राष्ट्र-चिंतन
अरब दुनिया की मुक्ति का यह रास्ता
विष्णुगुप्त
तानाशाही/राजशाही/शरीयत वाली व्यवस्था के पतन के बाद जो लोकतांत्रिक सत्ता आयेगी वह वास्तव में कितनी लोकतांत्रिक होगी। उस लोकतांत्रिक सता में अन्य धार्मिक समुदाय के लिए कितनी जगह होगी।
कार्ल मार्क्स ने कहा था कि ‘धर्म अफीम‘ है। दरअसल कार्ल मार्क्स ने यूरोप में ‘चर्च और अरब में इस्लाम‘ के वर्चस्व के साथ ही साथ आधुनिकता व लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ ‘धर्म‘ की रूढियां खडी होते स्पष्ट तौर पर देखा था। यूरोप ने चर्च की सत्ता के खिलाफ लड़ाई लडकर लोकतांत्रिक दुनिया बनायी। अमेरिका ने अपनी आजादी की लडाई लडकर स्वयं को आधुनिकता और दुनिया की निर्णायक शक्ति के रूप में स्थापित कर लिया। विचारणीय विषय यह है कि अगर यूरोप-अमेरिका चर्च की वर्चस्व वाली सत्ता व्यवस्था के खिलाफ मुक्ति की रेखा नहीं खीची होती तो क्या आज यूरोप-अमेरिका अपनी समृद्धि-विकास के इस मुकाम पर आज खड़ा होते? शायद नहीं। दुर्भाग्य यह है कि ‘धर्म की अराजक सत्ता और शक्ति‘ के खिलाफ अरब दुनिया में कोई खास हलचल नहीं हुई। कोई बड़ी म ुहिम या आंदोलन भी तो नहीं चला। जिसने भी धर्म की सत्ता के खिलाफ अवाज उठायी उसे अरब दुनिया छोड़कर यूरोप जैसी उदारवादी समाज व्यवस्था में शरण लेनी पडी। इसके अलावा अरब जगत में इस्लाम की सत्ता ही नहीं बल्कि जीवन पद्धति को नियंत्रित करने की अराजक और खतरनाक मुहिम चली। इस्लाम की उदार और मानवीय पक्ष पर रूढियां और मुल्लाओं की अतिरंजित विचारशीलता को गति दी गयी। दुष्परिणाम यह निकला कि खुद अरब दुनिया ने अपने आप को एक बंद समाज व्यवस्था का बंधक बना लिया। ऐसे में लोकतांत्रिक और मानवीय दुनिया बनती तो कैसे? तानाशाही और शरियत जैसी व्यवस्था ने अरब आबादी को धर्म की रूढियों और अतिरंजना का शिकार बना छोड़ा है। मिश्र,ट्यूनेशिया बहरीन आदि में जो जनता का गुस्सा फटा है उसके पीछे भी उपरोक्त कारण ही है। लीबिया में जिस तरह संयुक्त राष्टसंघ के हस्तक्षेप पर आवाज उठे हैं उसके निहितार्थ भी गंभीर हैं।
तानाशाही व्यवस्था के दोषी कौन?.......................
अरब दुनिया के अधिकतर देश तानाशाही व्यवस्था मे कैद कैसे हैं और क्यों हैं? क्या हम इसके लिए अरब में इस्लाम की अराजकता को भी कारण मान सकते हैं? क्या हमे सिर्फ यूरोप-अमेरिका की लूटवाली व्यवस्था को अरब लीग में उपस्थित तानाशाही और शरीयत व्यवस्था को मान सकते हैं? ऐसा इसलिए सोचना पड़ता है और विचार करना पडता है कि अरब लीग और हमारे देश के बुद्धीजीवी अरब लीग की खतरनाक स्थिति के लिए अमेरिका-यूरोप की लूटवाली व्यवस्था को मानते हैं। अमेरिका या यूरोप अरब लीग और अन्य भूभागों में तभी हस्तक्षेप करता है या फिर घुसपैठ करता है जब वहां की सरकारें आमंत्रित करती है। अमेरिका-यूरोप की तेल मार्केट पर लूटवाली व्यवस्था इसलिए कायम हो सकी क्योंकि अरब लीग तानाशाही और शरीयत व्यवस्था में इतने अंदर तक धसे हुए हैं कि उन्हें विज्ञान या आधुनिक मार्केट व्यवस्था की दक्षता हासिल ही नहीं हो सकती है। इसका उदाहरण यह है कि अरब लीग में तेल और गैस उत्खनन ही नहीं पूरी व्यवस्था अमेरिका-यूरोप की बडी-बडी बहुराष्टीय कंपनियों के हाथों में हैं। अगर अरब दुनिया ने विज्ञान और आधुनिक मार्केट व्यवस्था पर ध्यान दिया होता और दक्षता हासिल की होती तो आज अरब लीग यूरोप-अमेरिका से कहीं अधिक विकसित और शक्तिशीलता को हासिल कर सकता था।
शरीयत की ढाल........................... ................
