं कि महात्ता गांधी की वह इच्छा कितनी सटीक और दूरदृष्टि से परिपूर्ण थी। राहुल गांधी के मुबंई दौरे के दौरान जिस तरह की नैतिकता का पतन और चाटूकारिता की अथाह गर्त मे गिरने की राजनीतिक पारिपार्टी-अपसंस्कृति देखी गयी, उससे भारतीय लोकतंत्र की जड़ें न तो मजबूत हो सकती है और न ही प्रेरणादायक हो सकती है। महाराष्ट के गृहराज्य मंत्री रमेश ने राहुल गांधी का न केवल चप्पल उठाया बल्कि चप्पल उठाकर चलते भी देखे गये। गृहराज्य मंत्री की इस चाटूकारिता पर राहुल गांधी को भी कोई कोप नहंी हुआ बल्कि राहुल गांधी अपना कुटिल मुस्कान बिखरते हुए मुकभाव से प्रंससित भी थे। जबकि राहुल गांधी बार-बार यह कहते हुए नहीं थकते हैं कि कांग्रेस में अब चाटूकारिता नहीं चलेगी, पंहुच भी नहीं चलेगी। जन से जुड़े हुए राजनीतिज्ञ ही कांग्रेस में सौपान लांघेंगे। क्या गृह राज्यमंत्री जैसे पद पर बैठे शख्सियत द्वारा चप्पल उठा कर चलना चाटूकारिता नहीं है? लोकतंत्र को शर्मशार करनेवाली ऐसी घटनाएं कांग्रेस का सिर्फ अंदरूणी चाटूकारिता की संस्कृति मानकर खारिज कर दिया जाना चाहिए? कदापि नहीं । इसलिए कि कांग्रेस के साथ आजादी की धरोहर जुड़ी हुई है।
चाटूकारिता और अनैतिकता कांग्रेस की खून में रची-बसी हुई है और उसकी राजनीतिक धमनियों में यह सब अनवरत बहती रहती है। चाटूकारिता और अनैतिकता की पौबारह बहाने का जिम्मेदार जवाहर लाल नेहरू थे। कांग्रेस में उन्होंने आजादी की धरोहर से जुड़े हुए राजनीति की धाराएं रोंकी और इसकी जगह चाटूकार और अनैतिकता से भरी हुई राजनीतिक शख्सियतों को स्थापित कराया। नेहरू ने चन्द्रभाणू गुप्त,विधानचंद्र राय, मोरार जी देशाई जैसे अनेकों आजादी की शख्सियतों को हासिये पर खदेड़ा। संसद और राज्य विधान सभाओं के साथ ही साथ सरकारों पर नेहरू की जाति ब्राम्हणों का आधिपत्य हुआ। परिवारवाद का वृक्षारोपण हुआ। इसका उदाहरण था नेहरू द्वारा अपनी पुत्री इंदिरा गांधी को अपना उतराधिकारी घोषित करना और कांग्रेस की अध्यक्ष पद पर बैठाना। उस समय इंदिरा गांधी की राजनीतिक कमाई इतनी भर थी कि वह जवाहर लाल नेहरू की पुत्री थी। कांग्रेस की अध्यक्ष के रूप में इंदिरा गांधी ने वरिष्ठ और नैतिकता वाले कांग्रेसियों को बाहर करने में कोई कंजूसी नहीं बरती। लाल बहादुर शास्त्री की असमय मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री पद पर जा बैठी। अपने मनपंसद उम्मीदवार को राष्टपति का उम्मीदवार नहीं बनाये जाने पर इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी के राष्टपति पद के उम्मीदवार नीलम संजीवा रेड्डी को परास्त कराया और निर्दलीय बीबी गिरी को राष्टपति बनाया। लोकतंत्र में ऐसा उदाहरण और नहीं मिलेगा जिसमें प्रधानमंत्री खुद अपने दल द्वारा घोषित राष्टपति के उम्मीदवार को पराजित कराने की राजनीतिक चाल चली हो।
इंदिरा गांधी को जमीर और जनाधार वालेे राजनीतिज्ञों से चीड थी। इसलिए उन्होंने भारतीय राजनीति में चाटूकारिता और अनैतिकता से भरी शख्सियतों की धारा बहायी। देवकांत बरूआ की चाटूकारिता भारतीय राजनीति में हमेशा चर्चित रही है। देवकांत बरूआ ने इंदिरा गांधी की चमचागिरी में कहा था कि ‘इंदिरा इज ए इंडिया-इंडिया इज ए इंडिया ‘। इंदिरा गांधी के मुंह से निकलने वाला हर शब्द को सिरोधार्य माना जाने लगा। इंदिरा गंाधी ने केवल राजनीति में ही मोहरे बैठाये बल्कि संवैधानिक संस्थाओं में भी चाटूकारिता और अनैतिकता वाली शख्यितों को बैठाया। इसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस पूरी तरह से चाटूकारों के चंगुल में फंस गयी। विरोध प्रकट करने और लोकतंत्र की धारा रूक गयी। इंदिरा गंाधी निरंकुश हो गयी। 1971 में बांग्लादेश में हुई जीत ने इंिदरा गांधी की निरंकुशता और बढ़ गयी। चारो तरफ गुणगाण करने वालों की भीड़ लग गयी। ऐसी स्थिति बड़ी सी बड़ी राजनीतिक शख्सियत को भी सोचने-समझने की शक्ति समाप्त कर देती है। इंदिरा गाधी की आपातकाल इसी दृष्टिकोण का परिणाम था। आपातकाल ने हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर कैसी संकट खंडी थी, यह भी जगजाहिर है।
चप्पल उठाने और चाटूकारिता का नायाब नमूना पेश करने की यह न तो पहली घटना है और न ही आखिरी घटना के तौर पर देखी जानी चाहिए। कांग्रेस की राजनीति में ऐसी घटना पहले भी घटी थी और भविष्य में यह चमचागिरी रूकने वाली नहीं है। पूर्व में घटी घटनाएं और भी सवाल उठाती हैं। राहुल गांधी के चाचा और इंदिरा गाधी के सुपुत्र संजय गांधी की चप्पल उठाने वाले दो तत्कालीन मुख्यमंत्रियों के किस्से आज भी भारतीय राजनीति मे आम है। लखनउ में तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी और मुबंई में महाराष्ट के तत्कालीन मुख्यमंत्री शंकर राव चव्हान ने संजय गांधी के चप्पटल ढोये थे। शंकर राव चव्हान महाराष्ट के वर्तमान मुख्यमंत्री अशोक चव्हान के पिता थे। उस समय संजय गांधी की तूती बोलती थी और पूरी कांग्रेस संजय गांधी के सामने नतमस्तक थी और राजनीतिक सौपान हासिल करने का एकमात्र माध्यम संजय गांधी की कृपा थी। शंकर राव चव्हान तो अब जिंदा नहीं हैं पर नारायण दत्त तिवारी जिंदा हैं। हाल ही में नारायण दत्त तिवारी ने आंध प्रदेश के राज्यपाल के रूप में अनैतिकता की कैसी परिभाषा गढ़ी हैं यह भी जगजाहिर है। सोनिया गंाधी भी यह दावा नहीं कर सकती है कि उसकी टीम में चाटूकारों और चमचों की भीड़ नहीं है।
राहुल गांधी का दोहरा चरित्र देख लिया जाना चाहिए? एक बार नहीं बार-बार राहुल गांधी यह कहते नहीं थकते कि कांग्रेस मेें दलाल संस्कृति नहीं चलेगी? चाटूकारिता के दिन लद गये। जन से जुड़े कार्यकर्ता ही कांग्रेस में आगे बढ़ेंगे। यह सुवचन सुनने मे अच्छा तो लग सकता है लेकिन असली सवाल अमल का है। सुवचन पर अमल भी तो होना चाहिए। राहुल गांधी का चप्पल जब महाराष्ट का गृहराज्य मंत्री रमेश चल रहा था तब राहुल इस पर उक्त गृहराज्य मंत्री टोकने या चाटूकारिता से बाज आने की पाठ पढ़ाने की जगह कुटिल मुस्कान बिखेर रहे थे। कांगेस के अंदर जन से जुड़े कार्यकर्ताओं की ऐसी संस्कृति में आगे बढ़ाने की कहीं से उम्मीद भी बचती है क्या?
