Saturday, August 21, 2010

मीडिया की ऐसी समझ क्यों और जनप्रतिनिधियों की अहर्ताएं

राष्ट्र-चिंतन
                सांसदों के वेतन वृद्धि प्रंसग
मीडिया की ऐसी समझ क्यों और जनप्रतिनिधियों की अहर्ताएं

विष्णुगुप्त

मैं न तो सांसद हू और न विधायक। एक सक्रियतावादी/राजनीतिक टिप्पणीकार होने के नाते जनप्रतिनिधियों की जिंदगी और उनकी समस्याएं-चुनौतियों को नजदीक देखा है। इसीलिए सांसदों के वेतन व्द्धि को लेकर उठने वाली आवाज और वह भी मीडिया की तरफ से आक्रोशित करने के लिए प्रेरित करती है। सांसदों का वेतन तिगुना बढ़ने से भी उनकी चुनौतियां समाप्त नहीं होती है। सांसदो का वेतन पांच लाख से कम नहीं होना चाहिए। तभी हम उनसे ईमानदारी और समर्पण जैसी अर्हताएं हासिल कर सकते है। सांसदो के वेतन बृद्धि से पहले और बाद में अखबारों और टीवी चैनलों पर जिस तरह की चर्चा हुई और जिस तरह से जनप्रतिनिधियों के खिलाफ आवाज उठायी गयी उससे मीडिया और मीडिया में बैठे हुए बड़े मठाधीश पत्रकारों की समझ व सरोकार पर तरस क्यों नहीं आयेगा। निजी चर्चाओं में भी पत्रकारों की समझ थी कि राजनेता जनता की समस्याओं और महंगाई जैसी चुनौतियों से देश को मुक्ति दिलाने की जगह अपनी तिजोरी भरने के लिए एकजुट हैं। सांसदों के वेतन वृद्धि को लेकर वैसे-वैसे पत्रकार भी कॉलम लिख कर विरोध जताने की प्रक्रिया चलायी और टीवी चैनलों पर बैठकर जनप्रतिनिधियों की खिल्ली उड़ायी जिनका पूरा जिदंगी ही बिलासिता से भरी पड़ी हुई है और उनका एक पैर देश में तो दूसरा पैर विदेशों में होता है। दिल्ली में जितने भी बड़े अखबार निकलते हैं उनके संपादकों का वेतन का पैकेज लाखों रूपये से कदापि कम नहीं है। लाखों  रूपये व्यूरो के रिपोर्टरों का वेतन पैकेज भी होता है। टीवी चैनलों के बड़े पत्रकारों का पैकज लाखों में होता है। लाखों रूपये वेतन पाने वाले पत्रकारों को कौन सी सामाजिक जिंदगी अनिवार्य रूप से निभानी पड़ती है। क्या ये मजदूरों या आम आदमी के दुख-दर्द से जुड़े होते है? आमलोगों की बात छोड़ दीजिए ये संधर्षशील या फिर नवांगुत पत्रकारों के टेलीफोन उठाने तक से कतराते है, जवाब देने की बात तो दूर रही। लाखों रूपये का पैकज लेकर काम करने वाले और सामाजिक दायित्वो से दूर रहने वाले पत्रकार अगर सांसदों के वेतन वृद्धि को लेकर सवाल उठाते हैं तो मीडिया का पूरा चरित्र जनतांत्रिक विरोधी हो जाता है। मीडिया की समझ पर भी गंभीर विचारण के लिए बाध्य करता है। यहां दो महत्वपूर्ण प्रश्न सामने आते हैं। प्रथम प्रश्न यह कि क्या क्या सांसदों का वेतन वृद्धि सही में गैर जरूरी है या फिर सांसद अपनी तिजोरी भरने में जनता की समस्याओं से दूर हो रहे हैं और दूसरा प्रश्न यह है कि मीडिया की समझ और ऐसी प्रक्रिया निर्मित क्यों होती है जिसमें देश की राजनीति की संपूर्ण दायित्वों और उन दायित्वों के निर्वाह्न की संपूर्ण आधार संरचनाओं पर साफ और सकारात्मक प्रतिक्रियाओं से दूर की समझ विकसित हो जाता है।
कितना जरूरी था वेतन वृद्धि.................
सभी सांसद न तो अमर सिंह/ राहुल बजाज/ जिंदल हैं और न ही मनमोहन सिंह जैसे नौकरशाह या विश्व बैंक मुद्रा कोष को नुमाइंदे। बहरहाल सासदों का वेतन तीन गुणा हो चुका है। क्षेत्र भत्ता और अन्य भत्ताओं में भी बढ़ोतरी हो चुकी है। पहले सांसदों का वेतन 16 हजार था। जूनियर कलर्क से भी नीचे का वेतन था। कई भत्ताएं और सुविधाएं जरूर थी। सबसे ज्यादा निशाना यही भत्ताएं और सुविधाएं ही बनी हैं। लेकिन यह भी समझ लेना चाहिए कि सांसदों को जो सुविधाएं हैं लगभग वह सुविधाएं सरकारी कर्मचारियोें-अधिकारियों को भी हैं। केन्द्र सरकार के सचिचों का वेतन देख लीजिये। इनका वेतन 80 हजार रूपये और आवास सहित अन्य सुविधाएं उन्हें मिली हुई है। जबकि एक सांसद को जिन प्रकार की चुनौतियां होती हैं और जिन प्रकार की समस्याओं से ये घिरे होते हैं क्या वैसी ही समस्याओं से अधिकारी घिरे होते हैं। जन प्रतिनिधि जनता के सेवक हैं। इसलिए उनकी समस्याएं विकराल हैं। सैकड़ों लोग सांसदों से मिलने और अपनी समस्याएं सुनाने प्रतिदिन आते हैं। प्रतिदिन आनेवाले सैकड़ों लोगों को चाय पिलाने/खाना खिलाने/ आर्थिक रूप से तंगहाल फरियादियों को घर भेजने और उनकी समस्याओं के समाधान के लिए अधिकारियों-कर्मचारियों को पत्र लिखने जैसी प्रक्रिया कितनी दुरूह होगी और उस प्रक्रिया को पूरा करने में कितनी आर्थिक शक्ति लगती होगी उसका अनुमान लगाना मुश्किल है। दिल्ली जैसे शहरों में एयरकंडिश्न में बैठकर चर्चा करने वाले और चिंता जताने वाले तथाकथित बुद्धीजीवी कभी कल्पना तक की है कि सांसदों का क्षेत्र कितना लम्बा/चौड़ा होता है? सांसदों का क्षेत्र 100 किलोमीटर से भी ज्यादा लम्बा-चौड़ा होता है। क्षेत्र ने केवल लम्बा-चौड़ा होता है बल्कि जगलों और पहाड़ो से घिरा होता है। गांवों में जाने के लिए सड़कों तक नहीं होती है। यानी की दुरूह क्षेत्रों में घुमने और जनता की समस्याओं को जानने के लिए जनप्रतिनिधियों को पहाड़ जैसी समस्याओं से दो चार होना पड़ता है। दिल्ली में इलाज कराने या अन्य कामों के लिए आने वाली क्षेत्र आबादी को सांसदो को न केवल खातिरदारी करनी पड़ती है बल्कि इलाज कराने व वापसी के लिए आर्थिक मदद भी उपलब्ध करानी पड़ती है।
