Sunday, June 29, 2025

शंघाई चीनी समूह से भारत को अलग होना चाहिए

 


शंघाई चीनी समूह से भारत को अलग होना चाहिए


                       आचार्य श्रीहरि


चीन के वर्चस्व वाले शंघाई शिखर सहयोग संगठन की बैठक में भारत पराजित हुआ, भारत का अपमान हुआ, भारत को अकेला खड़ा होने के लिए मजबूर कर दिया गया। जबकि पाकिस्तान की जीत हुई, पाकिस्तानी आतंक की अवधारणा को समर्थन मिला, पाकिस्तान अपनी आतंकी अवधारणा का ढिढोरा कैसे नीं पिटता? चीन की चरणवंदना वाली बैठक और संगठन में भारत अकेला क्यों पडा, भारत की हार क्यो हुई, पाकिस्तान की जीत क्यों हुई, आतंक की अवधारणा क्यों प्रशंसित हुई? भारत का अगला कदम क्या होगा? क्या भारत शंघाई शिक्षर सहयोग संगठन की सदस्यता छोड़ सकता है? पाकिस्तान और चीन वाली चरणवंदना वाले संगठन में सदस्यता की अनिवार्यता पर विचार होना ही चाहिए।
                   शंघाई सहयोग संगठन का वर्तमन स्वरूप आतंकी है, हिंसक है, शांति विरोधी है और चीनी वर्चस्व वाला है। यह सब बेपर्द हो चुका है। क्योकि इसने भारत में विभत्स और खतरनाक आतंकी हमले पहलगाम का विरोध करने से इनकार कर दिया। जबकि पाकिस्तान के अंदर अस्मिताओं की लडाई को भी आतंक मानकर विरोध कर दिया गया। बलूचिस्तान में मानवाधिकार का घोर और हिंसक उल्लंघन के बाद भी पाकिस्तान की आतंकी अवधारणा को मान्यता मिली, प्रशंसित की गयी।
इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि शंघाई बैठक के बाद सामूहिक घोषणा पत्र सहमति नहीं बन सकी और भारत ने सामूहिक घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सीधे तौर पर कह दिया कि पहलगाम आतंकी हमले का विरोध न करना और पाकिस्तान के आंतरिक अस्मिता की लडाई को भी आतंक की परिभाषा के अंदर देखना और मानना घोर आश्चर्य की बात है, शघाई सहयोग संगठन की मूल घोषणाओं और मान्यताओं के खिलाफ है।
                   ऐसे देखा जाये तो शंघाई सहयोग संगठन के इतिहास में यह कलंकित करने वाली घटना है और अपने द्वारा स्थापित विकास, उन्नति और शांति को दफन करने वाली घटना है। इसके पूर्व इस संगठन में कभी भी ऐसा नही हुआ था कि सामूहिक घोषणा पत्र जारी नहीं हो सका और न ही इस पर सहमति बन पायी। इसके पूर्व दुनिया की समस्याओं और जटिलताओं पर घंघाई सहयोग संगठन की बैठक में गंभीर और सकारात्मक बहसें हुई थी ओर बहसों में मतभिन्नता होने के बावजूद भी सहमति बनती रहती थी और दुनिया के जनमत को अपनी ओर आकर्षित करती रहती थी। अमेरिका ने कभी इस संगठन के खिलाफ अपना भडास निकाला था और इस संगठन को खतरनाक भी बताया था, अमेरिकी हितों के खिलाफ बताया था। सबसे बडी बात यह है कि शंघाई सहयोग संगठन ने कभी भी अपने सहयोग, शांति और विकास की रणनीति पर चला नहीं, क्योकि चीन और रूस खुद ही हिंसक देश है, जिन्होंने खुद अपने पडोसियों और दुनिया को दमन किया है, पीडित किया और संहार भी किया है फिर सहयोग और शांति की उम्मीद कहां से बनती है? सिर्फ और सिर्फ शंघाई सहयोग संगठन एक प्रहसन है, चीनी हितों की रक्षा करने वाला एक मोहरा है, हथकंडा है।
                   भारत इस संगठन का सदस्य ही क्यों बना था?  भारत ने 2017 शंघाई सहयोग संगठन का सदस्य बना था। इसके पूर्व भारत पर्यवेक्षक देश के रूप में शामिल होता रहा था। नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में ही यह आत्मघाती नीति बनी थी। नरेन्द्र मोदी को किसने यह सलाह दी थी कि शंघाई सहयोग संगठन में शामिल होना एक श्रेयकर कदम होगा। यह एक आत्मघाती कदम था और भारत के हितों को नुकसान पहुंचाने वाला कदम था। इसके लिए नरेन्द्र मोदी को दोषी ठहराया जा सकता है। शंघाई चीन का एक शहर है और इस शहर पर चीन बहुत ही नाज करता है और दुनिया को शंघाई के नाम पर चमत्कृत करता है। शंघाई को मैनचेस्टर भी कहा जाता है। यह एक औद्योगिक नगरी भी है, यहां पर सस्ती और व्यवस्थित फैक्टिरियां हैं जो उत्पादन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण और अग्रणी मानी जाती है। शंघाई की फैक्टिरियां में बनने वाली वस्तुओं के लिए बाजार के निर्माण के लिए भी चीन की यह नीति थी। चीन दुनिया में सस्ती समानों के निर्माण में अग्रणी है। चीन अपने हितों की रक्षा के लिए शंघाई जैसे छोटे-छोटे समूहों में मोहरा और हथकंडा खडा करता रहा है।
             चीन हमारा स्थायी दुश्मन है। चीन हमारा संहार चाहता है। चीन ने हमारे खिलाफ एक मजबूत गोलबंदी बनायी हुई है। दुनिया के हर मंच पर चीन हमारा विरोध करता है और हमें अपमानित करता है। शंघाई सिर्फ और सिर्फ चीनी वर्चस्व वाला संगठन है। फिर नरेन्द्र मोदी की सरकार ने कैसे यह समझ लिया कि शंघाई सहयोग संगठन भारत के लिए एक अवसर है, समृद्धि के प्रतीक है, उन्नति के लिए सहायक सिद्ध होगा। चीन ने भारत को मूर्ख भी बनाया है। भारत भी मूर्ख बन गया और वह भी आसानी स ेमूर्ख बन गया। चीन ने प्रस्ताव दिया था कि भारत इस संगठन की अध्यक्षता करे। चीन की इच्छानुसार भारत 2023 में इस संगठन का अध्यक्ष था। चीन को यह मालूम था कि भारत की अध्यक्षता करने पर भी उसके हित सुरक्षित रहेंगे, क्योंकि भारत अध्यक्ष होने के बावजूद कुछ नहीं कर सकता है, शंघाई सहयोग संगठन के नियमावली और मूल चरित्र में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता है। वर्चस्व तो उनका ही है, मूल चरित्र पर परिवर्तन के लिए जरूरी वोट भी भारत के पास नहीं है। भारत तो अकेला है। अन्य सदस्य देश जैसे पाकिस्तान,कांजाकिस्तान, किर्गिस्तान, रूस और ताजिकिस्तान कभी भारत का साथ नहीं देंगे। पाकिस्तान, काजीकिस्तान, किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान एक तरह से चीन के ही गुलाम है। जहां तक रूस का प्रश्न है तो फिर ब्लादमिर पुतिन की पैंतरेबाजी को कौन नही जानता है? सोवियत संघ की तरह रूस विश्वसनीय नहीं है। अभी-अभी पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में पुतिन ने भारत का नैतिक समर्थन करने से भी इनकार कर दिया था। जब भारतीय हित की सुरक्षा की बात आयेगी तब पुतिन और उनका रूस शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में चुप्पी साध साध लेंगे। रूस ने अभी-अभी समाप्त हुई शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में भारत की चिंता का समर्थन करने की जरूरत भी नहीं समझी।
                   क्या भारत अपमानित होने के लिए शंघाई समूह की सदस्या बनाये रखें हुए है?                  शंघाई सहयोग संगठन में पाकिस्तान की उपस्थिति भी चिंताजनक है, मूल भावना और मूल चरित्र के विपरीत है और दोहरे चरित्र का परिचायक है। यह कैसी मूल भावना है कि एक हिंसक और आतंकी देश को सदस्य बना देना। कौन नहीं जानता है कि पाकिस्तान का असली चरित्र कैसा है, उसकी भूल भावना और मूल चरित्र कैसा है? पाकिस्तान एक आतंकी देश है, एक हिंसक देश है। यह सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में आतंक की आउटसोर्सिंग की है, आतंक की आउट सोर्सिंग कर दुनिया की शांति और सदभाव को नुकसान पहुंचाया है। अभी-अभी ज्ञात हुआ है कि चीन ने पाकिस्तान की जासूसी मदद की थी। पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ने रहस्योदघाटन किया है कि चीन ने सेटेलाइट जानकारी पाकिस्तान को उपलब्ध करायी थी और पाकिस्तान ने इस जानकारी को हमले में उपयोग किया था। अभी-अभी पाकिस्तान और चीन की एक और जुगलबंदी देखने को मिली है। शघाई सहयोग संगठन की बैठक में चीन ने पाकिस्तान को साथ दिया और कह दिया कि पाकिस्तान के अंदर होने वाले आतंकी घटना घातक और मानवता के प्रति अपराध है। जबकि पाकिस्तान एक खुद आतंकी देश है। पाकिस्तान और चीन की जुगलबंदी का ही प्रमाण है कि पहलगाम की आतंकी घटना के खिलाफ प्रस्ताव पारित करने शंघाई सहयोग संगठन ने इनकार कर दिया था। जबकि भारत ने पहलगाम आतंकी घटना पर निंदा प्रस्ताव पारित कराने की पूरी कोशिश की थी, पर किसी सदस्य देश ने भारत का साथ नहीं दिया।
                भारत को अपमान से बचना है, भारत को अपने हितों को सुरक्षित रखना है, भारत अगर पाकिस्तान को बेनकाब करना चाहता है और उसे आईना दिखाना चाहता है तो फिर चीन और पाकिस्तान के खिलाफ तन कर खडा होना होगा। शंघाई समूह जैसे चीनी और पाकिस्तानी मूल भावना के प्रतीकों से अलग होना ही चाहिए। शंघाई चीनी समूह से भारत को अलग हो जाना चाहिए। भारत अपना पैसा और समय शंघाई चीनी समूह पर बेअर्थ खर्च कर रहा  है