क्या इसे कांग्रेस का अदंरूणी अपसंस्कृति और चाटूकारिता मानकर नजरअंदाज किया जाना चाहिए? क्या इस तरह संस्कृति से लोकतांत्रिक व्यवस्था के मान्य परमपराओं और सिद्धांतों के साथ खिलवाड़ नहीं हो रहा है? कांग्रेस अपने आप को आजादी की लड़ाई से जोड़ती है। आजादी की लड़ाई को अपनी विरासत मानती है। इसलिए आजादी की लड़ाई लड़ने वाले वीरों की भावनाएं कांग्रेस के साथ जुड़ी हुई है। आज हजारो आजादी के वीर जिंदा हैं जिन्हें यह दृश्य देखकर कितना आक्रोश आता होगा? क्या इसका भान कांग्रेस को है। कांग्रेस आज देश की सत्ता पर काबिज है, इसलिए लोकतंत्र की परमपराओ को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी भी कांग्रेस के उपर हैं। पिछले कई चुनावों में मिल रही जीत ने कांग्रेस को निरकुंश बना दिया है। राजनीति में चाटूकारिता की बढ़ती संस्कृति खतरनाक है। इसे रोकना जरूरी है पर हम सोनिया गांधी या राहुल गांधी से उम्मीद भी तो नहीं कर सकते है?
सम्पर्क:
मोबाइल- 09968997060
Sunday, February 7, 2010
राहुल गांधी के पक्ष में जनमत बनाता मीडिया
राष्ट्र-चिंतन
राहुल गांधी के पक्ष में जनमत बनाता मीडिया
लड़कियों से हाथ मिलाने और हंसी-फुहार करने से देश की किस्मत नहीं बनायी जा सकती?
विष्णुगुप्त
क्या भारतीय मीडिया कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के पक्ष में जनमत बनाने में लगा हुआ है? क्या ‘पेड न्यूज‘ की तरह राहुल गांधी की हाथ मिलाने और चेहरे टू चेहरे से रूकरू होने की यात्राएं भी प्रायोजित हैं? अगर नही तो फिर राहुल गांधी को आईना दिखाने वाली घटनाएं मीडिया की सुर्खियां क्यों नहीं बनती हैं? मीडिया की सुर्खियों में राहुल गांधी की पक्षवाली खबरों की प्रमुखता ही क्यो होती? महंगाई, मजदूर-किसान के पक्ष में राहुल गांधी से पूछे गये प्रश्नों और विरोधों की घटनाएं मीडिया से नदारत क्यों होती हैं? कौन ऐसा दिन न होता जिसमें राहुल गांधी और उनकी इतालवी मां सोनिया गांधी की खबरों-तस्वीरों से अखबारों और टेलीविजन के पर्दे भरी नहीं होती है? क्या महंगाई की बझ़ती आंच और किसानों-मजदूरों की आत्महत्या पर अखबार और टेलीविजन वाले राहुल गांधी और सोनिया गांधी की प्रभावकारी खिंचायी करते है? आखिर राहुल गांधी और मीडिया का यह फ्रेडली मैच कब तक चलता रहेगा? क्या भारतीय मीडिया अब जनमुद्दों से हटकर सिलिब्रिटी सरोकार और चत्मकार के चंगुल से घिरा हुआ है? फिर मीडिया की स्वतंत्रता और लोकतंत्र के चैथे स्तंभ की पदवि का क्या होगा? ऐसी स्थिति मे ‘मीडिया‘ को लोकतंत्र का चैथा स्तंभ क्यों और किस आधार पर माना जाना चाहिए? राहुल के प्रोपगंडा पर एक तर्क यह भी हो सकता है कि राहुल गांधी और सोनया गाध्ंाी से जुड़ी खबरें बिकती है। यानी यह बाजार का खेल है। इस तर्क पर मीडिया को ‘मिशन‘ और लोकतंत्र के चैथे स्तंभ का आवरण भी हटाना होगा।
भारतीय मीडिया राहुल गांधी के प्रचार-प्रसार और उनके पक्ष मे जनमत बनाने में किस कदर संलग्न है, इसकी एक झलक हम आपको दिखाते हैं। राहुल गांधी के बिहार दौरे मे मीडिया की दोहरी और पक्षपाती भूमिका को भी देखिये। बिहार दौरे में मीडिया ने यह दिखाया कि ‘बिहारी लड़कियां‘ राहुल गांधी की एक झलक पाने के लिए किस तरह दौड़ रही हैं। टेलीविजनों और प्रिंट मीडिया में राहुल गांधी की एक झलक पाने के लिए दौड़ती बिहारी युवतियों की तस्वरें-समाचार दिखाने और छापने में होड़ पर होड़ रही। पर यह नहीं दिखाया गया या फिर छापा गया कि बिहार के ‘भितिहरवा ‘ में बिहारी युवक-युवतियों के सवालों के प्रहार से राहुल गांधी ऐसे तिलमिलाये कि हाथ मिलाने की सभा और फैशन परैड को छोड़कर भाग खड़े हुए। बिहारी युवक-युवतियों के सवालों को राहुल क्यों नहीं झेल पाये? कहां गयी राहुल गांधी की राजनीतिक चतुरायी? राहुल गांधी की राजनीति और जादू बिहार के युवक-युवतियो पर क्यों नहीं चला? कायदे से ये सभी धटनाएं मीडिया की सुर्खियां बननी चाहिए थी। ऐसा तो तब होता जब मीडिया स्वयं निष्पक्ष भूमिका में होती?
