Sunday, March 28, 2010

रामजन्म भूमि प्रसंग

मक्का और वेटिकन जैसा दर्जा अयोध्या को क्यों नहीं

हिन्दू अपने प्रतीकों के सम्मान के लिए लड़ना कब सीखेंगे?


विष्णुगुप्त

                           मक्का ए मदीना में क्या कोई कल्पना मात्र कर सकता है कि इस्लाम के उस पवित्र शहर में कोई मंदिर या गिरिजा घर हो सकता है? क्या वेटिकन सिटी में कोई मंदिर होे सकती है जिसकी सत्ता वेटिकन सिटी के पोप के समान हो। इन दोनों प्रश्नों का उत्तर नहीं में हो सकता है। हम कल्पना भी कर सकते है कि क्या श्रीराम की जन्मभूमि ‘अयोध्या‘ को भी मक्का ए मदीना और वेटिकन सिटी की तरह दर्जा मिले और मान सम्मान के साथ ही साथ सत्ता का संरक्षण भी। ऐसा इसलिए संभव नहीं हो सकता है कि भारत की सत्ता तुष्टिकरण की नीति पर चलती है, बुद्धीजीवी और लेखक आदि पर कथित धर्मनिरपेक्षता और हिन्दू विरोध की प्रक्रिया नाचती है। हिन्दू अराध्य देवों-प्रतीकों की खिल्ली उड़ाना और इनके प्रासंगकिता पर सवाल उठाना धर्मनिरपेक्षता व बुद्धीजीवी होने का सर्टिफिकेट बन गया है।
                                           इस्लाम औेर मसीही को सत्ता का संरक्षण है। ऐसे किसी भी प्रयास से दुनिया भर में आग लग सकती है और उफनती हिंसा से हजारों-लाखों बेकसूर जिंदगियां कुर्बान हो सकती हैं जिसमें मक्का ए मदीना या फिर वेटिकन सिटी में किसी अन्य धर्म की कोई नायकत्व या अन्य प्रतीकों के स्थापना की बात हो। डेनमार्क के कार्टूनिस्ट ने इस्लाम के सर्वोच्च नायकत्व की सिर्फ कार्टून बनायी थी, इस पर पूरी दुनिया मे आग लगी। हिंसक प्रर्दशनों में पूरी दुनिया मे कई लोग की हत्याएं हुई। देश में कई लोगों की हत्याएं हुई। लखनउ मंे कार्टून विवाद पर हुए विरोध प्रर्दशनां मंे चार हिन्दुओं की जानें गयी। अपने को तथाकथित धर्मनिरपेक्ष कहने वाला तबका इस्लाम और ईसाइयत के प्रतीक चिन्हों की आलोचना करने या खिल्ली उड़ाने में पीछे क्यो रहता है? इसके विपरीत अपने देश में हिन्दुत्व की दुर्दशा देख लीजिए।
                         हिन्दुत्व की दुदर्शा और आलोचना-खिल्लियां उड़ाने की राजनीति,सामाजिक और धार्मिक प्रक्रिया की चर्चा की शुरूआत अयोध्या और रामजन्म भूमि प्रसग से बेहत्तर क्या हो सकती है। अयोध्या हिन्दुओं के अराध्य श्रीराम की जन्म भूमि है। श्रीराम जन्म भूमि होने के कारण अयोध्या की महत्ता हिन्दुओं के लिए कैसी है, यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। पर क्या अयोध्या का सम्मान मक्का ए मदीना या फिर वेटिकन सिटी जैसा है। कदापि नहीं। मक्का ए मदीना या वेटिकन सिटी की प्रमाणिकता पर कोई प्रमाण नहीं मांगा जाता। पर अध्योध्या की एतिहासिकता पर प्रमाण मांगा जाता है। श्रीराम अयोध्या में पैदा लिये थे इसका प्रमाण मांगा जाता है। श्रीराम के जन्म से संबंधित प्रमाण देने के बाद भी तथाकथित इतिहासकार ठुकराते ही नहीं हैं बल्कि यह भी कहते हैं कि अध्योध्या न तो एतिहासिक भूमि है और न ही इस नगरी में श्रीराम जैसी कोई एतिहासिकत शख्सियत का जन्म हुआ था। यह सब तो मनगढंत कहानी है और हिन्दुओं की कट्टरता का प्रतीक है।
