राष्ट्र-चिंतन
पाकिस्तान फिर हुआ नंगा
विष्णुगुप्त
दुनिया के नियामकों और पाकिस्तान पक्षकारी भारतीय बुद्धीजीवियों को और कितने सबूत चाहिए? एक पर एक पाकिस्तान के आतंकवादी सबूतों पर उदासीनता की नीति क्यों अपनायी जाती है। दुनिया के नियामक पाकिस्तान के खिलाफ सबककारी दंड विधान की नीति कब अमल पर उतरेगी। भारतीय सत्ता कब तक पाकिस्तान के खिलाफ नरम नीति से भारतीय आबादी का खून बहाती रहेगी? भारतीय बुद्धीजीवी कबतक पाकिस्तान के पक्ष में अपनी भूमिका निभा कर राष्ट्र के गौरव ओर अस्मिता के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे? सिर्फ भारत ही नहीं है बल्कि अमेरिका, रूस, बिंटेन और जर्मनी जैसे देश पाकिस्तान के आतंकवादी आउटसोर्सिंग की नीति से हलकान हैं। पाकिस्तान ने दुनिया से आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए करोड़ों-अरब डालर वसूलती है फिर भी आईएसआई और पाकिस्तान सेना ने तालिबान-अलकायदा को फिर से खड़ा कर दुनिया की शांति को गहरे सुरंग में ढंकेल दिया है।
कारगिल के बाद अब जुल्फिकार अहमद प्रसंग में पाकिस्तान नंगा हुआ है और उसका यह कहना कि वह दुनिया मे आतंकवाद का आउटसोर्सिंगकर्ता नहीं है, का भी पोल खुल गया है। जुल्फिकार अहमद एक आत्मघाती हमलावर था। आईएसआई ने उसे भारत मे आतंकवादी हमले के लिए भेजा था। जुल्फीकार अहमद ने भारत में आईएसआई के कारनामों की जमीन तैयार की थी और कई आतंकवादी हमलो को अंजाम दिया था। पाकिस्तान सेना ने अपने वेबसाइट पर यह स्वीकार कर लिया है कि जुल्फीकार अहमद पाक सेना का जवान था और वह आईएसआई के गुर्गे के तौर पर भारत गया था। पाक सेना ने अब जुल्फीकार अहमद को शहीद का दर्जा दिया है।
इस स्वीकरोक्ति के कूटनीतिक अर्थ बहुत ही गंभीर है। कारगिल हमले में पाकिस्तान सेना के हाथ होने की मुशर्रफ की स्वीकरोक्ति पहले ही चुकी है। भारत के लिए ये दोनों कूटनीतिक तथ्य काफी लाभकारी हो सकते हैं। भारत इन दोनों तथ्यों के माध्यम से पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित कराने में कामयाब हो सकता है। साथ ही साथ देश के ऐसे बुद्धीजीवियों के मुंह पर तमाचा भी है जो पाकिस्तान के साथ दोस्ती की बात कहते हैं और आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान के पक्ष में पक्षकारी भूमिका निभाते रहे हैं। पाकिस्तान का आतंकवादी सरोकार और नीति तबतक जमींदोज नहीं सकती जबतक उस पर दंड संहिता का कोडा न चले। दुनिया के नियामकों को अब पाकिस्तान के पक्ष में नरमी दिखाने वाले कार्यक्रम और नीतियां बदल लेनी चाहिए। कुछ ऐसी ही विसंगतियां है जिसके कारण से ही दुनिया में आतंकवाद के खिलाफ जारी विचार प्रवाह दम तोड़ता रहा है और अलकायदा-तालिबान जैसी शक्तियां लगातार मजबूत और खतरनाक होती जा रही है।
दुनिया को पाकिस्तान के खिलाफ और कितने सबूत चाहिए? कारिगल हमले के दौरान ही यह स्पष्ट था कि पूरी कारस्तानी पाकिस्तान सेना की है। मुशर्रफ ने कारगिल हमले का जंजाल खड़ा किया था। पाकिस्तान अपने बचाव में तथ्य प्रत्यारोपित किये थे कि कारगिल हमला पाकिस्तान सेना नहीं बल्कि कश्मीरी स्वतंत्रासेनानियों ने किये हैं। नवाज शरीफ ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के माध्यम से कारगिल संकट से निजात पायी थी। भारत ने बिल क्लिंटन के दबाव में पाकिस्तानी सैनिकों की वापसी का सुरक्षित रास्ता दिया था। कुछ दिन पहले ही मुशर्रफ ने लंदन में यह स्वीकार किया कि कारगिल की कारस्तानी उनकी थी और कश्मीर प्रसंग का अंतर्राष्ट्रीय करण करने के लिए उसने पाकिस्तानी सेना को कारगिल में धुसपैठ करायी थी। जबकि कारगिल हमले के समय प्रधानमंत्री रहे नवाज शरीफ भी कारगिल हमले के लिए मुशर्रफ पर दोष मढ़ते रहे है। मुशर्रफ की स्वीकारोक्ति के बाद दुनिया में हडंकप मचा था और पाकिस्तान की असहज स्थिति हुई थी। आतंकवाद की आउटसोर्सिंग पर पाकिस्तान की घेरेबंदी तेज हुई थी। ऐसी घेरेबंदी से निजात पाने के लिए पाकिस्तान की वर्तमान सत्ता ने कारगिल हमले के सच पर पर्दा डालने का काम किया था। पाक सत्ता का कहना था कि मुशर्रफ का बयान सच से दूर है। पाक सेना ने अपने वेबसाइट पर कारगिल शहीदों के नाम डालकर मुशर्रफ की स्वीकारोक्ति पर मुहर लगायी थी।
