Monday, February 22, 2021

अडानी-अंबानी प्रेम में सब पागल हैं

 राष्ट्र-चिंतन

 अडानी-अंबानी प्रेम में सब पागल हैं

         विष्णुगुप्त

भारतीय राजनीति के केन्द्र में जब से नरेन्द्र मोदी का उदय हुआ है तब से अडानी-अंबानी का जूमला भी सरेआम हुआ है, नरेन्द्र मोदी के विरोधियों के मुंह से बोला जाने वाला सर्वाधिक प्रिय जूमला है। नरेन्द्र मोदी के विरोधी अडानी और अंबानी के जूमले से जनता को आकर्षित करना चाहते हैं, उनकी समझ यह भी है कि इस जूमले से नरेन्द्र मोदी की राजनीतिक छवि को घूमिल किया जा सकता है, उनकी केन्द्रीय सत्ता को पराजित किया जा सकता है। इसी उद्देश्य से विरोधी देश की राजनीति के केन्द्र में अडानी-अंबानी का विरोध हमेशा रखते है, प्रमुखता के साथ उठाते हैं। अभी-अभी किसान आंदोलन और तीन कृषि कानूनों को लेकर भी अडानी-अंबानी का जूमला विरोध के केन्द्र में हैं। कृषि कानूनों के विरोधी किसान संगठनों और विपक्षी राजनीतिक पार्टियां यह कह रही हैं कि देश की जमीन अडानी और अंबानी को देने की साजिश है, किसानों की किस्मत पर अडानी-अंबानी की बूरी और टेढी नजर है, अब खेती भी अडानी-अंबानी जैसे कारपोरेट घराने करेंगे, किसान सिर्फ मजदूर बन कर रह जायेंगे। संसद के अंदर में राहुल गांधी ने एक भाषण दिया था जिसमें न केवल नरेन्द्र मोदी-अमित शाह को घेरा था बल्कि अडानी और अंबानी को भी घेरा था। राहुल गांधी ने संसद के अंदर कहा था कि हम दो और हमारे दो की सरकार चल रही है, यही देश के गरीबों को लूटना चाहते हैं, किसानों की किस्मत लूटना चाहते हैं। राहुल गांधी के इस वाक्य का अर्थ राजनीति में खूब चर्चित हुआ। हम दो का मतलब नरेन्द्र मोदी और अमित शाह था और  हमारे दो का मतलब अडानी-अंबानी से था। जहां तक राहुल गांधी का प्रश्न है तो वह अपने हर भाषण में, हर कार्यक्रम में अडानी-अंबानी की आलोचना का कोई अवसर नहीं गंवाते हैं। राहुल गांधी और अन्य विपक्षी नेताओं के अडानी-अंबानी जूमले का प्रतिकार नरेन्द्र मोदी यह कह कर करते रहे हैं कि विकास और उन्नति के लिए निजी क्षेत्र का भी सम्मान जरूरी है, निजी क्षेत्र की सहभागिता के बिना देश का विकास और उन्नति संभव नहीं है।
                                 अडानी-अंबानी से संबंधित एक ऐसी खबर सामने आयी है और खबर भी पूरी तरह से सच है जिसमें खुद राहुल गांधी ही नहीं बल्कि अन्य विपक्षी पार्टियां भी प्रश्नों के घेरे में कैद हैं। खासकर राहुल गांधी की कांग्रेस पार्टी का चेहरा बेनकाब होता है, कांग्रेस का भी अडानी-अ्रबानी प्रेम की कहानी उजागर होती है। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि अडानी-अंबानी और कांग्रेस से जुडी हुई खबर क्या है? खबर यह है कि कांग्रेस की राजस्थान सरकार और कांग्रेस गठबंधित महाराष्ट सरकार ने जोरदार अडानी प्रेम दिखाया है, सिर्फ प्रेम ही नहीं दिखाया है बल्कि इन दोनों सरकारों ने अपने-अपने यहां अडानी के बडे ठेके भी दिये हैं। राजस्थान के कांग्रेसी गहलौत सरकार ने अडानी ग्रुप को सोलर पावर प्रोजेक्टस और महाराष्ट सरकार ने दिघी पोेर्ट के ठेके दिये हैं। राजस्थान की कांग्रेसी सरकार की इच्छा के अनुसार अडानी ग्रुप राजस्थान में 8700 मेगावाॅट से सोलर हाईब्रिड और विंड एनर्जी पार्क विकसित करेगा। कुल पांच सोलर पावर प्रोजेक्ट में अडानी ग्रुप कोई 50 हजार करोड का निवेश करेगा। राजस्थान सरकार का मानना है कि इन पांचों सोलर प्रोजेक्टों के माध्यम से दो काम होंगे एक तो स्थानीय लोगों को भी रोजगार मिलेगा और दूसरा कार्य यह होगा कि राजस्थान उर्जा के मामले में आत्मनिर्भर हो जायेगा। उधर महाराष्ट सरकार ने भी अडानी पर कृपा बरसायी है। महाराष्ट सरकार ने अपना दिघी पोर्ट को अडानी ग्रंुप को सौंप दिया है। अडानी ग्रुप ने 705 करोंड़ रूपयों में दिघी पोर्ट की सभी हिस्सेदारियां खरीद ली है। दिघी पोर्ट में 10 हजार करोंड रूपये का निवेश करने की योजना अडानी ग्रुप की है। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि मुबई स्थित जवाहरलाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट के लिए वैकल्पित गेटवे तैयार करने जा रहा है अडानी ग्रुप। महाराष्ट सरकार के अडानी प्रेम का ठिकरा कांग्रेस शिव सेना के सिर पर नहीं फोड सकती है। इसलिए कि पोर्ट मंत्रालय कांग्रेस के पास ही है। इसलिए महाराष्ट की शिव सेना नेतृत्व वाली सरकार कांग्रेस की अवहेलना कर पोर्ट के ठेके और विकास की जिम्मेदारी अडानी ग्रुप को दे ही नहीं सकती है।?
                            राजस्थान और महाराष्ट सरकारों के अडानी प्रेम को देखने के बाद यह मान लेना चाहिए कि अडानी-अंबानी के हमाम में कौन नहीं नंगा है, सभी नंगे हैं, भाजपा भी नंगी है, कांग्रेस भी नहीं नगंी है, शिव सेना भी नंगी है,अन्य विपक्षी पार्टियां भी नंगी है। सिर्फ राजनीतिक पार्टियों के इतिहास को देखने और निष्पक्ष रह कर विश्लेषण करने की जरूरत होनी चाहिए। सिर्फ नरेन्द्र मोदी या भाजपा के लिए ही अंडानी-अंबानी जैसे उद्योगपति और कारापोरेट घराने प्रिय नही है बल्कि ंकांग्रेस के लिए, चन्दबाबू नायडू, जगन रेड्डी, मूलायम-अखिलेश यादव, लालू यादव या फिर सोरेन परिवार, बादल परिवार, करूणानिधि परिवार सभी अडानी-अंबानी जैसे उद्योगपतियों और कारपोरेट घरानों के प्रेम में कैद रहे हैं।
                       अडानी-अंबानी का इतिहास देख लीजिये। अडानी और अंबानी का इतिहास कोई आज का नहीं है। जब नरेन्द्र मोदी का सत्ता राजनीति में उदय तक नहीं हुआ था तब से अडानी-अंबानी का अस्तित्व है। अडानी ग्रुप 1980 के दौरान अस्तित्व में आया था जबकि अंबानी के रिलायंस ग्रुप का अस्तित्व 1980 के पूर्व से है। जब इन दोनों कंपनियों का उदय 1980 से पूर्व का है तब इनके संबंध केन्दीय और राज्य सरकारों से कैसे नहीं होंगे। उस काल में तो केन्द्रीय सत्त और राज्य सत्ता में कांग्रेस ही होती थी। यह भी एक तथ्य है कि कोई भी उद्योगपति और कारपोरेट घराना बिना सत्ता के सहयोग का आगे नहीं बढता है, इस कसौटी पर अडानी-अंबानी जैसे उद्योगपतियों और कारपोरेट घरानों को कांग्रेस की तत्कालीन कांग्रेस की केन्द्रीय और राज्य सरकारों से सहयोग कैसे नहीं मिला होगा।
                             रिलायंस ग्रुप के संस्थापक धीरू भाई अंबानी थे। धीरू भाई अंबानी के इन्दिरा गांधी के अच्छे संबंध थे। इन्दिरा गांधी के कार्यकाल में ही धीरू भाई अंबानी की किस्मत चमकी थी, धीरू भाई अंबानी देश के अग्रणी टाटा-विडला जैसे उद्योगपतियों की श्रेणी में खड़ा हुआ था। दिल्ली की राजनीति में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी और धीरू भाई अंबानी के कई आर्थिक किस्से अभी भी कुख्यात रूप से चर्चा के केन्द्र में रहते हैं। इन्दिरा गांधी की सत्ता कार्यकाल में खास कर कम्युनिस्ट पार्टिया हल्ला करती थी कि देश में टाटा-बिडला की सरकार चल रही है। उस काल मेें टाटा-बिड़ला की तूती बोलती थी, देश के सिरमौर औद्योगिक घराने टाटा और बिडला ही थी। मूलायम सिंह यादव का अंबानी प्रेम कौन नहीं जानता है। मुलयाम सिंह यादव ने अनिल अंबानी को राज्य सभा में भेजा था और कहा था कि अनिल अंबानी यूपी का विकास करेंगे। गरीबों की बात करने वाले लालू प्रसाद यादव भी किंग महेन्द्रा जैसे उद्योगपतियों के मददगार रहे हैं। बसपा की राजनीति में कभी संजय डालमियां और अखिलेश दास जैसे उद्योगपति नामित रहे हैं। कम्युनिस्ट पार्टियां भी इससे अलग नहीं रही हैं। पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टियों ने यूनियनबाजी में पश्चिम बंगाल का कबाडा किया और फिर टाटा प्रेम में पागल हो गयी थी। सिंदुर प्रकरण में कम्युनिस्ट पार्टियों की सरकार गयी थी। ममता बनर्जी भी बार-बार निवेशक सम्मेलन कर औद्योगिर घरानों की बांट जोहती रही। इतिहास और तथ्य राजनीतिज्ञों का औद्योगिक घराना प्रेम बहुत ही लम्बा-चैडा है।
                          निजी क्षेत्र का विकल्प क्या है? यह प्रश्न अब तक अधूरा है। सरकारी क्षेत्र से विकास और उन्नति की बात अब बईमानी हो गयी है। सरकारी क्षेत्र में सक्रियता और समर्पण की कमजोरी है। सरकारी क्षेत्र प्रशिक्षित ढंग से काम नहीं करता है। सरकारी क्षेत्र में एक बार नौकरी पाने के बाद 60 साल की उम्र तक वह शंहशाह बन जाता है, उसे नौकरी जाने का डर नहीं होता है, नौकरी गयी भी तो महंगे वकील और अन्य हथकंडों से न्याय लूट लेता है। सरकारी क्षेत्र की कंपनियां दिन प्रतिदिन अवसान की ओर लुढक रही है उनकी शेयर बाजार कीमत मिट्टी में मिल रही हैं। इसलिए निजी क्षेत्र का डंका बज रहा है।
                                काला घन सोधन भी बडा प्रश्न है। राजनीतिक पार्टियों और राजनीतिज्ञों के काला धन का संरक्षण अडानी और अंबानी जैसे ही उद्योगपति घराने ही करते हैं। राजनीतिक पार्टियां और राजनीतिज्ञ चुनावों में अपने कालेधन का ही इस्तेमाल करते हैं।यही कारण है कि सभी पार्टियों और नेताओं के अपने-अपने अडानी-अंबानी जैसे उद्योगपति हैं। इसलिए अडानी-अंबानी के प्रेम सभी पार्टियां, सभी नेता पागल हैं। यही कारण है कि मोदी के खिलाफ राहुल गांधी और पूरे विपक्ष का अडानी-अंबानी जूमले पर जनता कोई खास रूचि नहीं दिखाती है।




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Monday, February 15, 2021

‘ सीएए ‘ बनेगा चुनावी हथियार ?