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Thursday, June 19, 2025

जिहाद की डाॅक्टरी पढाता है ईरान







               जिहाद की डाॅक्टरी पढाता है ईरान
                                  जिहाद पढ़़कर आते हैं और बनते हैं जिहादी


             
                              ( आचार्य श्रीहरि )


ईरान से पन्द्रह सौ मुस्लिम छात्रों को भारत सरकार वापस ला रही है। कई विमान आ चुके हैं। कई आने वाले हैं। इनको लाने के लिए करोडों रूपये खर्च होंगे। ये सभी मुस्लिम छात्र ईरान के अंदर खतरे में थे और इन पर इस्राइल की मिसाइलें गिरने का डर था। इस्राइल से इनके जान को खतरा था। इस्राइल के मिसाइल हमलों से ईरान की राजधानी तेहरान और अन्य प्रमुख शहर कब्र बन रहे हैं। किसी भी देश का फर्ज बनता है कि वह अपने नागरिकों को खतरे की जगह से सकशुल बाहर निकाले और उनको सुरक्षित जगह पहुंचाये। इस सिद्धांत पर भारत सरकार का कदम सराहनीय है। पर एक प्रश्न यह उठता है कि क्या भस्मासुरों को वापस लाना, क्या हिंसक और आतंकी मानसिकता के लोगों को वापस लाना जैसे कदम मुसीबतों का आमंत्रण देना नहीं है, अपना ही संहार करने जैसा नहीं है, हिंसा और आतंकवाद को समृद्ध करना नहीं है? सच तो यह है कि ईरान जिहाद की डाॅक्टरी पढाता है और ईरान के विश्वविद्यालयों से निकले डाॅक्टर धारी जिहाद जैसे इस्लामिक कार्यो में सक्रिय रहते हैं, हमास, हिजबुल्लाह और हूती, आईएस जैसे मुस्लिम आतंकी संगठनो के लिए हथियार का काम करते हैं।
                  भारत ही दुनिया का एक मात्र देश है जो अपने भस्मासुरों, आतंकियों और हिंसकों तथा मजहबी तौर पर पागल मानसिकता के लोगों को विदेशों से वापस लाने और उनकी चरणवंदना करने में लगा रहता है, करोडों और अरबों रूपये खर्च कर देता है। यह विचारण करने की जरूरत भी नहीं समझा जाता कि जिनको वापस देश लाया जा रहा है उनकी पृष्ठभूमि क्या है, जिनकी कहीं कोई आतंकी और हिंसक काफिर मानसिकता तो नहीं है, कहीं ये भारत विरोधी अभियान और मानसिकता के सहचर तो नहीं रहे हैं। ईरान से भारत लाये जा रहे पन्द्रह सौ छात्रों में अधिकतर कश्मीरी छात्र हैं जो कश्मीर से इस्लामिक शिक्षा ग्रहण करने के लिए ईरान गये थे। कश्मीर ही वह जगह है जहां से मुसलमानों ने हिंसा के बल पर हजारों हिन्दुओं को कत्ल कर दिया और लाखों हिन्दुओं को कश्मीर से भगा दिया। कश्मीर में इस्राइल विरोधी मानसिकताओं का बाजार लगा हुआ है। कश्मीर में इस्राइल के खिलाफ रोज प्रदर्शन हो रहे हैं और मुस्लिम यूनियन की हिंसक जिहाद जारी है। मुस्लिम देशों से पढकर आने वाले मुस्लिम छात्र भारत विरोधी गतिविधियों और पाकिस्तान परस्ती अभियानों में लगे रहते हैं।
             ईरान पढने जाते ही क्यों हैं? ईरान की एमबीबीएस डिग्री और अन्य डिग्रियां कौन सी समृद्ध होती हैं? एक जिहाद की मानसिकता से ग्रसित देश में शिक्षा का कौन सा वतावरण समृद्ध होता है? जिहाद की मानसिकता से ग्रसित देश में आधुनिक ज्ञान और विज्ञान की उम्मीद ही बेकार है, बैमानी है, खुशफहमी है। मालूम यह हुआ कि जो पन्द्रह सौ छात्र लाये जा रहे है वे अधिकतर मेडिकल की शिक्षा लेने गये थे। कहने का अर्थ यह है कि पे सभी एमबीबीएस की डिग्री लेने गये थे। ये एमबीबीएस की डिग्री लेने के बाद भारत में डाॅक्टर बन जायेंगे। अधिकतर छात्र जम्मू कश्मीर का प्रतिनिधित्व करते हैं। जम्मू-कश्मीर में एक तरह से जिहाद चल रहा है, अपने बच्चों को ईरान सहित अन्य मुस्लिम देशों में भेजों और इंजीनियर-डाॅक्टर बनाओ। ईरान और अन्य मुस्लिम देशों में भारत के मुस्लिम बच्चों को रियायती दर पर मेडिकल शिक्षा उपलब्ध कराया जाता है। एक सूत्र का कहना है कि मुश्किल से 20 लाख रूपये में मेडिकल की शिक्षा हासिल हो जाती है। सबसे बडी बात यह है कि कई मुस्लिम संगठन ऐसे हैं जो ईरान और अन्य मुस्लिम देशों में मेडिकल-इंजीनियरिगंग करने वाले मुस्लिम छात्रों को धन उपलब्ध करते हैं। मेडिकल शिक्षा के लिए भारत में कमसे कम एक करोड तो फिर अमेरिका और यूरोप में करोड़ों रूपये खर्च करने पडते हैं।
                    ईरान सहित अन्य मुस्लिम देशों में मेडिकर और इंजीनियरिंग की शिक्षा के दौरान जिहाद की भी शिक्षा दी जाती है। इस्लाम में जिहाद अनिवार्य है। काफिर मानसिकता भी जागजाहिर है। इस्लाम और कुरान कहता है कि काफिरों के प्रति निष्ठुर रहो, उनसे दोस्ती कर विश्वासघात करो, उनकी हत्या करो, इनकी पत्नियों को रखैल बनाओ। काफिर उसे कहते हैं जो इस्लाम को नही मानते हैं। एक मुसलमान के लिए हिन्दू, ईसाई यहूदी सब काफिर हैं। इसीलिए काफिर देश में इन्हें इस्लाम का शासन चाहिए। दुनिया में हर जगह सिर्फ मुसलमानों को ही अन्य सभी धर्मो से समस्या भी इसी कारण होती है, इनका आतंक और हिंसा के पीछे की कहानी भी यही है। ईरान एक घोर इस्लामिक मान्यताओं का देश है। ईरान अपने देश में पढने वाले हर छात्र को इस्लाम की हिंसक मान्यताओं पर सौ प्रतिशत खरा उतरने का संदेश देता है और पालन करने की अनिवार्यता भी सुनिश्चित करता है। कहने का अर्थ यह हुआ कि ईरान से वापसी करने वाले छात्र पूरी तरह से जिहादी रंग में रंगे होंगे।
                        ये मुस्लिम छात्र कोई पढाकू भी नहीं होते हैं, कोई ज्ञानी भी नहीं होते हैं। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के भी सहचर नहीं होते हैं,  कोई विशेष प्रतिभाशाली भी नहीं होते हैं। फिर क्या होते हैं? ये सिर्फ और सिर्फ अनपढ होते हैं, मुल्ला संस्कृति के होते हैं। अधकचरे दिमाग के होते हैं। जिन्हें भारत में मेडिकल और इंजीनियरिंग कालेजों में जगह नहीं मिल पाती हैं, योग्य नहीं समझा जाता है वैसे ही छात्र मुस्लिम इेशों में जाते हैं। जहां पर प्रतियोगिता का कोई स्थान नही होता है, प्रतिभा का कोई स्थान नहीं होता है, चयन की कोई मानक प्रक्रिया नहीं होती है। शैक्षणिक योग्यता का भी कोई परीक्षण नही होता है। शैक्षनिक योग्यता के कागजों को बिना परीक्षण कराये स्वीकार कर लिया जाता है। भारत में मेडिकर-इंजीनियरिंग शिक्षा के लिए अयोग्य छात्र मुस्लिम देशों में योग्य कैसे बन जाते हैं। इस पर भारत सरकार को संज्ञान लेने की जरूरत है।
                 सबसे बडी बात यह है कि ये मुस्लिम देशों में शिक्षा ग्रहण करने के दौरान भारत की ही कब्र खोदते हैं, भारत को एक हिंसक देश बताते हैं, भारत में इस्लाम खतरे का नारा लगाते हैं, पाकिस्तान परस्ती दिखाते हैं। ऐसा कई उदाहरण सामने हैं। शेख अतीक का प्रकरण बहुत ही घातक और जिहादी है। यह प्रकरण सुषमा स्वरराज से भी जुडा हुआ है। सुषमा स्वराज उस समय भारत के विदेश मंत्री थी। फिलिपीन से शेख अतीक नामक मुस्लिम छात्र ने सुषमा स्वराज से मदद मांगी थी और नया पासपोर्ट जारी करने की मांग की थी। शेख अतीक ने अपनी राष्ट्रीयता कश्मीरी बतायी थी, उसकी सोशल मीडिया प्रोफाइल पाकिस्तान परस्ती से भरी पडी थी। इस पर सुषमा स्वराज ने उससे कहा था कि भारतीय पासपोर्ट सिर्फ और सिर्फ भारतीय राष्ट्रीयता का प्रतिनिधित्व करने वालों के लिए होता है। फिर जान बचाने के लिए शेख अतीक ने अपने आवेदन में भारतीय लिखा था फिर सुषमा स्वराज ने उसकी मदद की थी। ईरान से वापसी करने वाले मुस्लिम छात्रों को भी भारत तभी याद आता है जब वे संकट में होते हैं, नही ंतो ये शायर मोहम्मद इकबाल की तरह जिहादी होते हैं और कहते हैं कि हम हैं मुसलमां और सारा जहां हमारा। शायर मोहम्मद इकबाल ने लिखा था कि सारे जहां से अच्छा हिन्दूस्ता हमारा, जब उस पर जिहादी रंग चढा तब उसने लिखा था कि हम हैं मुसलमां और सारा जहां हमारा। यानी कि यह धरती और आसमान सिर्फ मुसलमानों के लिए है।
                      छात्र भारत लौट कर करेंगे क्या? ये इस्लामिक जिहाद के ही सहचर बनेंगे। ईरान में मजहबी शिक्षा और मानसिकता से ग्रसित ज्ञान का दुरूपयोग हिन्दुओं के संहार  में करेंगे और इस्लाम के प्रचार में लगायेंगे। अमेरिका में पढने वाले कई भारतीय मुस्लिम छात्र इस्राइल के खिलाफ हिंसक गतिविधियो में शामिल रहे हैं और अमेरिका के हितों का नुकसान पहुंचाने के साथ ही साथ भारत के हितों की भी कब्र खोदते हैं। इस्राइल के साथ हमारी सामरिक दोस्ती है, समझदारी भी है। अमेरिका ने ऐसे मुस्लिम छात्रो को निकालना शुरू कर दिया है, दंडित करना शुरू कर दिया है। भारत को भी अब मुस्लिम छात्रों के लिए कोई न कोई बंधन बनाना होगा और निर्देश देना होगा। खासकर मुस्लिम देशों की शिक्षा को मान्यता से वंचित करना होगा। उचित चयन प्रक्रिया का पालन नहीं करने वाले देशों के शिक्षा को शून्य घोषित करना होगा।