अमेरिका-यूरोप के सांसदों से तुलना...............
अमेरिका-यूरोप की तुलना में हमारे सांसदों का जो वेतन और सुविधाएं मिलती हैं वह बहुत ही कम है। सुवधिाओं के नाम पर सिर्फ यात्रा/क्षेत्र और दूरभाष आदि ही हैं। जबकि अमेरिका-यूरोप के सांसदों को भारी-भरकम सुविधाओं के साथ ही साथ वेतन भी कम नही है। खासियत यह भी है कि अमेरिका-यूरोप के सांसदों के पास विशेषज्ञों की टीम रखने की सुविधाएं उपलब्ध है। विभिन्न समस्याओं पर शोध करने और संबंधित जानकारी उपलब्ध कराने के लिए टीम होती है जिसका भुगतान सांसदों को नहीं बल्कि सरकार को करनी पड़ती है। इसका लाभ यह होता है कि जनप्रतिनिधि किसी भी समस्या और चुनौतियों पर साफ और संपूर्ण समझ व जानकारी हासिल कर लेता है। इजरायल का उदाहरण भी जानना जरूरी है। इजरायल में प्रत्येक स्नातक को सांसदों के अधीन छह माह तक काम करना पड़ता है। इसका लाभ यह होता है कि प्रत्येक छात्र अपने देश की राजनीतिक चरित्र और सरोकार सहित चुनौतियों को न केवल समझ लेता है बल्कि उसका उपयोग वह भविष्य के जिंदगी को समृद्ध बनाने और देश की चुनौतियों का सामना करने के लिए करता है। यही कारण है कि चारो तरफ से अराजक और हिंसक मुस्लिम राष्ट्रों से घिरे होने के बाद भी इजरायल चटान के समान खड़ा है और वैश्विक नियामकों की चुनौतियों को भी इजरायल आसानी से अपने पक्ष में करने मे समझदार और सफल है।
 मीडिया की ऐसी समझ क्यों?............
मीडिया की ऐसी समझ क्यों है? मीडिया भारतीय लोकतंत्र की साफ/सही समझ क्यों नहीं रखता है? लोकतंत्र को स्वच्छ और समृद्ध बनाने के लिए जरूरी संसाधनों पर सकरात्मक सोच रखने की जगह नकरात्मक प्रतिक्रिया के प्रवाह में क्यों मीडिया बहने लगता है? असली चिंता की बात यह है कि मीडिया अब उतना देशज सरोकारी रहा नहीं जितना उम्मीद की जा रही है या फिर उसकी जिम्मदारी थी। लोकतंत्र/राजनीति मे जिस तरह से अपराधियों का बोलबला विकसित हो रहा है उसी तरह से मीडिया में दलालों और धनपशुओं का बोलबला बढ़ा है। पहले मीडिया में जो लोग आते थे उनका एकमेव सरोकार समाज सेवा होता था। येन-केन-प्रकारेण धन कमाना उद्देश्य कदापि नही होता था। नये-नये अखबारों और चैनलों के आज मालिक कौन लोग है? किसी का विल्डिर तो किसी का व्यापारी। इनका एक ही एजेंडा होता है दबाव बनाकर अपना व्यवसाय बढ़ाना। एक और बात महत्वपूर्ण है। आज पत्रकार कारखाने में पैदा किये जा रहे हैं। कुकुरमुत्ते की तरह आज पत्रकारिता कालेज खुले हुए है। लाखों रूपये लेकर पत्रकारिता का पढ़ाई पढ़ रहे हैं। पत्रकारिता शिक्षण संस्थानों में न तो उत्कृष्ट पत्रकार होते हैं और न ही अच्छे टीचर। देश की समस्याओं और चुनौतियों से भी उन्हें ठीक ढंग से प्रशिक्षित नहीं किया जाता है। सिर्फ पत्रकारिता की कानूनी अर्हताएं पूरी कर इन्हें पत्रकारिता की प्रक्रिया में ढंकेल दिया जाता है। कारखाने से निकलने वाले पत्रकारों की समझ कितनी हो सकती है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। यही कारण है कि मीडिया में सांसदों के वेतन वृद्धि को लेकर सवाल खड़े किये जाते हैं।
पूंजी का खेल.......................
पूंजी के खेल को क्यों नहीं समझना चाहिए। पूंजी का खेल है लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर करना/ छवि को दागदार बनाना और विश्वसनीयता का कबाड़ा निकालना। भूंमंडलीकरण के साथ ही साथ हमारे देश में जनप्रतिनिधियों को दागदार बनाने और विश्वसनीयता से दूर करने का खेल शुरू हो गया था। इसीलिए मीडिया सहित अन्य बुद्धीजीवियों के तबके से लगातार जनप्रतिनिधियों की ईमानदारी पर सवाल उठाने की प्रक्रिया चलती रहती है। लोकतंत्र पर आज संपूर्ण राजनीतिक चरित्र वाले शख्सियतों की जगह नौकरशाही जैसी शख्यितो को बैठने का मार्ग क्या नहीं बनाया जा रहा है। मनमोहन सिंह जैसी शख्सियत किस श्रेणी के देन है। अगर ऐसी शख्यित नहीं बैठगी तो फिर पूंजी का खेल और भंूमंडलीकरण की लूटवाली नीतियां लागू कैसे होगी। नौकरशाही मजबूत कैसे होगी? ऐसे खेल में जाने-अनजाने मीडिया भी शामिल हो जाता है। एक तरफ तो जनप्रतिनिधियों से ईमानादारी की उम्मीद की जाती है और दूसरी तरफ जनता की समस्याओं और चुनौतियों से भी जुझने की वकालत जाती है पर आर्थिक संसाधन उपलब्ध कराने पर सवाल भी खड़ा किया जाता है। ये दोहरापन क्यों? इसे दुर्भाय ही कहा जा सकता है कि सांसदों को अपने वेतन वृद्धि के लिए जुझना पड़ता है। तिगुना वृद्धि जरूर हुई है पर यह भी कम है। कमसे कम पांच लाख वेतन होना चाहिए। सासंदों के सामने चुनौतियांें को देखते हुए यह राशि भी बहुत ज्यादा नहीं है।
    
