Wednesday, May 11, 2011

लादेन के अंत पर राजनीतिक मातम क्यों ?

राष्ट्र-चिंतन
लादेन बनेगा नहीं बन गया ‘ मिशन मुस्लिम वोट बैंक‘ का मोहरा
लादेन के अंत पर राजनीतिक मातम क्यों ?
विष्णुगुप्त
 ओसामा बिन लादेन का अंत क्या हुआ, तथाकथित भारतीय धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियों को एक ऐसा मुद्दा मिल गया जो मुस्लिम संवर्ग को रिझाने और अपनी ओर खींचने का काम करेगा? लादेन के अंत से पहले खासकर ने कांग्रेस की ओर से बटला मुठभेंड कांड और मुबंई पर पाकिस्तानी हमले को लेकर दिग्विजय सिंह को मुस्लिम संवर्ग की भावनाएं पोषित करने के लिए अप्रत्यक्षतौर पर प्रक्षेपित  किया गया था। दिग्विजय सिंह ने बटला हाउस कांड पर आजमगढ जाकर कैसी आतंकवाद की धार गर्म की थी? यह भी जगजाहिर है। मुंबई मे आईएसआई के हमले में महाराष्ट एसटीएस चीफ हेमंत करकरे की मौत को हिन्दू आतंकवाद से जोड़ने का निष्कर्ष भी तो मुस्लिम जनाधार के हितकारी था। अब दिग्विजय सिंह ओसामा बिन लादेन के अंत पर आंसु बहा रहे हैं और अमेरिका को कठधरे मे खड़ा कर रहे हैं। जबकि उदार मुस्लिम तबका इस तरह के राजनीतिक प्रक्रिया को मुस्लिम हित के खिलाफ ही मानते हैं।
         पिछले बिहार विधान सभा चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी के नेता ओसामा बिन लादेन से मिलते-जुलते चेहरे वाले मुस्लिम समुदाय के ‘खालिक नुर‘ को राजनीतिक सहचर बनाया था। यथार्थ सीधेतौर ओसामा बिन लादेन की मिलती-जुलती शख्सियत के सहारे मुस्लिम वोट अपनी ओर करने का था।  ओसामा बिन लादेन के डुब्लीकेट को देखने की भीड़ जुटती बहुत थी। अब लादेन के खेल का अंत हो गया है। अमेरिका ने उसे अपने सैनिक अभियान का शिकार बना दिया। पाकिस्तान में इस्लामिक संस्थाओं ने लादेन  को श्रद्धांजलि ही नहीं दी बल्कि इस्लाम का सेनानी भी बताया। इस्लामिक सोशल साइडों पर भी ओसामा बिन लादेन को इस्लाम की सेनानी बताने और उसे शहीद घोषित करने की मुहिम तेजी के साथ चली है। पाकिस्तान सहित अन्य इस्लामिक देशों और इस्लामिक संस्थाओं/सोशल साइटों की लादेन प्रेम तो समझ आता है पर भारत में खास प्रकार के राष्टीय और क्षेत्रीय दलों का लादेन प्रेम कई प्रकार के सवाल खड़े करते हैं।
    हम जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहते हैं वह लोकतांत्रिक व्यवस्था गैरधार्मिक है/गैर मजहबी है। फिर भी धर्म/मजहब के सहारे जनादेश को प्रभावित करने की कोशिशें हमेशा चलती रहती है। देश पर जिस कांग्रेस पार्टी की सता वह अपने पुराने जनाधार को फिर से थाथी बनाने के लिए कई प्रकार की नीतियां और हथकंडे अपनायी है। दिग्विजय सिंह इन्हीं कांग्रेसी हथकंडे का मोहरा है जो लादेन के मारे जाने पर सवाल खड़ा करते हैं बल्कि इसे इस्लामिक मूल्यो का हनन कहकर अमेरिका की आलोचना की हदें भी पार करते हैं। ओसामा बिन लादेन उन्हें इस्लामिक मूल्यों वाला ही क्यों दिखता है? उन्हे आतंकवादी और शांति के दुश्मन के प्रतीक ओसामा बिन लादेन क्यों नहीं दिखता है? जनसांिख्याकी विविधता एक ऐसी कड़ी है जो तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों को इस्लामिक मूल्यों के प्रति अतिरिक्त और खतरनाक आग्रही होने के लिए प्रेरित करता है। ऐसे अतिरिक्त और खतरनाक आग्रही होने के दुष्परिणामों पर कभी भी चिंता तक नही होती है। दुष्परिणामों में देश के अंदर में खतरनाक ढंग से बलवाकारी विचारों का संप्रेषण हुआ है और राष्टीयता की जगह मजहबी रूढ़ियां और आक्रमकता बढ़ी है?
 दिग्विजय सिंह या फिर अन्य तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों का ओसामा बिन लादेन के प्रति खतरनाक आग्रही होने का कोई खास तत्कालीन स्वार्थ या नीति हो सकती है? ओसामा बिन लादेन को लेकर दिग्विजय सिंह और अन्य के समर्थनकारी बयानों-विचारों को क्या उपेक्षित कर देना ठीक होगा या फिर इस पर गंभीरता के साथ विचार किया जाना चाहिए और इसके राजनीतिक यथार्थ के तह में जाकर स्वार्थो की पड़ताल करने की जरूरत है। वास्तव में राजनीति में बयानों और प्रत्येक क्रियाओं का अपना एक निश्चित नीति होती है। इसीलिए चाहे दिग्विजय सिंह के लादेन के प्रति आग्रही सरोकार हो या फिर माकपा जैसी कम्युनिस्ट पार्टियों का लादेन के लिए अमेरिका को जिम्मेदार ठहराने की कुचेष्टा सभी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों मे गिरते नजर आते हैं।
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों को ध्यान में हमें रखना होगा। उतर प्रदेश विधान सभा चुनाव नजदीक है। सभी का ध्यान मुस्लिम वोट बैंक पर टिका हुआ है। राजनीतिक विश्लेषण में यह बात बार-बार बैठायी जा रही है कि उत्तर प्रदेश में मुस्लिम जिस ओर रूख करेंगे उसी की सत्ता बनेगी। कांग्रेस ने सच्चर कमेटी का लाभ पिछले लोकसभा चुनाव में उठा चुकी है। रामजन्म भूमि प्रकरण पर कांग्रेस का मुस्लिम वोट बैंक खाली हो चुका था। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में मुस्लिम संवर्ग को अपने पक्ष में करने की सफलता पायी थी और आश्चर्यजनक ढंग से सीटें जीती थी। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का खास ध्यान है। मुस्लिम समुदाय को रिझाने की अप्रत्यक्ष जिम्मेदारी दिग्विजय सिंह के पास है। अगर ऐसा नहीं होता तो अपनी ही सरकार की पुलिस द्वारा बटला हाउस कांड पर सवाल नहीं उठाते और आतंकवादियों के परिजनों से मिलने आजमगढ़ नहीं जाते। बटला हाउस कांड की विभिन्न एजेंसियों की जांच और न्यायिक जांच में पुलिस को क्लीन चिट दे दिया गया है फिर भी दिग्विजय सिंह बटला कांड पर सवाल उठाते रहे हैं। मुबंई हमले पर भी सवाल उठाकर पाकिस्तान को लाभार्थी बनाने की कोशिश करते हैं। कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह के बयान को यद्यपि खारिज कर दिया फिर भी कांग्रेस का मिशन यूपी और मिश्न मुस्लिम वोट बैंक की अप्रत्यक्ष नीतियां किसी भी परिस्थिति में जगजाहिर होने से बच नहीं पायेंगी?
राजनीतिक संवर्ग का तुष्टिकरण की नीति और आतंकवाद जैसी खतरनाक प्रवृति के समर्थन में खड़ा होने से मजहब आधारित संस्थाओं और शख्सियतों की शांति के खिलाफ मानसिकताएं पोषित होती हैं। कश्मीर में हुर्रियत जैसी राष्टविरोधी मजहबी संस्था के अध्यक्ष सैयद अली शाह गिलानी ने जब ओसामा बिन लादेन को आतंकवादी की जगह इस्लामिक सेनानी घोषित करता है और उसकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करता है तब कोई आवाज नहीं उठती है। हुरियत अली शाह गिलानी अकेले ऐसे मजहबी शख्सियत नहीं है जो आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को इस्लाम का सेनानी मानता हो। दुर्भाग्य यह है कि आज देश के अंदर में मजहबी रूढ़ियों और आतंकवादी विचारो के दफन करने की कोई राजनीतिक नीतियां नहीं हैं। आतंकवादियों को संरक्षण देने और उनके राष्टतोड़क बयानों और कृत्यों तक पर्दा डाला जाता है। अफजल गुरू और कसाब जैसे कई आतंकवादी आज हमारे जेलों में मेहमान की तरह एसोआराम से रह रहे हैं। उन्हें ‘चिकन बिरयाणी‘ खिलाया जा रहा है। इन्हें फांसी देने पर मुस्लिम संवर्ग का उफान और क्रोध का डर सताता है। बांग्लादेश ही नहीं बल्कि मिश्र जैसे मुस्लिम देश भी आतंक फैलाने वाले कई आतंकवादियों को फांसी पर चढाया है। उन्हें संख्यिाकी विविधता के आक्रोश का डर नहीं था।
 राजनीतिक संवर्ग के स्वार्थ की पूर्ति तो अवश्व होती रहेगी और उनकी राजनीतिक सत्ता का स्थायीकरण होता रहेगा पर उस आग की लौ हमेशा हमारी धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को ही अपने आगोश में लेती रहेगी। पाकिस्तान की सामाजिक व्यवस्था आज पूरी तरह से इस्लामिक के उफानी और नरसंहारक विचारों के आगोश में क्यों समाया हुआ है? इसकी पडताल करनें है और पड़ताल से निकले यथार्थ और निष्कर्ष से भी सबक लेने की अनिवार्य जरूरत होनी चाहिए। पाकिस्तान में तानाशाही संवर्ग ने मजहबी और शरीयती आग लगायी थी। पोषण तानाशाही ही थी। खासकर तत्कालीन तानाशाह जियाउल हक ने पाकिस्तान में शरीयत लागू की थी और इस्लाम के उदार मूल्यों को दफन कर खतरनाक और बंधित समाज की नींव डाली थी। तानाशाही काल में पाकिस्तान की आवाम में विरोध की ज्वाला थी नहीं। आवाम भी समझ लिया था कि इस्लाम के खतरनाक मूल्यो से हम दुनिया को अपनी ओर झुका सकते हैं। कश्मीर को हड़प सकते हैं और भारत को तहस-नहस कर सकते हैं। प्रारंभिक काल में पाकिस्तान की खुशफहमी को बल जरूर मिला। अब उसका प्रतिफल पाकिस्तान को लहूलुहान कर रहा है। विकास की जगह गोलियां-बारूद और मानवबम की फोड़े जा रहे हैं। पाकिस्तान के इस हस्र को भारतीय राजनीतिक संवर्ग को सबक के तौर पर देखना चाहिए और तुष्टीकरण सहित वोट की राजनीति के लिए खतरनाक इस्लामिक विचारों के संरक्षण और बढावा देने के खेल से अलग होना चाहिए। पर ऐसा नहीं लगता कि भारतीय राजनीति खतरनाक इस्लामिक विचारों के बढावा देने की नीति बदलने को तैयार है। अगर ऐसा नहीं होता तो कांग्रेस सहित अन्य राजनीतिक पार्टियां ओसामा बिन लादेन के अंत के खिलाफ खड़ी होती?