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Sunday, June 15, 2025

ईरान ही है दोषी और हिंसक


                 


                       ईरान ही है दोषी और हिंसक
 
                              आचार्य श्रीहरि



ईरान और इस्राइल युद्ध की कसौटी पर तीन प्रश्न अति महत्वपूर्ण हैं, जिन्हें जानना जरूरी है, तभी हम ईरान और इस्राइल युद्ध की आवश्यकता और अनावश्यकता को चिन्हित कर सकते हैं। सबसे पहले तो इस अवधारणा को भी अस्वीकार कर लीजिये कि हमेशाा शांति और सदभाव से ही किसी भी समस्या का समाधान हो सकता है। कभी-कभी हिंसा के बल पर भी शांति और सदभाव सुनिश्चित होती है। इसका सीधा उदाहरण अमेरिका और जापान है। दूसरे विश्वयुद्ध में जापान हिलटर के समूह मे था और जापान ने बिना कुछ सोचे-समझे अमेरिका पर हमला कर दिया, जबकि अमेरिका की तटस्थता थी और वह प्रत्यक्ष तौर पर दूसरे विश्व युद्ध में शामिल नहीं था, अप्रत्यक्ष तौर पर वह ब्रिटेन को जरूर मदद कर रहा था, ब्रिटेन को हथियार आपूर्ति कर रहा था। अमेरिका ने अपने उपर हमले का बहुत बडा प्रतिकार लिया, जापान के दो प्रमुख शहरो नागाशाकी और हिरोशिमा पर परमाणु बम गिरा दिया। भयंकर रक्तपात हुआ और फिर जापान अहिंसक देश बन गया। हथियार त्याग दिया, युद्ध छोड दिया, सेना रखना बंद कर दिया, सिर्फ रचनात्मकता अपनायी औैर अपने को आर्थिक शक्ति बनाया। आज जापान दुनिया की छठे नंबर की अर्थव्यवस्था है। जापान और अमेरिका आज अमिट मित्र हैं। कहने का अर्थ यह है कि दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति कोई गांधी-बुद्ध के अहिंसक उद्घोषों नहीं हुई थी, शांति की अपील से नहीं हुई थी, कोई सार्थक संवाद और समझौते से नहीं हुई थी बल्कि अमेरिका के बम वर्षा से उत्पन्न कारणों से हुई थी, जापान, जर्मनी, इटली के मित्र देशों की पराजय और विनाश हुई थी। इसके पीछे हथियारों की हिंसा थी, रक्तपिशाचुओं के संहार के पीछे भी जवाबी हिंसा थी, जवाबी युद्ध था। सबसे खास बात यह है कि दुनिया भर की मुस्लिम आतंकी संगठन जवाबी और प्रतिकार वाली हिंसा से ही नियंत्रित रहते हैं।
                             अब यहां यह प्रश्न उठता है कि तीने अतिआवश्यक प्रश्नों की कसौटी क्या है? एक प्रश्न ईरान का आतंकी संगठनों की मददगार और संरक्षणकारी हमले की भूमिका और दूसरा प्रश्न अल्ला की मर्जी और तीसरा प्रश्न इस्लाम काफिर मानसिकताएं। क्या ईरान की आतंकी भाषा और समर्पण ओझल है, अप्रत्यक्ष है? साक्षात है और प्रत्यक्ष है। हमास को उसने संरक्षण नहीं दिया था क्या? हमास को उसने आर्थिक् सहायता नही दी थी क्या? हमास को हमले के लिए हथियार ईरान ने नहीं दिये थे क्या? इस्राइल के ढाई हजार से अधिक निर्दोष लोगों को गाजर मूली की तरह काटने, बच्चियों और महिलाओं के साथ बलात्कार करने, महिलाओं के शवों के साथ बर्बरता करने और महिलाओं के शवों के साथ बलात्कार करने जैसी घृणात्मक और मानवता को शर्मसार करने वाली मानसिकताओं का ईरान ने समर्थन नहीं किया था क्या? हूती आतंकियो को खडा कर समुद्री मार्गो को हिंसा और आतंक का पर्याय ईरान ने नहीं बनाया है क्या? हूतियों और अन्य मुस्लिम आतंकियों को ललकार और राॅकेट लांचर उपलब्ध करा कर ईरान ने समुद्र मार्ग को न केवल प्रभावित कर दिया बल्कि खर्चीला भी बना दिया। समुद्री मार्ग बदलने से मानवीय जरूरतों की समस्याएं खडी हैं, महंगी हुई हैं, इसका दुष्प्रभाव सिर्फ इस्राइल को उठाना पडा है, ऐसा नहीं है, इसका दुष्प्रभाव तो अमेरिका और भारत पर भी पडा है। अमेरिका को समुद्री मार्ग पर जगह-जगह नौ सेनाएं खडी करनी पडी है, भारत को भी अपने समुद्री जहाजों की सुरक्षा के लिए अतिरिक्त नौ सेनाओं की तैनाती करने के लिए बाध्य होना पडा है।
             इस्लामिक हिंसक व वर्चस्व की मानसिकता का ही प्रतिनिधित्व ईरान करता है। किसी भी मुसलमान से यह पूछ लीजिये फिर उनका जवाब सुन लीजिये। किसी मुसलमान से पूछिये कि हमास और अन्य मुस्लिम आतंकी संगठन किसकी मर्जी से हिंसक शक्ति रखते हैं फिर इनका जवाब होता है कि ये अल्ला की शक्ति है, अल्ला की शक्ति और मर्जी के बिना पता भी नहीं हिल सकता है। फिर इनसे पूछिए कि जब अल्ला की शक्ति सर्वश्रेष्ठ और अद्वितीय है और अल्ला की मर्जी के बिना पता भी नहीं हिल सकता है तो फिर ईरान की बर्बादी की कहानी इस्राइल किसकी मर्जी से लिख रहा है, इस्राइल की मिसाइलें किसकी मर्जी से ईरान के सैनिक कंमाडरो और परमाणु बमों का संहार कर रही हैं, तेल भंडारो पर प्रहार कर रही हैं? क्या यह सब इस्राइल अल्ला की मर्जी से कर रहा है? अगर इस्राइल अल्ला की मर्जी के खिलाफ यह सब कर रहा है तो फिर निश्चित तौर पर अल्ला की शक्ति बडी नहीं है, इस्राइल की ही शक्ति बडी है और प्रहारक भी है। ईरान की काफिर सोच के कारण ही उसकी इस्राइल दुश्मनी है। कुरान में काफिर को मारने, धमकाने और उनकी बहू-बेटियो की इज्जत लूटने और रखैल बनाने का आदेश है। इस्राइल अगर काफिर देश नहीं होता तो फिर ईरान का दुश्मन भी इस्राइल नहीं होता। ईरान फिर हमास और हिजबुल्लाह को इस्राइल के खिलाफ सक्रिय ही नहीं रखता और न ही हथियार और आर्थिक मदद देता। अगर इस सिद्धांत की परीक्षण आप करना चाहते हैं तो फिर किसी भी मुसलमान से पूछ लीजिये कि कुरान में काफिर को मारने का अधिकार है, और ईरान भी काफिर इस्राइल से जंग लड रहा है? इसके उत्तर में चालाक लोग चुप्पी साध लेंगे और अन्य मुस्लिम इसके समर्थन में जवाब देंगे। भारत के कश्मीर के पहलगाम में आतंकियों को इस्लाम की प्रहरी बताया गया था, मुस्लिम आतंकियों द्वारा धर्म पूछ पूद कर मारने की घटना को इस्लामिक पुण्य करार दिया गया था। ऐसे बयान और ऐसे वीडीओ सोशल मीडिया पर हजारों की संख्या में थे। कुछ साल पहले मलेशिया के शासक ने इस्राइल का नामोनिशान मिटाने का आह्वान मुस्लिम दुनिया से किया था। हालांकि बाद में मलेशिया के सुर बदल गये, ईरान की तरह हिंसक होना मलेशिया ने इनकार कर दिया था। अभी-अभी भारत और पाकिस्तान युद्ध को ही कसौटी पर देख लीजिये। फिर आपको काफिर मानसिकता की हिंसक गोलबंदी दिखायी देगी। तुर्की और अजरबैजान ने काफिर मानसिकता के कारण ही पाकिस्तान का साथ दिया और भारत के खिलाफ युद्ध लडने का काम किया।
                   फिलिस्तीन मुसलमानों की धरती है, यह मानसिकता भी आतंकी और हिंसक है और धृणित है। यह मानसिकता ही मुस्लिम-यहूदी युद्ध का कारण है और पर्याय है। फिलिस्तीन कभी भी मुस्लिमों की धरती नहीं रही है। इस्लाम की स्थापना कब हुई है?यहूदियों की स्थापना के कई सौ साल बाद इस्लाम का उदय हुआ है। फिलिस्तीन में यहूदियों का राज था और यरूशलम में यहूदी और ईसाई रहते थे। इस्लाम और यहूदियों के बीच कबीला युद्ध हुए। मुसलमानों ने फिलिस्तीन पर कब्जा कर लिया। यहूदियों को अपनी भूमि पर लौटने और अपना देश बनाने का अधिकार था। अमेरिका और यूरोप की मेहरबानी हुई और फिर आगे की कहानी स्पष्ट है। आज मुसलमानों को फिलिस्तीन में यहूदियों के साथ रहना पसंद नहीं है। जैसे भारत में मुसलमानों ने हिन्दुओं के साथ रहना पसंद नहीं किया था, पाकिस्तान अलग देश बनाया था और अब भारत में हिन्दुओं का संहार भी कर रहे हैं।
                     ईरान से इस्राइल को अस्तित्व खतरा है। ईरान में मजहबी तानाशाही है। ईरान में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सिर्फ हाथी के दांत होते हैं, खिलौने होते हैं, मनोरंजन के पात्र होते हैं। असली सत्ता मौलवी की होती है। मौलवी खामनेई के पास ही ईरान की असली सत्ता है। ईरान का परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण किसी भी स्थिति में नहीं है। ईरान इस्राइल और अमेरिका के विनाश के लिए ही परमाणु बम हासिल करना चाहता है। जिस तरह इस्लामिक आतंकियों की पहुंच अमेरिकी विमानो तक हुई और फिर मुस्लिम आतंकियों ने अमेरिकी वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हमला कर उसके वैभव और समृद्धि का नामोनिशान मिटा दिया था उसी प्रकार अगर ईरान ने परमाणु बम हासिल किया तो फिर परमाणु बम तक पहुंच हमास और हिज्जबुल्लाह जैसे मुस्लिम संगठनों की होगी फिर इस्राइल का नामोनिशान मिटना तय है। इसलिए इस्राइल का प्र्रहार और प्रतिकार अनिवार्य है। यह भी तय है कि इस्राइल किसी भी स्थिति मे ईरान की हिंसक नीति का दमन कर ही दम लेगा। ईरान की बर्बादी भी तय है। ईरान सयंम से रहें और अनावश्यक हिंसा और युद्ध के लिए कारण न बनें। लेकिन ईरान अब सिर्फ और सिर्फ अपनी बर्बाद की कहानी खुद लिख् रहा है।




