पत्रकार हैं या कांग्रेसी गुंडे
विष्णुगुप्त
पत्रकार हैं या कांग्रेसी रखैल गुंडे ? पत्रकार है या फिर अपराधी ? पत्रकार हैं या फिर दलाल ? पत्रकार हैं या फिर पैरोकार हैं ? कोई भी पत्रकार क्या कानून को अपने हाथ में ले सकता है और वह भी एक अपराधी के रूप में? अगर पत्रकार अपराधी की तरह कानून को अपने हाथ में लेकर मानवाधिकार हनन जैसा खेल खेलने लगे और वह भी सत्ता धारी कांग्रेस पार्टी को खुश करने के लिए तो ऐसे पत्रकारों को क्या क्या कहा जाना चाहिए? कोई एक-दो पत्रकारों ने अपनी अपराधी प्रवृति दिखायी होती तो शायद इतना बड़ा सवाल न उठता। एक दो नहीं बल्कि दर्जनों पत्रकारों ने एक साथ मिलकर क्रूरता की हदें लांधी/मानवाधिकार का गला घोटा/भारतीय दंड संहिता कानून का मखौल भी उड़या। एक ओर पत्रकार कांग्रेसी गुंडे के रूप में अपनी गुंडई दिखा रहे थे तो दूसरी ओर कांग्रेसी खड़े होकर मंद-मंद मुसकुरा रहे थे। कांग्रेसी मुसकारते क्यों नहीं आखिर वे जो करना चाहते थे उनके दलाल और रखैल पत्रकार कर रहे थे। एक-दो मिनट नहीं बल्कि आधे घंटे तक पत्रकारों द्वारा अपनी गुडई दिखायी गयी और मानवाधिकार को शर्मसार करने वाली आपराधिक क्रूरता को अंजाम देने मे प्रतियोगिता सरीखा खेल-खेला गया। सीने पर चढ़कर जूतों से शरीर को रौंदा गया। पत्रकारों का यह आपराधिक कुकृत्य तबतक चलता रहा जब तक कथित रूप से रामदेव बाबा और विश्व हिन्दू परिषद के शिष्य और कांग्रेस के महासचिव जनार्दन द्विवेद्वी को जूता दिखानेे वाला सुनील कुमार बेहोश नहीं हो गया। सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के कार्यालय में धटी उक्त लोमहर्षक और मानवाधिकार हनन वाले कुकृत्य ने कई सवाल खड़े किये हैं। इन सवालों में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पत्रकारिता को दलाल/गुंडे/अपराधी/पैरोकार/प्रो
संडे गार्डियन में प्रकाशित एक रिपोर्ट में साफ तौर पर खुलासा हुआ है कि गुंडई दिखाने वाले पत्रकारों को प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर कांग्रेस के बड़े नेताओं ने शाबाशी दी है। बिलाल नामक एक पत्रकार का चश्मा पिटाई करने के दौरान टूट गया था। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने नया चश्मा खरीदकर बिलाल के घर भेजा। अहमद पटेल ने भी बिलाल की कांग्रेसी स्वामिभक्ति की तारीफ करने के लिए बिलाल को टेलीफोन किया। जूता दिखाने वाले सुनील कुमार की पिटाई करने में बिलाल काफी आक्रमक था।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए इससे बूरी खबर और क्या हो सकती है कि राजनीतिक दलों के पैरोकार पत्रकारिता का चोला ओढ विभिन्न मीडिया हाउसों में बैठ गये हैं। ऐसे लोग पत्रकारिता को घुन की तरह चाट गये हैं। ये विभिन्न दलों के संरक्षक के तौर पर लेखनी चलाते हैं/पत्रकारिता चलाते हैं। अब ये लात/घूसे/जूते /चप्पल तक चलाने पर उतारू हैं। कल लाठी-गोली चलायेंगे। जरूरत पड़ी तो बम-टैंक लेकर भी दौड़ेंगे। ऐसे लोगों की फौज तैयार हो चुकी है। अब मर्सीनरी की तरह ये काम करने के लिए तैयार हैं। ऐसे में बदनाम पत्रकारिता होगी और घायल होगा लोकतंत्र।