  राष्ट्र-चिंतन

‘ सीएए ‘ बनेगा चुनावी हथियार ?

       विष्णुगुप्त



नागरिकता संशोधन अधिनियम यानी सीएए फिर से राजनीति के केन्द्र मे आ गयी है और राजनीति को उथल-पुथल कर रही है। पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में एक मजबूत हथकंडा नागरिक संशोधन अधिनियम भी बनने जा रही है। केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने घोषणा की है कि कोरोना के खिलाफ टिकाकरण पूरा होते ही सीएए को लागू कर दिया जायेगा, वंचितों को नागरिकता देने का कार्य पूरा होगा।
                     केन्द्र की सत्ता पर राज करने वाली भाजपा पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में सीएए को लेकर उथल-पुथल मचाने और मतदाताओं को आकर्षित करने की राजनीतिक योजना पर न केवल कार्य कर रही है बल्कि सीएए को अपनी चुनावी राजनीति का प्रमुख हथियार भी बना रही है। भाजपा को यह उम्मीद है कि पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में नागरिकता संशोधन अधिनियम का उसका यह चुनावी हथियार मतदाताओं के सिर पर चढ कर बोलेगा और मतदाताओं को आकर्षित कर उसकी सत्ता किस्मत को चमकायेगी।
                        प्रतिकिया में विपक्ष भी सकिय है। विपक्षी भी सीएए को लेकर विरोध की आग को भड़काने में कहां पीछे रहने वाला है। खासकर कांग्रेस सीएए के विरोध में अपनी चुनावी गतिविधियां भी शुरू कर दी है। असम में राहुल गांधी ने सीएए विरोधी गमछा ओढ कर यह दर्शा दिया है कि भाजपा अगर समर्थन में मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने का खेल-खेल रही है तो फिर कांग्रेस भी इसके काट के लिए पीछे नहीं रहेगी और कांग्रेस भी सीएए के विरोध में मतदाताओं को आकर्षित कर अपनी चुनावी राजनीति को चमकाने की कोशिश करेगी। जबकि पश्चिम बंगाल और केरल में कम्युनिस्ट पार्टियां यह पहले ही जाहिर कर चुकी हैं कि किसी भी राजनीतिक परिस्थति में सीएए को लागू नहीं होने देगी। केरल के कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने साफ कहा है कि भाजपा को सीएए का लाभ नहीं लेने दिया जायेगा, सीएए के खिलाफ मे भाजपा की पूरी घेराबंदी होगी, विजयन का यह भी कहना है कि धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियों के सामने भाजपा का यह सीएए का दांव बेमौत मरेगा। उपर्युक्त चुनावी राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए यह मानना ही होगा कि सीएए अब चुनावी शक्ति हासिल करने का हथियार बन गया है।
                                  सीएए को भाजपा क्यों चुनावी राजनीतिक हथियार बना रही है? इसमें भाजपा को कौन सी मजबूरी है? क्या भाजपा के सामने अन्य सभी चुनावी हथियार चूक गये हैं? निश्चित तौर पर भाजपा के सामने यह एक मजबूरी भी है। भाजपा के पास जो स्थायी चुनावी हथियार होते थे वे सभी चुनावी हथियार अब असरदार नहीं रहे, सामयिक नहीं रहे, कारगर नहीं रहे, इन हथियारों का एक्सपायरी देट समाप्त हो चुके हैं। जैसे कश्मीर और धारा 370 तथा रामजन्म भूमि मंदिर निर्माण का चुनावी हथियार। भाजपा ने अपनी कश्मीर समस्या का समाधान कर चुकी है और अपने चुनावी वायदे धारा 370 को भी समाप्त कर पूरा कर चुकी है। रामजन्म भूमि मंदिर निर्माण का राजनीतिक एजेंडा पूरा हो चुका है, रामजन्म भूमि मंदिर निर्माण की सभी न्यायिक प्रक्रियाएं पूरी हो गयी हैं और कुछ सालों में ही अयोध्या में भव्य रामजन्म भूमि मंदिर का निर्माण होना निश्चित है। इसलिए इन प्रश्नों और हथियारों की एक्सपायरी देट समाप्त हो चुके हैं। भाजपा अपने इन पुराने चुनावी हथियारों को लेकर अपनी चुनावी किस्मत नहीं चमका सकती है, मतदाताओं को लुभाने का कार्य नहीं कर सकती है।  भाजपा को नये राजनीतिक हथियार की जरूरत थी, नये हथियार से ही वह अपनी विरोधी राजनीतिक पार्टियों का शिकार कर सकती है। नये राजनीतिक हथियारों की खोज सीएए तक पहुंच कर ही समाप्त होती है। सीएए से बड़ा राजनीतिक चुनावी हथियार भाजपा के पास और कोई हो ही नहीं सकता है। यह एक ऐसा राजनीतिक हथियार है जिसकी चर्चा मात्र से ही समर्थन और विरोध की राजनीतिक गोलबंदी शुरू हो जाती है, सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि राजनीतिक सवर्ग को उथल-पुथल मचा देने की शक्ति रखता है।
                          सीएए को लेकर भारतीय राजनीति अभिशप्त रही है। भारतीय राजनीति में सीएए ने किस प्रकार से उथल-पुथल मचाया, किस प्रकार से विश्वास और घृणा दोनों प्रकार की राजनीतिक संवेदनाएं उत्पन्न की है,यह भी जगजाहिर है। जब पाकिस्तानी हिन्दू शरणार्थी अपने बच्चों के जन्म पर उनका नामंांकरण ‘नागरिक ‘ के तौर पर करता है, यानी अपने बच्चे का नाम नागरिक रखता है तब यह जाहिर होता है कि सीएए को लेकर विश्वास भी है, समर्थन भी है, आशा भी है और संवेदनाएं भी हैं। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि सीएए को लेकर समर्थन, संवेदनाएं और विश्वास क्यों हैं? समर्थन, संवेदनाएं और विश्वास इसलिए है कि 1947 के बाद ऐसे कई समूह और वर्ग हैं जो मजहबी आधार पर पीड़ित होकर, उत्पीड़ित होकर अपने जीवन को बचाने के लिए भारत में शरणार्थी बनना स्वीकार किया था और भारत सरकार ने जिन्हें शरणार्थी के रूप में स्वीकार किया था को आज तक भारत की नागरिकता नहीं मिली। ऐसे संवर्ग के जिन समूहों के नाम सबसे आगे हैं उनमें कश्मीर में पाकिस्तान से पीड़ित होकर आने वाले शरणार्थी, असम में बांग्लादेश से आये शरणार्थी और पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश से आये शरणार्थी शामिल हैं और अरूणाचल प्रदेश, मणिपुर आदि प्रदेशों में चकमा आदिवासी समूह हैं। इसके अलावा इधर पाकिस्तान से मजहबी आधार पर पीडित होकर आये हिन्दू समूह भी हैं। इन सभी समूहों को सीएए के माध्यम से नागरिकता मिलने की उम्मीद है।
                       सीएए का विरोध घृणा, हिंसा और प्रतिहिंसा में तब्दील हुआ है। विरोध में खडी शाहिन बाग की धारा भी उल्लेखनीय है। शाहीन बाग की विरोध धारा ने देश के अंदर में कैसी राजनीतिक संकट उत्पन्न की थी, यह भी जगजाहिर है। महीनों तक शाहीन बाग की विरोध धारा जलती रही। देश-विदेश तक शाहीन बाग विरोध की धारा की आग पहुंचती रही। धीरे-धीरे शाहीन बाग विरोध धारा की आग पूरे देश में फैल गयी। जगह-जगह पर शाहीन बाग बन गये। देश की राजधानी दिल्ली तो दंगों की भेंट भी चढ गयी। जैसे ही शाहीन बाग की विरोध धारा दिल्ली के अन्य जगहों पर फैली वैसी इसके विरोध की राजनीतिक प्रकियाएं भी तेज हुई। फलस्वरूप राजनीतिक टकराहट का जन्म हुआ। राजनीतिक टकराहट कभी-कभी हिंसक रूप धारण कर लेता है। दिल्ली में सीएए का विरोध और समर्थन का खेल राजनीतिक हिंसा में बदल गया। दिल्ली में भयानक दंगे हुए। इन दंगों में हिन्दुओं को बडा नुकसान पहुंचाया गया। दंगों में मारे जाने वाले सबसे ज्यादा हिन्दू थे। नरेन्द्र मोदी की सरकार पर यह प्रश्न खड़ा हुआ था कि दिल्ली दंगों में हिन्दुओं की जानमाल की सुरक्षा क्यों नहीं कर पायी? दिल्ली दंगों के कारण शाहिन बाग की विरोध धारा कमजोर हुई, शक्तिहीन हुई। कोरोना शुरू होने के साथ ही साथ शाहीन बाग की विरोध धारा को भी समाप्त होना पड़ा।
                  सीएए का प्रश्न हिन्दू-मुस्लिम में विभाजन रेखा बनाता है। समर्थन में हिन्दू हैं और विरोध में मुसलमान हैं, ऐसा राजनीतिक संदेश दिया गया है और यह राजनीतिक संदेश गहरी पैठ बना चुका है। ऐसा संदेश भाजपा के लिए प्राण वायु होता है। ऐसी ही विभाजन रेखा भाजपा चाहती है। ऐसी ही विभाजन रेखा भाजपा की किस्मत चमकाती है। कश्मीर, धारा 370 और रामजन्म भूमि मंदिर के प्रश्न पर भी भाजपा ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच खाई उत्पन्न की थी, विभाजन रेखा बनायी थी और इसी विभाजन रेखा के माध्यम से भाजपा केन्द्रीय सत्ता तक भी पहुंची। सीएए के विरोध में अतिरंजित राजनीतिक प्रक्रियाएं जो अपनायी गयी उससे हिन्दू मतों में उफान पैदा हुआ है, कट्टर हिन्दुओं के बीच में अपनी अस्मिता लेकर चिंता पसरी है। कई जिहादी मुस्लिम संगठनों की सक्रियता भी जगजाहिर हुई। विदेशों से मिली सहायता भी एक चिंताजनक विषय वस्तु है। इसलिए भाजपा के पक्ष में सीएए का प्रश्न रहा है।
                            यक्ष प्रश्न यह है कि सीएए का हथियार भाजपा को कितना लाभ देगा? जिन पांच राज्यों में विधान सभा का चुनाव हैं उनमें सिर्फ असम में भी भाजपा सत्तासीन है जबकि पांडेचरी, पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु में भाजपा विपक्ष में है। तमिलनाडु में भाजपा सहयोगी  के रूप में चुनाव लडेगी। तमिलनाडु मे अनाद्रमुक भाजपा की बडी सहयोगी होगी। इसलिए तमिलनाडु में सीएए को लेकर भाजपा बहुत ज्यादा गंभीर नहीं होगी। पर दो राज्य ऐसे हैं जहां पर भाजपा सीएए के प्रश्न पर ही सत्ता हासिल करेगी। असम में भाजपा सीएए को लेकर विपक्ष का शिकार करेगी, सीएए को लेकर असम में तेज आंदोलन हुआ है। भाजपा को उम्मीद है कि सीएए को चुनावी हथियार बनाने से असम में उसकी सरकार फिर से बनेगी। सबसे बड़ा दांव तो भाजपा पश्चिम बंगाल में खेली है। केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने पश्चिम बंगाल में साफ तौर पर घोषणा की है कि सीएए हर परिस्थिति में लागू होगा, कोई शक्ति सीएए को लागू करने से नहीं रोक सकती है। कोरोना के खिलाफ टिकाकरण पूरा होते ही सीएए को लागू कर दिया जायेगा। पश्चिम बंगाल में सीएए के प्रश्न पर ममता बनर्जी हलकान है, उसकी सत्ता पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। खास कर मतुआ समूह को लेकर ममता बनर्जी की चिंता बढी है। मतुआ समूह सीएए से आश लगाये बैठा हुआ है और उस समूह को भारत की नागरिकता मिलने की उम्मीद बनी है। जानना यह भी जरूरी है कि जिस प्रकार से बिहार और उत्तर प्रदेश में यादव अपनी संख्या बल पर सत्ता बनाने और गिराने का खेल खेलते हैं उसी प्रकार की राजनीतिक शक्ति पश्चिम बंगाल के अंदर में मतुआ जाति रखती है। मतुआ जाति दलित जाति है। पश्चिम बंगाल में मतुआ जाति की संख्या 17 प्रतिशत बतायी जाती है। पिछले लोकसभा चुनावों में पश्चिम बंगाल के अंदर में भाजपा की जीत और उपलब्धि के केन्द्र में मतुआ जाति का समर्थन ही माना जा रहा था। मतुआ जाति अभी भी भाजपा के पक्ष में खडी है। मतुआ जाति के लाखों की सभा को अमित शाह ने संबोधित कर उन्हें नागरिकता प्रदान करने का आश्वासन दिया है। केरल में भी सीएए के प्रश्न पर भाजपा हिन्दू मतों की गोलबंदी सुनिश्चित करेगी। हिन्दू मतों की गोलबंदी से नुकसान तो सीएए विरोधी कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों को ही होगा।


