Saturday, June 26, 2010

तमिल नरसंहार की खुलेेगी परत दर परत कहानी


संयुक्त राष्ट्रसंघ के सरकारी पैनल की दुरूह चुनौती

तमिल नरसंहार की खुलेगी परत दर परत कहानी


विष्णुगुप्त




श्रीलंका सरकार की बौैैखलाहट समझी जा सकती है। तमिल नरसंहार की परत दर परत कहानी बाहर आने की डर से श्रीलंका सरकार सकते में है और उसे चिंता में डाल दिया है। श्रीलंका के राष्ट्रपति महेन्द्रा राजपक्षे ने संयुक्त राष्ट्रसंघ को कोेसने की कोई सीमा न छोड़ते हुए कहा कि बान की मुन बाहरी व्यक्ति है फिर भी श्रीलंका की संप्रभुता पर हमला करने की ओछी हरकत करने से बाज नहीं आ रहे हैं। ऐसे देखा जाये तो महेन्द्रा राज पक्षे के सामने संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचित बान की मुन की आलोचना करने के अलावा और चारा भी तो नहीं था। संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव होने के नाते बान की मुन पर पूरी दुनिया में मानवाधिकार संरक्षण और शांति स्थापित करनेे की नैतिक ही नहीं बल्कि संहितापूर्ण जिम्मेदारी है। जाहिरतौर पर बानकी मुन ने अपनी जिम्मेेदारी का निर्वाहन करते हुए श्रीलंका में तमिल नरसंहार की परत दर परत कहानी खोलने की सक्रियता दिखायी है। श्रींलंका में तमिल टाइगरों के खिलाफ सैनिक अभियान के दौरान निर्दोष आबादी को निशाना बनायेे जाने के खिलाफ जांच के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ ने एक ‘सरकारी पैनल‘ बनाया है। इस सरकारी पैनल के अध्यक्ष इंडोनेशिया के पूर्व एंटर्नी जनरल मारकुजी दारूसमन होंगे। उनके साथ तीन और सदस्य होंगे। यह सरकारी पैनल न सिर्फ तमिलों पर हुए मानवाधिकार हनन औैर उनके जनसंहार की जांच पड़ताल करेगा बल्कि यह भी निष्कर्ष निकाल कर संयुक्त राष्ट्रसंध को सलाह देगा कि अराजक देशों और सरकारों को मानवाधिकार संरक्षण के लिए कैसे बाध्य किया जा सकता है। श्रीलंका ही नहीं बल्कि दुनिया भर में कई ऐसी सरकारी व्यवस्था हैं जो न केवल मानवाधिकार हनन की कब्र पर बैंठी हैं और उन्हें मानवाधिकार संरक्षण या फिर अपनी आबादी की आवाज भी खौफ और उत्पीड़न के लिए प्रेरित करती है। ऐसी स्थिति में हम आकलन कर सकते हैं कि सुयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा गठित सरकारी पैनल की श्रींलका में काम और सुझाव कितना कठिन है। सिर्फ श्रीलंका के हाथ खुन नहीं रंगे हुए हैं बल्कि तमिलों के नरसंहार के साथ चीन-पाकिस्तान जैसे देषों के हाथ भी खून से रंगे हुए हैं। जाफना में एक साथ तीन-तीन देशों की करतुतो की कहानी खोजनी पड़गी। श्रीलंका की वर्तमान सत्ता घोर अमानवीय है और उसके लिए अभी भी मानवाधिकार संरक्षण की प्रवृति का का कोई खास महत्व नहीं रखता है। राष्ट्रपति महेन्द्रा राजपक्षे घोर अराजक सत्ता व्यवस्था का नेतृत्व कर रहे हैं। महेन्द्रा राजपक्षे तानाशाही की ओर बढ़ रहे हैं। भारतीय महाद्वीप में एक और तानाशाही व्यवस्था के अस्तित्व मे आने के संकेत ही नहीं बल्कि खतरे की नींव भी मजबूत हो रही हैं। इस खतरे को चीन या पाकिस्तान जैसा अराजक देश अपने लिए अनुकुल मान सकता है पर भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए एक बडे कूटनीतिक खतरे से कम नहीं है। भारत सरकार की कूटनीति में इस खतरे को लेकर केाई हलचल क्यों नहीं है। दुुनिया को तमिलों के मानवाधिकार और उनकी बेहतरी पर और भी गंभीर होकर सोचना होगा। इसलिए कि तमिलों के साथ अभी भी जानवरों जैसा व्यवहार हो रहा है। वे राहत शिविरों के नाम पर यातना शिविरो में रह रहे हैं। यातना शिविरों में उनके साथ ज्यातियां कम नहीं हो रही है। खासकर तमिल महिलाओं के साथ सैक्स उत्पीड़न की धटनाएं विश्व समुदाय की चिंता भी बढ़ायी है।

राहत शिविरों में तमिलों के साथ जानवरों जैसा व्यवहार हो रहा है। तमिल आबादी के नरसंहार में चीन और पाकिस्तान के हाथ भी खून से रंगे हुए है। श्रीलंका का सैनिक अभियान में निर्णायक भूमिका चीन और पाकिस्तान की थी। महेन्द्रा राजपक्षे पूरी तरह से अराजक है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाबंदियां लागू हैं। राजपक्षें की तानाशाही प्रवृति वैश्विक नियामकों के सामने संकट खड़ा किया है। कैसे रूकेगी राजपक्षे की तानाशाही प्रवृति

खौफनाक नरसंहार...............................................

श्रीलंका संयुक्त राष्ट्रसंघ का सदस्य देश है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के हर सदस्य देश संयुक्त राष्ट्रसंघ की संहिता से बंधा हुआ है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की संहिता के अनुसार प्रत्येक देश को मानवाधिकार संरक्षण की जिम्मेदारी निभानी है और जातीय या मूल-भाषा पर आधारित हिंसा-ज्यादतियां रोकना है। जाहिरतौर पर श्रीलंका की सरकार ने संयुक्त राष्ट्रसंघ की इस संहिता के प्रति जवाबदेही दिखायी नहीं। तमिलों की समस्याओं का शांतिपूर्ण्र समाधान खोेजने की जगह सैनिक अभियान की प्रक्रिया चलायी गयी। सैनिक अभियान के पहले तमिल टाइगरो ने वार्ता का प्रस्ताव दिया था लेकिन श्रीलंका के राष्ट्रपति महेन्द्रा राजपक्षे को यह प्रस्ताव मंजूर नहीं हुआ। इसलिए कि महेन्द्रा राजपक्षे घोर सिहली राष्ट्रवाद का प्रतिनिधि नायक हैं। उनके एजेन्डे में सिंहली राष्ट्रवाद की जगह अन्य राष्ट्रीयता की कोई जगह ही नहीं बचती है। यह बात प्रमाणिततौर पर इसलिए कही जा सकती है कि खुद महेन्द्रा राजपक्षे बार-बार यह कहते आये हैं कि वे सिंहली राष्ट्रवाद की कीमत पर कोई भी प्रक्रिया को मानने के लिए बाध्य नहीं है। यानी सिंहली राष्ट्रवाद की सवोच्च्ता। सिंहली राष्ट्रवाद की सवोच्चता ने ही महेन्द्रा राजपक्षे को तमिलों के नरसंहार के लिए प्रेरित किया। तमिल टाइगर के सुप्रीमो प्रभाकरण जरूर हिंसा पर आधारित समाधान खोजने के लिए प्ररित थे पर सही यह भी है कि तमिलों की पूरी आबादी हिंसा से जुड़ी नहीं थी। तमिल आबादी हिसाविहीन समाधान की इच्छा रखती थी। दुर्भाग्य से श्रीलंका की सरकार ने पूरी तमिल आबादी को तमिल टाइगर का समर्थक औैर लड़ाकू मान लिया। श्रीलंका का सैनिक अभियान पूरी तरह से तमिल आबादी के विरूद्ध था। तमिल टाइगरों और प्रभाकरण के सफाये के साथ ही साथ तमिल आबादी के सफाये का मंशा भी राजपक्षे सरकार रखती थी। जैल में बंद श्रीलंका सेना के पूर्व अध्यक्ष और महेन्द्रा राजपक्षे का प्रतिद्वंद्वी फोनसेका ने बार-बार कहा है कि तमिलों का न केवल नरसंहार हुआ है बल्कि तमिल महिलाओं के साथ अमानवीय व्यवहार सहित अन्य मानवाधिकार हनने की घटनाएं हुई है। सेना पूरी तरह से अराजक थी और सिंहली राष्ट्रवाद की बहती खौफनाक प्रक्रिया में लिपटी हुई थी। श्रीलंका सरकार सेना को नरसंहार और अन्य प्रकार की ज्यातियों के लिए आदेश दे रखी थी। किसी भी तमिल टाइगरों को जिंदा नहीं छोड़ने का भी आदेश था। सैनिक अभियान के दौरान तमिल टाइगरों को समर्पन करने का लालच थमाया गया था। श्रीलंका सेना के सैनिक अभियान में समर्पण के लालच में आये तमिल टाइगरों के साथ भी खौफनाक मौत की प्रक्रिया चलायी गयी थी। सर्मपण करने वाले तमिल टाइगरों को मौत का घार उतार दिया गया था। तमिल टाइगरों के प्रमुख प्रभाकरण और उनके परिवार को जिंदा पकड़ने के बाद कई दिनो तक प्रताड़ित करने के बाद उन सबों को मौत की नींद सुलाया गया था। एक गैर सरकारी अनुमान के तहत पचास हजार से अधिक निर्दोष आबादी भी कत्लेआम की शिकार बनी थी। निर्दोष आबादी के कत्लेआम के सारी परिस्थितियां नष्ट की गयी और सबूत मिटाये गये हैं। हजारों लापाता तमिल टाइगरों की खोज नहीं हुई। लापाता आबादी केे बारे में यह कहा गया कि ये तमिल टाइगर थे जो श्रीलंका छोड़कर भाग गये। इनकी खोज की जिम्मेदारी श्रीलंका सरकार नहीं उठा सकती है?

चीन-पाक भी दोषी .............................

तमिल टाइगर दुनिया की सबसे प्रशिक्षित और ताकतवर लड़ाकू संगठन था। दुनिया में मानव बम की थ्योरी तमिल टाइगरों की ही देन है। मानव बम से ही प्र्रभारकण ने राजीव गांधी की हत्या करायी थी। करीब 40 सालों से अलग तमिल राष्ट्र के लिए तमिल टाइगर संधर्ष कर रहे थे। उनके पास न केवल थल लड़ाकू की बहुत बड़ी टूकड़ी थी बल्कि हवाई और समुद्री सैनिक ताकत थी। तमिल टाइगरों के हवाई और समुद्री हमलों ने दुनिया में काफी तहलका मचायी थी। थल-हवाई और समुद्री सामरिक ताकत होने के कारण लिट्टे की सैनिक ताकत कम नहीं थी। दुनिया भी लिट्टे की ताकत को मान चुकी थी। लिट्टे की इतनी बड़ी सामरिक ताकत को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि श्रीलंका द्वारा उनके खिलाफ अभियान छेड़ना मुश्किल नहीं तो कठिन जरूर था। कायदे की बात करें तो श्रीलंका सरकार की सैनिक ताकत इतनी बड़ी थी भी नहीं कि वह लिट्टे जैसे खूखांर संगठन से आमने-सामने की लड़ाई लड़ सके। अब यहां यह सवाल जरूर उठता है कि श्रीलंका सरकार तब लिट्टे का सफाया कैसे किया? वास्तव में इस सफलता की राज को भारतीय महाद्वीप में चीनी कूटनीति की घुसपैठ में खोजा जा सकता है। एक ओर तो अमेरिका-यूरोप के इस्लामिक आंतंकवाद के विरूद्ध लड़ाई और सोच ने लिट्टे को कमजोर किया। लिट्टे को तालिबान या अलकायदा के समकछ रखना वैश्विक कूटनीति की सबसे बड़ी भूल थी। चीन इस वैश्विक कूटनीति की परिस्थितियों का लाभ उठाया। दूसरी सबसे बड़ी बात यह है कि चीन की नजर भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था-सामरिक शक्ति और वैश्विक कूटनीति के बढ़ते दौर से पर था। वह पहले से ही भारत की पड़ोसियों को वह अपने पक्ष में करने की कूटनीतिक प्रक्रिया चलाता रहता है। नेपाल में उसने माओवादियों को खड़ा करने की सफलता खिची है। पाकिस्तान उसके चुगुल मे अपने स्थापना काल से ही है। म्यांमार के साथ चीन की सामरिक गठजोड़ है। श्रीलंका चीनी कूटनीति से चुंगुल से बाहर था। चीनी कूटनीति ने श्रीलंका को सैनिक ताकत बढ़ाने में मदद का लालच दिया। राजपक्षे अपनी सत्ता लम्बे काल तक चलाने के लिए लिट्टे जैसी शक्ति को समाप्त करना चाहता था। चीन ने पाकिस्तान के साथ मिलकर गोपनीय ढ़ग से श्रीलंका सैनिकों को प्रशिक्षित करने का काम किया। भारत के खिलाफ पाकिस्तान की कूटनीतिक अर्थ को भी नजरअंदाज नही किया जा सकता है। चीन और पाकिस्तान ने श्रीलंका सैनिकों को न केवल प्रषिक्षित किया बल्कि हथियार भी दिये। पाकिस्तान ने जहां छोटे हथियार दियें वहीं चीन ने श्रीलंका सैना को बड़े हथियार मुहैया कराये। इन बड़े हथियरों में टैंक सहित लड़ाकू हैलिकाप्टर तक शामिल थे। लिट्े के खिलाफ सैनिक अभियान का नेतृत्व चीनी और पाकिस्तान जनरल कर रहे थे। ऐसी खबरें तमिल मीडिया की है। अतंराष्ट्रीय समुदाय अब यह मान लिया है कि तमिलों के खिलाफ सैनिक अभियान में निर्णायक भूमिका चीन और पाकिस्तान की सामरिक-कूटनीति की थी। अब यहां सवाल यह उठता है कि क्या संयुक्त राष्ट्रसंघ चीन और पाकिस्तान की करतुतों और तमिलों के नरसंहार में शामिल होने की बात बाहर करने और चीन-पाकिस्तान को इन करतूतों के खिलाफ सजा देने जैसा साहस दिखा सकता है।

राहत नहीं यातना शिविर....................................