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Wednesday, June 4, 2025

गोली और भूख के बीच फंसंे फिलिस्तीन

 



  

       गोली और भूख के बीच फंसंे फिलिस्तीन


                           आचार्य श्रीहरि


अभी-अभी एक वीडीओ ने दुनिया की मानवता को झकझौर कर रख दिया, हिंसा और प्रतिहिंसा विरोधियों को इतना भयभीत कर दिया कि वे सोचने के लिए मजबूर हो गये कि अब दुनिया में शांति की बात बैमानी हो गयी है, हिंसकों और प्रतिहिंसकों का राज कायम हो गया है, जिसकी लाठी उसकी भैंस का शासन हो गया है। अब प्रश्न यह उठता है कि वह वीडीओ क्या था और वह कितना विभत्स था, कितना डरावना था, कितना अमानवीय था, उस वीडीओ के लिए दोषी किसको मानें, क्या हिंसकों का समर्थन करने वालों और हिंसकों को संरक्षण देने वालों को जिंदा रहने का अधिकार भी है या नहीं? हम बात कर रहे है हमास और इस्राइल के बीच युद्ध और हिंसा आधारित वीडीओ का। गाजा पट्टी में खाना बांटने के आयोजन पर इस्राइली मिसाइलों ने हमला कर दिया और 36 लोगों को मौत का घाट उतार दिया, दो सौ से अधिक फिलिस्तीनियों को गंभीर रूप से लहूलुहान कर घायल कर दिया। गाजा पट्टी फिलिस्तीन का वह स्थान है जहां पर हमास का कब्जा है, हमास के समर्थकों की जगह है, हमास के लिए लडने वालों की जगह है, हमास ने यही पर इस्राइली बंधकोेें को बंधक बना कर रखे हुए हैं। फिर एक प्रश्न मानवता की कसौटी पर यह उठता है कि भूख से तडपते हुए लाखो लोगों की भूख कौन मिटायेगा, भूख से होने वाली मौतों को कौन रोकेगा, मुस्लिम यूनियनबाजी चलाने वाले मुस्लिम देश फिलिस्तीनियों के पुर्ननिर्माण मंें पैसे खर्च करने के लिए तैयार क्यों नहीं है? संयुक्त राष्ट्रसंघ का कहना है कि फिलिस्तीन को आर्थिक मदद नहीं मिली, इस्राइल के प्रहार और प्रतिहिंसा नहीं रोकी गयी तो फिर भूख से लाखों लोगों की मौत हो सकती है। लाखों लोग युद्ध के कारण बूरी स्थिति में फंसे हुए हैं, उनका जीवन संकट में हैं, वे इस्राइल की गोली से बच भी जायेंगे तो भी भूख से तड़प-तडप कर मरेंगे। उनके सामने भूख मिटाने के लिए न तो खाद्य सामग्री है और न ही दवाइयां। अंतर्राष्ट्रीय मदद के रास्ते बहुत ही सीमित हैं।

                  गाजा पट्टी लगभग कब्र बन चुकी है। गाजा पट्टी के 75 प्रतिशत भूभागो पर इस्राइल ने कब्जा कर रखा है। यहां पर इस्राइल की पूरी मनमर्जी चल रही है। उसकी मिसाइलें जब चाहती हैं तब हमला कर देती हैं, मिसाइल हमले आबादी वाले क्षेत्रों में ही क्यो होते हैं, सार्वजनिक जगहों पर क्यों होते हैं, स्कूलों-कालेजों पर क्यों होते हैं, अस्पतालों में क्यों होते हैं, सार्वजनिक वाहनों पर क्यों होते हैं? ऐसी जगहों पर मिसाइलें जब अराजक होंगी और मार करेंगी तो फिर नुकसान तो निर्दोष लोगों को ही होगा। निर्दोष लोगों ने ही अब तक अपनी जिंदगियां स्वाहा की है। आंकडे बताते हैं कि अब गाजा पट्टी में एक लाख लोगों की हत्याएं हुई हैं। इन एक लाख लोगों में मुश्किल से गिनती के कुछ लोग होंगे जिनका संबंध हमास और हिज्जबुल्लाह जैसे विभत्स आतंकी संगठनों से होंगे? फिर भी प्रतिहिंसा में निर्दोष जिंदगियां स्वाहा हो रही हैं। निदोष लोगों को मारे जाने की चिंता किसी को नहीं है। इस्राइल की इस कसौटी पर चिंता हो ही नही सकती है क्योंकि वह तो प्रतिहिंसा को ही अपना विजय मानता है और अपने अस्तित्व के लिए जरूरी मानता है, अचूक हथियार मानता है। हमास को भी चिंता नहीं है क्योंकि वह तो यही चाहता है, उसकी मंशा तो यही होती है कि इस्राइल जितना मुसलमानों का संहार करेगा, मुसलमानों को जितना प्रताडित करेगा उसका उतना ही समर्थन मुस्लिम वर्ग से आयेगा, हमास का हिंसक तत्व उतना ही मजबूत होगा।

                 सभी अमेरिका और यूरोप की ओर देख रहे हैं। अमेरिका और यूरोप से इस्राइल के प्रहार बचाने की उम्मीद कर रहे हैं। फिलिस्तीन में इस्राइल के खिलाफ अमेरिका और यूरोप से ही उम्मीद होती है। अमरिका और यूरोप के पैसे से फिलिस्तीन आबादी की रोजी रोटी चलती है और उनकी जिंदगियां गुलजार होती हैं। क्योंकि फिलिस्तीन वर्षो-वर्षो से हिंसा और प्रतिहिंसा की आग में धधक रही है। इस्लाम के स्थापना काल से ही वहां पर हिंसा और प्रतिहिंसा चल रही है। इस्लाम के आगमन के पहले वहां पर यहूदियों का राज था, यहूदियों का पूर्ण वर्चस्व था, थोडी बहुत आबादी ईसाइयों को थी। लेकिन मुस्लिम आबादी तो थी ही नहीं। फिर इस्लाम और यहूदियों के बीच कई लडाइयां हुई और यहूदियों का दमन हुआ, यहूदियों को हिंसा के बल पर दोयम नागरिक बनाया गया, फिलिस्तीन से पलायन करने के लिए विवश किया गया। जिस प्रकार से कश्मीर में हिन्दुओं को खदेडा गया, जिस प्रकार से कश्मीर को आतंकवाद और हिंसा के बल पर कब्जा कर इस्लाम की शक्ति बढायी गयी उसी प्रकार का खेल इस्लाम ने फिलिस्तीन में खेला था। दूसरे विश्व युद्ध के संकट के बाद यहूदियों ने अपनी माटी और अपना देश इस्राइल बनाया और अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए प्रतिहिंसा अपनायी।