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Thursday, March 31, 2011

अरब दुनिया की मुक्ति का यह रास्ता

राष्ट्र-चिंतन

अरब दुनिया की मुक्ति का यह रास्ता

विष्णुगुप्त


तानाशाही/राजशाही/शरीयत वाली व्यवस्था के पतन के बाद जो लोकतांत्रिक सत्ता आयेगी वह वास्तव में कितनी लोकतांत्रिक होगी। उस लोकतांत्रिक सता में अन्य धार्मिक समुदाय के लिए कितनी जगह होगी।
                               कार्ल मार्क्स ने कहा था कि ‘धर्म अफीम‘ है। दरअसल कार्ल मार्क्स ने यूरोप में ‘चर्च और अरब में इस्लाम‘ के वर्चस्व के साथ ही साथ आधुनिकता व लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ ‘धर्म‘ की रूढियां खडी होते स्पष्ट तौर पर देखा था। यूरोप ने चर्च की सत्ता के खिलाफ लड़ाई लडकर लोकतांत्रिक दुनिया बनायी। अमेरिका ने अपनी आजादी की लडाई लडकर स्वयं को आधुनिकता और दुनिया की निर्णायक शक्ति के रूप में स्थापित कर लिया। विचारणीय विषय यह है कि अगर यूरोप-अमेरिका चर्च की वर्चस्व वाली सत्ता व्यवस्था के खिलाफ मुक्ति की रेखा नहीं खीची होती तो क्या आज यूरोप-अमेरिका अपनी समृद्धि-विकास के इस मुकाम पर आज खड़ा होते? शायद नहीं। दुर्भाग्य यह है कि ‘धर्म की अराजक सत्ता और शक्ति‘ के खिलाफ अरब दुनिया में कोई खास हलचल नहीं हुई। कोई बड़ी म ुहिम या आंदोलन भी तो नहीं चला। जिसने भी धर्म की सत्ता के खिलाफ अवाज उठायी उसे अरब दुनिया छोड़कर यूरोप जैसी उदारवादी समाज व्यवस्था में शरण लेनी पडी। इसके अलावा अरब जगत में इस्लाम की सत्ता ही नहीं बल्कि जीवन पद्धति को नियंत्रित करने की अराजक और खतरनाक मुहिम चली। इस्लाम की उदार और मानवीय पक्ष पर रूढियां और मुल्लाओं की अतिरंजित विचारशीलता को गति दी गयी। दुष्परिणाम यह निकला कि खुद अरब दुनिया ने अपने आप को एक बंद समाज व्यवस्था का बंधक बना लिया। ऐसे में लोकतांत्रिक और मानवीय दुनिया बनती तो कैसे? तानाशाही और शरियत जैसी व्यवस्था ने अरब आबादी को धर्म की रूढियों और अतिरंजना का शिकार बना छोड़ा है। मिश्र,ट्यूनेशिया बहरीन आदि में जो जनता का गुस्सा फटा है उसके पीछे भी उपरोक्त कारण ही है। लीबिया में जिस तरह संयुक्त राष्टसंघ के हस्तक्षेप पर आवाज उठे हैं उसके निहितार्थ भी गंभीर हैं।
तानाशाही व्यवस्था के दोषी कौन?.......................
अरब दुनिया के अधिकतर देश तानाशाही व्यवस्था मे कैद कैसे हैं और क्यों हैं? क्या हम इसके लिए अरब में इस्लाम की अराजकता को भी कारण मान सकते हैं? क्या हमे सिर्फ यूरोप-अमेरिका की लूटवाली व्यवस्था को अरब लीग में उपस्थित तानाशाही और शरीयत व्यवस्था को मान सकते हैं? ऐसा इसलिए सोचना पड़ता है और विचार करना पडता है कि अरब लीग और हमारे देश के बुद्धीजीवी अरब लीग की खतरनाक स्थिति के लिए अमेरिका-यूरोप की लूटवाली व्यवस्था को मानते हैं। अमेरिका या यूरोप अरब लीग और अन्य भूभागों में तभी हस्तक्षेप करता है या फिर घुसपैठ करता है जब वहां की सरकारें आमंत्रित करती है। अमेरिका-यूरोप की तेल मार्केट पर लूटवाली व्यवस्था इसलिए कायम हो सकी क्योंकि अरब लीग तानाशाही और शरीयत व्यवस्था में इतने अंदर तक धसे हुए हैं कि उन्हें विज्ञान या आधुनिक मार्केट व्यवस्था की दक्षता हासिल ही नहीं हो सकती है। इसका उदाहरण यह है कि अरब लीग में तेल और गैस उत्खनन ही नहीं पूरी व्यवस्था अमेरिका-यूरोप की बडी-बडी बहुराष्टीय कंपनियों के हाथों में हैं। अगर अरब दुनिया ने विज्ञान और आधुनिक मार्केट व्यवस्था पर ध्यान दिया होता और दक्षता हासिल की होती तो आज अरब लीग यूरोप-अमेरिका से कहीं अधिक विकसित और शक्तिशीलता को हासिल कर सकता था।
शरीयत की ढाल...........................................
मस्जिद/मदरसा और हज ये तीन व्यवस्थाएं तानाशाही और शरीयत वाली सत्ता की ढाल रही है। तानाशाही और शरीयत वाली सत्ता यह चाहती है कि अगर अपनी आबादी को मस्जिद/मदरसा और हज की इच्छाएं पूरी तरह से चाकचौंबंद कर देने मात्र से उनके खिलाफ आमजन की आवाज उठेगी नहीं? आवाज उठेगी नहीं और उनके अंदर आक्रोश होगा नही ंतो फिर उनकी सत्ता को कहीं से चनौती मिलंेगी ही नहीं और उनकी सत्ता निरंतन चुनौतीविहीन चलती रहेगी। अरब लीग पर हम ध्यान देते हैं तो स्पष्ट होता है कि कहीं पर तानाशाही व्यवस्था है तो कहीं जन्मजात राजशाही है। तानाशाही और राजशाही दोनों प्रकार की सत्ता व्यवस्था ने मस्जिद/मदरसा और हज की मानसिकता को तुष्ट करने के लिए अपनी सत्ता और आर्थिक शक्ति झोंकी। जहां पर शरीयत की अराजकता की मांग भी नहीं थी वहां पर भी पूर्ण शरीयत की व्यवस्था को लागू किया गया। लोकतांत्रिक व्यवस्था के सारे स्तंभ को पनपने ही नहीं दिया गया। बात इतनी भर ही नहीं है। बल्कि आधुनिक समाज की सोच और जरूरत तक को प्रतिबंधित किया गया। शरीयत की अराजक और खतरनाक व्याख्या को भी रोकने की कोशिश नहीं हुई। तानाशाही और जन्मजाती राजशाही सत्ता को यह मालूम है कि अगर शरीयत की अराजक/खतरनाक व्याख्या को रोकने की कोशिश हुई तो कटटरवादी ताकतें तूफान खड़ा कर सकती हैं।
युएनओ का हस्तक्षेप........................
लीबिया की तानाशाही ने अपनी जनता पर जिस तरह से भाडे के सैनिकों से बमबारी करा रही थी उससे पूरी दुनिया स्तब्ध थी। जनता को अपनी सत्ता स्थापित करने और हटाने का हक जरूर है। लीबिया का तानाशाह कर्नल गद दाफी ने तेल के भंडार से मिले डालरों को जनता की भलाई करने की जगह अपनी संपतियां स्थापित की। यूरोप के बैंक कर्नल गद्दाफी के डालरों से गुलजार हैं। कर्नल गद्दाफी ने अंहकार-अभिमान में जनाक्रोश को न समझने की गलती की है। हुस्नी मुबारक से उन्हें सबक लेने की जरूरत थी। पर कर्नल गद्दाफी ने अफ्रीकी देशों से भाडे की सैनिक बुलाकर अपनी जनता पर बमबारी करवाने लगे। बमबारी में कई हजार नागरिक मारे गये। जिस तरह से कत्लेआम हो रहा था उससे यह स्पष्ट हो गया था कि लीबिया में यूएनओं का हस्तक्षेप होगा ही। लीबिया में चुनौतियां काफी जटिल होगी। इसलिए कि लीबिया को कर्नल गददाफी ने दो भागों में विभाजित करने की राजनीति की थी। लीबिया का पश्चिम की आबादी कर्नल गददाफी के कबीले की है और यह कबीला कर्नल गददाफी की शक्ति रही है। लीबिया में नई सत्ता स्थापित करने में नेतत्व और सत्ता में भागीदारी पर संकट खडा हो सकता है। सर्वानुमति तैयार करने की जरूरत होगी। अरब दुनिया में यूएनओं को खलनायक बनाने की नीति भी आगे बढ सकती है। क्योंकि अरब के विभिन्न देशों में यूएनओं के हस्तक्षेप के खिलाफ बडी मुहिम शुरू हो चुकी है।
भारतीय पक्ष..................
भारतीय कूटनीति मे लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रवाह का संरक्षण नहीं करने का अरोप लग रहा है। ब्रिटेन और फ्रांस ने भारत के असहयोग पर चिंता जाहिर कर चुके हैं। भारत ने यूएनओ में मतदान में भाग न लेकर एक तरह से लीबिया के तानाशाही का समर्थन ही किया है। अभी भी भारत का रूख स्पष्ट नहीं है। भारत ने यूएनओ के हस्तक्षेप का विरोध किया है। पर एक हास्यास्पद वक्तब्य भी देख लीजिये। भारत का कहना है लीबिया में लोकतांत्रिक पद्धति का समर्थन करता है। सवाल यहां यह उठता है किे कर्नल गददाफी जैसा खूंखार तानाशाह न तो सत्ता छोडने के लिए तैयार है और न ही अपनी आबादी पर कत्लेआम रोकने के लिए राजी है,ऐसी स्थिति में वहां पर लोकतांत्रिक मूल्यों के अस्तित्व की भी बात सोची जा सकती है क्या ? खासकर हम एक तथ्य की गंभीरता का आकलन अब तक नहीं कर सके हैं। यह तथ्य है भारत का दुनिया के सर्वश्रेष्ठ लोकतांत्रिक व्यवस्था होने का। दुनिया का सर्वश्रेष्ठ लोकतांत्रिक देश होने के कारण भारत का यह कर्तव्य और दायित्व है दुनिया में लोकतांत्रिक आंदोलन को समर्थन और गति देना। भारत की सत्ता तुष्टीकरण की नीति पर चलती है। भारत सरकार क्या किसी डर से अपनी लोकतांत्रिक प्राथमिकताएं पूरी करने में उदासीन है। वास्तव में भारतीय सत्ता अपनी मुस्लिम आबादी की मजहबी सोच और प्राथमिकताओं से डरी हुई है। इसलिए लीबिया ही नहीं बल्कि पूरी अरब लीग में लोकतांत्रिक आंदोलन का समर्थन करने से पीछे है।
                      अरब दुनिया सिर्फ और सिर्फ लोकतांत्रिक प्राथमिकताओं के बल पर ही अपने लिए सम्मान और शक्ति हासिल कर सकती है। तानाशाही और जन्मजात राजशाही व्यवस्था के दिन और बूरे ही होंगे। दुनिया एक गांव में तब्दील हो चुकी है। इसलिए आधुनिक विचारों के प्रवाहों को प्रतिबंधों के बाद भी रोकना आसान नहीं है। पर अरब लीग की आबादी अभी भी मस्जिद/मदरसा और हज जैसी व्यवस्था से अलग होने और उदार इस्लामिक व्यवस्था में चलने के लिए तैयार नहीं है। इस्लाम की खतरनाक व्याख्या भी रूकेगी,यह कहना भी कठिन है। ऐसे विचारों को लेकर अरब दुनिया यूरोप या अन्य समाजों से कदम-ताल मिला कैसे सकता है। लीबिया/मिश्र/बहरीन आदि देशों में बदलाव की जो लहर उठी है और तानाशाही व्यवस्था की जो नीवं हिलायी और हिला रही है,इसे सलाम करना ही चाहिए। पर हमें यह भी देखना होगा कि तानाशाही और शरीयत वाली व्यवस्था के पतन के बाद जो लोकतांत्रिक सत्ता आयेगी वह वास्तव में कितनी लोकतांत्रिक होगी। इसके साथ ही साथ उस लोकतांत्रिक सता में अन्य धार्मिक समुदाय के लिए कितनी जगह होगी।