                                                पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्या और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करूणानिधि का श्रीराम से संबंधित बयान और प्रतिक्रिया कैसी रही है यह भी बताने की जरूरत है क्या? भट्टाचार्या और करूणानिधि ने अपनी-अपनी प्रतिक्रियाओ में श्रीराम का धार्मिक पात्र होने पर न केवल सवाल उठाये थे बल्कि यहां तक इन दोनों ने कहा था कि श्रीराम हिन्दुओं के अराध्य नहीं बल्कि कवि की कल्पन मात्र है। हिन्दी के साहित्यकार और तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के ठेकेदार राजेन्द्र यादव ने एक टीवी शो में खुलेआम कहा था कि ‘रामायण‘ कोई धार्मिक ग्रंथ नहीं बल्कि साहित्य है। राजेन्द्र यादव की असली मंशा थी कि रामायण और श्रीराम का अराधना हिन्दु फिजुल ही करते हैं और उनका यह अधंविश्वास ही है। एक अन्य धारणा भी यह है कि जब रामायण कोई धार्मिक ग्रंथ है ही नही तब अध्योध्या में श्रीराम का अस्तित्व होने का कोई अर्थ ही नहीं है।
                                              बुद्धदेव भट्टाचार्यो, करूणानिधियों और राजेन्द्र यादवों की क्या इतनी हिम्मत है कि वे जिस तरह रामायण और श्रीराम को धार्मिक ग्रंथ और धार्मिक पुरूष नहीं मानते और हिन्दुओं के इन मान्य अराध्य देवों की आलोचना करते हैं, हिन्दुओं पर अंधविश्वासी होने जैसी राजनीतिक प्रक्रिया चलायी जाती है वैसी ही राजनीति और मजहबी प्रक्रिया अन्य धर्मो के खिलाफ ये चला सकते हैं क्या? क्या ये कुरान के पवित्र ग्रंथ होने पर सवाल उठा सकते हैं? क्या यशुमसीह कुआंरी मां से जन्म लेने की बात पर सवाल उठाया जा सकता है। बुद्धदेव भट्टाचार्यो, करूणानिधियों और राजेन्द्र यादवों को खुलेआम चुनौती है कि ये कुरान आसमान से अल्लाह के यहां से टपका था और यशुमसीह कुंआरी मां के पेट से जन्म लिये थे पर सवाल उठा कर देख लें। भारत में तो क्या पूरी दुनिया में ये सुख और चैन से रह सकते हैं? इन्हें सुरक्षा घेरे में ही रहने के लिए विवश होना पड़ेगा। देश के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष बुद्धीजीवियों, राजनीतिज्ञों और लेखकों का एक अन्य चेहरा भी क्यों नहीं देखा जाना चाहिए? अभी हाल ही में मकबूल फिदा हुसैन ने कतर की नागरिकता ली है। मकबूल फिदा हुसैन ने हिन्दू देवी-देवताओं की वीभत्स चित्रांकन की थी। मकबूल फिदा हुसैन की कतर नागरिकता लेने पर तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लेखकों, बुद्धीजीवियों ने खुब हंगामा मचाया। हिन्दुओं की खिल्ली उड़ाने की कोई कसर नहीं छोड़ी गयी। हिन्दुओं को कट्टरवादी ही नहीं बल्कि आतंकवादी होने के तोहमत भी डाला गया। मकबूल फिदा हुसैन की पैंटिगस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता करार दिया गया और कहा गया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को हिन्दू कट्टरता और आतंकवाद से खतरा है। क्या सही में हिन्दू कट्टरवादी हैं और आतंकवादी है। अगर हिन्दू कट्टरवादी-आतंकवादी होते तो फिर मुस्लिम और ईसाई धर्मो की धर्मातंरण की राजनीति दिन दुगनी और रात चौगुनी कैसे बढ़ती। मकबूल फिदा हुसैन के समर्थकों और कथित धर्मनिरपेक्ष बुद्धीजीवियों ने हजरत मुहम्मद वाला कार्टून पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अति और दुरूपयोग बताते हुए कार्टूनिस्ट की आलोचनाओं की प्रक्रिया चलायी थी।
