राष्ट्र-चिंतन
जनता ने मतदान कर माओवादियों का सबक दिया
माओवाद देश का आईकॉन नहीं बन सकता
विष्णुगुप्त
माओवाद को जनता ने नकार दिया। माओवादियों को कड़ा व सबककारी संदेश दिया गया है कि भारत में सत्ता माओत्से तुंग की बन्दूक की गोली के सिद्धांत से नहीं बल्कि मतदान से निकलती है। कहने का अर्थ है कि हमारी लोकतांत्रिक शक्ति और विचार की जीत हुई, विदेशी अवधारणा माओवाद की पराजय हुई जो अब चीन में भी विलुप्त हो गया है। छत्तीसगढ़ में माओवाद ग्रसित क्षेत्रों में माओवादियों के विरोध और धमकियों की बीच मतदान हुआ और मतदान में उत्साह के साथ जनता सक्रिय थी, मतदान का प्रतिशत भी ठीक-ठाक रहा। छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में माओवाद की कैसी हिंसा है, माओवाद की कैसी पकड़ है, यह कौन नहीं जानता है, माओवादी प्रभावित क्षेत्रों में पुलिस तक जाने से डरती है, अर्द्धसैनिक बलों पर हमले होते रहते हैं, विकास के सभी काम ठप पडे हुए हैं। माओवादियों के खिलाफ बोलने या फिर असहमति जताने वाले लोगों का रहना मुश्किल है, उन पर हिंसा बरपती है, माओवादियों की गोलियां उन पर चलती है। कुछ दिन पूर्व ही माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में लोकतंत्र के प्रति उत्साह को देखने-समझने गयी दूरदर्शन की टीम को माओवादियों ने कैसे निशाना बनाया था, दूरदर्शन के कैमरा मैन की किस प्रकार से हत्या हुई थी, यह भी जगजाहिर है। पत्रकारों को निशाना बनाने की हिंसा यह बताती है कि माओवाद कितना क्रूर, कितना हिंसक हैं, अगर ये पत्रकार तक की जान लेने में शर्मसार नहीं होते हैं तब ये आम जनता के साथ किस प्रकार से व्यवहार करते होंगे, आम जनता को किस प्रकार की हिंसा का ग्राह बनाते होंगे, इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है।
सबसे बडी बात यह है माओवादियों ने बडी-बडी सभाएं कर आम जनता को धमकियां पिलायी थी कि वोट करने वाले लोगों को सीधे गोलियां मिलेगी, इस क्षेत्र से खदेड़ दिया जायेगा। माओवादियों का इतिहास भी क्रूर है। पहले भी मतदान करने वाली जनता पर माओवादी कहर बन कर टूटते हैं। पर जनता के सामने अपने जनप्रतिनिधि चुनने की चुनौती थी, निश्चित तौर पर जनता ने यह चुनौती स्वीकारी और मतदान के लिए कूद पडी। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनप्रतिनिधि ही विकास और उन्नति के प्रतीक होते हैं, अगर आम जनता लोकतांत्रिक व्यवस्था से कट जाये तो फिर विकास और उन्नति को जनता कैसे हासिल कर सकती है। माओवाद कभी उन्नति और विकास का प्रतीक नहीं हो सकता है, माओवाद सिर्फ और सिर्फ तानाशाही और हिंसा के प्रतीक है।
मओवाद क्या भारतीय जनता का आईकॉन हो सकता है? माओवाद, मार्क्सवाद, लेनिनवाद, स्तालिनवाद आदि एक विदेशी मानसिकताएं जो दुनिया भर में निरर्थक, अप्रासंगिक हो गयी हैं। सोवियत संघ के पतन के बाद पूरी दुनिया से एक तरह से इन सभी वादों की विदाई हो चुकी है, गिन-चुने जिन राष्टों में ये सभी मानसिकताएं हैं तो पर इन मानसिकताओं के रूप-रंग बदले हुए हैं, इन सभी मानसिकताओं को पूंजी के प्रवाह से परहेज नहीं हैं, मजदूरवाद गौण हो चुका है, अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए पूंजी को आवश्यक मान लिया गया है। आधुनिक दौर में जहां पर भी ऐसी मानसिकताओं का थोड़ा-बहुत अस्तित्व रहा है वहां पर खून-खराबा, तानाशाही और भूखमरी पसरी होती है, तानाशाही के प्रताड़ित और शोषित लोग अपने देश को छोड़कर पलायन करने के लिए मजबूर होते हैं। लैटिन अमेरिकी देश वेनेजुएला एक सशक्त और मजबूत अर्थव्यवस्था वाला देश था लेकिन 1999 में वहां पर हुगो चावेज नाम के एक व्यक्ति ने पूंजी के खिलाफ सत्ता पर बैठ गया। हुगो चावेज अमेरिका को समाप्त करने की कसमें खाता रहा। हुगो चावेज की इस सनकी भरी नीति पर दुनिया भर के कम्युनिस्ट तालियां बजाते थे और कहते थे कि दुनिया में माओवाद, मार्क्सवाद, लेनिनवाद, स्तालिनवाद की वापसी हो रहा है। दुष्परिणाम क्या हुआ? दुष्परिणाम बहुत ही दर्दनाक और भयानक हो गया। वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था चौपट हो गयी, महंगाई इतनी बढी कि आम आदमी त्राहिमाम किया। भूख और तंगहाली फैल गयी। भूख और तंगहाली से ग्रसित वेनेजुएला की जनता अपने देश से पलायन करने लगी। कई लाख जनता अपना देश छोडकर लैटिन अमेरिकी देशों में शरणार्थी बनने के लिए बाध्य हुई।
