राष्ट्र-चिंतन
पिछले बिहार विधान सभा चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी के नेता ओसामा बिन लादेन से मिलते-जुलते चेहरे वाले मुस्लिम समुदाय के ‘खालिक नुर‘ को राजनीतिक सहचर बनाया था। यथार्थ सीधेतौर ओसामा बिन लादेन की मिलती-जुलती शख्सियत के सहारे मुस्लिम वोट अपनी ओर करने का था। ओसामा बिन लादेन के डुब्लीकेट को देखने की भीड़ जुटती बहुत थी। अब लादेन के खेल का अंत हो गया है। अमेरिका ने उसे अपने सैनिक अभियान का शिकार बना दिया। पाकिस्तान में इस्लामिक संस्थाओं ने लादेन को श्रद्धांजलि ही नहीं दी बल्कि इस्लाम का सेनानी भी बताया। इस्लामिक सोशल साइडों पर भी ओसामा बिन लादेन को इस्लाम की सेनानी बताने और उसे शहीद घोषित करने की मुहिम तेजी के साथ चली है। पाकिस्तान सहित अन्य इस्लामिक देशों और इस्लामिक संस्थाओं/सोशल साइटों की लादेन प्रेम तो समझ आता है पर भारत में खास प्रकार के राष्टीय और क्षेत्रीय दलों का लादेन प्रेम कई प्रकार के सवाल खड़े करते हैं।
हम जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहते हैं वह लोकतांत्रिक व्यवस्था गैरधार्मिक है/गैर मजहबी है। फिर भी धर्म/मजहब के सहारे जनादेश को प्रभावित करने की कोशिशें हमेशा चलती रहती है। देश पर जिस कांग्रेस पार्टी की सता वह अपने पुराने जनाधार को फिर से थाथी बनाने के लिए कई प्रकार की नीतियां और हथकंडे अपनायी है। दिग्विजय सिंह इन्हीं कांग्रेसी हथकंडे का मोहरा है जो लादेन के मारे जाने पर सवाल खड़ा करते हैं बल्कि इसे इस्लामिक मूल्यो का हनन कहकर अमेरिका की आलोचना की हदें भी पार करते हैं। ओसामा बिन लादेन उन्हें इस्लामिक मूल्यों वाला ही क्यों दिखता है? उन्हे आतंकवादी और शांति के दुश्मन के प्रतीक ओसामा बिन लादेन क्यों नहीं दिखता है? जनसांिख्याकी विविधता एक ऐसी कड़ी है जो तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों को इस्लामिक मूल्यों के प्रति अतिरिक्त और खतरनाक आग्रही होने के लिए प्रेरित करता है। ऐसे अतिरिक्त और खतरनाक आग्रही होने के दुष्परिणामों पर कभी भी चिंता तक नही होती है। दुष्परिणामों में देश के अंदर में खतरनाक ढंग से बलवाकारी विचारों का संप्रेषण हुआ है और राष्टीयता की जगह मजहबी रूढ़ियां और आक्रमकता बढ़ी है?
दिग्विजय सिंह या फिर अन्य तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों का ओसामा बिन लादेन के प्रति खतरनाक आग्रही होने का कोई खास तत्कालीन स्वार्थ या नीति हो सकती है? ओसामा बिन लादेन को लेकर दिग्विजय सिंह और अन्य के समर्थनकारी बयानों-विचारों को क्या उपेक्षित कर देना ठीक होगा या फिर इस पर गंभीरता के साथ विचार किया जाना चाहिए और इसके राजनीतिक यथार्थ के तह में जाकर स्वार्थो की पड़ताल करने की जरूरत है। वास्तव में राजनीति में बयानों और प्रत्येक क्रियाओं का अपना एक निश्चित नीति होती है। इसीलिए चाहे दिग्विजय सिंह के लादेन के प्रति आग्रही सरोकार हो या फिर माकपा जैसी कम्युनिस्ट पार्टियों का लादेन के लिए अमेरिका को जिम्मेदार ठहराने की कुचेष्टा सभी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों मे गिरते नजर आते हैं।