यह जानकर वैश्विक समाज को आक्रोषित होना चाहिए कि राहत शिविरों को यातना शिवरों में बदल दिया गया है। पांच लाख से अधिक आबादी अभी भी जाफना के आस-पास राहत शिविरों में रहने के लिए बाध्य हैं। राहत शिविरों में रहने वाली तमिल आबादी के साथ श्रीलंका के सुरक्षा प्रकिया जानवरों जैसा व्यवहार करती है। राहत शिविरों में रहने वाली तमिल आबादी को मानवीय सहायता जैसी जरूरी तत्व से वंचित है। खाने-पीने जैसी सुविधाएं चाकचौबंद नहीं है। गंभीर रूप से बीमार लोगों के लिए उचित चिकित्सा व्यवस्था तक नहीं है।उत्पीड़न और ज्यादतियां जैसी प्रक्रिया राहत शिविरों में चलती रहती है। खासकर महिला तमिल आबादी के साथ व्यवहार अमानवीय ही नहीं है बल्कि खौफनाक भी है। छोटी-छोटी बच्चियो के साथ श्रीलंका के सुरक्षा बल के जवान बलात्कार करने से भी नहीं चुकते है। छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार की प्रक्रिया रूकती नहीं है। विश्व मीडिया में कुछ दिन पूर्व एक तस्वीर काफी तहलका मचायी थी। वह तस्वीर भयानक थी और कूरता को पार करने वाली थी। उस तस्वीर में सुरक्षा बलो द्वारा एक छोटी उम्र की लड़की के साथ बलात्कार की बात थी। उस तस्वीर के प्रकाशन के बाद दुनिया भर में श्रीलंका सरकार के खिलाफ कार्रवाई करने की बात भी उठी थी। दुनिया में अपनी छवि खराब होते देख राजपक्षे ने झूठ और फैरब का सहारा लिया। राजपक्षे ने उस तस्वीर को झूठी करार देते हुए कहा कि यह तमिल टाइगरो का समर्थन करने वाले मीडिया द्वारा बनायी गयी तस्वीर है। जबकि सही तो यह था कि एक पत्रकार ने गोपनीय ढ़ग से वह तस्वीर खींची थी। इसके बाद महेन्द्रा राजपक्षे ने अपना गुस्सा मीडिया पर उतारा। उसने मीडिया को कई सेंशरशिप से प्रतिबंधित किया। कई पत्रकारो को उसने जेलों में डाल दिया। कई पर झूठे मुकदमे दर्ज किये गये। इसके बाद मीडिया पूरी तरह से रक्षात्मक हो गयी और राहत शिविरों से संबंधित खबरें नहीं के बराबर आने लगी। राहत शिविरों से बाहर रहने वाली आबादी के साथ भी घोर अन्याय हो रहा है। उनके मानवाधिकार को सुरक्षा बलो के जबूटों तले रोंदा जा रहा है। राहत शिविरों से बाहर रहने वाली तमिल आबादी को उनके धरों से निकलने और बाहर जाने के कारण बताने के लिए बाध्य होना पड़ता है। कारण नहीं बताने पर लिट्टे समर्थक मानकर उन्हे जेलों में ठुस दिया जाता है। तमिल आबादी जेलों में जलालत की जिंदगी जीने के लिए विवश है। जेलो में उन्हें सिंहली राष्टवादियों द्वारा अपमानित होने के साथ ही साथ उत्पीड़न का शिकार भी होना पड़ता है। श्रीलंका की जेलों में कितनी आबादी बंद है यह आकंडा भी श्रीलंका सरकार देने के लिए तैयार नहीं है।

तानाशाही की ओर बढ़ते पंख...................................

हम एक और तानाशाही व्यवस्था से धिर सकते हैं। चीन, म्यामार, नेपाल और पाकिस्तान जैसे अराजक देशों से हमारी संप्रभुता पहले से ही धिरी हुई है। अब हम श्रीलंका में भी अराजकता और तानाशाही जैसे खेल से अभिशप्त होे सकते है। महेन्द्रा राजपक्षे घोर सिंहली राष्टवाद के पक्षधर हैं। लिटटे के सफायेे का करिशमा राजपक्षे के साथ जुड़ी हुई है। सिंहली आबादी राजपक्षे का अपना नायक मानती है। पिछला राष्टपति चुुनाव इसका उदाहरण है। सिंहली राष्टवाद पर सवार होकर ह राजपक्षे ने पिछला राष्टपति चुनाव जीता था। चुनाव जीतने के बाद राजपक्षे अराजक हो गये है। उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी पूर्व सेनाध्यक्ष फोनेंसका को जेलों में डाल दिया और उनके उपर तख्ता पलट करने और अपनी हत्या की साजिश में शामिल होने के आरोप लगाये। फोनेसंका काफी दिनों से जेलों में बंद है। राष्टद्रोह का आरोप येन-केन-प्रकारेन साबित कर फोनसेंका को फांसी पर लटकाने की उनकी योजना है। फोनसंका की जेल-उत्पीड़न पर संयुक्त राष्टसंघ और अमेरिका ने नाखुशी दिखायी पर राजपक्षे की दिमाग सातवें आसमान में ही तैरता रहा है। सत्ता की गंुडई के सामने विरोधियों की आवाज काफी दब गयी है। पहले श्रीलंका में भंडारनायके परिवार की तूती बोलती थी। भंडारनायके परिवार और लोकतंत्र का रिस्ता गहरा था। लेकिन राजपक्षे ने भंडारनायके परिवार की हासिये पर डाल दिया है। सबसे बड़ी बात यह है कि राजपक्षे ने अपने कुनबे को स्थापित करने की राह लम्बी-चौड़ी बनायी है। अपने परिजनों को सेना के साथ ही साथ अपनी सरकार के महत्पपूर्ण पदों पर बैैठाया है। ऐसा इसलिए कि कहीं से भी कोई चुनौती नहीं मिल सके। यह लक्ष्ण और प्रक्रिया तानाशाही अराजक व्यवस्था के ही प्रतीक हैं। तानाशाही और अराजक व्यवस्था का समर्थक सत्तासीन ही अपने परिजनों और कुनबों को सेना और सरकार के महत्वपूर्ण पदों पर बैठाते है। मीडिया पर सेेंशरशिप पहले से ही लागू है। वर्तमान सिस्थि यह है कि जो भी राजपक्षे के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश करेगा उसकी जगह जेल होगी। राजपक्षेे को मालूम है कि वर्तनाम कूटनीतिक माहौल में उसे किसी से भी खतरा नहीं है और न ही वैश्विक नियामक उसके खिलाफ निर्णायक कारवाई करने की साहस कर सकता है। चीन उसके पूरी तरह से साथ है। भारत भी अपने रक्षात्मक कूटनीति से कोई विवाद या संकट खड़ा नहीं कर सकता है। भारत एक तरह से राजपक्षे की तानाशाही की ओर बढ़ते कदम का मुकदर्शक है। अभी हाल ही में भारत ने राजपक्षे को अपने यहां बुलाकार सम्मानित करने का काम किया है। ऐसी स्थिति में राजपक्षे को डर किस बात की है। उसके कदम तानाशाही की ओर बढ़ेगी ही।

सरकारी कमेटी की दुरूह चुनौती......................................

संयुक्त राष्टसंघ ने तमिलों के पक्ष में खड़ा होने की जिम्मेदारी जरूर निभायी है। नरसहार पर एक सरकारी पैनल भी बनाया है। सरकारी कमेटी के अध्यक्ष मारूजुकी दारूसमन वैश्विक कूटनीति और कानून के बड़े जानकार है। इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि वे तमिल आबादी का हुआ नरसंहार और उत्पीड़न-ज्यादतियों की परत दर परत कहानी खोलने मे कामयाब होगे। पर उन्हें कई कठिनाइयों से भी सामना करना पड़ेगा। श्रीलंका सरकार उन्हें सहयोग करने वाली नहीं है। तमिल आबादी डरी हुई है। उन्हें अपने भविष्य की चिंता है। इसलिए वे अपने मुंह बंद रखना ही बेहतर समझेगे। चीन और पाकिस्तान के खिलाफ सबूत जुटाना भी दुरूह चुनौती है। सरकारी कमेटी को यह भी सलाह देना है कि अराजक और तानाशाही सरकारों से मानवाधिकार संरक्षण कैसे कराया जा सकता है। इसलिए तमिलों के नरसंहार की खौफनाक कार्रवाइयो को आधार मानकर ‘सरकारी पैनल‘ यह भी सलाह दे सकता है कि संघर्षरत संगठनों से कैसे निपटा जा सकता है, उनकी मांगों का प्रबंधन का तरीका क्या हो सकता है। सबसे बड़ी बात तो संयुुक्त राष्टसंघ और सभी वैश्विक नियामकों को यह तय करना होगा कि अराजक और तानाशाही व्यवस्था का किसी भी प्रकार से सहायता या समर्थन देने की प्रवृति को रोका जाये। फिलहाल चुनौती राजपक्षे की अराजक नीतियां है।





सम्पर्क.....

मोबाइल- 09968997060

Tuesday, June 8, 2010

न्याय की हत्या,दोषी सरकारी-न्यायिक प्रक्रिया ?

भोपाल गैस कांड फैसला

न्याय की हत्या, दोषी सरकारी-न्यायिक प्रक्रिया ?

वारेन एडरसन पर मेहरबानी क्यों?

विष्णुगुप्त

महत्वपूर्ण यह नहीं है कि भोपाल गैस कांड के आठ अभियुक्तों को न्यायालय ने दोषी ठहराया है, उन्हें दो-दो साल की सजा सुनायी है या अब भोपाल गैस कांड के पीड़ितों को न्याय मिल ही गया। महत्पूर्ण यह है कि भोपाल गैस कांड के अभियुक्तों दंडित करने में 25 साल का समय क्यों और कैसे लगा। न्याय की इतनी बड़ी सुस्ती और कछुआ चाल। क्या गैस पीड़ितों की इच्छानुसार यह न्याय हुआ है? क्या सीजीएम कोर्ट के फैसले से गैस पीड़ितों के दुख-दर्द और हुए नुकसान की भरपाई हो सकती है। मुख्य आरोपी ‘ यूनियन कार्बाइड कम्पनी के चैयरमैन वारेन एडरसन पर न्यायालय द्वारा कोई टिप्पणी नहीं होने का भी कोई अर्थ निकलता है क्या। भोपाल जिला के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने मोहन तिवारी द्वारा यूनियन कर्बाइड के आठ तत्कालिन पदाधिकारियों को दो-दो साल की सजा जरूर सुनायी गयी पर यूनियन कार्बाइड के मालिक वारेन एडरसन पर कोई टिप्पणी नहीं हुई है। वारेन एडरसन पिछले 25 साल से फरार घोषित है। सीबीआई अबतक वारेन एडरसन का पत्ता ढुढ़ने में नाकामयाब रही है।
           सजा नरसंहारक धाराओं से नहीं बल्कि लापरवाही की धाराओं से सुनायी गयी है। भारतीय कानून संहिता की धारा 304 ए के तहत सुनायी गयी है जो लापरवाही के विरूद्ध धारा है। लापरवाही नहीं बल्कि जनसंहारक जैसा अपराध था। भोपाल गैस पीड़ितों की मांग भी थी कि यूनियन गैस कर्बाइड के खिलाफ हत्या का मामला चलाया जाये पर पुलिस और सरकार का रवैया इस प्रसंग में यूनियन गैस कार्बाइड की पक्षधर वाली रही है। यही कारण है कि 25 सालों से फरार युनियन गैस कर्बाइड के मालिक वारेन एडरसन की गिरफ्तारी तक संभव नहीं हो सकी है। गैस पीड़ितों का संगठन इस फैसले से कतई खुश नहीं हैं और इनकी मांग दोषियों की फांसी की सजा मुकर्रर कराना है। गैस पीड़ितों की लडाई लड़ने वाले अब्दुल जबार ने इस फैसले को न्यायिक त्रासदी करार दिया है और न्यायिक मजिस्ट्रेट के फैसले के खिलाफ और अभियुक्तों को फांसी दिलाने के लिए उच्च न्यायालय का दरवाजा खट-खटाने का एलान किया है।
भारतीय सत्ता व्यवस्था एडरसन के हित को सुरक्षित रखने में कितना संलग्न था और पक्षकारी था। इतने बड़े नरसंहारक घटना के लिए मुख्य दोषी को रातोरात जमानत कैसे मिल जाती है? घटना के बाद पांच दिसम्बर 1984 को एडरसन भारत आया था। पुलिस उसे गिरफतार करती है पर एडरसन को जेल नहीं भेजा जाता है। गेस्ट हाउस में रखा जाता है। गैस हाउस से ही उसे जमानत मिल जाती है। इतना ही नहीं बल्कि भोपाल से दिल्ली आने के लिए भारत सरकार हवाई जहाज भेजती है। भारत सरकार के हवाईजहाज से एडरसन दिल्ली आता है और फिर अमेरिका भाग जाता है। अभी तक एडरसन अमेरिका में ही रह रहा है। ज्ञात तौर पर उसकी सक्रियता बनी हुई है। विभिन्न व्यापारिक और औद्योगिक योजनाओं में न केवल उसकी सक्रियता है बल्कि उसके पास मालिकाना हक भी है। इसके बाद सीबीआई वारेन एडरसन का पत्ता नहीं खोज पायी है। अभी तक वह भारतीय न्यायप्रकिया के तहत फरार ही है।

