राष्ट्र-चिंतन
औरतों के प्रति असहिष्णुता क्यों?
इस्लामिक मीडिया की करतूत
विष्णुगुप्त
ब्रिटेन की इस्लामिक मीडिया की करतूत से यूरोप में औरतों की आजादी पर गंभीर प्रश्न खड़ा हो गया है। चर्चा /चिंता की बातें यह हो रही है कि कहीं इस्लाम की कट्टरतावादी मूल्यों/संहिताओं की पैठ से यूरोप की धार्मिक /महिला की आजादी भी प्रभावित न हो जाये और खूली सामाजिक व्यवस्था पर मजहबी संहिताएं न खड़ी हो जायें? हाल के वर्षो में इस्लाम की कट्टरता यूरोप में एक बड़ा राजनीतिक/सामाजिक/ धार्मिक प्रश्न बन गया है। कई यूरोपीय देश में इस्लाम के अनुदार संस्कृति के प्रचार-प्रसार को रोकने के लिए संवैधानिक संहिताएं भी बनायी हैं और संवैधानिक संहिताओं के उल्लंधन पर दंड के प्रावधान भी किये हैं। ऐसा इसलिए हुआ कि यूरोप में मजहबी संस्कृति के नाम पर कानून-संविधान का खुल्ला-खुल्लम उंलघन कर राजनीतिक ताकत बनाने का खेल-खेला जा रहा है। इस तरह के खेल से यूरोप को उदार समाज तब-तक उदासीन था और बर्दाशत कर रहा था जब तक मजहबी संस्कृतियां खतरनाक रूप धारण कर राजनीति/सत्ता को न प्रभावित कर रही थीं। जैसे ही उदार समाज व्यवस्था पर इस्लाम ने अपनी मजहबी संस्कृतियां हावी की और अलग कानून/संविधान कोड की मांग शुरू की वैसे ही यूरोप का समाज व्यवस्था ने मजहबी संस्कृतियों के प्रचार-प्रसार के खिलाफ सक्रियता भी दिखानी शुरू की है। फ्रांस में बुर्का के खिलाफ संवैधानिक प्रतिबंध इसकी सबसे बड़ी कड़ी है। पहले मजहबी संस्कृतियां और खतरनाक संहिताएं इस्लाम से जुड़े संस्थाएं मजबूत कर रहीं थी और अब मीडिया भी इसमें शामिल हो गया। इस्लामिक मूल्यों और रूढ़ियों के प्रचार-प्रसार के लिए अनेक मीडिया यूरोप में खड़े हैं जो इस्लाम और गैर इस्लामिक आबादी के बीच टकराहट/घृणा/का बाजार लगा रहे हैं। मीडिया के उपर मजहबी संहिताएं हावी होना न सिर्फ यूरोप में इस्लामिक कट्टरता को बढाने वाला और औरत की आजादी को प्रभावित करने जैसी चिंताएं होनी चाहिए बल्कि शेष दुनिया को भी इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
ओसामा बिन लादेन की संस्कृति और अराजक खूनी शक्ति ने इस्लामिक मीडिया को और खूंखार बना दिया है। ‘अल जजीरा ‘ ने जैसी दुनिया भर मे सोहरत पायी और ओसामा बिन लादेन की संस्कृति/खूनी सोच को दुनिया भर में स्थापित करने / इस्लाम को संघर्ष के प्रतीक जैसी भ्रांतियां फैलाने में कामयाब हुई वैसे ही इस्लाम की कट्टरवादी संस्थाओं को मीडिया को मोहरा के रूप में एक नया और खूंखर हथियर मिल गया। यूरोप में आज कुकुरमुत्ते की तरह गली-गली में इस्लामिक मीडिया अपनी मजहबी कट्टरता के प्रचार-प्रसार में लगा हुआ है। खासकर ब्रिटेन में इस्लामिक मीडिया अपनी दो प्रकार की समस्याएं खड़ी कर रहे हैं। एक में इस्लाम की रूढ़ियों को बढ़ावा देने और आतंकवाद जैसी खूनी मजहबी प्रक्रिया बढाया जा रहा है तो दूसरे में राजनीति समीकरण को प्रभावित किया जा रहा है। राजनीतिक समीकरण के प्रभावित होने से इस्लाम की रूढ़ियां को अपना बाजार पसारने में सहुलियत होती हैं। ब्रिटेन मे 14 प्रतिशत की आबादी इस्लाम को मानने वाली हैं। यह इस्लामिक आबादी अरब देशो/पाकिस्तान और अफ्रीकी देशों से जाकर बसी हैं। अब यह इस्लामिक आबादी ब्रिटेन की उदार और समतामूलक संविधान में इस्लामिक हिस्सेदारी चाहती हैं। इतना ही नहीं बल्कि इस्लामिक संहिताओं को लागू करने की मांग भी खतरनाक ढंग से उठी है। राजनीतिक तौर पर ऐसी खतरनाक और मजहबी मांगों के प्रति कठोरता भी नहीं दिखायी जाती है। इसलिए कि 14 प्रतिशत वाली मुस्लिम आबादी सत्ता को उखाड़ फेंकने की राजनीतिक शक्ति रखती है। ब्रिटेन या अन्य यूरोपीय देशों की सत्ता भारत की सत्ता जैसा ही मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति पर चलती है और सत्ता संस्थान के स्थायीकरण के लिए मुस्लिम आबादी के जायज/नाजायज मांगों के प्रति धुटने टेकती रहती है।
ब्रिटेन की एक इस्लामिक मीडिया संस्थान ने अपने खबरिया चैनल पर प्रसारित एक कार्यक्रम में न केवल घरेलू हिंसा का समर्थन किया बल्कि वैवाहिक महिलाओ के साथ बलात्कार जैसी प्रक्रियाओ को भी सही ठहराया गया। घरेलू हिंसा और बलात्कार का समर्थन कोई दर्शकों की राय नहीं थी। बल्कि खबरिया चैनल के एंकरों ने यह दर्शाया कि इस्लाम में औरतों को मारने-पिटने का अधिकार पुरूषों को है। वैवाहिक महिलाओं के साथ बलात्कार का भी अधिकार पुरूषों को है। खबरिया चैनल ने यह भी प्रचारित किया कि घरेलू हिंसा या फिर बलात्कार की शिकार महिलाएं कोर्ट नहीं जा सकती हैं और न पुरूषों को दंडित करा सकती हैं। ऐसा करने पर इस्लाम का तौहीन माना जायेगा और ऐसी महिलाओं के खिलाफ शरियत में दंड का प्रावधान है। दुनिया में कहीं भी रहने वाले मुस्लिम पुरूषों पर अपनी पत्नियों पर हिंसा की कार्रवाई पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। महिलाएं श्रृंगार भी नहीं कर सकती हैं। इत्र लगाने वाली महिलाओं को वैश्या कहा गया। श्रृंगार करने वाली महिलाओं पर तलाक जैसी प्रक्रिया का बुलडोजर चलाने और ऐसी महिलाओं की जिंदगी नरक में तब्दील करने की भी अपील की गयी। खबरिया चैनल ने औरतों की आजादी को बंधक बनाने और औरतों को कबिलाई काल के बर्बर अत्याचार के मुंह में ढकेलने वाले कार्यक्रम का एक बार नहीं बल्कि बार-बार प्रसारित किया। चूंकि प्रसारण अरबी, उर्दू और अफ्रीकी भाषाओं में हो रहा था, इसलिए इस पर ब्रिटेन में ध्यान काफी बाद में गया। जैसे ही उक्त कार्यक्रम की जानकारी आम हुई वैसे ही ब्रिटेन के समाज और महिला संगठनों में आक्रोश उबल पड़ा। ऐसे कार्यक्रमों के औचित्य पर प्रश्न उठने के साथ ही साथ ऐसे मीडिया संस्थानों को प्रतिबंधित करने की मांग भी उठी। मीडिया पर निगरानी करने वाली संस्था ‘ऑफ्कॉम‘ ने सीधेतौर पर कहा कि ऐसा प्रसारण सीधेतौर पर प्रसारण नियमावली का उल्लंघन है और व्यक्ति की स्वततंत्रा का हनन करने वाला भी है। इस तरह के कार्यक्रम के प्रसारण से औरतो पर हिंसा बढंेगी और यूरोपीय समाज पर बर्बर जेहादी-मजहबी संस्कृतियां हावी हो जायेंगी।
औरतों की आजादी को मजहबी कट्टरता से बचाना आज भी एक ज्वलंत सवाल है। अन्य धार्मिक समूहों में औरतों पर उत्पीड़न वाली सामाजिक श्रृंखलाएं दम तोड़ चुकी हैं। महिलाओं ने भी अपनी आजादी को धार्मिक बंधन से मुक्त करने में संघर्षकारी भूमिका निभायी है। पर जब इस्लाम की बात आती है तब महिलाएं आज भी अपनी आजादी के प्रति प्ररेक श्रृंखलाएं से अपने आप को जोड़ने से कतराती है। ऐसा क्यों? इसलिए कि मजहबी समाज में अपनी आजादी की बात करने की कीमत महिलाओं को जान देकर चुकानी पड़ती है। अफगानिस्तान /पाकिस्तान में तालिबान ने महिलाओं के खिलाफ कैसी कार्रवाई जारी रखी हैं, इससे भी दुनिया भलिभांति से परिचित है। अरब देशों में महिलाओं पर इस्लामिक सत्ता का उत्पीड़न भी जगजाहिर है। यूरोप में जो इस्लामिक मीडिया का जाल है वह न केवल इस्लाम की रूढ़ियों का प्रचार-प्रसार में लगा हुआ है बल्कि भारत/इजरायल/ फिलिपींस जैसे देशों में इस्लामिक आतंकवाद को भी खाद-पानी दे रहा है। भारत/इजरायल/फिलिपींस आदि देशों के बारे अतिरंजित खबरे प्रसारित होती हैं। खबरों में यह दिखाया जाता है कि मुस्लिम आबादी पर अत्याचार के साथ ही साथ इस्लाम का तिरस्कार किया जा रहा है। ऐसे कार्यक्रमों से इस्लाम की रूढ़ियों का ग्राफ बढ़ता ही है और जेहादी मानसिकता भी फलता-फुलता है।
ब्रिटेन ही नहीं बल्कि पूरे यूरोपीय समाज को आत्ममंथन करना चाहिए और भविष्य में इस्लाम के और खतरनाक मानसिकताओं के प्रचार-प्रसार पर अंकुश लगाने के लिए तत्पर होना होगा। यूरोप ने उदारवाद और मजहबी आजादी के नाम पर इस्लाम के अनुदारवाद और खूनी मानसिकता का समर्थन कर खुद ही आग को हवा दी है। इस आग में आज खुद यूरोप झुलस रहा है। यूरोपीय देशों की सत्ता को मुस्लिम महिलाओं की आजादी के संरक्षण के प्रति सचेत रहना चाहिए। औरतों की आजादी के खिलाफ बर्बर कार्यक्रम प्रसारित करने वाले इस्लामिक मीडिया पर ताल्ला क्यों नहीं लगना चाहिए?
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Thursday, November 18, 2010
Friday, October 15, 2010
राष्ट्र-चिंतन
कांग्रेस की एक और खुशफहमी टूटी
नरेन्द्र मोदी को अब विकास पुरूष कहिये
विष्णुगुप्त
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक बार फिर न केवल जनमत/राजनीतिक की कसौटी पर मजबूत बन कर उभरे हैं बल्कि अपने विरोधियों/कथित धर्मनिरपेक्षतावादियों को करारा जवाब भी दिया है। गुजरात के नगर निगम चुनावों में भाजपा का परचम लहराया है और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व को गुजरात की जनता ने एक बार फिर से स्वीकृति दी है और समर्थन दिया है। नरेन्द्र मोदी ने गुजरात की जनता के सामने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को सामने रखा और उन्हें यह अहसार कराया कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष संवर्ग की तुष्टीकरण की राजनीति किस प्रकार से गुजरात और राष्ट्र की अस्मिता को रौंदती है। गुजरात की जनमत ने भी यह महसूस किया केन्द्र की सत्ता/सीबीआई/न्यायपालिका सहित अन्य संवर्ग ने बहुमत की जनमत की अस्मिता के साथ खिलवाड़ कर रहा है और एकतरफा/झूठी/बदले की भावना से तथ्य प्रत्यारोपित किये हैं और कर रहे हैं। एक मात्र मकसद जनमत की भावनाओं को दरकिनार कर न्यायपालिका और सीबीआई के बल पर नरेन्द्र मोदी को सत्ता से बाहर करने के साथ ही साथ उनके राजनीतिक जीवन पर विराम लगाने की प्रक्रिया चल रही है। कांग्रेस ने गुजरात में अपने सभी हथकंडे चलाने में कोताही नहीं बरती। कांग्रेस को यह खुशफहमी थी कि भाजपा के आंतरिक अंतर्विरोधों और स्थानीय स्तर पर सत्ता विरोधी लहरों पर सवार होकर नरेन्द्र मोदी को नगर निगम चुनावों में पटखनी दी जा सकती है। कांग्रेस हमेशा यह समझने में भूल करती है कि गुजरात में जनमत की समझ और समृद्धि को झासे में लिया जा सकता है और उनके सिर पर तुष्टीकरण की नीति सवार हो सकती है। नरेन्द्र मोदी ने कभी भी गुजरात या फिर राष्ट्र की अस्मिता से मुंह छीपने की कोशिश नहीं की और न ही समझौते में विश्वास किया। यही उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति है और इसी राजनीतिक शक्ति से गुजरात की बहुमत की आबादी हमेशा चमत्कृत रहती हैं।
कांग्रेस के रणनीतिकारो का दिवालियापन देख लीजिये। कांग्रेस ने नगर निगम चुनावों में मुख्य मुद्दा जिस प्रसंग को बनाया था उस प्रसंग से कांग्रेस को नगर निगम चुनावों में बहुमत की बात तो दूर थी बल्कि मजबूत या उल्लेखनीय जनमत मिलने वाला था नहीं। हुआ भी यही। कांग्रेस ने सहराबुउदीन प्रसंग को चुनावी मुख्य प्रसंग बनाया था। कांग्रेस के सभी नेता सहराबुउदीन प्रसंग को इस ढंग से उठा रहे थे और जनता के बीच बार-बार दहाड रे थे जैसे गुजरात की पूरी आबादी का सहराबुउदीन प्रतितिधित्व करता था/नायक था/कोई महात्मा गांधी से भी बड़ी हैसियत व त्याग वाली हस्ती थी। कांग्रेस ने गुजासत के गृह मंत्री अमित शाह को जेल में भेजवाने जैसी कार्रवाई और उपलब्धि को प्रचारित कर रही थी। सहराबुउदीन क्या था, इसकी सच्चाई गुजरात की जनता क्या नहीं जानती थी? गुजरात की जनता जानती थी कि सहराबुउदीन जैसे अपराधी और मजहबी मानसिकता वाले लोगों से सम्मान अर्जित नहीं की जा सकती है। सहराबुउदीन ने गुजरात /महाराष्ट /राजस्थान और मध्यप्रदेश की पुलिस को नाकोचने चबवा रखा था। उसके अपराधिक कुकृत्यों से व्यापरिक और अन्य रसूक वाला तबका त्राहिमाम कर रहा था। लाखों-करोड़ों की वसूली का बाजार लगा रखा था वह। कुख्यात अंडरवर्ल्ड सरगना दाउद इब्राहिम गिरोह से उसका जुड़ाव था। सहराबुउदीन ने मध्य प्रदेश में सांप्रदायिकत दंगे भी कराने की कोशिश की थी। उसके घर से घातक हथियारों का खजाना मिला था। इसके बावजूद भी कांग्रेस ने सीबीआई के माध्यम से सहराबुउदीन केस के माध्यम से नरेन्द्र मोदी को अस्थिर करने और गुजरात की बहुमत की आबादी की अस्मिता को तार-तार करने की राजनीतिक रणनीति बुनी। इसी का परिणाम है कि नगर निगम चुनावों में कांग्रेस को गुजरात की जनता ने वियावान में खड़ा करने का काम किया है।
नरेन्द्र मोदी सिर्फ अस्मिता का प्रश्न नहीं उठाते हैं। सिर्फ प्रादेशिक अस्मिता या राष्ट्रीय अस्मिता का प्रश्न उठाकर कोई भी राजनीतिज्ञ लम्बे समय तक सत्ता में काबिज नहीं रह सकता है। अस्मिता के साथ कई कारकें भी जुटी हुई हैं। फटेहाली/तंगहाली/भूख/गरीबी/ बेकारी/ अविकास/अरोजगार जैसी बुराइयां या फिर अनुपलब्धियों से प्रादेशिक-राष्ट्रीय अस्मिता का भाव जागृत भी नहीं हो सकता है। अस्मिता जैसी प्रक्रिया खुशहाली और समृद्धि के बाद ही आती है। नरेन्द्र मोदी ने इस मंत्र का न केवल समझा-बुझाा बल्कि इसे राजनीतिक जीवन का सार भी बनाया। गुजरात दंगों के बाद इन्होंने अपना सारा घ्यान विकास और उन्नति पर लगाया। विकास के प्रसंग में कुछ बातें अनिवार्य हैं। एक राजनीतिक अस्थिरता, दूसरा चाकचौबंद सरकारी अमला और तीसरा भ्रष्टाचार मुक्त शासन व्यवस्था। इन तीना बातों पर मोदी ने अपनी सरकारी-प्रशासनिक सक्रियता चाकचौबंद की। बेलगाम नौकरशाही को उसने कड़ी और मजबूत लगाम लगायी। अन्य सरकारी अमले को चाकचौबंद किया। शासन को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने पर जोर दिया। परिणाम यह निकला कि विकास की सीढ़िया दर सीढियां बननी शुरू हो गयी। विकास के नये-नये मॉडल तैयार हुए। सड़के/बिजली/पानी जैसी जरूरी जनसुविधाएं आम आदमी तक पहुची। स्वास्थ्य और शिक्षा की सरकारी सुविधाएं भी चाकचौबंद हुई। औद्योगिक निवेश बढ़ा। गुजरात दंगे के बाद यह कहा गया था कि निवेशक गुजरात आयेंगे नहीं। इसलिए कि गुजरात में राजनीतिक स्थिरता होगी नहीं और तकरार चरम पर होगा। ये बातें बेकार साबित हुई। किसी को भी यह आशा नहीं थी कि टाटा पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के विरोध और आंदोलन से डर कर अपना नैनो प्रोजेक्ट को गुजरात ले जायेगा। टाटा को साधने में नरेन्द्र मोदी अव्वल साबित हुए। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात आज दिन दुगनी, रात चौगुनी प्रगति की राह नाप रहा है। गुजरात देश का सर्वाधिक धनी और विकसित राज्य है। यह सिर्फ और सिर्फ नरेन्द्र मोदी के कुशल और करिश्माई रणनीति और नेतृत्व से ही संभव हो सका है। नरेन्द्र मोदी की इस उपलब्धि को उनके विरोधी भी स्वीकार करते हैं। कांग्रेस जरूर नरेन्द्र मोदी की खिल्ली उड़ाती है पर यूपीए सरकार अपने विभिन्न रिपोर्टो में नरेन्द्र मोदी के विकास के सौंपाने को न केवल सम्मान की दृष्टि से देखती है बल्कि प्रमाण पत्र भी देती है।
संघर्ष को कैसे शक्ति दी जाती है और विरोधों को कैसे दरकिनार किया जाता है/पराजित किया जाता है,इसमें नरेन्द्र मोदी की कोई सानी नहीं है। देश पर राज करने वाली सत्ता और पार्टी के साथ ही साथ तमाम तरह की कथित तौर पर धर्मनिरपेक्ष शक्तियां विरोध में खड़ी रहती हैं और उन्हें जेलो में भेजने के लिए न्यायिक-पुलिस साजिश बुनती रहती हैं। एक पर एक मनगढ़त और प्रत्यारोपित तथ्य प्रस्तुत हुए। मनगढंत और प्रत्यारोपित तथ्यों पर भी न्यायिक पुलिस सक्रियता चली। देश में मुठभेड़ की हजारों लम्बित प्रसंग हैं फिर सहाराबुउदीन पर ही न्यायिक और पुलिस की सक्रियता क्यों चली। सीधेतौर पर कांग्रेस की यह चाल थी। कांग्रेस ने पुलिस और न्यायिकत सक्रियता को मोहरा बनाकर मोदी को हटाने का ख्याल रखती है जो शायद ही खुशफहमी से बाहर निकल सकती है। हेडली ने पूछताछ में यह स्वीकार कर लिया है कि गुजरात पुलिस द्वारा मारे गये सभी आतंकवादी उनके मिशन के साथ जुड़े हुए थे फिर भी नरेन्द्र मोदी को फसाने और गुजरात की बहुमत की आबादी की छवि खराब करने की कोशिश रूकती नहीं है। यह सब गुजरात की बहुमत की आबादी को क्यो नहीं मालूम है?