                        फिलिस्तिनयों की जिंदगी की रक्षा करना, उनके लिए बाजार की व्यवस्था करना, उनके लिए रोजगार का सजृन करना, उनकी भूख को मिटाना आदि की जिम्मेदारी किसकी है? क्या यह सिर्फ अमेरिका और यूरोप की ही जिम्मेदारी है? क्या शेष दुनिया की कोई जिम्ेदारी नहीं है? खासकर मुस्लिम देशों की कोई जिम्मेंदारी नहीं है? दुनिया में 60 से अधिक मुस्लिम देश हैं। सउदी अरब, ईरान, मिश्र, कतर, तुर्की, अजरबैजान आदि दर्जनों मुस्लिम देश अमीर है और उनके पास पैसे भी बहुत ज्यादा है, ये अरबों-खरब डाॅलरों का निवेश यूरोप और अमेरिका में करते हैं? फिर ये फिलिस्तीन की मुस्लिम आबादी की भूख मिटाने के लिए सहायताएं देने में पीछे क्यों रहते हैं? फिलिस्तीन के पुर्नर्निमाण की बात आती है तो फिर ये मुस्लिम देश कभी भी आगे नहीं आते हैं, इनकी तिजारी खुलती नहीं है। ये सिर्फ अमेरिका और यूरोप को दोषी ठहराते हैं और अमेरिका व यूरोप से उम्मीद करते हैं कि ये फिलिस्तिनियों की भूख मिटायें और अपनी तिजोरी खोल कर रखें। दुनिया की कूटनीति में यह बात भी सामने आती है कि मुस्लिम देश ही हमास और हिज्जबुल्लाह को मदद देकर फिलिस्तीन समस्या को बकरार रखे हैं और हिंसक बना कर रखें हुए हैं। हमास का अपना कोई रोजगार नहीं है, अपना उसका कोई उद्योग धंधा नहीं है, उसकी अपनी कोई फैक्टरी नहीं है फिर उसके पास हथियार खरीदने के पैेसे कहा से आते हैं, आतंकी गतिविधियों को संचालित करने के लिए, हिंसक रखने के लिए पैसे कहां से आते हैं? ईरान तो हमास को हथियार देता है और इस्राइल के खिलाफ भडकाता भी है पर फिलिस्तीन की आबादी की भूख और विकास के लिए पैसे देने के लिए आगे भी नहीं आता है। 

                फिलिस्तीन आबादी की भलाई अब इसी में है कि हमास को रास्ते पर लाया जाना चाहिए और उसे युद्ध के भरोसे यहूदियों का सफाया करने के सपने देखने से रोका जाना चाहिए। अगर हमास के विभत्स हमले के समय मुस्लिम देशों ने हमास की आलोचना की होती तो फिर इस्राइल के आक्रोश और बदले की भावना की आंच कम की जा सकती थी, रोकी जा सकती थी। मुस्लिम देशों की बात छोड दीजिये पर इस्लाम के बुद्धिजीवियों ने भी हमास की आलोचना करने के लिए आगे नहीं आये थे। जबकि हमास का आतंकी हमला कितना विभत्स था, कितना रौंगटे खडा करने वाला था, कितना जहरीला था, यह सब कौन नहीं जानता है? अभी भी सैकडों बंधको को हमास अपने कब्जें में रखा है जिसे वह छोडने के लिए तैयार नहीं है। हमास बंधक छोडने के लिए तैयार होगा तभी दुनिया का जनमत इस्राइल की प्रतिहिंसा और प्रहार को रोकने के लिए दबाव बना सकता है। मुस्लिम देश और मुस्लिम बुद्धिजीवी बंधकों की रिहाई के लिए हमास तैयार नहीं कर सकेंगे तो फिर फिलिस्तीन की लाखों मुस्लिम आबादी भूख से मरने के लिए विवश होगी।


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Monday, May 26, 2025

फिर तो बेमौत मरेंगे कश्मीरी

 



               राष्ट्र-चिंतन

              पर्यटकों का अकाल, होटल खाली, लटकी कर्ज वापसी की तलवार

         फिर तो बेमौत मरेंगे कश्मीरी

                    आचार्य श्रीहरि 


आतंकवाद और हिंसा बहुत बडी कीमत वसूल करते हैं, बेमौत मारते हैं, विकास को बाधित करते हैं, रोजगार को छीनते हैं, प्रगति को रोकते हैं, भविष्य को कुचलते हैं और अंधकार जैसे वातावरण तैयार करते हैं। दुनिया में जहां भी विकास है, उन्नति हैं, रोजगार है, शिक्षा का वातावरण है, विज्ञान का जोर है वहां पर शांति और सदभाव जरूर है। आप जापान को देख लीजिये, अमेरिका को देख लीजिये, चीन को देख लीजिये, ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी सहित पूरे यूरोप को देख लीजिये, इन सभी जगहों पर शांति और सदभाव अभी भी विजयी स्थिति में हैं, दकियानुसी और हिंसा की मानसिकता का बहुत जोर नहीं है। यह अलग बात है कि यूरोप और अमेरिका में भी मुस्लिम आबादी की चरमपंथी  और काफिर मानसिकता का कुछ न कुछ प्रतिकुल प्रभाव पडा है, शांति और सदभाव को लेकर थोडी-बहुत परेशानी भी है, तनातनी भी है फिर स्थिति नियंत्रण में हैं। इसके विपरीत हम अफगानिस्तान, बांग्लादेश, पाकिस्तान, लेबनान, सीरिया, सूडान, रूस, यूक्रेन और भारत को भी देख लीजिये, जहां पर हिंसा भी है और आतंकवाद भी है, मुस्लिम आबादी की अंधेरगर्दी भी है, गर्म मिजाजी भी है, अन्य धार्मिक समूहों का संहार करने की मानसिकता भी है, जिसके कारण ये सभी देश विफल देश के रूप में तब्दील हो चुके हैं, जाहिलपन पसरा हुआ है, मानवता खतरे में हैं, विकास और उन्नति की बात सोची ही नहीं जा सकती है, सदभाव और सहयोग की बातें भी बेमानी हो चुकी हैं। बांग्लादेश का विख्यात कपडा पार्केट आज गहरे संकट में ह,ै क्योंकि बांग्लादेश में मजहबी मानसिकताओं ने हिंसा का बीजारोपण किया, लोकतंत्र का संहार किया औरं मुस्लिम मजहबी नीतियों को अपने उपर लाद लिया और शांति-सदभाव का संहार कर दिया। पाकिस्तान आज खुद ही कटोरा लेकर भीख मांग रहा है। दुनिया के कई मुस्लिम देश अमेरिका और यूरेाप के पैसों पर निर्भर हो चुके हैं। हमास की हिंसा की प्रतिक्रिया में फिलिस्तीन की कब्र बन गयी है, एक लाख से अधिक मुस्लिम आबादी इस्राइल के हाथों मारे गये हैं। 

                 इस कसौटी पर हम कश्मीर को ही देख सकते हैं। अभी-अभी पहलगाम हिंसक मुस्लिम मजहबी कांड के दुष्परिणामों पर विश्लेषण कर सकते हैं और उपर्युक्त तथ्यों को चाकचैबंद समझ सकते हैं। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने कश्मीर की शांति और सदभाव में मुस्लिम हिसंक मानसिकता का जहर घोला। धर्म पूछ-पूछ कर हत्याएं हुई। हत्याएं निर्दोष लोगों को हुई। हत्याओं का शिकार बने लोग कश्मीर से कुछ लेने नहीं गये थे बल्कि कुछ देने गये थे। क्या देने गये थे? ये घोडे-खच्चर वालों को रोजगार देने गये, समृद्धि देने गये थे। ये होटल वालों, वाहन वालों और टूरिस्ट गाइडों की जेब भरने गये थे। लेकिन इसके बदले में इन्हें क्या मिला? इन्हें मौत मिली, वह भी भयंकर और विभत्स। आज दुनिया में पर्यटन सिर्फ लाभ का सौदा है, माध्यम है। यह लाभ सक्रिय रहता है, रूकता नहीं है। जब तक हिंसा नहीं होती है, आतंक नहीं पसरा होता है, मुस्लिम काफिर मानिसकता हद से बाहर नहीं होती है तब तक पर्यटन जीवन रेखा बना रहता है, उन्नति और प्रगति का जरिया बना रहता है, समृद्धि का हथियार बना रहता है। स्वीटजर लैंड जैसा छोटा सा देश सिर्फ और सिर्फ अपनी सुंदरता के बदौलत दुनिया का सबसे चमकीला और पंसदीदा जगह बना रहता है। स्वीटजरलैंड की तरह ही कश्मीर की घाटी भी सुंदरता और वैभव का प्रतीक है। कश्मीर घाटी की सुंदरता और वैभव पर्यटकों को आकर्षित करता है। कश्मीर कभी शैव पंथ की जगह थी जहां पर हिन्दुओं के प्रसिद्ध तीर्थ स्थल भी हैं। कश्मीर घाटी में बहुत सारे पर्यटक ऐसे भी होते हैं जो अपनी धार्मिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी जाते हैं। कश्मीर पंडित पलायन के बाद भी अपनी धरती के प्रति लगाव छोडे नहीं है। देश के कोने-कोने में बसे कश्मीरी पंडित हर साल अपनी तीर्थ भूमि को नमन करने के लिए जाना नहीं भूलते हैं।

              लेकिन आज कश्मीर में सन्नाटा है। पर्यटकों की उपस्थिति नगन्य है। पर्यटको के प्रतीक्षा में वाहन खडे हैं, वाहन व्यवसाय ठप है, होटल खाली पडे हुए हैं। हवाई विमान कंपनियों अपने टिकटों  पर छूट पर छूट देने का एलान कर रही है फिर भी टिकट के खरीददार नहीं है। घोडे वाले बेकार हो गये हैं। खबर तो यहां तब आयी है कि घोडे और खच्चरों को जंगलों में छोड दिया गया है, क्योंकि जब पर्यटक ही नहीं है तो फिर इनका क्या काम है। टूरिस्ट गाइड बेकार हो गये हैं, घर बैठ गये हैं। विदेशी पर्यटक भी कश्मीर घाटी से मुंह मोड लिये हैं। अमेरिका और यूरोप ने अपने नागरिकों से कश्मीर घाटी के भ्रमन  करने जाने से मना कर दिया है। देशी पर्यटक आतंकवाद और हिंसा के कारण डरे हुए हैं और भयभीत हैं। देशी पर्यटक ने कश्मीर की जगह उत्तराखंड और नेपाल, हिमाचल प्रदेश का विकल्प खोज लिये हैं। सबसे बडी बात यह है कि कश्मीर में तो अब सिर्फ मुस्लिम आबादी ही रहती है, कश्मीर पंडित तो नगण्य ही हैं। इसलिए पर्यटको की कमी का नुकसान सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम आबादी ही उठायेगी। पाकिस्तान पोषित आतंकवादी भी कश्मीर घाटी की मुस्लिम आाबदी में ही शरण लेते हैं। इस सच्चाई को कौन अस्वीकार करेगा?