वास्तव में राहुल गांधी और उनके चाटूकार मंडली को यह पता नहीं होगा कि वह भूमि पर आंदोलनों और वैचारिक संम्पन्नता के साथ ही साथ दृढ़ता के लिए जानी जाती है। ‘भितिहरवा‘ वह भूमि थी जहां से राष्टपित महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ धतुंगा फंूका था। ‘निलहे‘ किसानों की दुर्दशा और ‘निलहे किसानों‘ के पक्ष मंें महात्मा गांधी के आंदोलन ने अंगेंजों के जड़ों में माठा डाला था। बिहारी युवक-युवतियों ने राहुल गांधी से राजनीति की जगह किसान-मजदूरों के उत्थान की बात पूछी थी, उनकी सरकार महंगायी की आंच क्यो बढ़ा रही है? इस पर राहुल गांधी ने गुजरात का सवाल उठा दिया और इतना ही नहीं बल्कि उन्होने यह भी कह दिया कि बिहार को गुजरात मत बनाइये। बिहार की तुलना गुजरात से करने पर राहुल गांधी के खिलाफ युवक-युवतियों में गुस्सा फूटना स्वाभाविक था। पिछले बीस साल में बिहार में कोई दंगा-फसाद नहीं हुआ है। फिर राहुल गांधी ने किस आधार पर बिहार की तुलना गुजरात से की थी। प्रतिप्रश्न पर राहुल गांधी के पास जवाब था नहीं। अपनी फजीहत होते देख राहुल गांधी ‘भितिहरवा‘ छोड़कर भागना ही अच्छा समझा। जबकि ‘भितिहरवा‘ में एक घंटा का उनका कार्यक्रम था। मात्र 15 मिनट में ही राहुल गाध्ंाी की पूरी ज्ञानसंसार न जाने कहां खो गया।
किसी कलावती के यहां भोजन कर लेने मात्र से देश की गरीबी समाप्त हो जायेगी? राहुल गांधी और उनकी चाटूकार मंडली के साथ ही साथ मीडिया संवर्ग ने यह मान िलया कि राहुल गांधी के किसी कलावती या फिर दलितों-आदिवासियों के घरों मे भोजन करने और रात गुजारने से सही में उनका भला हो जायेगा। राहुल गांधी ने कलावती के यहंा भोजन किया, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, सहित कई राज्यों में दलितों-आदिवासियों के घरों में रात गुजारी और मीडिया में बड़ी-बड़ी तस्वरें खिंचवायी-प्रसारित करायी। सोहरत बटोरी। पर क्या सही में देश भर के दलितों-आदिवासियों की गरीबी दूर हो गयी। उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याएं समाप्त हो गयी या फिर उनकी राजनीतिक भूमिका सुनिश्चित हो गयी। देश में अधिकतर समय में कांग्रेस की सत्ता रही है। आजादी के इतने दिनों के बाद भी दलितों-आदिवासियों की दुर्दशा खराब है तो इसके लिए कांग्रेस पार्टी ही तो जिम्मेदार मानी जायेगी। कोई अम्बेडकर, कोई काशी राम, कोई मायावती, कोई शिबू सोरेन आदि कांग्रेस की दलित-आदिवासी विरोधी नीतियो से ही भारतीय राजनीति में स्थापित होते रहे हैं। राहुल गांधी की पार्टी की सरकार ने किस कदर देश के गरीबों के पेट पर डाका डाल रहा है, यह किसी से छिपा हुआ है क्या? महंगाई की आंच से झुलसने वाले सर्वाधिक संवर्ग दलित-आदिवासियों और अन्य निर्धण समुदाय नहीं है?
राहुल गांधी के युवा सरोकारों से चमत्कृत मीडिया और बुद्धीजीवियों को इसकी सच्चाई भी जान लेना चाहिए। युवा कौन हैं। क्या सोनिया गाध्ंाी-राजीव गांधी के बेटा राहुल गाध्ंाी, जीतेन्द्र्र प्रसाद का बेटा जतिन प्रसाद, राजेश पायलट का बेटा सचिन पायलट, शीला दीक्षित का बेटा संदीप दीक्षित,माधवराज सिंघियां का बेटा ज्योतिरादित्य राज सीधियां जैसे लोग ही युवा हैं? कांग्रेस में जिन युवाओ की पौबारह है या आगे लाने का श्रेय लूटा जा रहा है वे क्या सही में आमलोग के बीच से उपर उठकर आगे आये हैं? ये सभी युवा परिवारवाद की वैशाखी पर राजनीतिक में चमके हैं। दिल्ली, मुबंई, चैन्नई, बंगलूर, हैदराबाद, अहमदाबाद गांधीनगर और कोलकात्ता में रहने वाले महानगरीय युवाओ की ही बात क्यों होती है। देश के दूरदराज क्षेत्रों के युवा संवर्ग को आज देखने वाला कौन है? सही तो यह है कि देश में युवाओ की बैरोजगार खड़ी हो रही है। शिक्षा का महंगीकरण किया गया। व्यवसायियों और उद्योगपतियो को शिक्षा की दुकानदारी सजाने और लूट कर अपनी तिजोरी भरने की पूरी छूट दे दी गयी। क्या आम आदमी सूचना तकनीकी की शिक्षा अपने बच्चों को दिला सकता है। कदापि नहीं।कम से कम पांच से दस लाख रूपये के पैकेज पर सूचना तकनीकि की शिक्षा सुलभ होती है। ऐसे में आम आदमी का बेटा क्या आज के दौर में आगे बढ़ सकता है? ऐसे युवा संवर्ग के लिए राहुल गांधी के पास कौन सा कार्यक्रम और उनकी अपनी सरकार कौन सा कदम उठा रही है?
हंसी-फूहारे से देश की किस्मत बदली जा सकती है? सात साल से राहुल गांधी संसद में हैं। सात सालों में संसद में सिर्फ एक बार ही अपनी जबान खोली है। वह भी लिखित भाषण पढ़ने का काम किया है। बडी सभाओ में बोलने से अभी भी राहुल का परहेज है। वे कालेज की लड़के-लड़कियों से हाथ मिलने और थोड़ी हंसी-फूंहारे से देश की किस्मत बदलना चाहते हैं। राजनीतिक-सामाजिक समझ से अभी भी राहुल कोसो दूर हैं। पिछले उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में राहुल गांधी ने अपनी राजनीतिक जगहंसाई कराने की कड़ियां फोड रहे थे। तब उन्होने कहा था कि अगर मैं चाहता तो अपने पिता की हत्या के समय ही प्रधानमंत्री बन जाता। उस समय राहुल गांधी की उम्र सांसद बनने की भी नहीं थी। फिर वे प्रधानमंत्री कैसे बन जाते?राहुल गाध्ंाी, उनकी माता सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह कमजोर विपक्ष का राजनीतिक लाभ उठा रहे हैं।
मीडिया का राहुल गांधी के प्रति अतिप्रेम कई सवाल खड़े कर दिये हैं। मीडिया अगर अपने साख के प्रति सचेत है तो क्या उसे राहुल गांधी के प्रति अतिप्रेम दिखाना चाहिए? मीडिया की स्वतंत्रता ही नहीं बल्कि निस्पक्षता भी जरूरी है।
- 09968997060
राहुल गांधी के पक्ष में जनमत बनाता मीडिया
लड़कियों से हाथ मिलाने और हंसी-फुहार करने से देश की किस्मत नहीं बनायी जा सकती?