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Monday, August 16, 2010

किसानों की सस्ती जमीन और कारपोरेटेड तिजोरी

राष्ट्र-चिंतन


‘यमुना एक्सप्रेस वे ‘ प्रसंग
किसानों की सस्ती जमीन और कारपोरेटेड तिजोरी

विष्णुगुप्त

हिन्दी इलाकों में किसानो का यह आंदोलन और पुलिस की गोली क्या कारपोरेटेड तिजोरी और सरकारों के खिलाफ कोई नयी और प्रभावकारी राजनीतिक संरचना व परिधि खड़ा कर पायेगी? असली विचारण का विषय यही है। यह भी सही है कि बहुत दिनों के बाद हिन्दी क्षेत्र में किसानों का कोई सशक्त आंदोलन खड़ा हुआ है वह भी कारपोरेटेड तिजोरी और सरकार की किसान विरोधी गठजोड़ के खिलाफ। मथुरा, अलीगढ़ और गाजियाबाद के जिन क्षेत्रों में किसानों की आवाज ने हठधर्मी-बेलगाम मायावती की सत्ता हिलायी वह क्षेत्र निश्चिततौर पर किसानों की एकजुटता और अस्मिता की पहचान के लिए जानी जाता है। महेन्द्र सिंह टिकैत ने किसानों की आवाज और हित का पुर्नजागरण किया है। चरण सिंह इन्ही इलाकों में किसानों के दुख-दर्द/ पीड़ा की राजनीतिक शक्ति बटौरी थी और मुख्यमंत्री/प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुचे थे। हालांकि महेन्द्र सिंह टिकैत ने किसानों की समस्याओं और अस्मिता को लेकर पश्चिम उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली तक हहाकार मचायी थी पर सरकारों के कारपोरेटी संस्कृति और कारपोरेटी तिजोरी के साथ गठजोड़ ने किसानों के हितों पर डाका डाला और किसानों को हाशिये पर भेज दिया। किसानों के सामने बेकारी/तंगहाली/भूख/ अपमान की दीवार धिरती चली गयी। सरकार की एक भी ऐसी योजनाओं का नाम लिया जा सकता है जिसमें किसानों की भलाई और उनकी खेती की आधारभूत संरचनाएं सरकार की असली प्राथमिकता में शामिल हो और क्या उसके लिए सरकार की क्रियाशीलता अनवरत जारी रहती है? कार के लिए वित्तीय संस्थाएं सात/आठ प्रतिशत व्याज की दर पर कर्ज देती हैं पर किसानों को कृषि समान के लिए व्याज की दर 14/15 प्रतिशत से उपर होती है। यमुना नदी के किनारे किसानों की अति उपजाउ-किमती जमीन को औने-पौने दाम मे बलपूर्वक अधिग्रहित कर जेपी ग्रुप को दी गयी। उससे किसानों का उपजा हुआ गुस्सा कभी भी अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता है। दुखद तो यह है कि किसानों की ंिचता दूर करने की जगह किसानों पर गोलियां बरस रही हैं। क्या यही है लोकतांत्रिक व्यवस्था?

तिजोरीकरण का दौर...............

जिस दौर में किसान/मजूदर और मध्यमवर्ग हासिये पर जा रहे हैं और शोषण/उपेक्षा का अनवरत शिकार हो रहे हैं वह भंूमंडलीकरण का दौर है। यानी तिजोरीकरण का। दुनिया भर में तिजोरीकरण का क्र्रूर चेहरा दिख रहा है और प्राकृतिक संसाधनों के साथ ही साथ किसान/मजदूरों/ मध्यम वर्ग के हितो पर कुठराधात कर कारपोरेट संस्थाएं/धराने / संस्कृतियां अपनी तिजोरियां भर रहीं है। निर्धन देश और विवासशील देश खासेतौर पर तिजोरीकरण के शिकार हैं। अधिकतर निर्धन देशों में तानाशाही या मजहबी व्यवस्थाएं जहां पर आम आदमी के सरोकारों और हितों की अनदेखी और कुटीरधात कोई खास मायने नहीं रखती है। पर भारत जैसे लोकतांत्रिक देष में कारपोरेटी लूट और तिजोरीकरण की राजनीतिक प्रक्रिया का खतरनाक उपस्थिति जरूर उत्पन्न कर चिंता और आक्रोश का विषय है। इसलिए कि हमारे देश में शासन-प्रशासन लोकतांत्रिक व्यवस्था से चलता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था मे समाज के सभी अंगों के विकास और उनके हित सुरक्षित रखने की अर्हताएं शामिल हैं। पर हमारा लोकतांत्रिक व्यवस्था क्या सही अर्थो मे आम आदमी के विश्वास का प्रतिनिधित्व करता है? क्या इस व्यवस्था में अब आम आदमी के हित सुरक्षित हैं?उत्तर होगा कदापि नहीं। यही कारण है कि आज देश के सुदुर भागों में राष्ट्रवाद/ लोकतंत्र की जड़े हिल रही हैं और चरमपंथी व्यवस्थाएं हिलौर मार रही हैं। अपनी फरियाद को लेकर आम आदमी नक्सली संगठनों के पास जा रहे हैं। प्रधानमंत्री खुद इस पन्द्रह अगस्त पर लाल किले के प्राचीर से नक्सलवाद को देश की सबसे खतरनाक समस्या/ चुनौती बता चुके है। फिर भी प्रधानमंत्री सहित अन्य सभी सरकारों और राजनीतिक पार्टियां अपनी जनविरोधी संस्कृति छोड़ने के लिए तैयार क्यों नहीं है।

सिंदुर ग्राम का सबक...................

पश्चिम बंगाल में सिंदुरग्राम और ममता बनर्जी के संघर्ष से हमारी सरकारें सबक क्यों नहीं लेती है? मायावती और जिस तरह से अराजक और बेलगाम है और किसानों पर लाठी/गोली बरसा रही है उसी तरह से पश्चिम बंगाल का वाममोर्चा सरकार भी बेलागाम थी/अराजक थी। उसे अपने मसलपावर की सत्ता राजनीति/रणनीति पर अति आत्मविश्वास था। खुशफहमी भी कह सकते हैं। उपजाउ जमीन छीनने और टाटा की तिजोरी भरने पर उतारू सीपीएम की सरकार की कैसी स्थिति हुई है, यह भी जगजाहिर ही है। टाटा को पश्चिम बंगाल की धरती को छोड़कर भागना तो पड़ा ही इसके अलावा 30 सालों से सत्ता में बैठी सीपीएम की सत्ता चलचलायी दौर में भी पहंुच गयी है। ममता बनर्जी आज लगातार राजनीतिक तौर पर मजबूत हो रही है और सीपीएम की सत्ता पर कील पर कील गाड़ रही है। ममता के संघर्ष और सीपीएम की हुई दुर्गति से भी हमारी सरकारें सबक लेने के लिए तैयार नहीं है। अगर सबक लेने के लिए तैयार होती तो फिर किसानों को देश भर में अपनी अस्मिता बचाने और पुरखैनी जमीन को बचाने के लिए संघर्ष करने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ता। सिर्फ पश्चिम उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि उड़ीसा/आंध्रप्रदेश/कर्नाटक/ झारखंड/ छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेशों मे भी राज्य सरकारें किसानों की उपजाउ भूमि बलपूर्वक अधिग्रहित कर कारपोरेटेड तिजारी भर रही है। इन जगहों पर किसानों की कितनी खतरनाक चुनौती और संधर्ष का सामाना करना पड़ रहा है। यह भी जगजाहिर ही है।

युमना एक्सप्रेस वे............