दुनिया की सबसे बड़ी औद्याोगिक त्रासदी...................................................
भोपाल गैस कांड दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी थी। 02 दिसम्बर 1984 को भोपाल की आबादी पर यूनियन गैस कार्बाइड का कहर बरपा था। घोर लापरवाही के कारण भोपाल गैस काबाईड से मिथाइल आइसोसायनाइट गैस का रिसाव हुआ था। मिथाइल आइसोसायनाइट के रिसाव ने न सिर्फ फैक्टरी के आस-पास की आबादी को अपने चपेट मे लिया था बल्कि हवा के झोकों के साथ दूर-दूर तक निवास करने वाली आबादी तक अपना कहर फैलाया था। गैस रिसाव से सुरक्षा का इंतजाम तक नहीं था। दो दिन तक फैक्टरी से जहरीली गैसो का रिसाव होता रहा। फैक्टरी के अधिकारी गैस रिसाव को रोकने के इंतजाम करने की जगह खुद भाग खड़े हुए थे। गैस का रिसाव तो कई दिन पहले से ही हो रहा था। फैक्टरी के आसपास रहने वाली आबादी कई दिनों से बैचेनी महसूस कर रही थी। इतना ही नहीं बल्कि उल्टी और जलन जैसी बीमारी भी घातक तौर पर फैल चुकी थी। उदासीन और लापरवाह कम्पनी प्रबंधन ने इस तरह मिथाइल गैस आधारित बीमारी पर गौर ही नहीं किया था।
मिथाइल आइसोसायनाइट गैस की चपेट में आने से करीब 15 हजार लोगो की मौत हुई थी। पांच लाख से अधिक लोग घायल हुए थे। जहरीली गैस के चपेट में आने से प्रभावित सैकड़ो लोग बाद में मरे हैं। इतना ही नहीं बल्कि आज भी हजारों पीड़ित ऐसे हैं जो जहरीली गैस के प्रभाव से मुक्त नहीं है। भोपाल गैस कर्बाइड की आस-पास की भूमि जहरीली हो गयी है। पानी में मिथाइल गैस का प्रभाव गहरा है। सबसे बड़ी बात यह है कि भोपाल गैस कांड के बाद में जन्म लेने वाली पीढ़ी भी मिथाइल गैस के प्रभाव से पीड़ित हैं और उन्हें कई खतरनाक बीमारियां विरासत में मिली हैं।
म्ुाुआबजा के नाम पर धोखाधड़ी....................................................................................
म्ुाुआबजा के नाम पर धोखाधड़ी हुई है। इस धोखाधड़ी में भारत सरकार और मध्य प्रदेश के तत्कालीन सरकारों के हाथ कालें हैं। यूनियन कार्बाइड कम्पनी के साथ सुप्रीम कोर्ट की मध्यस्थतता में मुआबजा के लिए एक समझौता हुआ था। समझौते में एक तरह से भोपाल गैस कांड के पीड़ितों के साथ अन्याय ही नहीं हुआ था बल्कि उनके संघर्ष और भविष्य पर भी नकेल डाला गया था। जबकि यूनियन कार्बाइड को कानूनी उलझन से मुक्त कराने जैसी शर्त को माना गया था। शर्त के अनुसार यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन,यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड,यूनियन कार्बाइल हांगकांग और वारेन एडरसन के खिलाफ चल रही सभी अपराधिक न्यायिक प्रक्रिया को समाप्त मान लिया गया। इसके बदले में भोपाल गैस कांड के पीड़ितो को क्या मिला, यह भी देख लीजिए? 713 करोड़ रूपये मात्र मुआबजे के तौर पर यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन ने दिये थे। दुनिया की सबसे बड़ी औधोगिक त्रासदी और 15 हजार से ज्यादा जानें छीनने वाली व पांच लाख से ज्यादा की आबादी को पीड़ित करने वाली इस नरसंहारक घटना की मुआबजा मात्र 713 करोड़ रूपये। भारत सरकार की अतिरूचि और यूनियन गैस कार्बाइड कारपोरेशन के प्रति अतिरिक्त मोह ने गैस पीड़ितों के संभावनाओं का गल्ला घोट दिया। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस नरसंहारक घटना में सैकड़ों लोग ऐसे मारे गये थे जिनके पास न तो कोई रिहायशी प्रमाण थे और न ही नियमित पत्ते का पंजीकरण था। ऐसे गरीब हताहतों के साथ न्याय नहीं हुआ। उन्हें मुआबजा भी नहीं मिला। सरकारी कामकाज के झंझटों के कारण भी मुआबजा की राशि दुर्बल और असहाय लोगों तक नहीं पहुंची।
एडरसन को मिला सरकारी रक्षाकवच..........................................................................
यूनियन गैस कार्बाइड कारपोरेशन के मालिक वारेन एडरसन के साथ भारत सरकार का विशेषाधिकार जुड़ा हुआ था। पुलिस-प्रशासन और न्यायपालिका भी वारेन एडरसन के प्रति नरम रूख जताया था। पुलिस-प्रशासन, केन्द्र-मध्यप्रदेश की तत्कालीन सरकारें और न्यायपालिका का नरम रूख नहीं होता और पक्षकारी भूमिका नहीं होती तो क्या वारेन एडरसन भारत से भागने में सफल होता। ऐसे तथ्य हैं जिससे साफ झलकता है कि भारतीय सत्ता व्यवस्था एडरसन के हित को सुरक्षित रखने में कितना संलग्न था और पक्षकारी था। इतने बड़े नरसंहारक घटना के लिए मुख्य दोषी को रातोरात जमानत कैसे मिल जाती है? घटना के बाद पांच दिसम्बर 1984 को एडरसन भारत आया था। पुलिस उसे गिरफतार करती है पर एडरसन को जेल नहीं भेजा जाता है। गेस्ट हाउस में रखा जाता है। गैस हाउस से ही उसे जमानत मिल जाती है। इतना ही नहीं बल्कि भोपाल से दिल्ली आने के लिए भारत सरकार हवाई जहाज भेजती है। भारत सरकार के हवाईजहाज से एडरसन दिल्ली आता है और फिर अमेरिका भाग जाता है। अभी तक एडरसन अमेरिका में ही रह रहा है। ज्ञात तौर पर उसकी सक्रियता बनी हुई है। विभिन्न व्यापारिक और औद्योगिक योजनाओं में न केवल उसकी सक्रियता है बल्कि उसके पास मालिकाना हक भी है। इसके बाद सीबीआई वारेन एडरसन का पत्ता नहीं खोज पायी है। अभी तक वह भारतीय न्यायप्रकिया के तहत फरार ही है।
फैसले को न्यायिक त्रासदी दिया करार...................................
गैस पीड़ितों के लिए लडाई लड़ने वाले हरेक संगठन ने न्यायिक मजिस्ट्रेट के इस फैसले को न्यायिक त्रासदी करार दिया है। अव्दुल जबार कहते है कि पीड़ितों पर पहले औद्योगिक त्रासदी का नरसंहार हुआ और अब न्यायिक त्रासदी हुई है। जिम्मेवार और लापरवाह अभियुक्तों को फांसी मिलनी चाहिए थी लेकिन उन्हें मात्र दो-दो साल का जेल की सजा हुई है और एक-एक लाख का जुर्माना हुआ है। यह सजा कुछ भी नही है। क्या 15 हजार से ज्यादा गंवायी गयी जान और पांच लाख से ज्यादा हुए अपाहिज लोगों की पीड़ा को यह सजा कम कर पायेगी? इसका उत्तर कदापि में नहीं है। गैस पीडितों की नाराजगी समझी जा सकती है। गैस पीड़ित न्यायिक मजिस्ट्रेट के इस फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील करने का एलान कर चुके हैं। जहां से न्याय की उन्हें उम्मीद तो होगी पर संधर्ष भी कम नहीं होगा। सबसे अधिक चिंताजनक बात यह है कि न्यायिक मजिस्टेट के फैसले में मुख्य दोषी वारेन एडरसन पर कोई टिप्पणी नहीं है। एडरसन पर टिप्पणी न होना भी गैस पीड़ितों की पीड़ा और संधर्ष की राह मुश्किल करता है।

एडरसन को सजा क्यों न मिले..............................................
दुनिया में अन्य कोई जगह पर ऐसी नरसंहारक औद्योगिक त्रासदी हुई होती तो निश्चित मानिये की एडरसन इस तरह अबाधित और निश्चित होकर अपनी सक्रियता नहीं दिखा सकता था। उसकी जगह जेल होती। लेकिन भारत जैसे देश की सरकार जनता के प्रति नहीं बल्कि औद्योगिक घरानो के हित को साधने ज्याद तत्पर रहती है। भारत सरकार को अब अपनी सोच बदलनी चाहिए। भोपाल गैस कांड के पीड़ितों को न्याय मिलें। ऐसी सरकारी प्रक्रिया क्यों नहीं चलनी चाहिए? अमेरिका पर कूटनीतिक दबाव डालना चाहिए कि एडरसन को पकड़कर भारत को सौंपा जाये। अमेरिका भारत के साथ मधुर सबंधों की रट रोज लगाता है। लेकिन भोपाल गैस कांड के मुख्य आरोपी को उसने एक तरह से संरक्षण दिया हुआ है। हेडली का प्रकरण भी हमें नोट करने की जरूरत है। ऐसे में दोस्ती का क्या मतलब रह जाता है। भारत सरकार को खरी-खरी बात करनी होगी। अमेरिका से कहना होगा कि एडरसन भारतीय न्यायपालिका से फरार घोषित है। इसलिए उसकी जगह भारतीय जेल है। सीबीआई एडरसन पर तभी सक्रियता दिखा सकती है जब भारत सरकार ऐसी इच्छा रखेगी। क्या भारत सरकार एडरसन को भारत लाने के लिए कूटनीतिक पहल फिर से करेगी? शायद नहीं। ऐसी स्थिति में गैस पीड़तों की संघर्ष की राह और चौड़ी होगी।

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Friday, May 21, 2010

अफजल गुरू की फांसी, कानून व्यवस्था और तुष्टिकरण की सत्ता

कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण से लहूलुहान राष्ट्र की संप्रभुता