                    कश्मीर घाटी में दो ही प्रमुख रोजगार के साधन हैं। एक रोजगार का साधन पर्यटन है। दूसरा फल का उत्पादन है। सेव सहित अन्य फलों का उत्पादन में एक समय कश्मीर घाटी की चमक जरूर थी। लेकिन कश्मीर घाटी को सेव उत्पादन में हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड सहित कई इलाके चुनौती तो दे ही रहे हैं, इसके अलावा विदेशों से फलों के आयात भी खूब हो रहे हैं। इसके साथ ही साथ प्राकृतिक प्र्रकोप भी अपना असर दिखाता है। वीपी सिंह की सरकार के दौरान रूबिया अपहरण कांड ने कश्मीर घाटी में ऐसा जहर बोया था जिससे कश्मीर घाटी की मुस्लिम आबादी की आजीविका प्रभावित हुई थी, पर्यटन का व्यवसाय पटरी से उतरा था और भूखमरी के साथ ही साथ बेरोजगारी भी पसरी हुई थी। उस समय रूबिया के पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद देश के गृहमंत्री थे। रूबिया का अपहरण पाकिस्तान पोषित आतंकवादियों ने की थी। पाकिस्तान पोषित आतंकवादियों ने इसके बदले में आतंकवादियों की रिहाई करायी थी, फिरोती वूसली थी। रूबिया अपहरण कांड के बाद पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने एक पर एक ऐसी घृणित और लोमहर्षक हिंसा को अंजाम दिया है जिससे मानवता शर्मसार होती है और कश्मीर घाटी को स्थायी तौर हिंसक स्थिति में कैद करती है। घारा 370 समाप्ति के बाद कश्मीर घाटी को एक नया जोश मिला था, होश मिला था और आगे बढने का अवसर भी मिला था। नरेन्द्र मोदी की सरकार ने राष्ट्रपति शासन के दौरान कश्मीर घाटी से आतंकवाद को नियंत्रित करने और समाप्त करने के लिए कई प्रशंसनीय कार्य किये थे। कश्मीर घाटी के शांति प्रिय लोगों ने भी इस क्षेत्र में सरकार को सहयोग किया था। स्थानीय आतंकी समूहों पर नकेल डाला गया था। सबसे बडी बात यह है कि नरेन्द्र मोदी की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के विकास के लिए कोई कसर नहीं छोडी थी, पैसे पानी की तरह बहाये, विकास के क्षेत्र में पैसे की कमी नहीं होने दी थी। दुर्गम क्षेत्रों में सड़क बनायी गयी। सडकों के निर्माण से रोजगार के साधन उपलब्ध हुए और आवागमन की स्थिति अच्छी बनी। सबसे बडी बात यह है कि कश्मीर घाटी रेल सेवा से दूर थी। रेल सेवा एक सपना ही था। नरेन्द्र मोदी ने कश्मीर घाटी के लोगों के इस सपने को पूरा कर दिखाया और रेल सेवा को कश्मीर तक पहुंचायी। सडकें अच्छी होंगी और रेल सेवा की पहुंच भी होगी तो विकास के अवसर भी बनेंगे और पर्यटकों को असुविधा भी नहीं होगी।

                        कश्मीर घाटी में पर्यटन और फल उत्पादन के अलावा अन्य विकल्पों के माध्यम से रोगजार के सृजन की बहुत ज्यादा गुजाइश भी नहीं है। कश्मीर घाटी में कर्ज लेकर होटल और वाहन सहित अन्य व्यवसाय करने वाले लोग बेहाल हैं, उनके सामने विकट समस्या उत्पन्न हो गयी है। बैंको के किस्त की तलवार लटक रही है। पर्यटक अगर कश्मीर घाटी नहीं आयेंगे तो भी फिर कश्मीर घाटी की मुस्लिम आबादी की आजीविका कैसे चलेगी, उन्हें रोजगार कहां से मिलेगा? रोजगार पाकिस्तान तो देगा नहीं, आजीविका तो पाकिस्तान चलायेगा नहीं? ऐसी स्थिति में कश्मीर की मुस्लिम आबादी बेमौत ही मरेगी, दर-दर भटकेगी। आतंकवाद से दूरी बनाना ही कश्मीर की मुस्लिम आबादी के लिए हितकारी है।