जुल्फीकार अहमद हैं कौन? यह आत्मघाती हमलावर कैसे बना? आईएसआई ने जुल्फीकार अहमद को किस मकसद से भारत भेजा था। आईएसआई ने जुल्फीकार अहमद के आत्मधाती कारस्तानी से कितनी कामयाबी हासिल की? वास्तव में जुल्फीकार अहमद पाकिस्तानी सेना का जवान था। उसे आईएसआई ने आत्मघाती गुर्गे के तौर पर तैयार किया था। जुल्फीकार अहमद को भारत भेजने के आईएसआई का मकसद भारत विरोधी भावनाएं बढ़ाना और आतंकवादी गुटों को एकजुट कर भारत के खिलाफ खूनी राजनीति और खूनी कार्रवाइयो को अंजाम देना। इसके पहले उसे पाक अधिकृत कश्मीर में ट्रैनिंग दी गयी थी। उसे पाक अधिकृत कश्मीर के रास्ते से भी भारत में घुसाया गया था। जुल्फीकार अहमद पहले जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद और दहशत फैलाने की कार्रवाइयो में लगा रहा और बाद में उसने कश्मीर को छोडत्रकर दिल्ली में अपना अड्डा बना लिया। दिल्ली में उसने नेपाल के रास्ते से आतंकवादियों को भारत में घुसाने का जंजाल खड़ा किया। इसके अलावा बेरोजगार मुस्लिम युवकों को उसने भारत के खिलाफ गुमराह करने का काम किया। 16 नवम्बर 2007 को दिल्ली कें गंगा राम अस्पताल में उसकी मौत हुई थी। मौत का कारण किडनी और श्ंवास नली में सक्रमण बताया गया था। जुल्फीकार अहमद के मौत के बाद भी काफी समय तक आईएसआई और पाक सेना सच्चाई छुपाती रही। अब उसे शहीद का दर्जा दिया गया है।
आईएसआई और पाक सेना का आतंकवादी नीति शायद ही समाप्त होगी। आईएसआई ने तालिबान और अलकायदा को फिर से खड़ा कर दिया है। अमेरिकी हमले के बाद तालिबान और अलकायदा भाग खड़े हुए थे और यह लगने लगा था कि अलकायदा-तालिबान फिर से अपनी शक्ति हासिल नहीं कर पायेंगे। यह उम्मीद बेकार साबित हुई। अब तालिबान फिर से अफगानिस्तान में न केवल सक्रिय हुए बल्कि कई पहाड़ी इलाको में अपना स्रामाज्य भी स्थापित कर लिये हैं। अफगानिस्तान सरकार की सत्ता सिर्फ काबुल के आस-पास तक ही सीमट कर रह गयी है। अफगानिस्तान सरकार ने पाकिस्तान पर तालिबान को सह और संरक्षण देने के आरेप बार-बार लगायी हैं। अमेरिकी नीति भी यह मानती है कि जब तक आईएसआई जब तक सीधी नहीं होगी और उस पर कार्रवाई का डंडा नहीं चलता है तब तक पाकिस्तान में आतंकवाद के कारखाने चलते रहेंगे। इधर पाकिस्तानी नीति तालिबान को लोकतांत्रिक चोला पहनाने का है। गुड और बेड तालिबान की थ्योरी में दुनिया के नियामक भ्रम में पड़ गये हैं। गुड तालिबानों की एक खूंखार टोली खड़ी हुई है जिसके गंभीर परिणाम भविष्य में अमेरिका को भुगतना होगा। अमेरिका इधर अफगानिस्तान से निकलने के लिए आतुर है। अफगानिस्तान से निकलने के आतुरता मे अमेरिका कहीं आईएसआई के बुने जाल न फंस जाये। इसके खतरे साफ दिख रहे हैं।
जुल्फीकार अहमद के आत्मघाती हमलावर होने के सबूत से पाकिस्तान की आतंकवादी नीति और सरोकार एक बार फिर उजागर हुए है। भारत को इसका लाभ उठाने के लिए कूटनीतिक शक्ति दिखानी चाहिए। भारत शायद ही कूटनीतिक शक्ति दिखाने और पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित कराने के आगे बढ़ेगा। मुबंई हमले के दौरान भारतीय सत्ता खूब गरजी थी पर पाकिस्तान ने मुबंई हमले के दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने के नाम पर भारतीय सत्ता को मुर्ख बनाया है। अब पाकिस्तान सत्ता भारत को ही आतंकवादी देश बताता रहता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की सहिता के अनुसार पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित कराया जा सकता है। अमेरिका, ब्रिटेन, रूस सहित अन्य देशों को अब यह समझ में आ जाना चाहिए कि पाकिस्तान पर दया या उदासीनता बरतने की नीति घातक है। जब तक पाकिस्तान पर दंडा नहीं धुमेगा तबतक पाकिस्तान की आतंकवादी नीति कभी समाप्त ही नहीं होगी। पर क्या दुनिया के नियामक अपनी विसंगतियां छोड़ने के लिए तैयार हैं और पाकिस्तान के खिलाफ कड़े कदम उठायेंगे। असली सवाल यही है।
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विष्णुगुप्त
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Monday, December 20, 2010
Thursday, December 16, 2010
राष्ट्र-चिंतन
देश पर मौन का राज/ टकराव का नया दौर
मनमोहन-सोनिया गांधी की यह कैसी ईमानदारी?