केन्द्र की सत्ता में आने के बाद भाजपा खुद पथभ्रष्ट हो गयी। उसके सभी राष्ट्रवादी वायदे और यर्थाथ खो गये। उसके उपर भी कांग्रेस की बी टीम होने की भूत नाचने लगी। दलबदलुओं और सिद्धांतहीन लोगों की सवारी चमकायी गयी। परिणाम यह हुआ कि भाजपा लगातार अपना जानाधार खोती रही। पर नरेन्द्र मोदी ने अपने राष्ट्रवादी वायदों और यर्थाथ से कभी मुंह नहीं मोडा। बल्कि उन्होंने संघर्ष का रास्ता चुना। उनके संघर्ष में राष्ट्रवाद की अस्मिताएं तो होती ही हैं इसके अलावा विकास की सीढ़िया दर सीढियां भी शामिल होती हैं।यही कारण है कि नरेन्द्र मोदी को आज लालकृष्ण आडवाणी के बाद सर्वाधिक लोकप्रियता मिली हुई है। भाजपा का एक बड़ा तबका मोदी के नेतृत्व में राष्ट्र के उत्थान और विकास के सपने देखता है। इसी सपने का प्रतीक है गुजरात नगर पालिका चुनाव में भाजपा और नरेन्द्र मोदी की जीत।
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कांग्रेस की एक और खुशफहमी टूटी
नरेन्द्र मोदी को अब विकास पुरूष कहिये
विष्णुगुप्त
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक बार फिर न केवल जनमत/राजनीतिक की कसौटी पर मजबूत बन कर उभरे हैं बल्कि अपने विरोधियों/कथित धर्मनिरपेक्षतावादियों को करारा जवाब भी दिया है। गुजरात के नगर निगम चुनावों में भाजपा का परचम लहराया है और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व को गुजरात की जनता ने एक बार फिर से स्वीकृति दी है और समर्थन दिया है। नरेन्द्र मोदी ने गुजरात की जनता के सामने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को सामने रखा और उन्हें यह अहसार कराया कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष संवर्ग की तुष्टीकरण की राजनीति किस प्रकार से गुजरात और राष्ट्र की अस्मिता को रौंदती है। गुजरात की जनमत ने भी यह महसूस किया केन्द्र की सत्ता/सीबीआई/न्यायपालिका सहित अन्य संवर्ग ने बहुमत की जनमत की अस्मिता के साथ खिलवाड़ कर रहा है और एकतरफा/झूठी/बदले की भावना से तथ्य प्रत्यारोपित किये हैं और कर रहे हैं। एक मात्र मकसद जनमत की भावनाओं को दरकिनार कर न्यायपालिका और सीबीआई के बल पर नरेन्द्र मोदी को सत्ता से बाहर करने के साथ ही साथ उनके राजनीतिक जीवन पर विराम लगाने की प्रक्रिया चल रही है। कांग्रेस ने गुजरात में अपने सभी हथकंडे चलाने में कोताही नहीं बरती। कांग्रेस को यह खुशफहमी थी कि भाजपा के आंतरिक अंतर्विरोधों और स्थानीय स्तर पर सत्ता विरोधी लहरों पर सवार होकर नरेन्द्र मोदी को नगर निगम चुनावों में पटखनी दी जा सकती है। कांग्रेस हमेशा यह समझने में भूल करती है कि गुजरात में जनमत की समझ और समृद्धि को झासे में लिया जा सकता है और उनके सिर पर तुष्टीकरण की नीति सवार हो सकती है। नरेन्द्र मोदी ने कभी भी गुजरात या फिर राष्ट्र की अस्मिता से मुंह छीपने की कोशिश नहीं की और न ही समझौते में विश्वास किया। यही उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति है और इसी राजनीतिक शक्ति से गुजरात की बहुमत की आबादी हमेशा चमत्कृत रहती हैं।
कांग्रेस के रणनीतिकारो का दिवालियापन देख लीजिये। कांग्रेस ने नगर निगम चुनावों में मुख्य मुद्दा जिस प्रसंग को बनाया था उस प्रसंग से कांग्रेस को नगर निगम चुनावों में बहुमत की बात तो दूर थी बल्कि मजबूत या उल्लेखनीय जनमत मिलने वाला था नहीं। हुआ भी यही। कांग्रेस ने सहराबुउदीन प्रसंग को चुनावी मुख्य प्रसंग बनाया था। कांग्रेस के सभी नेता सहराबुउदीन प्रसंग को इस ढंग से उठा रहे थे और जनता के बीच बार-बार दहाड रे थे जैसे गुजरात की पूरी आबादी का सहराबुउदीन प्रतितिधित्व करता था/नायक था/कोई महात्मा गांधी से भी बड़ी हैसियत व त्याग वाली हस्ती थी। कांग्रेस ने गुजासत के गृह मंत्री अमित शाह को जेल में भेजवाने जैसी कार्रवाई और उपलब्धि को प्रचारित कर रही थी। सहराबुउदीन क्या था, इसकी सच्चाई गुजरात की जनता क्या नहीं जानती थी? गुजरात की जनता जानती थी कि सहराबुउदीन जैसे अपराधी और मजहबी मानसिकता वाले लोगों से सम्मान अर्जित नहीं की जा सकती है। सहराबुउदीन ने गुजरात /महाराष्ट /राजस्थान और मध्यप्रदेश की पुलिस को नाकोचने चबवा रखा था। उसके अपराधिक कुकृत्यों से व्यापरिक और अन्य रसूक वाला तबका त्राहिमाम कर रहा था। लाखों-करोड़ों की वसूली का बाजार लगा रखा था वह। कुख्यात अंडरवर्ल्ड सरगना दाउद इब्राहिम गिरोह से उसका जुड़ाव था। सहराबुउदीन ने मध्य प्रदेश में सांप्रदायिकत दंगे भी कराने की कोशिश की थी। उसके घर से घातक हथियारों का खजाना मिला था। इसके बावजूद भी कांग्रेस ने सीबीआई के माध्यम से सहराबुउदीन केस के माध्यम से नरेन्द्र मोदी को अस्थिर करने और गुजरात की बहुमत की आबादी की अस्मिता को तार-तार करने की राजनीतिक रणनीति बुनी। इसी का परिणाम है कि नगर निगम चुनावों में कांग्रेस को गुजरात की जनता ने वियावान में खड़ा करने का काम किया है।
नरेन्द्र मोदी सिर्फ अस्मिता का प्रश्न नहीं उठाते हैं। सिर्फ प्रादेशिक अस्मिता या राष्ट्रीय अस्मिता का प्रश्न उठाकर कोई भी राजनीतिज्ञ लम्बे समय तक सत्ता में काबिज नहीं रह सकता है। अस्मिता के साथ कई कारकें भी जुटी हुई हैं। फटेहाली/तंगहाली/भूख/गरीबी/ बेकारी/ अविकास/अरोजगार जैसी बुराइयां या फिर अनुपलब्धियों से प्रादेशिक-राष्ट्रीय अस्मिता का भाव जागृत भी नहीं हो सकता है। अस्मिता जैसी प्रक्रिया खुशहाली और समृद्धि के बाद ही आती है। नरेन्द्र मोदी ने इस मंत्र का न केवल समझा-बुझाा बल्कि इसे राजनीतिक जीवन का सार भी बनाया। गुजरात दंगों के बाद इन्होंने अपना सारा घ्यान विकास और उन्नति पर लगाया। विकास के प्रसंग में कुछ बातें अनिवार्य हैं। एक राजनीतिक अस्थिरता, दूसरा चाकचौबंद सरकारी अमला और तीसरा भ्रष्टाचार मुक्त शासन व्यवस्था। इन तीना बातों पर मोदी ने अपनी सरकारी-प्रशासनिक सक्रियता चाकचौबंद की। बेलगाम नौकरशाही को उसने कड़ी और मजबूत लगाम लगायी। अन्य सरकारी अमले को चाकचौबंद किया। शासन को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने पर जोर दिया। परिणाम यह निकला कि विकास की सीढ़िया दर सीढियां बननी शुरू हो गयी। विकास के नये-नये मॉडल तैयार हुए। सड़के/बिजली/पानी जैसी जरूरी जनसुविधाएं आम आदमी तक पहुची। स्वास्थ्य और शिक्षा की सरकारी सुविधाएं भी चाकचौबंद हुई। औद्योगिक निवेश बढ़ा। गुजरात दंगे के बाद यह कहा गया था कि निवेशक गुजरात आयेंगे नहीं। इसलिए कि गुजरात में राजनीतिक स्थिरता होगी नहीं और तकरार चरम पर होगा। ये बातें बेकार साबित हुई। किसी को भी यह आशा नहीं थी कि टाटा पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के विरोध और आंदोलन से डर कर अपना नैनो प्रोजेक्ट को गुजरात ले जायेगा। टाटा को साधने में नरेन्द्र मोदी अव्वल साबित हुए। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात आज दिन दुगनी, रात चौगुनी प्रगति की राह नाप रहा है। गुजरात देश का सर्वाधिक धनी और विकसित राज्य है। यह सिर्फ और सिर्फ नरेन्द्र मोदी के कुशल और करिश्माई रणनीति और नेतृत्व से ही संभव हो सका है। नरेन्द्र मोदी की इस उपलब्धि को उनके विरोधी भी स्वीकार करते हैं। कांग्रेस जरूर नरेन्द्र मोदी की खिल्ली उड़ाती है पर यूपीए सरकार अपने विभिन्न रिपोर्टो में नरेन्द्र मोदी के विकास के सौंपाने को न केवल सम्मान की दृष्टि से देखती है बल्कि प्रमाण पत्र भी देती है।
संघर्ष को कैसे शक्ति दी जाती है और विरोधों को कैसे दरकिनार किया जाता है/पराजित किया जाता है,इसमें नरेन्द्र मोदी की कोई सानी नहीं है। देश पर राज करने वाली सत्ता और पार्टी के साथ ही साथ तमाम तरह की कथित तौर पर धर्मनिरपेक्ष शक्तियां विरोध में खड़ी रहती हैं और उन्हें जेलो में भेजने के लिए न्यायिक-पुलिस साजिश बुनती रहती हैं। एक पर एक मनगढ़त और प्रत्यारोपित तथ्य प्रस्तुत हुए। मनगढंत और प्रत्यारोपित तथ्यों पर भी न्यायिक पुलिस सक्रियता चली। देश में मुठभेड़ की हजारों लम्बित प्रसंग हैं फिर सहाराबुउदीन पर ही न्यायिक और पुलिस की सक्रियता क्यों चली। सीधेतौर पर कांग्रेस की यह चाल थी। कांग्रेस ने पुलिस और न्यायिकत सक्रियता को मोहरा बनाकर मोदी को हटाने का ख्याल रखती है जो शायद ही खुशफहमी से बाहर निकल सकती है। हेडली ने पूछताछ में यह स्वीकार कर लिया है कि गुजरात पुलिस द्वारा मारे गये सभी आतंकवादी उनके मिशन के साथ जुड़े हुए थे फिर भी नरेन्द्र मोदी को फसाने और गुजरात की बहुमत की आबादी की छवि खराब करने की कोशिश रूकती नहीं है। यह सब गुजरात की बहुमत की आबादी को क्यो नहीं मालूम है?