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Monday, February 1, 2021

बजट में किसानों की खुशहाली का सपना ?

 


 

         राष्ट्र-चिंतन

       ऐसे में कैसे होगी किसानों की आय दोगुनी ?

बजट में किसानों की खुशहाली का सपना ?

        विष्णुगुप्त




इस बार का केन्द्रीय बजट छह स्तंभों पर आधारित है। पहला स्तंभ है स्वास्थ्य और कल्याण, दूसरा भौतिक-वित्तीय पूंजी, तीसरा समावैशी विकास, चैथा मानव पूंजी का संचार करना , पाचवां नवाचार व अनुंसंधान और छठा न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन। किसानों की खुशहाली की व्यवस्था को केन्द्रीय सरकार अपनी बजट की विशेषताएं बता रही है। केन्द्रीय बजट में किसानों की खुशहाली और उनकी हितसाधक नीतियां कहीं से भी अअपेक्षित नहीं कही जा सकती थी, यह तो अपेक्षित ही है। केन्द्रीय सरकार किसानों के बीच अपनी विश्वसनीयता और साख को बनाये रखने के लिए एक संदेश देना चाहती थी, क्योंकि पिछले दिनों के घटनाक्रम से केन्द्रीय सरकार की नीतियां किसानों के बीच अविश्वसनीयता उत्पन्न कर रही थी, केन्द्रीय सरकार की साख को घून की तरह चाट रही थी, हालांकि इसके आयाम भी नकरात्मक थे। वर्तमान केन्दी्रय सरकार की यह कोशिश जरूर रही है कि हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ अन्नदाता किसानों की आमदनी बढें और लागत से उपर मूल्य मिले। इस कोशिश में केन्द्रीय सरकार ने कई नीतियां लायी और किसानों के बीच साख उत्पन्न करने के लिए कई योजनाओं का श्रीगणेश किया है। किसानों के खातों में प्रतिवर्ष छह हजार रूपये देने और खाद पर सब्सिडी जारी रखने के साथ ही साथ किसानों के विभिन्न उत्पादन पर समर्थन मूल्य घोषित करना और समर्थन मूल्य पर किसानों के उत्पादन का क्रय करना भी शामिल है। यह कहना गलत नहीं होगा कि समर्थन मूल्य पर सरकार द्वारा क्रय के कारण किसानों का बहुत बड़ी राहत मिली है। फिर भी किसानो की मांगें और उनकी इच्छाएं अभी तक पूरी नहीं हुई हैं। खासकर छोटे किसान जो सरकारी झंझटों से पार नहीं पाते हैं, नौकरशाही की जाल और उनकी रिश्वतखोरी की आदतों को संतुष्ट नहीं कर पाते हैं को अभी भी केन्द्रीय सरकार की नीतियों और योजनाएं एक छलावा से कम नहीं हैं। केन्द्रीय सरकार ही क्यों बल्कि राज्य सरकारों जब तक सरकारी झंझटों और नोकरशाही की रिश्वतखोरी की जाल को समाप्त नहीं कर पाती हैं तब तक उनकी कोई भी नीति और कोई भी योजनाएं लघुतम किसानों के लिए कोई अर्थ नहीं रखती हैं। इसलिए बजट में किसानों की बातें करने से या फिर किसानों के लिए खुशहाली और हितसाधक घोषणाएं करने या फिर व्यवस्थाएं करने का कोई खास अर्थ नहीं रखते हैं। कृषि टेक्नोलाॅजी को सस्ता करने की घोषनाएं नहीं होने से किसानों की समस्याएं कम नहीं होगी।
                                                   अब हमें गौर करना चाहिए कि वर्तमान केन्द्रीय सरकार ने बजट में ऐसी कौन सी घोषणाएं की है, बजट में ऐसी कौन सी व्यवस्थाएं की है जिसे हम किसान के हित साधक मानने के लिए बाध्य हुए हैं और इस घोषनाओं और व्यवस्थाओं के माध्यम से केन्द्रीय सरकार अपनी विश्वसनीयता और साख किसानों के बीच बढाना चाहती हैं? क्या सही में केन्द्रीय सरकार की यह घोषणा और व्यवस्था से किसानों की आर्थिक स्थिति सुधरेगी, किसानों की आय में वृद्धि होगी? किसानों की कृषि जरूरतों को पूरा करेंगी? जो किसान लागत मूल्य भी नहीं मिलने के बाद किसानी छोडने के लिए बाध्य हुए हैं या फिर किसानी छोडने के लिए अग्रसर हो रहे हैं वैसे किसानों को किसानी या कृषि कार्य के लिए प्रेरित करेगी? किसान क्या सही में महाजनी कर्ज से मुक्त होंगे? सरकारी बैंकों की नीतियां और व्यवहार किसानों के हित में होंगी? सरकारी बैंक क्या छोटे किसानों को कर्ज देने के लिए अपनी पूर्वाग्रह छोडने के लिए प्ररेति होंगे? क्या सरकारी बैंक कर्ज देने के लिए छोटे किसानों के द्वार तक दस्तक देंगे? जानना यह भी जरूरी है कि केन्द्रीय सरकार खुद किसानों को कर्ज उपलब्ध नहीं कराती है, केन्द्रीय और राज्य सरकारों की इसमें कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती है, केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकारों की अप्रत्यक्ष भूमिका ही होती है। केन्द्रीय सरकार बैकों के माध्यम से ही किसानों को कर्ज उपलब्ध कराती हैं। छोटे किसानों के बीच सरकारी बैंकों की भूमिका कैसी है, यह कौन नहीं जानता है। किसानों के बीच सरकारी बैंकों की भूमिका साक्षात यमराज के तौर पर होती है छोटे किसानों का शोषण करने, उन्हे उपेक्षित रखने में सरकारी बैंक कोई कसर नहीं छोड़ते हैं।
                                                 केन्दी्रय बजट में किसानों के लिए कई विशेषताएं हैं, उनमें एक सबसे बडी विशेषता है जिसकी पड़ताल करने की जरूरत होगी, जिस पर देश के अंदर चर्चा जरूरी है, गंभीरता के साथ मूल्यांकन करने की जरूरत है। केन्द्रीय बजट में किसानों के लिए 16: 5 लाख करोड़ कृषि लोन की व्यवस्था की गयी है। केन्द्रीय बजट प्रस्तुत करते हुए वित मंत्री निर्मला सीतारमन ने कहा कि केन्द्रीय बजट में किसानों के लिए 16: 5 लाख करोड़ कृषि लोन की व्यवस्था कर सरकार ने एक महत्ती कार्य किया है, किसानों की इच्छाओं का पंख लगाया है, इस व्यवस्था से किसानों की जिंदगी में खुशहाली आयेगी, किसानों की आर्थिक आय बढेगी और किसानों का कृषि कार्य से पलायन रूकेगा, इसके साथ ही साथ किसानों को महाजनी लूट से रक्षा करेगी। ऐसे देखा जाये तो वित मंत्री निर्मला सीतारमन की बातें कोई अलग या फिर अहम की श्रेणी मे नहीं रखी जा सकती है, आखिर क्यों? यह तो एक सरकारी परमपरा है, सरकारी खानापूर्ति है। केन्द्रीय बजट की योजनाओं, नीतियों या फिर व्यवस्थाओं की ही बात नहीं है बल्कि राज्य सरकारों की कोई भी योजना, कोई भी नीतियां और कोई भी व्यवस्थाएं सामने आती हैं या फिर इस तरह की घोषणाएं होती है तो फिर सरकार द्वारा इसके पक्ष में गुणगान करने का विचार प्रवाह जन्म लेता ही है, सरकार प्रशंसा में लम्बी-चैडी बात ही करती है, सफलता की लम्बी-चैडी रेखा दिखाने की कोशिश होती है। यह अलग बात है कि पूर्व में इसके हस्र भी कैसा हुआ है, यह भी हमें मालूम है। आज तक न तो देश में गरीबी हटी और न ही बैरोजगारी हटी जबकि पूर्व की केन्द्रीय सरकारों ने गरीबी हटाओ, बैरोजगारी हटाओं के नाम पर दर्जनों योजनाओं, नीतियों और व्यवस्थाओं को जन्म दिया था, इन योजनाओं, घोषनाओं और व्यवस्थाओं के पक्ष में भी लंबी-चैडी बातें हुई थी, बड़े-बडे सपने दिखाये गये थे।
                                                     कृषि लोन के कुछ नये आयाम तय किये गये हैं, कुछ नयी प्राथमिकताएं तय की गयी है, कुछ परमपराएं तोडी गयी है। अब तक की परमपराएं थी कि सिर्फ अन्न उत्पादन को ही कृषि कार्य माना जाता था। वह भी अन्न में दाल, चावल , गेंहू आदि। बागवानी या फिर सब्जी उत्पादन पहले कृषि कार्य नहीं माना जाता था। फिर बागवानी और सब्जी उत्पादन को कृषि कार्य माना गया। यह कहने में हर्ज नहीं है कि बागवानी और सब्जी उत्पादन के क्षेत्र में विकास होने और किसानों की रूचि बढने से एक तरह से क्रांति हुई और किसानों को इसका लाभ भी मिला, किसानों की आय बढी, किसानों के सामने अतिरिक्त विकल्प भी मिला। अतिरिक्त विकल्प का अर्थ यह था कि चावल, दाल, गन्ना और गेहूं का उत्पादन जो महंगा था और कम लाभकारी था उसकी जगह बागवानी और सब्जी का उत्पादन लाभकारी साबित हुआ। अब कृषि कार्य में दो नये आयाम तय किये गये हैं, प्राथमिकताओं में रखे गये हैं। ये दो नये आयाम और प्राथमिकताएं मछली उत्पादन और दूघ उत्पादन को लेकर है। वर्तमान केन्द्रीय सरकार की अपनी मान्यताएं हैं कि देश में मछली उत्पादन बढा कर और दूध उत्पादन बढा कर नयी क्रांति लायी जा सकती है, हरित क्रांति जो अब मृत प्राय है, उसमें जान फूंकी जा सकती है।यह सही है कि देश के अंदर में मछली उत्पादन और दूध उत्पादन में बढोतरी हुई है, किसानों को नये विकल्प भी मिले हैं। दूध उत्पादन और मछली उत्पादन में छोटे किसान भी आसानी के साथ सक्रियता दिखाने में सक्षम है, इसमें लागत भी कम है। खासकर दूध उत्पादन के लाभ असीमित है। सिर्फ दूध ही क्यों बल्कि गाय का गोबर और गाय के मूत्र का कारोबार बढा है, गाय के मूत्र से दवाइयां बन रही हैं, गाय के गोबर से दीवाल पेंट बनाया जा रहा है, गाय के गोबर से मोमबतियां बनायी जा रही है। इसके अलावा गाय के गोबर से प्राकृतिक खेती होती है, इसलिए गाय के गोबर का मूल्य भी बढा है। सबसे बडी बात मछली उत्पादन को लेकर है। गांव में छोटे-छोटे किसान भी छोटे-छोटे तलाबों में भी मछली उत्पादन आसानी से कर सकते हैं। केन्द्रीय वित मंत्री का कहना है कि केन्द्रीय बजट में 16: 5 लाख करोड का जो कृषि कर्ज घोषित किया गया है उसमें से अधिकतर हिस्सा मछली और दुग्ध उत्पादन करने वालों को मिलेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि मछली और दुग्ध उत्पादक किसानों को कर्ज उपलव्ध कराने की प्राथमिकता होगी।
                                             हमें सिर्फ बजट में भारी-भरकम राशि रखने से चमत्कृत होने की आवश्यकता नहीं है। हम तब चमत्कृत होंगे जब बजट की घोषणाओं को जमीन पर सही ढंग से लागू करने की वीरता टिखायी जायेगी। देखा यह जाता है कि बडे किसान तो सरकारी बैंकों से अपनी पहुंच के बल पर कर्ज ले लेते हैं पर रघुतम किसान सरकारी बैंकों के तिरस्कार का शिकार हो जाते हैं। अतः लघु किसान महाजनी लूट का शिकार हो जाते हैं। हमें तो छोटे किसानों के हित संरक्षण की चिंता है। क्या केन्द्रीय सरकार छोटे किसानों को भी आसान कर्ज उपलब्ध कराकर उनकी आमदनी बढाने की वीरता दिखा पायेगी?