विष्णुगुप्त
देश पर ‘मौन‘ का राज है। विपक्षी दलों की इस उक्ति से असहमति नहीं हो सकती है। विपक्ष की बार-बार मांगों के बाद भी भारतीय प्रधानमंत्री का मौन टूटता नहीं और न ही उनकी भ्रष्ट नौकरशाही,मंत्रिमंडल के सदस्यों के प्रति चुप्पी टूटती है। देश के संसदीय इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब पूरा का पूरा सत्र वह भी 21 दिनों तक ठप रहा और विधायी कार्य पूरी तरह से बाधित हुए। संसद का शीतकालीन सत्र का सत्रावासन हो चुका है। ऐसे में प्रधानमंत्री मनमोहन, सोनिया गांधी और कांग्रेस यह मानकर खुश होंगे कि ‘संसद कार्यवाही‘ की बला टली। यह सिर्फ और सिर्फ खुशफहमी हो सकती है। ऐसा सोचना ही कांग्रेस की सबसे बड़ी भूल होगी। कांग्रेस की साख मिट्टी में मिल रही है, मनमोहन सिह-सोनिया गांधी की कथित ईमानदारी की चमक सवाल उठ रहा है। इसकी जगह आक्रोश और अविश्वास पसर रहा है। विपक्ष की एकता को तोड़ने के लिए कांग्रेस सत्ता के चाणक्य सूत्र साम,दंड,भय आदि बेअसर साबित हुए हैं। लालू-मुलायम और मायावती जैसे दल बार-बार कांग्रेस की ब्लैंकमैलिंग और अविश्वास से आजिज आकर आर-पार के संघर्ष के लिए तैयार हैं। भाजपा गठबंधित दल भ्रष्टाचार को जन-जन तक ले जाने के लिए तैयार हैं और कम्युनिस्ट पार्टियां भी मनमोहन सिंह को कोई राहत देने के लिए तैयार नहीं है। ये परिस्थितियां क्या संदेश देती हैं? बजट सत्र में संसद में टकराव का नया अध्याय शुरू होगा जो संधर्ष संसद से बाहर और तीखा-कटूता से बजबजाता हुआ होगा। बजट सत्र में उदासीनता या मनमानी की कीमत विपक्ष नहीं बल्कि कांग्रेस को ही चुकानी होगी। कांग्रेस अधिनायक वाला रवैया लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता है।
भारतीय संसदीय इतिहास का यह काला अध्याय है। इतने लाचार/प्रशासनिक-राजननीतिक प्रबंधन की दृष्टि से कमजोर प्रधानमंत्री की कीमत देश चुका रहा है। मनमोहन सिंह के संबंध में कई धारणाएं हैं। एक धारणा तो यह है कि वे अव्वल दर्जे के अर्थशास़्त्री हैं और अर्थशास़्त्री के गुण के कारण ही वे भारतीय राजनीति में स्थापित हुए/चमके/ और प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। ये बातें सौ प्रतिशत सही है। दूसरी धारणा यह है कि जवाहर लाल नेहरू के बाद वे पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने लगातार आठ बार लाल किले के प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित किया है। तीसरी अवधारणा यह है कि वे खुद बेहद ईमानदार हैं। जहां तक पहली अवधारणा की बात है तो यह अवधारणा वैश्विक लूटरे और मानसिकता से निकली हुई बुराई है जिसमें यह प्रस्थापित करने की प्रक्रिया चली थी कि सत्ता का संचालन राजनीतिज्ञ के हाथों में नहीं बल्कि अर्थशास्त्री के हाथों में होना चाहिए क्योंकि अर्थव्यवस्था की समझ वह भी वैश्विक दौर में एक अच्छे अर्थशास्त्री को ही हो सकती है। मनमोहन सिह विश्व बैंक की चाकरी में थे। इसलिए उनकी अर्थशास्त्र की समझदारी भारतीय राजनीति में ऐसी स्थापित हुई कि बड़े से बड़े राजनीतिज्ञ बैठे रहे और ये प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गये। यह भी सत्य है कि आज भारतीय अर्थव्यवस्था चट्टान की तरह खड़ी है उसमें मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री के नेतृत्व के कारण नहीं बल्कि भारत के कृषि प्रधान व्यवस्था के कारण। भारतीय कृषि व्यवस्था का सहारा नहीं होता तो हमारी अर्थव्यवस्था कब का चरमरा जाती। औद्योगिक घराने और सत्ता की हेकड़ी गुम हो जाती।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बेहद ईमानदार है। देश में इस बात की चर्चा बहुत होती है। खासकर कांग्रेसी और मीडिया में बरखा दत्त/ वीर संघवी जैसे सत्ता-कारपोरेट लॉबिस्ट बु़द्धीजीवियों द्वारा मनमोहन सिंह की ईमानादारी की खूब ढिढोरा पिटा जाता है। ऐसी र्इ्रमानदारी की क्या जरूरत जिसके नीचे बेईमानों का राज और भ्रष्टचार के राजाओं की असली सत्ता स्थापित हो। जिनके अंदर में बेईमानों और भ्रष्ट लोगों पर कार्रवाई का साहस नहीं हो और जो शख्सियत भ्रष्ट-बईमान तंत्र पर नकेल डालने की जगह भ्रष्ट-बेईमान तंत्र के संरक्षण मे खड़ा हों। इतना ही नहीं बल्कि सर्वोच्च न्यायिक संस्थान से झाड़ खाने के बाद भी बचाव में कानून की दलीलें पेश करना। ए राजा को मंत्री बनाने के लिए दबाव था पर थॉमस को सीएजी का चीफ बनाने की कौन सी गठंबधन की मजबूरी थी। थॉमस किस गठबंधित पार्टी के उम्मीदवार थे? उस स्थिति में जब विपक्ष के नेता ने साफ तो पर थॉमस की नियुक्ति की मना कर दी हो। आधार कानून सम्मत था। इसलिए की थॉमस दागी अधिकारी थे। उन पर भ्रष्टाचार के आरोप थें। संहितानुसार भ्रष्टाचार के आरोपी अधिकारी की पदोन्नति नहीं हो सकती है। फिर मनमोहन सिंह ने भ्रष्टचार के आरोपी अधिकारी को सीएजी का चीफ कैसे बनाये। भ्रष्टाचार के अरोपी क्या भ्रष्टाचार की जांच निष्पक्षता से कर सकता है। थॉमस की इन परिस्थितियों में भी नियुक्ति करने की कौन सी मजबूरी थी। यह जानकारी हासिल करना भारतीय जनता का अधिकार कैसे नहीं हो सकता है। देश का सर्वोच्च न्यायिक पीठ ने थॉमस प्रकरण पर यही सवाल तो उठायी है।