यमुना एक्सप्रेस वे किसानों की अति उपजाउ भूमि जा रही है। नोएडा से आगरा के बीच बनने वाली यह एक्सप्रेस वे 165 किलोमीटर लम्बा है और आठ लेन की है। इतनी लम्बी/चौड़ी सड़क में किसानों की अति उपजाउ और कीमती जमीन ओने/पोने दाम पर सरकार अधिग्रहित कर ली। एक सामान मुआबजा दर भी नहीं तय किया गया। नोएडा और गाजियाबाद जिलों को मुआबजा राशि ठीक-ठाक तो थी पर जमीन जाने से होने वाली चुनौतियों के आस-पास भी नहीं थी। सबसे अधिक उदासीनता और अन्याय अलीगढ/मथुरा आदि जिलों के किसानों के साथ बरती गयी। अलीगढ और मथुरा जिले के किसानों को जो मुआबजा राशि तय हुई वह राशि उंट के मुंह में जीरे के सामान थी। मुआबजा राशि को लेकर आक्रोश कोई एक दो दिन में नहीं पनपा। लम्बे समय से इसकी सुगबुगाहट चल रही थी। मायावती सरकार ने किसानों की मांगों को अनसुना कर दिया। हार कर किसान अपनी फरियाद लेकर न्यायपालिका के पास गये। न्यायपालिका भी किसानों को राहत देने से इनकार कर दिया और मायावती सरकार के रूख पर मुहर लगा दिया। ऐसी स्थिति में किसानों को हिंसक आंदोलन करने के लिए बाध्य होना पड़ा। यहां एक बात और महत्वपूर्ण है। जिस पर गंभीर चर्चा की जरूरत है। सरकार औने-पौने दाम पर किसानों की उपजाउ जमीन लेकर कारपोरेट को देगी और कारपोरेट कम्पनियां उस जमीन के आधार पर बेहिसाब दौलत कमायेगी। यमुना एक्सप्रेसवे बनाने वाली जेपी ग्रुप यमुना एक्सप्रेसवे पर टौल टैक्स वसूलेगी। उसी यमुना एक्सप्रेसवे पर आवागमण करने के लिए किसानों को टौल टेक्स चुकाना पड़ेगा। आखिर लूट-डकैती वाली सरकारी नीति हमारे देश में कब समाप्त होगी।

राजनीतिक पार्टियां एक ही राह पर
किसानों के गुस्से और चिंता के प्रबंधन की जरूरत थी। मुआबजे को लेकर किसानों की चिंता पर मायावती सरकार ध्यान देती। पर किसानों के गुस्से ओर चिंता का प्रबंधन लाठी-गोली से करना लोकतंत्र में कहां की नीति और न्याय है। भोपाल गैस कांड की तरह अलीगढ़/मथुरा जिलों के किसानों के खिलाफ सरकार और न्यायपालिका साथ खड़ी हो गयी। हिंसा होने पर ही मायावती की सरकार क्यों जागी। अगर पहले जाग जाती तो न तो हिंसा होती और न ही किसानों की जोनें जाती। पुलिस की गोली से मरने वाले किसानों की जान की कीमत पांच लाख आकी गयी है। यह भी एक प्रकार की सरकारी हिसंा कही जा सकती है। किसानों के आंदोलने के साथ राजनीतिक पार्टियां जुड़ी हैं पर यह सही है कि सभी राजनीतिक पार्टियां इस मसले पर एक ही राह पर चलती हैं। वह राह है कारपोरेटेड तिजारी को और मालोमाल करना। क्या इस पाप से मनमोहन सरकार मुक्त है? क्या कर्नाटक में किसानों के साथ भाजपा सरकार अन्याय नहीं कर रही है? क्या मुलायम सिंह सरकार ने किसानों की उपजाउ जमीन रिलायंस के हाथों नहीं बेची थी। किसानों को सभी राजनीतिक पार्टियों से सावधान रहना होगा। इनके जालों में फंसने की जगह स्वयं आंदोलन की अगुवाई करनी होगी। किसानों का उठा आक्रोश मायावती के लिए काल साबित हो सकता है। निष्कर्ष यह है कि किसानों का आंदोलन देश में नयी राजनीतिक प्रक्रिया तो बनायेगी ही इसके अलावा कारपोरेटी लूट पर भी कील गाडेगी।