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Wednesday, February 2, 2011

ब्रजेश मिश्रा पर कांग्रेसी कृपा क्यों ?



विष्णुगुप्त


                                  अपहरित इंडियन एयर लाइंस के विमान और कारगिल प्रकरण में ब्रजेश मिश्रा की विफल भूमिका थी। युद्धकाल में अपने एक सैनिक रिश्तेदार को सेवानिवृति दिलवायी और प्रसिद्ध कार कंपनी में नौकरी दिलवायी। अटल सत्ता का मलाई काटने के बाद इन्होंने सोनिया गांधी का जय-जयकार किया। सोनिया गांधी के गुणगान करने पर ही मिला है इन्हें पदूूम विभूषण पुरस्कार? आखिर अयोग्य और दागदार लोग कब तक पाते रहेंगे नागरिक पुरस्कार?

                                गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिये जाने वाले नागरिक पुरस्कारों पर दलीय राजनीति पूरी तरह से हावी होती है और सम्मान पाने वाले लोगों की सत्ताधारी राजनीतिक दल के प्रति अति और वह भी विकृत समपर्ण नागरिक पुरस्कारों को प्राप्त करने का मापदंड बन गया है। निकट के वर्षो में और खासकर कांग्रेस की केन्द्रीय सत्ता द्वारा बांटे गये नागरिक पुरस्कारों पर सवाल उठते रहे हैं। कारण यह कि नागरिक पुरस्कार प्राप्त करने वाली शख्सियत की योग्यता और उपलब्धि वैसी थी नहीं है जो नागरिक पुरस्कारों के मिलने के निहित मापदंड को पूरा करती हो। इस गणतंत्र दिवस के अवसर पर नागरिक पुरस्कार जिन शख्सियतों को मिले हैं उनमें मुख्य और आश्चर्यचकित करने वाला नाम बृजेश मिज्ञा का है। अटल बिहारी सत्ता में सुरक्षा सलाहकार रहे बृजेश मिज्ञा को पदम् विभूषण सम्मान दिया गया है।
                                    एक सुरक्षा सलाहकार के तौर पर उनकी भूमिका काफी दागदार थी और नाकामयाबियों से भरी थी। अटल बिहारी वाजपेयी के सहयोगी भी ब्रजेश मिश्रा की अंतर्राष्ट्रीय और अंदरूणी गतिविविधियों को लेकर नाराज थे। अटल बिहारी वाजपेयी सत्ता के पतन में ब्रजेश मिश्रा की दंखलदाजी भी जिम्मेदार मानी गयी थी। वाजपेयी के एक मीडिया घराने के मित्र ने तब ब्रजेश मिज्ञा के खिलाफ अभियान भी चलाया था और कई दिनो तक ब्रजेश मिश्रा के काले कारनामें हवा में तैरा था। अटल सत्ता के पतन के बाद ब्रजेश मिश्रा ने पटली मारी थी और एकाएक कांग्रेस भक्त हो गये और उन्होंने सोनिया गांधी की जमकर तारीफ की थी। क्या यह माना जाना चाहिए कि सोनिया गांधी की तारीफ के एवज में ब्रजेश मिश्रा ने यह सम्मान पाया है? राजनीतिक हलकों में ऐसी ही चर्चा है। सोनिया गांधी के प्रति भक्ति के कारण ही वे कांग्रेसी नजरों में पदम विभूषण के हकदार समझे गये।
बज्रेश मिश्र की दागदार भूमिका.......................
ब्रजेश मिश्रा को जब अटल बिहारी वाजपेयी ने अपना सुरक्षा सलाहकार बनाया था तब भी सवाल उठे थे। सवाल इस कारण उठे थे कि न तो उनकी छवि न तो ईमानदार की थी और न ही अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में उन्होंने कोई तीर मारा था। फौरन सर्विस में उनकी उपलब्धि कोई खास नहीं थी। सुरक्षा सलाहकार के रूप में उनकी भूमिका दागदार ही नहीं है बल्कि अटल सत्ता की लूटिया डूबाने वाली थी। यहां जिन तथ्यों का उल्लेख हो रहा है उससे उपर्युक्त बातें बिलकुल सही साबित होंगी। याद कीजिये नेपाल से अपहृत होने वाला इंडियन एयर लांइस के विमान प्रकरण को। इंडियन एयर लाइंस का विमान अमृतसर हवाई अड्डे पर खड़ा था। कमांडो दस्ता अपहरणकर्ताओं से विमान को छुड़ाने के लिए अमृतसर हवाई अड्डे पर पहुंच गया था। पर कमांडो दस्ते को कार्रवाई की इजाजत नहीं मिली। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की हैसियत से अपहृत विमान परकंमाडो कार्रवाई कराने का दायित्व इनके उपर थी। अपहरणकर्ता विमान को अफगानिस्तान ले जाने में सफल हो गये। विमान और अपहृरित नागरिकों को छुड़ाने के लिए तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह को काबूल जाना पड़ा था और तीन दुर्दांत आतंकवादियों को भी छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा था। इस प्रकरण की आग में आज भी भारतीय जनता पार्टी जलती रहती है। जब भी भाजपा कांग्रेसी सत्ता पर आंतकवाद पर नकेल डालने में विफलता का मुद्दा उठाती है तब कांग्रेस आतंकवादियों को काबूल ले जाकर छोड़ने के कलंक का याद भाजपा को दिलाती है। संसद भवन पर हमले में भी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की भूमिका विफलता की कहानी कहती थी।
कारगिल प्रकरण.......................
पाकिस्तान सैनिकों द्वारा कारगिल पर हमला और भारतीय क्षेत्र की मुख्य चोटियों पर कब्जा करने की धटना में भी उस वक्त के सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिज्ञा की भूमिका पर सवाल उठा था। बज्रेश मिज्ञा ने अपने एक रिश्तेदार की मदद में भी हाथ काले किये थे। ब्रजेश मिश्रा का एक रिश्तेदार भारतीय सेना में पदाधिकारी था। वह व्यक्ति कारगिल में ही पदास्थापित था। कारगिल चोटियों को मुक्त कराने का अभियान जैसे ही शुरू हुआ वैसे ही उसने भारतीय सेना से सेवानिवृति मांगी और रातोरात उसे सेवानिवृति भी मिल गयी और कुछ दिनों के अंदर ही वह सेना अधिकारी की नौकरी भारत की सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी में लग गयी। युद्ध और संकट काल में भारतीय