गठबधन राजनीति की बहुत सारी मजबूरियां होती है। यह माना। पर देश में मनमोहन सिंह की सत्ता अकेली गठबंधित सत्ता नहीं थी। देश में गठबंधन सत्ता की राजनीति 1977 से शुरू होती है। इंदिरा गांधी की अधिनायकवाद की परिणति से गठबंधित राजनीति की शुरूआत हुई थी। मोरार जी देशाई चाहते तो उनकी सत्ता नहीं जाती। आदर्शो से समझौता करना मोरार जी देशाई को स्वीकार नहीं था। पीवी नरसिंहा राव अपने दम पर पांच साल तक गठंबधित सत्ता चलायी। अटल बिहारी वाजपेयी सात सालों तक गठबंधित सत्ता चलायी। अटल बिहारी वाजपेयी की सत्ता में राजा की पार्टी द्रुमक खुद भागीदार थी। पर क्या अटल बिहारी वाजपेयी की सत्ता मनमोहन सिंह की सत्ता जैसी असहाय सत्ता थी/कमजोर सत्ता थी/ भ्रष्ट-बेईमान बहुल सत्ता थी? कदापि नहीं। ऐसा इसलिए संभव हुआ था कि अटल सत्ता ने गठबंधन धर्म का न केवल खुद सुक्षमता के साथ पालन किया था बल्कि गठबंधित दलों को भी गठबंधन धर्म को पालन करने की सीख दी थी। अटल/राव और मोरार जी देशाई पूर्णरूप से राजनीतिज्ञ थे और ये आदर्शो-विचारों की राजनीतिक-सामाजिक प्रक्रिया से आगे बढ़े थे। इसलिए इन्हें सत्ता की बुराइयों का भी अहसास था। इसके विपरीत मनमोहन सिंह राजनीतिज्ञ नहीं नौकरशाह रहे हैं। राजनीतिक प्रबंधन इनके बस की बात नहीं है। इनकी सत्ता की असली कुंजी सोनिया गांधी हैं। सोनिया गांधी की कृपा के बोझ से मनमोहन सिंह दबे हुए हैं।
बोफोर्स की आंधी ने राजीव गांधी की सत्ता उड़ायी थी। मनमोहन सिंह/सोनिया गांधी को बोफोर्स का उदाहरण या फिर सबक क्यो नहीं मालूम है। सत्ता के चमचों ने राजीव गांधी को ऐसी सलाह दी कि वे बोफोर्स का गर्त जितना छुपाते रहे उतना ही वे बोफोर्स के दलदल में फंसते चले गये। इसी प्रकार से मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी भ्रष्टाचार के राजा को जितना बचाने का प्रयास कर रहे हैं उतना ही विपक्ष का आक्रोश बढ रहा है। सिर्फ विपक्ष का ही आक्रोश नहीं बढ रहा है बल्कि जनाक्रोश भी बढ़ रहा है। जनता के बीच यही संदेश जा रहा है कि आखिर मनमोहन-सोनिया गांधी भ्रष्टाचार के राजा को बचाने के लिए इतने आतुर क्यो ंहैं? विपक्ष का माखौल उड़ाकर कांग्रेस अपना बचाव करना चाहती है। यह रास्ता कांग्रेस का और खतरनाक है। इसलिए कि राजा के भ्रष्टाचार पर सीएजी ने मुहर लगा दी है। सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार राजा के भ्रष्टाचार पर उंगली उठायी है। ऐसे में कांग्रेस ही नंगी खड़ी है। पूरा का पूरा शीतकालीन सत्र भ्रष्टचार के राजा प्रसंग पर कुर्बान हो गयी। कांग्रेस थोड़े समय के लिए राहत का सांस ले रही होगी। बजट सत्र नजदीक है। ऐसे में यह राहत सिर्फ और सिर्फ खुशफहमी वाली हो सकती है। विपक्ष पूरी तैयारी के साथ खड़ा है। बजट सत्र मनमोहन सत्ता कैसी चलायेगी? विपक्ष एकजुट होकर बजट सत्र बाधित करने पर अडिग हैं। विपक्ष को तोड़ने की कांग्रेसी नीति पहली ही दम तोड़ चुकी है। राजग ने इस प्रसंग को जनता के बीच ले जाने की नीति बनायी है। बोफोर्स जैसी आंधी उठाने की नीति चल रही है। ऐसी स्थिति में देश की राजनीति में टकराव का नया दौर शुरू होने वाला है। यह देश और लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।
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देश पर मौन का राज/ टकराव का नया दौर
मनमोहन-सोनिया गांधी की यह कैसी ईमानदारी?
विष्णुगुप्त
देश पर ‘मौन‘ का राज है। विपक्षी दलों की इस उक्ति से असहमति नहीं हो सकती है। विपक्ष की बार-बार मांगों के बाद भी भारतीय प्रधानमंत्री का मौन टूटता नहीं और न ही उनकी भ्रष्ट नौकरशाही,मंत्रिमंडल के सदस्यों के प्रति चुप्पी टूटती है। देश के संसदीय इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब पूरा का पूरा सत्र वह भी 21 दिनों तक ठप रहा और विधायी कार्य पूरी तरह से बाधित हुए। संसद का शीतकालीन सत्र का सत्रावासन हो चुका है। ऐसे में प्रधानमंत्री मनमोहन, सोनिया गांधी और कांग्रेस यह मानकर खुश होंगे कि ‘संसद कार्यवाही‘ की बला टली। यह सिर्फ और सिर्फ खुशफहमी हो सकती है। ऐसा सोचना ही कांग्रेस की सबसे बड़ी भूल होगी। कांग्रेस की साख मिट्टी में मिल रही है, मनमोहन सिह-सोनिया गांधी की कथित ईमानदारी की चमक सवाल उठ रहा है। इसकी जगह आक्रोश और अविश्वास पसर रहा है। विपक्ष की एकता को तोड़ने के लिए कांग्रेस सत्ता के चाणक्य सूत्र साम,दंड,भय आदि बेअसर साबित हुए हैं। लालू-मुलायम और मायावती जैसे दल बार-बार कांग्रेस की ब्लैंकमैलिंग और अविश्वास से आजिज आकर आर-पार के संघर्ष के लिए तैयार हैं। भाजपा गठबंधित दल भ्रष्टाचार को जन-जन तक ले जाने के लिए तैयार हैं और कम्युनिस्ट पार्टियां भी मनमोहन सिंह को कोई राहत देने के लिए तैयार नहीं है। ये परिस्थितियां क्या संदेश देती हैं? बजट सत्र में संसद में टकराव का नया अध्याय शुरू होगा जो संधर्ष संसद से बाहर और तीखा-कटूता से बजबजाता हुआ होगा। बजट सत्र में उदासीनता या मनमानी की कीमत विपक्ष नहीं बल्कि कांग्रेस को ही चुकानी होगी। कांग्रेस अधिनायक वाला रवैया लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता है।