केन्द्र की सत्ता में आने के बाद भाजपा खुद पथभ्रष्ट हो गयी। उसके सभी राष्ट्रवादी वायदे और यर्थाथ खो गये। उसके उपर भी कांग्रेस की बी टीम होने की भूत नाचने लगी। दलबदलुओं और सिद्धांतहीन लोगों की सवारी चमकायी गयी। परिणाम यह हुआ कि भाजपा लगातार अपना जानाधार खोती रही। पर नरेन्द्र मोदी ने अपने राष्ट्रवादी वायदों और यर्थाथ से कभी मुंह नहीं मोडा। बल्कि उन्होंने संघर्ष का रास्ता चुना। उनके संघर्ष में राष्ट्रवाद की अस्मिताएं तो होती ही हैं इसके अलावा विकास की सीढ़िया दर सीढियां भी शामिल होती हैं।यही कारण है कि नरेन्द्र मोदी को आज लालकृष्ण आडवाणी के बाद सर्वाधिक लोकप्रियता मिली हुई है। भाजपा का एक बड़ा तबका मोदी के नेतृत्व में राष्ट्र के उत्थान और विकास के सपने देखता है। इसी सपने का प्रतीक है गुजरात नगर पालिका चुनाव में भाजपा और नरेन्द्र मोदी की जीत।
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Friday, October 8, 2010
राष्ट्र-चिंतन
मुशर्रफ की करतूत
पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित कराओ
विष्णुगुप्त
पूर्व तानाशाह परवेज मुशर्रफ ने भारत को तबाह करने के लिए आतंकवादी कारखाना चलाने की जो स्वीकारोक्ति की है उससे एक बार फिर साबित होता है कि पाकिस्तान एक आतंकवादी देश और वैश्विक आतंकवाद की आउटसोर्सिंग भी पाकिस्तान की करतूत है। पाकिस्तान की नीव घृणा/मजहबी उफान से पड़ी हुई थी। भारत विरोध ही नहीं बल्कि भारत विध्वंस की उसकी स्थायी सत्ता नीति है। सिर्फ सत्ता नीति की ही बात नहीं है बल्कि पाकिस्तान की आबादी भी भारत को विध्वंस करने की मजहबी विद्वेश से ग्रसित है। बंटवारे के कुछ ही दिन बाद पाकिस्तान ने कश्मीर हड़पने के लिए हमला कर दिया था। आधी कश्मीर हड़पने में वह कामयाब हो गया। पूरी कश्मीर हड़पने के लिए अब तक पाकिस्तान ने कारगिल सहित चार युद्ध किये हैं। इन सभी युद्धों में पाकिस्तान को बूरी पराजय मिली। 1971 में पूर्वी पाकिस्तान अब बांग्लादेश से पाकिस्तान को हाथ धोना पड़ा। पाकिस्तान ने यह बात पूरी तरह से समझ ली कि वह प्रत्यक्ष युद्ध में न तो भारत को पराजित किया जा सकता है और न ही कश्मीर को हड़पने की उसकी नीति सफल हो सकती है। तानाशाह जियाउल हक ने कश्मीर को हड़पने के लिए आतंकवाद की नीति अपनायी। आतंकवाद से कश्मीर को हड़पने और भारत विध्वंस की यह नीति पाकिस्तान के सभी शासको की रही है। बेनजीर भुट्टों और नवाज शरीफ से लेकर मौजूदा शासक जिलानी-जरदारी भी आतंकवादियों के संरक्षण देने और भारत विध्वस की नीति जारी रखे हुए हैं। मुबंई हमलावरों को भी अब तक दंडित नहीं किया गया है और दंडित किये जाने की भी कोई प्राथमिकता पाकिस्तान नहीं दिखा रहा है। भारत की सत्ता कूटनीति की कमजोरी से पाकिस्तान की आतंकवादी नीति जमींदोज नहीं हो रही है। मुशर्रफ की स्वीकारोक्ति निश्चिततौर पर भारत के लिए एक मौका है। यह हमारा एक बड़ा कूटनीतिक हथियार हो सकता है जिसके सहारे हम पाकिस्तान को एक आतंकवादी देश घोषित कराने में भी सफल हो सकते हैं।
मुशर्रफ धूर्त/काइयां भी है। मुशर्रफ देशनिकाला है। पाकिस्तान लौटने की उसकी इजाजत प्रतिबंधित है। एक समझौते के तहत मुशर्रफ राष्ट्रपति पद छोड़ने के लिए बाध्य हुआ था। समझौते के तहत पाकिस्तान में रहने से प्रतिबंधित करने सहित राजनीति से भी दूर रहने की हिदायत मुशर्रफ को मिली थी। इसके बदले में नागरिक सत्ता ने मुशर्रफ के तानाशाही काल की सारी करतूते माफ कर डाली थी। राष्ट्रपति पद छोडने के साथ मुशर्रफ पाकिस्तान से दूर सउदी अरब और ब्रिटेन में रह रहा था। मुशर्रफ पर अमेरिकी सत्ता आंख मुंद कर विश्वास करती थी इसलिए निर्वासन में मुशर्रफ को कोई परेशानी नहीं हुई और अमेरिकी मदद मिलती रही। अमेरिकी मदद और कूटनीतिक संरक्षण के सहारे ही मुशर्रफ सउदी अरब और ब्रिटेन में रह रहा है। गुमनामी की जिंदगी से अचानक मुशर्रफ ने पलटी मारी और रातोरात फिर दुनिया की नजर में चर्चित हो गया। इतना ही नहीं बल्कि अखबारों की सुर्खियां भी बटोरनी शुरू कर दी। मुशर्रफ ने पहले अपनी पाटी बनायी और ब्रिटेन में रह रहे पाकिस्तानियों को एकत्रित कर अपना जनसमर्थन तैयार करने का काम किया और इसके बाद उसने यह स्वीकारोक्ति करने में हिचक या परेशानी महसूर नहीं की कि उन्होंने भारत को विध्वंस करने के लिए आतंकवादी तैयार किये थे। ये दोनों प्रश्न महत्वपूर्ण हैं और इसके निहितार्थ भी अमेरिकी-पाकिस्तानी राजनीति और कूटनीति में खोजी जानी चाहिए।
मुशर्रफ के इस स्वीकारोक्ति और अलग पार्टी बनाने की रणनीति के पीछे कहीं अमेरिकी कूटनीति तो काम नहीं कर रही है। अमेरिकी कूटनीति को यह अहसास हो चुका है कि पाकिस्तान में अब न तो कानून का शासन रहा और न ही आमजन के बीच सत्ता का विश्वास कायम रहा। बाढ़ और गरीबी आम पाकिस्तान काहिल है। गिलानी और जरदारी दोनो खतरनाक ढ़ंग से अलोकप्रिय हो चुके हैं। गिलानी और जरदारी की लोकप्रियता सही में खतरनाक स्थिति में पहुंच चुकी है। एक तो गिलानी और जरदारी आतंकवादी संगठनों को नकेल पहनाने में विफल रहे हैं वही उनकी गुड और बैड तालिबान की थ्यौरी भी कम चर्चा के विषय नहीं रही है। अफगानिस्तान सीमा से लगे कबिलाई इलाकों में नाटो सैनिकों के लगातार हो रहे हमलो से आवाम में गिलानी-जरदारी के खिलाफ आका्रेश बढ़ा है। जरदारी-गिलानी की घटती लोकप्रियता ने सेना के हौसले बढाये हैं और सेना की रणनीति नागरिक सरकार का तख्तापटल करने की है। सेना अध्यक्ष परवेज कियानी के साथ नागरिक सत्ता का टकराहट बढ़ रहा है। दुनिया की मीडिया और सामरिक विशेषज्ञ यह मान चुके हैं कि आज न कल सेना अध्यक्ष परवेज कियानी सत्ता का ताख्ता पलट कर सकते हैं। परवेज कियानी अगर तख्तापलट करते हैं तो ऐसी स्थिति मे अमेरिका गिलानी-जरदारी का पक्ष ले नहीं सकता है। नवाज शरीफ अमेरिकी इसारों में नाचने से रहे। नवाज शरीफ का नजरिया भी संपूर्ण अमेरिकी पक्ष का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। ऐसे में मुशर्रफ ही बचते हैं जो अमेरिकी नीतियों को संतुष्ट कर सकते हैं। मुशर्रफ ने आतंकवादी तैयार करने और भारत को विध्वंस करने की नीति का खुलासा कर पाकिस्तान के कट्टरवादियों में जगह भी बना चुके हैं। यह स्वीकारोक्ति मुशर्रफ के नागरिक राजनीति की चुनौतियां कम करेंगी।
ऐसी नीति अमेरिकी हितों का रक्षा करेगी। यह सही हैं। पर अमेरिकी हितों के सवर्द्धन से हमें क्या लेना-देना। हमें अपने हित की चिंता होनी चाहिए। अपनी सीमा की चिंता होनी चाहिए। कैसे आतंकवादी संगठनो को नकेल पहुंचाया जाये और कैसे पाकिस्तान के हुकमरानों के भारत विरोधी कूटनीति कुंद किया जाये। हम मुगालते मे रहे हैं कि अमेरिका हमें आतंकवादियों से बचायेगा और पाकिस्तान की आतंकवादी नीति का दमन करेगा। अगर ऐसा होता तो पाकिस्तान में चल रहे आतंकवादी कारखाने कब के बंद हो चुके होते। पाकिस्तान में आतंकवादी कारखाने आज भी चल रहे हैं और भविष्य में भी चलते रहेंगे। पाकिस्तान ने कश्मीर में आतंकवादियों की घुसपैठ तो रोकी नहीं है और अफगानिस्तान में भी हमारे हितों को नेस्तनाबुद करने की नीति बुन चुका है। पाकिस्तान ने अफगानिस्तान मे आईएसआई को खड़ा करने में सफलता प्राप्त की है। अफगानिस्तान के पूनर्निमाण में भारत की भूमिका अग्रणी है। भारत वहां पर करोड़ो डालर खर्च कर कई परियोजनाओं का निर्माण कर रहा है और पुलिस-सैनिक व्यवस्था को प्रशिक्षित करने का काम भी कर रहा है। पाकिस्तान के दबाव में अमेरिका और अफगानिस्तान तालिबान से बातचीत करने की नीति पर चल रहे हैं। गुड तालिबानों की थ्यौरी पर अफगानिस्तान के शासक हामिद करजई भी चमत्कृत हैं। हामिद करजई और तालिबान के बीच वार्ताए भी शुरू हो चुकी हैं। तालिबान के लौटने से अफगानिस्तान में हमारे हितों का बलि चढ़ना निश्चित है।
भारत ने हमेशा मौका गंवाया है। पाकिस्तान को आतंकवाद की कारखाना चलाने की छूट दी है। मुशर्रफ की स्वीकारोक्ति हमारे लिए एक मौका है। इस मौके का फायदा उठाने के लिए हमारी कूटनीतिक संवर्ग को चाकचौबंद होना चाहिए थी। हमारी सत्ता की सक्रियता भी होनी चाहिए थी। हम पूरे विश्व को इस सच्चाई से अवगत करा सकते थे। संयुक्त राष्ट्रसंघ से पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित करने की मांग अभी भी हो सकती है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर के मुताबिक आतंकवाद का प्रश्रय देना अपराध माना गया है। ऐसी स्थिति मे प्रश्रय देने वाले देश को आतंकवादी देश घोषित किया जा सकता है। प्रमाण हमारे पास मौजूद है। फिर देर कैसी? लेकिन हमारी सरकार का रवैया पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित कराने जैसा है कहां। मुशर्रफ की स्वीकारोक्ति के बाद भी हमारी सरकार की प्रतिक्रिया बेहद निराशाजनक रही है। ऐसे में हम आतंकवाद से थोड़े लड़ पायेगे और न ही आतंकवादी सगठनों पर विजय प्राप्त कर पायेंगे। पाकिस्तान की यह दहशतगर्दी चलती रहेगी और हम पाकिस्तान प्रत्यारोपित आतंकवाद का खूनी शिकार होते ही रहेंगे।
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मुशर्रफ की करतूत
पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित कराओ
विष्णुगुप्त
पूर्व तानाशाह परवेज मुशर्रफ ने भारत को तबाह करने के लिए आतंकवादी कारखाना चलाने की जो स्वीकारोक्ति की है उससे एक बार फिर साबित होता है कि पाकिस्तान एक आतंकवादी देश और वैश्विक आतंकवाद की आउटसोर्सिंग भी पाकिस्तान की करतूत है। पाकिस्तान की नीव घृणा/मजहबी उफान से पड़ी हुई थी। भारत विरोध ही नहीं बल्कि भारत विध्वंस की उसकी स्थायी सत्ता नीति है। सिर्फ सत्ता नीति की ही बात नहीं है बल्कि पाकिस्तान की आबादी भी भारत को विध्वंस करने की मजहबी विद्वेश से ग्रसित है। बंटवारे के कुछ ही दिन बाद पाकिस्तान ने कश्मीर हड़पने के लिए हमला कर दिया था। आधी कश्मीर हड़पने में वह कामयाब हो गया। पूरी कश्मीर हड़पने के लिए अब तक पाकिस्तान ने कारगिल सहित चार युद्ध किये हैं। इन सभी युद्धों में पाकिस्तान को बूरी पराजय मिली। 1971 में पूर्वी पाकिस्तान अब बांग्लादेश से पाकिस्तान को हाथ धोना पड़ा। पाकिस्तान ने यह बात पूरी तरह से समझ ली कि वह प्रत्यक्ष युद्ध में न तो भारत को पराजित किया जा सकता है और न ही कश्मीर को हड़पने की उसकी नीति सफल हो सकती है। तानाशाह जियाउल हक ने कश्मीर को हड़पने के लिए आतंकवाद की नीति अपनायी। आतंकवाद से कश्मीर को हड़पने और भारत विध्वंस की यह नीति पाकिस्तान के सभी शासको की रही है। बेनजीर भुट्टों और नवाज शरीफ से लेकर मौजूदा शासक जिलानी-जरदारी भी आतंकवादियों के संरक्षण देने और भारत विध्वस की नीति जारी रखे हुए हैं। मुबंई हमलावरों को भी अब तक दंडित नहीं किया गया है और दंडित किये जाने की भी कोई प्राथमिकता पाकिस्तान नहीं दिखा रहा है। भारत की सत्ता कूटनीति की कमजोरी से पाकिस्तान की आतंकवादी नीति जमींदोज नहीं हो रही है। मुशर्रफ की स्वीकारोक्ति निश्चिततौर पर भारत के लिए एक मौका है। यह हमारा एक बड़ा कूटनीतिक हथियार हो सकता है जिसके सहारे हम पाकिस्तान को एक आतंकवादी देश घोषित कराने में भी सफल हो सकते हैं।
मुशर्रफ धूर्त/काइयां भी है। मुशर्रफ देशनिकाला है। पाकिस्तान लौटने की उसकी इजाजत प्रतिबंधित है। एक समझौते के तहत मुशर्रफ राष्ट्रपति पद छोड़ने के लिए बाध्य हुआ था। समझौते के तहत पाकिस्तान में रहने से प्रतिबंधित करने सहित राजनीति से भी दूर रहने की हिदायत मुशर्रफ को मिली थी। इसके बदले में नागरिक सत्ता ने मुशर्रफ के तानाशाही काल की सारी करतूते माफ कर डाली थी। राष्ट्रपति पद छोडने के साथ मुशर्रफ पाकिस्तान से दूर सउदी अरब और ब्रिटेन में रह रहा था। मुशर्रफ पर अमेरिकी सत्ता आंख मुंद कर विश्वास करती थी इसलिए निर्वासन में मुशर्रफ को कोई परेशानी नहीं हुई और अमेरिकी मदद मिलती रही। अमेरिकी मदद और कूटनीतिक संरक्षण के सहारे ही मुशर्रफ सउदी अरब और ब्रिटेन में रह रहा है। गुमनामी की जिंदगी से अचानक मुशर्रफ ने पलटी मारी और रातोरात फिर दुनिया की नजर में चर्चित हो गया। इतना ही नहीं बल्कि अखबारों की सुर्खियां भी बटोरनी शुरू कर दी। मुशर्रफ ने पहले अपनी पाटी बनायी और ब्रिटेन में रह रहे पाकिस्तानियों को एकत्रित कर अपना जनसमर्थन तैयार करने का काम किया और इसके बाद उसने यह स्वीकारोक्ति करने में हिचक या परेशानी महसूर नहीं की कि उन्होंने भारत को विध्वंस करने के लिए आतंकवादी तैयार किये थे। ये दोनों प्रश्न महत्वपूर्ण हैं और इसके निहितार्थ भी अमेरिकी-पाकिस्तानी राजनीति और कूटनीति में खोजी जानी चाहिए।
मुशर्रफ के इस स्वीकारोक्ति और अलग पार्टी बनाने की रणनीति के पीछे कहीं अमेरिकी कूटनीति तो काम नहीं कर रही है। अमेरिकी कूटनीति को यह अहसास हो चुका है कि पाकिस्तान में अब न तो कानून का शासन रहा और न ही आमजन के बीच सत्ता का विश्वास कायम रहा। बाढ़ और गरीबी आम पाकिस्तान काहिल है। गिलानी और जरदारी दोनो खतरनाक ढ़ंग से अलोकप्रिय हो चुके हैं। गिलानी और जरदारी की लोकप्रियता सही में खतरनाक स्थिति में पहुंच चुकी है। एक तो गिलानी और जरदारी आतंकवादी संगठनों को नकेल पहनाने में विफल रहे हैं वही उनकी गुड और बैड तालिबान की थ्यौरी भी कम चर्चा के विषय नहीं रही है। अफगानिस्तान सीमा से लगे कबिलाई इलाकों में नाटो सैनिकों के लगातार हो रहे हमलो से आवाम में गिलानी-जरदारी के खिलाफ आका्रेश बढ़ा है। जरदारी-गिलानी की घटती लोकप्रियता ने सेना के हौसले बढाये हैं और सेना की रणनीति नागरिक सरकार का तख्तापटल करने की है। सेना अध्यक्ष परवेज कियानी के साथ नागरिक सत्ता का टकराहट बढ़ रहा है। दुनिया की मीडिया और सामरिक विशेषज्ञ यह मान चुके हैं कि आज न कल सेना अध्यक्ष परवेज कियानी सत्ता का ताख्ता पलट कर सकते हैं। परवेज कियानी अगर तख्तापलट करते हैं तो ऐसी स्थिति मे अमेरिका गिलानी-जरदारी का पक्ष ले नहीं सकता है। नवाज शरीफ अमेरिकी इसारों में नाचने से रहे। नवाज शरीफ का नजरिया भी संपूर्ण अमेरिकी पक्ष का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। ऐसे में मुशर्रफ ही बचते हैं जो अमेरिकी नीतियों को संतुष्ट कर सकते हैं। मुशर्रफ ने आतंकवादी तैयार करने और भारत को विध्वंस करने की नीति का खुलासा कर पाकिस्तान के कट्टरवादियों में जगह भी बना चुके हैं। यह स्वीकारोक्ति मुशर्रफ के नागरिक राजनीति की चुनौतियां कम करेंगी।
ऐसी नीति अमेरिकी हितों का रक्षा करेगी। यह सही हैं। पर अमेरिकी हितों के सवर्द्धन से हमें क्या लेना-देना। हमें अपने हित की चिंता होनी चाहिए। अपनी सीमा की चिंता होनी चाहिए। कैसे आतंकवादी संगठनो को नकेल पहुंचाया जाये और कैसे पाकिस्तान के हुकमरानों के भारत विरोधी कूटनीति कुंद किया जाये। हम मुगालते मे रहे हैं कि अमेरिका हमें आतंकवादियों से बचायेगा और पाकिस्तान की आतंकवादी नीति का दमन करेगा। अगर ऐसा होता तो पाकिस्तान में चल रहे आतंकवादी कारखाने कब के बंद हो चुके होते। पाकिस्तान में आतंकवादी कारखाने आज भी चल रहे हैं और भविष्य में भी चलते रहेंगे। पाकिस्तान ने कश्मीर में आतंकवादियों की घुसपैठ तो रोकी नहीं है और अफगानिस्तान में भी हमारे हितों को नेस्तनाबुद करने की नीति बुन चुका है। पाकिस्तान ने अफगानिस्तान मे आईएसआई को खड़ा करने में सफलता प्राप्त की है। अफगानिस्तान के पूनर्निमाण में भारत की भूमिका अग्रणी है। भारत वहां पर करोड़ो डालर खर्च कर कई परियोजनाओं का निर्माण कर रहा है और पुलिस-सैनिक व्यवस्था को प्रशिक्षित करने का काम भी कर रहा है। पाकिस्तान के दबाव में अमेरिका और अफगानिस्तान तालिबान से बातचीत करने की नीति पर चल रहे हैं। गुड तालिबानों की थ्यौरी पर अफगानिस्तान के शासक हामिद करजई भी चमत्कृत हैं। हामिद करजई और तालिबान के बीच वार्ताए भी शुरू हो चुकी हैं। तालिबान के लौटने से अफगानिस्तान में हमारे हितों का बलि चढ़ना निश्चित है।