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Monday, January 11, 2021

वीगर मुसलमानों का जनसांख्यिकीय नरसंहार रोको

 


 

                       राष्ट्र-चिंतन
वीगर मुसलमानों का जनसांख्यिकीय नरसंहार रोको
        
विष्णुगुप्त



चीन का खौफनाक और हिंसक कारवाई कोई नयी नहीं है, अपने ही नागरिकों के खिलाफ हिंसक और खौफनाक कार्रवाई को लेकर चीन की आलोचना होती रही है, पर चीन के लिए मानवाधिकार का संरक्षण कोई अहम स्थान नहीं रखता है और अपने नागरिकों के प्रति नरम व्यवहार तथा हिंसाहीन कार्रवाई की उम्मीद हो ही नहीं सकती है। ऐसा इसलिए कि चीन में कोई लोकतंत्र नहीं है, चीन में कम्युनिस्ट तानाशाही है। वह भी एक ऐसी कम्युनिस्ट तानाशाही जिसमें जनता की सहभागिता होती ही नहीं है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होती नहीं है, मीडिया की आजादी होती नहीं, मानवाधिकार की बात करने वाले लोग या तो हिंसक तक पर मार दिये जाते है या फिर अनंतकाल तक जेलों में डाल दिये जाते हैं, चीन की जेलें घोर अमानवीय, उत्पीड़न, अत्याचार हिंसक रूप सें प्रताड़ित करने की प्रतीक होती हैं।
                                     अभी-अभी दुनिया में चीन का ऐसा पर्दाफाश हुआ है, चीन का ऐसा धिनौना चेहरा सामने आया है जिसे पढकर रोंगटे खडे हो जाते हैं। यह पर्दाफाश चीन में वीगर मुसलमानों को लेकर है। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन वीगर मुसलमानों का जनसांख्यिकीय नरसंहार कर रहा है। जनसांख्यिकीय नरसंहार के लिए वीगर मुस्लिम महिलाओं पर हिंसा और अमानवीय ढंग से गर्भ पर पहरा बैठा दिया गया है। जैसे ही किसी वीगर मुस्लिम महिला के गर्भवती होने की सूचना मिलती है वैसे ही वीगर मुस्लिम महिला को यातना शिविरों में भर्ती करा दिया जाता है और बलपूर्वक उनका गर्भपात करा दिया जाता है। वीगर मुसलमानों के मजहबी अधिकारों के प्रति भी चीन घोर असहिष्णुता रखता है, उनके मजहबी अधिकार को कुचलने के लिए पुलिस और सेना का प्रयोग किया जाता है।
                                                सबसे पहले यह जानना होगा कि वीगर मुसलमान कौन हैं? वीगर मुसलमानों का जनसांख्यिकीय नरसंहार चीन क्यों कर रहा है? चीन वीगर मुसलमानों के मजहबी अधिकार को कुचलने के लिए कौन सा हथकंडा अपना रहा है? दुनिया के नियामक चीन के इस बर्बर, खौफनाक और हिंसक नीति के खिलाफ चुप्पी क्यों साधे रखे हैं? क्या दुनिया के नियामकों को चीन के खिलाफ मानवाधिकार हनन और जनसांख्यिकीय नरसंहार के खिलाफ कार्रवाई नहीं करनी चाहिए? क्या चीन से संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद के वीटों के अधिकार को नहीं छिना जाना चाहिए? क्या मुस्लिम दुनिया को चीन की इस खौफनाक, बर्बर और ंिहंसक कार्रवाई के खिलाफ अभियान चलाने की जरूरत है? मुस्लिम दुनिया के नेता बनने के लिए हिंसक और मजहबी आधार पर सक्रिय पाकिस्मतान, मलेशिया और तुर्की की इस प्रश्न पर चुप्पी क्यों हैं? पाकिस्तान, मलेशिया और तुर्की के लिए वीगर मुसलमानों के हित और उनका मानवाधिकार कोई अहमियत नहीं रखते हैं? क्या अमेरिका इस प्रसंग पर चीन को झुकाने और वीगर मुसलमानों के हित और उनका मानवाधिकार सुरक्षित कराने में सफल हो सकता है? अमेरिका की तरह यूरोपीय देश भी चीन के खिलाफ कदम उठाने के लिए अभियानी होंगे?
                                 वीगर मुसलमान चीन की शिजिंयांग प्रात के रहने वाल अल्पसंख्यक समुदाय है जिनका मजहब इस्लाम है। ये इस्लाम के कट्टर समर्थक हैं। इनका पेशा कृषि और पशुचारण है। यह इस्लामिक जनजातीय समुदाय अपने आप को मध्य एशिया के निवासी बताते हैं। शिजिंयांग प्रांत का इतिहास भी लद्दाख जैसा है, वीगर मुसलमानों की उत्पीडन और हिसंक कहानी लद्दाख के बौद्धों की तरह है। लद्दाख की तरह ही शिजियांग भी कभी स्वतंत्र भूभाग था, चीन से वह अलग था। 1949 में माओत्से तुंग ने अपने विस्तारवादी नीति के कारण शिजियांग भूभाग को चीन का हिस्सा बना लिया था। शिजियांग भूभाग को अपना हिस्सा बनाने के लिए चीन ने बडे पैमाने पर हिंसा बरपाई थी, हजारों लोगों को मौत का घाट उतार दिया गया था। 1949 से लेकर अभी तक चीन अपने कब्जे में रखने के लिए हिंसा और प्रताड़ना का सहारा लेता है। फिर भी वीगर के मुसलमान चीन की अधीनता स्वीकार करने के लिए राजी नहीं हैं।
                                                      वीगर मुसलमानों का कहना है कि उनका मजहब इस्लाम है, वे कट्टर मजहबी हैं, उन्हें मजहब से बेदखल रखना स्वीकार नहीं हैं। उनकी मान्यता है कि चीन उनका देश नहीं है,चीन आक्रमणकर्ता हैं। चीन का हमेशा व्यवहार और नीति आक्रमणकारियों जैसे ही रहा है। वीगर मुसलमान कहते हैं कि शिजियांग 1949 से पूर्व एक इस्लामी भूभाग था। शिजियांग को इस्लामिक देश घोषित किया जाना चाहिए, चीन अपना अधिकार छोडे। सच तो यह है कि वीगर मुसलमान भी इस्लाम की हिंसा और अलगाव तथा मजहबी घृणा के सहचर हैं। जिस तरह से दुनिया के अंदर में इस्लामिक देश की मांग के लिए घृणा, अलगाव, विखंडन तथा हिंसा-आतंकवाद का जिहाद चल रहा है उसी तरह की घृणा, हिंसा,अलगाव, विखंडन, आतंकवाद का जिहाद शिजियांग में जारी है।चीन का आरोप है कि एक घोर और घृणित इस्लामिक राज के लिए शिजियांग में जिहाद चल रहा है, वीगर मुसलमान चीनी पुलिसकर्मियों और अन्य धर्मविहीन आबादी को निशाना बनाते हैं, जिसके कारण निर्दोष लोगों की जानें जाती है। वीगर मुसलमान सिर्फ चीन में ही नहीं है बल्कि वीगर मुसलमानों की एक खास आबादी इराक और तुर्की में भी है। वीगर मुस्लिम आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले साहित्यकार, कवि, कलाकार पलायन कर गये है। वीगर मुस्लिम आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले साहित्यकार, कवि और कलाकार पलायन कर अमेरिका, यूरोप और अन्य मुस्लिम देशों में शरण लिये हुए है, शरणस्थली से ही चीन के खिलाफ और इस्लामिक देश बनाने के लिए अभियानी हैं।
                                                चीन की ही नहीं बल्कि दुनिया में जहां-जहां कम्युनिस्ट तानाशाहियां रही थी वहां-वहां मजहब और धर्म की बुनियाद को तहस-नहस करना और नष्ट करना उनकी नीति रही थी। सोवियत संघ से लेकर चेकस्लोवाकिया तक इसका उदाहरण पसरा हुआ था। सोवियत संघ और चैकस्लोवाकिया खुद ही दफन हो गये। कार्ल माक्र्स ने मजहब-धर्म को अफीम कहा था। यूरोप में ईसाईयत और यूरोप के पडोस में इस्लाम के हिंसक और घृणा के साथ ही साथ सत्ता को नियंत्रित करने के भीषण दुष्परिणाम हुए थे और कार्ल माक्र्स ने दुष्परिणामों के मूल्यांकन के बाद मजहब और धर्म को अफीम कहा था। कार्ल माक्र्स की थ्योरी पर ही कम्युनिस्ट तानाशाहियां मजहब और धर्म को मिटाने के लिए अपना प्रथम एजेंडा बना लिया। चीन कभी बौद्ध धर्म वाला देश था जहां पर महात्मा बुद्ध का बहुत ही गहरा प्रभाव था। महान सम्राट अशोंक ने बौद्ध धर्म को चीन में विस्तार दिया था। जैसे ही चीन के अंदर माओत्से तुंग का उदय हुआ वैसे ही बौद्ध धर्म को मिटाने की कोशिश हुई, बौद्ध मंदिरों को या तो तोड दिया गया या फिर बौद्ध मंदिरों में जाने वाले लोगों को गोलियां से उड़ा दिया गया या उन्हें जेलों में डाल दिया गया। चीन में बौद्ध धर्म को पूरी तरह से नष्ट करने में इन्हें कामयाबी मिली। पर बौद्ध धर्म की तरह इस्लाम को मिटाने में कम्युनिस्ट तानाशाही को पूरी तरह से सफलता नहीं मिली। इस्लाम के मानने वालों ने अपनी कट्टरता से चीन को मजहबहीन बनाने की नीति सफल नहीं होने दिया।
                                    वीगर मुसलमानों को नियंत्रित रखने के लिए चीन ने जिस तरह के हथकंडे अपनाये गये हैं उसे सुनकर रोंगटे खडे हो जायेंगे। दुनिया में चर्चित है कि वीगर मुसलमानों को मजहबहीन बनाने के लिए चीन की कम्युनिस्ट तानाशाही घोर बर्बर और अति हिंसक नीति अपना रखी है। एक करोड़ से अधिक वीगर मुसलमानों को यातना शिविर में रखा गया है जहां पर मजहब की लत को छुडाने के लिए हिंसा की नीति अपनायी जाती है। वीगर मुसलमानों को सुअर का मांस खाने तक के लिए बाध्य किया जाता है। जैसे ही कोई मजहबी सामग्री पकडी जाती है वैसे ही जिसके पास मजहबी सामग्री पकडी जाती है उसे गिरफतार कर यातना शिविरों में डाल दिया जाता है। चीन से कई ऐसी तस्वीरें आयी है जिसमें मस्जिदों को टाॅयलेट घर में तब्दील हुआ बताया गया है। इतना तो सच है कि चीन ने मस्जिदों पर ताले लगा ही रखे हैं, मस्जिदों का ध्वंस करना भी जारी है। इसके अलावा वीगर मुसलमानों को आबादी की दृष्टिकोण पर अल्पसंख्यक बनाने के लिए नीति जारी है। चीनी मूल के लोगों को शिजियांग प्रदेश में बसाया जा रहा है। चीनी मूल के लोगों को काफी रियायतें मिली हुई है। चीन का मानना है कि शिजियांग प्रदेश के वीगर मुसलमानों के जिहाद की समस्या का समाधान आबादी संतुलन बना कर किया जा सकता है। चीनी आबादी संतुलन का अर्थ सिर्फ और सिफ वीगर मुसलमनों की आबादी को कम करना,वीगर मुस्लिम आबादी को कुचलना है।
                         सबसे ज्यादा चिंताजनक खामोशी मुस्लिम दुनिया को लेकर है। मुस्लिम दुनिया इस प्रसंग पर खामोश क्यों है? कुछ समय पहले ही फ्रांस के खिलाफ मुस्लिम दुनिया ने कैसी हिंसक अभियान चलायी थी, यह भी जगजाहिर है। जबकि फ्रांस में ऐसा कुछ भी नहीं था। चीन के सामने मुस्लिम दुनिया झुकी रहती है। पाकिस्तान जो मुस्लिम दुनिया का अगवा बनने की कोशिश करता है वह तो चीन का मोहरा है। अगर मुस्लिम दुनिया अभियानी होती तो फिर वीगर मुसलमानों के हितों पर चीन सोचने के लिए जरूर बाध्य होता। चीन के खिलाफ दुनिया में सिर्फ अमेरिका ही है जो वीगर मुसलमानों की जनसाख्यिकीय नरसंहार के खिलाफ प्रतिबंधों को लागू किया है। वीगर मुसलमानों का जनसांख्यिकीय नरसंहर रोका जाना चाहिए।