भारतीय संसदीय इतिहास का यह काला अध्याय है। इतने लाचार/प्रशासनिक-राजननीतिक प्रबंधन की दृष्टि से कमजोर प्रधानमंत्री की कीमत देश चुका रहा है। मनमोहन सिंह के संबंध में कई धारणाएं हैं। एक धारणा तो यह है कि वे अव्वल दर्जे के अर्थशास़्त्री हैं और अर्थशास़्त्री के गुण के कारण ही वे भारतीय राजनीति में स्थापित हुए/चमके/ और प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। ये बातें सौ प्रतिशत सही है। दूसरी धारणा यह है कि जवाहर लाल नेहरू के बाद वे पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने लगातार आठ बार लाल किले के प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित किया है। तीसरी अवधारणा यह है कि वे खुद बेहद ईमानदार हैं। जहां तक पहली अवधारणा की बात है तो यह अवधारणा वैश्विक लूटरे और मानसिकता से निकली हुई बुराई है जिसमें यह प्रस्थापित करने की प्रक्रिया चली थी कि सत्ता का संचालन राजनीतिज्ञ के हाथों में नहीं बल्कि अर्थशास्त्री के हाथों में होना चाहिए क्योंकि अर्थव्यवस्था की समझ वह भी वैश्विक दौर में एक अच्छे अर्थशास्त्री को ही हो सकती है। मनमोहन सिह विश्व बैंक की चाकरी में थे। इसलिए उनकी अर्थशास्त्र की समझदारी भारतीय राजनीति में ऐसी स्थापित हुई कि बड़े से बड़े राजनीतिज्ञ बैठे रहे और ये प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गये। यह भी सत्य है कि आज भारतीय अर्थव्यवस्था चट्टान की तरह खड़ी है उसमें मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री के नेतृत्व के कारण नहीं बल्कि भारत के कृषि प्रधान व्यवस्था के कारण। भारतीय कृषि व्यवस्था का सहारा नहीं होता तो हमारी अर्थव्यवस्था कब का चरमरा जाती। औद्योगिक घराने और सत्ता की हेकड़ी गुम हो जाती।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बेहद ईमानदार है। देश में इस बात की चर्चा बहुत होती है। खासकर कांग्रेसी और मीडिया में बरखा दत्त/ वीर संघवी जैसे सत्ता-कारपोरेट लॉबिस्ट बु़द्धीजीवियों द्वारा मनमोहन सिंह की ईमानादारी की खूब ढिढोरा पिटा जाता है। ऐसी र्इ्रमानदारी की क्या जरूरत जिसके नीचे बेईमानों का राज और भ्रष्टचार के राजाओं की असली सत्ता स्थापित हो। जिनके अंदर में बेईमानों और भ्रष्ट लोगों पर कार्रवाई का साहस नहीं हो और जो शख्सियत भ्रष्ट-बईमान तंत्र पर नकेल डालने की जगह भ्रष्ट-बेईमान तंत्र के संरक्षण मे खड़ा हों। इतना ही नहीं बल्कि सर्वोच्च न्यायिक संस्थान से झाड़ खाने के बाद भी बचाव में कानून की दलीलें पेश करना। ए राजा को मंत्री बनाने के लिए दबाव था पर थॉमस को सीएजी का चीफ बनाने की कौन सी गठंबधन की मजबूरी थी। थॉमस किस गठबंधित पार्टी के उम्मीदवार थे? उस स्थिति में जब विपक्ष के नेता ने साफ तो पर थॉमस की नियुक्ति की मना कर दी हो। आधार कानून सम्मत था। इसलिए की थॉमस दागी अधिकारी थे। उन पर भ्रष्टाचार के आरोप थें। संहितानुसार भ्रष्टाचार के आरोपी अधिकारी की पदोन्नति नहीं हो सकती है। फिर मनमोहन सिंह ने भ्रष्टचार के आरोपी अधिकारी को सीएजी का चीफ कैसे बनाये। भ्रष्टाचार के अरोपी क्या भ्रष्टाचार की जांच निष्पक्षता से कर सकता है। थॉमस की इन परिस्थितियों में भी नियुक्ति करने की कौन सी मजबूरी थी। यह जानकारी हासिल करना भारतीय जनता का अधिकार कैसे नहीं हो सकता है। देश का सर्वोच्च न्यायिक पीठ ने थॉमस प्रकरण पर यही सवाल तो उठायी है।
गठबधन राजनीति की बहुत सारी मजबूरियां होती है। यह माना। पर देश में मनमोहन सिंह की सत्ता अकेली गठबंधित सत्ता नहीं थी। देश में गठबंधन सत्ता की राजनीति 1977 से शुरू होती है। इंदिरा गांधी की अधिनायकवाद की परिणति से गठबंधित राजनीति की शुरूआत हुई थी। मोरार जी देशाई चाहते तो उनकी सत्ता नहीं जाती। आदर्शो से समझौता करना मोरार जी देशाई को स्वीकार नहीं था। पीवी नरसिंहा राव अपने दम पर पांच साल तक गठंबधित सत्ता चलायी। अटल बिहारी वाजपेयी सात सालों तक गठबंधित सत्ता चलायी। अटल बिहारी वाजपेयी की सत्ता में राजा की पार्टी द्रुमक खुद भागीदार थी। पर क्या अटल बिहारी वाजपेयी की सत्ता मनमोहन सिंह की सत्ता जैसी असहाय सत्ता थी/कमजोर सत्ता थी/ भ्रष्ट-बेईमान बहुल सत्ता थी? कदापि नहीं। ऐसा इसलिए संभव हुआ था कि अटल सत्ता ने गठबंधन धर्म का न केवल खुद सुक्षमता के साथ पालन किया था बल्कि गठबंधित दलों को भी गठबंधन धर्म को पालन करने की सीख दी थी। अटल/राव और मोरार जी देशाई पूर्णरूप से राजनीतिज्ञ थे और ये आदर्शो-विचारों की राजनीतिक-सामाजिक प्रक्रिया से आगे बढ़े थे। इसलिए इन्हें सत्ता की बुराइयों का भी अहसास था। इसके विपरीत मनमोहन सिंह राजनीतिज्ञ नहीं नौकरशाह रहे हैं। राजनीतिक प्रबंधन इनके बस की बात नहीं है। इनकी सत्ता की असली कुंजी सोनिया गांधी हैं। सोनिया गांधी की कृपा के बोझ से मनमोहन सिंह दबे हुए हैं।