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों को ध्यान में हमें रखना होगा। उतर प्रदेश विधान सभा चुनाव नजदीक है। सभी का ध्यान मुस्लिम वोट बैंक पर टिका हुआ है। राजनीतिक विश्लेषण में यह बात बार-बार बैठायी जा रही है कि उत्तर प्रदेश में मुस्लिम जिस ओर रूख करेंगे उसी की सत्ता बनेगी। कांग्रेस ने सच्चर कमेटी का लाभ पिछले लोकसभा चुनाव में उठा चुकी है। रामजन्म भूमि प्रकरण पर कांग्रेस का मुस्लिम वोट बैंक खाली हो चुका था। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में मुस्लिम संवर्ग को अपने पक्ष में करने की सफलता पायी थी और आश्चर्यजनक ढंग से सीटें जीती थी। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का खास ध्यान है। मुस्लिम समुदाय को रिझाने की अप्रत्यक्ष जिम्मेदारी दिग्विजय सिंह के पास है। अगर ऐसा नहीं होता तो अपनी ही सरकार की पुलिस द्वारा बटला हाउस कांड पर सवाल नहीं उठाते और आतंकवादियों के परिजनों से मिलने आजमगढ़ नहीं जाते। बटला हाउस कांड की विभिन्न एजेंसियों की जांच और न्यायिक जांच में पुलिस को क्लीन चिट दे दिया गया है फिर भी दिग्विजय सिंह बटला कांड पर सवाल उठाते रहे हैं। मुबंई हमले पर भी सवाल उठाकर पाकिस्तान को लाभार्थी बनाने की कोशिश करते हैं। कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह के बयान को यद्यपि खारिज कर दिया फिर भी कांग्रेस का मिशन यूपी और मिश्न मुस्लिम वोट बैंक की अप्रत्यक्ष नीतियां किसी भी परिस्थिति में जगजाहिर होने से बच नहीं पायेंगी?
राजनीतिक संवर्ग का तुष्टिकरण की नीति और आतंकवाद जैसी खतरनाक प्रवृति के समर्थन में खड़ा होने से मजहब आधारित संस्थाओं और शख्सियतों की शांति के खिलाफ मानसिकताएं पोषित होती हैं। कश्मीर में हुर्रियत जैसी राष्टविरोधी मजहबी संस्था के अध्यक्ष सैयद अली शाह गिलानी ने जब ओसामा बिन लादेन को आतंकवादी की जगह इस्लामिक सेनानी घोषित करता है और उसकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करता है तब कोई आवाज नहीं उठती है। हुरियत अली शाह गिलानी अकेले ऐसे मजहबी शख्सियत नहीं है जो आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को इस्लाम का सेनानी मानता हो। दुर्भाग्य यह है कि आज देश के अंदर में मजहबी रूढ़ियों और आतंकवादी विचारो के दफन करने की कोई राजनीतिक नीतियां नहीं हैं। आतंकवादियों को संरक्षण देने और उनके राष्टतोड़क बयानों और कृत्यों तक पर्दा डाला जाता है। अफजल गुरू और कसाब जैसे कई आतंकवादी आज हमारे जेलों में मेहमान की तरह एसोआराम से रह रहे हैं। उन्हें ‘चिकन बिरयाणी‘ खिलाया जा रहा है। इन्हें फांसी देने पर मुस्लिम संवर्ग का उफान और क्रोध का डर सताता है। बांग्लादेश ही नहीं बल्कि मिश्र जैसे मुस्लिम देश भी आतंक फैलाने वाले कई आतंकवादियों को फांसी पर चढाया है। उन्हें संख्यिाकी विविधता के आक्रोश का डर नहीं था।
राजनीतिक संवर्ग के स्वार्थ की पूर्ति तो अवश्व होती रहेगी और उनकी राजनीतिक सत्ता का स्थायीकरण होता रहेगा पर उस आग की लौ हमेशा हमारी धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को ही अपने आगोश में लेती रहेगी। पाकिस्तान की सामाजिक व्यवस्था आज पूरी तरह से इस्लामिक के उफानी और नरसंहारक विचारों के आगोश में क्यों समाया हुआ है? इसकी पडताल करनें है और पड़ताल से निकले यथार्थ और निष्कर्ष से भी सबक लेने की अनिवार्य जरूरत होनी चाहिए। पाकिस्तान में तानाशाही संवर्ग ने मजहबी और शरीयती आग लगायी थी। पोषण तानाशाही ही थी। खासकर तत्कालीन तानाशाह जियाउल हक ने पाकिस्तान में शरीयत लागू की थी और इस्लाम के उदार मूल्यों को दफन कर खतरनाक और बंधित