                                                           श्रीराम इस भूभाग के अराध्यदेव हैं। बाबर आक्रमणकारी था। मुस्लिम आक्रमणकर्ताओं ने हिन्दू प्रतीक चिन्हों को मिटाने और तहस-नहस करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। नालंदा और तक्षशिला इसका उदाहरण है। नालंदा विश्वविद्यालय और तक्षशिला ज्ञान भंडार के सर्वोच्च स्थल थे। दुनिया की सबसे उत्कृष्ट और प्रयोगिक शिक्षा के केन्द्र होने का गुणगान और चर्चा विश्व में थी। यद्यपि नालंदा विश्वविद्यालय और तक्षशिला कोई धार्मिक प्रतीक भी नहीं थे। फिर भी नालंदा विश्वविद्यालय और तक्षशिला को मुस्लिम शासकों ने यह कहकर जलाया कि ये हिन्दू प्रतीक हैं और इस तरह के प्रतीकों से इस्लामिक सत्ता दीर्धायु हो ही नहीं सकती है। वाराणसी में बाबा विश्वनाथ मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनायी गयी। मथुरा में श्रीकृष्ण की जन्म स्थली पर मस्जिद बनायी। क्या यह सब किसी से छिपा हुआ है। अगर मुगलकालीन मुस्लिम सत्ता कहीं से भी धर्मनिरपेक्ष नहीं थी। इतिहासकारों के मुस्लिम परस्त दृष्टिकोण ने एक तरह से हिन्दुओं की धार्मिक अस्मिता के साथ अन्याय किया है और मुस्लिम परस्त मानसिकता को स्थापित किया है। इसकी परिणति पर संज्ञान लीजिए। आज हमारा देश मुस्लिम कटटरता की चपेट में है। मुस्लिम आतंकवाद का हिन्दू आसान शिकार हैं। कश्मीर से लेकर कन्याकुमार तक इसकी वीभिषीका देखी जा सकती है।
                           रामजन्म भूमि का प्रसंग फिर से महत्पपूर्ण हुआ है। बरेली में सीबीआई की अदालत में बाबरी ढाचा के विध्वंस पर सुनवायी जारी है। कांग्रेस प्रायोजित गवाहों से रामजन्म भूमि आंदोलन के नेताओं की काूननी घेरेबंदी शुरू है। खासकर लालकृष्ण आडवाणी निशाने पर हैं। आडवाणी पर यह आरोप है कि उन्होंने भीड़ को संबोधित करते हुए कहा था कि मंदिर यहीं बनेगी। यह तो हिन्दुओं की आस्था रही है। श्रीराम का जहां जन्म हुआ मंदिर वही बनेगी? इसमें नया क्या है। यह सही है कि रामजन्म भूमि आंदोलन की सीढ़ी चढ़कर सत्ता में बैठी भाजपा भी श्रीराम मंदिर के प्रसंग पर ईमानदारी नहीं दिखायी। पर विरोधी दलों ने भी श्रीराम मंदिर आंदोलन का लाभ उठाने में कहा पीछे रहे हैं। भाजपा का डर दिखाकर कांग्रेस, कम्युनिस्टों और अन्य पार्टियों ने मुस्लिम समुदाय का जनादेश हासिल किया-सत्ता सुख भोगे और भोग भी रहीं हैं।
                             हिन्दुओं को अपने प्रतीकों और नायको के प्रति सम्मान दर्शाना और उनके लिए लड़ना सीखना चाहिए। मक्का ए मदीना और वेटिकन सिटी से सबक लेना चाहिए। जब मक्का ए मदीना मुस्लिम समुदाय का विशेषाधिकार का प्रतीक हो सकता है? जब वेटिकन सिटी मसीही समुदाय के विशेषाधिकार का प्रतीक हो सकता है? तब अधेध्या और श्रीराम मंदिर हिन्दुओ के विशेषाधिकार का प्रतीक क्यो नहीं होना चाहिए? इसके लिए हिन्दू समुदाय ही दोषी हैं। इसलिए कि हिन्दू समुदाय अपने प्रतीकों केेेेेेेे लिए लड़ना नहीं जानता। जिस दिन हिन्दू समाज लड़ना सीख लेगा उस दिन हिन्दुओं के प्रतीकों का खिल्ली उड़ाने की राजनीतिक-मजहबी प्रक्रिया स्वयं विलुप्त हो जायेगी।