बोफोर्स की आंधी ने राजीव गांधी की सत्ता उड़ायी थी। मनमोहन सिंह/सोनिया गांधी को बोफोर्स का उदाहरण या फिर सबक क्यो नहीं मालूम है। सत्ता के चमचों ने राजीव गांधी को ऐसी सलाह दी कि वे बोफोर्स का गर्त जितना छुपाते रहे उतना ही वे बोफोर्स के दलदल में फंसते चले गये। इसी प्रकार से मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी भ्रष्टाचार के राजा को जितना बचाने का प्रयास कर रहे हैं उतना ही विपक्ष का आक्रोश बढ रहा है। सिर्फ विपक्ष का ही आक्रोश नहीं बढ रहा है बल्कि जनाक्रोश भी बढ़ रहा है। जनता के बीच यही संदेश जा रहा है कि आखिर मनमोहन-सोनिया गांधी भ्रष्टाचार के राजा को बचाने के लिए इतने आतुर क्यो ंहैं? विपक्ष का माखौल उड़ाकर कांग्रेस अपना बचाव करना चाहती है। यह रास्ता कांग्रेस का और खतरनाक है। इसलिए कि राजा के भ्रष्टाचार पर सीएजी ने मुहर लगा दी है। सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार राजा के भ्रष्टाचार पर उंगली उठायी है। ऐसे में कांग्रेस ही नंगी खड़ी है। पूरा का पूरा शीतकालीन सत्र भ्रष्टचार के राजा प्रसंग पर कुर्बान हो गयी। कांग्रेस थोड़े समय के लिए राहत का सांस ले रही होगी। बजट सत्र नजदीक है। ऐसे में यह राहत सिर्फ और सिर्फ खुशफहमी वाली हो सकती है। विपक्ष पूरी तैयारी के साथ खड़ा है। बजट सत्र मनमोहन सत्ता कैसी चलायेगी? विपक्ष एकजुट होकर बजट सत्र बाधित करने पर अडिग हैं। विपक्ष को तोड़ने की कांग्रेसी नीति पहली ही दम तोड़ चुकी है। राजग ने इस प्रसंग को जनता के बीच ले जाने की नीति बनायी है। बोफोर्स जैसी आंधी उठाने की नीति चल रही है। ऐसी स्थिति में देश की राजनीति में टकराव का नया दौर शुरू होने वाला है। यह देश और लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।
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Thursday, December 9, 2010
राष्ट्र-चिंतन
बहिष्कार का तानाशाही अर्थ
विष्णुगुप्त
दो अंतर्राष्ट्रीय घटनाएं/ दो लोकतंत्र-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सेनानी। यानी जूलियन अंसाजे और लिउ शियाबाओ। अपने वेबसाइट विकीलीक्स पर अमेरिका की पोल खोलने वाले अभिव्यक्ति की सेनानी जूलियन अंसाजे की कथित बलात्कार के आरोप मे ब्रिटेन मे गिरफ्तारी हुई जबकि चीनी कम्युनिस्ट तानाशाही के विरोध और लोकतांत्रिक व्यवस्था के समर्थन में संषर्षरत लिउ शियाबाओ को दिये जा रहे नोबल पुरस्कार समारोह पर तानाशाही का ब्रजपात हुआ है। चीन ने नोबल पुरस्कार समारोह का न केवल बहिष्कार किया है बल्कि चीन के पक्ष में दुनिया के 20 से अधिक देशों ने भी नोबल पुरस्कार समारोह का बहिष्कार किया। बहिष्कार करने वाले वे देश है जहां पर किसी न किसी प्रकार की तानाशाही पसरी हुई है और जिनसे लोकतांत्रिक संवर्ग छुटकारा पाने के लिए संघर्षरत है। चीन के साथ खड़े होने वाले देशों में सूडान, ईरान, पाकिस्तान, कजाकिस्तान, रूस, ट्यूनेशिया, विएतनाम, वेनेजुएला, क्यूबा सर्बिया, सउदी अरब, मिस्र, लीबिया आदि है। चीन ने दुनिया भर में बहिष्कार को लेकर काफी समय से कूटनीतिक सक्रियता दिखायी थी। अपने समर्थक देशों पर दबाव भी बनाया था। मकसद सिर्फ और सिर्फ नोबेल कमेटी को सबक सीखाना था। ऐसी बहिष्कार की प्रक्रिया से दुनिया भर में लोकतंत्र के प्रति संघर्ष की दीवार और कड़ी होंगी। साथ ही साथ तानाशाही जैसी प्रक्रिया चलेगीं। चीन की अराजक कूटनीतिक-सामरिक शक्ति को नजरअंदाज कर नोबेल कमेटी ने लोकतांत्रिक दुनिया को ही समृद्ध किया है। लिउ शियाबाओ की रिहाई और दुनिया भर में तानाशाही की समाप्ति के लिए वैश्विक जनमत को और मजबूती के साथ वैचारिक दबाव की प्रक्रिया चलानी होगी।
चीन लिउ शियाबाओं को किसी भी स्थिति में लोकतांत्रिक सेनानी नहीं मानता। चीन प्रचारित करता यह है कि लिउ शियाबाओ लोकतांत्रिक सेनानी नहीं बल्कि एक अपराधी है। वह भी खूंखार। लिउ शियाबाओ पर चीनी तानाशाही के खिलाफ आम लोगों को भड़काने का आरोप है। हिंसा फैलाने या फिर हिंसा के अन्य सभी प्रकार की प्रक्रियाओं से लिउ शियाबाओ का दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं है। पिछले ग्यारह साल से लिउ शियाबाओ चीनी जेलों में बंद है। लालच-प्रलोभन देने के सभी प्रकार के क्रियाओं के जाल मे लिउ फंसे नहीं। चीनी कम्युनिस्ट तानाशाही ने चीन छोड़ने की शर्त पर रिहाई का प्रलोभन दिया था। उस प्रलोभन को लिउ कैसे स्वीकार कर सकते थे। उनका एक मात्र घोषित लक्ष्य तो चीन की आबादी को तानाशाही से मुक्ति दिलाना है। थ्यैमैन चौक पर शांति पूर्ण प्रदर्शन करने वाले छात्रों पर जो तानाशाही टैंक चलवा सकती है और एक लाख से अधिक छात्रो को मौत का घाट उतार सकती है वह तानाशाही कम्युनिस्ट सत्ता लिउ शियाबाओं को लोकतांत्रिक सेनानी कैसे मान सकती है?सिर्फ लिउ की बात नहीं है। हजारो-हजार लोकतांत्रिक सेनानी चीनी जेलों में सड़ रहे हैं और उत्पीड़न की राजनीतिक प्रक्रिया झेल रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय नियामकों में चीन ने वायदे जरूर किये पर उन्होंने राजनीतिक बंदियों के साथ उदारता बरतने के साथ पेस आने के वायदे निभाये नहीं।