सेना के किसी भी अधिकारी या जवान को न तो छुट्टी मिलती है और न ही सेवानिबृति मिलती है। जबकि ऐसी इच्छा रखने वाले अधिकारी-जवान पर सेना का कोर्ट मार्शल भी चल सकता है। लेकिन ब्रजेश मिश्रा की रिश्तेदारी और संरक्षण पर वह अधिकारी साफतौर पर बच गया। यह प्रकरण सीधेतौर पर सत्ता शक्ति के केन्द्र से जुड़ा हुआ था और ब्रजेश मिश्रा ने अपनी सत्ता शक्ति का दुरूपयोग भाई-भतीजावाद को सहायता करने और संरक्षण देने में किया था। कारगिल में पाकिस्तानी सैनिक घुसपैठ करने और भारतीय सैनिकों का नरहसंहार करने में सफल हुए पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को भनक तक भी नहीं लगी थी। उनकी गुप्तचर एजेंसियों और सैनिक संवर्ग से न तो तालमेल था और न ही उनकी भूमिका में राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े खतरनाक प्रश्नों के प्रति जिम्मेदारी थी। जिसकी कीमत सैकड़ों भारतीय जवानों ने कारगिल चोटियों को मुक्त कराने में जान देकर चुकायी थी।
अटल को किया था गुमराह..................
अटल बिहारी वाजपेयी पर पाकिस्तान को सबक सीखाने का गंभीर दबाव था। लालकृष्ण आडवाणी सहित जार्ज फर्नाडीस तक पाकिस्तान से आर-पार की लड़ाई लड़ने और आतंकवाद के प्रति निर्णायक जंग के पैरबीकार थे। कई बार सीमा पर भारतीय सैनिकों की जमावड़ा था। भारतीय सेना संवर्ग का भी मानना था कि पाकिस्तान को सबक सीखाये बिना आतंकवाद का सफाया हो ही नहीं सकता है। परमाणु विस्फोट की तरह पाकिस्तान को सबक सीखाने की नीति बनाने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी ने बना ली थी। लेकिन ब्रजेश मिश्रा ने अटल को गुमराह किया था। ब्रजेश ने अटल को यह बात समझायी थी कि युद्ध से आपकी छवि खराब होगी। कश्मीर समस्या का शांतिपूर्ण हल निकाल दीजिये और आपको ‘शांति का नोबेल‘ पुरस्कार मिल जायेगा, आप इंतिहास में अमर हो जायेंगे। अटल ब्रजेश के इस झांसे में आ गये। अटल ने नोबेल पुरस्कार के चक्कर में पाकिस्तान के प्रति अति उदासीनता और नरम रवैया अपनाते रहे। जिसकी कीमत बार-बार भारतीय संप्रभुता ने चुकायी। अगर अटल पाकिस्तान को सबक सीखाने में कामयाब होते तो निश्चिततौर पर 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी को चुनाव में हार का सामना नहीं करना पड़ता।
मूल कांग्रेसी-जयकार सोनिया का......................
ब्रजेश मिश्र मूलतः कांग्रेसी हैं। इनके पिता द्वारिका प्रसाद मिज्ञ कांग्रेस के बड़े नेता और मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री थे। कांग्रेसी व्यक्तित्व की झलक तब झलकी जब उन्हें लगा कि अब भाजपा सत्ता में आ ही नहीं सकती है। ब्रजेश मिश्रा ने सोनिया गांधी को त्याग की मूर्ति और भारतीय राजनीति की शिल्पी जैसे सम्मान से नवाजना शुरू कर दिया। कांग्रेसी भी उनके इस उपकार से चमत्कृत थे। कांग्रेसी यह जानते थे कि ब्रजेश मिज्ञ के गडबड़ झाला और सुरक्षा सलाहकार के तौर पर विफलता के कब्र पर ही 2004 में उनकी सत्ता का जनादेश मिला था। कांग्रेसी सत्ता ने इस उपकार के बदले में ब्रजेश मिश्रा को पदम् विभूषण जैसे सम्मान से सम्मानित करने का काम किया है। निश्चिततौर पर यह कहा जा सकता है कि ब्रजेश को मिले सम्मान से नागरिक सम्मानों का महता घटता है। आमजन में यह बात बैठ रही है कि नागरिक पुरस्कार उसी को दिय जाते हैं जिसका समर्पण सत्ताधारी दलों के प्रति होता है। अयोग्य और दागी लोग भी नागरिक सम्मान पा रहे हैं। पिछले साल ही अभिनेता सैफ अली खान को नागरिक पुरस्कार से नवाजे जाने से उफान उठा था। राष्ट्रीय नागरिक सम्मान की महत्ता कायम रखने के लिए जरूरी है कि निष्पक्षता और उपलब्धि के वास्तविक आधार मानकर ही पुरस्कारों के लिए नामित शख्सियतों का चयन हो। कांग्रेस नेतृत्ववाली सत्ता से यह उम्मीद बेकार ही है। कांग्रेस नेतृत्व वाली सत्ता ने देश में अयोग्य और दागदार लोगों के सम्मान में कोई कोताही नहीं बरती है। अगर ऐसा नहीं होता तो ब्रजेश मिश्रा को सम्मान का हकदार नहीं माना जाता? थॉमस जैसे दागी अधिकारी सीएजी का प्रमुख नहीं होता?

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Monday, December 20, 2010

पाकिस्तान फिर हुआ नंगा

राष्ट्र-चिंतन



पाकिस्तान फिर हुआ नंगा

विष्णुगुप्त



दुनिया के नियामकों और पाकिस्तान पक्षकारी भारतीय बुद्धीजीवियों को और कितने सबूत चाहिए? एक पर एक पाकिस्तान के आतंकवादी सबूतों पर उदासीनता की नीति क्यों अपनायी जाती है। दुनिया के नियामक पाकिस्तान के खिलाफ सबककारी दंड विधान की नीति कब अमल पर उतरेगी। भारतीय सत्ता कब तक पाकिस्तान के खिलाफ नरम नीति से भारतीय आबादी का खून बहाती रहेगी? भारतीय बुद्धीजीवी कबतक पाकिस्तान के पक्ष में अपनी भूमिका निभा कर राष्ट्र के गौरव ओर अस्मिता के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे? सिर्फ भारत ही नहीं है बल्कि अमेरिका, रूस, बिंटेन और जर्मनी जैसे देश पाकिस्तान के आतंकवादी आउटसोर्सिंग की नीति से हलकान हैं। पाकिस्तान ने दुनिया से आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए करोड़ों-अरब डालर वसूलती है फिर भी आईएसआई और पाकिस्तान सेना ने तालिबान-अलकायदा को फिर से खड़ा कर दुनिया की शांति को गहरे सुरंग में ढंकेल दिया है।