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Thursday, March 25, 2010

इस्रायल पर अमेरिकी तुष्टिकरण की मार

राष्ट्र-चिंतन


इस्रायल,भारत पर अमेरिकी मुस्लिम तुष्टिकरण की मार
                          
                          विष्णुगुप्त

बराक ओबामा मुस्लिम तुष्टिकरण पर उतर आये हैं। अमेरिकी दबाव के कारण ही भारत आतंकवादी पाकिस्तान से कश्मीर पर वार्ता करने के लिए बाध्य हुआ है। इस्रायल को हमास के सामने झुकाने के लिए बराक ओबामा कूटनीति बुन रहे है। इस्रायल को अपनी सुरक्षा के प्रति अराजक कौन बनाता है? इस्रायल को भड़काता कौन है? इस्रायल को क्या आत्मरक्षा का अधिकार नहीं है? जब ईरान का राष्ट्रपति अहमदी नेजाद और मलेशिया के प्रधानमंत्री खुलेआम यह एलान करते हैं कि इस्रायल का अस्तित्व मिटाने के लिए मुस्लिम दुनिया को एकजुट होकर सैनिक अभियान चलाना चाहिए तब विश्व कूटनीति क्यों खामोश रहती है?

                                  यह पहला अवसर है जब इस्रायली सत्ता को अमेरिका में बेरूखी और नाराजगी का सामना करना पड़ा। इसके पहले इस्रायली सत्ता संस्थान को अमेरिका में आदर-सम्मान के साथ ही साथ उसकी फिलिस्तीन नीति का भी व्यापक तौर पर समर्थन मिलता था। द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्ति के बाद अमेरिका ने ही अपने अतिरिक्त प्रयासों से यहूदियों को फिलिस्तीन के विवादित क्षेत्रों में बसाया और इस्रायल अलग देश बनवाया था। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति काल से लेकर अब तक अमेरिकियों ने इस्रायल के प्रति समर्थन जताने और संरक्षण देने में कोई कोताही नहीं बरती। यहूदी समुदाय अमेरिकी सत्ता और प्रशासन में उच्चे पदों पर बैठाये गये। अमेरिकी नीतियों के निर्धारण में भी इस्रायलियों की दखल रही है। अमेरिका ने इसके लिए मुस्लिम देशों से रार खरीदी और अपने हितों की कुर्बानियां चढ़ायी। पर अब यह सब बीते दिनो की बात हो गयी है। अमेरिका की वर्तमान सत्ता ने इस्रायल नीति बदल डाली है। अमेरिका अब अपने हितों की कुर्बानी की कीमत पर इस्रायल को न तो समर्थन दे सकता है और न ही कोई सहायता। इतना ही नहीं बल्कि अमेरिका की मंशा यह है कि इस्रायल फिलिस्तीन में हमास जैसे आतंकवादी संगठन के सामने सिर झुकाये और हमास की फिलिस्तीन आकांक्षा की पूर्ति करे। हमास फिलिस्तीन समस्या का समाधान नहीं बल्कि इस्रायल का दुनिया के नक्शे से विध्वंस चाहता है। जाहिरतौर पर इस्रायल इस समय अपने आप को अकेला और संकट मे खड़ा है। मुस्लिम देशों और आतंकवादी मानसिकता अमेरिका की नीति से संतुष्ट होगी। पर विश्व की राजनीति और कूटनीति में इसके गहरे निष्कर्ष और प्रभाव होंगे।
                                        इस्रायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहु की अभी-अभी हुई अमेरिकी यात्रा ने विश्व की कूटनीति में नये समीकरण की नींव डाली है। बराक ओबामा ने बेंजामिन नेतन्याहु को डराने-धमकाने की कोई कसर नहीं छोड़ी और गुस्सा इतना कि बेंजामिन नेतन्याहु से अपनी नीति मनवाने में असफल बराक ओबामा ने बैठक ही समाप्त कर डाली। दुबारा हुई बैठक में भी कोई निष्कर्ष न निकला। बराक ओबामा की बेरूखी और गुस्से से आजीज आकर बेंजामिन नेतन्याहु ने अपनी अमेरिकी यात्रा बीच में ही छोड़कर इस्रायल लौट गये। बराक ओबामा की नाराजगी की मुख्य वजह पूर्व यरूशलम में इस्रायल द्वारा बस्तियां बसाने की योजना है। पूर्व यरूशलम मे इस्रायल की लगभग सौ बस्तिायां है और इसमें लगभग छह लाख यहूदी रहते हैं। पूर्वी यरूशलम पर इस्रायल ने 1967 में कब्जा किया था। इस्रायल का तर्क है कि हमास जैसे आतंकवादी संगठन के हमलों से बचाने के लिए पूर्वी यरूशलम में सुरक्षा बलों के लिए छावनियां बनाना जरूरी है। पूर्वी यरूशलम मे छह लाख यहूदी आबादी है जिसे सुरक्षा प्रदान करने की नीयत से ही नयी बस्तियां बसायी जा रही है। इस्रायल का यह भी कहना है कि पूवी यरूशलम पर हमारा दावा निर्विवाद है और वह किसी भी कीमत पर हम पूर्वी यरूशलम पर दावा नहीं छोड़ेंगे। पूर्वी यरूशलम में नई बस्तियां बसाने की इस्रायली योजना पर मुस्लिम देशों से आवाज उठी थी। अमेरिका नहीं चाहता कि पूर्वी यरूशलम में इस्रायल नई बस्तियां बसाये।