कौन-कौन पत्रकार थे जिन्होंने जनार्दन द्विवेदी को जूता दिखाने वाले शख्स सुनील कुमार के सीने पर चढकर बूटों से रौंदा था। ऐसे अधिकतर पत्रकार उन चैनलों /अखबारों से थे जिनके मालिकों-सीनियरों का इतिहास पत्रकारिता की आड में दलाली करने का रहा है और जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर पत्रकारिता का गला घोटकर पत्रकार से चैनल/अखबार मालिक बन बैठे हैं। पत्रकारों ने कांग्रेस के रखैल गुंडे की भूमिका को जायज ठहराने और भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं से बचने के लिए नायाब तर्क खोज लिया। कांग्रेस के कार्यालय में बड़े चैनलों और अखबार के रिपोर्टरों ने यह धारणा बैठाने की विसात विछायी कि पत्रकारिता की छवि को बचाने के लिए उस सुनील की पिटाई जरूरी थी जो जनार्दन द्विवेदी पर जूता चलाने की कोशिश की थी।उसके इस कदम से पत्रकारों की न केवल छवि खराब हुई है बल्कि उसकी विश्वसनीयता पर आंच आयी है। ऐसी बात करने वाले और तर्क देने वालों में ऐसे पत्रकार भी थे जिनके मालिक और सीनियर दूरदर्शन के टेपों को बेच-बेच कर और दलाली कर-कर चैनल चलाने के लिए सैकड़ों-हजारों करोड़ का काला धन जुटाया और जिसकी बदौलत उनके चैनल चल रहे हैं/अखबार/मैगजीनें निकल रही हैं। टू जी स्पेक्टरम घोटाले में शामिल चैनलों के सीनियरों के मातहत भी जूता दिखाने वाले शख्त पर गुस्सा उतारे थे और लात-जूते से पिटायी की थी। ऐसे अखबारों और चैनलों के पत्रकारों को तब गुस्सा क्यों नहीं आया जब दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरे देश में एक मैसेज घूम-घूम कर पूरी पत्रकार विरादरी को दागदार और दलाल घोषित कर रहा था और वह भी मुन्नी बदनाम हुई के तर्ज पर। उस मैसेज का बोल था ‘ पत्रकारिता बदनाम हुई बरखा दत्त ‘ तेरे लिए / वीर संघवी और प्रभु चावला तेरे लिए लिए। टू जी स्पेक्टरम घोटाले में नीरा राडिया ने जिस तरह बरखा दत्त/प्रभु चावला और वीर संघवी को खरीदा और कुछ पैसों के लिए दलाली जैसी पत्रकारिता विरोधी कार्य्र किये उसे स्वच्छ पत्रकारिता व ईमानदार पत्रकारों की छवि खराब हुई है और अब तो ईमानदार पत्रकारों को पत्रकार कहने पर भी शर्म आती है। इसलिए कि आज जिस तरह से नीरा राडिया ने पत्रकारों को अपनी उंगलियों की काली करतूत पर नचाया और पत्रकार रातो रात मालिक बन रहे हैं उससे ईमानदार पत्रकारों की ईमानदारी व उनके लोकतांत्रिक मिशन को ही ठेस पहुंचा है। जुत्ता दिखाने वाले पत्रकारों पर गुंडई दिखाने वाले पत्रकारों की गुंडई बरखा दत्तों/वीर सांघवियों और प्रभु चावलाओं पर क्यों नहीं उतरती? बरखा दत्तों/वीर सांघवियों और प्रभु चावला जैसे पत्रकारिता के बदनाम करने वाले नामों के खिलाफ पत्रकारों की गुंडई क्यों नहीं चलती/उनकी मर्दानगी क्यों नहीं जागती?