मस्जिद/मदरसा और हज ये तीन व्यवस्थाएं तानाशाही और शरीयत वाली सत्ता की ढाल रही है। तानाशाही और शरीयत वाली सत्ता यह चाहती है कि अगर अपनी आबादी को मस्जिद/मदरसा और हज की इच्छाएं पूरी तरह से चाकचौंबंद कर देने मात्र से उनके खिलाफ आमजन की आवाज उठेगी नहीं? आवाज उठेगी नहीं और उनके अंदर आक्रोश होगा नही ंतो फिर उनकी सत्ता को कहीं से चनौती मिलंेगी ही नहीं और उनकी सत्ता निरंतन चुनौतीविहीन चलती रहेगी। अरब लीग पर हम ध्यान देते हैं तो स्पष्ट होता है कि कहीं पर तानाशाही व्यवस्था है तो कहीं जन्मजात राजशाही है। तानाशाही और राजशाही दोनों प्रकार की सत्ता व्यवस्था ने मस्जिद/मदरसा और हज की मानसिकता को तुष्ट करने के लिए अपनी सत्ता और आर्थिक शक्ति झोंकी। जहां पर शरीयत की अराजकता की मांग भी नहीं थी वहां पर भी पूर्ण शरीयत की व्यवस्था को लागू किया गया। लोकतांत्रिक व्यवस्था के सारे स्तंभ को पनपने ही नहीं दिया गया। बात इतनी भर ही नहीं है। बल्कि आधुनिक समाज की सोच और जरूरत तक को प्रतिबंधित किया गया। शरीयत की अराजक और खतरनाक व्याख्या को भी रोकने की कोशिश नहीं हुई। तानाशाही और जन्मजाती राजशाही सत्ता को यह मालूम है कि अगर शरीयत की अराजक/खतरनाक व्याख्या को रोकने की कोशिश हुई तो कटटरवादी ताकतें तूफान खड़ा कर सकती हैं।
युएनओ का हस्तक्षेप..................... ...
लीबिया की तानाशाही ने अपनी जनता पर जिस तरह से भाडे के सैनिकों से बमबारी करा रही थी उससे पूरी दुनिया स्तब्ध थी। जनता को अपनी सत्ता स्थापित करने और हटाने का हक जरूर है। लीबिया का तानाशाह कर्नल गद दाफी ने तेल के भंडार से मिले डालरों को जनता की भलाई करने की जगह अपनी संपतियां स्थापित की। यूरोप के बैंक कर्नल गद्दाफी के डालरों से गुलजार हैं। कर्नल गद्दाफी ने अंहकार-अभिमान में जनाक्रोश को न समझने की गलती की है। हुस्नी मुबारक से उन्हें सबक लेने की जरूरत थी। पर कर्नल गद्दाफी ने अफ्रीकी देशों से भाडे की सैनिक बुलाकर अपनी जनता पर बमबारी करवाने लगे। बमबारी में कई हजार नागरिक मारे गये। जिस तरह से कत्लेआम हो रहा था उससे यह स्पष्ट हो गया था कि लीबिया में यूएनओं का हस्तक्षेप होगा ही। लीबिया में चुनौतियां काफी जटिल होगी। इसलिए कि लीबिया को कर्नल गददाफी ने दो भागों में विभाजित करने की राजनीति की थी। लीबिया का पश्चिम की आबादी कर्नल गददाफी के कबीले की है और यह कबीला कर्नल गददाफी की शक्ति रही है। लीबिया में नई सत्ता स्थापित करने में नेतत्व और सत्ता में भागीदारी पर संकट खडा हो सकता है। सर्वानुमति तैयार करने की जरूरत होगी। अरब दुनिया में यूएनओं को खलनायक बनाने की नीति भी आगे बढ सकती है। क्योंकि अरब के विभिन्न देशों में यूएनओं के हस्तक्षेप के खिलाफ बडी मुहिम शुरू हो चुकी है।
भारतीय पक्ष..................