विष्णुगुप्त
क्या भारतीय मीडिया कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के पक्ष में जनमत बनाने में लगा हुआ है? क्या ‘पेड न्यूज‘ की तरह राहुल गांधी की हाथ मिलाने और चेहरे टू चेहरे से रूकरू होने की यात्राएं भी प्रायोजित हैं? अगर नही तो फिर राहुल गांधी को आईना दिखाने वाली घटनाएं मीडिया की सुर्खियां क्यों नहीं बनती हैं? मीडिया की सुर्खियों में राहुल गांधी की पक्षवाली खबरों की प्रमुखता ही क्यो होती? महंगाई, मजदूर-किसान के पक्ष में राहुल गांधी से पूछे गये प्रश्नों और विरोधों की घटनाएं मीडिया से नदारत क्यों होती हैं? कौन ऐसा दिन न होता जिसमें राहुल गांधी और उनकी इतालवी मां सोनिया गांधी की खबरों-तस्वीरों से अखबारों और टेलीविजन के पर्दे भरी नहीं होती है? क्या महंगाई की बझ़ती आंच और किसानों-मजदूरों की आत्महत्या पर अखबार और टेलीविजन वाले राहुल गांधी और सोनिया गांधी की प्रभावकारी खिंचायी करते है? आखिर राहुल गांधी और मीडिया का यह फ्रेडली मैच कब तक चलता रहेगा? क्या भारतीय मीडिया अब जनमुद्दों से हटकर सिलिब्रिटी सरोकार और चत्मकार के चंगुल से घिरा हुआ है? फिर मीडिया की स्वतंत्रता और लोकतंत्र के चैथे स्तंभ की पदवि का क्या होगा? ऐसी स्थिति मे ‘मीडिया‘ को लोकतंत्र का चैथा स्तंभ क्यों और किस आधार पर माना जाना चाहिए? राहुल के प्रोपगंडा पर एक तर्क यह भी हो सकता है कि राहुल गांधी और सोनया गाध्ंाी से जुड़ी खबरें बिकती है। यानी यह बाजार का खेल है। इस तर्क पर मीडिया को ‘मिशन‘ और लोकतंत्र के चैथे स्तंभ का आवरण भी हटाना होगा।
भारतीय मीडिया राहुल गांधी के प्रचार-प्रसार और उनके पक्ष मे जनमत बनाने में किस कदर संलग्न है, इसकी एक झलक हम आपको दिखाते हैं। राहुल गांधी के बिहार दौरे मे मीडिया की दोहरी और पक्षपाती भूमिका को भी देखिये। बिहार दौरे में मीडिया ने यह दिखाया कि ‘बिहारी लड़कियां‘ राहुल गांधी की एक झलक पाने के लिए किस तरह दौड़ रही हैं। टेलीविजनों और प्रिंट मीडिया में राहुल गांधी की एक झलक पाने के लिए दौड़ती बिहारी युवतियों की तस्वरें-समाचार दिखाने और छापने में होड़ पर होड़ रही। पर यह नहीं दिखाया गया या फिर छापा गया कि बिहार के ‘भितिहरवा ‘ में बिहारी युवक-युवतियों के सवालों के प्रहार से राहुल गांधी ऐसे तिलमिलाये कि हाथ मिलाने की सभा और फैशन परैड को छोड़कर भाग खड़े हुए। बिहारी युवक-युवतियों के सवालों को राहुल क्यों नहीं झेल पाये? कहां गयी राहुल गांधी की राजनीतिक चतुरायी? राहुल गांधी की राजनीति और जादू बिहार के युवक-युवतियो पर क्यों नहीं चला? कायदे से ये सभी धटनाएं मीडिया की सुर्खियां बननी चाहिए थी। ऐसा तो तब होता जब मीडिया स्वयं निष्पक्ष भूमिका में होती?
वास्तव में राहुल गांधी और उनके चाटूकार मंडली को यह पता नहीं होगा कि वह भूमि पर आंदोलनों और वैचारिक संम्पन्नता के साथ ही साथ दृढ़ता के लिए जानी जाती है। ‘भितिहरवा‘ वह भूमि थी जहां से राष्टपित महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ धतुंगा फंूका था। ‘निलहे‘ किसानों की दुर्दशा और ‘निलहे किसानों‘ के पक्ष मंें महात्मा गांधी के आंदोलन ने अंगेंजों के जड़ों में माठा डाला था। बिहारी युवक-युवतियों ने राहुल गांधी से राजनीति की जगह किसान-मजदूरों के उत्थान की बात पूछी थी, उनकी सरकार महंगायी की आंच क्यो बढ़ा रही है? इस पर राहुल गांधी ने गुजरात का सवाल उठा दिया और इतना ही नहीं बल्कि उन्होने यह भी कह दिया कि बिहार को गुजरात मत बनाइये। बिहार की तुलना गुजरात से करने पर राहुल गांधी के खिलाफ युवक-युवतियों में गुस्सा फूटना स्वाभाविक था। पिछले बीस साल में बिहार में कोई दंगा-फसाद नहीं हुआ है। फिर राहुल गांधी ने किस आधार पर बिहार की तुलना गुजरात से की थी। प्रतिप्रश्न पर राहुल गांधी के पास जवाब था नहीं। अपनी फजीहत होते देख राहुल गांधी ‘भितिहरवा‘ छोड़कर भागना ही अच्छा समझा। जबकि ‘भितिहरवा‘ में एक घंटा का उनका कार्यक्रम था। मात्र 15 मिनट में ही राहुल गाध्ंाी की पूरी ज्ञानसंसार न जाने कहां खो गया।
किसी कलावती के यहां भोजन कर लेने मात्र से देश की गरीबी समाप्त हो जायेगी? राहुल गांधी और उनकी चाटूकार मंडली के साथ ही साथ मीडिया संवर्ग ने यह मान िलया कि राहुल गांधी के किसी कलावती या फिर दलितों-आदिवासियों के घरों मे भोजन करने और रात गुजारने से सही में उनका भला हो जायेगा। राहुल गांधी ने कलावती के यहंा भोजन किया, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, सहित कई राज्यों में दलितों-आदिवासियों के घरों में रात गुजारी और मीडिया में बड़ी-बड़ी तस्वरें खिंचवायी-प्रसारित करायी। सोहरत बटोरी। पर क्या सही में देश भर के दलितों-आदिवासियों की गरीबी दूर हो गयी। उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याएं समाप्त हो गयी या फिर उनकी राजनीतिक भूमिका सुनिश्चित हो गयी। देश में अधिकतर समय में कांग्रेस की सत्ता रही है। आजादी के इतने दिनों के बाद भी दलितों-आदिवासियों की दुर्दशा खराब है तो इसके लिए कांग्रेस पार्टी ही तो जिम्मेदार मानी जायेगी। कोई अम्बेडकर, कोई काशी राम, कोई मायावती, कोई शिबू सोरेन आदि कांग्रेस की दलित-आदिवासी विरोधी नीतियो से ही भारतीय राजनीति में स्थापित होते रहे हैं। राहुल गांधी की पार्टी की सरकार ने किस कदर देश के गरीबों के पेट पर डाका डाल रहा है, यह किसी से छिपा हुआ है क्या? महंगाई की आंच से झुलसने वाले सर्वाधिक संवर्ग दलित-आदिवासियों और अन्य निर्धण समुदाय नहीं है?