विष्णुगुप्त


विश्व में भारत एक मात्र ऐसा देश है जहां पर राष्ट्रहित-सुरक्षा पर तुष्टिकरण की राजनीति होती है। आतंकवाद जैसी आंच को बुझाने में भी वोट की राजनीति आड़े आती है। सत्ता ही नहीं बल्कि तथाकथित बुद्धीजीवी वर्ग भी देशद्रोहियों और आतंकवादियों के साथ खड़ा हो जाती है। अगर ऐसा नही ंतो फिर संसद हमले के दोषी अफजल गुरू की फांसी चार सालों से क्यों लटकी पड़ी हुई है। अफजल गुरू की फांसी पर क्या कांग्रेस तुष्टिकरण की राजनीतिक खेल खेल नहीं रही है? खासकर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने अफजल गुरू की फांसी पर कानून व्यवस्था का सवाल उठाकर रोड़ा डाल दिया है। शीला दीक्षित ने अफजल गुरू की फांसी पर उप राज्यपाल तेजेन्द्र खन्ना को भेजे अपनी सिफारिश में कहा कि फांसी देने से पहले कानून व्यवस्था की स्थिति का आकलन किया जाना चाहिए। शीला दीक्षित के सिफारिश के दो अर्थ निकलते हैं। एक अर्थ में अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने का समर्थन है तो दूसरे अर्थ में विरोध भी है। दूसरे अर्थ ने अपना कमाल दिखाया। इसका परिणाम देखिये। दिल्ली के उप राज्यपाल तेजेन्द्र खन्ना फांसी की फाइल को वापस भेजने के लिए मजबूर हुए। फिर वापस फांसी की फाइल शीला दीक्षित के पास आ गयी। अब शीला दीक्षित दुबारा कब फांसी की फाइल को उप राज्यपाल के पास भेजेगी, इस संबंध मे कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। ऐसे भी शीला दीक्षित के सामने कोई संवैधानिक मजबूरी भी नहीं है। दिल्ली और केन्द्र में दोनों जगह कांग्रेस की सरकार है। इसलिए शीला दीक्षित के सामने कोई राजनीतिक संकट भी सामने नहीं आयेगा। कांग्रेस प्रारंभ से ही अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने के प्रसंग पर ईमानदार नहीं रही है। तीखे आलोचनाओं और राजनीतिक विरोध के निशाने पर कांग्रेस के रहने के बाद भी अभी तक अफजल गुरू की फांसी स्थायी रूप से स्थगित होने की स्थिति में रखने का सीधा मकसद मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति है। कांग्रेस सत्ता नीति और मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति एक-दूसरे से गंभीरता के साथ जुड़ी हुई है। बाबरी मस्जिद के ढ़ाचे के ध्वस्तीकरण के बाद मुस्लिम जनमत कांग्रेस से अलग हो गया था। पिछले दो लोकसभा चुनावों में फिर से मुस्लिम जनमत कांग्रेस के साथ मजबूती के साथ जुड़ा। कांग्रेस को डर है कि अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने में उसका मुस्लिम समर्थन दूर हो जायेगा। अफजल गुरू संसद हमले का दोषी है और उसे देश का सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी की सजा दी है। राष्ट्रहित और राष्ट्र की सुरक्षा के मद्देनजर अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने में देरी नहीं होनी चाहिए। सबसे बड़ी बात तो यह है कि अफजल गुरू के फांसी पर लटकाने पर आतंकवादियों और उसके आका पाकिस्तान को एक कड़ा संदेश व सबक मिलेगा। भारत के नरम राष्ट्र होने की गलत फहमी भी टूटती।

अफजल गुरू की फांसी वाली फाइल चार सालों तक किस मकसद से कांग्रेस दबा कर रखी। क्या यह जानने का अधिकार देश की जनता को नहीं है। इंदिरा गाधी के हत्यारों का नजीर हमारे सामने मौजूद है। शीला दीक्षित जैसा ही तर्क दिया जा रहा था कि सिख हत्यारों को फांसी पर लटकाने से देश की संप्रभुता खतरे में होगी, सिख फिर से पाकिस्तान के मोहरे बनेंगे, पंजाब में आयी शांति दूर हो जायेगी, पंजाब में फिर से आतंकवाद चरम पर होगा। विदेशों में बसे सिखों की धममियां अलग से थीं। इन सभी अशांकाओं से अलग हटकर इंदिरा गांधी के हत्यारों को फांसी दी गयी। कहीं से भी राष्ट्र की संप्रभुता पर कोई आंच नहीं आयी। इसी तरह अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने पर शीला दीक्षत की चिंताएं कोई पहाड़ नहीं तोड़ पायेगी। कश्मीर जैसे जगहों पर कुछ विरोध चिंगारियां जरूर फुटेंगी। वहां पर ऐसे भी शांति कब रही है। देश के सभी भागों से मुस्लिम संवर्ग इस सवाल से आंदोलित होगा, ऐसा भी नहीं है।
चार साल बनाम 16 रिमाइंडर -

अफजल गुरू की फांसी की फाइल चार सालों तक दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की अलमारियों की धूल फांकती रही। चार साल पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने संसद हमले में अफजल गुरू को फांसी की सजा सुनायी थी। जिस समय सुप्रीम कोर्ट ने अफजल गुरू को फांसी की सजा सुनायी थी उस समय भी अफजल गुरू देश की संप्रभुता के खिलाफ सरेआम आग उगला था। संसद हमले में अफजग गुरू के साथ ही साथ दिल्ली के एक कश्मीरी मूल के प्राध्यापक की भी संलिप्तता थी पर पुलिस की लचर जांच व्यवस्था का लाभ उसे मिला था। सुप्रीम कोर्ट ने उस प्राध्यापक को तो बरी किया था पर यह भी कहा था कि उस प्राध्यापक की भूमिका संदिग्ध जरूर थी। संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार अफजल गुरू ने फांसी की सजा पर माफी की मांग राष्ट्रपति से की थी। राष्ट्रपति ने केन्द्र सरकार से अफजल गुरू की फांसी पर राय मांगी। केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने दिल्ली सरकार को फांसी वाली फाइल भेजी। फांसी की फाइल पर शीला दीक्षित कुंडली मार कर बैठ गयी। कोई एक दो दिन नहीं बल्कि पूरे चार सालों तक वह फाइल को दबाये बैठी। इस दौरान गृहमंत्रालय ने 16 बार रिमाइंडर भेजी। 16 रिमाइंडरों पर शीला दीक्षित ने फांसी वाली फाइल दबाये जाने का कोई कारण नहीं बतायी। शीला दीक्षित की सिफारिश के कुछ दिन पूर्व ही केन्द्रीय गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने इस पर नाखुशी जतायी थी। इस नाखुशी पर स्वयं शीला दीक्षित ने केन्द्रीय गृहमंत्री पी चिदम्बरम से मुलाकात की थी। जाहिर तौर पर पी चिदम्बरम ने शीला दीक्षित को फांसी की फाइल की सक्रियता बढ़ाने का निर्णायक सलाह दी होगी। शीला दीक्षित मजबूरी में फांसी वाली फाइल उप राज्य पाल को भेजी। यह राजनीतिक तौर पर प्रमाणित बात है।

कानूनी अड़चनों से घबरायी सरकार-

कानूनी प्रावधानों का भी सवाल उठ खड़ा था। खासकर केन्द्रीय गृहमंत्रालय की परेशानी इस प्रसंग पर बढ़ी थी। विपक्षी दल भाजपा की बौखलाहट भी कम नहीं थी। भाजपा लोकसभा और राज्य सभा में कई बार तीखे प्रश्न उठा कर अफजल गुरू पर मुस्लिम तुष्टिकारण का कार्ड खेलने का आरोप लगायी थी। राष्ट्रपति जैसे गरिमापूर्ण पद पर लांछन लग रहा था। सुप्रीम कोर्ट मे भी अफजल गुरू की फांसी पर दया की मांग का प्रसंग जा सकता था। आखिर कितने दिनों तक कोई सरकार अपने सत्ता नीति और स्वार्थ में एक राष्ट्रद्रोही और आतंकवादी को फांसी पर चढ़ाने से रोक सकती है। कानून और संविधान में समयबद्धता का बंधन नहीं है पर सर्वोच्च न्यायालय का संविधान पीठ इस प्रसंग पर नयी व्याख्या दे सकती है। कई ऐसे मामले पहले भी आये जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने नयी व्यवस्था दी है। अगर यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में जाता तो यूपीए सरकार की फजीहत होती और उस पर मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति अपनाने जैसे आरोप लगते। ऐसी स्थिति से बचने के लिए ही कांग्रेस ने अफजल गुरू की फांसी वाली फाइल को सक्रिय करने के लिए तैयार हुई है। यह सही माना जाना चाहिए कि शीला दीक्षित ने जो कानून व्यवस्था का अड़चन डाला है वह भी कांग्रेस की एक सोची समझी नीति का हिस्सा है। ऐसा इसलिए कि कांग्रेस को अफजल की फांसी को अधर में लटकाने का और समय मिल जायेगा।

इंदिरा गांधी के हत्यारों की फांसी एक नजीर-

इंदिरा गाधी के हत्यारों का नजीर हमारे सामने मौजूद है। इंदिरा गांधी के हत्यारों को फांसी देने के समय भी कानून व्यवस्था का सवाल उठा था। सिख हत्यारों को फांसी पर लटकाने का देश भर में विरोध हुआ था। शीला दीक्षित जैसा ही तर्क दिया जा रहा था कि सिख हत्यारों को फांसी पर लटकाने से देश की संप्रभुता खतरे में होगी, सिख फिर से पाकिस्तान के मोहरे बनेंगे, पंजाब में आयी शांति दूर हो जायेगी, पंजाब में फिर से आतंकवाद चरम पर होगा। इत्यादि-इत्यादि। विदेशों में बसे सिखों की धममियां अलग से थीं। राजनीतिक बहादुरी दिखायी गयीं। इन सभी अशांकाओं से अलग हटकर इंदिरा गांधी के हत्यारों को फांसी दी गयी। कहीं से भी राष्ट्र की संप्रभुता पर कोई आंच नहीं आयी। संदेश गहरे थे और सबके कड़े थे। इस गहरे संदेश और सबक को सिख समाज ने सकारात्मक रूप से लिया। सिख समाज ने खुद आतंकवाद से लड़ने का काम किया। सिख समाज की बहादुरी से आज पंजाब फिर से देश का सिरमौर है। इसी तरह अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने पर शीला दीक्षत की चिंताएं कोई पहाड़ नहीं तोड़ पायेगी। कश्मीर जैसे जगहों पर कुछ विरोध चिंगारियां जरूर फुटेंगी। वहां पर ऐसे भी शांति कब रही है। देश के सभी भागों से मुस्लिम संवर्ग इस सवाल से आंदोलित होगा, ऐसा भी नहीं है।

कड़े सबक-संदेश की जरूरत

भारत की छवि एक नरम राष्ट्र की है। पाकिस्तान और आतंकवादी यह समझते हैं कि भारत एक कायर और डरपोक राष्ट्र है। भारत सिर्फ बयानों और कागजों में ही वीरता दिखा सकता है। इस छवि छुटकारा पाना निहायत ही जरूरी है। हमने विगत मे आतंकवादियो को छोड़कर और उनसे समझौते कर एक राष्ट्र की सबलता-जीवंतता पर कुल्हाड़ी मारी है। खूखांर आतंकवादियों को काबूल ले जाकर छोड़ना हमारे राष्ट्र के उपर एक कंलक के समान है। इसीलिए हम आतंकवाद का आसान शिकार है और हमारी संप्रभुता लहूलुहान भी है। आतंक के बल पर कश्मीर छीनने की कोशिश जारी है। आतंकवादी यह मान बैठे हैं कि भारत की राजनीतिक स्थितियां और कमजोर कानून से उनका कुछ भी नहीं बिगड़ सकता है। आतंकवादियों के आका पाकिस्तान भी कुछ ऐसे दिलासे और आश्वासन आतंकवादियों को देता रहा है। अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने से आतंकवादियों के बीच डर कायम होगा। भारत के खिलाफ अघोषित युद्ध और खूनी राजनीति पर अंकुश लगेगा। सही यह भी है कि हमें अपने घर के तथाकथित बुद्धीजीवियों का प्रबंधन करना होगा। देश का तथाकथित बुद्धीजीवी संवर्ग हमेशा राष्ट्रहित की कीमत परहित की फसल लहलहहाते हैं। आतंकवाद का समर्थन करने में भी इन्हें गुरेज नहीं होता। देश में आतंकवाद और पाकिस्तान समर्थक बुद्धीजीवियों की एक बड़ी फौज खड़ी हो गयी। बुद्धीजीवियों की इस फौज को उर्जा कहां से मिलती है। सिगरेट कहां से मिलती है? कीमती गाड़िया, जीन्स और पंचसितारा सुविधाएं कहां से मिलती हैं। अब इस पर भी गौर करना होगा। क्या कांग्रेस अफजल गुरू को फांसी पर लटकायेगी? असली सवाल यही है। कांग्रेस और यूपीए सरकार को इस प्रसंग में दबाव बनाने के लिए जनमत की सक्रियता की जरूरत होगी।


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Wednesday, May 5, 2010

प्रेमी प्रियभांषु को सजा कौन दिलायेगा?

राष्ट्र-चिंतन



प्रेमी प्रियभांषु को सजा कौन दिलायेगा?