                                               पूर्वी यरूशलम में इस्रायल की नई बस्तियां बसाने की योजना जरूर विवादित ही नहीं है बल्कि पश्चिम एशिया में आग को और भड़काने वाला भी है। पर हमें एकतरफा सोच से बचना होगा। अतिरंजित और इस्लामिक सोच और मानसिकता से उफनने वाले मुस्लिम देशों और हमास जैसे आतंकवादी संगठनों की हिंसक और विध्वंसक मजहबी राजनीति पर ध्यान देना होगा। इस्रायल चारो तरफ से मुस्लिम देशों से धिरा हुआ है। मुस्लिम देश इस्रायल के घोषित और स्थायी शत्रू हैं। कई लड़ाइयां भी इस्रायल और मुस्लिम देशों के बीच हो चुकी है। इस्रायल की अदम्य साहस और इच्छा के सामने पूरी मुस्लिम दुनिया एकजुट होकर भी इस्रायल का कुछ नहीं बिगाड़ सके। इधर इस्रायल के सोच में भी परिवर्तन आया है। सैनिक अभियान की जगह वह भी बातचीत से फिलिस्तिीन समस्या का समाधान चाहता है। फिलिस्तीन की स्वायतता इस्रायल की बदली हुई सोच का परिणाम था। यासित अराफात ने हिंसा छोड़कर इस्रायल के साथ बातचीत का रास्ता निकाला था। यासित अराफात के मौत के बाद फिलिस्तीन में अराजकता पसर गया। फिलिस्तीन में यासित अराफात जैसी एक भी शख्सियत नहीं हैं जो फिलिस्तिनियों में शांति वार्ता के लिए शांति का वातावरण बना सके। संसदीय चुनावों में हमास की जीत से भी स्थितियां नाजुक हुई हैं। हमास एक राजनीतिक संगठन नहीं है बल्कि आतंकवादी संगठन है। हमास इस्रायल के साथ किसी भी प्रकार के बातचीत का विरोधी है। आतंकवाद और खूनी हिंसा के बल पर हमास इस्रायल का विध्वंस चाहता है। हमास का कहना है कि वह इस्रायल का अस्तित्व विश्व के नक्शे से हटा कर ही वह दम लेगा।
                                           इस्रायल को अपनी सुरक्षा के प्रति अराजक कौन बनाता है? इस्रायल को भड़काता कौन है? इस्रायल को क्या आत्मरक्षा का अधिकार नहीं है? विश्व कूटनीति में इस प्रश्न पर भी विचार क्यों नहीं होता? जब ईरान का राष्ट्रपति अहमदी नेजाद और मलेशिया के प्रधानमंत्री खुलेआम यह एलान करते हैं कि इस्रायल का अस्तित्व मिटाने के लिए मुस्लिम दुनिया को एकजुट होकर सैनिक अभियान चलाना चाहिए तब विश्व कूटनीति क्यों खामोश रहती है। ईरान, मलेशिया, सउदी अरब, सीरिया, क्युबा जैसे देश इस्रायल पर हमला करने के लिए हमास को आर्थिक मदद देेते हैं सैनिक सहायता देते है। मुस्लिम देशों या फिर हमास के रूख से क्या फिलिस्तीन समस्या का समाधान संभव हो सकता है? कदापि नहीं। मुस्लिम देश और हमास इस्रायल का अस्तित्व विध्वंस चाहते हैं। ऐसी स्थिति में इस्रायल का वार्ता के मैज पर बैठना संभव हो सकता है क्या? द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से आज तक क्या इस्रायल का अस्तित्व मिटाने का ख्वाब मुस्लिम दुनिया पूरा कर सकी? नहीं। सीरिया, लेबनान और मिश्र जैसे मुस्लिम देशों ने इस्रायल से युद्ध किये और पराजित हुए। सीरिया, लेबनान और मिश्र ने बाध्य होकर इस्रायल से समझौते कर साथ-साथ जीने और युद्ध की राजनीति छोड़ने पर बाध्य हुए। इस उदाहरण को मुस्लिम देशों और हमास को क्यो नहीं देखना चाहिए। इस्रायल के साथ वार्ता की प्रक्रिया चले बिना फिलिस्तीन समस्या का समाधान संभव कैसे हो सकता है।
                            इस्रायल पर अमेरिकी नीति में आये परिवर्तन की मुख्य वजह मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति है। बराक ओबामा मुस्लिम तुष्टिकरण पर उतर आये हैं। मुस्लिम दुनिया में अमेरिका की छवि सुधारने के लिए बराक ने फिलिस्तीन और कश्मीर पर विशेष ध्यान देने की पहले ही घोषणा की थी। वास्तव में अमेरिका पाकिस्तान, अफगानिस्तान और इराक से निकलना चाहता है। इसके लिए अमेरिका तालिबान से समझौता करने के पक्ष में भी है। तालिबान से अमेरिका की अप्रत्यक्ष वार्ता भी चल रही है। मुस्लिम दुनिया के खुश करने के लिए उसने फिलिस्तीन और कश्मीर पर दबाव की राजनीति अपनायी है। भारत पहले से ही अमेरिकी दबाव महसूस कर रहा है। अमेरिकी दबाव के कारण ही भारत आतंकवादी पाकिस्तान से कश्मीर पर वार्ता करने के लिए बाध्य हुआ है। अब दबाव की राजनीति और कूटनीति के तहत इस्रायल को हमास के सामने झुकाने के लिए बराक ओबामा कूटनीति बुन रहे है। इसीलिए बराक ओबामा ने पूवी यरूशलम में इस्रायली बस्तियां अस्वीकार ही नहीं की है बल्कि पूरे पूवी यरूशलम को खाली करने के लिए भी इस्रायल को अपना फरमान सुना दिया है। इस्रायल इस अमेरिकी दबाव के सामने संकट में खड़ा है और उसके सामने अपने अस्तित्व और स्वाभिमान की रक्षा करने की भी चुनौती गंभीर है। अब सवाल उठता है कि बराक ओबामा की इस बदली हुई नीति का प्रभाव क्या पड़ेगा। फिलहाल अराजक और इस्लामिक मानसिकता से ग्रसित देशो और हमास जैसे आतंकवादी संगठनों की मनमानी बढ़ेगी और दुनिया इस्लामिक अराजकता और असहिष्णुता की चपेट से और ग्रसित होगा।


