Monday, February 1, 2010

पिछड़ी राजनीतिक जमीन पर बगावत व उथल-पुथल की खेती

पिछड़ी राजनीतिक जमीन पर बगावत व उथल-पुथल की खेती

विष्णुगुप्त

पिछड़ा राजनीतिक संवर्ग में उथल-पुथल है। बगावत सहित वैचारिक टकराव, अतिमहत्वाकांक्षा और व्यक्तिगत स्वार्थ से पिछड़ा राजनीतिक संवर्ग दग्ध है। समाजवादी पार्टी और जद यू , दोनों पिछड़ा सरोकार प्रमुख पार्टियां है। सपा में अमर सिंह ने बगावत पहले बगावत की तलवारें खींची और अब जद यू में ललन सिंह उर्फ राजीव रंजन सिंह बगावत की लाठियां भाज रहे हैं। ललन सिंह का कहना है कि नीतिश कुमार तानाशाह है और आम कार्यकर्ताओं की भावनाओं का उन्होंने बाजार बना दिया है, विकास की उपलब्धियां झूठी है और अगड़ी जातियों के साथ नीतिश राज में अन्याय हुआ है, उपेक्षा-तिरस्कार से अगड़ी जातियों का गुस्सा उफान पर हैं।।ललन सिंह बिहार जद यू के अध्यक्ष हैं और राज्यसभा में सांसद हैं। वे उस भूमिहार जाति से आते हैं जिनकी बिहार में लगभग सभी अन्य जातियों से ‘रार‘ स्थायी तौर पर रही है। अन्य अगड़ी जातियां भी भूमिहार से खार खाती हैं और राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता इनमें चलती रही है। अगड़ी जातियों की एकता और नये समीकरण नीव रखी जा चुकी है। भविष्य में अगड़ी जातियों के नेताओ का एक मंच भी तैयार हो सकता है। अगड़ी जातियां गोलबंद होकर भी बिहार में सत्ता पर अधिकार जमा सकती हैं, ऐसा हो ही नहीं सकता है। उनकी राजनीति में हिस्सेदारी और भी घट सकती है।
                                              तानाशाही को लेकर उठा तूफान नहीं है। चुनावी राजनीति-समीकरण बनाने-बिगाड़ने का खेल है। बिहार में विधान सभा चुनाव के समय कम बचे हुए हैं। बिहार के संबंध में यह समय राजनीतिक अंधेरगर्दी और नये-नये समीकरण बनाने-बिगाड़ने के लिए अनुकूल है। कांग्रेस को एकमेव सत्ता और राजनीति के लिए बिहार में जनसमर्थन चाहिए। यह जनसमर्थन उसे अन्य राजनीतिक दलों के तोड़-फोड़ से मिल सकता है। लालू-रामबिलास पासवान को भी फिर से पुरानी शक्ति की खोज है। इसलिए बगावत की खेती पनपेगी ही और एक-दूसरी पार्टियां छोड़ने और ज्वाइन करने की सुर्खियां बनती रहेंगी। कांग्रेस, लालू और पासवान की चाल ललन सिंह के मोहरे से नीतिश कुमार की खाट खड़ा करने की हैं। जद यू में इस तरह के बगावत या विरोधी स्वर की घटनाओं से नीतिश कुमार के सेहत पर कोई प्रभाव पड़ेगा? या फिर नीतिश की राजनीतिक शक्ति और मजबूत होगी? अतिमहत्वाकांक्षा और व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति ही वह वजह है जिसमें अमर सिंह या ललन सिंह या फिर सुधीन्द्र कुलकर्णी जैसे लोगो को मूल पार्टी में तब तानाशाही नजर आने लगती है या फिर वैचारिक रूगणता दिखने लगती है जब संकट में उनकी पार्टी खड़ी होती है। इसके पहले वर्षो तक तानाशाही या वैचारिक रूगणता नहीं दिखायी देती है। इसलिए कि तब तो इनकी व्यक्तिगत महत्वांकाक्षा परवान चढ़ता रहा हो और इनकी व्यक्तिगत स्वार्थ की खेती भी अबाधित चलती रहती है।