सतत संघर्ष की कसौटी पर लिउ शियाबाओं शांति के नोबेल के हकदार थे। नोबेल समिति ने सतत संघर्ष की कसौटी पर ही लिउ शियाबाओ को चुना था। नेल्सन मंडेला, सू ची की तरह लिउ शियाबाओ ने तानाशाही व्यवस्था को चुनौती दी है। जिस समय शियाबाओं का चयन हो रहा था उस समय भी चीन ने नोबेल समिति को प्रभावित करने और कूटनीतिक दबाव की प्रक्रिया चलाने को लेकर भयभीत किया था। नोबेल समिति ने जैसे ही यह घोषणा किया कि लिउ शियाबाओ को शांति का नोबेल दिया जायेगा, वैसे ही चीन आग बबुला हो गया। अपना गुस्सा शियाबाओ और उनके परिजनों पर उतारा। दुनिया भर में नोबेल समिति के खिलाफ अभियान चलाने की कूटनीतिक नीति अपनायी। अपने समर्थक देशों से नोबेल समिति और पुरस्कार समिति का बहिष्कार करने के लिए दबाव बनाया। यह भी स्थापित किया कि इस प्रकार की नोबेल नीति अंदरूणी हस्तक्षेप है जिससे उनकी संप्रभुता पर आधात पहुंचा है। भविष्य में यह आंच अन्य देशों पर भी बाल बनेगी।
यह मानने में हर्ज नहीं होनी चाहिए कि चीन के पास अराजक वीटो का अधिकार है और वह अराजक सामरिक शक्ति वाला देश है। दुनिया भर में सभी प्रकार की तानाशाही वाले देशों को चीन पहले से ही अपने पाले में कर छोड़ा है। संयुक्त राष्ट्रसंध में जब कभी तानाशाही देशों के खिलाफ प्रतिबंधों के प्रस्ताव आते हैं या फिर अन्य कार्रवाईयों की बात होती है चीन बीटो के अधिकार का प्रयोग कर देता है। ईरान, सूडान, म्यांमार जैसी तानाशाही व्यवस्था के खिलाफ इसी कारण संयुक्त राष्ट्रसंघ वेबस रहता है। नोबल पुरस्कार समारोह का जितने देश बहिष्कार किये हैं वे सभी किसी न किसी प्रकार तानाशाही सत्ता से लगाव रखते हैं और ये चीन के गोद में बैठे हुए हैं जिनका एकमात्र मकसद दुनिया भर में तानाशाही प्रक्रिया की शक्ति बढ़ाना और लोकतांत्रिक-अभिव्यक्ति की आवाज को कुंद करना है।
दुनिया के जनमत को और संघर्ष करना होगा। लोकतांत्रिक विचार प्रवाह की कसौटी को और मजबूत करना होगा। अंतर्राष्ट्रीय नियामकों की दोमंुही नीति चलती है। एक तो गरीब और कमजोर देशों के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय नियामकों का सौंटा जोर चलता है पर दूसरी ओर प्रसंग चीनी तानाशाही से जुड़ा होता है तब अंतर्राष्ट्रीय नियामकों को साप सुंध जाता है। इनकी हैंकड़ी गुम हो चुकी होती है। मानावाधिकार के धोर उल्लंधन और लोकतंत्र की प्रक्रिया पर उत्पीड़न की नीति अपनाने पर भी आज तक चीन को दंडित करने का साहस अंतर्राष्ट्रीय नियामकों में रही है? स्थिति तो यह रहती है कि चीन अंतर्राष्टीय नियामकों को ब्लैकमैलिंग कर अपना हिता साध जाता है। जैसा कि पिछला बीजिंग ओलम्पिक के आयोजन का अधिकार लेते समय चीन ने किया था। लिउ जियाबाओ की रिहाई तुरत सुनिश्चित होनी चाहिए। तिब्बत में चीनी अत्याचार बंद कराने के साथ ही साथ राजनीतिक बंदियों पर उदारता बरतने के लिए चीन पर दबाव बनाना चाहिए। नोबेल पुरस्कार समिति को लिउ शियाबाओं जैसे लोकतांत्रिक सेनानी को शांति का नोबेल देने के लिए सलाम।
सम्पर्क्र-
मोबाइल - 09968997060
बहिष्कार का तानाशाही अर्थ
विष्णुगुप्त
दो अंतर्राष्ट्रीय घटनाएं/ दो लोकतंत्र-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सेनानी। यानी जूलियन अंसाजे और लिउ शियाबाओ। अपने वेबसाइट विकीलीक्स पर अमेरिका की पोल खोलने वाले अभिव्यक्ति की सेनानी जूलियन अंसाजे की कथित बलात्कार के आरोप मे ब्रिटेन मे गिरफ्तारी हुई जबकि चीनी कम्युनिस्ट तानाशाही के विरोध और लोकतांत्रिक व्यवस्था के समर्थन में संषर्षरत लिउ शियाबाओ को दिये जा रहे नोबल पुरस्कार समारोह पर तानाशाही का ब्रजपात हुआ है। चीन ने नोबल पुरस्कार समारोह का न केवल बहिष्कार किया है बल्कि चीन के पक्ष में दुनिया के 20 से अधिक देशों ने भी नोबल पुरस्कार समारोह का बहिष्कार किया। बहिष्कार करने वाले वे देश है जहां पर किसी न किसी प्रकार की तानाशाही पसरी हुई है और जिनसे लोकतांत्रिक संवर्ग छुटकारा पाने के लिए संघर्षरत है। चीन के साथ खड़े होने वाले देशों में सूडान, ईरान, पाकिस्तान, कजाकिस्तान, रूस, ट्यूनेशिया, विएतनाम, वेनेजुएला, क्यूबा सर्बिया, सउदी अरब, मिस्र, लीबिया आदि है। चीन ने दुनिया भर में बहिष्कार को लेकर काफी समय से कूटनीतिक सक्रियता दिखायी थी। अपने समर्थक देशों पर दबाव भी बनाया था। मकसद सिर्फ और सिर्फ नोबेल कमेटी को सबक सीखाना था। ऐसी बहिष्कार की प्रक्रिया से दुनिया भर में लोकतंत्र के प्रति संघर्ष की दीवार और कड़ी होंगी। साथ ही साथ तानाशाही जैसी प्रक्रिया चलेगीं। चीन की अराजक कूटनीतिक-सामरिक शक्ति को नजरअंदाज कर नोबेल कमेटी ने लोकतांत्रिक दुनिया को ही समृद्ध किया है। लिउ शियाबाओ की रिहाई और दुनिया भर में तानाशाही की समाप्ति के लिए वैश्विक जनमत को और मजबूती के साथ वैचारिक दबाव की प्रक्रिया चलानी होगी।