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Monday, January 4, 2021

वैक्सीन पर विपक्ष का आत्मघाती विरोध

  


             
         राष्ट्र-चिंतन
कोवैक्सीन एक महान स्वदेशी उपलब्धि है ,यह सक्षम और आत्मनिर्भर भारत का प्रमाण है
वैक्सीन पर विपक्ष का आत्मघाती विरोध
       
           विष्णुगुप्त




भारत का विपक्ष अजीब है, उसका विरोध की नजरिया भी राष्ट्रहंता जैसी है, समय-समय पर ऐसे विरोध की विपक्ष की संस्कृति देखने को मिल ही जाती है। अगर विरोध नरेन्द्र मोदी की सरकार की उपलब्धियों और कार्यक्रमों पर आधारित हो तो फिर विरोध न केवल जहरीला होता है बल्कि आत्मघाती भी हो जाता है। एक नहीं कई उदाहरण यहां उपस्थित है। पाकिस्तान के खिलाफ एयर स्ट्राइक हो या फिर राष्ट्रीय जरूरतों के दृष्टिगत राफेल की खरीद के खिलाफ भारतीय विपक्ष न केवल गैर जरूरी विरोध करता है बल्कि राजनीतिक तौर पर अभियानी भी हो जाता है, एयर स्ट्राइक का सबूत तक मांगा जाता है, जब सीमा पर सेना विदेशी आक्रमणकारियों, विदेशी घुसपैठियों और भारतीय जयंचदों के खिलाफ वीरता पूर्ण कार्रवाई करती है तो फिर भारतीय सेना को ही बदनाम करने के लिए राजनीति होती है, भारतीय सेना को बलात्कारी और हिंसक बता कर दुश्मन देशों की पीठ थपथपाई जाती है, जब चीन के खिलाफ वर्तमान भारतीय सरकार वीरता दिखाती है, चीन को जैसे को तैसे में जवाब देती है तो फिर विपक्ष यह कहना नहीं चूकता कि भारतीय सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हिंसक है, युद्धशील हैं, देश को युद्ध हिंसा में झेलने का काम कर रहा है, विपक्ष यह नहीं देखता कि आजादी के बाद वर्तमान केन्द्रीय सरकार ही चीन को वीरतापूर्ण जवाब दिया है, चीन की उपनिवेशिक नीति और पड़ोसियों की भूमि को हडपने की नीति को मरोड कर रख दिया है। विपक्ष के विरोध में एक और खतरनाक प्रवृति शामिल हो गयी है। यह खतरनाक प्रवृति देशी वैक्सीन के विरोध का है। यह विरोध उस देशी वैक्सीन का है जिसके माध्यम से सपना देखा गया है कि भारत को महामारी के खिलाफ आत्मनिर्भर बनाना, महामारी से मुक्ति पाना, माहामारी से उन गरीब और फटेहाल नागरिकों की जान की सुरक्षा करना जो कोरोना महामारी की चपेट में आकर जान गंवा रहे हैं। निश्चित तौर पर स्वदेशी वैक्सीन तैयार करना अपने देश के लिए एक महान उपलब्धि है, इस महान उपलब्धि पर हमें उन बैज्ञाानिकों पर गर्व करने की जरूरत है जिन्होने दिन-रात परिश्रम कर यह वैक्सीन तैयार किये हैं और जिनके नतीजे भी संतोषजनक नहीं बल्कि प्रभावशाली है। हर देशवासी को इस वैक्सीन पर गर्व करने और देशी वैक्सीन की उपलब्धि के खिलाफ अफवाहों को खारिज करने की जिम्मेदारी है।
                                        विरेध कितना जहरीला है, विरोध कितना अवैज्ञानिक है, विरोध कितना आधारहीन है, यह देख लीजिये। विरोध करने वाले सपा के अखिलेश यादव का बयान देख लीजिये। अखिलेश यादव का कहना है कि भाजपा के वैक्सीन पर उन्हें विश्वास नहीं है, भाजपा के वैक्सीन सीधे तौर पर नागरिकों को नपुंसक बना देगी, भाजपा इस वैक्सीन का इस्तेमाल अपने विरोधी लोगों को निपटाने और नपुंसक बनाने के लिए करेगी, इस भाजपा के वैक्सीन का बहिष्कार किया जाना चाहिए, वे खूद इस भाजपा के वैक्सीन को नहीं लगवायेंगे। इसी से मिलते-जुलते बयान कांग्रेस के सांसद शशि थरूर और जयराम रमेश ने दिये हैं। जयराम रमेश और शशि थरूर ने वैक्सीन प्रयोग के सभी आंकडे सार्वजनिक करने की मांग की है। सबसे पहले तो यह देखना होगा इस वैक्सीन का विरोध करने वाले अखिलेश यादव, जयराम रमेश और शशि थरूर जैसे लोग सिर्फ एक राजनीतिज्ञ है, ये कोई डाॅक्टर नहीं है, ये कोई स्वास्थ्य वैज्ञानिक नहीं हैं। अभी तक कोई ऐसी बात जाहिर नहीं हुई है जिससे पता चला है कि सही में यह वैक्सीन उम्मीदों पर खरा नहीं उतरती है और इसके नतीजे खतरनाक हैं।
                                              अखिलेश यादव और अन्य विपक्ष के नेताओं ने जो यह कहा है कि यह वैक्सीन भाजपा का है, यह भी मूर्खतापूर्ण बयानबाजी है, यह वैक्सीन भाजपा का है क्या? इस मूर्खतापूर्ण बात पर कौन देशवासी स्वीकार कर सकता है? इस वैक्सीन को तैयार करने वाली सरकारी-गैर सरकारी कंपनी है। इन वैक्सीनों का लगाने की जिम्मेदारी क्या भाजपा के पास है? उत्तर नहीं। इन वैक्सीनों को लगाने की जिम्मेदारी और नियंत्रण अधिकार सरकार और शासन के पास है। फिर यह वैक्सीन भाजपा के कैसे हुई? सबसे खतरनाक बयानबाजी तो विशेष आबादी को लेकर है। अखिलेश यादव आदि का कहना है कि भाजपा अपने विरोध की एक विशेष आबादी और विरोधियों को निपटाना चाहती है, उनका जान लेना चाहती है। यह विशेष आबादी का इशारा किस और है और इसके पीछे की राजनीति को समझा जा सकता है। देश के विशेष आबादी का राजनीतिक अर्थ उस अल्पसंख्यक आबादी से है जोेे हर समय भाजपा के खिलाफ रहती है और भाजपा के खिलाफ हर चुनाव में वोट करती है, इसके साथ ही साथ कांग्रेस, कम्युनिस्ट और सपा, बसापा, राजद जैसी पार्टियों की उंगलियों की गुलाम होती है। यह विशेष आबादी का राजनीतिक हथकंडा वैक्सीन के खिलाफ विद्रोह कराने की साजिश भी करार दिया जा सकता है। मोदी सरकार के कार्यकाल में इस विशेष आबादी को उकसाने और विद्रोह कराने की कई साजिशें रची जा चुकी हैं।
                                         सबसे महत्वपूर्ण बात प्रयोग के आंकड़े सार्वजनिक करने की है। विपक्ष का कहना है कि अंतिम चरम में प्रयोग के आंकड़े सरकार क्यों नहीं सार्वजनिक कर रही है। ध्यान देने वाली बात यह है कि प्रयोग के आंकडे गोपनीय होते हैं,प्रयोग के आंकडे सार्वजनिक करने के भी खतरे कम नहीं है, उसका उपयोग दुष्प्रचार में हो सकता है। अभी तक दुनिया में जितनी भी कोरोना के खिलाफ वैक्सीनों के इस्तेमाल को स्वीकार किया गया है उन सभी के अंतिम चरण के प्रयोग के आकंडे जारी नहीं हुए है, वैक्सीन बनाने वाली कंपनी और सरकारों ने आंकडे जारी करने से मना कर दिया है। चीन और रूस ने जो वैक्सीनें बनायी है उन वैक्सीनों के अंतिम चरणों के प्रयोग के आकंडे भी जारी नहीं किये हैं। जबकि चीनी और रूसी वैक्सीन का इस्तेमाल होना शुरू हो गया है। चीन और रूस अपनी-अपनी वैक्सीन का इस्तेमाल युद्ध स्तर पर कर रहे हैं। ब्रिटेन और अमेरिका ने भी बिना विरोध का वैक्सीन इस्तेमाल शुरू कर दिया है। भारत का विपक्ष रूस और चीन का सबक क्यों नहीं लेता है?
                              भारत सरकार ने जो दो वैक्सीनों को इस्तेमाल करने की स्वीकृति प्रदान की है, उसमें से एक अद्ध्र्र देशी है तो दूसरी पूर्ण देशी है। कोविशील्ड और कोवैक्सीन नामक वैक्सीन को भारत सरकार ने स्वीकृति दी है। कोविशील्ड आॅक्सफोर्ड एस्ट्राजेनेका का भारतीय संस्करण है पर कोवैक्सीन पूरी तरह से स्वदेशी है, कोविशील्ड को भारत में सीरम इंस्टिटयूट आफ इंडिया बना रही है। कोवैक्सीन को भारत बायोटेक कंपनी इंडियन काउंसिल आफ मेडिकल रिसर्च बना रही है। गौर करने वाली बात यह है कि आॅक्सफोर्ड एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन कोविशील्ड को ब्रिटेन में इस्तेमाल की स्वीकृति मिल गयी है। जब ब्रिटेन ने अपने यहां कोविशील्ड को इस्तेमाल करने की स्वीकृति प्रदान की कर दी है तब भारत में भी इस वैक्सीन के इस्तेमाल की स्वीकृति मिली है। विपक्ष इस तथ्य की अवहेलना क्यों कर रहा है?
                                          स्वदेशी कोवैक्सीन की उपलब्धि महान है। यह उपलब्धि सक्षम भारत और आत्मनिर्भर भारत की पहचान है। दुनिया को भारत ने दिखा दिया है कि हमारे पास भी वैज्ञानिक शक्ति है और हम भी दुनिया की कोरोना महामारी संकट ही नहीं बल्कि हर उन संकटों से निपटने की शक्ति रखते हैं जिन संकटों से दुनिया त्राहिमाम करती है। दुनिया को यह विश्वास ही नहीं था कि भारत भी उसके साथ ही साथ कोरोना के खिलाफ वैक्सीन तैयार कर लेगा और अपने देश को कोरोना से मुक्ति दिलाने के रास्ते पर गतिमान हो जायेगा? दुनिया तो भारत को अभी भी सांप-सपेरे वाले देश के रूप में देखने की आदि है। पर दुनिया को यह नहीं मालूम है कि भारत आज ज्ञान-विज्ञान का हब बन गया है, ज्ञान-विज्ञान का आईकाॅन बन गया है। यह मोदी का भारत है जो दुनिया से कदम-ताल मिलाने की शक्ति रखता है।
                                 भारत की स्वदेशी वैक्सीन दुनिया के लिए चर्चा का विषय है। दुनिया के कई देशों ने भारत की स्वदेशी वैक्सीन पर दिलचस्पी दिखायी है। नेपाल सहित दुनिया के कई गरीब और विकासशील देशों ने कोवैक्सीन को खरदीने की राय जाहिर की है। भारत अपनी इस कोवैक्सीन कोरोना वैक्सीन के माध्यम से दुनिया भर में अपनी शक्तिशाली पैठ बनाने में कामयाब हो सकता है। खासकर गरीब और विकासशील देशों को भारत मदद कर सकता है। ऐशिया और अफ्र्र्रीका के देशों में भारत अपनी वैक्सीन की आपूर्ति कर एक महाशक्ति बन सकता है। नरेन्द्र मोदी ने कोरोना महामारी से मुक्ति दिलाने के लिए अपनी नीति पहले ही जाहिर कर चुके हैं। नरेन्द्र मोदी ने कोवैक्सीन कोरोना वैक्सीन के माध्यम से गरीब देशों को मदद करने की राय जाहिर कर एक शानदार काम किया है जिस पर पूरे देशवासियों को गर्व होना चाहिए।
                          वास्तव में हमारा विपक्ष कम्युनिस्ट संस्कृति का सहचर बन गया है। कम्युनिस्टों की संस्कृति थी कि सिर्फ कार्ल माक्र्स, लेनिन, स्तालिन और माओत्से तुग ही प्रेरक पुरूष है, उनके सामने गांधी, सुभाष और भगत सिंह कुछ भी नहीं हैं। कम्युनिस्ट देश की हर उस उपलब्धि का विरोध करते थे जिस उपलब्धि से भारत दुनिया को चकित करता था और यह उपलब्धि स्वदेशी होती थी। इसी कारण कम्युनिस्ट निपट गये, संग्रहालय में दर्ज होने की स्थिति में पहुंच गये। भारतीय विपक्ष अगर इसी तरह स्वदेशी उपलब्धि पर विरोध करते रहें तो फिर ये भी कम्युनिस्टों की तरह निपट ही जायेगे। ऐसे भी मोदी के सामने भारतीय विपक्ष लगातार निपट रहे हैं। कोवैक्सीन का विरोध विपक्ष के लिए हानिकारक ही नहीं बल्कि आत्मघातक भी है।


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Tuesday, December 29, 2020

‘‘ करीमा बलोच ‘‘ से क्यों डरता था पाकिस्तान

  