समाज की नींव डाली थी। तानाशाही काल में पाकिस्तान की आवाम में विरोध की ज्वाला थी नहीं। आवाम भी समझ लिया था कि इस्लाम के खतरनाक मूल्यो से हम दुनिया को अपनी ओर झुका सकते हैं। कश्मीर को हड़प सकते हैं और भारत को तहस-नहस कर सकते हैं। प्रारंभिक काल में पाकिस्तान की खुशफहमी को बल जरूर मिला। अब उसका प्रतिफल पाकिस्तान को लहूलुहान कर रहा है। विकास की जगह गोलियां-बारूद और मानवबम की फोड़े जा रहे हैं। पाकिस्तान के इस हस्र को भारतीय राजनीतिक संवर्ग को सबक के तौर पर देखना चाहिए और तुष्टीकरण सहित वोट की राजनीति के लिए खतरनाक इस्लामिक विचारों के संरक्षण और बढावा देने के खेल से अलग होना चाहिए। पर ऐसा नहीं लगता कि भारतीय राजनीति खतरनाक इस्लामिक विचारों के बढावा देने की नीति बदलने को तैयार है। अगर ऐसा नहीं होता तो कांग्रेस सहित अन्य राजनीतिक पार्टियां ओसामा बिन लादेन के अंत के खिलाफ खड़ी होती?
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लादेन बनेगा नहीं बन गया ‘ मिशन मुस्लिम वोट बैंक‘ का मोहरा
लादेन के अंत पर राजनीतिक मातम क्यों ?
विष्णुगुप्त
ओसामा बिन लादेन का अंत क्या हुआ, तथाकथित भारतीय धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियों को एक ऐसा मुद्दा मिल गया जो मुस्लिम संवर्ग को रिझाने और अपनी ओर खींचने का काम करेगा? लादेन के अंत से पहले खासकर ने कांग्रेस की ओर से बटला मुठभेंड कांड और मुबंई पर पाकिस्तानी हमले को लेकर दिग्विजय सिंह को मुस्लिम संवर्ग की भावनाएं पोषित करने के लिए अप्रत्यक्षतौर पर प्रक्षेपित किया गया था। दिग्विजय सिंह ने बटला हाउस कांड पर आजमगढ जाकर कैसी आतंकवाद की धार गर्म की थी? यह भी जगजाहिर है। मुंबई मे आईएसआई के हमले में महाराष्ट एसटीएस चीफ हेमंत करकरे की मौत को हिन्दू आतंकवाद से जोड़ने का निष्कर्ष भी तो मुस्लिम जनाधार के हितकारी था। अब दिग्विजय सिंह ओसामा बिन लादेन के अंत पर आंसु बहा रहे हैं और अमेरिका को कठधरे मे खड़ा कर रहे हैं। जबकि उदार मुस्लिम तबका इस तरह के राजनीतिक प्रक्रिया को मुस्लिम हित के खिलाफ ही मानते हैं।पिछले बिहार विधान सभा चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी के नेता ओसामा बिन लादेन से मिलते-जुलते चेहरे वाले मुस्लिम समुदाय के ‘खालिक नुर‘ को राजनीतिक सहचर बनाया था। यथार्थ सीधेतौर ओसामा बिन लादेन की मिलती-जुलती शख्सियत के सहारे मुस्लिम वोट अपनी ओर करने का था। ओसामा बिन लादेन के डुब्लीकेट को देखने की भीड़ जुटती बहुत थी। अब लादेन के खेल का अंत हो गया है। अमेरिका ने उसे अपने सैनिक अभियान का शिकार बना दिया। पाकिस्तान में इस्लामिक संस्थाओं ने लादेन को श्रद्धांजलि ही नहीं दी बल्कि इस्लाम का सेनानी भी बताया। इस्लामिक सोशल साइडों पर भी ओसामा बिन लादेन को इस्लाम की सेनानी बताने और उसे शहीद घोषित करने की मुहिम तेजी के साथ चली है। पाकिस्तान सहित अन्य इस्लामिक देशों और इस्लामिक संस्थाओं/सोशल साइटों की लादेन प्रेम तो समझ आता है पर भारत में खास प्रकार के राष्टीय और क्षेत्रीय दलों का लादेन प्रेम कई प्रकार के सवाल खड़े करते हैं।