भारत ने हमेशा मौका गंवाया है। पाकिस्तान को आतंकवाद की कारखाना चलाने की छूट दी है। मुशर्रफ की स्वीकारोक्ति हमारे लिए एक मौका है। इस मौके का फायदा उठाने के लिए हमारी कूटनीतिक संवर्ग को चाकचौबंद होना चाहिए थी। हमारी सत्ता की सक्रियता भी होनी चाहिए थी। हम पूरे विश्व को इस सच्चाई से अवगत करा सकते थे। संयुक्त राष्ट्रसंघ से पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित करने की मांग अभी भी हो सकती है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर के मुताबिक आतंकवाद का प्रश्रय देना अपराध माना गया है। ऐसी स्थिति मे प्रश्रय देने वाले देश को आतंकवादी देश घोषित किया जा सकता है। प्रमाण हमारे पास मौजूद है। फिर देर कैसी? लेकिन हमारी सरकार का रवैया पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित कराने जैसा है कहां। मुशर्रफ की स्वीकारोक्ति के बाद भी हमारी सरकार की प्रतिक्रिया बेहद निराशाजनक रही है। ऐसे में हम आतंकवाद से थोड़े लड़ पायेगे और न ही आतंकवादी सगठनों पर विजय प्राप्त कर पायेंगे। पाकिस्तान की यह दहशतगर्दी चलती रहेगी और हम पाकिस्तान प्रत्यारोपित आतंकवाद का खूनी शिकार होते ही रहेंगे।
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Thursday, September 30, 2010
तिब्बत में चीनी हथियारों का भंडारण/ समर्पणकारी भारतीय सत्ता
राष्ट्र-चिंतन
तिब्बत में चीनी हथियारों का भंडारण/ समर्पणकारी भारतीय सत्ता
विष्णुगुप्त
चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के तिब्बत मे बढ़ते खूंखार/जनसंहारक कदम से भारतीय सत्ता संस्थान मे कोई हलचल न होना राष्ट्र की सुरक्षा और सम्मान के प्रति उदासीनता ही नहीं बल्कि शत्रु देश के सामने सीधेतौर पर समर्पण माना जाना चाहिए। चीन द्वारा बड़े पैमाने पर खतरनाक/नरसंहारक/भीषण हथियारों की तिब्बत क्षेत्र में तैनाती हुई है। तैनात हथियारों में परमाणु सामग्री ले जाने वाले वाले सशस्त्र उपकरण हैं और गैर परमाणु हथियार भी हैं। चीनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी द्वारा तिब्बत क्षेत्र में तैनात हथियारों के विश्लेषण के बाद यह साफ हो जाता है कि देश का एक भी ऐसा प्रमुख शहर नहीं है जो उन हथियारों के निशाने से बाहर हैं। हिन्द महासागर/प्रशांत महासागर में चीन की सर्वश्रेष्ठ लड़ाकू /परमाणु पनडुबियां पहले से ही तैयार खड़ी हैं। इतना ही नहीं बल्कि चीन ने पाकिस्तान और श्रीलका में नौसैनिक अड्डे भी बना रहा है। दुनिया भर के रक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि चीन एशिया को सशस़्त्र चुनौती की आग में ढकेल रहा है और चीनी आक्रमकता और अराजकता के सामने गैर चीनी राष्ट्रीयता खतरे में है। जाहिरतौर पर एशिया में भारत और जापान चीन के निशाने पर है। भारत को चीन सामंगी दृष्टिकोण से देखता है और आक्रोशित इस बात से होता है कि जिसे वह जिस देश 1962 में अपने पैरों तले कुचला था वह देश कैसे उसके सामने दुनिया की एक मजबूत नियामक बन रहा है जबकि जापान के साथ चीन के झगड़े द्वितीय विश्वयुद्ध कार्यकाल का है जब जापान ने चीन पर कब्जा कर अत्याचार किये थे। तिब्बत की मूल आबादी संतुलन को छिन्न-भिन्न करने के लिए चीनी आबादी की तिब्बत में आउटसोर्सिंग हुई है। लगभग एक करोड़े चीनी आबादी तिब्बत में बौद्धों का दमन के साथ ही साथ चीनी शासकों के सामंती और अराजक नीतियों को समर्थन कर रही है, हौसले दे रही है। चीन को कहीं से भी चुनौती न मिलना वैश्विक कूटनीति/शांति के लिए एक बड़ी चुनौती/विकराल समस्या है।
नेहरू जिस तरह खुशफहमी थे उसी तरह वर्तमान भारतीय सत्ता खुशफहमी पाल रखी है। नेहरू ने चीन के साथ दोस्ती की चाह मे देश के अस्तिव और अस्मिता को ही भूल गये थे। इतना ही नहीं बल्कि उन्होने देश के अस्तित्व और अस्मिता पर छूरी तक चलायी थी। हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नेहरू मंत्र ने किस तरह 1962 में शिला दिया? सभी खबरें और चीनी हरकतें साफ करती थी कि वह भारत पर हमला करने की तैयार कर रहा है। माओत्से तुंग के खूनी पंजे भारत को लहूलुहान करने के लिए तैयार हो रहे हैं। पर नेहरू तमाम वैसी खबरों और हरकतों को नजरअंदाज करते रहे थे और सैनिक अंगों को खुशफहमी बांटते रहे थे कि चीन उनका दोस्त है और कभी भी भारत पर हमला नहीं करेगा। नेहरू की खुशफहमी टूटी थी और हमारे हजारों सैनिक चीनी हमले में शहीद हुए थे। दो लाख एकड़ मील भूमि आज भी चीन कब्जे में कर रखा है। इतना ही नहीं बल्कि कश्मीर के एक बड़े भाग पर भी चीन कब्जा कर रखा है। गुलाम कश्मीर के कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्र को पाकिस्तान ने चीन के हवाले कर दिया है। जबकि कश्मीर हमारा अभिन्न अंग है।
नेहरू की चीनी चादर की खुशफहमी से वर्ममान भारतीय सत्ता भी कम चमत्कृत नहीं है। चीन की हिमालय क्षेत्र में पारिस्थितिकी को छिन्न-भिन्न करने या फिर तिब्बत में खतरनाक/गंभीर/भीषण/ जनसंहारक परमाणु और गैर परमाणु हथियारों के जमावड़े का प्रसंग, हमेशा से भारतीय सत्ता उदासीन रवैया अपनाती रही है। कभी यह गंभीरता के साथ विश्लेषण करने या फिर किसी कठोर कदम उठाने की कोशिश ही नहीं होती है कि आखिर तिब्बत भूभाग में चीनी हरकतों से भारतीय हित और सुरक्षा पर ही चुनौती खड़ी होती है। चीन से डरने की नीति घातक है। ऐसे भी तिब्बत में जनसंहारक हथियारों का जमावड़ा अवैध है। इसलिए कि तिब्बत पर चीन का अवैध कब्जा है और तिब्बत में चीन मानवाधिकार हनन की कब खोद कर रख दी है। तिब्बतियों पर चीनी अत्याचार एक वैश्विक प्रसंग है जिसमें चीन की धेराबंदी हो सकती थी। चीन की नापाक इरादों का दुनिया के सामने पर्दाफाश हो सकता था। चीन ने इधर तिब्बत की आबादी संतुलन को अपने पक्ष में करने के लिए कई सफलतम उपाये किये है। इन उपायों में तिब्बत में चीनी आबादी का आउटसोर्सिंग शामिल है। चीनी आबादी के लगातार हो रहे आउट सोर्सिग बौद्ध आबादी का अनुपात दिनोदिन घट रहा है। चीनी आबादी को तिब्बत में कई रियायतें मिल रही हैं जो उन्हे तिब्बत में रहने और बौद्ध राष्ट्रीयता को जमींदोज करने में खाद-पानी का काम कर रही हैं। बौद्ध आबादी के मानवाधिकार और मूल आबादी के अधिकार के खिलाफ दुनिया के नियामकों में चुप्पी बहुत कुछ कहती है। आखिर चीन के खिलाफ दुनिया के नियामकों में आवाज कौन उठायेगा ?
चीन सिर्फ तिब्बत या फिर हिमालय क्षेत्र में ही हथियारों का जमावड़ा नहीं कर रहा है बल्कि हमारी राष्ट्रीयता/एकता और अखंडता पर सवाल उठाता रहा है और घेराबंदी भी करते रहा है। अभी तक वह कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग नहीं मानता है। कश्मीर वासियों को भारत की नागरिक के तौर पर बीजा नहीं देता है बल्कि कश्मीर की आबादी के लिए उसकी अलब बीजा प्रणाली है जो हमारी अस्मिता और एकता-अखंडता को तार-तार करने वाली है। कुछ दिन पूर्व ही चीन ने कश्मीर में पदास्थापित एक भारतीय सैन्य अधिकारी को चीन जाने का बीजा देने से इनकार कर दिया था। चीनी हरकत यहीं तक नहीं है। चीन ने भारत की घेराबंदी के लिए दीर्घकालीक नीतियां बुनी हैं। उसने हमारे अराजक/अविश्वसीन/अलोकतांत्रिक/ खूनी मानसिकता वाले पड़ोसियों को साधा है। पाकिस्तान/ नेपाल/ श्रीलंका आज पूरी तरह से चीनी आवाज से चमत्कृत है। पाकिस्तान के कबायली इलाकों में चीन ने नौसैनिक अड्डे बना रखे हैं। श्रीलंका में भी चीन दो नौ सैनिक अड्डे बना रहा है। लिट्टे के सफाये में चीनी सैनिकों ने अपनी भूमिका दी थी। इस कारण श्रीलंका के राजपक्षे सरकार पूरी तरह से चीनी आगोश में जा बैठी है। गुलाम कश्मीर के भूभागों को चीन को न तो लेने का अधिकार है और न ही पाकिस्तान को देने का। फिर भी चीन ने गिलगिल भूभाग में पाकिस्तान के आमंत्रण पर अपने सैनिक अड्डे स्थापित कर लिये हैं।
राष्ट्र की अस्मिता/सुरक्षा महत्वपूर्ण है। चीनी हमलों में राष्ट्र की अस्मिता छलनी हुई है, हजारों सैनिक शहीद हुए हैं। पर राष्ट्र की सत्ता और राजनीतिक संवर्ग को चीनी साजिशों और धेराबंदी के खतरनाक/जनसंहारक यथार्थ पर चिंता ही नहीं है। भारतीय सत्ता समर्पण का भाव रखे चीन के सामने खड़ा रहती है। चीन को यह मालूम है कि भारत की समर्पणकारी सत्ता बहादुरी दिखाने से रही, कूटनीति ताकत दिखाने से रही, इसलिए उसकी साजिशों और अराजक सैनिक हरकतों-जमावड़ों को चुनौती मिलने वाली नहीं है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह में इतनी राजनीतिक/कूटनीतिक शक्ति है नहीं की वे चीन के हरकतों का मुंहतोड़ जवाब दे। सोनिया गांधी/राहुल गाध्ंाी अब तक चीनी साजिशों के प्रति चुप्प रहने की नसीहत स्वयं पर डाल रखी है। जबकि कम्युनिस्ट राजनीतिक संवर्ग अब भी चीनी पक्षधर है और उनकी अरूणाचल प्रदेश’-सिक्किम पर चीनी पक्ष की मानसिकता गयी नहीं है। तिब्बत का प्रश्न हमारे लिये एक अचुक हथियार था जिसके सहारे हम चीन के खतरनाक मंसुबो का तोड़ खोज लेते थे। पर तिब्बत के प्रश्न से हमनें मुंह मोड़ लिया। एक तरह से तिब्बत पर चीन के अवैध कब्जे को वैध मान लिया है। तिब्बत के प्रश्न को फिर से जिंदा करने और इसे कूटनीति का एक महत्वपूर्ण अंग के रूप में स्थापित करने की जरूरत होनी चाहिए। इसके साथ ही साथ हमें तिब्बत और हिमालय सीमा पर अपनी सुरक्षा तैयारियां भी चाकचौबंद करनी चाहिए। हमें यह ख्याल रखना होगा कि देश को असली खतरा पाकिस्तान से नहीं बल्कि चीन से है।
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तिब्बत में चीनी हथियारों का भंडारण/ समर्पणकारी भारतीय सत्ता
विष्णुगुप्त
चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के तिब्बत मे बढ़ते खूंखार/जनसंहारक कदम से भारतीय सत्ता संस्थान मे कोई हलचल न होना राष्ट्र की सुरक्षा और सम्मान के प्रति उदासीनता ही नहीं बल्कि शत्रु देश के सामने सीधेतौर पर समर्पण माना जाना चाहिए। चीन द्वारा बड़े पैमाने पर खतरनाक/नरसंहारक/भीषण हथियारों की तिब्बत क्षेत्र में तैनाती हुई है। तैनात हथियारों में परमाणु सामग्री ले जाने वाले वाले सशस्त्र उपकरण हैं और गैर परमाणु हथियार भी हैं। चीनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी द्वारा तिब्बत क्षेत्र में तैनात हथियारों के विश्लेषण के बाद यह साफ हो जाता है कि देश का एक भी ऐसा प्रमुख शहर नहीं है जो उन हथियारों के निशाने से बाहर हैं। हिन्द महासागर/प्रशांत महासागर में चीन की सर्वश्रेष्ठ लड़ाकू /परमाणु पनडुबियां पहले से ही तैयार खड़ी हैं। इतना ही नहीं बल्कि चीन ने पाकिस्तान और श्रीलका में नौसैनिक अड्डे भी बना रहा है। दुनिया भर के रक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि चीन एशिया को सशस़्त्र चुनौती की आग में ढकेल रहा है और चीनी आक्रमकता और अराजकता के सामने गैर चीनी राष्ट्रीयता खतरे में है। जाहिरतौर पर एशिया में भारत और जापान चीन के निशाने पर है। भारत को चीन सामंगी दृष्टिकोण से देखता है और आक्रोशित इस बात से होता है कि जिसे वह जिस देश 1962 में अपने पैरों तले कुचला था वह देश कैसे उसके सामने दुनिया की एक मजबूत नियामक बन रहा है जबकि जापान के साथ चीन के झगड़े द्वितीय विश्वयुद्ध कार्यकाल का है जब जापान ने चीन पर कब्जा कर अत्याचार किये थे। तिब्बत की मूल आबादी संतुलन को छिन्न-भिन्न करने के लिए चीनी आबादी की तिब्बत में आउटसोर्सिंग हुई है। लगभग एक करोड़े चीनी आबादी तिब्बत में बौद्धों का दमन के साथ ही साथ चीनी शासकों के सामंती और अराजक नीतियों को समर्थन कर रही है, हौसले दे रही है। चीन को कहीं से भी चुनौती न मिलना वैश्विक कूटनीति/शांति के लिए एक बड़ी चुनौती/विकराल समस्या है।
नेहरू जिस तरह खुशफहमी थे उसी तरह वर्तमान भारतीय सत्ता खुशफहमी पाल रखी है। नेहरू ने चीन के साथ दोस्ती की चाह मे देश के अस्तिव और अस्मिता को ही भूल गये थे। इतना ही नहीं बल्कि उन्होने देश के अस्तित्व और अस्मिता पर छूरी तक चलायी थी। हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नेहरू मंत्र ने किस तरह 1962 में शिला दिया? सभी खबरें और चीनी हरकतें साफ करती थी कि वह भारत पर हमला करने की तैयार कर रहा है। माओत्से तुंग के खूनी पंजे भारत को लहूलुहान करने के लिए तैयार हो रहे हैं। पर नेहरू तमाम वैसी खबरों और हरकतों को नजरअंदाज करते रहे थे और सैनिक अंगों को खुशफहमी बांटते रहे थे कि चीन उनका दोस्त है और कभी भी भारत पर हमला नहीं करेगा। नेहरू की खुशफहमी टूटी थी और हमारे हजारों सैनिक चीनी हमले में शहीद हुए थे। दो लाख एकड़ मील भूमि आज भी चीन कब्जे में कर रखा है। इतना ही नहीं बल्कि कश्मीर के एक बड़े भाग पर भी चीन कब्जा कर रखा है। गुलाम कश्मीर के कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्र को पाकिस्तान ने चीन के हवाले कर दिया है। जबकि कश्मीर हमारा अभिन्न अंग है।
नेहरू की चीनी चादर की खुशफहमी से वर्ममान भारतीय सत्ता भी कम चमत्कृत नहीं है। चीन की हिमालय क्षेत्र में पारिस्थितिकी को छिन्न-भिन्न करने या फिर तिब्बत में खतरनाक/गंभीर/भीषण/ जनसंहारक परमाणु और गैर परमाणु हथियारों के जमावड़े का प्रसंग, हमेशा से भारतीय सत्ता उदासीन रवैया अपनाती रही है। कभी यह गंभीरता के साथ विश्लेषण करने या फिर किसी कठोर कदम उठाने की कोशिश ही नहीं होती है कि आखिर तिब्बत भूभाग में चीनी हरकतों से भारतीय हित और सुरक्षा पर ही चुनौती खड़ी होती है। चीन से डरने की नीति घातक है। ऐसे भी तिब्बत में जनसंहारक हथियारों का जमावड़ा अवैध है। इसलिए कि तिब्बत पर चीन का अवैध कब्जा है और तिब्बत में चीन मानवाधिकार हनन की कब खोद कर रख दी है। तिब्बतियों पर चीनी अत्याचार एक वैश्विक प्रसंग है जिसमें चीन की धेराबंदी हो सकती थी। चीन की नापाक इरादों का दुनिया के सामने पर्दाफाश हो सकता था। चीन ने इधर तिब्बत की आबादी संतुलन को अपने पक्ष में करने के लिए कई सफलतम उपाये किये है। इन उपायों में तिब्बत में चीनी आबादी का आउटसोर्सिंग शामिल है। चीनी आबादी के लगातार हो रहे आउट सोर्सिग बौद्ध आबादी का अनुपात दिनोदिन घट रहा है। चीनी आबादी को तिब्बत में कई रियायतें मिल रही हैं जो उन्हे तिब्बत में रहने और बौद्ध राष्ट्रीयता को जमींदोज करने में खाद-पानी का काम कर रही हैं। बौद्ध आबादी के मानवाधिकार और मूल आबादी के अधिकार के खिलाफ दुनिया के नियामकों में चुप्पी बहुत कुछ कहती है। आखिर चीन के खिलाफ दुनिया के नियामकों में आवाज कौन उठायेगा ?