                                                                 राष्ट्र-चिंतन
करीमा बलोच साहस की पहाड थी, पाकिस्तान-चीन की नींद हराम कर रखी थी

‘‘ करीमा बलोच ‘‘ से क्यों डरता था पाकिस्तान
           
       विष्णुगुप्त


करीमा बलोच से क्यों डरता था पाकिस्तान? पाकिस्तान ने करीमा बलोच की हत्या क्यों करायी? करीमा बलोच क्या पाकिस्तान की कूटनीति के लिए बड़ा खतरा थी? क्या पाकिस्तान की कूटनीति करीमा बलोच की वैश्विक सक्रियता से हमेशा दबाव महसूस करती थी? क्या करीमा बलोच की वैश्विक सक्रियता से पाकिस्तान की राष्ट्रीय अस्मिता और राष्ट्रीय अखंडता को एक बडी चुनौती मिलती थी? क्या करीमा बलोच अपनी वैश्विक सक्रियता से बलोच आंदोलन को एक बडी और प्रभावकारी शक्ति प्रदान करती थी? क्या करीमा बलोच बलूचिस्तान राज्य निर्माण का सपना देखने वाली बड़ी हस्ती थी? क्या करीमा बलोच ने अपने आंदोलन और वैश्विक सक्रियता से पाकिस्तान ही नहीं बल्कि चीन की भी नींद हराम कर रखी थी? क्या करीमा बलोच चीन और पाकिस्तान की उपनिवेशिक नीति व करतूत को दुनिया के सामने बेपर्द करने की अहम भूमिका निभायी थी? क्या करीमा बलोच बलूचिस्तान के अंदर चीनी प्रोजेक्ट के खिलाफ सशक्त जनांदोलन को लगातार शक्ति प्रदान कर रही थी? क्या करीमा बलोच की हत्या कराने में पाकिस्तान के साथ ही साथ चीन की भी कोई भूमिका है? क्या करीमा बलोच की हत्या मानवाधिकार के लिए एक खतरे की घंटी है? क्या करीमा बलोच की हत्या पर अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार ंसंगठनों को गंभीर सक्रियता नहीं दिखानी चाहिए? क्या करीम बलोच की हत्या के खिलाफ संयुक्त राष्ट्रसंध द्वारा निष्पक्ष और प्रभावशाली जांच नहीं करायी जानी चाहिए? करीम बलोच की हत्या से भारत की कूटनीति को भी कोई धक्का लगा है क्या? ये सभी प्रश्न अति महत्वपूर्ण है। दुनिया के नियामकों की चुप्पी चिंताजनक है। जबकि करीमा बलोच की हत्या दुनिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवाधिकार की लडाई के क्षेत्र में एक गंभीर संकट के तौर पर देखा जाना चाहिए।
                                         करीमा बलोच कौन थी? करीमा बलोच की हत्या कहां हुई? करीमा बलोच की हत्या से कैसे मानवाधिकार को गंभीर धक्का लेगा है? करीमा बलोच एक मानवाधिकार कार्यकर्ता थी। वह साहस का पहाड थी। नरेन्द्र मोदी को अपना भाई मानती थी। कहती थी कि सभी बलोच महिलाएं मोदी को अपना भाई मानती हैं। करीमा बलोच ने पाकिस्तान की उपनिवेशिक नीति के खिलाफ दुनिया भर में सक्रियता की नींव रखी थी और पाकिस्तान की लगातार पोल खोल रही थी? बलूच आंदोलन का वह सबसे बडी हस्ती और वैचारिक शक्ति थी। बलूच राष्ट्रवाद का वह प्रतिनिधित्व करती थी। करीमा बलोच की हस्ती के सबंध में जानकारी हासिल करने के पहले हमें बलूच राष्ट्रवाद के इतिहास को जानना होगा और बलूच राष्ट्रवाद का मूल्याकांन करना होगा। बलूच राष्ट्रवाद का सबंध बलूचिस्तान की आजादी है। बलूचिस्तान पाकिस्तान का पश्चिमी राज्य है। बलूचिस्तान का क्षेत्रफल बहुत बडा है। बलूचिस्तान तीन देशों की सीमाओं से जुडा हुआ है। ईरान और अफगानिस्तान से बलूचिस्तान सटा हुआ है। बलूचिस्तान की राजधानी क्वेटा है। यहां की प्रमुख भाषा बलूच है। कभी बलूच क्षेत्र तालिबान और अलकायदा का गढ हुआ करता था। बलूच क्षेत्र अलकायदा और तालिबान का गढ क्यों हुआ करता था? अरअसल बलूच का क्षेत्र घने जंगलों और पहाडों से घिरा हुआ है और खनिज संपदाओं से परिपूर्ण है। पाकिस्तान के खनिज संपदाओं का लगभग 60 प्रतिशत खनिज संपदा इसी प्रांत में उपस्थित है।  
                                          बलूच आबादी का विचार है कि बलूचिस्तान पर पाकिस्तान का अवैध कब्जा है, पाकिस्तान उनका अपना देश नहीं है। जिस प्रकार से अंग्रेज उनके लिए विदेशी आक्रमनकारी थे उसी प्रकार से पाकिस्तान भी विदेशी आक्रमणकारी हैं। आक्रमणकारी चाहे ब्रिटिश हों या फिर पाकिस्तान, ये कभी भी जनांकाक्षा का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। उनका इतिहास भी यही कहता है कि बलूचिस्तान ब्रिटिश काल में भी एक अलग अस्मिता और देश के लिए सक्रिय व आंदोलनरत था, भारत विखंडन में बलूच आबादी की कोई दिलचस्पी या भूमिका नहीं थी। मजहब के नाम पर पाकिस्तान के निर्माण में भी बलूच आबादी की कोई इच्छा नहीं थी। जब भारत में अंग्रेज अपना बोरिया विस्तर समेटने की स्थिति में थे तब अलग बलूचिस्तान के प्रति कदम उठाये थे। अंग्रेज इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि बलूचिस्तान को अलग क्षेत्र के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए। 1944 में बलूचिस्तान की स्वतंत्रता का विचार ब्रिटिश जनरल मनी ने व्यक्त किया था। मजहब के नाम पर भारत विखंडन के साथ ही साथ बलूचिस्तान की भी किस्मत पर कुठाराघात हुआ था। पाकिस्तान में बलूच आबादी कभी मिलना नहीं चाहती थी, बलूच आबादी अपना अलग अस्तित्व कायम रखना चाहती थी। पर पाकिस्तान ने बलूपर्वक बलूचिस्तान पर अधिकार कर लिया था। शुरूआत में भी विरोध हुआ था और इस अधिकार की कार्यवाही को पाकिस्तान के उपनिवेशवाद की उपाधि प्रदान की गयी थी। पर अंतर्राष्ट्रीय समर्थन न मिलने के कारण बलूच राष्ट्रवाद का आंदोलन शक्ति विहीन ही रहा। 1970 के दशक में बलूच राष्ट्रवाद का प्रश्न प्रमुखता से उठा और दुनिया जानी कि बलूच राष्ट्रवाद का भी कोई सशक्त अस्तित्व है जिसे पाकिस्तान सैनिक शक्ति से प्रताड़ित कर रहा है, कुचल रहा है। बलूचिस्तान सबसे पिछड़ा हुआ प्रांत है। इसलिए कि पाकिस्तान ने उपनिवेशिक नीति पर चलकर बलूचिस्तान का शोषण किया, दोहन किया और अपेक्षित विकास को शिथिल रखा।