राहुल गांधी के युवा सरोकारों से चमत्कृत मीडिया और बुद्धीजीवियों को इसकी सच्चाई भी जान लेना चाहिए। युवा कौन हैं। क्या सोनिया गाध्ंाी-राजीव गांधी के बेटा राहुल गाध्ंाी, जीतेन्द्र्र प्रसाद का बेटा जतिन प्रसाद, राजेश पायलट का बेटा सचिन पायलट, शीला दीक्षित का बेटा संदीप दीक्षित,माधवराज सिंघियां का बेटा ज्योतिरादित्य राज सीधियां जैसे लोग ही युवा हैं? कांग्रेस में जिन युवाओ की पौबारह है या आगे लाने का श्रेय लूटा जा रहा है वे क्या सही में आमलोग के बीच से उपर उठकर आगे आये हैं? ये सभी युवा परिवारवाद की वैशाखी पर राजनीतिक में चमके हैं। दिल्ली, मुबंई, चैन्नई, बंगलूर, हैदराबाद, अहमदाबाद गांधीनगर और कोलकात्ता में रहने वाले महानगरीय युवाओ की ही बात क्यों होती है। देश के दूरदराज क्षेत्रों के युवा संवर्ग को आज देखने वाला कौन है? सही तो यह है कि देश में युवाओ की बैरोजगार खड़ी हो रही है। शिक्षा का महंगीकरण किया गया। व्यवसायियों और उद्योगपतियो को शिक्षा की दुकानदारी सजाने और लूट कर अपनी तिजोरी भरने की पूरी छूट दे दी गयी। क्या आम आदमी सूचना तकनीकी की शिक्षा अपने बच्चों को दिला सकता है। कदापि नहीं।कम से कम पांच से दस लाख रूपये के पैकेज पर सूचना तकनीकि की शिक्षा सुलभ होती है। ऐसे में आम आदमी का बेटा क्या आज के दौर में आगे बढ़ सकता है? ऐसे युवा संवर्ग के लिए राहुल गांधी के पास कौन सा कार्यक्रम और उनकी अपनी सरकार कौन सा कदम उठा रही है?
हंसी-फूहारे से देश की किस्मत बदली जा सकती है? सात साल से राहुल गांधी संसद में हैं। सात सालों में संसद में सिर्फ एक बार ही अपनी जबान खोली है। वह भी लिखित भाषण पढ़ने का काम किया है। बडी सभाओ में बोलने से अभी भी राहुल का परहेज है। वे कालेज की लड़के-लड़कियों से हाथ मिलने और थोड़ी हंसी-फूंहारे से देश की किस्मत बदलना चाहते हैं। राजनीतिक-सामाजिक समझ से अभी भी राहुल कोसो दूर हैं। पिछले उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में राहुल गांधी ने अपनी राजनीतिक जगहंसाई कराने की कड़ियां फोड रहे थे। तब उन्होने कहा था कि अगर मैं चाहता तो अपने पिता की हत्या के समय ही प्रधानमंत्री बन जाता। उस समय राहुल गांधी की उम्र सांसद बनने की भी नहीं थी। फिर वे प्रधानमंत्री कैसे बन जाते?राहुल गाध्ंाी, उनकी माता सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह कमजोर विपक्ष का राजनीतिक लाभ उठा रहे हैं।
मीडिया का राहुल गांधी के प्रति अतिप्रेम कई सवाल खड़े कर दिये हैं। मीडिया अगर अपने साख के प्रति सचेत है तो क्या उसे राहुल गांधी के प्रति अतिप्रेम दिखाना चाहिए? मीडिया की स्वतंत्रता ही नहीं बल्कि निस्पक्षता भी जरूरी है।
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Monday, February 1, 2010
पिछड़ी राजनीतिक जमीन पर बगावत व उथल-पुथल की खेती
पिछड़ी राजनीतिक जमीन पर बगावत व उथल-पुथल की खेती
विष्णुगुप्त
पिछड़ा राजनीतिक संवर्ग में उथल-पुथल है। बगावत सहित वैचारिक टकराव, अतिमहत्वाकांक्षा और व्यक्तिगत स्वार्थ से पिछड़ा राजनीतिक संवर्ग दग्ध है। समाजवादी पार्टी और जद यू , दोनों पिछड़ा सरोकार प्रमुख पार्टियां है। सपा में अमर सिंह ने बगावत पहले बगावत की तलवारें खींची और अब जद यू में ललन सिंह उर्फ राजीव रंजन सिंह बगावत की लाठियां भाज रहे हैं। ललन सिंह का कहना है कि नीतिश कुमार तानाशाह है और आम कार्यकर्ताओं की भावनाओं का उन्होंने बाजार बना दिया है, विकास की उपलब्धियां झूठी है और अगड़ी जातियों के साथ नीतिश राज में अन्याय हुआ है, उपेक्षा-तिरस्कार से अगड़ी जातियों का गुस्सा उफान पर हैं।।ललन सिंह बिहार जद यू के अध्यक्ष हैं और राज्यसभा में सांसद हैं। वे उस भूमिहार जाति से आते हैं जिनकी बिहार में लगभग सभी अन्य जातियों से ‘रार‘ स्थायी तौर पर रही है। अन्य अगड़ी जातियां भी भूमिहार से खार खाती हैं और राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता इनमें चलती रही है। अगड़ी जातियों की एकता और नये समीकरण नीव रखी जा चुकी है। भविष्य में अगड़ी जातियों के नेताओ का एक मंच भी तैयार हो सकता है। अगड़ी जातियां गोलबंद होकर भी बिहार में सत्ता पर अधिकार जमा सकती हैं, ऐसा हो ही नहीं सकता है। उनकी राजनीति में हिस्सेदारी और भी घट सकती है।
तानाशाही को लेकर उठा तूफान नहीं है। चुनावी राजनीति-समीकरण बनाने-बिगाड़ने का खेल है। बिहार में विधान सभा चुनाव के समय कम बचे हुए हैं। बिहार के संबंध में यह समय राजनीतिक अंधेरगर्दी और नये-नये समीकरण बनाने-बिगाड़ने के लिए अनुकूल है। कांग्रेस को एकमेव सत्ता और राजनीति के लिए बिहार में जनसमर्थन चाहिए। यह जनसमर्थन उसे अन्य राजनीतिक दलों के तोड़-फोड़ से मिल सकता है। लालू-रामबिलास पासवान को भी फिर से पुरानी शक्ति की खोज है। इसलिए बगावत की खेती पनपेगी ही और एक-दूसरी पार्टियां छोड़ने और ज्वाइन करने की सुर्खियां बनती रहेंगी। कांग्रेस, लालू और पासवान की चाल ललन सिंह के मोहरे से नीतिश कुमार की खाट खड़ा करने की हैं। जद यू में इस तरह के बगावत या विरोधी स्वर की घटनाओं से नीतिश कुमार के सेहत पर कोई प्रभाव पड़ेगा? या फिर नीतिश की राजनीतिक शक्ति और मजबूत होगी? अतिमहत्वाकांक्षा और व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति ही वह वजह है जिसमें अमर सिंह या ललन सिंह या फिर सुधीन्द्र कुलकर्णी जैसे लोगो को मूल पार्टी में तब तानाशाही नजर आने लगती है या फिर वैचारिक रूगणता दिखने लगती है जब संकट में उनकी पार्टी खड़ी होती है। इसके पहले वर्षो तक तानाशाही या वैचारिक रूगणता नहीं दिखायी देती है। इसलिए कि तब तो इनकी व्यक्तिगत महत्वांकाक्षा परवान चढ़ता रहा हो और इनकी व्यक्तिगत स्वार्थ की खेती भी अबाधित चलती रहती है।