हम जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहते हैं वह लोकतांत्रिक व्यवस्था गैरधार्मिक है/गैर मजहबी है। फिर भी धर्म/मजहब के सहारे जनादेश को प्रभावित करने की कोशिशें हमेशा चलती रहती है। देश पर जिस कांग्रेस पार्टी की सता वह अपने पुराने जनाधार को फिर से थाथी बनाने के लिए कई प्रकार की नीतियां और हथकंडे अपनायी है। दिग्विजय सिंह इन्हीं कांग्रेसी हथकंडे का मोहरा है जो लादेन के मारे जाने पर सवाल खड़ा करते हैं बल्कि इसे इस्लामिक मूल्यो का हनन कहकर अमेरिका की आलोचना की हदें भी पार करते हैं। ओसामा बिन लादेन उन्हें इस्लामिक मूल्यों वाला ही क्यों दिखता है? उन्हे आतंकवादी और शांति के दुश्मन के प्रतीक ओसामा बिन लादेन क्यों नहीं दिखता है? जनसांिख्याकी विविधता एक ऐसी कड़ी है जो तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों को इस्लामिक मूल्यों के प्रति अतिरिक्त और खतरनाक आग्रही होने के लिए प्रेरित करता है। ऐसे अतिरिक्त और खतरनाक आग्रही होने के दुष्परिणामों पर कभी भी चिंता तक नही होती है। दुष्परिणामों में देश के अंदर में खतरनाक ढंग से बलवाकारी विचारों का संप्रेषण हुआ है और राष्टीयता की जगह मजहबी रूढ़ियां और आक्रमकता बढ़ी है?
दिग्विजय सिंह या फिर अन्य तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों का ओसामा बिन लादेन के प्रति खतरनाक आग्रही होने का कोई खास तत्कालीन स्वार्थ या नीति हो सकती है? ओसामा बिन लादेन को लेकर दिग्विजय सिंह और अन्य के समर्थनकारी बयानों-विचारों को क्या उपेक्षित कर देना ठीक होगा या फिर इस पर गंभीरता के साथ विचार किया जाना चाहिए और इसके राजनीतिक यथार्थ के तह में जाकर स्वार्थो की पड़ताल करने की जरूरत है। वास्तव में राजनीति में बयानों और प्रत्येक क्रियाओं का अपना एक निश्चित नीति होती है। इसीलिए चाहे दिग्विजय सिंह के लादेन के प्रति आग्रही सरोकार हो या फिर माकपा जैसी कम्युनिस्ट पार्टियों का लादेन के लिए अमेरिका को जिम्मेदार ठहराने की कुचेष्टा सभी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों मे गिरते नजर आते हैं।
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों को ध्यान में हमें रखना होगा। उतर प्रदेश विधान सभा चुनाव नजदीक है। सभी का ध्यान मुस्लिम वोट बैंक पर टिका हुआ है। राजनीतिक विश्लेषण में यह बात बार-बार बैठायी जा रही है कि उत्तर प्रदेश में मुस्लिम जिस ओर रूख करेंगे उसी की सत्ता बनेगी। कांग्रेस ने सच्चर कमेटी का लाभ पिछले लोकसभा चुनाव में उठा चुकी है। रामजन्म भूमि प्रकरण पर कांग्रेस का मुस्लिम वोट बैंक खाली हो चुका था। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में मुस्लिम संवर्ग को अपने पक्ष में करने की सफलता पायी थी और आश्चर्यजनक ढंग से सीटें जीती थी। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का खास ध्यान है। मुस्लिम समुदाय को रिझाने की अप्रत्यक्ष जिम्मेदारी दिग्विजय सिंह के पास है। अगर ऐसा नहीं होता तो अपनी ही सरकार की पुलिस द्वारा बटला हाउस कांड पर सवाल नहीं उठाते और आतंकवादियों के परिजनों से मिलने आजमगढ़ नहीं जाते। बटला हाउस कांड की विभिन्न एजेंसियों की जांच और न्यायिक जांच में पुलिस को क्लीन चिट दे दिया गया है फिर भी दिग्विजय सिंह बटला कांड पर सवाल उठाते रहे हैं। मुबंई हमले पर भी सवाल उठाकर पाकिस्तान को लाभार्थी बनाने की कोशिश करते हैं। कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह के बयान को यद्यपि खारिज कर दिया फिर भी कांग्रेस का मिशन यूपी और मिश्न मुस्लिम वोट बैंक की अप्रत्यक्ष नीतियां किसी भी परिस्थिति में जगजाहिर होने से बच नहीं पायेंगी?