नीतिश कुमार के लिए ललन सिंह वैसे ही महत्वपूर्ण रहे हैं जैसे मुलायम सिंह यादव के लिए कभी अमर सिंह थे। नीतिश कुमार का सर्वाधिक निकटवर्ती और विश्वासपात्र ललन सिंह ही रहे हैं। ललन सिंह की अपनी कोई राजनीतिक बिसात थी ही नहीं। अभी तक उन्होंने राजनीति में राज्य सभा का सदस्य की कुर्सी और बिहार के जद यू के प्रदेश अध्यक्ष जैसी राजनीतिक शक्ति जो पायी थी उसमें न तो उनकी राजनीतिक कुटिलता व जनाधार का करिश्मा था और न ही जद यू में वे वरिष्ठता के दृष्टिकोण से भी सर्वमान्य थे। उनकी राजनीतिक तरक्की का जरिया सिर्फ और सिर्फ नीतिश कुमार की कृपा रही है। खुद नीतिश कुमार की आलोचना इस बात के लिए होती रही है कि उन्होंने ललन सिंह जैसे रीढ़विहीन नेता को आगे बढ़ाया है। बिहार में एक राजनीतिक जुमला आज भी तैर रहा है। यह राजनीतिक जुमला है ‘ सरकार कुर्मी का और राज्य भूमिहार का‘। कुर्मी यानी नीतिश कुमार की सरकार और शासन पर भूमिहारों का अधिकार। सही भी यही था कि भूमिहारों की संख्या बिहार में तीन प्रतिशत भी नहीं है पर नीतिश कुमार के मंत्रिमंडल में सबसे ज्यादा मंत्री भूमिहार है और प्रशासन में सर्वाधिक वर्चस्व भूमिहार की है। भूमिहार वर्चस्व वाली प्रशासनिक ईंकांई का प्रतिफल यह हुआ कि नीतिश कुमार को न केवल राजनीतिक आलोचनाएं झेलनी पड़ी बल्कि विधान सभा के उपचुनाव में जद यू को झटका भी लगा था व लालू-रामबिलास पासवान ने विधान सभा उप चुनाव जीतकर नीतिश के खिलाफ हवा भी बनायी। पर वही ललन सिंह की राजनीतिक अतिमहत्वांकांक्षा और स्वार्थ देखिये कि नीतिश का ही जड़ खोदने मे आमदा है।
                 मंडल की राजनीतिक प्रस्थापना के बाद बिहार में पिछड़ी राजनीति का उदभव और गतिशीलता के साथ ही साथ अगड़ी राजनीतिक व्यवस्था का पराभव महत्वपूर्ण घटना रही है। बिहार पिछड़ी राजनीति की प्रयोग भूमि भी रही है। कभी कांग्रेसी राजनीति का छत्रप और अगड़ी राजनीति का पुरोधा जगरन्नाथ मिश्र खुद जमींदोज हो गये। लालू प्रसाद यादव ने 15 सालों तक बिहार में एकछत्र राज किया। लालू प्रसाद यादव के 15 के शासनकाल का राज सिर्फ और सिर्फ पिछड़ी जातियों की गोलबंदी थी। लेकिन लालू सिर्फ यादववाद में सीमित हो गये। इसलिए उनकी राजनीतिक लूटिया डूब गयी और बिहार की राजनीति में नीतिश कुमार की ताजपोशी हुई। यह बात फैलायी गयी कि भूमिहार और अन्य अगड़ी जातियों का ही योगदान है नीतिश की ताजपोशी में। चूंकि मीडिया में अगड़ी जातियो का वर्चस्व है और अगड़ावाद उनके सिर पर चढ़कर बोलता है। इसलिए नीतिश कुमार की ताजपोशी में अगड़ी जातियों की भूमिका स्वीकार कर ली गयी। अगर यह बात सही मान ली जाये तो इस प्रश्न का भी जवाब चाहिए कि आखिर 15 सालों तक अगड़ी जातियां लालू को हराने में नाकामयाब क्यों नहीं थी? लालू की हार इसलिए हुई थी कि उन्होंने बिहार को जंगल राज बना दिया था। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतो को कबाड़ा बना दिया था। गैर यादव पिछड़ी जातियों की नीतिश कुमार और भाजपा गठबंधन में एकजुटता थी। भूमिहार और अन्य अगड़ी जातियों का नीतिश कुमार का समर्थन देना एक मजबूरी थी।