                                        करीमा बलोच एक महिला थी। मजहबी तानाशाही वाले देशों और समाज में एक महिला का मानवधिकार कार्यकर्ता और हस्ती बन जाना कोई मामूली बात नहीं है, यह एक बहुत बडी बात है। क्या यह हम नहीं जानते हैं कि मजहबी देश और समाज में महिलाओं को मजहबी करूतियों के खिलाफ, मजहबी सत्ता के खिलाफ या फिर मानवाधिकार के संरक्षण की बात उठाने पर उन्हें गाजर मूली की तरह नहीं काटा जाता है? बलूचिस्तान में तीन तरफ से करीमा बलूच जैसी बहादुर महिलाएं त्रासदियां झेली है एक मजहबी समाज, दूसरा पाकिस्तान का सैनक तबका और तीसरा अलकायदा-तालिबान जैसे आतंकवादी संगठनों की हिंसा। मुंह खोलने वाली या फिर समाज में अगवा बनने की कोशिश करने वाली महिला सीधे तौर मजहबी समाज, सैनिक तबका और आतंकवादी संवर्ग की प्रताड़ना का शिकार बना दी जाती हैं, उनकी जिंदगी हिंसक तौर पर समाप्त कर दी जाती है। करीमा बलोच ने मजहबी समाज से निकली थी, पहले उसने मजहबी समाज से लोहा लिया था, उसके बाद उसने आतंकवादी संगठनो से लोहा लिया, उसके बाद उसने पाकिस्तान की उपनिवेशिक हिंसा के खिलाफ बलूचिस्तान की आवाज बनी।
                                           पाकिस्तान ने बलूचिस्तान में मानवाधिकार का कब्र बना रखा है। पिछले कुछ सालों में बलूचिस्तान के अंदर हजारों बलूच राष्ट्रवाद की सेनानी मारे गये है। कुछ साल पहले बलूच नेता नबाब अकबर खान बुगती की हत्या हुई थी। बुगती की हत्या का आरोप तत्कालीन तानाशाह परवेज मुशर्रफ पर लगा था। बुगती की हत्या अमेरिका और यूरोप भर में सुर्खियां बंटोरी थी। परवेज मुर्शरफ पर बुगती हत्या का मुकदमा भी चला था। करीमा बलोच ने अपने आंकडों से हमेशा पोल खोल रही थी कि पाकिस्तान कैसे बलूचिस्तान में मानवाधिकार हनन कर रहा है और बलूच नेताओं व कार्यकर्ताओं को कैसे मौत की नींद सुला रहा है। करीमा बलूच के लिए यह काम खतरे वाला था। पाकिस्तान की सेना और आईएसआई ने कई बार करीमा बलोच की हत्या कराने की कोशिश की थी। करीमा बलोच ने अपनी जान पर खतरे को देखते हुए पाकिस्तान छोड़ना ही उचित समझी थी। करीमा बलोच पाकिस्तान छोड़कर कनाडा में निर्वासित जीवन बीता रही थी। निर्वासित जीवन में भी वह बलूचिस्तान में पाकिस्तान द्वारा मानवाधिकार हनन की बात उठा रही थी। जिसके कारण पाकिस्तान की कूटनीति हमेशा दबाव में थी। करीमा बलोच का शव कनाडा मे मिला था। करीमा के परिजन और बलूच नेता इस हत्या के लिए पाकिस्तान की सेना और चीन की कारस्तानी व्यक्त कर रहे हैं।
                                           करीमा बलोच की हत्या को तानाशाही करतूत भी कह सकते हैं। तानाशाहियों द्वारा अपने विरोधियों की हिंसक हत्या का बहुत बडा इतिहास है। दुनिया में कम्युनिस्ट और मुस्लिम तानाशाहियों में इस तरह की हत्या आम बात है। सोवियत संघ के कम्युनिस्ट तानाशाह स्तालिन अपने घोर विरोधी लियोन त्रोत्सकी की हत्या मैक्सिकों में करायी थी, इसके अलावा सोवियत संघ में लाखों ऐसे विरोधियों की हत्या हुई थी जिसे स्तालिन पंसद नहीं करता था। उत्तर कोरिया का कम्युनिस्ट तानाशाह किम जौंग उन ने अपने सौतेले भाई किम जोंग् नम की हत्या मलेशिया में करायी थी। सउदी अरब ने अपने विरोधी पत्रकार जमाल खाशोगी की हत्या तुर्की में करायी थी। पाकिस्तान में हमेशा सैनिक मुस्लिम तानाशाही सक्रिय रहती है, लोकतंत्र तो एक मोहरा भर होता है। पाकिस्तान की सैनिक-मुस्लिम तानाशाही ने अपने अंतर्राष्ट्रीय संकट और चुनौतियों से निपटने के लिए करीमा बलोच की हत्या कनाडा में करायी है। चीन अपने ग्वादर बंदरगाह के निर्माण और अपनी सीपीइसी परियोजना का विरोध शांत कराने के लिए करीमा बलोच को निपटाना चाहता था, ऐसी अवधारणा भी सामने आयी है। क्योंकि ग्वादर बंदगाह और सीपीईसी परियोंजना के खिलाफ करीमा बलोच और बलोच आंदोलन के नेता सक्रिय थे और इसे अपने हितों के खिलाफ मानते थे।
                                          करीमा बलोच की हत्या की निष्पक्ष जांच की जरूरत है। दुनिया भर के नियामकों के लिए भी यह जरूरी है। संयुक्त राष्ट्रसंघ इस हत्याकांड की निष्पक्ष जांच करा सकती है। निष्पक्ष जांच के लिए अमेरिका, यूरोप और भारत को सक्रिय होना जरूरी है।हमारे लिए तो करीमा बलोच का सक्रिय रहना और जिदा रहना बेहद जरूरी था, हम पाकिस्तान के प्रोपगंडा का जवाब बलूचिस्तान में पाकिस्तान के मानवाधिकार के हनन से देते हैं। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी बलूचिस्तान की आजादी का समर्थन किया है। अगर करीमा बलोच की हत्या का प्रसंग दब गया तो फिर पाकिस्तान के अंदर मानवाधिकार इसी तरह से रौंदा जायेगा और बलूचिस्तान की आजादी भी इसी तरह कुचली जाती रहेगी।

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विष्णुगुप्त
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Sunday, December 13, 2020

जाकिर नाईक को वैश्विक आतंकवादी घोषित कराओ

 


 

     राष्ट्र-चिंतन

 जाकिर नाईक को वैश्विक आतंकवादी घोषित कराओ

जाकिर नाईक अब लादेन बनेगा


भारतीय सुरक्षा व गुप्तचर एजेंसियों ने खुलासा किया है कि जाकिर नाईक भारत को इस्लामिक देश में तब्दील करने के लिए रोहिंग्या आर्मी खड़ी किया है, इराक और सीरिया के आईएस आतंकवादी भी उसके साथ जुडे हुए हैं। मुस्लिम वैश्विक दुनिया से जाकिर नाईक को अरबों डालर मिल रहे हैं। जाकिर नाईक को वैश्विक आतंकवादी घोषित कराया जाना चाहिए। जाकिर नाईक और रोहिंग्या -आईएस आतंकवादियों को शरण देने वाले और इन्हें भारत विध्वंस के लिए सहयता करने वाले पाकिस्तान, तुर्की और मलेशिया को भी वैश्विक मंचों पर घसीटना चाहिए।

       
       