कारगिल के बाद अब जुल्फिकार अहमद प्रसंग में पाकिस्तान नंगा हुआ है और उसका यह कहना कि वह दुनिया मे आतंकवाद का आउटसोर्सिंगकर्ता नहीं है, का भी पोल खुल गया है। जुल्फिकार अहमद एक आत्मघाती हमलावर था। आईएसआई ने उसे भारत मे आतंकवादी हमले के लिए भेजा था। जुल्फीकार अहमद ने भारत में आईएसआई के कारनामों की जमीन तैयार की थी और कई आतंकवादी हमलो को अंजाम दिया था। पाकिस्तान सेना ने अपने वेबसाइट पर यह स्वीकार कर लिया है कि जुल्फीकार अहमद पाक सेना का जवान था और वह आईएसआई के गुर्गे के तौर पर भारत गया था। पाक सेना ने अब जुल्फीकार अहमद को शहीद का दर्जा दिया है।
                         इस स्वीकरोक्ति के कूटनीतिक अर्थ बहुत ही गंभीर है। कारगिल हमले में पाकिस्तान सेना के हाथ होने की मुशर्रफ की स्वीकरोक्ति पहले ही चुकी है। भारत के लिए ये दोनों कूटनीतिक तथ्य काफी लाभकारी हो सकते हैं। भारत इन दोनों तथ्यों के माध्यम से पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित कराने में कामयाब हो सकता है। साथ ही साथ देश के ऐसे बुद्धीजीवियों के मुंह पर तमाचा भी है जो पाकिस्तान के साथ दोस्ती की बात कहते हैं और आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान के पक्ष में पक्षकारी भूमिका निभाते रहे हैं। पाकिस्तान का आतंकवादी सरोकार और नीति तबतक जमींदोज नहीं सकती जबतक उस पर दंड संहिता का कोडा न चले। दुनिया के नियामकों को अब पाकिस्तान के पक्ष में नरमी दिखाने वाले कार्यक्रम और नीतियां बदल लेनी चाहिए। कुछ ऐसी ही विसंगतियां है जिसके कारण से ही दुनिया में आतंकवाद के खिलाफ जारी विचार प्रवाह दम तोड़ता रहा है और अलकायदा-तालिबान जैसी शक्तियां लगातार मजबूत और खतरनाक होती जा रही है।
                        दुनिया को पाकिस्तान के खिलाफ और कितने सबूत चाहिए? कारिगल हमले के दौरान ही यह स्पष्ट था कि पूरी कारस्तानी पाकिस्तान सेना की है। मुशर्रफ ने कारगिल हमले का जंजाल खड़ा किया था। पाकिस्तान अपने बचाव में तथ्य प्रत्यारोपित किये थे कि कारगिल हमला पाकिस्तान सेना नहीं बल्कि कश्मीरी स्वतंत्रासेनानियों ने किये हैं। नवाज शरीफ ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के माध्यम से कारगिल संकट से निजात पायी थी। भारत ने बिल क्लिंटन के दबाव में पाकिस्तानी सैनिकों की वापसी का सुरक्षित रास्ता दिया था। कुछ दिन पहले ही मुशर्रफ ने लंदन में यह स्वीकार किया कि कारगिल की कारस्तानी उनकी थी और कश्मीर प्रसंग का अंतर्राष्ट्रीय करण करने के लिए उसने पाकिस्तानी सेना को कारगिल में धुसपैठ करायी थी। जबकि कारगिल हमले के समय प्रधानमंत्री रहे नवाज शरीफ भी कारगिल हमले के लिए मुशर्रफ पर दोष मढ़ते रहे है। मुशर्रफ की स्वीकारोक्ति के बाद दुनिया में हडंकप मचा था और पाकिस्तान की असहज स्थिति हुई थी। आतंकवाद की आउटसोर्सिंग पर पाकिस्तान की घेरेबंदी तेज हुई थी। ऐसी घेरेबंदी से निजात पाने के लिए पाकिस्तान की वर्तमान सत्ता ने कारगिल हमले के सच पर पर्दा डालने का काम किया था। पाक सत्ता का कहना था कि मुशर्रफ का बयान सच से दूर है। पाक सेना ने अपने वेबसाइट पर कारगिल शहीदों के नाम डालकर मुशर्रफ की स्वीकारोक्ति पर मुहर लगायी थी।
                 जुल्फीकार अहमद हैं कौन? यह आत्मघाती हमलावर कैसे बना? आईएसआई ने जुल्फीकार अहमद को किस मकसद से भारत भेजा था। आईएसआई ने जुल्फीकार अहमद के आत्मधाती कारस्तानी से कितनी कामयाबी हासिल की? वास्तव में जुल्फीकार अहमद पाकिस्तानी सेना का जवान था। उसे आईएसआई ने आत्मघाती गुर्गे के तौर पर तैयार किया था। जुल्फीकार अहमद को भारत भेजने के आईएसआई का मकसद भारत विरोधी भावनाएं बढ़ाना और आतंकवादी गुटों को एकजुट कर भारत के खिलाफ खूनी राजनीति और खूनी कार्रवाइयो को अंजाम देना। इसके पहले उसे पाक अधिकृत कश्मीर में ट्रैनिंग दी गयी थी। उसे पाक अधिकृत कश्मीर के रास्ते से भी भारत में घुसाया गया था। जुल्फीकार अहमद पहले जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद और दहशत फैलाने की कार्रवाइयो में लगा रहा और बाद में उसने कश्मीर को छोडत्रकर दिल्ली में अपना अड्डा बना लिया। दिल्ली में उसने नेपाल के रास्ते से आतंकवादियों को भारत में घुसाने का जंजाल खड़ा किया। इसके अलावा बेरोजगार मुस्लिम युवकों को उसने भारत के खिलाफ गुमराह करने का काम किया। 16 नवम्बर 2007 को दिल्ली कें गंगा राम अस्पताल में उसकी मौत हुई थी। मौत का कारण किडनी और श्ंवास नली में सक्रमण बताया गया था। जुल्फीकार अहमद के मौत के बाद भी काफी समय तक आईएसआई और पाक सेना सच्चाई छुपाती रही। अब उसे शहीद का दर्जा दिया गया है।
                        आईएसआई और पाक सेना का आतंकवादी नीति शायद ही समाप्त होगी। आईएसआई ने तालिबान और अलकायदा को फिर से खड़ा कर दिया है। अमेरिकी हमले के बाद तालिबान और अलकायदा भाग खड़े हुए थे और यह लगने लगा था कि अलकायदा-तालिबान फिर से अपनी शक्ति हासिल नहीं कर पायेंगे। यह उम्मीद बेकार साबित हुई। अब तालिबान फिर से अफगानिस्तान में न केवल सक्रिय हुए बल्कि कई पहाड़ी इलाको में अपना स्रामाज्य भी स्थापित कर लिये हैं। अफगानिस्तान सरकार की सत्ता सिर्फ काबुल के आस-पास तक ही सीमट कर रह गयी है। अफगानिस्तान सरकार ने पाकिस्तान पर तालिबान को सह और संरक्षण देने के आरेप बार-बार लगायी हैं। अमेरिकी नीति भी यह मानती है कि जब तक आईएसआई जब तक सीधी नहीं होगी और उस पर कार्रवाई का डंडा नहीं चलता है तब तक पाकिस्तान में आतंकवाद के कारखाने चलते रहेंगे। इधर पाकिस्तानी नीति तालिबान को लोकतांत्रिक चोला पहनाने का है। गुड और बेड तालिबान की थ्योरी में दुनिया के नियामक भ्रम में पड़ गये हैं। गुड तालिबानों की एक खूंखार टोली खड़ी हुई है जिसके गंभीर परिणाम भविष्य में अमेरिका को भुगतना होगा। अमेरिका इधर अफगानिस्तान से निकलने के लिए आतुर है। अफगानिस्तान से निकलने के आतुरता मे अमेरिका कहीं आईएसआई के बुने जाल न फंस जाये। इसके खतरे साफ दिख रहे हैं।
                जुल्फीकार अहमद के आत्मघाती हमलावर होने के सबूत से पाकिस्तान की आतंकवादी नीति और सरोकार एक बार फिर उजागर हुए है। भारत को इसका लाभ उठाने के लिए कूटनीतिक शक्ति दिखानी चाहिए। भारत शायद ही कूटनीतिक शक्ति दिखाने और पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित कराने के आगे बढ़ेगा। मुबंई हमले के दौरान भारतीय सत्ता खूब गरजी थी पर पाकिस्तान ने मुबंई हमले के दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने के नाम पर भारतीय सत्ता को मुर्ख बनाया है। अब पाकिस्तान सत्ता भारत को ही आतंकवादी देश बताता रहता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की सहिता के अनुसार पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित कराया जा सकता है। अमेरिका, ब्रिटेन, रूस सहित अन्य देशों को अब यह समझ में आ जाना चाहिए कि पाकिस्तान पर दया या उदासीनता बरतने की नीति घातक है। जब तक पाकिस्तान पर दंडा नहीं धुमेगा तबतक पाकिस्तान की आतंकवादी नीति कभी समाप्त ही नहीं होगी। पर क्या दुनिया के नियामक अपनी विसंगतियां छोड़ने के लिए तैयार हैं और पाकिस्तान के खिलाफ कड़े कदम उठायेंगे। असली सवाल यही है।

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Thursday, December 16, 2010

राष्ट्र-चिंतन

  देश पर मौन का राज/ टकराव का नया दौर


मनमोहन-सोनिया गांधी की यह कैसी ईमानदारी?
                      