चीन सिर्फ तिब्बत या फिर हिमालय क्षेत्र में ही हथियारों का जमावड़ा नहीं कर रहा है बल्कि हमारी राष्ट्रीयता/एकता और अखंडता पर सवाल उठाता रहा है और घेराबंदी भी करते रहा है। अभी तक वह कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग नहीं मानता है। कश्मीर वासियों को भारत की नागरिक के तौर पर बीजा नहीं देता है बल्कि कश्मीर की आबादी के लिए उसकी अलब बीजा प्रणाली है जो हमारी अस्मिता और एकता-अखंडता को तार-तार करने वाली है। कुछ दिन पूर्व ही चीन ने कश्मीर में पदास्थापित एक भारतीय सैन्य अधिकारी को चीन जाने का बीजा देने से इनकार कर दिया था। चीनी हरकत यहीं तक नहीं है। चीन ने भारत की घेराबंदी के लिए दीर्घकालीक नीतियां बुनी हैं। उसने हमारे अराजक/अविश्वसीन/अलोकतांत्रिक/ खूनी मानसिकता वाले पड़ोसियों को साधा है। पाकिस्तान/ नेपाल/ श्रीलंका आज पूरी तरह से चीनी आवाज से चमत्कृत है। पाकिस्तान के कबायली इलाकों में चीन ने नौसैनिक अड्डे बना रखे हैं। श्रीलंका में भी चीन दो नौ सैनिक अड्डे बना रहा है। लिट्टे के सफाये में चीनी सैनिकों ने अपनी भूमिका दी थी। इस कारण श्रीलंका के राजपक्षे सरकार पूरी तरह से चीनी आगोश में जा बैठी है। गुलाम कश्मीर के भूभागों को चीन को न तो लेने का अधिकार है और न ही पाकिस्तान को देने का। फिर भी चीन ने गिलगिल भूभाग में पाकिस्तान के आमंत्रण पर अपने सैनिक अड्डे स्थापित कर लिये हैं।
राष्ट्र की अस्मिता/सुरक्षा महत्वपूर्ण है। चीनी हमलों में राष्ट्र की अस्मिता छलनी हुई है, हजारों सैनिक शहीद हुए हैं। पर राष्ट्र की सत्ता और राजनीतिक संवर्ग को चीनी साजिशों और धेराबंदी के खतरनाक/जनसंहारक यथार्थ पर चिंता ही नहीं है। भारतीय सत्ता समर्पण का भाव रखे चीन के सामने खड़ा रहती है। चीन को यह मालूम है कि भारत की समर्पणकारी सत्ता बहादुरी दिखाने से रही, कूटनीति ताकत दिखाने से रही, इसलिए उसकी साजिशों और अराजक सैनिक हरकतों-जमावड़ों को चुनौती मिलने वाली नहीं है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह में इतनी राजनीतिक/कूटनीतिक शक्ति है नहीं की वे चीन के हरकतों का मुंहतोड़ जवाब दे। सोनिया गांधी/राहुल गाध्ंाी अब तक चीनी साजिशों के प्रति चुप्प रहने की नसीहत स्वयं पर डाल रखी है। जबकि कम्युनिस्ट राजनीतिक संवर्ग अब भी चीनी पक्षधर है और उनकी अरूणाचल प्रदेश’-सिक्किम पर चीनी पक्ष की मानसिकता गयी नहीं है। तिब्बत का प्रश्न हमारे लिये एक अचुक हथियार था जिसके सहारे हम चीन के खतरनाक मंसुबो का तोड़ खोज लेते थे। पर तिब्बत के प्रश्न से हमनें मुंह मोड़ लिया। एक तरह से तिब्बत पर चीन के अवैध कब्जे को वैध मान लिया है। तिब्बत के प्रश्न को फिर से जिंदा करने और इसे कूटनीति का एक महत्वपूर्ण अंग के रूप में स्थापित करने की जरूरत होनी चाहिए। इसके साथ ही साथ हमें तिब्बत और हिमालय सीमा पर अपनी सुरक्षा तैयारियां भी चाकचौबंद करनी चाहिए। हमें यह ख्याल रखना होगा कि देश को असली खतरा पाकिस्तान से नहीं बल्कि चीन से है।
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Friday, September 3, 2010
17 भारतीयों की जान लेने पर तुली इस्लामिक न्याय संस्कृति
राष्ट्र-चिंतन
17 भारतीयों की जान लेने पर तुली इस्लामिक न्याय संस्कृति
विष्णुगुप्त
इस्लामिक संस्कृति में सत्ता/न्याय/मीडिया/पुुलिस/ जैसे जरूरी खंभों की सोच/सरोकार/ यर्थाथ पूरी तरह से रूढ़ियों और मानवता के खिलाफ उठने वाली क्रियाओं से परिपूर्ण होती है। खासकर गैर इस्लामिक आबादी या फिर मुद्दों पर इस्लामिक संस्कृति/ सत्ता की ईमानदारी की कल्पना तक नहीं जा सकती है। मीडिया तक की भूमिका इस्लामिक रंगों में रंग जाती है। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। ईरानी मीडिया द्वारा कार्ला ब्रुनी को ‘ वेश्या‘ बताने की घटना क्या दुनिया के लोकतात्रिक जनमत से ओझल है। सउदी अरब में 17 भारतीयों की जान लेने पर तुली हुई इस्लामिक संस्कृति की करतूत कम खतरनाक नहीं है। इस्लामिक संस्कृति के सभी खंभों ने मजहबी रूढ़ियों से ग्रसित होकर भारतीयों के खिलाफ हत्या के आरोप तैयार कराये/प्रायोजित कराये/ स्थापित कराये। भारतीयों को अपने पक्ष को मजबूती के साथ रखने के लिए जरूरी न्यायिक सहायता भी उपलब्ध नहीं करायी गयी। जबकि दुनिया भर में न्यायिक प्रस्थावना है कि आरोपी अगर असहाय है और दूसरे देश से संबंधित है तो उसे अपने बचाव में सहायता के लिए न्यायिक सेवा देने की जिम्मेदारी सत्ता की होगी। मुबंई हमले के दोषी कसाब को भारत ने पूरी और चाकचौबंद न्यायिक सहायता उपलब्ध करायी। इसके बाद ही कसाब को भारतीय न्यायिक व्यवस्था से सजा मिली। सउदी अरब की इस्लामिक सत्ताने अपनी जिम्मेदारी निभायी नहीं और 17 भारतीयों को इस्लामिक कानूनों के तहत सुली पर चढ़ाने की सजा दिलवा दी। अपीलय इस्लामिक न्यायालय से भी भारतीय को पूर्वाग्रह रहित और निष्पक्ष न्याय की उम्मीद नहीं है। परराष्ट्र में अपने नागरिकों की सुरक्षा की जिम्मेदारी भारत सरकार की है। भारत सरकार ने आरोपित भारतीयों के परिजनों की हाहाकार पर भी सउदी अरब से खरी-खरी बात करने की हिम्मत जुटायी नहीं। आरोपित अगर अमेरिकी/यूरोप के नागरिक होते सउदी अरब की इस्लामिक सत्ता इतनी मनमानी कर पाती?
जिस मामले में 17 भारतीयों को मौत की सजा हुई है वह मामाला काफी दिलचस्प है। सउदी अरब में एक शराब व्यापारी की हत्या हुई थी। शराब व्यापारी पाकिस्तानी था और मुस्लिम था। शराब के धंधे मे आधिपत्य को लेकर हुए झगड़ों में उसकी जान गयी थी। तीन अन्य पाकिस्तानी नागरिक घायल हुए थे। पहली बात यह है कि इस्लामिक संस्कृति में शराब की विक्री की मनाही है। सउदी अरब में भी सरेआम और सार्वजनिक जगहों में शराब की विक्री की सरकारी इजाजत नहीं है। विशेष अनुमति वाले बार या होटलों मे ही शराब परोसी जाती है। शराब को लेकर उक्त झगड़ा कोई बार या होटल मे नहीं हुई थी। गैंगवार का सीधा अर्थ है कि सउदी अरब में शराब का यह धंधा जोर-शोर चल रहा था। धंधे मे पुलिस-प्रशासन और सत्ता की अनदेखी होगी। सच तो यह था कि शराब के धंधे में लगे पाकिस्तानियों और सउदी अरब के नागरिको के बीच संघर्ष हुआ था। संघर्ष में पाकिस्तानी नागरिक की मौत के लिए सउदी अरब के नागरिक ही जिम्मेदार थे। सउदी अरब की इस्लामिक पुलिस ने पाकिस्तानी नागरिक की हत्या मे 50 से अधिक लोगो को आरोपी बनाया था। इस्लामिक न्यायालय में 17 भारतीय को गुनाहगार माना गया और 2009 में उन्हें मौत की सजा सुनायी गयी । तब से सभी 17 भारतीय सउदी अरब की जेल में कैद है जहां पर उन्हें यातना-प्रताड़ना के साथ ही साथ उन्हें मजहबी घृणा का भी सामना करना पड़ रहा है।
इस्लामिक न्याय व्यवस्था का न्याय परिस्थितिजन्य के विपरीत तो रहा ही है, इसके अलावा इस्लाम की रूढ़ियों से भी कम ग्रसित नहीं रहा है। सर्वप्रथम तो शराब का बड़े पैमाने पर धंधे में सउदी अरब की पुलिस-प्रशासन की मिलीभगत से कैसे इनकार किया जा सकता है। जिन पुलिस-प्रशासन ने शराब के धंधे में पाकिस्तानी नागरिक के साझेदार थे उन्ही पुलिस-प्रशासन ने हत्या के आरोपों की जांच की थी। जांच में सीधेतौर पर सउदी अरब के नागरिकों को बचाया गया। भारतीय मजदूर सउदी अरब की पुलिस का आसान शिकार बन गये। शराब की अवैध विक्री के गैंगवार में 50 अधिक भारतीय शामिल थे तो पाकिस्तानी मूल की आबादी की भी बड़ी संख्या होगी। शराब का बडे स्तर पर धंधा एक-दो के सहारे से तो चल नहीं सकती है। शराब के धंधे में और संघर्ष मे कितने पाकिस्तानी नागरिक थे? इसका खुलासा हुआ ही नहीं। जबकि संघर्ष में बड़ी संख्या में पाकिस्तानी शामिल होंगे।
सजा पाये भारतीय हिन्दू-सिख हैं। अगर ये भारतीय मुस्लिम होते तो निश्चित मानिये इस्लामिक न्याय व्यवस्था का फैसला और कुछ होता। सबसे उल्लेखनीय और आक्रोश वाली बात यह है कि सजा पाये भारतीयों को अपने बचाव का उचित और न्यायपूर्ण अवसर दिया ही नहीं गया। उत्पीड़न और प्रताड़ना के बल पर गुनाह कबूल कराया गया। सादे कागजों पर हस्ताक्षर लिये गये और मनचाही स्थितियां दर्ज कराकर सजा सुनिश्चित करायी गयी। सजा पाये सभी भारतीय सउदी अरब की भाषा भी ठीक ढंग से समझ नहीं पाते हैं पर वे लिखा हुआ मंतब्य समझ नहीं सकते। लिपी फारसी है। फारिसी लिपी में क्या लिखा हुआ, यह भी उन्हें जानकारी नहीं होती है। इस्लामिक न्यायिक सुनवाई के दौरान सभी आरोपी अपने बचाव में ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकते थे। इसलिए कि वे सभी हिन्दी या फिर पंजाबी में अपने बचाव में तर्क और अपनी बेगुनाही की बात रखते थे। इस्लामिक न्यायालय हिन्दी और पंजाबी मे रखे गये बेगुनाही की बात अनसुनी कर दी। होना तो यह चाहिए था कि इस्लामिक न्यायालय स्वच्छ और घृणाहीन न्याय के लिए द्विभाषीय की सहायता लेता। लेकिन इस्लामिक न्यायालय ने द्विभाषीय की सहायता क्यो नहीं ली? इस पर सवाल खड़ा किया जाना चाहिए?
अंतर्राष्ट्रीय मान्यता और कानून के अनुसार परनागरिक को अपने बचाव के लिए न्यायिक सहायता हासिल करने का अधिकार है। कसाब प्रसंग को आप देख सकते हैं। कसाब ने मुबंई में हमले कर दर्जनों लोगो को मौत की नींद सुलायी। कसाब के गुनाह की सारे प्रमाण मौजूद थे। इसके बाद भी सरकार ने कसाब को बचाव के लिए वकील उपलब्ध कराया गया। सारी न्यायिक प्रकिया चाकचौबंद और स्वच्छ थी। सउदी अरब ने अंतर्राष्ट्रीय पंरमपराओं और कानूनों का पालन किया होता तो आरोपी भारतीय मौत की सजा से बच सकते थे और सउदी अरब भी न्याय की हत्या करने और मजहबी घृणा की दृष्टि रखने जैसे आरोपों से मुक्त होता। ऐसे भी इस्लामिक राष्ट्र संस्कृति से आप यह उम्मीद नहीं कर सकते हैं वे रूढ़ियों से ग्रसित नहीं होगे या फिर वे अतंर्राष्ट्रीय नियम-कानूनो के पालन कर सकते है। ऐसी सत्ता व्यवस्था के लिए अंतर्राष्ट्रीय परमपराओं और कानूनों का कोई अर्थ ही नही होता है। इनकी सोच इस्लामी रूढियों में कैद रहती है।
सबसे अधिक रोष और दुर्भाग्यपूर्ण रूख भारतीय सरकार का है। मौत की सजा पाये भारतीयों के परिजनों ने सउदी अरब की इस्लामिक न्याय व्यवस्था के इस अन्यायपूर्ण फैसले के खिलाफ भारत सरकार से गुजारिश की थी। अधिकतर आरोपी पंजाब के निवासी हैं। पंजाब से आये परिजनों ने प्रधानमत्री के साथ ही साथ विदेश मंत्री से भी न्याय की उम्मीद में गुहार लगा चुके हैं। पर मनमोहन सरकार का रवैया उदासीन है। सउदी अरब सरकार से खरी-खरी बात करने की जरूरत थी। इसलिए कि निष्पक्ष सुनवाई हो और निर्दोष भारतीयों की सजा से छुटकारा मिले। विदेशों में भारतीय नागरिको की सुरक्षा उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी दूतावासो की होती है। भारतीय दूतावासा ने यह जिम्मेदारी भी नहीं निभायी। अगर सजा किसी अमेरिकी या फिर यूरोपीय देशों के नागरिको की हुई होती तो निश्चित मानिये कि सउदी अरब को कई मुश्किलों को सामना करना पड़ सकता है। बिल क्लिंटन खुद उत्तर कोरिया जाकर अपने नागरिकों की रिहाई सुनिश्चित कराने की घटना हमारे सामने हैं। क्या बिल क्लिंटन और अमेरिकी सराकार जैसा उदाहरण मनमोहन सिंह सरकार प्रस्तुत कर सकती है? ना उम्मीदी ही लगती है।
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17 भारतीयों की जान लेने पर तुली इस्लामिक न्याय संस्कृति
विष्णुगुप्त
इस्लामिक संस्कृति में सत्ता/न्याय/मीडिया/पुुलिस/ जैसे जरूरी खंभों की सोच/सरोकार/ यर्थाथ पूरी तरह से रूढ़ियों और मानवता के खिलाफ उठने वाली क्रियाओं से परिपूर्ण होती है। खासकर गैर इस्लामिक आबादी या फिर मुद्दों पर इस्लामिक संस्कृति/ सत्ता की ईमानदारी की कल्पना तक नहीं जा सकती है। मीडिया तक की भूमिका इस्लामिक रंगों में रंग जाती है। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। ईरानी मीडिया द्वारा कार्ला ब्रुनी को ‘ वेश्या‘ बताने की घटना क्या दुनिया के लोकतात्रिक जनमत से ओझल है। सउदी अरब में 17 भारतीयों की जान लेने पर तुली हुई इस्लामिक संस्कृति की करतूत कम खतरनाक नहीं है। इस्लामिक संस्कृति के सभी खंभों ने मजहबी रूढ़ियों से ग्रसित होकर भारतीयों के खिलाफ हत्या के आरोप तैयार कराये/प्रायोजित कराये/ स्थापित कराये। भारतीयों को अपने पक्ष को मजबूती के साथ रखने के लिए जरूरी न्यायिक सहायता भी उपलब्ध नहीं करायी गयी। जबकि दुनिया भर में न्यायिक प्रस्थावना है कि आरोपी अगर असहाय है और दूसरे देश से संबंधित है तो उसे अपने बचाव में सहायता के लिए न्यायिक सेवा देने की जिम्मेदारी सत्ता की होगी। मुबंई हमले के दोषी कसाब को भारत ने पूरी और चाकचौबंद न्यायिक सहायता उपलब्ध करायी। इसके बाद ही कसाब को भारतीय न्यायिक व्यवस्था से सजा मिली। सउदी अरब की इस्लामिक सत्ताने अपनी जिम्मेदारी निभायी नहीं और 17 भारतीयों को इस्लामिक कानूनों के तहत सुली पर चढ़ाने की सजा दिलवा दी। अपीलय इस्लामिक न्यायालय से भी भारतीय को पूर्वाग्रह रहित और निष्पक्ष न्याय की उम्मीद नहीं है। परराष्ट्र में अपने नागरिकों की सुरक्षा की जिम्मेदारी भारत सरकार की है। भारत सरकार ने आरोपित भारतीयों के परिजनों की हाहाकार पर भी सउदी अरब से खरी-खरी बात करने की हिम्मत जुटायी नहीं। आरोपित अगर अमेरिकी/यूरोप के नागरिक होते सउदी अरब की इस्लामिक सत्ता इतनी मनमानी कर पाती?