ऑनर किलिंग से बच सकती थी महिला पत्रकार निरूपमा


विष्णुगुप्त


सिर्फ प्रियभांषु को मालूम था कि निरूपमा ऑनर किलिंग का ग्रास बनने जा रही है। क्या उसने निरूपमा की जान बचाने के लिए पुलिस और हाईकोर्ट में गुहार लगायी ? वह चुपचाप निरूपमा को ऑनर किलिंग के ग्रास में जाते देखता रहा।   कब चिल्लाया? वह महिला आयोग और पत्रकार संगठनों का दरवाजा कब खट-खटकाया? मीडिया में अपनी खतरनाक प्रेम कहानी कब खोली? जब निरूपमा की हत्या हो चुकी थी। निरूपमा के परिजनों को सजा हो ही जायेगी पर निरूपमा की जान वापस आयेगी क्या? विवाह पूर्व असुरक्षित-खतरनाक यौन संबंध का ी दोषी है प्रियभांषु।

ऑनर किलिंग से महिला पत्रकार निरूपमा बच सकती थी। निरूपमा पाठक और प्रियभांषु रंजन की खतरनाक, असुरक्षित, लापरवाह और गैरजिम्मवार प्रेम कहानी के कई ऐसे पत्रडाव थे जहां पर दिल नहीं दिमाग और नैतिकता सक्रिय होती तो ऑनर किलिंग की नौबत आती नहीं या फिर ऑनर किलिंग के रास्ते अपनाने से पहले ही उसके परिजनों को कानून का पाठ पत्रढाया जा सकता था। परिजनों के चुंगुल से निरूपमा मुक्त ी हो सकती थी। खतरनाक, असुरक्षित, लापरवाह, गैरजिम्मेदार और नैतिकहीन प्रेम कहानी की संज्ञा देने में यहां कोई पूर्वाग्रह नहीं है बल्कि यर्थाथ है, सच्चाई है। इस सच्चाई और यथार्थ में निरूपमा के प्रेमी पत्रकार प्रियभांषु ी कहीं न कहीं दोषी के रूप में खत्रडा है। हालांकि अ ी तक सच्चाई और यथार्थ के दृष्टिकोण से प्रेमी प्रिय ाषु रंजन ी दोषी है, मीडिया या अन्य चिंतक वर्ग ने ंिचंतन ही नहीं किया है। जबकि पूरे तथ्य इस प्रकरण में सूक्षमता और गहणता के साथ चिंतन की माग जरूर करता है। क्या महिला पत्रकार निरूपमा गर् वती नहीं थी। उसके गर् में एक-दो नहीं बल्कि चार माह से अधिक का शिशु पल रहा था। यह गर् जाहिरतौर पर असुरक्षित यौन संबध का परिणाम था। क्या नैतिकता शादी के पूर्व असुरक्षित यौन संबंध की इजाजत देती है?प्रियभांषु रंजन यह कहकर इस दोष से बच नहीं सकते हैं कि वह अज्ञानी था, मजदूर या अन्य अशिक्षित वर्ग का प्रतिनिधित्व करता था। प्रियभांषु रंजन देश का सबसे बत्रडी समाचार एजेन्सी में पत्रकार है। इसलिए वह समाज का सबसे बत्रडा जागरूक वर्ग से जुत्रडा हुआ है। रेडियो, टेलीविजन और अखबारों में असुरक्षित यौन संबंधों से संबंधित विज्ञापन और उसके परिणामों की चेतावनी सालों-साल से जारी है। यहां तक कि दीवार और होल्डिंगों पर ी ी यह चेतावनी नियमित प्रसारित होती है,अंकित होती है। क्या ऐसे विज्ञापन और चेतावनी एक पत्रकार के लिए कोई मायने नहीं रख्ता है तब हम समाज के अन्य कम जागरूक वर्ग से उम्मीद क्या कर सकते हैं? चार माह के गर् के बाद ी शादी का विकल्प क्यों नहीं चुना गया। यह कह देने मात्र से कि वह दोष से बरी नहीं हो सकता है कि निरूपमा के परिजन तैयार नहीं थे। कोर्ट मैरेज का विकल्प क्यो नहीं चुना गया। निरूपमा की जान खतरे में थी और वह धीरे-धीरे ऑनरकिलिंग की परिस्थितियों से धिर रही थी तब पुलिस और न्यायालय सहित मीडिया संस्थानों की सहायता क्यों नहीं ली गयी। पुलिस, न्यायालय और मीडिया संस्थानों के हस्तक्षेप से ऑनर किलिंग से निरूपमा बच सकती थी और वापस दिल्ली आ सकती थी।

निरूपमा अब इस दुनिया में नहीं है। इसलिए उसके प्रति प्रियभांषु कितना समर्पित था और ईमानादार था, इसे भी शक की निगाह से देखी जानी चाहिए। कही प्रियभांषु निरूपमा के साथ दोहरा खेल तो नहीं खेल रहा था। मोहरे से मोहरे लडाने में तो वह नहीं लगा था। निरूपमा के गर् को वह उसके घर वालों के माध्यम से ही निपटाना चाहता था क्या? क्योंकि गर् का प्रश्न हल हो जाने के बाद प्रियभांषु शादी के झमेले में पडने से ी बच सकता था। अगर ऐसी धारणा सही हो सकती है तो निरूपमा अपने परिजनों के साथ ही साथ अपने प्रेमी प्रियभांषु की भी साजिश का शिकार हुई है?



सिर्फ प्रियभांषु को मालूम था कि निरूपमा ऑनर किलिंग का ग्रास बनने जा रही है। क्या उसने निरूपमा की जान बचाने के लिए पुलिस और हाईकोर्ट में गुहार लगायी ? वह चुपचाप निरूपमा को ऑनर किलिंग के ग्रास में जाते देखता रहा। प्रियभांषु कब चिल्लाया? वह महिला आयोग और पत्रकार संगठनों का दरवाजा कब खट-खटकाया? मीडिया में अपनी खतरनाक प्रेम कहानी कब खोली? जब निरूपमा की हत्या हो चुकी थी। निरूपमा के परिजनों को सजा हो ही जायेगी पर निरूपमा की जान वापस आयेगी क्या? विवाह पूर्व असुरक्षित-खतरनाक यौन संबंध का ी दोषी है प्रियभांषु।


प्रेमी प्रियभांषु रंजन पर एक और गं ीर लापरवाही सामने आती है। प्रियभांषु के शब्दों में निरूपमा पाठक के परिजन किसी ी परिस्थिति में शादी नहीं होने देने के लिए कटिबद्ध थे। इसके लिए निरूपमा के परिजन प्यार, लोकलाज से लेकर इज्जत का ी हवाला देकर निरूपमा को प्रियभांषु से अलग करने की कोशिश हुई थी। निरूपमा पर उसके परिजनों ने कठोरता ी बरती थी।प्रियभांषु रंजन की ये स ी बातें सही हैं। ऐसी प्रक्रिया चली होगी। ऑनर किलिंग से पहले निरूपमा के परिजन ये स ी हथकंडे जरूर अपनाये होंगे। जो परिवार और जो घराना ऑनर किलिंग कर सकता है वह परिवार और घराना उसके पहले अपनी इज्जत का हवाला देकर कुछ ी कर सकता है। पिता द्वारा निरूपमा पाठक को लिखी गयी चिट्ठी ी इसकी गवाही देती है। यह सब यहां यह जताने के लिए तथ्य और ऑनर किलिंग की स्थितियां बतायी जा रही है ताकि यह स्पष्ट हो सके कि निरूपमा खतरे से घिरी हुई थी। खतरा उसके परिजनों से ही था। यह ी ज्ञात हुआ है कि वह कई महीनों से घर नहीं गयी थी। इस खतरे को देखते हुए ी निरूपमा अपने मां-पिता से मिलने झारखंड की कोडरमा शहर अपने घर गयी और जाने दिया गया। आम समझ यह है कि जब निरूपमा पर खतरा था वह ी ऑनर किलिंग की स्थितियां उत्पन्न होने या फिर उसके ग्रास बनाये जाने की तब निरूपमा को दिल्ली से कडोरमा जाने ही क्यों दिया गया। तर्क यह दिया जा रहा है कि उसकी मां ने अपनी बीमारी की झूठी खबर देकर बुलायी थी। यह तो पहले से ही स्पष्ट था कि उसके परिजन किसी ी खतरनाक और लोमहर्षक प्रक्रिया को अपना सकते हैं। ऐसी स्थिति में प्रिय ांषु रंजन को निरूपमा को कोडरमा जाने से रोकना चाहिए था। यह ी स्पष्ट हुआ है कि निरूपमा के प्रिय ाषु के साथ प्यार और शादी के लिए जिद करने की जानकारी परिजनों को थी पर वह चार महीने की गर् वती थी यह जानकारी निरूपमा के घर आने पर ही उसके परिजनो को हुई होगी। गांवों और कस्बायी महिलाओं को एक-दो दिन के गर् के लकक्षण ी पता चल जाता है। वह तो चार माह की गर् वती थी।

निरूपमा ऑनर किलिंग की ग्रास बनने की ओर अग्रसर हो रही है। ऐसी जानकारियां निरूपमा अपने प्रेमी प्रियभांषु रंजन को देती रही थी। एसएमएस और मोबाइल कॉल के द्वारा। टेलीविजनों और प्रिंट मीडिया में ी निरूपमा द्वारा प्रिय ांषु रंजन को ेजे गये एसएमएस दिखाया गया। एसएमएस में निरूपमा लिखती है कि कोई एक्सटीम एक्शन मत लेना। यानी निरूपमा को अपनी हत्या की आशंका ही नहीं बल्कि पूरा विश्वास हो गया था। वह जान रही थी कि अब उसका बचना मुश्किल है। उसके ाई और ाई के दोस्त उस पर नजर रखे हुए थे। मां और पिता वापस दिल्ली आने देने के लिए किसी ी परिस्थिति में तैयार नहीं थे। जबकि निरूपमा दिल्ली आना चाहती थी और अपना कैरियर जारी रखना चाहती थी। ऐसी सूचना मिलने पर तत्काल उसे सहायता की जरूरत थी। पर निरूपमा को सहायता मिली नहीं। निरूपमा की जान खतरे में है यह जानकारी सिर्फ और सिर्फ प्रियभांषु रंजन को थी। प्रियभांषु ने निरूपमा को सुरक्षा दिलाने और उसकी जान बचाने की कोई कार्रवाई नहीं की। प्रियभांषु रंजन झा रंजनरखंड ओर कोडरमा पुलिस से निरूपमा की जान बचाने की गुहार लगा सकता था। प्रत्रकार संगठनों को एक महिला पत्रकार की जान बचाने के लिए तत्काल मुहिम शुरू करने के लिए कह सकता था। इसके अलावा वह हाईकोर्ट जैसे जगह पर प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर कर निरूपमा को उसके परिजनों के चंगुल से मुक्त कराने का सफलतम प्रयास कर सकता था। क्या प्रियभांषु ने निरूपमा की जान बचाने के लिए पुलिस और हाईकोर्ट में गुहार लगायी? वह चुपचाप निरूपमा को ऑनर किलिंग के ग्रास में जाते देखता रहा। ऐसा मानो उसका निरूपमा से कोई वास्ता ही नहीं था।

प्रियभांषु कब चिल्लाया? वह महिला आयोग और पत्रकार संगठनों का दरवाजा कब खट-खटकाया? मीडिया कब अपनी खतरनाक प्रेम कहानी कब खोली? जब निरूपमा की हत्या हो चुकी थी। जब निरूपमा इस दुनिया में रही नहीं। ऐसी मुहिम का अब निरूपमा के लिए क्या मतलब? निरूपमा के परिजनों को सजा हो ही जायेगी पर निरूपमा की जान वापस आयेगी क्या? यह लापरवाही प्रियभांषु जान कर की है या अनजाने में। इस तथ्य का पता लगाना मुश्किल है। पर उसने खतरनाक त्रढग से लापरवाही बरती ही है।

जब घर वाले शादी के लिए राजी नहीं थे तब दोनों के पास कोर्ट मैरेज का विकल्प खुला था। हमारे जैसे अनेक लोगों का इस प्रकरण में राय यही बनी है कि अगर प्रियभांषु ने निरूपमा के साथ कोर्ट मैरेज कर लिया होता तो शायद यह हत्या नहीं होती। दिल्ली में आकर हत्या करने के लिए निरूपमा के परिजन सौ बार सोचते। ज्यादा से ज्यादा परिजन निरूपमा से नाता तोत्रड लेते। कई ऐसे उदाहरण सामने हैं जिसमें परिजनों के खिलाफ जाकर कोर्ट मैरिज हुई है और परिजनों से सुरक्षा के लिए कोर्ट ी खत्रडा हुआ है। अंतरजातीय ही नहीं बल्कि अंतधार्मिक शादियां धत्रडडले के साथ हो रही हैं और न्यायालय-प्रशासन सुरक्षा कवज के रूप में खत्रडा है। यह एक संवैधानिक जिम्मेदारी ी है।निरूपमा और प्रियभांषु दोनो वर्किग पत्रकार थे। दोनों अपने पैरों पर खत्रडे थे। इसके बाद ी यह विकल्प नहीं चुना जाना हैरतअंग्रेज बात है। जबकि दोनों के बीच 2007 से ही असुरक्षित प्रेम संबंध थे।

ऑनर किलिंग जैसी धटनाओ के लिए ारतीय समाज की विंसगतियां जिम्मेवार रही है। जातीय आधारित ारतीय समाज आज ी अपने को बदलने के लिए तैयार नहीं है। निरूपमा प्रकरण अकेली घटना नहीं है। अ ी हाल ही में न्यायालय ने हरियाणा में ऑनर किलिंग पर कत्रडी सजा सुनायी है। निरूपमा के हत्यारे परिजनों को कत्रडी सजा मिलनी चाहिए। इसके लिए पत्रकार संगठनों की सक्रियता जरूरी है। पत्रकार संगठनों और मीडिया ने निरूपमा को न्याय दिलाने के लिए सुर्खियां पर सुर्खियां बना रही है। इसी का परिणाम हुआ कि निरूपमा की मां जेल के अंदर हुई और उसके अन्य परिजन ी जेल जाने की प्रक्रिया में खत्रडे है। निरूपमा प्रकरण से ऑनर किलिंग मानसिकता को सबक मिलना चाहिए। पर हमें लापरवाह, गैर जिम्मेदार, असुरक्षित-खतरनाक यौन संबंध पर ी गौर करना चाहिए। लापरवाह, गैर जिम्मेदार, असुरक्षित-खतरनाक यौन संबंधों की प्रेम कहानी ने निरूपमा को मौत के मुंह में धकेला है और इसके लिए उसके प्रेमी प्रियभांषु रंजन ी जिम्मेदार है। इस गैर जिम्मेदार, लापरवाह, असुरक्षित और खतरनाक यौन संबंध की सजा क्या प्रियभांषु रंजन को मिलेगी।



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Saturday, May 1, 2010

ललित मोदी क्यों बने बलि का बकरा?