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Saturday, August 14, 2010

बायोमेट्रिक्स जनगणना पर विरोध का तर्क और साजिशों का जाल

राष्ट्र-चिंतन
बायोमेट्रिक्स जनगणना  पर विरोध का तर्क और साजिशों का जाल

विष्णुगुप्त



‘बायोमेट्रिक्स जनगणना‘ पिछड़ी आबादी के साथ एक बड़ी साजिश थी और जनगणना को लेकर चले पिछड़ी आबादी के विचार प्रवाह को दफन करने की रणनीति थी। जाहिरतौर पर यह साजिश और रणनीति वही कांग्रेस ने बुनी थी जो आजादी प्राप्ति के बाद से ही पिछड़ी राजनीति और पिछड़ी आबादी के भविष्य व उन्नति पर कील ठोकती रही है। केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने जब जातीय जनगणना के निर्णय की घोषणा की थी तब वैसे लोग भी भ्रम में पड़ गये थे जो जातीय जनगणना को लेकर वैचारिक व राजनीतिक विचार प्रवाह में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। इतना ही नहीं बल्कि केन्द्रीय मंत्रिमंडल और कांग्रेस के इस बायोमेट्रिक्स जनगणना के निर्णय से चमत्कृत होने और बधाई देने तक की प्रवृतियां भी हिलौर मारने लगी थी। ऐसी प्रवृतियो के साथ पिछड़ी राजनीति से जुड़ी पार्टियां भी शामिल थी। मेरे जैसे कुछ सक्रियतावादियों ने केन्द्रीय मंत्रिमंडल के बायोमेट्रिक्स जनगणना की थ्योरी की पड़ताल की तो साजिश की परतें खुलती चली गयी। यानी सांप भी मर जाये और लाटी भी न टूटे। जब इस साजिश की बातें राजनीतिक हलकों तक पहुंचायी गयी तब राजनीतिक हलकों में कांग्रेसी सरकार की असली नीतियां उजागर हुई और दूसरे दिन लोकसभा में शरद यादव/मुलायम सिंह यादव/ लालू यादव/ गोपीनाथ मुंडे सहित अन्य राजनीतिज्ञों ने हंगामा खड़ा किया और पिछड़ी आबादी के खिलाफ साजिश को दफन करने का काम किया। पिछड़ी आवाज से कांग्रेस का असली चेहरा भी उजागर हुआ और प्रणव मुखर्जी को यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा कि पिछड़ी आबादी की जनगणना की प्रक्रिया पर पूर्ण रूप से अंतिम निर्णय नहीं हुआ है। मंुड जनगणना ही एक मात्र रास्ता है जिससे जातियों की जनसंख्या विवादहीन और सटीक तय हो सकती है। जातीय जनगणना के विरोधी स्वर्णवादी मानसिकता से ग्रसित है और पिछड़ी आबादी के भविष्य-उन्नति के लूटेरे भी हैं।
बायोमेट्रिक्स जनगणना के खतरे-----------

अब यहां यह सवाल उठता है कि बायोमेट्रिक्स जनगणना के खतरे क्या है? क्या यह पद्धति जातीय जनगणना की चाकचौबंद और दबावहीन स्थितियां प्रदान कर सकती हैं। उत्तर कदापि नहीं। इसलिए कि बायोमेट्रिक्स जनगणना के रास्ते अभी तक तय नहीं हुए हैं और वर्तनाम में बायोमेट्रिक्स जनगणना की पूरी सूरत ही नहीं बनी है। चुनाव आयोग अभी तक पूरी वयस्क आबादी को वोटर आईडी कार्ड तक नहीं दे सका है। इतना ही नहीं बल्कि बायोमेट्रिक्स जनगणना या फिर नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर तैयार करने की भी पूरी संरचना अधुरी है। संरचना के लिए जो आधारभूत संसाधनों की जरूरत होगी, वह भी निर्धारित नहीं है। जिस यूनिक पहचान पत्र के माध्यम से जनगणना की बात कही जा रही है उसकी भी एक स्थिति को अवलोकन क्यों नहीं करना चाहिए। सभी नागरिकों को यूनिक आईकार्ड देने और नेशनल पोपुलेशन रजिस्टर में नागरिकों का पूरा खजाना भरने में सैकड़ों साल भी लग सकते हैं। अगले चार साल में मात्र 6 करोड़ नागरिकों को यूनिक आईकार्ड देने का सरकारी निर्धारण है। इस देश की जनसंख्या लगभग डेढ़ अरब है। चार साल में डेढ़ अरब की जनसंख्या में मात्र 6 करोड़ लोगों को ही यूनिक आईकार्ड दिया जायेगा। यानी कि अगले चार साल में सरकार सिर्फ 6 करोड़ नागरिकों की जातीय जनसंख्या दर्ज कर पायेगी। बायोमेट्रिक्स जनसंख्या के तहत जातीय जनणना घर-धर जाकर तय नहीं होगी बल्कि उन्हें कैम्पों में बुलाकर जाती पूछी जायेगी और दर्ज की जायेगी। कैम्पों में पिछड़ी आबादी के साथ उत्पीड़न और भय जैसी राजनीतिक प्रक्रिया क्यों नहीं चल सकती है। दबंग और स्वर्ण जातियां पिछड़ी आबादी को कैम्पों मे जाने और अपनी जाति दर्ज कराने में भय और दंड का सहारा लेगी इससे इनकार नहीं किया जा सकती है। इसके अलावा बायोमेटिक्स जनगणना में सिर्फ 15 वर्ष से उपर की आबादी की ही जनणना होगी। बायोमेटिक्स जनगनणा राष्ट्रीय पोपुलेशन रजिस्ट्रर बनाने के लिए विकसित की गयी है। राष्ट्रीय पोपुलेशन रजिस्टर गोपनीय होगी। ऐसे में सरकार ईमानदारी पूर्वक पिछड़ी आबादी की जनसंख्या बता सकती है। क्या सरकार के पास गलत आकंडे पेश करने की सहुलियत नहीं होगी।
मालसा गांव का उदाहरण देख लीजिये------------------