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Monday, March 22, 2010

हेडली पर अमेरिकी दादागिरी

राष्ट्र-चिंतन


मनमोहन सरकार बताओ अब तक हेडली के एक भी भारतीय सम्पर्क की गिरफ्तारी क्यों नहीं हुई। फिल्मकार महेश भट्ट के बेटे राहुल भट्ट को क्लीनचिट क्यों और किस आधार पर मिला। यह सब भारतीय जनता को जानने का अधिकार है।


विष्णुगुप्त

हेडली प्रकरण पर मुझे अपनी पूर्व टिप्पणी वापस लेनी पड़ रही है। मैंने अपने कॉलम में लिखा था कि हेडली को भारतीय कानूनो के तहत नहीं बल्कि अमेरिकी कानूनों के तहत ही कड़ी सजा मिल सकती है। अमेरिकी कानूनों के तहत हेडली को दो सौ साल या फिर फांसी की सजा निश्चित भी थी। किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि अमेरिकी हेकड़ी हेडली के सामने झुक जायेगी और अमेरिका समझौतेबाजी कर भारतीय हितों को नेस्तनाबुद कर डालेगा। अब निश्चिततौर पर हेडली को कड़ी सजा और फांसी नहीं होगी। कुछ सालों की सजा काटकर हेडली जेल से बाहर निकल जायेगा। हेडली प्रकरण पर अमेरिका ने जिस तरह से सिर्फ अपना हित साधा है उससे यह निष्कर्ष निकलता है कि भारत को दो प्रमुख विंदुओं पर विचारण की कठोर नीति अपनानी होगी। प्रथम विंदु यह कि अमेरिका से दोस्ती में कितनी गहरायी रखी जाये और इसका प्रतिफल क्या होगा? दूसरा यह कि आतंकवाद को अपने बलबुते ही सफाया करना होगा और अमेरिका का मुंह ताकने की नीति छोड़नी होगी। अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष पूछताछ मे हेडली भारत की जिज्ञासाओं को न तो दूर कर सकता है और न ही मुबंई हमले की पूरी तह खोलने को बाध्य होगा। इसलिए कि अमेरिकी प्रशासन यह नहीं चाहता कि पाकिस्तान का मौजूदा सरकार की घेरेबंदी शुरू हो। हेडली के पाकिस्तान के वर्तमान प्रधानमंत्री यूसुफ गिलानी और आईएसआई के रहनुमाओ से गहरे संबंध थे। सबसे बड़ी बात यह है कि हेडली से पूछताछ की जगह हेडली के भारतीय सम्पर्को और आतंकवादी तानाबाना की छानबीन पर भारतीय सरकार को ज्यादा ध्याना देना चाहिए।
                       जार्ज बुश और बराक ओबामा में फर्क समझना होगा। जार्ज बुश और बराक ओबामा की अंतर्राष्ट्रीय और आतंकवाद के खिलाफ नीति के फर्क को समझे बिना भारत अपने हितो को सुरक्षित नहीं रख सकता है और न ही भारत आतंकवाद के खिलाफ चाकचौबंद घेरेबंदी सुनिश्चित कर सकता है। जार्ज बुश सीधेतौर पर आतंकवाद को नेस्तनाबुत करने की राह अपनायी थी। समझौतावादी होना उनकी शख्सियत में शामिल था भी नहीं। अपने पूरे कार्यकाल तक जार्ज बुश ने पाकिस्तान, इराक और अफगानिस्तान में अलकायदा-तालिबान के खिलाफ सख्ती दिखायी और उसके परिणाम भी सामने आये। अमेरिका में बराक ओबामा की जीत और राष्ट्रपति बनने के बाद ही स्थितियां बदल गयी। राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ही बराक ओबामा ने आतंकवाद को सख्ती के साथ कुचलने की जगह बातचीत से हल करने की नीति जाहिर की थी। सत्ता में आने के बाद बराक ओबामा ने आतंकवाद पर तुष्टिकरण की नीति अपनायी। मुस्लिम दुनिया में उसने अमेरिका की छवि बदलने के लिए यात्राएं की और कई रियायतों की घोषणा भी की। अमेरिका की वर्षों पुरानी नीति भी बदल डाली गयी। इस्रायल जैसे दोस्त को बराक ओबामा ने मुश्किल में डाला। कश्मीर पर भारत को पाकिस्तान के साथ समझौता करने पर दबाव बनाया। इसी दबाव का नतीजा यह रहा कि भारत पाकिस्तान के साथ बातचीत करने के लिए बाध्य हुआ। इस्रायल और भारत के के हितो की कुर्बानी पर अमेरिका मुस्लिम दुनिया में अपनी छवि चमकाना चाहता है। हेडली पर समझौतावादी दृष्टिकोण इसी का परिणाम माना जाना चाहिए।