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Tuesday, May 20, 2025

-- और मैं पाकिस्तान के जाल में नही फसा





                                                      राष्ट्र-चिंतन


         -- और मैं पाकिस्तान के जाल में नही फसा

                         आचार्य श्रीहरि



कभी मुझे भी पाकिस्तान ने अपने जाल में फंसाने का असफल प्रयास किया था वह चारा डाला था, पासा फेका था। लेकिन मैंने इनकार कर दिया, पाकिस्तान के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था और कह दिया कि मेरी प्राथमिकता में मेरा देश है, मेरा धर्म है, आपका देश हमारा दुश्मन है, आपका देश इस्लाम को मानता है, इस्लाम मनुष्यता का दुश्मन है, शांति का विरोधी है, काफिर मानसिकता से ग्रसित है और खून-तलवार के बल पर राज करता है, मैं और मेरा धर्म सनातन मनुष्यता में विश्वास करता है, शांति में विश्वास करता है, सदभाव में विश्वास करता है, विश्व बन्धुत्व में विश्वास करता है। मेरी ऐसी प्रतिक्रिया को सुनकर वह दंग रह गया उसके चेहरे के रंग उड गये फिर वह बोल गया कि सोच लीजिये, एक अवसर है आपके पास, पाकिस्तान देखने और धूमने में क्या परेशानी है? मैं जासूस बनने और भारत का विरोध करने का प्रस्ताव थोडे दे रहा हू?
                       घटना का विस्तृत वर्णण यह है। उस समय पाकिस्तान अपने आप को एशिया का स्वयं भू शक्ति और नायक बनना चाहता था। पाकिस्तान के लिए वातावरण भी तैयार था। भारत की सत्ता पाकिस्तान के अनुरूप ही थी। भारत की सत्ता पर शिखंडी मानसिकता के मनमोहन सिंह बैठे थे जिनकी लगाम सोनिया गांधी के पास थी। सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के पास इतनी शक्ति और साहस के साथ ही साथ दूरदृष्टि भी नहीं थी कि वे पाकिस्तान के आतंक समर्थन पर सजा दे सके या फिर सबक सिखा सके। इसका उदाहरण मुबंई हमले के साथ ही साथ पाकिस्तान प्रायोजित कई आतंकी हमले थे, जिसके जवाब में नरेन्द्र मोदी की तरह हवाई स्ट्राइक करने और पाकिस्तान को सबक देने के लिए कोई दूरदृष्टि ही नहीं थी। इसके साथ ही साथ पाकिस्तान समर्थक सेक्युलर जमात थी, गुलाम फई की भारतीय टोली थी जो पाकिस्तान के पैसों पर अमेरिका जाकर मनोरंजन करती थी।
                 उस समय भारत में अपने पक्ष में जनमत तैयार करने और पाकिस्तान परस्त मीडिया तैयार करने की एक नीति आईएसआई ने बनायी थी। इस नीति के तहत पाकिस्तान पक्ष को मजबूत करने के लिए पत्रकार संगठन तैयार करने और पत्रकारों की फौज तैयार करने का लक्ष्या था।  इसी लक्ष्य के तहत पाकिस्तान ने साफमा नामक संगठन खडा किया था। साफ्मा को दक्षेस के आधार पर खडा किया गया था। कहा गया था साफमा दक्षिण एशियाई देशों के मीडिया कर्मियों का संगठन होगा जो दक्षिण एशिया में शांति और भाईचारे के लिए काम करेगा। पर सच्चाई यह थी कि कुछ ही दिनों में साफमा का लक्ष्य और जिहाद बेनकाब हो गया। इस संगठन को लीड करने वाले पत्रकार कांग्रेसी संस्कृति के थे और भारत विरोधी रूख भी रखते थे। भारत विरोधी रूख कैसे? इसके पक्ष में जनचर्चा यह थी कि साफमा की फंडिग के पीछे पाकिस्तान था और पाकिस्तान ही पर्दे के पीछे से नेतृत्व करता था। पाकिस्तान ने कोई एक-दो बार नहीं बल्कि अनेकों बार साफमा के पत्रकारों को पाकिस्तान बुलाया और मनोरंजन कराया। पाकिस्तान की यात्रा करने में साफमा से जुडे पत्रकारों की बहुत खातिरदारी होती थी, उनकी मन की इच्छाएं पूरी होती थी, इसलिए वे पाकिस्तान की यात्रा पर गर्व करते थे। साफमा के फंडिग की अभी भी जांच हो जाये तो फिर पाकिस्तान परस्ती साबित हो जायेगी। नरेन्द्र मोदी के आने के बाद पाकिस्तान प्रायोजित साफमा की चमक-दमक धूमिल हो गयी और राष्ट्रभक्ति के बुलडोजर से साफमा शक्तिहीन हो गया।
                          आईएसआई ने भारत की मीडिया संस्कृति को पहचानने में भूल कर दी थी, उसकी समझ धरातल से मेल नहीं खाती थी। साफमा पर अंग्रेजी के पत्रकारों का वर्चस्व था और उसमें नक्सली और आतंकी समर्थक पत्रकारों की भी उपस्थिति थी। ऐसी संस्कृति के पत्रकार परजीवी होते हैं, ये जनमत तैयार नहीं करते हैं और वोट डालने वालों को प्रभावित नहीं करते हैं। अभी अंग्रेजी अखबारों की पहुंच वोट डालने वालों तक सीमित है। इस कारण आईएसआई का प्लान विफल हो गया और साफमा पाकिस्तान के पक्ष में जनमत तैयार करने में सफल नहीं हुआ। भारत में जनमत तो क्षेत्रीय भाषा में निकलने वाले अखबार और चैनल तैयार करते हैं। दैनिक भास्कर और दैनिक जागरण की प्रसार संख्या के सामने अंग्रेजी का कोई अखबार खडा नहीं होता है।
                   फिर आईएसआई ने अपनी नीति की समीक्षा की थी। फिर उसने भारत के क्षेत्रीय अखबारों हिन्दी, बांग्ला, कन्नड, तमिल, असमिया, उडीया के पत्रकारों पर डोरा डाली थी। इसमें आईएसआई को कितनी सफलता मिली होगी, यह मैं नहीं कह सकता? ठीक इसी दौरान मेरे से मिलने एक व्यक्ति आया जो अपना परिचय पाकिस्तानी उच्चायोग के कर्मचारी के तौर पर दिया था। हमारी और उसकी मुलाकात आईएनएस विल्डिंग में हुई थी। आईएनएस विल्डिंग दिल्ली के रफी मांर्ग स्थित है। आईएनएस विल्डिंग के पास संजय जी की चाय की दुकान हुआ करती थी। संजय जी की चाय दुकान पर पत्रकारों की चहलकदमी होती रहती थी, मेला लगा रहता था, बडे से लेकर छोटे पत्रकारों का जमावडा लगा रहता था। चाय की दुकान पर चाय पीकर अपनी-अपनी पत्रकारिता दुनिया की कहानी कहते थे, पत्रकारिता दुनिया पर चर्चा करते थे, कहने का अर्थ यह है कि लडाके पत्रकारों का यहां पर जमावडा होता था, देश-दुनिया की खबरों का चिर-फाड होता था।
            2007 की घटना थी। मै कभी पाकिस्तान उच्चायोग गया नहीं था और न ही इसकी मुझे कभी कोई जरूरत ही पडी। इसलिए मैं उस अनजान कर्मचारी की पहचान पर कोई निर्णय नहीं कर सका था, उसकी पहचान पाकिस्तान उच्चायोग की थी, यह भी मुझे अविश्वसनीय लगा। फिर भी मैंने उसे कह दिया कि मिलने का लक्ष्य और तात्पर्य बताइये। मेरा नाम आपको किसने दिया, आपने मेरे नाम पर कितना रिशर्च किया है? फिर उसने एक कश्मीरी पत्रकार का नाम लिया। कहा कि उक्त कश्मीरी पत्रकार ने सुझाव दिया है कि विष्णुगुप्त को पाकिस्तान आमंत्रित कीजिये, पाकिस्तान से परिचित कराइये और अपनी छवि सुधारिये। मैंने फिर प्रश्न किया कि कश्मीरी पत्रकार ने मेरा नाम देने के पक्ष में क्या तर्क दिया था, मेरी कितनी बडाई की थी? फिर तथाकथित पाकिस्तानी उच्चायोग के कर्मचारी ने कहा कि उसने यह बताया कि भारत में अंग्रेजी नहीं बल्कि हिन्दी वाले जनमत तैयार करते हैं और हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ काॅलमनिष्ठ विष्णु गुप्त हैं, विष्णुगुप्त का आर्टिकल हिन्दी के दर्जनों अखबारों में छपते है। अगर आप विष्णुगुप्त को प्रभावित करेंगे और उनसे कुछ आर्टिकल लिखवा देंगे तो फिर कश्मीर पर पाकिस्तान पक्ष शीर्ष पर होगा। विष्णुगुप्त मेरा पुराना नाम है। उस समय मैं पाकिस्तान और कांग्रेस के खिलाफ खूब लिखता था और शक्ति से ज्यादा जनूनी और अभियानी था। इस कारण मैं कांग्रेस और अन्य देशद्रोहियों के निशाने पर रहा करता था।
                मैंने कहा कि फिर आप अपना लक्ष्य बताइये? उसने कहा कि मैं चाहता हूं कि आप पाकिस्तान का दौरा करें, एक महीने का दौरा होगा, पाकिस्तान के कोने-कोने घूमाया जायेगा, आप हिन्दी के अन्य पत्रकारों का समूह बना कर भी पाकिस्तान दौरा कर सकते हैं। दौरे का सारा खर्च पाकिस्तान की सरकार उठायेगी, सिर्फ आपको पासपोर्ट की छाया काॅपी देनी होगी, निमंत्रण आपको सेंड कर दिया जायेगा, आप एक बार उच्चायोग आकर राजदूत से बातचीत कर लीजिये। थोडे देर के लिए मैं चकित रह गया, थोडा गर्वावनित भी हुआ? हिन्दी अखबार में काॅलमनिष्ठ होने के बाद भी मुझे पाकिस्तान घूमने का आमंत्रण मिल रहा है। मैं पाकिस्तान जाउंगा और वहां घूमुंगा तो फिर पाकिस्तान के उपर कोई लेख लिखूंगा, भारत लौटने पर उस पर स्पीच दूंगा। कहने का अर्थ यह है कि कई तरह के ख्याल और मेरे मन में प्रश्न उठते थे। थोडे देर तक मुझे लगा कि ये प्रस्ताव बहुत ही अवसर प्रदान कराने वाले हैं। इसलिए इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। मैंने उसे यह कह कर टरका दिया कि आपके इस प्रस्ताव पर विचार कर सकता हूं।
                   मेरे पास विचार करने के लिए मस्तिक था, अपना अनुभव था, अपना संघर्ष था, अपनी देशभक्ति थी? फिर उस समय का राजनीतिक वातावरण भी मेरे सामने था। मैं कांग्रेस विरोधी था, कांग्रेस के खिलाफ हमेशा अभियानरत था। कांग्रेस के लोग हमसे खार खाते थे। मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की सरकार हमेशी दुश्मनी रखती थी। मुझे सबक सिखाना चाहती थी। इसलिए मैने अपने मस्तिक का एक्सरसाइज किया और सारे विन्द्रुओं पर विचार किया। मैं इस निष्कर्ष पर पहुंच गया कि इसके बदले में मुझे बहुत बडी कीमत चुकानी पडेगी, पाकिस्तान और आईएसआई मुझे टूल बना कर छोडेगे, मुझे मोहरा बना कर छोडेंगे, कई मनोरंजनकारी हथकंडों का शिकार बना कर छोडेंगे, मै इनकी ब्लैकमैंलिग का शिकार बन कर रह जाउंगा। मेरी पत्रकारिता का संहार हो जायेगा। मेरा कैरियर चैपट हो जायेगा, मेरी जिंदगी कलंकित हो जायेगी, मैं अपमान और तिरस्कार का पुतला बन कर रह जाउंगा।
                      मैं लालच से परे थे, पराये धन पर मौजमस्ती करने का विरोधी था। दुश्मन देश के हथकंडों से परिचित भी था। फिर मेरे सामने देशभक्ति थी, अपना देश और अपने लोग मेरे लिए प्यारे थे। दुश्मन देश परोपकारी और कल्याणकारी हो ही नहीं सकता है? दया और सहायता की बहुत कडी कीमत वसूलेगा। यह तय है। यही कारण था कि मैंने पाकिस्तानी उच्चायोग के उक्त कर्मचारी को दुबारा आने पर धमका कर भगा दिया था। ज्योति मल्होत्रा और देश भर में पाकिस्तानी जासूसों जो पकडे जा रहे हैं उसके पीछे रातोरात धनवान बनने और लोभ लालच से ग्रसित होने की मानसिकता कारण हैं। ज्योति मल्होत्रा जैसे सभी पाकिस्तानी जासूस अब भारत में सिर उठा कर नहीं चलेंगे, उनकी चमकती जिंदगी नर्क बन कर रह जायेगी, माधुरी गुप्ता की तरह-तरह ये सभी गुमनामी में तिल-तिल कर मरने के लिए विवश होंगे। क्योंकि अमीरी की कब्र पर जन्मी गरीबी की घास बहुत ही जहरीली और पीडा दायक होती है।  