ललित मोदी क्यों बने बलि का बकरा?
विष्णुगुप्त

सरकार की एजेंसियां अगर चाकचौबंद,निष्पक्ष-दबावहीन जांच करें तो बड़े-बडे राजनीतिज्ञ, अधिकारी और उझोगपतियो की जगह जेलों में होगी। ललित मोदी को आनन-फानन में इसलिए चलता किया गया ताकि काली और बेनामी संपतियों के उजागर होने से बचाया जा सके और बीसीसीआई के खिलाफ उठा राजनीतिक तूफान को शांत किया जा सके। बीसीसीआई ने एक तरह से देश में सामानंतर सत्ता व्यवस्था कायम कर रखी थी।यह भी छानबीन करना होगा कि फ्रैचायजी टीमों में लगी संपत्तियां कहीं राष्ट्रविरोधी तो नहीं हैं?े बीसीसीआई-आईपीएल का पूरा तंत्र अलोकतांत्रिक और फर्जीवाड़ा से जकड़ा हुआ है।
                     आईपीएल के कमिशनर ललित मोदी दोषी हैं या नहीं? उस स्थिति में जब ललित मोदी अपने बयानों मे बार-बार दोहरा रहे हैं कि अब तक जितने फैसले हुए हैं वे सभी सामूहिम जिम्मेदारी के तहत ही लिये गये हैं और आईपीएल गवर्निंग बोर्ड की स्वीकृति उनके पास है। ललित मोदी कितना सच बोल रहे है-कितना झूठ बोल रहे है? इस पर तत्काल कुछ भी कहना संभव नहीं है। पर सच यह है कि ललित मोदी को जिस तरह से आनन-फानन में निलम्बित किया गया उसके निहितार्थ गंभीर है और बीसीसीआई की नीयत पर प्रश्न चिन्ह खड़ा होता है। बीसीसीआर्इ्र न सिर्फ लीपापोती के माध्सम से उठा तूफान को शांत करने के फिराक में है बल्कि बड़े खेलबाजों को बचाने की नीतियां बुन रही है। यह जाहिर हो चुका है कि फ्रैचायजी टीमों के शेयरों में बड़े-बड़े घोटाले हुए हैं, बेनामी सम्पतियां लगी हुई है और वे सम्पतियां राष्ट्रविरोधी भी हो सकती है? बीसीसीआई से जुड़े अधिकारियों और नेताओं की भी ब्लैकमनी फ्रैचायजी टीमो में लगी हुई है। नेताओं और अध्किारियों के पजिजनों की पहले शेयरों से सबंधित इनकार की सफाई और उसके बाद चुप्पी साध लेने पर शक की सुई और नुकुली हुई है। बीसीसीआई अब तक क्रिकेट के विकास के नाम पर आयकर, सर्विस टैक्स सहित अन्य करो का लाभ उठाता रहा है। क्रिकेट के विकास के नाम पर बीसीसीआई के खेलबाज अपनी-अपनी झोलियां ही भरी हैं। क्रिकेट गुलामीकाल की देन है और देशी खेलों के विकास पर कील। सरकार के पास अवसर है। सरकार बीसीसीआई की पूरी अनियमिताएं और फर्जीबाड़ा को सामने लाये और देश के कानूनो के घेरे में बीसीसीआई-आईपीएल की पूरी सक्रियता रहे। सरकार की एजेसिंया बड़े खेलबाजो की गर्दन मरोड़ सकेंगी? असली सवाल यही है?
              बीसीसीआई-आईपीएल को सामानंतर सत्ता व्यवस्था बनाने की पूरी छूट मिली ही क्यों? क्या यूपीए-मनमोहन सिंह सरकार ने बीसीसीआई-आईपीएल को देश के कानूनाों से खेलने और राष्ट्रवाद की भावना को दफन बरने की छूट नहीं दी थी। क्या बीसीसीआई-आईपीएल ने देश में एक तरह से सामानंतर सत्ता व्यवस्था कायम नहीं कर रखी थी। बीसीसीआई ने यह नहीं कहा था कि खिलाड़ी भारत के लिए नही बल्कि बीसीसीआई के लिए खेलते है? क्या पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान भारत सरकार के सुरक्षा मुहैया कराने पर मना करने पर आईपीएल-2 को दक्षिण अफ्रीका नहीं ले जाया गया था। आईपीएल-2 को दक्षिण अफ्रीका ले जाने का अर्थ भारत सरकार को आईना दिखाना था। यह भी अहसास करना था कि हम भारत सरकार के दया पर निर्भर नहीं है। सार्वजनिक जगहो पर धूम्रपान करना मना है। इसके अलावा सार्वजनिक जगहों पर अश्लीलता फैलना भी कानूनी तौर पर अपराध है। आईपीएल मैचों के दौरान स्टेडियमो में खुलकर शराब बेची गयी। चीयर्स रीडरों ने अश्लीलता आधारित कानूनों को धजियां उड़ाने की कोई कसर नहीं छोड़ी। स्टेडियमों में सरेआम शराब परोसने और चीयर्स रीडरों के अश्लील नाच से देश भर में आक्रोश पनपा था। पर बीसीसीआई-आईपीएल ने भारतीय कानूनों की धजियां उड़ाने से बाज नहीं आयी और न ही सरकार ने बीसीसीआई-आईपीएल को ऐसा करने से रोका। ऐसे में बीसीसीआई-आईपीएल को ममनर्जी फैलाने और अराजक होने में प्रोत्साहन ही मिला।
                बीसीसीआई और आईपीएल का पूरा तंत्र अलोकतांत्रिक और फर्जी बाड़ा पर निर्भर है। आईपीएल चैयरमैन ललित मोदी का निलंबन का प्रश्न भी कम गंभीर नहीं है? जाहिरतौर पर ललित मोदी पर पहले इस्तीफा देने का दबाव बनाया गया। ललित मोदी के इस्तीफा नहीं देने पर सीधेतौर पर उन्हें निलम्बित कर दिया गया। जबकि ललित मोदी को निलम्बन के पहले नोटिस दिया जाना चाहिए था। नोटिस दिया नहीं गया। खुद ललित मोदी ने अपने उपर अलिखित तौर पर उठाये गये आरोपों के जबाव के लिए पांच दिन का समय मांगा था। वे आईपीएल के गवर्निंग बोर्ड की बैठक में हिस्सा लेने के लिए तैयार थे। आईपीएल के चैयरमैन की हैसियत से ललित मोदी ने बैठक का एजेन्डा भी जारी कर दिया था। आधी रात में ही बिना कोई बैठक किये ही निलम्बन का ईमेल भेज दिया गया। अब यहां सवाल यह उठता है कि आईपीएल की गवर्निंग बोर्ड की बैठक में मोदी को हिस्सा लेने से क्यो रोका गया? बीसीसीआई और अन्य आईपीएल बोर्ड के सदस्यों की परेशानी क्या थी। जबकि फ्रैचायजी टीमें सीधे तौर पर मोदी के समर्थन में थी। जाहिरतौर पर मोदी अगर आईपीएल गवर्निंग बोर्ड की बैठक में होते तो अपने उपर लगे आरोपों का जवाब दे सकते थे और सबकी पोल खोल कर रख सकते थे। ऐसी स्थिति में बीसीसीआई की और बदनामी होती।
                                 बीसीसीआई के अध्यक्ष शंशाक मनोहर का एक बयान काफी कुछ कह देता है। शंशाक मनोहर ने अपने एक बयान में कहा कि ललित मोदी ने शशि थरूर के शेयरों की बात उजागर कर गलती की है और आईपीएल के नियमों को तोड़ा है। शशि थरूर की अप्रत्यक्ष हिस्सेदारी की बात उजागर होने के बाद ही आईपीएल के खिलाफ देश की राजनीति में उफान उठा था और शथि थरूर को मंत्री पर गंवानी पड़ी थी। विदेश राज्य मंत्री जैसे जिम्मेवार पद पर रहने के बावजूद शशि थरूर द्वारा ललित मोदी पर दबाव डालना एक बड़ा अपराध था। अगर ललित मोदी चुप बैठ गये होते तो शायद आईपीएल के अंदर खाने में क्या कुछ हो रहा है यह बात भी सामने नहीं आती। शंशाक मनोहर के उक्त बयान का सीधा अर्थ यह है कि ललित मोदी ने शशि थरूर के कोच्चि टीम में अप्रत्यक्ष हिस्सेदारी का प्रश्न उठाकर बीसीसीआई को संकट में डाला है। इसलिए ललित मोदी दंड के अधिकारी हैं।
                   बीसीसीआई पर कब्जा किये लोगों पर आप एक नजर डाल लीजिये। शरद पवार जैसे राजनीतिज्ञ के कब्जे में पूरी तरह से बीसीसीआई है। शरद पवार ने अपनी राजनीतिक ताकत और फर्जीबाड़ा कर जगमोहन डालमिया से बीसीसीआई को कब्जे में लिया था। जगमोहन डालमियां ही वह शख्त थे जिन्होंने बीसीसीआई को मालोमाल किया। इतना ही नहीं बल्कि डालमिया ने क्र्रिकेट पर अग्रेजों के प्रभाव को महत्वहीन किया था। शरद पवार ने बीसीसीआई को अपने अनुसार जमकर नचाया और बाजारू बनाया। शरद पवार ने अपना टर्म पूरा होने पर बीसीसीआई को अपने लट्टु शंशाक मनोहर को सौंप दिया। शंशाक मनोहर पूरी तरह से शरद पवार के छत्रछाया में बीसीसीआई को संचालित कर रहे हैं। आईपीएल के गड़बड़ झाला में शरद पवार भी दूध को धोये हुए नहीं हैं। शरद पवार की बेटी सुप्रीया के पति पर आईपीएल की एक फ्रैचायजी टीम के शेयर होने के आरोप हैं। शरद पवार की पार्टी के मंत्री प्रफुल्ल पटेल पहले ही आईपीएल विवाद में फंस चुके हैं। प्रफुल्ल पटेल की बेटी पूर्णा पटेल ने अपने पिता के मंत्री पद का नाजायत लाभ उठाया है और अधिकारों का दुरूप्रयोग किया है।
ललित मोदी को आनन-फानन में इसलिए चलता किया गया ताकि बड़े खेलबाजों को बचाया जा सके। बड़े खेलबाज राजनीतिज्ञों, उघोगपतियों और अधिकारियों के कालेधन के उजागर होने से बचाया जा सके। शशि थरूर प्रकरण उठने के बाद आये राजनीतिक तूफान ने मनमोहन सरकार को घेरा। जन दबाव में आकर मनमोहन सिंह सरकार सक्रिय हुईं। सरकार की विभिन्न एजेसिंयों से जांच कराने की सक्रियता भी बढ़ी। आयकर विभाग, पर्वतन निदेशालय के साथ ही साथ गृह मंत्रालय की आईपीएल घोटाले की जांच कर रहा है। संसद में आईपीएल घपलेबाजी की पूरी तह खोलने की वायदा भी मनमोहन सरकार कर चुकी है। प्रारंभिक जांच में यह साबित हो चुका है कि आयकर की चोरी हुई है। सर्विस टैक्स सहित अन्य टैक्सों पर अनियमितता बरती गयी है। खिलाडियों के शर्तनामे भी विवादास्पद हैं। ललित मोदी के निलम्बन मात्र से मनमोहन सरकार को संतुष्ट नहीं होना चाहिए बल्कि बीसीसीआई और आईपीएल की फ्रैचायजी टीमों के बैनामी हिस्सेदारी और लगी ब्लैकमनी को उजागर करना चाहिए। यह भी छानबीन करना होगा कि फ्रैचायजी टीमों में लगी संपत्तियां कहीं राष्ट्रविरोधी तो नहीं हैं?े