                        हमारी कमजोर नीति और दब्बू प्रवृतियां घातक रहीं है। कमजोर और दब्बू प्रवृतियो का लाभ दुनिया और आतंकवादी उठाते रहे हैं। अमेरिका भी हमारी दब्बू और कमजोर नीति का लाभ उठाने में पीछे नहीं रहा है। याद कीजिए। 26/11 आतंकवादी हमले को। मुबंई हमले के तुरंत अमेरिकी सुरक्षा टीम भारत आती है और सीधे कसाब से पूछताछ कर वापस चली जाती है। अमेरिका सुरक्षा एजेन्सियों को कसाब से पूछताछ की मिनटों में इजाजत मिल जाती है। वह भी गोपनीयता के साथ। कसाब से अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियां क्या पूछताछ की यह भी भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की पहुंच से बाहर रहीं। यह सीधेतौर पर अमेरिका के सामने समर्पण कहा जा सकता है। इसके उलट अमेरिकी नीति भी देख लीजिए। हेडली को डेनमार्क की गुप्तचर एजेन्सी की रिपोर्ट पर अमेरिका की सुरक्षा एजेसिंयों ने पकड़ा। छह महीने तक हेडली के पकड़े जाने की दुनिया को खबर ही नहीं लगी। पूरी तरह से हेडली के आतंकवादी सरोकार और नेटवर्क को खंगाल लेने के बाद ही अमेरिका ने दुनिया को हेडली की गिरफ्तारी को बताया। अमेरिका ने भारत का अपमान तो उसी समय किया था जब हेडली की गिरफ्तारी पर भारतीय सुरक्षा एजेंिसयां हेडली से पूछताछ के लिए अमेरिका गयीं थी। हेडली से पूछताछ की इजाजत देने की बात तो दूर रही बल्कि अमेरिका सुरक्षा एजेंिसया हेडली के सभी नेटवर्को की जानकारी तक नहीं दी थीं। भारत अगर उसी समय कड़ा रूख अपनाता तो अमेरिका शायद हेडली के साथ हाथ मिलाने पर कई बार सोचता।
                                 अमेरिकी रूख से यह जाहिर हो चुका है कि भारत को अब विशेष जानकारी हेडली से मिलने वाली नहीं है। अमेरिकी सुरक्षा एजेंिसया जितना चाहेंगी उतनी ही जानकारियां भारत को मिलेगी। हेडली से पूछताछ करने के अपने अधिकार पर भारत को कूटनीतिक चालें चलते रहना चाहिए। पर इससे भी अधिक जरूरी हेडली के भारतीय नेटवर्क को खंगालना है। अभी तक हेडली से जुड़े एक भी आतंकवादी की गिरफतारी क्यो नहीं हुई है। हेडली भारत में महीनों रहा है। वह भारत के कई शहरों में बेखोफ घूमा है। मुबंई आतंकवादी हमले की पूरी नीति बनायी। परिस्थिति जन्य तैयारियां की। हेडली के इस आतंकवादी कार्य में दर्जनों स्थानीय लोगों की भूमिका रही होगी। फिल्मकार महेश भट्टे के बेटे राहुल भट्ट और इमरान हाशमी सहित दर्जनो नायको-नायिकाओ के हेडली से सम्पर्क रहा है। कई बार बालाएं हेडली के साथ जुड़ी हुई थी। आखिर इन सभी की गिरफतारी अब तक क्यों नहीं हुई है। कोेई भी आतंकवादी घटना बिना स्थानीय सम्पर्को और सहयोग के संभव है क्या? महेश भट्ट का बेटा राहुल भट्ट को कलीन चिट कैसे मिली। सही तो यह है कि मनमोहन सरकार मुबंई आतंकवादी हमले की स्थानीय सम्पर्को को खंगालना ही नहीं चाहती है। इसमें मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति सबसे बड़ी बाधा है। मनमोहन सिंह सरकार को यह मालूम है कि मुबंई आतंकवादी हमले में स्थानीय मुस्लिम युवकों की संलिप्तता है। स्थानीय मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी से कांग्रेस की तुष्किरण की नीति परवान भी नहीं चढ़ सकती हैं।
                   अमेरिका ने अपना हित साध लिया। भारतीय हितों पर उसने छूरी चलायी है। इसका अहसास भारतीय जनमानस को है। भारतीय जनमानस में आका्रेश भी है। लेकिन यह अहसास भारत सरकार को है या नही। भारत सरकार को अमेरिका के साथ दोस्ती पर पुनर्विचार करना चाहिए। अमेरिका को यह अहसास कराना होगा कि भारतीय हितों पर छूरी चलाने की उसकी नीति के दुष्परिणाम भी सामने आयेगा। भारत को हेडली से जुडे सभी तथ्यों के लिए अंतर्राष्टीय स्तर पर अपनी मुहिम जारी रखनी चाहिए। जाहिर हो चुका है कि हेडली का सीधा सम्पर्क पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ गिलानी और कई अन्य नेताओं से थे। इसके अलावा आईएसआई के रहनुमाओं से भी उसके तार जुडे थे। आईएसआई के दिशानिर्देश से ह ीवह जुड़ा हुआ था। इसलिए पाकिस्तान से जुडे सभी सम्पर्को और संलिप्तताओं पर कार्रवाई के लिए दबाव बनाना होगा। भारत को अमेरिका का मुह ताकने की नीति भी छोड़नी होगी। भारत को अपने दम पर पाक प्रत्यारोपित आतंकवाद के खूनी पंजों को मरोड़ना होगा। इसके लिए आतंरिक और वाह्य सुरक्षा शक्ति को मजबूत करना होगा और आतंकवादियों को भारतीय कानून का पाठ पढ़ाना होगा। क्या भारत यह साहस कर सकता है। असली प्रश्न यही है।