                       नीतिश कुमार लालू की तरह जातिवादी नहीं है। उनकी राजनीतिक एजेन्डे में लालू के ‘यादववाद‘ की तरह ‘कुर्मीवाद‘ की बाढ़ शामिल नहीं है। प्रारंभ में जरूर प्रशासन में भूमिहार जाति का वर्चस्व की गलतियां की पर बाद में उन्होने अपना सारा ध्यान अति पिछड़ों और अति दलित जातियों का राजनीतिक उत्थान के लिए लगाया। अति पिछड़ों और अति दलितों के आरक्षण के कोटे को उन्होंने बढ़ाया। ग्राम पंचायतों में महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण दिया। ग्राम पंचायतों में महिलाओं के पचास प्रतिशत का आरक्षण को ‘बिहार माॅडल‘ के रूप में प्रसिद्धि मिली है। ‘बिहार माॅडल‘ को केन्द्र सरकार ने अपनी नीति बना रखी है। न्यायालय मे पिछड़ी जातियों को उन्होने आरक्षण सुनिश्चित किया। पिछड़ी जातियो में यादव, कुर्मी, कोइयरी और बनिया आदि सशक्त और आर्थिक रूप से बेहत्तर है। पर अतिपिछड़ों की राजनीतिक -आर्थिक स्थिति कमजोर रही है। अति पिछड़ों और अति दलितों की बढ़ती राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समृद्धि अगड़ी जातियां में सहन कैसे हो सकती थी? लालू राज के दफन होने के बाद अगड़ी जातियों और उनके वर्ग के नेताओं ने यह खुशफहमी पाल रखी थी कि उनकी राजनीतिक वर्चस्व पूर्व की तरह होगी। अगड़ी जातियों की नाराजगी नीतिश से यही है।
                    ‘बिहारी‘ शव्द अपमान का प्रतीक कौन बनाया? बिहारी समुदाय पाखाकशी दूर करने के लिए पलायन के दंश किसने दिया? नीतिश की सरकार में न केवल बिहार से अपहरण, हत्या-लूट का बाजार बंद हुआ बल्कि सकारात्क कार्य भी चर्चित रहे है। खासकर बुनियादी सुविधाओं के मामले में। शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल परिवहन जैसी बुनियादी सुविधाएं बढ़ी हैं। सड़कें बिहार की तस्वीर बदल रही हैं। बुनियादी सुविधाओं के विकास से ही बिहार नये प्रतिमान गढ़ने के रास्ते में हैं। 2009 में बिहार ने 11 प्रतिशत के विकास दर को प्राप्त किया है। इससे बढ़कर और क्या उपलब्धि चाहिए? ‘बिहारी‘ शव्द आज अपमान नहीं बल्कि स्वाभिमान का प्रतीक बन रहा है। इसे पूरा देश स्वीकार कर रहा है। नीतिश कुमार के साथ शरद यादव की चाणक्य रणनीति साथ खड़ी है।
                                                       इस राजनीतिक बगावत या उथल-पुथल में नीतिश को नुकसान होगा क्या? बिहार की जो राजनीतिक समीकरण हैं उसके देखते हुए कहा जा सकता है कि नीतिश का इससे कोई नुकसान नहीं होने वाला है। लालू जैसे भ्रष्ट और नकारा नेताओं से बिहारी समाज ने मुक्ति पायी है और सत्ता नीतिश जैसे सकरात्मक सोच की राजनीतिक शख्सियत के पास सत्ता है। इसलिए बिहार की जनता कभी नहीं चाहेगी कि विकास और सम्मान की बहती धारा रूके। अगड़ी जातियां अगर नीतिश के खिलाफ भी जाती हैं तब भी पिछड़ी और दलित जातियों का एकजुट समर्थन नीतिश को जायेगा। तथ्य यह भी है कि जिधर भूमिहार जाति जाती है उधर अन्य अगड़ी जातियां भी नहीं जाती हैं। स्वार्थ और अति राजनीतिक महत्वांकाक्षा की पृष्टभूमि से ही जद यू में बगावत निकली है। मंथन पिछड़ी राजनीतिक इंकाई को भी करना होगा। आखिर रीढ़विहीन और जमीरहीन राजनीतिक शख्सियत उनके यहां रातो-रात कैसे मसीहा मान लिये जाते है, बना दिये जाते हैं। अंत में दुष्परिणाम भी पिछड़ी-दलित राजनीतिक संवर्ग को ही उठाना पड़ता है।
मोबाइल- 09968997060

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