राजनीतिक संवर्ग का तुष्टिकरण की नीति और आतंकवाद जैसी खतरनाक प्रवृति के समर्थन में खड़ा होने से मजहब आधारित संस्थाओं और शख्सियतों की शांति के खिलाफ मानसिकताएं पोषित होती हैं। कश्मीर में हुर्रियत जैसी राष्टविरोधी मजहबी संस्था के अध्यक्ष सैयद अली शाह गिलानी ने जब ओसामा बिन लादेन को आतंकवादी की जगह इस्लामिक सेनानी घोषित करता है और उसकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करता है तब कोई आवाज नहीं उठती है। हुरियत अली शाह गिलानी अकेले ऐसे मजहबी शख्सियत नहीं है जो आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को इस्लाम का सेनानी मानता हो। दुर्भाग्य यह है कि आज देश के अंदर में मजहबी रूढ़ियों और आतंकवादी विचारो के दफन करने की कोई राजनीतिक नीतियां नहीं हैं। आतंकवादियों को संरक्षण देने और उनके राष्टतोड़क बयानों और कृत्यों तक पर्दा डाला जाता है। अफजल गुरू और कसाब जैसे कई आतंकवादी आज हमारे जेलों में मेहमान की तरह एसोआराम से रह रहे हैं। उन्हें ‘चिकन बिरयाणी‘ खिलाया जा रहा है। इन्हें फांसी देने पर मुस्लिम संवर्ग का उफान और क्रोध का डर सताता है। बांग्लादेश ही नहीं बल्कि मिश्र जैसे मुस्लिम देश भी आतंक फैलाने वाले कई आतंकवादियों को फांसी पर चढाया है। उन्हें संख्यिाकी विविधता के आक्रोश का डर नहीं था।
राजनीतिक संवर्ग के स्वार्थ की पूर्ति तो अवश्व होती रहेगी और उनकी राजनीतिक सत्ता का स्थायीकरण होता रहेगा पर उस आग की लौ हमेशा हमारी धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को ही अपने आगोश में लेती रहेगी। पाकिस्तान की सामाजिक व्यवस्था आज पूरी तरह से इस्लामिक के उफानी और नरसंहारक विचारों के आगोश में क्यों समाया हुआ है? इसकी पडताल करनें है और पड़ताल से निकले यथार्थ और निष्कर्ष से भी सबक लेने की अनिवार्य जरूरत होनी चाहिए। पाकिस्तान में तानाशाही संवर्ग ने मजहबी और शरीयती आग लगायी थी। पोषण तानाशाही ही थी। खासकर तत्कालीन तानाशाह जियाउल हक ने पाकिस्तान में शरीयत लागू की थी और इस्लाम के उदार मूल्यों को दफन कर खतरनाक और बंधित समाज की नींव डाली थी। तानाशाही काल में पाकिस्तान की आवाम में विरोध की ज्वाला थी नहीं। आवाम भी समझ लिया था कि इस्लाम के खतरनाक मूल्यो से हम दुनिया को अपनी ओर झुका सकते हैं। कश्मीर को हड़प सकते हैं और भारत को तहस-नहस कर सकते हैं। प्रारंभिक काल में पाकिस्तान की खुशफहमी को बल जरूर मिला। अब उसका प्रतिफल पाकिस्तान को लहूलुहान कर रहा है। विकास की जगह गोलियां-बारूद और मानवबम की फोड़े जा रहे हैं। पाकिस्तान के इस हस्र को भारतीय राजनीतिक संवर्ग को सबक के तौर पर देखना चाहिए और तुष्टीकरण सहित वोट की राजनीति के लिए खतरनाक इस्लामिक विचारों के संरक्षण और बढावा देने के खेल से अलग होना चाहिए। पर ऐसा नहीं लगता कि भारतीय राजनीति खतरनाक इस्लामिक विचारों के बढावा देने की नीति बदलने को तैयार है। अगर ऐसा नहीं होता तो कांग्रेस सहित अन्य राजनीतिक पार्टियां ओसामा बिन लादेन के अंत के खिलाफ खड़ी होती?
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