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Wednesday, April 21, 2010

शशि थरूरो का यही हस्र होना चाहिए

शशि थरूरो का यही हस्र होना चाहिए

विष्णुगुप्त



शशि थारूर जैसी फैशनपरस्त, जनविरोधी और परसंप्रभुता को साधने वाली शख्सियत रातोरात राजनीति में स्टार क्यों बन जाते हैं। भारतीय राजनीति में फैशनपरस्त, अपराधी, चमचो और परहित साधने वालों की भूमिका बढ़ती जा रही है। जनता की बात करने की जगह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों सहित परसंप्रभुता की पक्षधारी राजनेताओं से संसद और विधान सभाएं भरी पड़ी है। कभी कोई सांसद और मंत्री कहते हैं कि महंगाई नहीं घटेगी। कभी कोई संासद और मंत्री जनता की परेशानियो को दूर करने की जगह तेल कीमतों को बढ़ाने में दिलचस्पी रखता है। क्या देश को आजाद कराने के लिए हमारे पूर्वजो ने इसी लिए कुर्बानियां दी थी? क्या हमारी राजनीति सही में शशि थरूर से कोई सबक लेगी।
                                    क्लर्कगिरी-बाबूगिरी और राजनीति मे फर्क नहीं समझने वालों का वही हस्र होता है जो शशि थरूर का हुआ है। शाशि थरूर संयुक्त राष्ट्रसंघ की चाकरी में थे। फाइल ढ़ोना और बॉस का हुक्म की मानसिकता का संतुष्ट करने भर की उनकी जिम्मेदारी थी। अचानक शशि थरूर साहब के भाग्य ने पलटी मारी और वह सब उन्हें हासिल हो गया जो वर्षो-वर्ष की राजनीतिक और कूटनीतिक तपस्या के बाद भी दूसरों को नहीं मिलती है। भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव के पद पर चुनाव लड़ने के लिए उन्हें नामित कर दिया। बानकी मुन के सामने शशि थरूर कोई चमत्कार नहीं कर सके। पर वे संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव के पद पर चुनाव लड़ने से विश्वविख्यात हो जरूर हो गये। भारतीय मीडिया और बुद्धीजीवी ने भी रातोरात शशि थरूर को अपना खैवनहार मान लिया। चर्चे और प्रशंसाएं ऐसी कि सही में शशि थरूर कूटनीतिक महारथी हैं और शशि थरूर के कूटनीतिक महारथ का भारत फायदा उठाकर विश्व में अपना धाक जमा सकता है। इसी चर्चे और प्रशंसाओं पर सवार होकर शशि थरूर न केवल कांग्रेस के लोकसभा चुनाव लड़ने का टिकट पाये बल्कि चुनाव जीतकर विदेश राज्य मंत्री जैसे जिम्मेवार पद पर विराजमान हो गये। अमेरिका ने शशि थरूर की जगह बानकी मुन को समर्थन क्यो दिया था, उसका भी परीक्षण-विश्लेषण भारतीय मीडिया और कांग्रेस ने करने की जरूरत नहीं समझी थी। शशि थरूर पर जार्ज बुश की टिप्पणी थी कि गैर कूटनीतिक और विश्व राजनीति की अनुभवहीन शख्सियत पर विश्वास कैसे किया जा सकता है। जार्ज बुश की वह टिप्पणी आज शशि थरूर पर सही साबित हो रही है।
                    शशि थरूर को मुर्ख कहा जाये या भ्रष्ट कहा जाये या फिर गैर राजनीतिज्ञ कहा जाये? शशि थरूर पर एक राय बनानी मुश्किल है। गैर जिम्मेदार और गैर राजनीतिज्ञ के साथ ही साथ मुर्ख कहना ज्यादा सटीक होगा। शशि थरूर किसके प्रतिनिधि थे? इनके ट्विटर पर रखे विचारों को गौर करें तो साफ स्पष्ट होता है कि वे विदेश राज्यमंत्री जैसे जिम्मेदार और कूटनीतिक दक्षता मांगने वाले पद पर बैठने के लायक कहीं से भी नहीं थे। विदेश राज्य मंत्री बनने के साथ ही साथ उनकी कारस्तानियां, फैशनपरस्ती और संसदीय राजनीति के प्रति अंगभीरता की कंडिया बननी शुरू हो गयी थी। विदेश मंत्रालय के पैसो पर ये फाइव स्टार होटलों में तीन महीने तक रहे। वह भी प्रतिदिन 50 हजार रूपये खर्च पर। मामला मीडिया में उठने और प्रणव मंत्री के डांट पड़ने पर इन्होंने फाइव स्टार होटल छोड़ी। विमानों में इक्नोनॉमी क्लास में सफर करने वाले देश के नागरिको को थरूरी ने भेंड़-बकरी क्लास कहकर खिल्ली उड़ायी। इतना तक तो बर्दाश्त किया जा सकता था। पर इनके तीन ऐसी नादानियां रहीं है जिससे भारत की कूटनीतिक संवर्ग को न केवल परेशानियां झेलनी पड़ी बल्कि भारतीय संप्रभुता पर भी आंच आने की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। पहली नादानी थी पाकिस्तान के नागरिकों के पक्ष में खड़ा होना। पाकिस्तान द्वारा आतंकवादियो को शरण देने और मुबंई आतंकवादी हमले में पाकिस्तानी मूल के अमेरिकी नागरिक हेडली के प्रमाणित आरोप उजागर होने के बाद भारत के विदेश मंत्रालय ने पाकिस्तानी मूल के नागरिकों की बीजा नीति बदली थी। पाकिस्तानी नागरिकों के बीजा मिलने के नियमों को कठोर बनाया गया था। इस पर शशि थरूर आग बबूला हो गये और गुस्से में ट्विटर पर विदेश मंत्रालय की इस नीति की खिल्लियां उड़ायी और पाकिस्तानी नागरिकों के पक्ष में बैंटिंग की।
                    दूसरी उनकी बड़ी नादानी थी कश्मीर पर सउदी अरब का मध्यस्थ बनाने की बात करना। कश्मीर हमारा अटूट अंग है। भारत ने कभी भी और किसी भी परिस्थिति मे कश्मीर पर तीसरे देश की मध्यस्थता की बात नहीं स्वीकारी है और न ही ऐसी किसी भी विचार प्रक्रिया को भारत ने गति दिया था। सउदी अरब सहित अन्य सभी मुस्लिम देश कश्मीर पर पाकिस्तान के पक्षगामी है। भारत के हितों के खिलाफ पाकिस्तान का पीठ थपथपाने की नीति मुस्लिम देशों के सिर पर चढ़कर बोलती है। सउदी अरब घोषित तौर पर पाकिस्ताने के पक्ष में खड़ा रहने वाला मुस्लिम देश है। उसने एक बार भी कश्मीर मे पाकिस्तान संरक्षित आतंकवाद की निंदा नहीं की है बल्कि अपप्रत्यक्षतौर पर वह कश्मीर में आतंकवादी मानसिकता का समर्थ्रन भी करता आया है। मुबंई के अंडरडॉन दाउद इ्रब्राहिम सहित अन्य मुस्लिम गंुडे क्या सउदी अरब में रह कर भारत विरोधी कार्यो में संलग्न नहीं है? क्या सउदी अरब ने भारतीय गंुडों के खिलाफ कभी भी कोई कार्रवाई की है। ऐसे दुश्मन सोच और मानसिकता रखने वाले देश को कश्मीर पर मध्यस्थ बनाने का पक्षधर होना आश्चर्य की ही बात नहीं है बल्कि भारतीय संप्रभुता के खिलाफ उठा कदम माना जाना चाहिए। उनकी तीसरी नादानी महात्ता गाधी से जुड़ी हुई है।महात्मा गांधी को देश ने बापू माना है। पूरी दुनिया महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानती है। उनके जन्मदिन दो अक्टूबर को देश में छुट्टी रहती है। छुट्टी का मतलब सिर्फ आराम नहीं होता है बल्कि भावी पीढ़ी को विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से महात्मा गांधी के विरासत से अवगत कराना भी एक ध्यैय है। पर दो अक्टूबर की महात्मा गांधी जयंती पर छुट्टी पर ही शशि थरूर ने सवाल उठा दिया। शशि थरूर जिस पाटी में हैं वह पार्टी नेहरू के विरासत से जुड़ी है और नेहरू की नीतियों पर चलती है। नेहरू की सोवियत संघ के पक्षधरी की भी शशि थरूर ने खिल्लियां उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
                                     शशि थरूर प्रकरण में कांग्रेस पार्टी भी आलोचना और निंदा की पात्र मानी जानी चाहिए। सिद्धांतवादी राजनीति के मूलमंत्र में शशि थरूर की बिदाई उसी दिन हो जानी चाहिए थी जिस दिन उन्होंने विमानों के इकोनॉमी क्लास में सफर करने वाले देशवासियों को भेड-बकरी क्लास से नवाजा था। अगर उस समय शशि थरूर पर कड़े निर्णय आ जाते तो आपीएल जैसी पटकथा बनती ही नहीं। आईपीएल में कोच्चि टीम को लेकर जिस तरह से शशि थरूर ने अपने पद का दुरूपयोग किया है उससे भारतीय राजनीति में साफ-सूथरे चरित्र पर आक्षेप क्यों नहीं माना जाना चाहिए। अपने होने वाली बीबी सुनंदा को उन्होंने कोच्चि टीम के शेयर दिलाये। सुनंदा इतने बड़ी शेयर प्रापर्टी खरीदने की कुबत रखती थी ही नहीं। सभी तथ्य सामने आ जाने के बाद भी इस्तीफे नहीं देने की बात करना भी शशि थरूर के लिए भारी पड़ गया। अपने बचाव में केरल की भावनात्मक नीतियां भी उठायी। कांग्रेस को यह मालूम था कि शशि थरूर ने अपने पद का दुरूपयोग किया है। आयकर विभाग और आईबी की रिपोर्ट में शशि थरूर और उनकी बीबी सुनंदा पुस्कर सीधेतौर पर दोषी पाये गये। सुनंदा पर दाउद कम्पनी के लिए काम करने की बात भी उठी। ऐसी परिस्थति में कांग्रेस के लिए शशि थरूर परेशानी के सबब बन सकते थे। कांग्रेस के लिए शशि थरूर को विदेश राज्य मंत्री के पद से बिदा करना ही उचित था।
                शशि थरूर का प्रकरण भारतीय राजनीति के लिए एक सबक है। राजनीति में जवाबदेही जनता के प्रति होती है। जनता की इच्छाओं का सम्मान करना जरूरी होता है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि शशि थरूर जैसी शख्सियत रातोरात राजनीति में स्टार क्यों बन जाते हैं। सही तो यह है कि भारतीय राजनीति में फैशनपरस्त, अपराधी, चमचो और परहित साधने वालों की भूमिका बढ़ती जा रही है। जनता की बात करने की जगह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों सहित पर संप्रभुता की पक्षधारी राजनेताओं से संसद और विधान सभाएं भरी पड़ी है। कभी कोई सांसद और मंत्री कहते हैं कि महंगाई नहीं घटेगी। कभी कोई संासद और मंत्री जनता की परेशानियो को दूर करने की जगह तेल कीमतों को बढ़ाने में दिलचस्पी रखता है। क्या देश को आजाद कराने के लिए हमारे पूर्वजो ने इसी लिए कुर्बानियां दी थी? क्या हमारी राजनीति सही में शशि थरूर से कोई सबक लेगी?