                          विष्णुगुप्त


                                           देश पर ‘मौन‘ का राज है। विपक्षी दलों की इस उक्ति से असहमति नहीं हो सकती है। विपक्ष की बार-बार मांगों के बाद भी भारतीय प्रधानमंत्री का मौन टूटता नहीं और न ही उनकी भ्रष्ट नौकरशाही,मंत्रिमंडल के सदस्यों के प्रति चुप्पी टूटती है। देश के संसदीय इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब पूरा का पूरा सत्र वह भी 21 दिनों तक ठप रहा और विधायी कार्य पूरी तरह से बाधित हुए। संसद का शीतकालीन सत्र का सत्रावासन हो चुका है। ऐसे में प्रधानमंत्री मनमोहन, सोनिया गांधी और कांग्रेस यह मानकर खुश होंगे कि ‘संसद कार्यवाही‘ की बला टली। यह सिर्फ और सिर्फ खुशफहमी हो सकती है। ऐसा सोचना ही कांग्रेस की सबसे बड़ी भूल होगी। कांग्रेस की साख मिट्टी में मिल रही है, मनमोहन सिह-सोनिया गांधी की कथित ईमानदारी की चमक सवाल उठ रहा है। इसकी जगह आक्रोश और अविश्वास पसर रहा है। विपक्ष की एकता को तोड़ने के लिए कांग्रेस सत्ता के चाणक्य सूत्र साम,दंड,भय आदि बेअसर साबित हुए हैं। लालू-मुलायम और मायावती जैसे दल बार-बार कांग्रेस की ब्लैंकमैलिंग और अविश्वास से आजिज आकर आर-पार के संघर्ष के लिए तैयार हैं। भाजपा गठबंधित दल भ्रष्टाचार को जन-जन तक ले जाने के लिए तैयार हैं और कम्युनिस्ट पार्टियां भी मनमोहन सिंह को कोई राहत देने के लिए तैयार नहीं है। ये परिस्थितियां क्या संदेश देती हैं? बजट सत्र में संसद में टकराव का नया अध्याय शुरू होगा जो संधर्ष संसद से बाहर और तीखा-कटूता से बजबजाता हुआ होगा। बजट सत्र में उदासीनता या मनमानी की कीमत विपक्ष नहीं बल्कि कांग्रेस को ही चुकानी होगी। कांग्रेस अधिनायक वाला रवैया लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता है।
                     भारतीय संसदीय इतिहास का यह काला अध्याय है। इतने लाचार/प्रशासनिक-राजननीतिक प्रबंधन की दृष्टि से कमजोर प्रधानमंत्री की कीमत देश चुका रहा है। मनमोहन सिंह के संबंध में कई धारणाएं हैं। एक धारणा तो यह है कि वे अव्वल दर्जे के अर्थशास़्त्री हैं और अर्थशास़्त्री के गुण के कारण ही वे भारतीय राजनीति में स्थापित हुए/चमके/ और प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। ये बातें सौ प्रतिशत सही है। दूसरी धारणा यह है कि जवाहर लाल नेहरू के बाद वे पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने लगातार आठ बार लाल किले के प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित किया है। तीसरी अवधारणा यह है कि वे खुद बेहद ईमानदार हैं। जहां तक पहली अवधारणा की बात है तो यह अवधारणा वैश्विक लूटरे और मानसिकता से निकली हुई बुराई है जिसमें यह प्रस्थापित करने की प्रक्रिया चली थी कि सत्ता का संचालन राजनीतिज्ञ के हाथों में नहीं बल्कि अर्थशास्त्री के हाथों में होना चाहिए क्योंकि अर्थव्यवस्था की समझ वह भी वैश्विक दौर में एक अच्छे अर्थशास्त्री को ही हो सकती है। मनमोहन सिह विश्व बैंक की चाकरी में थे। इसलिए उनकी अर्थशास्त्र की समझदारी भारतीय राजनीति में ऐसी स्थापित हुई कि बड़े से बड़े राजनीतिज्ञ बैठे रहे और ये प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गये। यह भी सत्य है कि आज भारतीय अर्थव्यवस्था चट्टान की तरह खड़ी है उसमें मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री के नेतृत्व के कारण नहीं बल्कि भारत के कृषि प्रधान व्यवस्था के कारण। भारतीय कृषि व्यवस्था का सहारा नहीं होता तो हमारी अर्थव्यवस्था कब का चरमरा जाती। औद्योगिक घराने और सत्ता की हेकड़ी गुम हो जाती।
                       प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बेहद ईमानदार है। देश में इस बात की चर्चा बहुत होती है। खासकर कांग्रेसी और मीडिया में बरखा दत्त/ वीर संघवी जैसे सत्ता-कारपोरेट लॉबिस्ट बु़द्धीजीवियों द्वारा मनमोहन सिंह की ईमानादारी की खूब ढिढोरा पिटा जाता है। ऐसी र्इ्रमानदारी की क्या जरूरत जिसके नीचे बेईमानों का राज और भ्रष्टचार के राजाओं की असली सत्ता स्थापित हो। जिनके अंदर में बेईमानों और भ्रष्ट लोगों पर कार्रवाई का साहस नहीं हो और जो शख्सियत भ्रष्ट-बईमान तंत्र पर नकेल डालने की जगह भ्रष्ट-बेईमान तंत्र के संरक्षण मे खड़ा हों। इतना ही नहीं बल्कि सर्वोच्च न्यायिक संस्थान से झाड़ खाने के बाद भी बचाव में कानून की दलीलें पेश करना। ए राजा को मंत्री बनाने के लिए दबाव था पर थॉमस को सीएजी का चीफ बनाने की कौन सी गठंबधन की मजबूरी थी। थॉमस किस गठबंधित पार्टी के उम्मीदवार थे? उस स्थिति में जब विपक्ष के नेता ने साफ तो पर थॉमस की नियुक्ति की मना कर दी हो। आधार कानून सम्मत था। इसलिए की थॉमस दागी अधिकारी थे। उन पर भ्रष्टाचार के आरोप थें। संहितानुसार भ्रष्टाचार के आरोपी अधिकारी की पदोन्नति नहीं हो सकती है। फिर मनमोहन सिंह ने भ्रष्टचार के आरोपी अधिकारी को सीएजी का चीफ कैसे बनाये। भ्रष्टाचार के अरोपी क्या भ्रष्टाचार की जांच निष्पक्षता से कर सकता है। थॉमस की इन परिस्थितियों में भी नियुक्ति करने की कौन सी मजबूरी थी। यह जानकारी हासिल करना भारतीय जनता का अधिकार कैसे नहीं हो सकता है। देश का सर्वोच्च न्यायिक पीठ ने थॉमस प्रकरण पर यही सवाल तो उठायी है।
                         गठबधन राजनीति की बहुत सारी मजबूरियां होती है। यह माना। पर देश में मनमोहन सिंह की सत्ता अकेली गठबंधित सत्ता नहीं थी। देश में गठबंधन सत्ता की राजनीति 1977 से शुरू होती है। इंदिरा गांधी की अधिनायकवाद की परिणति से गठबंधित राजनीति की शुरूआत हुई थी। मोरार जी देशाई चाहते तो उनकी सत्ता नहीं जाती। आदर्शो से समझौता करना मोरार जी देशाई को स्वीकार नहीं था। पीवी नरसिंहा राव अपने दम पर पांच साल तक गठंबधित सत्ता चलायी। अटल बिहारी वाजपेयी सात सालों तक गठबंधित सत्ता चलायी। अटल बिहारी वाजपेयी की सत्ता में राजा की पार्टी द्रुमक खुद भागीदार थी। पर क्या अटल बिहारी वाजपेयी की सत्ता मनमोहन सिंह की सत्ता जैसी असहाय सत्ता थी/कमजोर सत्ता थी/ भ्रष्ट-बेईमान बहुल सत्ता थी? कदापि नहीं। ऐसा इसलिए संभव हुआ था कि अटल सत्ता ने गठबंधन धर्म का न केवल खुद सुक्षमता के साथ पालन किया था बल्कि गठबंधित दलों को भी गठबंधन धर्म को पालन करने की सीख दी थी। अटल/राव और मोरार जी देशाई पूर्णरूप से राजनीतिज्ञ थे और ये आदर्शो-विचारों की राजनीतिक-सामाजिक प्रक्रिया से आगे बढ़े थे। इसलिए इन्हें सत्ता की बुराइयों का भी अहसास था। इसके विपरीत मनमोहन सिंह राजनीतिज्ञ नहीं नौकरशाह रहे हैं। राजनीतिक प्रबंधन इनके बस की बात नहीं है। इनकी सत्ता की असली कुंजी सोनिया गांधी हैं। सोनिया गांधी की कृपा के बोझ से मनमोहन सिंह दबे हुए हैं।
                           बोफोर्स की आंधी ने राजीव गांधी की सत्ता उड़ायी थी। मनमोहन सिंह/सोनिया गांधी को बोफोर्स का उदाहरण या फिर सबक क्यो नहीं मालूम है। सत्ता के चमचों ने राजीव गांधी को ऐसी सलाह दी कि वे बोफोर्स का गर्त जितना छुपाते रहे उतना ही वे बोफोर्स के दलदल में फंसते चले गये। इसी प्रकार से मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी भ्रष्टाचार के राजा को जितना बचाने का प्रयास कर रहे हैं उतना ही विपक्ष का आक्रोश बढ रहा है। सिर्फ विपक्ष का ही आक्रोश नहीं बढ रहा है बल्कि जनाक्रोश भी बढ़ रहा है। जनता के बीच यही संदेश जा रहा है कि आखिर मनमोहन-सोनिया गांधी भ्रष्टाचार के राजा को बचाने के लिए इतने आतुर क्यो ंहैं? विपक्ष का माखौल उड़ाकर कांग्रेस अपना बचाव करना चाहती है। यह रास्ता कांग्रेस का और खतरनाक है। इसलिए कि राजा के भ्रष्टाचार पर सीएजी ने मुहर लगा दी है। सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार राजा के भ्रष्टाचार पर उंगली उठायी है। ऐसे में कांग्रेस ही नंगी खड़ी है। पूरा का पूरा शीतकालीन सत्र भ्रष्टचार के राजा प्रसंग पर कुर्बान हो गयी। कांग्रेस थोड़े समय के लिए राहत का सांस ले रही होगी। बजट सत्र नजदीक है। ऐसे में यह राहत सिर्फ और सिर्फ खुशफहमी वाली हो सकती है। विपक्ष पूरी तैयारी के साथ खड़ा है। बजट सत्र मनमोहन सत्ता कैसी चलायेगी? विपक्ष एकजुट होकर बजट सत्र बाधित करने पर अडिग हैं। विपक्ष को तोड़ने की कांग्रेसी नीति पहली ही दम तोड़ चुकी है। राजग ने इस प्रसंग को जनता के बीच ले जाने की नीति बनायी है। बोफोर्स जैसी आंधी उठाने की नीति चल रही है। ऐसी स्थिति में देश की राजनीति में टकराव का नया दौर शुरू होने वाला है। यह देश और लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।