जिस मामले में 17 भारतीयों को मौत की सजा हुई है वह मामाला काफी दिलचस्प है। सउदी अरब में एक शराब व्यापारी की हत्या हुई थी। शराब व्यापारी पाकिस्तानी था और मुस्लिम था। शराब के धंधे मे आधिपत्य को लेकर हुए झगड़ों में उसकी जान गयी थी। तीन अन्य पाकिस्तानी नागरिक घायल हुए थे। पहली बात यह है कि इस्लामिक संस्कृति में शराब की विक्री की मनाही है। सउदी अरब में भी सरेआम और सार्वजनिक जगहों में शराब की विक्री की सरकारी इजाजत नहीं है। विशेष अनुमति वाले बार या होटलों मे ही शराब परोसी जाती है। शराब को लेकर उक्त झगड़ा कोई बार या होटल मे नहीं हुई थी। गैंगवार का सीधा अर्थ है कि सउदी अरब में शराब का यह धंधा जोर-शोर चल रहा था। धंधे मे पुलिस-प्रशासन और सत्ता की अनदेखी होगी। सच तो यह था कि शराब के धंधे में लगे पाकिस्तानियों और सउदी अरब के नागरिको के बीच संघर्ष हुआ था। संघर्ष में पाकिस्तानी नागरिक की मौत के लिए सउदी अरब के नागरिक ही जिम्मेदार थे। सउदी अरब की इस्लामिक पुलिस ने पाकिस्तानी नागरिक की हत्या मे 50 से अधिक लोगो को आरोपी बनाया था। इस्लामिक न्यायालय में 17 भारतीय को गुनाहगार माना गया और 2009 में उन्हें मौत की सजा सुनायी गयी । तब से सभी 17 भारतीय सउदी अरब की जेल में कैद है जहां पर उन्हें यातना-प्रताड़ना के साथ ही साथ उन्हें मजहबी घृणा का भी सामना करना पड़ रहा है।
इस्लामिक न्याय व्यवस्था का न्याय परिस्थितिजन्य के विपरीत तो रहा ही है, इसके अलावा इस्लाम की रूढ़ियों से भी कम ग्रसित नहीं रहा है। सर्वप्रथम तो शराब का बड़े पैमाने पर धंधे में सउदी अरब की पुलिस-प्रशासन की मिलीभगत से कैसे इनकार किया जा सकता है। जिन पुलिस-प्रशासन ने शराब के धंधे में पाकिस्तानी नागरिक के साझेदार थे उन्ही पुलिस-प्रशासन ने हत्या के आरोपों की जांच की थी। जांच में सीधेतौर पर सउदी अरब के नागरिकों को बचाया गया। भारतीय मजदूर सउदी अरब की पुलिस का आसान शिकार बन गये। शराब की अवैध विक्री के गैंगवार में 50 अधिक भारतीय शामिल थे तो पाकिस्तानी मूल की आबादी की भी बड़ी संख्या होगी। शराब का बडे स्तर पर धंधा एक-दो के सहारे से तो चल नहीं सकती है। शराब के धंधे में और संघर्ष मे कितने पाकिस्तानी नागरिक थे? इसका खुलासा हुआ ही नहीं। जबकि संघर्ष में बड़ी संख्या में पाकिस्तानी शामिल होंगे।
सजा पाये भारतीय हिन्दू-सिख हैं। अगर ये भारतीय मुस्लिम होते तो निश्चित मानिये इस्लामिक न्याय व्यवस्था का फैसला और कुछ होता। सबसे उल्लेखनीय और आक्रोश वाली बात यह है कि सजा पाये भारतीयों को अपने बचाव का उचित और न्यायपूर्ण अवसर दिया ही नहीं गया। उत्पीड़न और प्रताड़ना के बल पर गुनाह कबूल कराया गया। सादे कागजों पर हस्ताक्षर लिये गये और मनचाही स्थितियां दर्ज कराकर सजा सुनिश्चित करायी गयी। सजा पाये सभी भारतीय सउदी अरब की भाषा भी ठीक ढंग से समझ नहीं पाते हैं पर वे लिखा हुआ मंतब्य समझ नहीं सकते। लिपी फारसी है। फारिसी लिपी में क्या लिखा हुआ, यह भी उन्हें जानकारी नहीं होती है। इस्लामिक न्यायिक सुनवाई के दौरान सभी आरोपी अपने बचाव में ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकते थे। इसलिए कि वे सभी हिन्दी या फिर पंजाबी में अपने बचाव में तर्क और अपनी बेगुनाही की बात रखते थे। इस्लामिक न्यायालय हिन्दी और पंजाबी मे रखे गये बेगुनाही की बात अनसुनी कर दी। होना तो यह चाहिए था कि इस्लामिक न्यायालय स्वच्छ और घृणाहीन न्याय के लिए द्विभाषीय की सहायता लेता। लेकिन इस्लामिक न्यायालय ने द्विभाषीय की सहायता क्यो नहीं ली? इस पर सवाल खड़ा किया जाना चाहिए?
अंतर्राष्ट्रीय मान्यता और कानून के अनुसार परनागरिक को अपने बचाव के लिए न्यायिक सहायता हासिल करने का अधिकार है। कसाब प्रसंग को आप देख सकते हैं। कसाब ने मुबंई में हमले कर दर्जनों लोगो को मौत की नींद सुलायी। कसाब के गुनाह की सारे प्रमाण मौजूद थे। इसके बाद भी सरकार ने कसाब को बचाव के लिए वकील उपलब्ध कराया गया। सारी न्यायिक प्रकिया चाकचौबंद और स्वच्छ थी। सउदी अरब ने अंतर्राष्ट्रीय पंरमपराओं और कानूनों का पालन किया होता तो आरोपी भारतीय मौत की सजा से बच सकते थे और सउदी अरब भी न्याय की हत्या करने और मजहबी घृणा की दृष्टि रखने जैसे आरोपों से मुक्त होता। ऐसे भी इस्लामिक राष्ट्र संस्कृति से आप यह उम्मीद नहीं कर सकते हैं वे रूढ़ियों से ग्रसित नहीं होगे या फिर वे अतंर्राष्ट्रीय नियम-कानूनो के पालन कर सकते है। ऐसी सत्ता व्यवस्था के लिए अंतर्राष्ट्रीय परमपराओं और कानूनों का कोई अर्थ ही नही होता है। इनकी सोच इस्लामी रूढियों में कैद रहती है।
सबसे अधिक रोष और दुर्भाग्यपूर्ण रूख भारतीय सरकार का है। मौत की सजा पाये भारतीयों के परिजनों ने सउदी अरब की इस्लामिक न्याय व्यवस्था के इस अन्यायपूर्ण फैसले के खिलाफ भारत सरकार से गुजारिश की थी। अधिकतर आरोपी पंजाब के निवासी हैं। पंजाब से आये परिजनों ने प्रधानमत्री के साथ ही साथ विदेश मंत्री से भी न्याय की उम्मीद में गुहार लगा चुके हैं। पर मनमोहन सरकार का रवैया उदासीन है। सउदी अरब सरकार से खरी-खरी बात करने की जरूरत थी। इसलिए कि निष्पक्ष सुनवाई हो और निर्दोष भारतीयों की सजा से छुटकारा मिले। विदेशों में भारतीय नागरिको की सुरक्षा उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी दूतावासो की होती है। भारतीय दूतावासा ने यह जिम्मेदारी भी नहीं निभायी। अगर सजा किसी अमेरिकी या फिर यूरोपीय देशों के नागरिको की हुई होती तो निश्चित मानिये कि सउदी अरब को कई मुश्किलों को सामना करना पड़ सकता है। बिल क्लिंटन खुद उत्तर कोरिया जाकर अपने नागरिकों की रिहाई सुनिश्चित कराने की घटना हमारे सामने हैं। क्या बिल क्लिंटन और अमेरिकी सराकार जैसा उदाहरण मनमोहन सिंह सरकार प्रस्तुत कर सकती है? ना उम्मीदी ही लगती है।
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Saturday, August 21, 2010
मीडिया की ऐसी समझ क्यों और जनप्रतिनिधियों की अहर्ताएं
राष्ट्र-चिंतन
सांसदों के वेतन वृद्धि प्रंसग
मीडिया की ऐसी समझ क्यों और जनप्रतिनिधियों की अहर्ताएं
विष्णुगुप्त
मैं न तो सांसद हू और न विधायक। एक सक्रियतावादी/राजनीतिक टिप्पणीकार होने के नाते जनप्रतिनिधियों की जिंदगी और उनकी समस्याएं-चुनौतियों को नजदीक देखा है। इसीलिए सांसदों के वेतन व्द्धि को लेकर उठने वाली आवाज और वह भी मीडिया की तरफ से आक्रोशित करने के लिए प्रेरित करती है। सांसदों का वेतन तिगुना बढ़ने से भी उनकी चुनौतियां समाप्त नहीं होती है। सांसदो का वेतन पांच लाख से कम नहीं होना चाहिए। तभी हम उनसे ईमानदारी और समर्पण जैसी अर्हताएं हासिल कर सकते है। सांसदो के वेतन बृद्धि से पहले और बाद में अखबारों और टीवी चैनलों पर जिस तरह की चर्चा हुई और जिस तरह से जनप्रतिनिधियों के खिलाफ आवाज उठायी गयी उससे मीडिया और मीडिया में बैठे हुए बड़े मठाधीश पत्रकारों की समझ व सरोकार पर तरस क्यों नहीं आयेगा। निजी चर्चाओं में भी पत्रकारों की समझ थी कि राजनेता जनता की समस्याओं और महंगाई जैसी चुनौतियों से देश को मुक्ति दिलाने की जगह अपनी तिजोरी भरने के लिए एकजुट हैं। सांसदों के वेतन वृद्धि को लेकर वैसे-वैसे पत्रकार भी कॉलम लिख कर विरोध जताने की प्रक्रिया चलायी और टीवी चैनलों पर बैठकर जनप्रतिनिधियों की खिल्ली उड़ायी जिनका पूरा जिदंगी ही बिलासिता से भरी पड़ी हुई है और उनका एक पैर देश में तो दूसरा पैर विदेशों में होता है। दिल्ली में जितने भी बड़े अखबार निकलते हैं उनके संपादकों का वेतन का पैकेज लाखों रूपये से कदापि कम नहीं है। लाखों रूपये व्यूरो के रिपोर्टरों का वेतन पैकेज भी होता है। टीवी चैनलों के बड़े पत्रकारों का पैकज लाखों में होता है। लाखों रूपये वेतन पाने वाले पत्रकारों को कौन सी सामाजिक जिंदगी अनिवार्य रूप से निभानी पड़ती है। क्या ये मजदूरों या आम आदमी के दुख-दर्द से जुड़े होते है? आमलोगों की बात छोड़ दीजिए ये संधर्षशील या फिर नवांगुत पत्रकारों के टेलीफोन उठाने तक से कतराते है, जवाब देने की बात तो दूर रही। लाखों रूपये का पैकज लेकर काम करने वाले और सामाजिक दायित्वो से दूर रहने वाले पत्रकार अगर सांसदों के वेतन वृद्धि को लेकर सवाल उठाते हैं तो मीडिया का पूरा चरित्र जनतांत्रिक विरोधी हो जाता है। मीडिया की समझ पर भी गंभीर विचारण के लिए बाध्य करता है। यहां दो महत्वपूर्ण प्रश्न सामने आते हैं। प्रथम प्रश्न यह कि क्या क्या सांसदों का वेतन वृद्धि सही में गैर जरूरी है या फिर सांसद अपनी तिजोरी भरने में जनता की समस्याओं से दूर हो रहे हैं और दूसरा प्रश्न यह है कि मीडिया की समझ और ऐसी प्रक्रिया निर्मित क्यों होती है जिसमें देश की राजनीति की संपूर्ण दायित्वों और उन दायित्वों के निर्वाह्न की संपूर्ण आधार संरचनाओं पर साफ और सकारात्मक प्रतिक्रियाओं से दूर की समझ विकसित हो जाता है।
कितना जरूरी था वेतन वृद्धि.................
सभी सांसद न तो अमर सिंह/ राहुल बजाज/ जिंदल हैं और न ही मनमोहन सिंह जैसे नौकरशाह या विश्व बैंक मुद्रा कोष को नुमाइंदे। बहरहाल सासदों का वेतन तीन गुणा हो चुका है। क्षेत्र भत्ता और अन्य भत्ताओं में भी बढ़ोतरी हो चुकी है। पहले सांसदों का वेतन 16 हजार था। जूनियर कलर्क से भी नीचे का वेतन था। कई भत्ताएं और सुविधाएं जरूर थी। सबसे ज्यादा निशाना यही भत्ताएं और सुविधाएं ही बनी हैं। लेकिन यह भी समझ लेना चाहिए कि सांसदों को जो सुविधाएं हैं लगभग वह सुविधाएं सरकारी कर्मचारियोें-अधिकारियों को भी हैं। केन्द्र सरकार के सचिचों का वेतन देख लीजिये। इनका वेतन 80 हजार रूपये और आवास सहित अन्य सुविधाएं उन्हें मिली हुई है। जबकि एक सांसद को जिन प्रकार की चुनौतियां होती हैं और जिन प्रकार की समस्याओं से ये घिरे होते हैं क्या वैसी ही समस्याओं से अधिकारी घिरे होते हैं। जन प्रतिनिधि जनता के सेवक हैं। इसलिए उनकी समस्याएं विकराल हैं। सैकड़ों लोग सांसदों से मिलने और अपनी समस्याएं सुनाने प्रतिदिन आते हैं। प्रतिदिन आनेवाले सैकड़ों लोगों को चाय पिलाने/खाना खिलाने/ आर्थिक रूप से तंगहाल फरियादियों को घर भेजने और उनकी समस्याओं के समाधान के लिए अधिकारियों-कर्मचारियों को पत्र लिखने जैसी प्रक्रिया कितनी दुरूह होगी और उस प्रक्रिया को पूरा करने में कितनी आर्थिक शक्ति लगती होगी उसका अनुमान लगाना मुश्किल है। दिल्ली जैसे शहरों में एयरकंडिश्न में बैठकर चर्चा करने वाले और चिंता जताने वाले तथाकथित बुद्धीजीवी कभी कल्पना तक की है कि सांसदों का क्षेत्र कितना लम्बा/चौड़ा होता है? सांसदों का क्षेत्र 100 किलोमीटर से भी ज्यादा लम्बा-चौड़ा होता है। क्षेत्र ने केवल लम्बा-चौड़ा होता है बल्कि जगलों और पहाड़ो से घिरा होता है। गांवों में जाने के लिए सड़कों तक नहीं होती है। यानी की दुरूह क्षेत्रों में घुमने और जनता की समस्याओं को जानने के लिए जनप्रतिनिधियों को पहाड़ जैसी समस्याओं से दो चार होना पड़ता है। दिल्ली में इलाज कराने या अन्य कामों के लिए आने वाली क्षेत्र आबादी को सांसदो को न केवल खातिरदारी करनी पड़ती है बल्कि इलाज कराने व वापसी के लिए आर्थिक मदद भी उपलब्ध करानी पड़ती है।
अमेरिका-यूरोप के सांसदों से तुलना...............
अमेरिका-यूरोप की तुलना में हमारे सांसदों का जो वेतन और सुविधाएं मिलती हैं वह बहुत ही कम है। सुवधिाओं के नाम पर सिर्फ यात्रा/क्षेत्र और दूरभाष आदि ही हैं। जबकि अमेरिका-यूरोप के सांसदों को भारी-भरकम सुविधाओं के साथ ही साथ वेतन भी कम नही है। खासियत यह भी है कि अमेरिका-यूरोप के सांसदों के पास विशेषज्ञों की टीम रखने की सुविधाएं उपलब्ध है। विभिन्न समस्याओं पर शोध करने और संबंधित जानकारी उपलब्ध कराने के लिए टीम होती है जिसका भुगतान सांसदों को नहीं बल्कि सरकार को करनी पड़ती है। इसका लाभ यह होता है कि जनप्रतिनिधि किसी भी समस्या और चुनौतियों पर साफ और संपूर्ण समझ व जानकारी हासिल कर लेता है। इजरायल का उदाहरण भी जानना जरूरी है। इजरायल में प्रत्येक स्नातक को सांसदों के अधीन छह माह तक काम करना पड़ता है। इसका लाभ यह होता है कि प्रत्येक छात्र अपने देश की राजनीतिक चरित्र और सरोकार सहित चुनौतियों को न केवल समझ लेता है बल्कि उसका उपयोग वह भविष्य के जिंदगी को समृद्ध बनाने और देश की चुनौतियों का सामना करने के लिए करता है। यही कारण है कि चारो तरफ से अराजक और हिंसक मुस्लिम राष्ट्रों से घिरे होने के बाद भी इजरायल चटान के समान खड़ा है और वैश्विक नियामकों की चुनौतियों को भी इजरायल आसानी से अपने पक्ष में करने मे समझदार और सफल है।
मीडिया की ऐसी समझ क्यों?............
मीडिया की ऐसी समझ क्यों है? मीडिया भारतीय लोकतंत्र की साफ/सही समझ क्यों नहीं रखता है? लोकतंत्र को स्वच्छ और समृद्ध बनाने के लिए जरूरी संसाधनों पर सकरात्मक सोच रखने की जगह नकरात्मक प्रतिक्रिया के प्रवाह में क्यों मीडिया बहने लगता है? असली चिंता की बात यह है कि मीडिया अब उतना देशज सरोकारी रहा नहीं जितना उम्मीद की जा रही है या फिर उसकी जिम्मदारी थी। लोकतंत्र/राजनीति मे जिस तरह से अपराधियों का बोलबला विकसित हो रहा है उसी तरह से मीडिया में दलालों और धनपशुओं का बोलबला बढ़ा है। पहले मीडिया में जो लोग आते थे उनका एकमेव सरोकार समाज सेवा होता था। येन-केन-प्रकारेण धन कमाना उद्देश्य कदापि नही होता था। नये-नये अखबारों और चैनलों के आज मालिक कौन लोग है? किसी का विल्डिर तो किसी का व्यापारी। इनका एक ही एजेंडा होता है दबाव बनाकर अपना व्यवसाय बढ़ाना। एक और बात महत्वपूर्ण है। आज पत्रकार कारखाने में पैदा किये जा रहे हैं। कुकुरमुत्ते की तरह आज पत्रकारिता कालेज खुले हुए है। लाखों रूपये लेकर पत्रकारिता का पढ़ाई पढ़ रहे हैं। पत्रकारिता शिक्षण संस्थानों में न तो उत्कृष्ट पत्रकार होते हैं और न ही अच्छे टीचर। देश की समस्याओं और चुनौतियों से भी उन्हें ठीक ढंग से प्रशिक्षित नहीं किया जाता है। सिर्फ पत्रकारिता की कानूनी अर्हताएं पूरी कर इन्हें पत्रकारिता की प्रक्रिया में ढंकेल दिया जाता है। कारखाने से निकलने वाले पत्रकारों की समझ कितनी हो सकती है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। यही कारण है कि मीडिया में सांसदों के वेतन वृद्धि को लेकर सवाल खड़े किये जाते हैं।
पूंजी का खेल.......................
पूंजी के खेल को क्यों नहीं समझना चाहिए। पूंजी का खेल है लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर करना/ छवि को दागदार बनाना और विश्वसनीयता का कबाड़ा निकालना। भूंमंडलीकरण के साथ ही साथ हमारे देश में जनप्रतिनिधियों को दागदार बनाने और विश्वसनीयता से दूर करने का खेल शुरू हो गया था। इसीलिए मीडिया सहित अन्य बुद्धीजीवियों के तबके से लगातार जनप्रतिनिधियों की ईमानदारी पर सवाल उठाने की प्रक्रिया चलती रहती है। लोकतंत्र पर आज संपूर्ण राजनीतिक चरित्र वाले शख्सियतों की जगह नौकरशाही जैसी शख्यितो को बैठने का मार्ग क्या नहीं बनाया जा रहा है। मनमोहन सिंह जैसी शख्सियत किस श्रेणी के देन है। अगर ऐसी शख्यित नहीं बैठगी तो फिर पूंजी का खेल और भंूमंडलीकरण की लूटवाली नीतियां लागू कैसे होगी। नौकरशाही मजबूत कैसे होगी? ऐसे खेल में जाने-अनजाने मीडिया भी शामिल हो जाता है। एक तरफ तो जनप्रतिनिधियों से ईमानादारी की उम्मीद की जाती है और दूसरी तरफ जनता की समस्याओं और चुनौतियों से भी जुझने की वकालत जाती है पर आर्थिक संसाधन उपलब्ध कराने पर सवाल भी खड़ा किया जाता है। ये दोहरापन क्यों? इसे दुर्भाय ही कहा जा सकता है कि सांसदों को अपने वेतन वृद्धि के लिए जुझना पड़ता है। तिगुना वृद्धि जरूर हुई है पर यह भी कम है। कमसे कम पांच लाख वेतन होना चाहिए। सासंदों के सामने चुनौतियांें को देखते हुए यह राशि भी बहुत ज्यादा नहीं है।
सम्पर्क..........