नीतिश कुमार के लिए ललन सिंह वैसे ही महत्वपूर्ण रहे हैं जैसे मुलायम सिंह यादव के लिए कभी अमर सिंह थे। नीतिश कुमार का सर्वाधिक निकटवर्ती और विश्वासपात्र ललन सिंह ही रहे हैं। ललन सिंह की अपनी कोई राजनीतिक बिसात थी ही नहीं। अभी तक उन्होंने राजनीति में राज्य सभा का सदस्य की कुर्सी और बिहार के जद यू के प्रदेश अध्यक्ष जैसी राजनीतिक शक्ति जो पायी थी उसमें न तो उनकी राजनीतिक कुटिलता व जनाधार का करिश्मा था और न ही जद यू में वे वरिष्ठता के दृष्टिकोण से भी सर्वमान्य थे। उनकी राजनीतिक तरक्की का जरिया सिर्फ और सिर्फ नीतिश कुमार की कृपा रही है। खुद नीतिश कुमार की आलोचना इस बात के लिए होती रही है कि उन्होंने ललन सिंह जैसे रीढ़विहीन नेता को आगे बढ़ाया है। बिहार में एक राजनीतिक जुमला आज भी तैर रहा है। यह राजनीतिक जुमला है ‘ सरकार कुर्मी का और राज्य भूमिहार का‘। कुर्मी यानी नीतिश कुमार की सरकार और शासन पर भूमिहारों का अधिकार। सही भी यही था कि भूमिहारों की संख्या बिहार में तीन प्रतिशत भी नहीं है पर नीतिश कुमार के मंत्रिमंडल में सबसे ज्यादा मंत्री भूमिहार है और प्रशासन में सर्वाधिक वर्चस्व भूमिहार की है। भूमिहार वर्चस्व वाली प्रशासनिक ईंकांई का प्रतिफल यह हुआ कि नीतिश कुमार को न केवल राजनीतिक आलोचनाएं झेलनी पड़ी बल्कि विधान सभा के उपचुनाव में जद यू को झटका भी लगा था व लालू-रामबिलास पासवान ने विधान सभा उप चुनाव जीतकर नीतिश के खिलाफ हवा भी बनायी। पर वही ललन सिंह की राजनीतिक अतिमहत्वांकांक्षा और स्वार्थ देखिये कि नीतिश का ही जड़ खोदने मे आमदा है।
मंडल की राजनीतिक प्रस्थापना के बाद बिहार में पिछड़ी राजनीति का उदभव और गतिशीलता के साथ ही साथ अगड़ी राजनीतिक व्यवस्था का पराभव महत्वपूर्ण घटना रही है। बिहार पिछड़ी राजनीति की प्रयोग भूमि भी रही है। कभी कांग्रेसी राजनीति का छत्रप और अगड़ी राजनीति का पुरोधा जगरन्नाथ मिश्र खुद जमींदोज हो गये। लालू प्रसाद यादव ने 15 सालों तक बिहार में एकछत्र राज किया। लालू प्रसाद यादव के 15 के शासनकाल का राज सिर्फ और सिर्फ पिछड़ी जातियों की गोलबंदी थी। लेकिन लालू सिर्फ यादववाद में सीमित हो गये। इसलिए उनकी राजनीतिक लूटिया डूब गयी और बिहार की राजनीति में नीतिश कुमार की ताजपोशी हुई। यह बात फैलायी गयी कि भूमिहार और अन्य अगड़ी जातियों का ही योगदान है नीतिश की ताजपोशी में। चूंकि मीडिया में अगड़ी जातियो का वर्चस्व है और अगड़ावाद उनके सिर पर चढ़कर बोलता है। इसलिए नीतिश कुमार की ताजपोशी में अगड़ी जातियों की भूमिका स्वीकार कर ली गयी। अगर यह बात सही मान ली जाये तो इस प्रश्न का भी जवाब चाहिए कि आखिर 15 सालों तक अगड़ी जातियां लालू को हराने में नाकामयाब क्यों नहीं थी? लालू की हार इसलिए हुई थी कि उन्होंने बिहार को जंगल राज बना दिया था। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतो को कबाड़ा बना दिया था। गैर यादव पिछड़ी जातियों की नीतिश कुमार और भाजपा गठबंधन में एकजुटता थी। भूमिहार और अन्य अगड़ी जातियों का नीतिश कुमार का समर्थन देना एक मजबूरी थी।
नीतिश कुमार लालू की तरह जातिवादी नहीं है। उनकी राजनीतिक एजेन्डे में लालू के ‘यादववाद‘ की तरह ‘कुर्मीवाद‘ की बाढ़ शामिल नहीं है। प्रारंभ में जरूर प्रशासन में भूमिहार जाति का वर्चस्व की गलतियां की पर बाद में उन्होने अपना सारा ध्यान अति पिछड़ों और अति दलित जातियों का राजनीतिक उत्थान के लिए लगाया। अति पिछड़ों और अति दलितों के आरक्षण के कोटे को उन्होंने बढ़ाया। ग्राम पंचायतों में महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण दिया। ग्राम पंचायतों में महिलाओं के पचास प्रतिशत का आरक्षण को ‘बिहार माॅडल‘ के रूप में प्रसिद्धि मिली है। ‘बिहार माॅडल‘ को केन्द्र सरकार ने अपनी नीति बना रखी है। न्यायालय मे पिछड़ी जातियों को उन्होने आरक्षण सुनिश्चित किया। पिछड़ी जातियो में यादव, कुर्मी, कोइयरी और बनिया आदि सशक्त और आर्थिक रूप से बेहत्तर है। पर अतिपिछड़ों की राजनीतिक -आर्थिक स्थिति कमजोर रही है। अति पिछड़ों और अति दलितों की बढ़ती राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समृद्धि अगड़ी जातियां में सहन कैसे हो सकती थी? लालू राज के दफन होने के बाद अगड़ी जातियों और उनके वर्ग के नेताओं ने यह खुशफहमी पाल रखी थी कि उनकी राजनीतिक वर्चस्व पूर्व की तरह होगी। अगड़ी जातियों की नाराजगी नीतिश से यही है।
‘बिहारी‘ शव्द अपमान का प्रतीक कौन बनाया? बिहारी समुदाय पाखाकशी दूर करने के लिए पलायन के दंश किसने दिया? नीतिश की सरकार में न केवल बिहार से अपहरण, हत्या-लूट का बाजार बंद हुआ बल्कि सकारात्क कार्य भी चर्चित रहे है। खासकर बुनियादी सुविधाओं के मामले में। शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल परिवहन जैसी बुनियादी सुविधाएं बढ़ी हैं। सड़कें बिहार की तस्वीर बदल रही हैं। बुनियादी सुविधाओं के विकास से ही बिहार नये प्रतिमान गढ़ने के रास्ते में हैं। 2009 में बिहार ने 11 प्रतिशत के विकास दर को प्राप्त किया है। इससे बढ़कर और क्या उपलब्धि चाहिए? ‘बिहारी‘ शव्द आज अपमान नहीं बल्कि स्वाभिमान का प्रतीक बन रहा है। इसे पूरा देश स्वीकार कर रहा है। नीतिश कुमार के साथ शरद यादव की चाणक्य रणनीति साथ खड़ी है।