भारतीय कूटनीति मे लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रवाह का संरक्षण नहीं करने का अरोप लग रहा है। ब्रिटेन और फ्रांस ने भारत के असहयोग पर चिंता जाहिर कर चुके हैं। भारत ने यूएनओ में मतदान में भाग न लेकर एक तरह से लीबिया के तानाशाही का समर्थन ही किया है। अभी भी भारत का रूख स्पष्ट नहीं है। भारत ने यूएनओ के हस्तक्षेप का विरोध किया है। पर एक हास्यास्पद वक्तब्य भी देख लीजिये। भारत का कहना है लीबिया में लोकतांत्रिक पद्धति का समर्थन करता है। सवाल यहां यह उठता है किे कर्नल गददाफी जैसा खूंखार तानाशाह न तो सत्ता छोडने के लिए तैयार है और न ही अपनी आबादी पर कत्लेआम रोकने के लिए राजी है,ऐसी स्थिति में वहां पर लोकतांत्रिक मूल्यों के अस्तित्व की भी बात सोची जा सकती है क्या ? खासकर हम एक तथ्य की गंभीरता का आकलन अब तक नहीं कर सके हैं। यह तथ्य है भारत का दुनिया के सर्वश्रेष्ठ लोकतांत्रिक व्यवस्था होने का। दुनिया का सर्वश्रेष्ठ लोकतांत्रिक देश होने के कारण भारत का यह कर्तव्य और दायित्व है दुनिया में लोकतांत्रिक आंदोलन को समर्थन और गति देना। भारत की सत्ता तुष्टीकरण की नीति पर चलती है। भारत सरकार क्या किसी डर से अपनी लोकतांत्रिक प्राथमिकताएं पूरी करने में उदासीन है। वास्तव में भारतीय सत्ता अपनी मुस्लिम आबादी की मजहबी सोच और प्राथमिकताओं से डरी हुई है। इसलिए लीबिया ही नहीं बल्कि पूरी अरब लीग में लोकतांत्रिक आंदोलन का समर्थन करने से पीछे है।
अरब दुनिया सिर्फ और सिर्फ लोकतांत्रिक प्राथमिकताओं के बल पर ही अपने लिए सम्मान और शक्ति हासिल कर सकती है। तानाशाही और जन्मजात राजशाही व्यवस्था के दिन और बूरे ही होंगे। दुनिया एक गांव में तब्दील हो चुकी है। इसलिए आधुनिक विचारों के प्रवाहों को प्रतिबंधों के बाद भी रोकना आसान नहीं है। पर अरब लीग की आबादी अभी भी मस्जिद/मदरसा और हज जैसी व्यवस्था से अलग होने और उदार इस्लामिक व्यवस्था में चलने के लिए तैयार नहीं है। इस्लाम की खतरनाक व्याख्या भी रूकेगी,यह कहना भी कठिन है। ऐसे विचारों को लेकर अरब दुनिया यूरोप या अन्य समाजों से कदम-ताल मिला कैसे सकता है। लीबिया/मिश्र/बहरीन आदि देशों में बदलाव की जो लहर उठी है और तानाशाही व्यवस्था की जो नीवं हिलायी और हिला रही है,इसे सलाम करना ही चाहिए। पर हमें यह भी देखना होगा कि तानाशाही और शरीयत वाली व्यवस्था के पतन के बाद जो लोकतांत्रिक सत्ता आयेगी वह वास्तव में कितनी लोकतांत्रिक होगी। इसके साथ ही साथ उस लोकतांत्रिक सता में अन्य धार्मिक समुदाय के लिए कितनी जगह होगी।
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