मालसा गांव का उदाहरण हमारे सामने है। कैसे स्वर्ण जातियां पिछड़ी-दलित जातियों की राजनीतिक और सामाजिक शक्ति को न सिर्फ अपने जुतों तले रौंदी बल्कि भारतीय लोकतंत्र को भी दागदार कर दिया है। मालसां गांव उत्तर प्रदेश मे है जहां पर दलित महिला मायावती मुख्यमंत्री है। मालसा गांव में पंचायत चुनाव पिछले कई वर्षो से लम्बित है। यह कहिये कि स्वर्ण जातियां ग्राम प्रधान का चुनाव ही नहीं होने देना चाहती है। इसके लिए भय और दंड का बाजार गर्म कर रखा है। मलसा गांव का प्रधान का पद दलित के लिए आरक्षित है। गांव के स्वर्ण जातियों को यह कबूल नहीं है कि कोई दलित गांव का सरपंच हो और उनके सामने जाकर उन्हें फिरयाद करने के लिए मजबूर होना पड़े। चुनाव आयोग ने सात बार प्रधान पद के चुनाव की अधिसूचना जारी की और नामांकन की तिथियां तय की पर कोई भी दलित नामांकन करने के लिए सामने नहीं आया। कारण स्वर्ण जातियों से दंड का भय। उत्तर प्रदेश का दलित मुख्यंमत्री भी स्वर्णो के सामने हार गयी और मालसा गांव के प्रधान का पद जनरल करने का प्रस्ताव कर दिया। जब एक दलित मुख्यमंत्री स्वर्णो के सामने झुक सकती है और दलित को आरक्षण का लाभ नही दिला सकती है तब यह कैसे संभव है कि बायोमेट्रिक्स जनगणना के लिए स्थापित कैम्पों में पिछड़ी आबादी के साथ कहर नहीं बरप सकता है? देश के दूर-दराज इलाकों में अभी भी पिछड़ी-दलित आबादी पुर्नजागरण दबंग और स्वर्ण जातियों के सामने कोई महत्व नहीं रखता है।
पिछड़ो के खिलाफ साजिशों की कहानी----------------
पिछड़ों के खिलाफ राजनीतिक साजिशें और उन्हें हासिये पर भेजने का गुनाहगार नेहरू थे। नेहरूकालीन यह नीति अभी तक चली आ रही है। साजिशों में स्वर्णवादी राजनीति के साथ मीडिया की बराबर की भागीदारी रही है। सही तो यह है कि सवर्णवाद के लिए भारतीय सत्ता, धर्म और मीडया एक उधोग है और आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक शक्ति-प्रभुत्व को बनाये ही रखने का ही नहीं बल्कि अपने संवर्ग को और शक्तिशाली, और समृद्ध करने का माध्यम भी है। इस उद्योग में उनका निवेश क्या? क्या श्रर्म है? अधिक बुद्धि है? समर्पण है? नहीं। इनका निवेश है-राजनीतिक प्रपंच, छल-कपट और समाज के निर्धन-वंचित समूहों को धोखेबाजी सहित प्रत्यारोपित तथ्य व आंकडों के भूल-भूलैये की जाल में कैद कर रखना। ंयकीन मानिये अगर 1977 मे राम मनोहर लोहिया की बर्चस्व वाली धारा सत्ता में नहंी पहुची होती तो न मंडल कमीशन का गठन होता और न ही पिछड़ों के आरक्षण की नीति बनती।मंडल आरक्षण व्यवस्था किसी की दया से नहीं निकली हुई है। संविधान प्रदत्त प्रक्रिया है। क्या अभी तक मंडल कमीशन की रिपोर्ट को पूर्ण रूप से लागू किया गया? क्या इसमें राजनीतिक बईमानी नहीं हुई? क्या पिछड़ों को अशिक्षित रहने और विकास प्रक्रिया से बाहर रखने की साजिश नहीं हुई? सरकारी नौकरियो में 27 प्रतिशत की आरक्षण लागू जरूर हुआ पर उच्च शिक्षण संस्थाओं में पिछड़ो की आरक्षण की व्यवस्था पर अभी भी चुनौतियां खड़ी हैं। उच्च शिक्षण संस्थाओं सहित अन्य सरकारी नौकरियों में पिछड़ों के सीटों को खाली बताकर अगड़ों को मौका देने का खेल क्या नहीं चल रहा है? साजिशें यह है कि अगर पिछड़ों की सही जनसंख्या सामने आ गयी तो निश्चित तौर पर भारतीय राजनीति/ सामाजिक/ आर्थिक व्यवस्था पर पिछड़ों की धमक बढ़ेगी। यह स्थिति स्वर्णवादी राजनीतिक/ सामाजिक / आर्थिक संस्कृति / वर्चस्व को स्वीकार कैसे हो सकता है?
मंुड जनगणना सर्वोत्तर पद्धति............

मुंड जनगणना ही सर्वोत्तर पद्धति हो सकती है। जिसके माध्यम से देश की जातीय जनसंख्या की सही तस्वीर हासिल हो सकती है। मुंड जनगणना के माध्यम से देश की 24 प्रतिशत की आबादी की जातीय जनगणना हो चुकी है। दलित और आदिवासी जनसंख्या की 2001 गणना में हो चुकी है। मनमोहन सिंह सरकार का मत है कि जातीय जनगणना एक दुरूह कार्य है। मनमोहन सरकार का यह तर्क समझ से परे है। जब 2001 में देश की 24 प्रतिशत आबादी की जातीय जनगणना हो चुकी है तब मौजूदा जनगणना में जातीय गणना कैसे दुरूह कार्य हो सकती है। यह भी कहा जा रहा है कि समय कम है और जनगणना का टाइम निर्धारित है। क्या जनगणना कार्य की अवधि बढ़ाना भी कोई संवैधानिक संकट के अंदर आता है? सिर्फ और सिर्फ यह एक बहाना ही नहीं बल्कि साजिश है। जातीय जनगणना के विचार प्रवाह को दफन करने की साजिश है। सरकार के सामने न तो कोई चुनौती है और न ही कोई बाधा। सरकार जनगणना की समय अवधि बढ़ा सकती है। अगले साल के फरवरी में सरकार जातीय जनगणना करा सकती है। मुड जनगणना से पिछड़ी आबादी भय मुक्त होकर अपनी पहचान बता सकती है। क्योंकि उनके सामने बायोमेट्रिक्स कैम्पों में जाने जैसी बाध्यता होगी नहीं। घर-घर जाकर जनगणनाकर्मी जातीय संख्या दर्ज करेंगे। ऐसा तब होगा जब सही में मनमोहन सरकार पिछड़ी आबादी के प्रति ईमानदार होगी।
सशक्त आवाज की जरूरत...........................
अभी भी जरूरत सशक्त आवाज की है। जब तक पिछड़ी राजनीति/ सामाजिक संवर्ग दबाव की प्रक्रिया को चाकचौबंद नहीं बनायेंगे और बाध्यकारी विचार प्रवाह को गति नहीं देंगे तबतक मनमोहन सरकार की ईमानदारी न तो सामने आ सकती है और न ही बायोमेटिक्स पद्धति जैसी साजिशों का जाल आगे भी सामने आने से रूकेगा रहेगा । पिछड़ी आबादी की संख्या की जनगणना को टालने का खेल जारी रहेगा। देश में ऐसी कई राजनीतिक पार्टियां हैं जिनका आधार ही पिछड़ी आबादी रही है। जद यू, सपा, राजद, द्रुमक जैसी पार्टियो ने पिछड़ी आबादी के सहारे ही राजनीतिक कामयाबियां हासिल की है। भाजपा और कांग्रेस भी पिछड़ों का समर्थन लेने का खेल खेलती है। पर पिछड़ो के अनुपातिक प्रतिनिधित्व पर ईमानदारी दिखाने में राजनीतिक पार्टियां पीछे रह जाती हैं। सकारात्मक पहलू यह है कि पिछड़ी आबादी के लिए पिछड़ी संवर्ग वाली राजनीतिक पार्टियां सक्रिय हैं। पर पिछड़ी आबादी को भी अपना महत्व दिखाना होगा, राजनीतिक ताकत दिखानी होगी और जातीय जनगणना को लेकर साजिशों पर सक्रियता दिखानी होगी।