इस राजनीतिक बगावत या उथल-पुथल में नीतिश को नुकसान होगा क्या? बिहार की जो राजनीतिक समीकरण हैं उसके देखते हुए कहा जा सकता है कि नीतिश का इससे कोई नुकसान नहीं होने वाला है। लालू जैसे भ्रष्ट और नकारा नेताओं से बिहारी समाज ने मुक्ति पायी है और सत्ता नीतिश जैसे सकरात्मक सोच की राजनीतिक शख्सियत के पास सत्ता है। इसलिए बिहार की जनता कभी नहीं चाहेगी कि विकास और सम्मान की बहती धारा रूके। अगड़ी जातियां अगर नीतिश के खिलाफ भी जाती हैं तब भी पिछड़ी और दलित जातियों का एकजुट समर्थन नीतिश को जायेगा। तथ्य यह भी है कि जिधर भूमिहार जाति जाती है उधर अन्य अगड़ी जातियां भी नहीं जाती हैं। स्वार्थ और अति राजनीतिक महत्वांकाक्षा की पृष्टभूमि से ही जद यू में बगावत निकली है। मंथन पिछड़ी राजनीतिक इंकाई को भी करना होगा। आखिर रीढ़विहीन और जमीरहीन राजनीतिक शख्सियत उनके यहां रातो-रात कैसे मसीहा मान लिये जाते है, बना दिये जाते हैं। अंत में दुष्परिणाम भी पिछड़ी-दलित राजनीतिक संवर्ग को ही उठाना पड़ता है।
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विष्णुगुप्त
पिछड़ा राजनीतिक संवर्ग में उथल-पुथल है। बगावत सहित वैचारिक टकराव, अतिमहत्वाकांक्षा और व्यक्तिगत स्वार्थ से पिछड़ा राजनीतिक संवर्ग दग्ध है। समाजवादी पार्टी और जद यू , दोनों पिछड़ा सरोकार प्रमुख पार्टियां है। सपा में अमर सिंह ने बगावत पहले बगावत की तलवारें खींची और अब जद यू में ललन सिंह उर्फ राजीव रंजन सिंह बगावत की लाठियां भाज रहे हैं। ललन सिंह का कहना है कि नीतिश कुमार तानाशाह है और आम कार्यकर्ताओं की भावनाओं का उन्होंने बाजार बना दिया है, विकास की उपलब्धियां झूठी है और अगड़ी जातियों के साथ नीतिश राज में अन्याय हुआ है, उपेक्षा-तिरस्कार से अगड़ी जातियों का गुस्सा उफान पर हैं।।ललन सिंह बिहार जद यू के अध्यक्ष हैं और राज्यसभा में सांसद हैं। वे उस भूमिहार जाति से आते हैं जिनकी बिहार में लगभग सभी अन्य जातियों से ‘रार‘ स्थायी तौर पर रही है। अन्य अगड़ी जातियां भी भूमिहार से खार खाती हैं और राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता इनमें चलती रही है। अगड़ी जातियों की एकता और नये समीकरण नीव रखी जा चुकी है। भविष्य में अगड़ी जातियों के नेताओ का एक मंच भी तैयार हो सकता है। अगड़ी जातियां गोलबंद होकर भी बिहार में सत्ता पर अधिकार जमा सकती हैं, ऐसा हो ही नहीं सकता है। उनकी राजनीति में हिस्सेदारी और भी घट सकती है।
तानाशाही को लेकर उठा तूफान नहीं है। चुनावी राजनीति-समीकरण बनाने-बिगाड़ने का खेल है। बिहार में विधान सभा चुनाव के समय कम बचे हुए हैं। बिहार के संबंध में यह समय राजनीतिक अंधेरगर्दी और नये-नये समीकरण बनाने-बिगाड़ने के लिए अनुकूल है। कांग्रेस को एकमेव सत्ता और राजनीति के लिए बिहार में जनसमर्थन चाहिए। यह जनसमर्थन उसे अन्य राजनीतिक दलों के तोड़-फोड़ से मिल सकता है। लालू-रामबिलास पासवान को भी फिर से पुरानी शक्ति की खोज है। इसलिए बगावत की खेती पनपेगी ही और एक-दूसरी पार्टियां छोड़ने और ज्वाइन करने की सुर्खियां बनती रहेंगी। कांग्रेस, लालू और पासवान की चाल ललन सिंह के मोहरे से नीतिश कुमार की खाट खड़ा करने की हैं। जद यू में इस तरह के बगावत या विरोधी स्वर की घटनाओं से नीतिश कुमार के सेहत पर कोई प्रभाव पड़ेगा? या फिर नीतिश की राजनीतिक शक्ति और मजबूत होगी? अतिमहत्वाकांक्षा और व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति ही वह वजह है जिसमें अमर सिंह या ललन सिंह या फिर सुधीन्द्र कुलकर्णी जैसे लोगो को मूल पार्टी में तब तानाशाही नजर आने लगती है या फिर वैचारिक रूगणता दिखने लगती है जब संकट में उनकी पार्टी खड़ी होती है। इसके पहले वर्षो तक तानाशाही या वैचारिक रूगणता नहीं दिखायी देती है। इसलिए कि तब तो इनकी व्यक्तिगत महत्वांकाक्षा परवान चढ़ता रहा हो और इनकी व्यक्तिगत स्वार्थ की खेती भी अबाधित चलती रहती है।
नीतिश कुमार के लिए ललन सिंह वैसे ही महत्वपूर्ण रहे हैं जैसे मुलायम सिंह यादव के लिए कभी अमर सिंह थे। नीतिश कुमार का सर्वाधिक निकटवर्ती और विश्वासपात्र ललन सिंह ही रहे हैं। ललन सिंह की अपनी कोई राजनीतिक बिसात थी ही नहीं। अभी तक उन्होंने राजनीति में राज्य सभा का सदस्य की कुर्सी और बिहार के जद यू के प्रदेश अध्यक्ष जैसी राजनीतिक शक्ति जो पायी थी उसमें न तो उनकी राजनीतिक कुटिलता व जनाधार का करिश्मा था और न ही जद यू में वे वरिष्ठता के दृष्टिकोण से भी सर्वमान्य थे। उनकी राजनीतिक तरक्की का जरिया सिर्फ और सिर्फ नीतिश कुमार की कृपा रही है। खुद नीतिश कुमार की आलोचना इस बात के लिए होती रही है कि उन्होंने ललन सिंह जैसे रीढ़विहीन नेता को आगे बढ़ाया है। बिहार में एक राजनीतिक जुमला आज भी तैर रहा है। यह राजनीतिक जुमला है ‘ सरकार कुर्मी का और राज्य भूमिहार का‘। कुर्मी यानी नीतिश कुमार की सरकार और शासन पर भूमिहारों का अधिकार। सही भी यही था कि भूमिहारों की संख्या बिहार में तीन प्रतिशत भी नहीं है पर नीतिश कुमार के मंत्रिमंडल में सबसे ज्यादा मंत्री भूमिहार है और प्रशासन में सर्वाधिक वर्चस्व भूमिहार की है। भूमिहार वर्चस्व वाली प्रशासनिक ईंकांई का प्रतिफल यह हुआ कि नीतिश कुमार को न केवल राजनीतिक आलोचनाएं झेलनी पड़ी बल्कि विधान सभा के उपचुनाव में जद यू को झटका भी लगा था व लालू-रामबिलास पासवान ने विधान सभा उप चुनाव जीतकर नीतिश के खिलाफ हवा भी बनायी। पर वही ललन सिंह की राजनीतिक अतिमहत्वांकांक्षा और स्वार्थ देखिये कि नीतिश का ही जड़ खोदने मे आमदा है।