मोबाइल........... 09968997060
सांसदों के वेतन वृद्धि प्रंसग
मीडिया की ऐसी समझ क्यों और जनप्रतिनिधियों की अहर्ताएं
विष्णुगुप्त
मैं न तो सांसद हू और न विधायक। एक सक्रियतावादी/राजनीतिक टिप्पणीकार होने के नाते जनप्रतिनिधियों की जिंदगी और उनकी समस्याएं-चुनौतियों को नजदीक देखा है। इसीलिए सांसदों के वेतन व्द्धि को लेकर उठने वाली आवाज और वह भी मीडिया की तरफ से आक्रोशित करने के लिए प्रेरित करती है। सांसदों का वेतन तिगुना बढ़ने से भी उनकी चुनौतियां समाप्त नहीं होती है। सांसदो का वेतन पांच लाख से कम नहीं होना चाहिए। तभी हम उनसे ईमानदारी और समर्पण जैसी अर्हताएं हासिल कर सकते है। सांसदो के वेतन बृद्धि से पहले और बाद में अखबारों और टीवी चैनलों पर जिस तरह की चर्चा हुई और जिस तरह से जनप्रतिनिधियों के खिलाफ आवाज उठायी गयी उससे मीडिया और मीडिया में बैठे हुए बड़े मठाधीश पत्रकारों की समझ व सरोकार पर तरस क्यों नहीं आयेगा। निजी चर्चाओं में भी पत्रकारों की समझ थी कि राजनेता जनता की समस्याओं और महंगाई जैसी चुनौतियों से देश को मुक्ति दिलाने की जगह अपनी तिजोरी भरने के लिए एकजुट हैं। सांसदों के वेतन वृद्धि को लेकर वैसे-वैसे पत्रकार भी कॉलम लिख कर विरोध जताने की प्रक्रिया चलायी और टीवी चैनलों पर बैठकर जनप्रतिनिधियों की खिल्ली उड़ायी जिनका पूरा जिदंगी ही बिलासिता से भरी पड़ी हुई है और उनका एक पैर देश में तो दूसरा पैर विदेशों में होता है। दिल्ली में जितने भी बड़े अखबार निकलते हैं उनके संपादकों का वेतन का पैकेज लाखों रूपये से कदापि कम नहीं है। लाखों रूपये व्यूरो के रिपोर्टरों का वेतन पैकेज भी होता है। टीवी चैनलों के बड़े पत्रकारों का पैकज लाखों में होता है। लाखों रूपये वेतन पाने वाले पत्रकारों को कौन सी सामाजिक जिंदगी अनिवार्य रूप से निभानी पड़ती है। क्या ये मजदूरों या आम आदमी के दुख-दर्द से जुड़े होते है? आमलोगों की बात छोड़ दीजिए ये संधर्षशील या फिर नवांगुत पत्रकारों के टेलीफोन उठाने तक से कतराते है, जवाब देने की बात तो दूर रही। लाखों रूपये का पैकज लेकर काम करने वाले और सामाजिक दायित्वो से दूर रहने वाले पत्रकार अगर सांसदों के वेतन वृद्धि को लेकर सवाल उठाते हैं तो मीडिया का पूरा चरित्र जनतांत्रिक विरोधी हो जाता है। मीडिया की समझ पर भी गंभीर विचारण के लिए बाध्य करता है। यहां दो महत्वपूर्ण प्रश्न सामने आते हैं। प्रथम प्रश्न यह कि क्या क्या सांसदों का वेतन वृद्धि सही में गैर जरूरी है या फिर सांसद अपनी तिजोरी भरने में जनता की समस्याओं से दूर हो रहे हैं और दूसरा प्रश्न यह है कि मीडिया की समझ और ऐसी प्रक्रिया निर्मित क्यों होती है जिसमें देश की राजनीति की संपूर्ण दायित्वों और उन दायित्वों के निर्वाह्न की संपूर्ण आधार संरचनाओं पर साफ और सकारात्मक प्रतिक्रियाओं से दूर की समझ विकसित हो जाता है।
कितना जरूरी था वेतन वृद्धि.................
सभी सांसद न तो अमर सिंह/ राहुल बजाज/ जिंदल हैं और न ही मनमोहन सिंह जैसे नौकरशाह या विश्व बैंक मुद्रा कोष को नुमाइंदे। बहरहाल सासदों का वेतन तीन गुणा हो चुका है। क्षेत्र भत्ता और अन्य भत्ताओं में भी बढ़ोतरी हो चुकी है। पहले सांसदों का वेतन 16 हजार था। जूनियर कलर्क से भी नीचे का वेतन था। कई भत्ताएं और सुविधाएं जरूर थी। सबसे ज्यादा निशाना यही भत्ताएं और सुविधाएं ही बनी हैं। लेकिन यह भी समझ लेना चाहिए कि सांसदों को जो सुविधाएं हैं लगभग वह सुविधाएं सरकारी कर्मचारियोें-अधिकारियों को भी हैं। केन्द्र सरकार के सचिचों का वेतन देख लीजिये। इनका वेतन 80 हजार रूपये और आवास सहित अन्य सुविधाएं उन्हें मिली हुई है। जबकि एक सांसद को जिन प्रकार की चुनौतियां होती हैं और जिन प्रकार की समस्याओं से ये घिरे होते हैं क्या वैसी ही समस्याओं से अधिकारी घिरे होते हैं। जन प्रतिनिधि जनता के सेवक हैं। इसलिए उनकी समस्याएं विकराल हैं। सैकड़ों लोग सांसदों से मिलने और अपनी समस्याएं सुनाने प्रतिदिन आते हैं। प्रतिदिन आनेवाले सैकड़ों लोगों को चाय पिलाने/खाना खिलाने/ आर्थिक रूप से तंगहाल फरियादियों को घर भेजने और उनकी समस्याओं के समाधान के लिए अधिकारियों-कर्मचारियों को पत्र लिखने जैसी प्रक्रिया कितनी दुरूह होगी और उस प्रक्रिया को पूरा करने में कितनी आर्थिक शक्ति लगती होगी उसका अनुमान लगाना मुश्किल है। दिल्ली जैसे शहरों में एयरकंडिश्न में बैठकर चर्चा करने वाले और चिंता जताने वाले तथाकथित बुद्धीजीवी कभी कल्पना तक की है कि सांसदों का क्षेत्र कितना लम्बा/चौड़ा होता है? सांसदों का क्षेत्र 100 किलोमीटर से भी ज्यादा लम्बा-चौड़ा होता है। क्षेत्र ने केवल लम्बा-चौड़ा होता है बल्कि जगलों और पहाड़ो से घिरा होता है। गांवों में जाने के लिए सड़कों तक नहीं होती है। यानी की दुरूह क्षेत्रों में घुमने और जनता की समस्याओं को जानने के लिए जनप्रतिनिधियों को पहाड़ जैसी समस्याओं से दो चार होना पड़ता है। दिल्ली में इलाज कराने या अन्य कामों के लिए आने वाली क्षेत्र आबादी को सांसदो को न केवल खातिरदारी करनी पड़ती है बल्कि इलाज कराने व वापसी के लिए आर्थिक मदद भी उपलब्ध करानी पड़ती है।
अमेरिका-यूरोप के सांसदों से तुलना...............
अमेरिका-यूरोप की तुलना में हमारे सांसदों का जो वेतन और सुविधाएं मिलती हैं वह बहुत ही कम है। सुवधिाओं के नाम पर सिर्फ यात्रा/क्षेत्र और दूरभाष आदि ही हैं। जबकि अमेरिका-यूरोप के सांसदों को भारी-भरकम सुविधाओं के साथ ही साथ वेतन भी कम नही है। खासियत यह भी है कि अमेरिका-यूरोप के सांसदों के पास विशेषज्ञों की टीम रखने की सुविधाएं उपलब्ध है। विभिन्न समस्याओं पर शोध करने और संबंधित जानकारी उपलब्ध कराने के लिए टीम होती है जिसका भुगतान सांसदों को नहीं बल्कि सरकार को करनी पड़ती है। इसका लाभ यह होता है कि जनप्रतिनिधि किसी भी समस्या और चुनौतियों पर साफ और संपूर्ण समझ व जानकारी हासिल कर लेता है। इजरायल का उदाहरण भी जानना जरूरी है। इजरायल में प्रत्येक स्नातक को सांसदों के अधीन छह माह तक काम करना पड़ता है। इसका लाभ यह होता है कि प्रत्येक छात्र अपने देश की राजनीतिक चरित्र और सरोकार सहित चुनौतियों को न केवल समझ लेता है बल्कि उसका उपयोग वह भविष्य के जिंदगी को समृद्ध बनाने और देश की चुनौतियों का सामना करने के लिए करता है। यही कारण है कि चारो तरफ से अराजक और हिंसक मुस्लिम राष्ट्रों से घिरे होने के बाद भी इजरायल चटान के समान खड़ा है और वैश्विक नियामकों की चुनौतियों को भी इजरायल आसानी से अपने पक्ष में करने मे समझदार और सफल है।
मीडिया की ऐसी समझ क्यों?............
मीडिया की ऐसी समझ क्यों है? मीडिया भारतीय लोकतंत्र की साफ/सही समझ क्यों नहीं रखता है? लोकतंत्र को स्वच्छ और समृद्ध बनाने के लिए जरूरी संसाधनों पर सकरात्मक सोच रखने की जगह नकरात्मक प्रतिक्रिया के प्रवाह में क्यों मीडिया बहने लगता है? असली चिंता की बात यह है कि मीडिया अब उतना देशज सरोकारी रहा नहीं जितना उम्मीद की जा रही है या फिर उसकी जिम्मदारी थी। लोकतंत्र/राजनीति मे जिस तरह से अपराधियों का बोलबला विकसित हो रहा है उसी तरह से मीडिया में दलालों और धनपशुओं का बोलबला बढ़ा है। पहले मीडिया में जो लोग आते थे उनका एकमेव सरोकार समाज सेवा होता था। येन-केन-प्रकारेण धन कमाना उद्देश्य कदापि नही होता था। नये-नये अखबारों और चैनलों के आज मालिक कौन लोग है? किसी का विल्डिर तो किसी का व्यापारी। इनका एक ही एजेंडा होता है दबाव बनाकर अपना व्यवसाय बढ़ाना। एक और बात महत्वपूर्ण है। आज पत्रकार कारखाने में पैदा किये जा रहे हैं। कुकुरमुत्ते की तरह आज पत्रकारिता कालेज खुले हुए है। लाखों रूपये लेकर पत्रकारिता का पढ़ाई पढ़ रहे हैं। पत्रकारिता शिक्षण संस्थानों में न तो उत्कृष्ट पत्रकार होते हैं और न ही अच्छे टीचर। देश की समस्याओं और चुनौतियों से भी उन्हें ठीक ढंग से प्रशिक्षित नहीं किया जाता है। सिर्फ पत्रकारिता की कानूनी अर्हताएं पूरी कर इन्हें पत्रकारिता की प्रक्रिया में ढंकेल दिया जाता है। कारखाने से निकलने वाले पत्रकारों की समझ कितनी हो सकती है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। यही कारण है कि मीडिया में सांसदों के वेतन वृद्धि को लेकर सवाल खड़े किये जाते हैं।
पूंजी का खेल.......................
पूंजी के खेल को क्यों नहीं समझना चाहिए। पूंजी का खेल है लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर करना/ छवि को दागदार बनाना और विश्वसनीयता का कबाड़ा निकालना। भूंमंडलीकरण के साथ ही साथ हमारे देश में जनप्रतिनिधियों को दागदार बनाने और विश्वसनीयता से दूर करने का खेल शुरू हो गया था। इसीलिए मीडिया सहित अन्य बुद्धीजीवियों के तबके से लगातार जनप्रतिनिधियों की ईमानदारी पर सवाल उठाने की प्रक्रिया चलती रहती है। लोकतंत्र पर आज संपूर्ण राजनीतिक चरित्र वाले शख्सियतों की जगह नौकरशाही जैसी शख्यितो को बैठने का मार्ग क्या नहीं बनाया जा रहा है। मनमोहन सिंह जैसी शख्सियत किस श्रेणी के देन है। अगर ऐसी शख्यित नहीं बैठगी तो फिर पूंजी का खेल और भंूमंडलीकरण की लूटवाली नीतियां लागू कैसे होगी। नौकरशाही मजबूत कैसे होगी? ऐसे खेल में जाने-अनजाने मीडिया भी शामिल हो जाता है। एक तरफ तो जनप्रतिनिधियों से ईमानादारी की उम्मीद की जाती है और दूसरी तरफ जनता की समस्याओं और चुनौतियों से भी जुझने की वकालत जाती है पर आर्थिक संसाधन उपलब्ध कराने पर सवाल भी खड़ा किया जाता है। ये दोहरापन क्यों? इसे दुर्भाय ही कहा जा सकता है कि सांसदों को अपने वेतन वृद्धि के लिए जुझना पड़ता है। तिगुना वृद्धि जरूर हुई है पर यह भी कम है। कमसे कम पांच लाख वेतन होना चाहिए। सासंदों के सामने चुनौतियांें को देखते हुए यह राशि भी बहुत ज्यादा नहीं है।
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Monday, August 16, 2010
किसानों की सस्ती जमीन और कारपोरेटेड तिजोरी
राष्ट्र-चिंतन
‘यमुना एक्सप्रेस वे ‘ प्रसंग
किसानों की सस्ती जमीन और कारपोरेटेड तिजोरी
विष्णुगुप्त
हिन्दी इलाकों में किसानो का यह आंदोलन और पुलिस की गोली क्या कारपोरेटेड तिजोरी और सरकारों के खिलाफ कोई नयी और प्रभावकारी राजनीतिक संरचना व परिधि खड़ा कर पायेगी? असली विचारण का विषय यही है। यह भी सही है कि बहुत दिनों के बाद हिन्दी क्षेत्र में किसानों का कोई सशक्त आंदोलन खड़ा हुआ है वह भी कारपोरेटेड तिजोरी और सरकार की किसान विरोधी गठजोड़ के खिलाफ। मथुरा, अलीगढ़ और गाजियाबाद के जिन क्षेत्रों में किसानों की आवाज ने हठधर्मी-बेलगाम मायावती की सत्ता हिलायी वह क्षेत्र निश्चिततौर पर किसानों की एकजुटता और अस्मिता की पहचान के लिए जानी जाता है। महेन्द्र सिंह टिकैत ने किसानों की आवाज और हित का पुर्नजागरण किया है। चरण सिंह इन्ही इलाकों में किसानों के दुख-दर्द/ पीड़ा की राजनीतिक शक्ति बटौरी थी और मुख्यमंत्री/प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुचे थे। हालांकि महेन्द्र सिंह टिकैत ने किसानों की समस्याओं और अस्मिता को लेकर पश्चिम उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली तक हहाकार मचायी थी पर सरकारों के कारपोरेटी संस्कृति और कारपोरेटी तिजोरी के साथ गठजोड़ ने किसानों के हितों पर डाका डाला और किसानों को हाशिये पर भेज दिया। किसानों के सामने बेकारी/तंगहाली/भूख/ अपमान की दीवार धिरती चली गयी। सरकार की एक भी ऐसी योजनाओं का नाम लिया जा सकता है जिसमें किसानों की भलाई और उनकी खेती की आधारभूत संरचनाएं सरकार की असली प्राथमिकता में शामिल हो और क्या उसके लिए सरकार की क्रियाशीलता अनवरत जारी रहती है? कार के लिए वित्तीय संस्थाएं सात/आठ प्रतिशत व्याज की दर पर कर्ज देती हैं पर किसानों को कृषि समान के लिए व्याज की दर 14/15 प्रतिशत से उपर होती है। यमुना नदी के किनारे किसानों की अति उपजाउ-किमती जमीन को औने-पौने दाम मे बलपूर्वक अधिग्रहित कर जेपी ग्रुप को दी गयी। उससे किसानों का उपजा हुआ गुस्सा कभी भी अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता है। दुखद तो यह है कि किसानों की ंिचता दूर करने की जगह किसानों पर गोलियां बरस रही हैं। क्या यही है लोकतांत्रिक व्यवस्था?
तिजोरीकरण का दौर...............
जिस दौर में किसान/मजूदर और मध्यमवर्ग हासिये पर जा रहे हैं और शोषण/उपेक्षा का अनवरत शिकार हो रहे हैं वह भंूमंडलीकरण का दौर है। यानी तिजोरीकरण का। दुनिया भर में तिजोरीकरण का क्र्रूर चेहरा दिख रहा है और प्राकृतिक संसाधनों के साथ ही साथ किसान/मजदूरों/ मध्यम वर्ग के हितो पर कुठराधात कर कारपोरेट संस्थाएं/धराने / संस्कृतियां अपनी तिजोरियां भर रहीं है। निर्धन देश और विवासशील देश खासेतौर पर तिजोरीकरण के शिकार हैं। अधिकतर निर्धन देशों में तानाशाही या मजहबी व्यवस्थाएं जहां पर आम आदमी के सरोकारों और हितों की अनदेखी और कुटीरधात कोई खास मायने नहीं रखती है। पर भारत जैसे लोकतांत्रिक देष में कारपोरेटी लूट और तिजोरीकरण की राजनीतिक प्रक्रिया का खतरनाक उपस्थिति जरूर उत्पन्न कर चिंता और आक्रोश का विषय है। इसलिए कि हमारे देश में शासन-प्रशासन लोकतांत्रिक व्यवस्था से चलता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था मे समाज के सभी अंगों के विकास और उनके हित सुरक्षित रखने की अर्हताएं शामिल हैं। पर हमारा लोकतांत्रिक व्यवस्था क्या सही अर्थो मे आम आदमी के विश्वास का प्रतिनिधित्व करता है? क्या इस व्यवस्था में अब आम आदमी के हित सुरक्षित हैं?उत्तर होगा कदापि नहीं। यही कारण है कि आज देश के सुदुर भागों में राष्ट्रवाद/ लोकतंत्र की जड़े हिल रही हैं और चरमपंथी व्यवस्थाएं हिलौर मार रही हैं। अपनी फरियाद को लेकर आम आदमी नक्सली संगठनों के पास जा रहे हैं। प्रधानमंत्री खुद इस पन्द्रह अगस्त पर लाल किले के प्राचीर से नक्सलवाद को देश की सबसे खतरनाक समस्या/ चुनौती बता चुके है। फिर भी प्रधानमंत्री सहित अन्य सभी सरकारों और राजनीतिक पार्टियां अपनी जनविरोधी संस्कृति छोड़ने के लिए तैयार क्यों नहीं है।
सिंदुर ग्राम का सबक...................