सिर्फ पत्रकारिता के मूल्य/ सिद्धातों या फिर मानवाधिकार हनन जैसी बात ही नहीं है। पत्रकारों की यह करतूत इसे कहीं अधिक लोमहर्षक है/विषैला/ वीभत्स है। यह भारतीय दंड संहिता के तहत प्रमाणित तौर दंडनीय अपराध है। भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत कानून को अपने हाथ में लेना वर्जित है। क्या पत्रकारों को यह नहीं मालूम है कि अमानवीयता और क्रूरता के साथ किसी की पिटाई करना एक आपराधिक कुकृत्य है जिसकी सजा कठिन कारावास तक है। भारतीय दंड संहिता के अनुसार अपराधी की भी पिटाई नहीं की जा सकती है। अपराधी को सजा देने का हक सिर्फ न्यायपालिका को है। सुप्रीम कोर्ट ने भी बार-बार इस प्रसंग पर हिदायतें दी है और कानून को अपने हाथ में लेने वालों को सजा देकर सबक भी सिखाया है। अब सवाल यहां यह उठता है कि जूता दिखाने वाले शख्स की क्रूरता के साथ पिटाई करने वाले पत्रकारों को अपराधी क्यों नहीं माना जाना चाहिए? उनकी जगह जेल क्यों नहीं होनी चाहिए? यहां जूता दिखाने वाले शर्मा का पक्ष लेने का सवाल नहीं है। सुनील कुमार ने जूता मारा नहीं था। सिर्फ दिखाया था। डराना भी दंड प्रक्रिया में शामिल है। इसलिए सुनील कुमार पर कार्रवाई करने की जिम्मेदारी पुलिस पर थी। पुलिस ने उसके इस कार्रवाई पर उसे जेल में पहुंचाया भी है।
जूते/लात/हाथ से मारने के कूरता की प्रतियोगिता में लगे पत्रकारों की कौन सी मानसिकता काम कर रही थी? इनका लक्ष्य कहां था? इन पत्रकारों का लक्ष्य या मानसिकता पत्रकारिता की स्वच्छता कदापि नहीं थी। इनका एक मात्र लक्ष्य सत्ताधारी पार्टी की स्वामिभक्ति की प्रतियोगिता जीतनी थी। एक मात्र वजह यही था जिसके लिए पत्रकार संबंधित शख्त की क्रूर पिटाई में लगे हुए थे। पिटाई करने वाले पत्रकार कांग्रेस के नजरों में रातोरात स्टार बन गये होंगे और उनकी दलाली कांग्रेसी सत्ता में बढेगी। आखिर कांग्रेस क्यों नहीं पत्रकारों को पुरस्कार देगी? आखिर कांग्रेस जो काम करना चाहती थी वह काम उनके रखैल/दलाल पत्रकारों ने पूरा कर दिया। कांग्रेस का दामन भी गंदा नहीं हुआ। यही कारण है कि जब पत्रकार कूरता के साथ पिटाई कर रहे थे उस समय कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मनीष तिवारी/जनार्दन द्विवेदी मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी सुनील कुमार को तीन लातें मारी थी। अखबारों और चैनलों में दिग्विजय सिंह की लात मारने की खबरों का सेंसर हुआ क्यों? इसका उत्तर कौन देगा?
अगर ऐसी क्रूरता यूरोप और अमेरिका में हुई होती तो निश्चित मानिये कि पत्रकार जेल में पहुंच चुके होते और दिग्विजय सिंह की भी जगह जेल होती। पुलिस और न्यायपालिका स्वयं संज्ञान ले लेती। सत्ता की भी चुलें हिल जाती। पुलिस/मानवाधिकार आयोग औेर न्यायपालिका का सत्ताधारी कांग्रेस कार्यालय में घटी क्रूरता पर संज्ञान न लेना दुर्भायपूर्ण है। पुलिस से उम्मीद बेकार है। मानवाधिकार आयोग तो स्वायत्तशासी संवैधानिक निकाय है जिसे संज्ञान लेकर क्रूरता की जांच करनी चाहिए थी। कांग्रेस ने इसीलिए संवैधानिक संस्थाओं में चाटूकारों और जमीरविहीन लोगों को बैठाने का काम किया है। मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष बाला कृष्णण ने खुद कांग्रेसी कृपा पर रबडी पायी है और उन्हें आय से अधिक धन पर कांग्रेसी सत्ता का साथ चाहिए। ऐसी स्थिति में मानवाधिकार आयोग से उम्मीद बचती भी नहीं है। न्यायपालिका से देर-सबेर न्याय की उम्मीद बचती है।
पत्रकार संगठनों और पत्रकारों की अन्य निकायों और नियामकों की चुप्पी व उदासीनता भी दुर्भाग्यपूर्ण है।पत्रकारिता की स्वच्छता के लिए गुडे/रखैल/दलाल/पैरोकार/प्रोपटी डीलर सरीखे पत्रकारों की बाढ़ पर गंभीरता से विचार जरूरी है।
लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं और हिन्दी अखबारों में संपादक रह चुके हैं।
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जूता दिखाने वाला शख्स की पिटाई करने वाले गुंडे/दलाल/रखैल/पैरोकार सरीखे पत्रकारों की मर्दानगी तब कहां चली जाती है जब नीरा राडिया बरखा दत्तो/वीर सांघवियों/प्रभु चावलाओ को अपनी उंगलियों पर नचाती है और चंद पैसों के लिए ये राजा को मंत्री बनवाने मे पैरोकार बनकर पत्रकारिता को कंलकित करते हैं। कैसे रूकेगी गुंडे/दलाल/रखैल/पैरोकार प्रवृति के पत्रकारों की बाढ।
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