मंडल की राजनीतिक प्रस्थापना के बाद बिहार में पिछड़ी राजनीति का उदभव और गतिशीलता के साथ ही साथ अगड़ी राजनीतिक व्यवस्था का पराभव महत्वपूर्ण घटना रही है। बिहार पिछड़ी राजनीति की प्रयोग भूमि भी रही है। कभी कांग्रेसी राजनीति का छत्रप और अगड़ी राजनीति का पुरोधा जगरन्नाथ मिश्र खुद जमींदोज हो गये। लालू प्रसाद यादव ने 15 सालों तक बिहार में एकछत्र राज किया। लालू प्रसाद यादव के 15 के शासनकाल का राज सिर्फ और सिर्फ पिछड़ी जातियों की गोलबंदी थी। लेकिन लालू सिर्फ यादववाद में सीमित हो गये। इसलिए उनकी राजनीतिक लूटिया डूब गयी और बिहार की राजनीति में नीतिश कुमार की ताजपोशी हुई। यह बात फैलायी गयी कि भूमिहार और अन्य अगड़ी जातियों का ही योगदान है नीतिश की ताजपोशी में। चूंकि मीडिया में अगड़ी जातियो का वर्चस्व है और अगड़ावाद उनके सिर पर चढ़कर बोलता है। इसलिए नीतिश कुमार की ताजपोशी में अगड़ी जातियों की भूमिका स्वीकार कर ली गयी। अगर यह बात सही मान ली जाये तो इस प्रश्न का भी जवाब चाहिए कि आखिर 15 सालों तक अगड़ी जातियां लालू को हराने में नाकामयाब क्यों नहीं थी? लालू की हार इसलिए हुई थी कि उन्होंने बिहार को जंगल राज बना दिया था। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतो को कबाड़ा बना दिया था। गैर यादव पिछड़ी जातियों की नीतिश कुमार और भाजपा गठबंधन में एकजुटता थी। भूमिहार और अन्य अगड़ी जातियों का नीतिश कुमार का समर्थन देना एक मजबूरी थी।
नीतिश कुमार लालू की तरह जातिवादी नहीं है। उनकी राजनीतिक एजेन्डे में लालू के ‘यादववाद‘ की तरह ‘कुर्मीवाद‘ की बाढ़ शामिल नहीं है। प्रारंभ में जरूर प्रशासन में भूमिहार जाति का वर्चस्व की गलतियां की पर बाद में उन्होने अपना सारा ध्यान अति पिछड़ों और अति दलित जातियों का राजनीतिक उत्थान के लिए लगाया। अति पिछड़ों और अति दलितों के आरक्षण के कोटे को उन्होंने बढ़ाया। ग्राम पंचायतों में महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण दिया। ग्राम पंचायतों में महिलाओं के पचास प्रतिशत का आरक्षण को ‘बिहार माॅडल‘ के रूप में प्रसिद्धि मिली है। ‘बिहार माॅडल‘ को केन्द्र सरकार ने अपनी नीति बना रखी है। न्यायालय मे पिछड़ी जातियों को उन्होने आरक्षण सुनिश्चित किया। पिछड़ी जातियो में यादव, कुर्मी, कोइयरी और बनिया आदि सशक्त और आर्थिक रूप से बेहत्तर है। पर अतिपिछड़ों की राजनीतिक -आर्थिक स्थिति कमजोर रही है। अति पिछड़ों और अति दलितों की बढ़ती राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समृद्धि अगड़ी जातियां में सहन कैसे हो सकती थी? लालू राज के दफन होने के बाद अगड़ी जातियों और उनके वर्ग के नेताओं ने यह खुशफहमी पाल रखी थी कि उनकी राजनीतिक वर्चस्व पूर्व की तरह होगी। अगड़ी जातियों की नाराजगी नीतिश से यही है।
‘बिहारी‘ शव्द अपमान का प्रतीक कौन बनाया? बिहारी समुदाय पाखाकशी दूर करने के लिए पलायन के दंश किसने दिया? नीतिश की सरकार में न केवल बिहार से अपहरण, हत्या-लूट का बाजार बंद हुआ बल्कि सकारात्क कार्य भी चर्चित रहे है। खासकर बुनियादी सुविधाओं के मामले में। शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल परिवहन जैसी बुनियादी सुविधाएं बढ़ी हैं। सड़कें बिहार की तस्वीर बदल रही हैं। बुनियादी सुविधाओं के विकास से ही बिहार नये प्रतिमान गढ़ने के रास्ते में हैं। 2009 में बिहार ने 11 प्रतिशत के विकास दर को प्राप्त किया है। इससे बढ़कर और क्या उपलब्धि चाहिए? ‘बिहारी‘ शव्द आज अपमान नहीं बल्कि स्वाभिमान का प्रतीक बन रहा है। इसे पूरा देश स्वीकार कर रहा है। नीतिश कुमार के साथ शरद यादव की चाणक्य रणनीति साथ खड़ी है।
इस राजनीतिक बगावत या उथल-पुथल में नीतिश को नुकसान होगा क्या? बिहार की जो राजनीतिक समीकरण हैं उसके देखते हुए कहा जा सकता है कि नीतिश का इससे कोई नुकसान नहीं होने वाला है। लालू जैसे भ्रष्ट और नकारा नेताओं से बिहारी समाज ने मुक्ति पायी है और सत्ता नीतिश जैसे सकरात्मक सोच की राजनीतिक शख्सियत के पास सत्ता है। इसलिए बिहार की जनता कभी नहीं चाहेगी कि विकास और सम्मान की बहती धारा रूके। अगड़ी जातियां अगर नीतिश के खिलाफ भी जाती हैं तब भी पिछड़ी और दलित जातियों का एकजुट समर्थन नीतिश को जायेगा। तथ्य यह भी है कि जिधर भूमिहार जाति जाती है उधर अन्य अगड़ी जातियां भी नहीं जाती हैं। स्वार्थ और अति राजनीतिक महत्वांकाक्षा की पृष्टभूमि से ही जद यू में बगावत निकली है। मंथन पिछड़ी राजनीतिक इंकाई को भी करना होगा। आखिर रीढ़विहीन और जमीरहीन राजनीतिक शख्सियत उनके यहां रातो-रात कैसे मसीहा मान लिये जाते है, बना दिये जाते हैं। अंत में दुष्परिणाम भी पिछड़ी-दलित राजनीतिक संवर्ग को ही उठाना पड़ता है।
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