         विष्णुगुप्त



तथाकथित मुस्लिम मजहबी गुरू जाकिर नाईक अब अलकायदा के पूर्व आतंकवादी सरगना ओसामा बिन लादेन बनने की राह पर चल निकला है। भविष्य मेंवह ओसामा बिन लादेन की प्रेरणा को आधार बना कर अलकायदा और आईएस जैसा आतंकवादी संगठन खड़ा करेगा। ओसामा बिन लादेन ने जिस प्रकार से पाकिस्तान की राजनीति और आबादी के बीच में मुस्लिम आतंकवाद और मजहब का जहर घोला था उसी प्रकार से जाकिर नाईक भी मलेशिया की राजनीति का घोर इस्लामीकरण करेगा, पाकिस्तान से भी बड़ा आतंकवाद के आउटर्सोिर्संग करने वाला देश मलेशिया को बनायेगा। ओसामा बिन लादेन के  निशाने पर अफगानिस्तान की सोवियत संघ की सेना और उसकी समर्थक सरकार थी, ठीक इसी प्रकार जाकिर नाईक का निशाना भारत होगा। भारत को एक मुस्लिम राष्ट्र के रूप में तब्दील करने का उसका आतंकवादी एजेंडा कोई नया नही है, यह उसका राजनीतिक एजेंडा काफी पुराना है। मलेशिया फरार होने से पूर्व वह कई सालों तक भारत में रह कर और सरेआम भारत को इस्लामिक राष्ट्र के रूप में तब्दील करने के लिए सक्रिय था। इसके लिए मुस्लिम युवकों को मजहबी मानसिकता से जोड़ने और मुस्लिम युवकों को भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ विष वमन करने के लिए उकसाता था। इस मजहबी आतंकवादी करतूत में उसे राजनीति का भी सहयोग और समर्थन मिला था। नरेन्द्र मोदी सरकार से पूर्व जो सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह की सरकार थी उस सरकार में जाकिर नाईक की बडी धमक थी, जाकिर नाईक जैसे मजहबी आतंकवादी विचार के पोषकों और प्रचारकों को खूब सहयोग और समर्थन हासिल होता था, इनके विष वमन वाले भाषणों की कोई रोक-टोक नही थी। कांग्रेस के नेता दिग्विज सिंह भी जाकिर नाईक को भारत का शान और मानवता का हितैषी बताते थे। यद्यपि जाकिर नाईक के उफान और घृणा वाले भाषणों से भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को चुनौती मिलती थी और भारत को एक अंधेरगर्दी से पूर्ण, हिंसक और अमानवीय देश में तब्दील करने के लिए मानसिकताएं फैलती थी फिर भी उसे मुस्लिम वोट बैंक के आधार पर संरक्षण और सहयोग की गारंटी मिलती रही थी।
                                                     जाकिर नाईक को लेकर भारतीय सुरक्षा-गुप्तचर एजेंसियों ने जिस तरह के खुलासे किये हैं और जिस तरह की रिपोर्ट भारत सरकार को सौंपी है उसके खतरे और चुनौतियां काफी गंभीर हैं, डरावनी है, भारत की आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरे की घंटी है और वैश्विक स्तर पर भारत की कूटनीतिक सक्रियता को बढाने वाली है। भारतीय सुरक्षा और गुप्तचर एजेंसियों ने साफ तौर भारत सरकार से कहा है कि जाकिर नाईक अब भारत की सुरक्षा के लिए खतरा बनने वाला है, उसने मलेशिया में रोंिहंग्या आर्मी खडी की है, रोहिंग्या आर्मी में न केवल रोहिंग्या मुसलमानों को शामिल किया जा रहा है, बल्कि मलेशिया के मुस्लिम युवकों के साथ ही साथ भारत के मुस्लिम युवकों को भी शामिल किया जा रहा है। रोहिंग्या मुसलमानों के पूर्व आतंकवादी जो म्यांमार छोडकर भाग खडे हुए थे वे अब जाकिर नाईक की रोंिहंग्या आर्मी का नेतृत्व करेंगे और उसमें शामिल होकर मुस्लिम आतंकवाद और हिंसा को फैलायेंगे। एक समय में रोंहिंग्या आंतकवादियों ने अपनी हिंसा और आतंकवाद से म्यांमार की संप्रभुत्ता को चुनौती दी थी, म्यांमार की बौद्ध और हिन्दू आबादी को अपनी हिंसा और आतंकवाद से लहूलुहान किया था, डराया-धमकाया था, रोंहिंग्या आबादी वाले इलाके से भाग जाने का विकल्प दिया था, म्यांमार की पुलिस और सैनिक छावनियों पर संगठित हमले कर दर्जनों पुलिस और सैनिक जवानों की हत्या कर डाली थी। प्रतिर्किया में म्यांमार की पुलिस और सेना की सक्रियता शुरू हुई थी, असिन विराथु नाम का एक नन्हा बौद्ध साधु ने मोर्चा संभाला था। म्यांमार की पुलिस और सेना की प्रतिकिया रोहिंग्या आतंकवादियों ही नहीं बल्कि रोहिंग्या आबादी को भारी पडी थी। रोहिंग्या आतंकवादी अपनी जान बचाने के लिए भाग खडे हो गये थे। रोहिंग्या आतंकवादी भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान और मलेशिया में शरण लिये थे। करीब दो लाख रोहिंग्या आबादी भी म्यांमार से पलायन करने के लिए बाध्य हुई थी। प्रमुख शरणकर्ता देश बाग्लादेश भी अब रोहिंग्या मुस्लिम आबादी को अपनी संप्रभुत्ता के लिए खतरे की घंटी मान रहा है और वैश्विक समुदाय से रोहिंग्याओं की समस्याओं का समाधान करने पर जोर दे रहा है, क्योंकि रोहिंग्या आबादी अब बांग्लादेश में हिंसा और मुस्लिम कट्टरता के सहचर बन रही हैं।
                                                    जाकिर नाईक की आतंकवादी करतूत के खिलाफ में सबसे पहली आवाज बांग्लादेश ने उठायी थी। बांग्लादेश में उस काल में एक पर एक कई आतंकवादी हमले हुए थे, मुस्लिम युवक लगातार आतंकवादी हमले में सक्रिय थे, इसके अलावा बांग्लादेश की मुस्लिम आबादी के बीच आतंकवाद की घृणा तेजी से बढ रही थी। बांग्लादेश की सुरक्षा और गुप्तचर एजेंसियों ने जब इसकी पडताल गहणता के साथ की तब उनके होश उड़ गये। गहणता के साथ हुई जांच में यह निष्कर्ष सामने आया कि बांग्लादेश में होने वाली आतंकवादी घटनाओं की आधारशिला बांग्लादेश नहीं है बल्कि उसकी आधारशिला भारत है। जाकिर नाईक और उसका संगठन भारत में बैठ कर बांग्लादेश में आतंकवादी घटनाओं का प्रचार-प्रसार संगठित तौर पर कर रहे हैं, पकडे गये आतंकवादी संगठनों और आतंकवादियों के पास से जाकिर नाईक के घृणित और आतंकवादी विचार पर आधारित भाषणों के कैसेट ही नहीं बल्कि पुस्तिकाएं भी पकडी गयी थी। जैसे-जैसे जांच आगे बढी वैसे बांग्लादेश की सुरक्षा और गुप्तचर एजेंसियों की चुनौतियां बढती गयी थी, उनके सामने जाकिर नाईक के नेटवर्क को ध्वस्त करने का कठिन और खतरनाक प्रश्न खड़ा था। बांग्लादेश पर उदारवादी सरकार राज कर रही थी। बांग्लादेश की उदारवादी सरकार जाकिर नाईक को स्वीकार नहीं थी। बांग्लादेश की मुस्लिम आबादी के बल पर वह भारत को इस्लामिक देश में तब्दील करने की राह पर था। बांग्लादेश ने गंभीरता दिखाते हुए भारत सरकार को जाकिर नाईक को नियंत्रित करने के लिए कहा। भारत में जब उसके संगठनों पर नकेल कसने की कार्यवाही शुरू हुई तो वह भाग कर मलेशिया चला गया।
                                              मलेशिया भी उसी तरह की आग से खेल रहा है जिस तरह की आग से कभी पाकिस्तान ने खेला था। पाकिस्तान ने अपना आईकाॅन ओसामा बिन लादेन को बना लिया था, अपना गौरव ओसामा बिन लादेन नाम का उस भगोडे को बना लिया था जिसकों उसके अपने देश सउदी अरब ने भगा दिया था। दुष्परिणाम क्या हुआ। आज पाकिस्तान में आतंकवादी संगठन गाजर-मूली की तरह नागरिकों की हत्याएं करते हैं, आतंकवादी संगठनों की हिंसा और अलगाव के कारण आज पाकिस्तान कंगाल बन गया है, कोटरा लेकर भीख मांगने के बावजूद उसे अंतर्राष्ट्रीय जगत भीख यानी कर्ज देने के लिए तैयार नहीं हैं। ओसामा बिन लादेन की तरह जाकिर नाईक भी मलेशिया का मूल निवासी नहीं है, वह भारत का भगोड़ा है। जाकिर नाईक भी मलेशिया की शांत राजनीति में जहर घोलना चाहता है। यह कहना सही होगा कि जाकिर नाईक मलेशिया की शांत राजनीति में जहर घोलना शुरू कर दिया है। मलेशिया में बहुलता में मुस्लिम आबादी जरूर है पर मलेशिया में हिन्दू, ईसाई, बौद्ध तथा चीनी आबादी भी भारी संख्या में है। मलेशिया की सत्ता मुस्लिम पक्षी होती है। मुस्लिम बहूलता के कारण हमेशा मजहबी सरकार बनती है। मलेशिया रहने के दौरान जाकिर नाईक ने गैर मुस्लिम आबादी को डराना और धमकाना शुरू कर दिया और उसका आतंकवाद-हिंसा का व्यापार सरेआम चलने लगा। उसने एक खतरनाक बयान दिया था कि मलेशिया से गैर मुस्लिमों को भगा दिया जाना चाहिए या फिर उन्हे इस्लाम स्वीकार करने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। उसकी इस खतरनाक और हिंसक बयानबाजी की बडी प्रतिकिया हुई थी। मलेशिया के हिन्दू, ईसाई, बौद्ध और चीनी आबादी ने इसके खिलाफ आवाज उठायी। फिर मलेशिया की सरकार ने जाकिर नाईक के लिए कुछ नियंत्रण वाली राजनीतिक प्रक्रियाएं शुरू करने की बात की थी। दरअसल मलेशिया की मुस्लिम वैश्विक राजनीति के कारण जाकिर नाईक की आतंकवादी करतूत और नीति आगे बढ रही है। मलेशिया इधर मुस्लिम देशों का नेता बनने का ख्वाब रखता है। पाकिस्तान, तुर्की और मलेशिया ने दुनिया भर में मुस्लिम प्रश्नों पर त्रिकोण बनाया है। इस त्रिकोण के खास निशाने पर भारत है। पाकिस्तान के हित संरक्षण के लिए मलेशिया और तुर्की दुनिया के मंचों पर सक्रिय रहते हैं। भारत को डराने-धमकाने और भारत को एक इस्लामिक देश में तब्दील करने के लिए मलेशिया, पाकिस्तान, तुर्की जाकिर नाईक को संरक्षण दे रहे हैं। ग्रीस के एक पत्रकार ने कुछ दिन पूर्व खुलासा किया था कि तुर्की इराक और सीरिया के आईएस आतंकवादियों को कश्मीर में आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने के लिएं भेजने की साजिश कर रहा है।
                                            ं भारत की प्रतिकिया क्या होनी चाहिए? पाकिस्तान, तुर्की और मलेशिया जैसे मुस्लिम देश तो भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की नीति से पीछे हटने वाले नहीं हैं, ये तो हमारे लिए स्थायी दुश्मन हैं, जाकिर नाईक, रोहिंग्या आतंकवादी और आईएस आतंकवादी भी हमारे लिए खतरे की घंटी है। अब भारत को अपने देश में रहने वाले रोहिंग्या लोगों पर नीति बदलनी चाहिए, उन्हें निगरानी सूची में शामिल किया जाना चाहिए, उन्हें म्यांमार भेजने की रणनीति अपनानी चाहिए। पहले भी भारत में कई रोहिंग्या आतंकवादी पकडे गये हैं जो भारत में रह कर रोहिंग्या आर्मी खडी कर रहे थे। सबसे बडी कार्यवाही तो जाकिर नाईक पर होनी चाहिए। जाकिर नाईक को वैश्विक आतंकवादी घोषित कराया जाना चाहिए, जाकिर नाईक और आईएस आतंकवादियों को शरण देने वाले और इन्हें भारत विध्वंस के लिए सहयता करने वाले पाकिस्तान, तुर्की और मलेशिया को भी वैश्विक मंचों पर घसीटना चाहिए।


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