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Friday, August 6, 2010

आईएसआई के फंदे में घाटी/ भारतीय सत्ता/ कूटनीति

राष्ट्र-चिंतन



आईएसआई के फंदे में घाटी/ भारतीय सत्ता/ कूटनीति


विष्णुगुप्त






                                                            आईएसआई के फंदे में भारतीय सत्ता/ कूटनीति पूरी तरह से फंस गयी है। कश्मीर घाटी पहले से ही आईएसआई के फंदे में फंसी हुई है। आईएसआई जो करना चाहती थी और जो उसका लक्ष्य था उसके आस-पास वह पहुंच ही गयी है। यानी की कश्मीर में हिंसा का जनतांत्रिककरण करना और कश्मीर की समस्या का अंतर्राष्ट्रीयकरण कर भारत की राष्ट्रीय एकता पर कैंची चलाना। आईएसआई ने अपनी पूर्व नीति बदली और उसने नया रास्ता चुना। आईएसआई को यह मालूम था कि वर्तमान दौर में उसकी कश्मीर घाटी पर पुरानी आतंकवादी नीति नहीं चलेगी। अंतर्राष्ट्रीय दबावो और जनमत के बुलडोजर से उसे लहूलुहान होना पड़ सकता है। इसलिए उसने कश्मीर में आतंकवादियों को बंदूक की जगह पत्थर थमा दिया। हमारे गृहमंत्री पी. चिदम्बरम लोकसभा में यह स्वीकार कर चुके हैं कि पत्थरबाजी में आतंकवादी शामिल हैं और आतंकवादियों के उकसावे पर लोग सरकारी सम्पतियों को आग के हवाले कर रहे हैं। गृहमंत्री पी चिदम्बरम की यह स्वीकृति भी आईएसआई की जीत है। इसलिए कि आईएसआई ने भारतीय सत्ता/ कूटनीति/ गुप्तचर व्यवस्था को आंखों में घूल झोंककर बड़ी आसानी से पत्थरबाजी का जंजाल खड़ा किया है। आईएसआई ने पत्थरबाजी का जंजाल आसानी से खड़ा कर लिया और हमारी गुप्तचर/सुरक्षा एजेसिंयों को पता भी नहीं चल सका। राजनीतिक सत्ता में राष्ट्र की अस्मिता का भाव है ही नहीं जिसके सहारे आईएसआई और पाकिस्तान की प्रायोजित आतंकवाद और कूटनीति का जोरदार जवाब दिया जा सके। हाल ही में पाकिस्तान में हमारे विदेश मंत्री कृष्णा ने जिस तरह से पराजयवादी कूटनीति का परिचय दिया,उसके गंभीर परिणाम कैसे नहीं निकलेंगे। हमारी सत्ता में हिम्मत और राष्ट्रीयत्ता का भाव होता तो क्या हम आतंकवाद का आसान शिकार होते? कभी नहीं। आईएसआई और पाकिस्तान खुद अपने करतूतों से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवादी संगठन-देश घोषित हो चूके होते। हेलडी खुलासे में पाकिस्तान को आतंकवादी देश धोषित कराने के सभी तथ्य और शर्ते हैं।
                                                   आईएसआई सिर्फ गुप्तचर एजेंसी भर नहीं है। आईएसआई पाकिस्तान की अगली पक्ति की सैनिक व्यवस्था है। हमारी सत्ता/ कूटनीति/गुप्तचर-सुरक्षा एजेंसियां आईएसआई से हमेशा पराजित होती रही हैं। कश्मीर घाटी में सिर्फ पत्थ्रबाजी का जंजाल खड़ा करने भर की बात नहीं है। आईएसआई ने मनचाहे तौर पर हमारी कूटनीति/गुप्तचर एजेंसियों को न केवल आंखों में घूल झोंका है बल्कि हमारी राष्ट्रीयता-स्वाभिमान को अपने पैरों से रौंदा है। 1971 तक पाकिस्तान और उसकी रक्तपिशाचु गुप्तचर एजेसी आईएसआई की कोई खास औकात नहीं थी और न ही वह अपने इरादों को लागू करने मे सफल थी। हमेशा उसे मात मिलती थी और भारतीय गुप्तचर एजेंिसयां आईएसआई के बूने जाल को तार-तार करने में सफल होती थी। पाकिस्तान ने 1971 की पराजय और बंागला देश निर्माण से सबक लिया और उसने भारत को टूकड़े-टूकड़े करने की दूरगामी कार्यक्रम और नीतियां बनायी। जिसमें अपनी गुप्तचर एजेंसी को खूंखार-रक्तपिशाचु बनाने और भारत के जरे-जरे मे आतंकवाद फैलाने की बात थी। इतना ही नहीं बल्कि उसने परमाणु बम की चुनौती भारत के सामने खड़ी करने की नीति बनायी थी। इन दोनो मोर्चे पर पाकिस्तान सफल रहा। इसमें हमारी सत्ता की उदासीनता और देश की सुरक्षा के सामने समर्पण का भाव जिम्मेदार रहा है। सही तो यह है कि हमने 1971 के जीत से कुछ ज्यादा अंहकार भर लिया था। यह मान लिया था कि पाकिस्तान अब कभी भी हमारे सामने खड़ा ही नहीं हो सकता है। अगर हमारी सत्ता थोड़ी सी भी दूददृष्टि से परिपूर्ण होती तो कश्मीर समस्या का समाधान उसी समय निकल जाता जब हमारी जेलों में 90 हजार पाकिस्तानी सैनिक बंद थे और हमारी नौ सेना लाहौर पर कब्जा कर बैठी थी। पर इंदिरा गांधी ने दूरदृष्टि नहीं दिखायी। इसके पीछे कारण था कि 1971 की जीत से इंदिरा गांधी और उनकी सलाहकार मंडली कुछ ज्यादा ही खुशफहमी से ओत-प्रोत हो गयी थी।
                                                                                   इस खुशफहमी और उदासीनता का परिणाम भारत को जल्दी ही भुगतने के लिए विवश होना पड़ा। 1974 में आईएसआई ने बांग्लादेश में अपना जाल फैलाया और बांग्लादेश के निर्माता शेख मुजीबुरर्हमान की हत्या कराने और भारत विरोधी सत्ता के साथ ही साथ वातावरण भी तैयार करने में सफल हो गयी। कई सालों तक बांग्लादेश में आईएसआई की पहुंच का परिणाम हम भुगतते रहे। न केवल बांग्लादेश में हमारे हित प्रभावित हुए बल्कि पूर्वोत्तर भारत में आईएसआई ने हमारे खिलाफ आग भड़काई। आज पूर्वोतर में देश जो लहूलुहान है उसके पीछे आईएसआई की भूमिका है। आईएसआई पंजाब में आतंकवाद की आग फैलायी। केपीएस गिल और स्वर्गीय बेअंत सिंह के दूरदृष्टि और कठोर नीति से हमने पंजाब में शांति जरूर लायी पर इस शांति के लिए कितनी बड़ी कीमत भी हमें चुकानी पड़ी है? यह भी जगजाहिर है। कारगिल हजारों-हजार फीट उंची चोटियों पर आईएसआई ने अपने सैनिको को कब्जा