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Friday, April 9, 2010

वैटिकन सेक्स स्कैंडल

पादरी बनिये,  बलात्कार कीजिए,   पहुंच जाइये      ‘पोप‘  की शरण में  -  बच जायेंगे


विष्णुगुप्त



                                                                                अब आयी वैटिकन सिटी की असली कहानी। मानवता और कल्याण के नाम पर क्रूरता और लोमहर्षक खेल का यह है संरक्षणवादी नीति। पोप बेनेडिक्ट सोलहवें और कैथलिक चर्च की दया, शांति और कल्याण की असलियत दुनिया के सामने उजागर ही हो गयी। जब पोप बेनेडिक्ट सोलहवें और कथौलिक चर्च का क्रूर-अमानवीय चेहरा सामने आया तब ‘विशाषाधिकार‘ का कवच उठाया गया। कैथ लिक चर्च ने नयी परिभाषा गढ़ दी कि उनके धर्मगुरू पोप बेनेडिक्ट सोलहवें पर न तो मुकदमा चल सकताा है और न ही उनकी गिरफ्तारी संभव हो सकती है। इसलिए कि पोप बेनेडिक्ट न केवल ईसाइयों के धर्मगुरू हैं बल्कि वेटिकन सिटी राष्ट्र के राष्ट्राध्यक्ष भी हैं। एक राष्ट्रध्यक्ष के तौर पर पोप बेनेडिक्ट सोलहवें की गिरफ्तारी हो ही नहीं सकती है। जबकि अमेरिका और यूरोप में कैथलिक चर्च और पोप बेनेडिक्ट सोलहवें की गिरफ्तारी को लेकर जोरदार मुहिम चल रही है। न्यायालयों में दर्जनों मुकदमें तक दर्ज करा दिये गये हैं और न्याायलयों में उपस्थिति होकर पोप बेनेडिक्ट सोलहवें को आरोपों का जवाब देने के लिए कहा जा रहा है। यह सही है कि पोप बेनेडिक्ट सोलहवें के पास वेटिकन सिटी के राष्ट्राध्यक्ष का कवच है, इसलिए वे न्यायालयों में उपस्थित होने या फिर पापों के परिणाम भुगतने से बच जायेंगे पर कैथलिक चर्च और पोप की छवि तो घूल में मिली ही है इसके अलावा चर्च में दया, शांति और कल्याण की भावना जागृत करने की जगह कुकर्मों की पाठशाला कायम हुई है, इसकी भी पोल खूल चुकी है। चर्च पादरियों द्वारा यौन शोषण के शिकार बच्चों के उत्थान के लिए कुछ भी नहीं किया और न ही यौन शोषण के आरोपी पादरियो के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई है। इस पूरे घटनाक्रम को अमेरिका-यूरोप की मीडिया ने वैटिकन सेक्स स्कैंडल का नाम दिया हैं। कुछ दिन पूर्व ही पोप बेनेडिक्ट सोलहवें ने आयरलैंड में चर्च पादरियों द्वारा बच्चों के यौन शोषण के मामले प्रकाश मे आने पर इस कुकृत्य के लिए माफी मांगी थी।
                                  पोप बेनेडिक्ट सोलहवें पर कोई सतही नहीं बल्कि गंभीर और प्रमाणित आरोप हैं जो उनकी एक धर्माचार्य और राष्ट्राध्यक्ष की छवि को तार-तार करते हैं। अब यहां यह सवाल है कि पोप बेनेडिक्ट सोलहवें पर आरोप हैं क्या? पोप बेनेडिक्ट सोलहवें पर कुकर्मी पादरियों को संरक्षण देने और कुकर्मी पादरियों को कानूनी प्रक्रिया से छुटकारा दिलाने का आरोप हैं। पोप बेनेडिक्ट सोलहवें ने कई पादरियों को यौन शोषण के अपराधों से बचाने जैसे कुकृत्य किये हैं पर सर्वाधिक अमानवीय, लोमहर्षक व चर्चित पादरी लारेंस मर्फी का प्रकरण है। लारंेंस मर्फी 1990 के दशक में अमेरिका के एक कैथलिक चर्च में पादरी थे। उस कैथलिक चर्च में अनाथ, विकलांग और मानसिक रूप से बीमार बच्चों के लिए एक आश्रम भी था। पादरी लारेंस मर्फी पर 230 से अधिक बच्चों का यौन शोषण का अरोप है। सभी 230 बच्चे अपाहिज औेर मानसिक रूप से विकलांग थे। इनमें से अधिकतर बच्चे बहरे भी थे। मानिसक रूप से बीमार और अपाहिज बच्चों के साथ यौन उत्पीड़न की धटना सामने आने पर अमेरिका में तहलका मच गया था। कैथलिक चर्च की छवि के साथ ही साख पर संकट खड़ा हो गया था। कैथलिक चर्च में विश्वास करने वाली आबादी इस घिनौने कृत्य से न केवल आका्रेशित थी बल्कि कैथलिक चर्च से उनका विश्वास भी डोल रहा था। कैथलिक चर्च को बच्चों के यौन उत्पीड़न पर संज्ञान लेना चाहिए था और सच्चाई उजागर कर आरोपित पादरी पर अपराधिक दंड संहिता चलाने में मदद करनी चाहिए थी। लेकिन कैथलिक चर्च ने ऐसा किया नहीं। यौन उत्पीड़न की घटना को कैथलिक चर्च द्वारा दबाने की ही कोशिश हुई। कैथलिक चर्च को इसमें अमेरिकी सत्ता का सहायता मिली। विवाद के पांव लम्बे होने से कैथलिक चर्च की नींद उड़ी और उसने आरोपित पादरी लारेंस मर्फी पर कार्रवाई के लिए वेटिकन सिटी और पोप को अग्रसारित किया था।
                                          पोप बेनेडिक्ट सोलहवें का उस समय नाम कार्डिनल जोसेफ था और वैटिकन सिटी के उस विभाग के अध्यक्ष थे जिनके पास पादरियों द्वारा बच्चों के साथ यौन उत्पीड़न किये जाने की जांच का जिम्मा था। पोप बेनेडिक्ट ने पादरी लारेंस मर्फी को सजा दिलाने में कोई रूचि नहीं दिखलायी। बात इतनी भर थी नहीं। बात इससे आगे की थी। मामले को रफा-दफा करने की पूरी कोशिश हुई। लारेंस मर्फी को अमेरिकी काूननों के तहत गिरफ्तारी और दंड की सजा में रूकावटें डाली गयी। वेटिकन सिटी का कहना था कि पादरी लारेंस मर्फी भले आदमी हैं और उन पर दुर्भावनावश यौन शोषण के आरोप लगाये गये हैं। इसमें कैथलिक चर्च विरोधी लोगों का हाथ है। जबकि लारेंस मर्फी पर लगे आरोपों की जांच कैथलिक चर्च के दो वरिष्ठ आर्चविशपों ने की थी। सिर्फ अमेरिका तक ही कैथलिक चर्च में यौन शोषण का मामला चर्चा में नहीं है। अपितु वैटिकन सिटी में भी यौन शोषण के कई किस्से चर्चे में रहे हैं। पुरूष वेश्यावृति के मामले में भी वेटिकन सिटी घिरी हुई है। वैटिकन सिटी में पादरियों द्वारा पुरूष वैश्यावृति के राज पुलिस ने खोले थे। वैटिकन धार्मिक संगीत मंडली के मुख्य गायक टॉमस हीमेह और पोप बेनेडिक्ट के निजी सहायक एंजलों बालडोची पर पुरूष वैश्या के साथ संबंध बनाने के आरोप लगे थे। पोप के निजी सहायत एंजलों बालडोची का वैटिकन में तूती बोलती थी। विदेशी राष्टाध्यक्षों और बड़ी-बड़ी हस्तियों के वैटिकन आने पर एंजलों बालडोची ही स्वागत करते थे और पोप के साथ वर्ताओं में वे साथ भी रहते थे।
                           यौन शोषण के आरोपित पादरियों के नाम बदले गये। उन्हें अमेरिका-’युरोप से बाहर भेजकर छिपाया गया। तकि वे अपराधिक कानूनों के जद मे आने से बच सकें। खासकर अफ्रीका और एशिया में ऐसे दर्जनों पादरियों को अमेरिका-यूरोप से निकाल कर भेजा गया जिन पर बच्चों के साथ यौन उत्पीड़न के आरोप थे। एक ऐसे ही पादरी भारत में कई सालों से रह रहा है। रेवरेंड जोसेफ फ्लानिवेल जयपॉल नामक पादरी भारत में कार्यरत है। जयपॉल पर एक चौदह वर्षीय किशोरी के साथ बलात्कार करने सहित बलात्कार के दो अन्य आरेप है। अमेरिका के एक चर्च में जयपॉल ने 2004 में एक अन्य ग्रामीण युवती के साथ बलात्कार किया था। वैटिकन और पोप की कृपा से जयपॉल भाग कर भारत आ गया। इसलिए कि बलात्कार की सजा से छुटकारा पाया जा सके। अमेरिकी प्रशासन को जयपॉल का अता-पता ढुढने में काफी मशक्कत करनी पड़ी। अमेरिकी प्रशासन के दबाव में वैटिकन ने जयपॉल का पत्ता जाहिर किया। वैटिकन ने मामला आगे बढ़ता देख कर जयपॉल को कैथलिक चर्च से बाहर निकालने की सिफारिश की थी। लेकिन भारत स्थित आर्चविशप परिषद ने जयपॉल की बर्खास्ती रोक दी। अमेरिकी प्रशासन जयपॉल को प्रत्यार्पन की कोशिश कर रहा है। क्योंकि अमेरिकी प्रशासन पर मानवाधिकार वादियों का भारी दबाव है। पर जयपॉल अमेरिका जाकर यौन अपराधो का सामना करने से इनकार कर दिया है। जयपॉल पर बलात्कार जैसे अति गंभीर आरोप होने के बाद भी भारतीय मीडिया में जयपॉल काक प्रकरण प्रमुखता के साथ नहीं उछलना गंभीर बात है। कैथलिक चर्च के भारतीय आर्चविशपो द्वारा बलात्कारी पादरी जयपॉल का संरक्षण देना क्या उचित ठहराया जा सकता है? क्या इसमें भारतीय आर्चविशपों की सरंक्षणवादी नीति की आलोचना नहीं होनी चाहिए। अगर जयपॉल हिन्दू धर्म से जुड़ा हुआ बलात्कारी होता तो निश्चित मानिये कि भारतीय मीडिया कई-कई दिनों तक पानी पी पी कर हिन्दू धर्म और धर्माचार्यो को कोसती और खिल्ली उड़़ाती। कथित तौर पर कुकुरमुत्ते की तरह फैले मानवाधिकारियों के लिए भी जयपॉल कोई मुद्दा क्यों नहीं बना?
                                    अमेरिका-यूरोप में पोप बेनेडिक्ट सोलहवें के इस्तीफे की मांग जोर से उठ रही है। जगह-जगह प्रदर्शन भी हुए है। इंगलैंड सहित अन्य यूरोपीय देशों में पोप बेनेडिक्ट सोलहवें की यात्राओं में भारी विरोध हुआ है। लोमहर्षक-आमनवीय कृत्य को संरक्षण देने के लिए पोप से इस्तीफा देकर पश्चताप करने का जनमत तेजी से बन रहा है। पोप के खिलाफ जनमत की इच्छा शायद ही कामयाब होगी। पोप के इस्तीफे का कोई निश्चित संविधान नहीं है। पर इस्तीफे जुड़ंे कुछ तथ्य हैं पर तथ्य स्पष्ट नहीं हैं। 1943 में पोप पायस बारहवें ने एक लिखित संविधान बनाया था। जिसका मसौदा था कि अगर पोप का अपहरण नाजियों ने कर लिया तो माना जाना चाहिए कि पोप ने त्यागपत्र दे दिया है और नये पोप के चयन प्रक्रिया शुरू की जा सकती है। नाजियों और न ही किसी अन्य किसी पोप का अब तक अपहरण किया है। इसलिए पोप पायस बारहवें के सिद्धांत का अमल में नहीं लाया जा सका है। पोप द्वारा इस्तीफे के दो ही उदाहरण सामने हैं। एक उदाहरण है पोप ग्रेगरी बारहवें का। कोई पांच सौ साल पहले कैथलिक संप्रदाय में विभाजन की स्थिति को रोकने के लिए पोप ग्रेंगरी बारहवे ने त्याग पत्र दिया था। पोप ग्रेगरी ने वैटिकन चर्च परिषद का सम्मेलन बुलाकर खुद पोप चयन का अधिकार दिया था। पोप ग्रेगरी 1406 से लेकर 1415 तक वैटिकन सिटी के राष्टाध्यक्ष और पोप रहे थे। उनकी मृत्यु के बाद ग्रेगरी को वैटिकन सिटी ने संत घोषित किया था। दूसरा उदाहरण है स्टेलस्टीन का। 1294 में पोप स्टेस्लटीन पंचम ने एक आदेश जारी किया था जिसमें उन्होंने कहा था कि पोप को भी त्यागपत्र देने का अधिकर है। पोप स्टेलस्टीन ने खुद पोप के पद से त्यागपत्र दे दिया था।
                                               पोप बेनेडिक्ट सोलहवें पर यह निर्भर करता है कि वे त्याग पत्र देंगे या नहीं। पर वैटिकन सिटी के विभिन्न इंकाइयों और विभिन्न देशों के कैथलिक चर्च इंकाइयों में अंदर ही अंदर आग धधक रही है। कैथलिक चर्च की छवि बचाने के लिए कुर्बानी देने की सिद्धांत पर जोर दिया जा रहा है। जर्मन रोमन चर्च ने भी पोप बेनेडिक्ट सोलहवें के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। जर्मन रोमन चर्च का कहना है कि वैटिकन सिटी और पोप बेनेडिक्ट ने यौन उत्पीड़न के शिकार बच्चों और उनके परिजनो के लिए कुछ नहीं किया है। वैटिकन सिटी में भी यौन शोषण के शिकार बच्चों के परिजनों ने प्रदर्शन और प्रेसवार्ता कर पोप बेनेडिक्ट के आचरणों की निंदा करने के साथ ही साथ न्याय का सामना करने के लिए ललकारा है।
               कालांतर में ईसाइय का अमेरिका-यूरोप में क्रूर चेहरा चर्चित रहा है। सत्ता से लेकर समाज तक ईसाइयत ने अपने स्वार्थ में प्रभावित किया है। मानवता, शांति, कल्याण जैसे संदेश दिखावा मात्र रहा है। मानवता और कल्याण जैसे हथियारों से ईसाइयत ने दुनिया भर में धर्मातंरण के लोमहर्षक खेल-खेले हैं। अपने देश में ईसाइयत का चेहरा कोई दुध का धुला हुआ नहीं है। ईसाई मिशनरियों में यौन उत्पीड़नों की चर्चा भी आम रही है।


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