माओवाद तो चीन में भी दफन हो चुका हैं। चीन में कहने के लिए कम्युनिस्ट तानाशाही है पर चीन आज की तारीख में एक पंूजीवादी देश है, एक उपनिवेश्विक देश है। चीन की अर्थव्यवस्था पंूजी आधारित है। माओत्से तुंग की क्राति के अवशेष तक नहीं हैं। मजदूर-किसान गौण हो गये हैं। मजदूरों के हित की बात गौण हो गयी है। मजदूर प्राथमिकता सूची से बाहर हैं। चीन के अंदर में एक श्रम कानून बडा ही अमानवीय है। इस कानून का नाम ‘ हायर एंड फायर ‘ है। हायर एंड फायर कानून के तहत कोई भी कंपनी अपनी मनमर्जी से मजदूर रखेगा और अपनी मनमर्जी से मजदूर को निकाल बाहर कर सकता है। मजदूर अपनी हक के लिए आंदोलन कर नहीं सकते हैं। मजदूरों के आंदोलन करने पर कडी सजा है। चीन के अंदर मानवाधिकार की बात सोची तक नहीं जा सकती है। यही कारण है कि दुनिया भर की कपंनियां सस्ते मजदूर के लालच में चीन में अपर्नी इंकाइयां लगाती है। इसी कसौटी पर चीन के अंदर में दुनिया की नामी-नामी कंपनियों के उत्पादन ईकाइंयां लगी हुई है। अगर सस्ता श्रम व्यवस्था नहीं होती और श्रम तथा अन्य कानूनो से छूट नहीं मिली हुई होती तो चीन के अंदर में दुनिया भर की कपंनियां क्यों और किस लिए जाती? अधिकतम लाभ अर्जित करना पूंजी का सिद्धांत है।
माओवाद भारत की जनता का आईकॉन कभी नहीं बन सकता है? माओवाद भारत की जनता का आईकॉल क्यों नहीं बन सकता है? इसके पीछे कौन-कौन से अवरोधक विन्दु हैं, जिस पर विचार किया जाना चाहिए। सबसे पहली बात तो यह है कि माओवाद एक विदेशी अवधारणा है, माओवाद चीन के अंदर ही दफन हो चुका है, माओवाद एक हिंसक अवधारणा है, एक शत्रु अवधारणा है। भारत के माओवादी चाहे जिनता भी हिंसा कर लें, भारतीय माओवादी चाहे जितना भी खून बहा दें, आगे भी सालों-सालों तक जंगली क्षेत्रों में हाहाकार मचाते रहें पर भारत की जनता माओवाद को अपना नहीं सकती हैं। भारत में माओवाद तो उसी दिन दफन हो गया था जिस माओत्से तुंग ने भारत पर हमला किया था और जिस दिन माओवादियों तथा कम्युनिस्ट पार्टियों ने माओत्से तुग को अपना आईकॉन, अपना गौड फादर घोषित किया था और यह कहा था कि माओत्से तुंग माई चैयमैन यानी हमारा प्रधानमंत्री। चीनी सैनिकों के स्वागत में बैनर लगाये थे, भारतीय रक्षा उत्पादन कारखानों में हड़ताल करायी थी, ताकि भारतीय सैनिकों को हथियार उपलब्ध न हो सके और चीनी सैनिकों की जीत हो सके। भारत के माओवादियों ने माओत्से तुंग के बदलौत भारत में कम्युनिस्ट सरकार कायम करना चाहते थे। आज भी माओवादी और कम्युनिस्ट पार्टियां चीन को हमलावर या फिर माओत्से तुंग को रक्तपिसाचु मानने से इनकार करते हैं। माओत्से तुंग ने लगभग एक करोड गरीब जनता को अपने देश में भूखे मार दिया था। जिस माओत्से तंुग ने हमारे पांच हजार सैनिकों की हत्या की थी, जिस माओत्से तुंग ने हमारी 90 हजार वर्ग मील भूमि कब्जाई थी उस माआत्से तुग को देश की जनता कैसे स्वीकार कर सकती है?
नेपाल के माओवादियों से भी भारत के माओवादी सीख लेने के लिए तैयार नहीं हैं। नेपाल में माओवादियों ने तानाशाही को छोड़कर लोकतंत्र को अपना लिया। आज माओवादी संसदीय प्रणाली के वाहक हैं, संसदीय चुनाव लडते हैं, संसदीय चुनाव के माध्यम से सत्ता हासिल करते हैं। आज नेपाल में कम्युनिस्ट सत्ता बैठी हुई है। नेपाल की क्युनिस्ट सत्ता भी देशभक्ति और राष्टीयता की कसौटी पर चलती-बढती है। पर भारत के माओवादी देशभक्ति और राष्टीयता को बुरी चीज मानते हैं। अभी भी ये माओत्से तुंग के सिद्धांत से अलग हटने के लिए तैयार नहीं हैं। माओवादी जब हिंसा नहीं छोडेगे तब प्रतिहिंसा उन पर टूटती रहेगी। छत्तीसगढ की जनता की वीरता की प्रशंसा करनी चाहिए। राज्य सत्ता को भी चाकचौबंद रहना चाहिए ताकि मतदान करने वाली जनता को सुरक्षा मिले। माओवादी अपनी हिंसा का शिकार मतदान करने वाली जनता को बना सकते हैं।
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