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Thursday, December 9, 2010

राष्ट्र-चिंतन


बहिष्कार का तानाशाही अर्थ

विष्णुगुप्त

दो अंतर्राष्ट्रीय घटनाएं/ दो लोकतंत्र-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सेनानी। यानी जूलियन अंसाजे और लिउ शियाबाओ। अपने वेबसाइट विकीलीक्स पर अमेरिका की पोल खोलने वाले अभिव्यक्ति की सेनानी जूलियन अंसाजे की कथित बलात्कार के आरोप मे ब्रिटेन मे गिरफ्तारी हुई जबकि चीनी कम्युनिस्ट तानाशाही के विरोध और लोकतांत्रिक व्यवस्था के समर्थन में संषर्षरत लिउ शियाबाओ को दिये जा रहे नोबल पुरस्कार समारोह पर तानाशाही का ब्रजपात हुआ है। चीन ने नोबल पुरस्कार समारोह का न केवल बहिष्कार किया है बल्कि चीन के पक्ष में दुनिया के 20 से अधिक देशों ने भी नोबल पुरस्कार समारोह का बहिष्कार किया। बहिष्कार करने वाले वे देश है जहां पर किसी न किसी प्रकार की तानाशाही पसरी हुई है और जिनसे लोकतांत्रिक संवर्ग छुटकारा पाने के लिए संघर्षरत है। चीन के साथ खड़े होने वाले देशों में सूडान, ईरान, पाकिस्तान, कजाकिस्तान, रूस, ट्यूनेशिया, विएतनाम, वेनेजुएला, क्यूबा सर्बिया, सउदी अरब, मिस्र, लीबिया आदि है। चीन ने दुनिया भर में बहिष्कार को लेकर काफी समय से कूटनीतिक सक्रियता दिखायी थी। अपने समर्थक देशों पर दबाव भी बनाया था। मकसद सिर्फ और सिर्फ नोबेल कमेटी को सबक सीखाना था। ऐसी बहिष्कार की प्रक्रिया से दुनिया भर में लोकतंत्र के प्रति संघर्ष की दीवार और कड़ी होंगी। साथ ही साथ तानाशाही जैसी प्रक्रिया चलेगीं। चीन की अराजक कूटनीतिक-सामरिक शक्ति को नजरअंदाज कर नोबेल कमेटी ने लोकतांत्रिक दुनिया को ही समृद्ध किया है। लिउ शियाबाओ की रिहाई और दुनिया भर में तानाशाही की समाप्ति के लिए वैश्विक जनमत को और मजबूती के साथ वैचारिक दबाव की प्रक्रिया चलानी होगी।
                                            चीन लिउ शियाबाओं को किसी भी स्थिति में लोकतांत्रिक सेनानी नहीं मानता। चीन प्रचारित करता यह है कि लिउ शियाबाओ लोकतांत्रिक सेनानी नहीं बल्कि एक अपराधी है। वह भी खूंखार। लिउ शियाबाओ पर चीनी तानाशाही के खिलाफ आम लोगों को भड़काने का आरोप है। हिंसा फैलाने या फिर हिंसा के अन्य सभी प्रकार की प्रक्रियाओं से लिउ शियाबाओ का दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं है। पिछले ग्यारह साल से लिउ शियाबाओ चीनी जेलों में बंद है। लालच-प्रलोभन देने के सभी प्रकार के क्रियाओं के जाल मे लिउ फंसे नहीं। चीनी कम्युनिस्ट तानाशाही ने चीन छोड़ने की शर्त पर रिहाई का प्रलोभन दिया था। उस प्रलोभन को लिउ कैसे स्वीकार कर सकते थे। उनका एक मात्र घोषित लक्ष्य तो चीन की आबादी को तानाशाही से मुक्ति दिलाना है। थ्यैमैन चौक पर शांति पूर्ण प्रदर्शन करने वाले छात्रों पर जो तानाशाही टैंक चलवा सकती है और एक लाख से अधिक छात्रो को मौत का घाट उतार सकती है वह तानाशाही कम्युनिस्ट सत्ता लिउ शियाबाओं को लोकतांत्रिक सेनानी कैसे मान सकती है?सिर्फ लिउ की बात नहीं है। हजारो-हजार लोकतांत्रिक सेनानी चीनी जेलों में सड़ रहे हैं और उत्पीड़न की राजनीतिक प्रक्रिया झेल रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय नियामकों में चीन ने वायदे जरूर किये पर उन्होंने राजनीतिक बंदियों के साथ उदारता बरतने के साथ पेस आने के वायदे निभाये नहीं।
                                      सतत संघर्ष की कसौटी पर लिउ शियाबाओं शांति के नोबेल के हकदार थे। नोबेल समिति ने सतत संघर्ष की कसौटी पर ही लिउ शियाबाओ को चुना था। नेल्सन मंडेला, सू ची की तरह लिउ शियाबाओ ने तानाशाही व्यवस्था को चुनौती दी है। जिस समय शियाबाओं का चयन हो रहा था उस समय भी चीन ने नोबेल समिति को प्रभावित करने और कूटनीतिक दबाव की प्रक्रिया चलाने को लेकर भयभीत किया था। नोबेल समिति ने जैसे ही यह घोषणा किया कि लिउ शियाबाओ को शांति का नोबेल दिया जायेगा, वैसे ही चीन आग बबुला हो गया। अपना गुस्सा शियाबाओ और उनके परिजनों पर उतारा। दुनिया भर में नोबेल समिति के खिलाफ अभियान चलाने की कूटनीतिक नीति अपनायी। अपने समर्थक देशों से नोबेल समिति और पुरस्कार समिति का बहिष्कार करने के लिए दबाव बनाया। यह भी स्थापित किया कि इस प्रकार की नोबेल नीति अंदरूणी हस्तक्षेप है जिससे उनकी संप्रभुता पर आधात पहुंचा है। भविष्य में यह आंच अन्य देशों पर भी बाल बनेगी।
                    यह मानने में हर्ज नहीं होनी चाहिए कि चीन के पास अराजक वीटो का अधिकार है और वह अराजक सामरिक शक्ति वाला देश है। दुनिया भर में सभी प्रकार की तानाशाही वाले देशों को चीन पहले से ही अपने पाले में कर छोड़ा है। संयुक्त राष्ट्रसंध में जब कभी तानाशाही देशों के खिलाफ प्रतिबंधों के प्रस्ताव आते हैं या फिर अन्य कार्रवाईयों की बात होती है चीन बीटो के अधिकार का प्रयोग कर देता है। ईरान, सूडान, म्यांमार जैसी तानाशाही व्यवस्था के खिलाफ इसी कारण संयुक्त राष्ट्रसंघ वेबस रहता है। नोबल पुरस्कार समारोह का जितने देश बहिष्कार किये हैं वे सभी किसी न किसी प्रकार तानाशाही सत्ता से लगाव रखते हैं और ये चीन के गोद में बैठे हुए हैं जिनका एकमात्र मकसद दुनिया भर में तानाशाही प्रक्रिया की शक्ति बढ़ाना और लोकतांत्रिक-अभिव्यक्ति की आवाज को कुंद करना है।
दुनिया के जनमत को और संघर्ष करना होगा। लोकतांत्रिक विचार प्रवाह की कसौटी को और मजबूत करना होगा। अंतर्राष्ट्रीय नियामकों की दोमंुही नीति चलती है। एक तो गरीब और कमजोर देशों के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय नियामकों का सौंटा जोर चलता है पर दूसरी ओर प्रसंग चीनी तानाशाही से जुड़ा होता है तब अंतर्राष्ट्रीय नियामकों को साप सुंध जाता है। इनकी हैंकड़ी गुम हो चुकी होती है। मानावाधिकार के धोर उल्लंधन और लोकतंत्र की प्रक्रिया पर उत्पीड़न की नीति अपनाने पर भी आज तक चीन को दंडित करने का साहस अंतर्राष्ट्रीय नियामकों में रही है? स्थिति तो यह रहती है कि चीन अंतर्राष्टीय नियामकों को ब्लैकमैलिंग कर अपना हिता साध जाता है। जैसा कि पिछला बीजिंग ओलम्पिक के आयोजन का अधिकार लेते समय चीन ने किया था। लिउ जियाबाओ की रिहाई तुरत सुनिश्चित होनी चाहिए। तिब्बत में चीनी अत्याचार बंद कराने के साथ ही साथ राजनीतिक बंदियों पर उदारता बरतने के लिए चीन पर दबाव बनाना चाहिए। नोबेल पुरस्कार समिति को लिउ शियाबाओं जैसे लोकतांत्रिक सेनानी को शांति का नोबेल देने के लिए सलाम।



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Thursday, November 18, 2010

इस्लामिक मीडिया की करतूत

राष्ट्र-चिंतन

औरतों के प्रति असहिष्णुता क्यों?