पश्चिम बंगाल में सिंदुरग्राम और ममता बनर्जी के संघर्ष से हमारी सरकारें सबक क्यों नहीं लेती है? मायावती और जिस तरह से अराजक और बेलगाम है और किसानों पर लाठी/गोली बरसा रही है उसी तरह से पश्चिम बंगाल का वाममोर्चा सरकार भी बेलागाम थी/अराजक थी। उसे अपने मसलपावर की सत्ता राजनीति/रणनीति पर अति आत्मविश्वास था। खुशफहमी भी कह सकते हैं। उपजाउ जमीन छीनने और टाटा की तिजोरी भरने पर उतारू सीपीएम की सरकार की कैसी स्थिति हुई है, यह भी जगजाहिर ही है। टाटा को पश्चिम बंगाल की धरती को छोड़कर भागना तो पड़ा ही इसके अलावा 30 सालों से सत्ता में बैठी सीपीएम की सत्ता चलचलायी दौर में भी पहंुच गयी है। ममता बनर्जी आज लगातार राजनीतिक तौर पर मजबूत हो रही है और सीपीएम की सत्ता पर कील पर कील गाड़ रही है। ममता के संघर्ष और सीपीएम की हुई दुर्गति से भी हमारी सरकारें सबक लेने के लिए तैयार नहीं है। अगर सबक लेने के लिए तैयार होती तो फिर किसानों को देश भर में अपनी अस्मिता बचाने और पुरखैनी जमीन को बचाने के लिए संघर्ष करने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ता। सिर्फ पश्चिम उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि उड़ीसा/आंध्रप्रदेश/कर्नाटक/ झारखंड/ छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेशों मे भी राज्य सरकारें किसानों की उपजाउ भूमि बलपूर्वक अधिग्रहित कर कारपोरेटेड तिजारी भर रही है। इन जगहों पर किसानों की कितनी खतरनाक चुनौती और संधर्ष का सामाना करना पड़ रहा है। यह भी जगजाहिर ही है।
युमना एक्सप्रेस वे............
यमुना एक्सप्रेस वे किसानों की अति उपजाउ भूमि जा रही है। नोएडा से आगरा के बीच बनने वाली यह एक्सप्रेस वे 165 किलोमीटर लम्बा है और आठ लेन की है। इतनी लम्बी/चौड़ी सड़क में किसानों की अति उपजाउ और कीमती जमीन ओने/पोने दाम पर सरकार अधिग्रहित कर ली। एक सामान मुआबजा दर भी नहीं तय किया गया। नोएडा और गाजियाबाद जिलों को मुआबजा राशि ठीक-ठाक तो थी पर जमीन जाने से होने वाली चुनौतियों के आस-पास भी नहीं थी। सबसे अधिक उदासीनता और अन्याय अलीगढ/मथुरा आदि जिलों के किसानों के साथ बरती गयी। अलीगढ और मथुरा जिले के किसानों को जो मुआबजा राशि तय हुई वह राशि उंट के मुंह में जीरे के सामान थी। मुआबजा राशि को लेकर आक्रोश कोई एक दो दिन में नहीं पनपा। लम्बे समय से इसकी सुगबुगाहट चल रही थी। मायावती सरकार ने किसानों की मांगों को अनसुना कर दिया। हार कर किसान अपनी फरियाद लेकर न्यायपालिका के पास गये। न्यायपालिका भी किसानों को राहत देने से इनकार कर दिया और मायावती सरकार के रूख पर मुहर लगा दिया। ऐसी स्थिति में किसानों को हिंसक आंदोलन करने के लिए बाध्य होना पड़ा। यहां एक बात और महत्वपूर्ण है। जिस पर गंभीर चर्चा की जरूरत है। सरकार औने-पौने दाम पर किसानों की उपजाउ जमीन लेकर कारपोरेट को देगी और कारपोरेट कम्पनियां उस जमीन के आधार पर बेहिसाब दौलत कमायेगी। यमुना एक्सप्रेसवे बनाने वाली जेपी ग्रुप यमुना एक्सप्रेसवे पर टौल टैक्स वसूलेगी। उसी यमुना एक्सप्रेसवे पर आवागमण करने के लिए किसानों को टौल टेक्स चुकाना पड़ेगा। आखिर लूट-डकैती वाली सरकारी नीति हमारे देश में कब समाप्त होगी।
राजनीतिक पार्टियां एक ही राह पर
किसानों के गुस्से और चिंता के प्रबंधन की जरूरत थी। मुआबजे को लेकर किसानों की चिंता पर मायावती सरकार ध्यान देती। पर किसानों के गुस्से ओर चिंता का प्रबंधन लाठी-गोली से करना लोकतंत्र में कहां की नीति और न्याय है। भोपाल गैस कांड की तरह अलीगढ़/मथुरा जिलों के किसानों के खिलाफ सरकार और न्यायपालिका साथ खड़ी हो गयी। हिंसा होने पर ही मायावती की सरकार क्यों जागी। अगर पहले जाग जाती तो न तो हिंसा होती और न ही किसानों की जोनें जाती। पुलिस की गोली से मरने वाले किसानों की जान की कीमत पांच लाख आकी गयी है। यह भी एक प्रकार की सरकारी हिसंा कही जा सकती है। किसानों के आंदोलने के साथ राजनीतिक पार्टियां जुड़ी हैं पर यह सही है कि सभी राजनीतिक पार्टियां इस मसले पर एक ही राह पर चलती हैं। वह राह है कारपोरेटेड तिजारी को और मालोमाल करना। क्या इस पाप से मनमोहन सरकार मुक्त है? क्या कर्नाटक में किसानों के साथ भाजपा सरकार अन्याय नहीं कर रही है? क्या मुलायम सिंह सरकार ने किसानों की उपजाउ जमीन रिलायंस के हाथों नहीं बेची थी। किसानों को सभी राजनीतिक पार्टियों से सावधान रहना होगा। इनके जालों में फंसने की जगह स्वयं आंदोलन की अगुवाई करनी होगी। किसानों का उठा आक्रोश मायावती के लिए काल साबित हो सकता है। निष्कर्ष यह है कि किसानों का आंदोलन देश में नयी राजनीतिक प्रक्रिया तो बनायेगी ही इसके अलावा कारपोरेटी लूट पर भी कील गाडेगी।
सम्पर्क.............
मोबाइल- 09968997060
‘यमुना एक्सप्रेस वे ‘ प्रसंग
किसानों की सस्ती जमीन और कारपोरेटेड तिजोरी
विष्णुगुप्त
हिन्दी इलाकों में किसानो का यह आंदोलन और पुलिस की गोली क्या कारपोरेटेड तिजोरी और सरकारों के खिलाफ कोई नयी और प्रभावकारी राजनीतिक संरचना व परिधि खड़ा कर पायेगी? असली विचारण का विषय यही है। यह भी सही है कि बहुत दिनों के बाद हिन्दी क्षेत्र में किसानों का कोई सशक्त आंदोलन खड़ा हुआ है वह भी कारपोरेटेड तिजोरी और सरकार की किसान विरोधी गठजोड़ के खिलाफ। मथुरा, अलीगढ़ और गाजियाबाद के जिन क्षेत्रों में किसानों की आवाज ने हठधर्मी-बेलगाम मायावती की सत्ता हिलायी वह क्षेत्र निश्चिततौर पर किसानों की एकजुटता और अस्मिता की पहचान के लिए जानी जाता है। महेन्द्र सिंह टिकैत ने किसानों की आवाज और हित का पुर्नजागरण किया है। चरण सिंह इन्ही इलाकों में किसानों के दुख-दर्द/ पीड़ा की राजनीतिक शक्ति बटौरी थी और मुख्यमंत्री/प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुचे थे। हालांकि महेन्द्र सिंह टिकैत ने किसानों की समस्याओं और अस्मिता को लेकर पश्चिम उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली तक हहाकार मचायी थी पर सरकारों के कारपोरेटी संस्कृति और कारपोरेटी तिजोरी के साथ गठजोड़ ने किसानों के हितों पर डाका डाला और किसानों को हाशिये पर भेज दिया। किसानों के सामने बेकारी/तंगहाली/भूख/ अपमान की दीवार धिरती चली गयी। सरकार की एक भी ऐसी योजनाओं का नाम लिया जा सकता है जिसमें किसानों की भलाई और उनकी खेती की आधारभूत संरचनाएं सरकार की असली प्राथमिकता में शामिल हो और क्या उसके लिए सरकार की क्रियाशीलता अनवरत जारी रहती है? कार के लिए वित्तीय संस्थाएं सात/आठ प्रतिशत व्याज की दर पर कर्ज देती हैं पर किसानों को कृषि समान के लिए व्याज की दर 14/15 प्रतिशत से उपर होती है। यमुना नदी के किनारे किसानों की अति उपजाउ-किमती जमीन को औने-पौने दाम मे बलपूर्वक अधिग्रहित कर जेपी ग्रुप को दी गयी। उससे किसानों का उपजा हुआ गुस्सा कभी भी अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता है। दुखद तो यह है कि किसानों की ंिचता दूर करने की जगह किसानों पर गोलियां बरस रही हैं। क्या यही है लोकतांत्रिक व्यवस्था?
तिजोरीकरण का दौर...............
जिस दौर में किसान/मजूदर और मध्यमवर्ग हासिये पर जा रहे हैं और शोषण/उपेक्षा का अनवरत शिकार हो रहे हैं वह भंूमंडलीकरण का दौर है। यानी तिजोरीकरण का। दुनिया भर में तिजोरीकरण का क्र्रूर चेहरा दिख रहा है और प्राकृतिक संसाधनों के साथ ही साथ किसान/मजदूरों/ मध्यम वर्ग के हितो पर कुठराधात कर कारपोरेट संस्थाएं/धराने / संस्कृतियां अपनी तिजोरियां भर रहीं है। निर्धन देश और विवासशील देश खासेतौर पर तिजोरीकरण के शिकार हैं। अधिकतर निर्धन देशों में तानाशाही या मजहबी व्यवस्थाएं जहां पर आम आदमी के सरोकारों और हितों की अनदेखी और कुटीरधात कोई खास मायने नहीं रखती है। पर भारत जैसे लोकतांत्रिक देष में कारपोरेटी लूट और तिजोरीकरण की राजनीतिक प्रक्रिया का खतरनाक उपस्थिति जरूर उत्पन्न कर चिंता और आक्रोश का विषय है। इसलिए कि हमारे देश में शासन-प्रशासन लोकतांत्रिक व्यवस्था से चलता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था मे समाज के सभी अंगों के विकास और उनके हित सुरक्षित रखने की अर्हताएं शामिल हैं। पर हमारा लोकतांत्रिक व्यवस्था क्या सही अर्थो मे आम आदमी के विश्वास का प्रतिनिधित्व करता है? क्या इस व्यवस्था में अब आम आदमी के हित सुरक्षित हैं?उत्तर होगा कदापि नहीं। यही कारण है कि आज देश के सुदुर भागों में राष्ट्रवाद/ लोकतंत्र की जड़े हिल रही हैं और चरमपंथी व्यवस्थाएं हिलौर मार रही हैं। अपनी फरियाद को लेकर आम आदमी नक्सली संगठनों के पास जा रहे हैं। प्रधानमंत्री खुद इस पन्द्रह अगस्त पर लाल किले के प्राचीर से नक्सलवाद को देश की सबसे खतरनाक समस्या/ चुनौती बता चुके है। फिर भी प्रधानमंत्री सहित अन्य सभी सरकारों और राजनीतिक पार्टियां अपनी जनविरोधी संस्कृति छोड़ने के लिए तैयार क्यों नहीं है।
सिंदुर ग्राम का सबक...................
पश्चिम बंगाल में सिंदुरग्राम और ममता बनर्जी के संघर्ष से हमारी सरकारें सबक क्यों नहीं लेती है? मायावती और जिस तरह से अराजक और बेलगाम है और किसानों पर लाठी/गोली बरसा रही है उसी तरह से पश्चिम बंगाल का वाममोर्चा सरकार भी बेलागाम थी/अराजक थी। उसे अपने मसलपावर की सत्ता राजनीति/रणनीति पर अति आत्मविश्वास था। खुशफहमी भी कह सकते हैं। उपजाउ जमीन छीनने और टाटा की तिजोरी भरने पर उतारू सीपीएम की सरकार की कैसी स्थिति हुई है, यह भी जगजाहिर ही है। टाटा को पश्चिम बंगाल की धरती को छोड़कर भागना तो पड़ा ही इसके अलावा 30 सालों से सत्ता में बैठी सीपीएम की सत्ता चलचलायी दौर में भी पहंुच गयी है। ममता बनर्जी आज लगातार राजनीतिक तौर पर मजबूत हो रही है और सीपीएम की सत्ता पर कील पर कील गाड़ रही है। ममता के संघर्ष और सीपीएम की हुई दुर्गति से भी हमारी सरकारें सबक लेने के लिए तैयार नहीं है। अगर सबक लेने के लिए तैयार होती तो फिर किसानों को देश भर में अपनी अस्मिता बचाने और पुरखैनी जमीन को बचाने के लिए संघर्ष करने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ता। सिर्फ पश्चिम उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि उड़ीसा/आंध्रप्रदेश/कर्नाटक/ झारखंड/ छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेशों मे भी राज्य सरकारें किसानों की उपजाउ भूमि बलपूर्वक अधिग्रहित कर कारपोरेटेड तिजारी भर रही है। इन जगहों पर किसानों की कितनी खतरनाक चुनौती और संधर्ष का सामाना करना पड़ रहा है। यह भी जगजाहिर ही है।
युमना एक्सप्रेस वे............
यमुना एक्सप्रेस वे किसानों की अति उपजाउ भूमि जा रही है। नोएडा से आगरा के बीच बनने वाली यह एक्सप्रेस वे 165 किलोमीटर लम्बा है और आठ लेन की है। इतनी लम्बी/चौड़ी सड़क में किसानों की अति उपजाउ और कीमती जमीन ओने/पोने दाम पर सरकार अधिग्रहित कर ली। एक सामान मुआबजा दर भी नहीं तय किया गया। नोएडा और गाजियाबाद जिलों को मुआबजा राशि ठीक-ठाक तो थी पर जमीन जाने से होने वाली चुनौतियों के आस-पास भी नहीं थी। सबसे अधिक उदासीनता और अन्याय अलीगढ/मथुरा आदि जिलों के किसानों के साथ बरती गयी। अलीगढ और मथुरा जिले के किसानों को जो मुआबजा राशि तय हुई वह राशि उंट के मुंह में जीरे के सामान थी। मुआबजा राशि को लेकर आक्रोश कोई एक दो दिन में नहीं पनपा। लम्बे समय से इसकी सुगबुगाहट चल रही थी। मायावती सरकार ने किसानों की मांगों को अनसुना कर दिया। हार कर किसान अपनी फरियाद लेकर न्यायपालिका के पास गये। न्यायपालिका भी किसानों को राहत देने से इनकार कर दिया और मायावती सरकार के रूख पर मुहर लगा दिया। ऐसी स्थिति में किसानों को हिंसक आंदोलन करने के लिए बाध्य होना पड़ा। यहां एक बात और महत्वपूर्ण है। जिस पर गंभीर चर्चा की जरूरत है। सरकार औने-पौने दाम पर किसानों की उपजाउ जमीन लेकर कारपोरेट को देगी और कारपोरेट कम्पनियां उस जमीन के आधार पर बेहिसाब दौलत कमायेगी। यमुना एक्सप्रेसवे बनाने वाली जेपी ग्रुप यमुना एक्सप्रेसवे पर टौल टैक्स वसूलेगी। उसी यमुना एक्सप्रेसवे पर आवागमण करने के लिए किसानों को टौल टेक्स चुकाना पड़ेगा। आखिर लूट-डकैती वाली सरकारी नीति हमारे देश में कब समाप्त होगी।
राजनीतिक पार्टियां एक ही राह पर
किसानों के गुस्से और चिंता के प्रबंधन की जरूरत थी। मुआबजे को लेकर किसानों की चिंता पर मायावती सरकार ध्यान देती। पर किसानों के गुस्से ओर चिंता का प्रबंधन लाठी-गोली से करना लोकतंत्र में कहां की नीति और न्याय है। भोपाल गैस कांड की तरह अलीगढ़/मथुरा जिलों के किसानों के खिलाफ सरकार और न्यायपालिका साथ खड़ी हो गयी। हिंसा होने पर ही मायावती की सरकार क्यों जागी। अगर पहले जाग जाती तो न तो हिंसा होती और न ही किसानों की जोनें जाती। पुलिस की गोली से मरने वाले किसानों की जान की कीमत पांच लाख आकी गयी है। यह भी एक प्रकार की सरकारी हिसंा कही जा सकती है। किसानों के आंदोलने के साथ राजनीतिक पार्टियां जुड़ी हैं पर यह सही है कि सभी राजनीतिक पार्टियां इस मसले पर एक ही राह पर चलती हैं। वह राह है कारपोरेटेड तिजारी को और मालोमाल करना। क्या इस पाप से मनमोहन सरकार मुक्त है? क्या कर्नाटक में किसानों के साथ भाजपा सरकार अन्याय नहीं कर रही है? क्या मुलायम सिंह सरकार ने किसानों की उपजाउ जमीन रिलायंस के हाथों नहीं बेची थी। किसानों को सभी राजनीतिक पार्टियों से सावधान रहना होगा। इनके जालों में फंसने की जगह स्वयं आंदोलन की अगुवाई करनी होगी। किसानों का उठा आक्रोश मायावती के लिए काल साबित हो सकता है। निष्कर्ष यह है कि किसानों का आंदोलन देश में नयी राजनीतिक प्रक्रिया तो बनायेगी ही इसके अलावा कारपोरेटी लूट पर भी कील गाडेगी।
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