चीन लिउ शियाबाओं को किसी भी स्थिति में लोकतांत्रिक सेनानी नहीं मानता। चीन प्रचारित करता यह है कि लिउ शियाबाओ लोकतांत्रिक सेनानी नहीं बल्कि एक अपराधी है। वह भी खूंखार। लिउ शियाबाओ पर चीनी तानाशाही के खिलाफ आम लोगों को भड़काने का आरोप है। हिंसा फैलाने या फिर हिंसा के अन्य सभी प्रकार की प्रक्रियाओं से लिउ शियाबाओ का दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं है। पिछले ग्यारह साल से लिउ शियाबाओ चीनी जेलों में बंद है। लालच-प्रलोभन देने के सभी प्रकार के क्रियाओं के जाल मे लिउ फंसे नहीं। चीनी कम्युनिस्ट तानाशाही ने चीन छोड़ने की शर्त पर रिहाई का प्रलोभन दिया था। उस प्रलोभन को लिउ कैसे स्वीकार कर सकते थे। उनका एक मात्र घोषित लक्ष्य तो चीन की आबादी को तानाशाही से मुक्ति दिलाना है। थ्यैमैन चौक पर शांति पूर्ण प्रदर्शन करने वाले छात्रों पर जो तानाशाही टैंक चलवा सकती है और एक लाख से अधिक छात्रो को मौत का घाट उतार सकती है वह तानाशाही कम्युनिस्ट सत्ता लिउ शियाबाओं को लोकतांत्रिक सेनानी कैसे मान सकती है?सिर्फ लिउ की बात नहीं है। हजारो-हजार लोकतांत्रिक सेनानी चीनी जेलों में सड़ रहे हैं और उत्पीड़न की राजनीतिक प्रक्रिया झेल रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय नियामकों में चीन ने वायदे जरूर किये पर उन्होंने राजनीतिक बंदियों के साथ उदारता बरतने के साथ पेस आने के वायदे निभाये नहीं।
सतत संघर्ष की कसौटी पर लिउ शियाबाओं शांति के नोबेल के हकदार थे। नोबेल समिति ने सतत संघर्ष की कसौटी पर ही लिउ शियाबाओ को चुना था। नेल्सन मंडेला, सू ची की तरह लिउ शियाबाओ ने तानाशाही व्यवस्था को चुनौती दी है। जिस समय शियाबाओं का चयन हो रहा था उस समय भी चीन ने नोबेल समिति को प्रभावित करने और कूटनीतिक दबाव की प्रक्रिया चलाने को लेकर भयभीत किया था। नोबेल समिति ने जैसे ही यह घोषणा किया कि लिउ शियाबाओ को शांति का नोबेल दिया जायेगा, वैसे ही चीन आग बबुला हो गया। अपना गुस्सा शियाबाओ और उनके परिजनों पर उतारा। दुनिया भर में नोबेल समिति के खिलाफ अभियान चलाने की कूटनीतिक नीति अपनायी। अपने समर्थक देशों से नोबेल समिति और पुरस्कार समिति का बहिष्कार करने के लिए दबाव बनाया। यह भी स्थापित किया कि इस प्रकार की नोबेल नीति अंदरूणी हस्तक्षेप है जिससे उनकी संप्रभुता पर आधात पहुंचा है। भविष्य में यह आंच अन्य देशों पर भी बाल बनेगी।
यह मानने में हर्ज नहीं होनी चाहिए कि चीन के पास अराजक वीटो का अधिकार है और वह अराजक सामरिक शक्ति वाला देश है। दुनिया भर में सभी प्रकार की तानाशाही वाले देशों को चीन पहले से ही अपने पाले में कर छोड़ा है। संयुक्त राष्ट्रसंध में जब कभी तानाशाही देशों के खिलाफ प्रतिबंधों के प्रस्ताव आते हैं या फिर अन्य कार्रवाईयों की बात होती है चीन बीटो के अधिकार का प्रयोग कर देता है। ईरान, सूडान, म्यांमार जैसी तानाशाही व्यवस्था के खिलाफ इसी कारण संयुक्त राष्ट्रसंघ वेबस रहता है। नोबल पुरस्कार समारोह का जितने देश बहिष्कार किये हैं वे सभी किसी न किसी प्रकार तानाशाही सत्ता से लगाव रखते हैं और ये चीन के गोद में बैठे हुए हैं जिनका एकमात्र मकसद दुनिया भर में तानाशाही प्रक्रिया की शक्ति बढ़ाना और लोकतांत्रिक-अभिव्यक्ति की आवाज को कुंद करना है।
दुनिया के जनमत को और संघर्ष करना होगा। लोकतांत्रिक विचार प्रवाह की कसौटी को और मजबूत करना होगा। अंतर्राष्ट्रीय नियामकों की दोमंुही नीति चलती है। एक तो गरीब और कमजोर देशों के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय नियामकों का सौंटा जोर चलता है पर दूसरी ओर प्रसंग चीनी तानाशाही से जुड़ा होता है तब अंतर्राष्ट्रीय नियामकों को साप सुंध जाता है। इनकी हैंकड़ी गुम हो चुकी होती है। मानावाधिकार के धोर उल्लंधन और लोकतंत्र की प्रक्रिया पर उत्पीड़न की नीति अपनाने पर भी आज तक चीन को दंडित करने का साहस अंतर्राष्ट्रीय नियामकों में रही है? स्थिति तो यह रहती है कि चीन अंतर्राष्टीय नियामकों को ब्लैकमैलिंग कर अपना हिता साध जाता है। जैसा कि पिछला बीजिंग ओलम्पिक के आयोजन का अधिकार लेते समय चीन ने किया था। लिउ जियाबाओ की रिहाई तुरत सुनिश्चित होनी चाहिए। तिब्बत में चीनी अत्याचार बंद कराने के साथ ही साथ राजनीतिक बंदियों पर उदारता बरतने के लिए चीन पर दबाव बनाना चाहिए। नोबेल पुरस्कार समिति को लिउ शियाबाओं जैसे लोकतांत्रिक सेनानी को शांति का नोबेल देने के लिए सलाम।
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