कराने में सफल हो गयी। हमारी कूटनीति और गुप्तचर एजेंसिंयों को इसकी भनक तक नहीं लगी। कारगिल में पाकिस्तान सैनिको को भगाने में पांच सौ से अधिक सैनिकों की कुर्बानी हुई। कारगिल कब्जे के तुरंत बाद आईएसआई ने इंडियन एयर लाइंस विमान अपहरण की साजिश बुनी। लज्जा जनक बात ही नहीं बल्कि राष्ट्र की अस्मिता भी तार-तार हुई। राष्ट्र को अपमान भरी परिस्थितियां झेलनी पड़ी। तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह को तीन खूंखार आतंकवादियों को छोड़ने के लिए काबुल जाना पड़ा। मुबंई में आईएसआई ने समुद्र मार्ग से हमला कराने की साजिश रची और सफल भी हुई। मुबंई हमले में किस तरह आईएसआई ने अंजाम दिया उससे भी क्या बताने की जरूरत है। मंुबई हमले में आईएसआई और पाकिस्तान की सेना की सीधी करतूत थी। इसके प्रमाण हमारे पास मौजूद है।
                                       कश्मीर घाटी आज जिस तरह से आतंक और पत्थरबाजी जैसी हिंसा से ग्रस्त है,उसके पीछे सिर्फ और सिर्फ आईएसआई की करतूत है। आईएसआई को मालूम हो गया है कि बंदूक और बम के सहारे वह उतना सफल नहीं हो पायेगा जितना कि हिंसा की पत्थरबाजी की नीति से। पत्थरबाजी के लिए आईएसआई ने सटीकता के साथ जाल बुनी। उसने आतंकवादियों के हाथों में बंदूक-बमों की जगह पत्थर थमायी। उसने आतंकवादियो के साथ ही साथ घाटी के युवकों के साथ समन्वय तैयार कराया। पैसे और सोहरत प्राप्त करने का लालच दिया गया। घाटी के विभिन्न जिलों मे पत्थरबाजी के लिए युवकों की फौज खड़ी की गयी। तथ्य यह भी सामने आये है कि पत्थरबाजी के लिए युवकों की भर्ती और भुगतान के लिए भी नायाब तरीका चुना गया है। कश्मीर स्थित विभिन्न बैंकों से क्रेडित कार्ड से सैकड़ों करोड़ रूपये की निकासी हुई है। वह भी विदेशी क्र्रेडिट कार्डो का सहारा लेकर। नेपाल से जारी हुए क्रेडित कार्डो से ज्यादा निकासी हुई है। विदेशी क्रेडिट कार्डो से हुई बेहिसाब निकासी से साफ हो जाता है कि विदेशी पैसों पर ही पत्थरबाजी का जंजाल खड़ा किया गया है। अब यहंा सवाल यह उठता है कि क्रेडिट कार्ड से पैसो निकालने वाले कौन लोग हैं और किन देशों और संगठनों से पैसे कश्मीर में आये।? जाहिरतौर पर यह काम आईएसआई और उसके समर्थक मुस्लिम देशों की बैंकिंग प्रणाली की यह करतूत है। जब आईएसआई पत्थरबाजी की जाल बुन रही थी और क्रडिट कार्डो के माध्यम से बेहिसाब पैसे बांट रही थी तक हमारी गुप्तचर एजेंसिंया क्या कर रही थी। हमारी गुप्तचर एजेंसियां/कूटनीति और सत्ता को चाकचौबंद क्यों नहीं होना चाहिए था?
                                                  इतिहास गवाह है। हम जब-जब पाकिस्तान पर विश्वास किया और शांति के लिए आगे हाथ बढ़ाया तब-तब हम घोखे खाये हैं। अपनी राष्ट्रीयता और स्वाभिमान को खूनी आतंकवाद से लहूलुहान होते हमने देखा है। नेहरू ने विश्वास किया। उसका परिणाम यह हुआ कि हमनेें आधा कश्मीर खो दिया। अटल बिहारी वाजपेयी शांति का संदेश लेकर लाहौर गये। इसका परिणाम हम कारगिल युद्ध के तौर पर भुगता। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पाकिस्तान के भरोसे का परिणाम मुंबंई हमले में देख लीजिए। पर भारतीय सत्ता इतिहास से सबक लेने के लिए तैयार ही नहीं है। भारतीय सत्ता को लगता है कि बातचीत के माध्यम से ही पाकिस्तान को सही रास्ते पर लाया जा सकता है। पाकिस्तान में हमेशा से लोकतंत्र का अभाव रहा है। पाकिस्तान का मौजूदा सत्ता लोकतांत्रिक न होकर आईएसआई और सेना द्वारा नियंत्रित है।
                                                   आईएसआई पर कैसे नकेल डाला जा सकता है? आईएसआई को नकेल डालना कोई मुश्किल काम नहीं है। संयुक्त राष्ट्र की एक संहिता है जिसमें आतंकवाद फैलाने वाले देशों आतंकवादी देश घोषित करने का प्रावधान है। आईएसआई और पाकिस्तान को आतंकवादी संगठन और आतंकवादी देश धोषित कराने के लिए भारत के पास सारे तर्क और तथ्य मौजूद है। पुराने तथ्यों और परिस्थितियों को छोड़ दीजिये। मात्र मुबंई हमले में आईएसआई की भूमिका पर ही हम पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित करा सकते है। हेडली ने सीधेतौर पर स्वीकार किया है कि मुबंुई हमला आईएसआई द्वारा नियंत्रित था और उसने धन सहित अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराये थे। हेडली के खुलासे अमेरिका के न्यायालय में दर्ज हैं। जाहिरतौर पर हेडली के खुलासे हमारे लिए एक महत्वपूर्ण हथियार साबित हो सकता था। इसके सहारे हम पाकिस्तान को आसानी से आतंकवादी देश घोषित करा सकते हैं। पर हमारी सत्ता अमेरिका के दबाव में पाकिस्तान पर यह हथियार चलाया ही नहीं। पाकिस्तान में जिस तरह से हमारे विदेश मंत्री कृष्णा ने समर्पण किया उससे भी पाकिस्तान-आईएसआई के हौसले बुलंद हुए होंगे। हमें अमेरिका पर आश्रित रहने की जरूरत क्या है? खुद की कूटनीतिक-सामरिक शक्ति से हम आईएसआई-पाकिस्तान को नियंत्रित कर सकते हैं और उसे शांति का पाठ पढ़ा सकते हैं। इसके लिए चाकचौबंद और राष्ट्र की अस्मिता से परिपूर्ण कूटनीति होनी चाहिए। सौ आने सही है कि जब तक हम आईएसआई के खूनी पंजों को नहीं मरोड़ेंगे और जैसा का तैसा नीति-व्यवहार पर नही चलेंगे तबतक कश्मीर में शांति या पत्थरबाजी जैसी प्रब्रिया रूकेगी ही नहीं।


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