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Sunday, May 18, 2025

तुर्की समर्थक कीड़ों मकोडों का संहार करो

तुर्की समर्थक कीड़ों मकोडों का संहार करो

     
       आचार्य श्रीहरि




तुर्की विरोध पर हमारी हैरानी और परेशानी का दूसरा पहलू है। हमारा पहलू यह है जो आपको भी हैरानी-परेशानी मे डाल देगा। मैं इस बात से प्रसन्न तो हूं कि तुर्की के खिलाफ स्पष्ट राष्ट्रवाद की ध्वनि सुनी जा सकती है। पर राष्ट्रवाद में विश्वास करने लोग, संस्थान, सरकार तुर्की से मित्रता और सहयोग की रस्सी से बंधे ही क्यो थे? भारत का विश्व प्र्रसिद्ध विश्वविद्यालय जवाहरलाल नेहरू विश्वद्यिालय, मुस्लिमकरण के प्रतीक जामिया मिलिया विश्वविद्यालय आदि शिक्षा जगत के संस्थानों ने तुर्की के साथ मित्रता और सहयोग की संधि से बंधे ही क्यों थे? प्रसिद्ध फिल्मों हीरो आमिर खान का तुर्की प्रेम ही क्यो था? तुर्की के वर्तमान जिहादी और हिंसक तथा पाकिस्तान समर्थक शासक इरदूगान के प्रति आमिर खान का प्रेम और प्रशंसा के जिहाद को किस श्रेणी में रखा जाना चाहिए? अभी तक आमिर खान ने तुर्की के भारत विरोधी करतूत पर मुंह तक नहीं खोला है और उसका राष्ट्र प्रेम जिहादी मानसिकता के नीचे दब गया। वे लाखों भारतीय जो पर्यटन के नाम पर तुर्की जाते है और तुर्की की अर्थव्यवस्था को मजबूत करते हैं को किस श्रेणी में रखा जाना चाहिए? वर्षा होने पर जिस तरह से सांप बिल से बाहर आ जाता है, मेढक धरती की दरारों से बाहर आकर टर-टर करने लगते हैं उसी तरह से आॅपरेशन सिंदूर के बाद तुर्की समर्थक शिक्षण संस्थानें, व्यापारी और अन्य लोग अपने आप को राष्ट्रवादी, राष्ट्रप्रेमी घोषित करने में लगे हुए हैं, तुर्की के साथ अपनी संधियां तोडने में लगे हुए हैं, तुर्की विरोध की आंधी आई हुई है, सब कह रहे हैं कि तुर्की ने बहुत ही खतरनाक काम किया है, जिहादी और हिंसक पाकिस्तान का समर्थन किया है, पाकिस्तान की ओर से युद्ध लडा है, पाकिस्तान को युद्धक सामग्री दी है, कूटनीतिक स्तर पर भी तुर्की हमारे देश के खिलाफ खतरनाक जिहाद के रास्ते पर चल रहा है, हमें अपना देश प्यारा है। इसलिए हमें तुर्की के साथ सारी संधियां तोड देनी चाहिए, सहयोग के वचन समाप्त कर दिये जाने चाहिए, पर्यटकों को भी तुर्की नहीं जाना चाहिए, तुर्की के बदले स्वीटजरलैंड और अन्य यूरोपीय देश जाना चाहिए।
                   इन उच्च संस्थानों  के संचालकों और लोगों से कुछ प्रश्न इस प्रकार से किये जाने चाहिए? क्या आप अनपढ और जाहिल किस्म के आदमी हैं, क्या आपको तुर्की की इस्लामिक यूनियनबाजी की जानकारी नहीं थी, क्या आपको तुर्की की पाकिस्तान परस्ती की जानकारी नहीं थी, क्या तुर्की की अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों में भारत विरोधी हरकतों की आपको जानकारी नहीं थी? क्या आपको धारा 370 पर तुर्की की जिहादी और हिंसक मानसिकता की जानकरी नहीं थी? क्या इस्राइल के विरोध में तुर्की की मुस्लिम मानसिकता की जानकारी आपको नहीं थी? ये सभी प्रश्नों पर जेएनयू और जामिया मुस्लिम विश्वविद्यालयों को जानकारी कैसे नहीं होगी? इनके कुलपितयों और प्रोफेसरों को जानकारी कैसे नहीं होगी? उन पर्यटकों को भी जानकारी कैसे नहीं होगी जो शान के साथ तुर्की घूमने जाते हैं और तूर्की की अर्थव्यवस्था को मजबूत करते हैं, तुर्की का यशोगान गाते हैं। भारतीय पर्यटकों के पैसों का उपयोग तुर्की भारत के विरूद्ध ही करता है। भारत की वे कंपनिया जो तुर्की की कंपनियों की सहचर हैं और जिनमें वे एक-दूसरे के सहयोगी हैं, व्यापारिक हिस्सेदार हैं। कहने का अर्थ यह है कि सभी ये जानते थे कि तुर्की भारत का घोर विरोधी हैं, भारत का संहार चाहता है, भारत को इस्लामिक देश में तब्दील करना चाहता है, कश्मीर पर पाकिस्तान का पक्ष लेता है, इसके बावजूद ये सभी तुर्की के साथ संबंधों की गहराई में डूबे हुए थे।
                   तुर्की का भारत विरोधी अपराध बहुत ही घिनौना है, दुस्साहस वाला है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि तुर्की साक्षात भारत के खिलाफ युद्ध में शामिल था। सिर्फ वह पाकिस्तान का मददगार नहीं था बल्कि तुर्की की सेना युद्ध की अग्रिम पक्ति में खडी थी और भारत के खिलाफ युद्ध का नेतृत्व कर रही थी। तुर्की ने कुछ हथियार बनाये हैं तो कुछ खरीदे भी है। अपने हथियारों को पाकिस्तान पहुंचाया और अपने हथियार पाकिस्तान सैनिकों को उपलब्ध कराये। खबर तो यह भी है कि पाकिस्तान ने जो जवाबी हमला किया उसके पीछे चीनी और तुर्की हथियारों के भरोसे ही किया था। खासकर ड्रोन तुर्की ने ही उपलब्ध कराये थे। जानना यह भी जरूरी है कि भारत और पाकिस्तान ड्रोनों के माध्यम से ही एक-दूसरे पर हमले किये थे। अगर तुर्की ने जवाबी कार्रवाई के लिए तुर्की को अपना हथियार नहीं दिया होता और खासकर ड्रोनों की पूरी श्रृंखला नहीं दी होती तो फिर पाकिस्तान दो दिन में ही हार मान लेता और पाकिस्तान की इतनी क्षमता ही नहीं थी कि वह स्वयं के बल पर भारत से मुकाबला कर सके या फिर अपना बचाव कर सके। इसका प्रमाण तुर्की ने ही दिया है। तुर्की राष्ट्रपति रजब तैयब इरदूगान ने अपने राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा कि उसने पाकिस्तान और इस्लाम की रक्षा की है, जहां भी इस्लाम पर खतरा आयेगा, हम वहां पर उपस्थित होकर लडेंगे, भारत ने पाकिस्तान पर हमला कर इस्लाम को तौहीन किया था, इसलिए हमनें पाकिस्तान को साथ दिया, सहयोग किया और भारत को पराजित करने में भूमिका निभायी। उसने यह भी कहा कि आगे भी हम पाकिस्तान और कश्मीर पर भारत का विरोध करेंगे। रजब तैयब इरदूगान के कहने का अर्थ यह है कि तुकी स्थायी तौर पर पाकिस्तान का दोस्त और भारत का दुश्मन बना रहेगा।
                   आज युद्ध का एक विकल्प आर्थिक बहिष्कार है। जैसे भारत का एक संकल्प पाकिस्तान को और कंगाल बनाना है, उसका माध्यम युद्ध का अन्य विकल्प यानी आर्थिक रूप से कमजोर करना और उसकी समृद्धि के रास्ते को रोकना। भारत ने सिंधु जल समझौता रद कर यह संकेत दिया कि वह पाकिस्तान को इसके माध्यम से कंगाल बनायेगा। सिंधु जल समझौते को रद कर भारत ने पाकिस्तान की कमर तोडने की विसात विछाई है जिससे पाकिस्तान के होश उडे हुए हैं, उसके खेतों की समृद्धि मारी जा सकती है। ठीक इसी प्रकार हम तुर्की की आर्थिक कमर तोड सकते हैं। आर्थिक कमर तोडने के लिए सिर्फ राष्ट्रवाद की प्रखर धारा की ही आवश्यकता नहीं पडेगी? तुर्की के पक्ष में भारत में भी कीडे-मकौडे हैं जो इस्लामिक यूनियनबाजी के प्रतीक है और इस्लामिक यूनियनबाजी से ग्रसित हैं। आमिर खान जैसे फिल्मी दुनिया के अन्य हस्तियों का तुर्की प्रेम आसानी से जाने वाला नहीं है, जेएनयू और जामिया मिलिया जैसे शैक्षणिक संस्थानों का भारत विरोधियों के साथ संबंध जोडने का जिहाद आसानी से समाप्त नहीं हो सकता है। खासकर भारतीय सिनेमा उद्योग तुर्की में फिल्मी सूट पर आंख मोड लेगा, यह कहना मुश्किल है? भारतीय पर्यटक आगे भी तुर्की बहिष्कार का सहचर बनेंगे, इस पर विश्वास करना मुश्किल है।
                  भारत सरकार का तुर्की के प्रश्न पर रूख क्या होना चाहिए? भारत सरकार भी तुर्की की करतूत और उसकी इस्लामिक ग्रथि से ग्रसित है। तुर्की का आर्थिक बहिष्कार पर भारत सरकार के पास ही चाकचैबंद कदम उठाने की जिम्मेदारी है। वैसी कपंनियों को हतोत्साहित करने की जरूरत है जो तुर्की संबंधित  कंपनियों से किसी न किसी रूप से अभी भी जुडी हुई हैं। सिनेमा दुनिया पर तुर्की में फिल्म शुटिंग पर प्रतिबंध लगाना चाहिए, पर तुर्की की यात्रा को लेकर भारतीय पर्यटको पर भी प्रतिबंध लगाना चाहिए। दिल्ली मुबई, अहमदा के हवाई अड्डों ने तुर्की विमानन हवाई ग्राउंड हैंडलिंग कंपनी सलेबी से संबंध तोड दिये हैं। तुर्की के नवनियुक्त राजदूत अली मुरात एरसोय की मान्यता रोक दी गयी है। नागरिकों के सहयोग के बिना भारत सरकार भी तुर्की विरोध और तुर्की की इस्लामिक हिंसक मानसिकता की कमर तोड नही सकती है। इसलिए तुर्की विरोध की प्रखर धारा बहती ही रहनी चाहिए।


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