इस्लामिक मीडिया की करतूत



विष्णुगुप्त

ब्रिटेन की इस्लामिक मीडिया की करतूत से यूरोप में औरतों की आजादी पर गंभीर प्रश्न खड़ा हो गया है। चर्चा /चिंता की बातें यह हो रही है कि कहीं इस्लाम की कट्टरतावादी मूल्यों/संहिताओं की पैठ से यूरोप की धार्मिक /महिला की आजादी भी प्रभावित न हो जाये और खूली सामाजिक व्यवस्था पर मजहबी संहिताएं न खड़ी हो जायें? हाल के वर्षो में इस्लाम की कट्टरता यूरोप में एक बड़ा राजनीतिक/सामाजिक/ धार्मिक प्रश्न बन गया है। कई यूरोपीय देश में इस्लाम के अनुदार संस्कृति के प्रचार-प्रसार को रोकने के लिए संवैधानिक संहिताएं भी बनायी हैं और संवैधानिक संहिताओं के उल्लंधन पर दंड के प्रावधान भी किये हैं। ऐसा इसलिए हुआ कि यूरोप में मजहबी संस्कृति के नाम पर कानून-संविधान का खुल्ला-खुल्लम उंलघन कर राजनीतिक ताकत बनाने का खेल-खेला जा रहा है। इस तरह के खेल से यूरोप को उदार समाज तब-तक उदासीन था और बर्दाशत कर रहा था जब तक मजहबी संस्कृतियां खतरनाक रूप धारण कर राजनीति/सत्ता को न प्रभावित कर रही थीं। जैसे ही उदार समाज व्यवस्था पर इस्लाम ने अपनी मजहबी संस्कृतियां हावी की और अलग कानून/संविधान कोड की मांग शुरू की वैसे ही यूरोप का समाज व्यवस्था ने मजहबी संस्कृतियों के प्रचार-प्रसार के खिलाफ सक्रियता भी दिखानी शुरू की है। फ्रांस में बुर्का के खिलाफ संवैधानिक प्रतिबंध इसकी सबसे बड़ी कड़ी है। पहले मजहबी संस्कृतियां और खतरनाक संहिताएं इस्लाम से जुड़े संस्थाएं मजबूत कर रहीं थी और अब मीडिया भी इसमें शामिल हो गया। इस्लामिक मूल्यों और रूढ़ियों के प्रचार-प्रसार के लिए अनेक मीडिया यूरोप में खड़े हैं जो इस्लाम और गैर इस्लामिक आबादी के बीच टकराहट/घृणा/का बाजार लगा रहे हैं। मीडिया के उपर मजहबी संहिताएं हावी होना न सिर्फ यूरोप में इस्लामिक कट्टरता को बढाने वाला और औरत की आजादी को प्रभावित करने जैसी चिंताएं होनी चाहिए बल्कि शेष दुनिया को भी इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
                                     ओसामा बिन लादेन की संस्कृति और अराजक खूनी शक्ति ने इस्लामिक मीडिया को और खूंखार बना दिया है। ‘अल जजीरा ‘ ने जैसी दुनिया भर मे सोहरत पायी और ओसामा बिन लादेन की संस्कृति/खूनी सोच को दुनिया भर में स्थापित करने / इस्लाम को संघर्ष के प्रतीक जैसी भ्रांतियां फैलाने में कामयाब हुई वैसे ही इस्लाम की कट्टरवादी संस्थाओं को मीडिया को मोहरा के रूप में एक नया और खूंखर हथियर मिल गया। यूरोप में आज कुकुरमुत्ते की तरह गली-गली में इस्लामिक मीडिया अपनी मजहबी कट्टरता के प्रचार-प्रसार में लगा हुआ है। खासकर ब्रिटेन में इस्लामिक मीडिया अपनी दो प्रकार की समस्याएं खड़ी कर रहे हैं। एक में इस्लाम की रूढ़ियों को बढ़ावा देने और आतंकवाद जैसी खूनी मजहबी प्रक्रिया बढाया जा रहा है तो दूसरे में राजनीति समीकरण को प्रभावित किया जा रहा है। राजनीतिक समीकरण के प्रभावित होने से इस्लाम की रूढ़ियां को अपना बाजार पसारने में सहुलियत होती हैं। ब्रिटेन मे 14 प्रतिशत की आबादी इस्लाम को मानने वाली हैं। यह इस्लामिक आबादी अरब देशो/पाकिस्तान और अफ्रीकी देशों से जाकर बसी हैं। अब यह इस्लामिक आबादी ब्रिटेन की उदार और समतामूलक संविधान में इस्लामिक हिस्सेदारी चाहती हैं। इतना ही नहीं बल्कि इस्लामिक संहिताओं को लागू करने की मांग भी खतरनाक ढंग से उठी है। राजनीतिक तौर पर ऐसी खतरनाक और मजहबी मांगों के प्रति कठोरता भी नहीं दिखायी जाती है। इसलिए कि 14 प्रतिशत वाली मुस्लिम आबादी सत्ता को उखाड़ फेंकने की राजनीतिक शक्ति रखती है। ब्रिटेन या अन्य यूरोपीय देशों की सत्ता भारत की सत्ता जैसा ही मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति पर चलती है और सत्ता संस्थान के स्थायीकरण के लिए मुस्लिम आबादी के जायज/नाजायज मांगों के प्रति धुटने टेकती रहती है।
                          ब्रिटेन की एक इस्लामिक मीडिया संस्थान ने अपने खबरिया चैनल पर प्रसारित एक कार्यक्रम में न केवल घरेलू हिंसा का समर्थन किया बल्कि वैवाहिक महिलाओ के साथ बलात्कार जैसी प्रक्रियाओ को भी सही ठहराया गया। घरेलू हिंसा और बलात्कार का समर्थन कोई दर्शकों की राय नहीं थी। बल्कि खबरिया चैनल के एंकरों ने यह दर्शाया कि इस्लाम में औरतों को मारने-पिटने का अधिकार पुरूषों को है। वैवाहिक महिलाओं के साथ बलात्कार का भी अधिकार पुरूषों को है। खबरिया चैनल ने यह भी प्रचारित किया कि घरेलू हिंसा या फिर बलात्कार की शिकार महिलाएं कोर्ट नहीं जा सकती हैं और न पुरूषों को दंडित करा सकती हैं। ऐसा करने पर इस्लाम का तौहीन माना जायेगा और ऐसी महिलाओं के खिलाफ शरियत में दंड का प्रावधान है। दुनिया में कहीं भी रहने वाले मुस्लिम पुरूषों पर अपनी पत्नियों पर हिंसा की कार्रवाई पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। महिलाएं श्रृंगार भी नहीं कर सकती हैं। इत्र लगाने वाली महिलाओं को वैश्या कहा गया। श्रृंगार करने वाली महिलाओं पर तलाक जैसी प्रक्रिया का बुलडोजर चलाने और ऐसी महिलाओं की जिंदगी नरक में तब्दील करने की भी अपील की गयी। खबरिया चैनल ने औरतों की आजादी को बंधक बनाने और औरतों को कबिलाई काल के बर्बर अत्याचार के मुंह में ढकेलने वाले कार्यक्रम का एक बार नहीं बल्कि बार-बार प्रसारित किया। चूंकि प्रसारण अरबी, उर्दू और अफ्रीकी भाषाओं में हो रहा था, इसलिए इस पर ब्रिटेन में ध्यान काफी बाद में गया। जैसे ही उक्त कार्यक्रम की जानकारी आम हुई वैसे ही ब्रिटेन के समाज और महिला संगठनों में आक्रोश उबल पड़ा। ऐसे कार्यक्रमों के औचित्य पर प्रश्न उठने के साथ ही साथ ऐसे मीडिया संस्थानों को प्रतिबंधित करने की मांग भी उठी। मीडिया पर निगरानी करने वाली संस्था ‘ऑफ्कॉम‘ ने सीधेतौर पर कहा कि ऐसा प्रसारण सीधेतौर पर प्रसारण नियमावली का उल्लंघन है और व्यक्ति की स्वततंत्रा का हनन करने वाला भी है। इस तरह के कार्यक्रम के प्रसारण से औरतो पर हिंसा बढंेगी और यूरोपीय समाज पर बर्बर जेहादी-मजहबी संस्कृतियां हावी हो जायेंगी।
                             औरतों की आजादी को मजहबी कट्टरता से बचाना आज भी एक ज्वलंत सवाल है। अन्य धार्मिक समूहों में औरतों पर उत्पीड़न वाली सामाजिक श्रृंखलाएं दम तोड़ चुकी हैं। महिलाओं ने भी अपनी आजादी को धार्मिक बंधन से मुक्त करने में संघर्षकारी भूमिका निभायी है। पर जब इस्लाम की बात आती है तब महिलाएं आज भी अपनी आजादी के प्रति प्ररेक श्रृंखलाएं से अपने आप को जोड़ने से कतराती है। ऐसा क्यों? इसलिए कि मजहबी समाज में अपनी आजादी की बात करने की कीमत महिलाओं को जान देकर चुकानी पड़ती है। अफगानिस्तान /पाकिस्तान में तालिबान ने महिलाओं के खिलाफ कैसी कार्रवाई जारी रखी हैं, इससे भी दुनिया भलिभांति से परिचित है। अरब देशों में महिलाओं पर इस्लामिक सत्ता का उत्पीड़न भी जगजाहिर है। यूरोप में जो इस्लामिक मीडिया का जाल है वह न केवल इस्लाम की रूढ़ियों का प्रचार-प्रसार में लगा हुआ है बल्कि भारत/इजरायल/ फिलिपींस जैसे देशों में इस्लामिक आतंकवाद को भी खाद-पानी दे रहा है। भारत/इजरायल/फिलिपींस आदि देशों के बारे अतिरंजित खबरे प्रसारित होती हैं। खबरों में यह दिखाया जाता है कि मुस्लिम आबादी पर अत्याचार के साथ ही साथ इस्लाम का तिरस्कार किया जा रहा है। ऐसे कार्यक्रमों से इस्लाम की रूढ़ियों का ग्राफ बढ़ता ही है और जेहादी मानसिकता भी फलता-फुलता है।
                               ब्रिटेन ही नहीं बल्कि पूरे यूरोपीय समाज को आत्ममंथन करना चाहिए और भविष्य में इस्लाम के और खतरनाक मानसिकताओं के प्रचार-प्रसार पर अंकुश लगाने के लिए तत्पर होना होगा। यूरोप ने उदारवाद और मजहबी आजादी के नाम पर इस्लाम के अनुदारवाद और खूनी मानसिकता का समर्थन कर खुद ही आग को हवा दी है। इस आग में आज खुद यूरोप झुलस रहा है। यूरोपीय देशों की सत्ता को मुस्लिम महिलाओं की आजादी के संरक्षण के प्रति सचेत रहना चाहिए। औरतों की आजादी के खिलाफ बर्बर कार्यक्रम प्रसारित करने वाले इस्लामिक मीडिया पर ताल्ला क्यों नहीं लगना चाहिए?

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