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Saturday, March 20, 2010

नितिन गडकरी का सेलिब्रिटी शो

राष्ट्र-चिंतन



विष्णुगुप्त

भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी पेशे से व्यापारी और गन्ना सेंडिकेट के खिलाड़ी रहे हैं। मुबंई की चकाचौंध दुनिया उनकी कार्यस्थली रही है। उनकी कार्यसमिति में मुबंई की चकाचौंध दुनिया साफतौर पर ही नहीं झलकी बल्कि वर्चस्ववाली रेखा भी खीची है। हेमामालिनी, स्मृति ईरानी, वाणी त्रिपाठी, शत्रुघ्न सिन्हा सिंहा, गजेन्द्र चौहान, नवजीत सिंह सिद्धु जैसी फिल्मी और चकाचौंध दुनिया की शख्सियतों को कार्यसमिति के विभिन्न पदों पर बैठाया गया है। सिर्फ चकाचौध दुनिया ही नहीं बल्कि दलाल, चमचा और धनपशु संस्कृति के वाहकों की पौ बारह रही है। नितिन गडकरी की कार्यसमिति को देखने के बाद यह नहीं कहा जा सकता है कि राजनीति को रीढ़विहीन, जमीरविहीन शख्सियतों और दलाल, चमचा व धनपशुओं से मुक्त कराने की कोशिश हुई है। दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से वंशवाद की परमपरा भी खीची गयी है। सोनिया गांधी और कांग्रेस को वंशवाद पर कोसने वाली भाजपा खुद को वंशवाद की चपेट मे आने से रोक नहीं सकी है। दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग को कार्यसमिति मे अनुपातिक जगह नहीं मिली है। सिर्फ खानापूर्ति के लिए दलित, पिछड़े और आदिवासी संवर्ग से गिन-चुने राजनीतिज्ञो को जगह मिली है। अल्पसंख्यक समुदाय से पुराने शहनवाज हुसैन और मुख्तार अब्बास नकवी पर भरोसा जताया गया है जबकि आरिफ बेग जैसे पुराने और सिद्धांतवादी शख्सियत की उपेक्षा हई है। क्या ऐसी जमीर-रीढ़ विहीन बिग्रेड के सहारे नितिन गडकरी भाजपा को फिर से सत्ता दिला सकेंगे?
                                   नितिन गडकरी की राजनीतिक और सत्ता संचालन प्रतिभा का बुलबुला कुछ ज्यादा ही उपर उठाया गया था। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने नितिन गडकरी का महिमामंडन करने की प्रक्रिया ऐसी चलायी जैसे वे कोई अटल बिहारी वाजपेयी या लालकृष्ण आडवाणी से भी ज्यादा उत्कृष्ठ और अनुभव वाले नेता हैं। जबकि ऐसी बात थी नहीं। नितिन गडकरी भाजपा का पिटे हुए मोहरा हैं जिसे कांग्रेस की सत्ता को उखाड फेंकने के लिए युद्ध का महारथी बना दिया गया। राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने से पहले तक नितिन गडकरी मुबंई-महाराष्ट्र भाजपा के अध्यक्ष थे। महाराष्ट्र में भाजपा की पिछले 15 सालों के दौरान कैसी दुर्गति हुई है? यह बताने की जरूरत नहीं है। लगातार तीन विधान सभा चुनावो से भाजपा महाराष्ट्र में हार रही है। ध्यान देने वाली बात यह है कि जब नितीन गडकरी महाराष्ट्र में भाजपा को लगातार तीन विधान सभा चुनावों में हार को नहीं रोक सके और न ही भाजपा कार्यकर्ताओं में कांग्रेस-पवार के खिलाफ राजनीतिक जंग के लिए प्रेरित कर सके तब राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस नेतृत्ववाली सरकार को खिलाफ कैसे भाजपा कार्यकर्ताओ को प्रेरित कर पायेंगे। नितिन गडकरी न तो अटल बिहारी वाजपेयी जैसा उत्कृष्ट और चालबाज वक्ता हैं और न ही लाल कृष्ण आडवाणी जैसा संगठन कर्ता। जिन लोगों ने भी गडकरी के भाषण सुने हैं उन लोगो को गडकरी एक औसत दर्जे के ही राजनीतिक लगते हैं। ऐसे लोगों में मैं भी शामिल हूं।
                                             चकाचौंध दुनिया की राजनीतिक समझ और सरोकार पर हमेशा सवाल उठते रहे हैं। इसलिए कि चकाचौंध दुनिया के बल पर राजनीतिज्ञ बने लोग आमजनता से न जुड़ पाते हैं और न ही वे आमजनता का प्रतिनिधित्व करते है। इन्हें राजनीतिक समझ और जनसमस्याओं की समझ भी नहीं होती है। अमिताभ, गोविंदा, राजेश खन्ना, धर्मेन्द्र जैसे चकाचौंध दुनिया की शाख्सियतों का उदाहरण हमारे सामने है। ये चुनाव जीतने के बाद जनता की सेवा की जगह चकाचौंध दुनिया में धन कमाने में ज्यादा सक्रिय रहे। गडकरी ने जिन फिल्मी और सीरियल दुनिया की शख्सियतों पर विश्वास जताया है उनकी राजनीतिक समझ और भाजपा के प्रति समपर्ण की भी एक झलक हम आपको दिखाता हूं। चर्चा स्मृति ईरानी से कर रहा हू। स्मृति ईरानी गडकरी कार्यसमिति में सचिव बनायी गयी है। ये वही स्मृति ईरानी है जो कभी भाजपा के लिए सिर दर्द बनी थी। स्मृति ईरानी पार्टी संविधान और अनुशासन की खुलेआम धजियां उड़ायी थीं। भाजपा की तत्कालीन रांची कार्यसमिति की बैठक के पूर्व यह बयान देकर तहलका मचा दिया था कि मैं रांची में होने वाली भाजपा कार्यसमिति की बैठक नहीं चलने दूंगी। स्मृति ईरानी की मांग थी कि गुजरात दंगों पर नरेन्द्र मोदी को हटाया जाये। यह मांग स्मृति ईरानी ने कांग्रेसियों को बहकावे मे आकर की थी। राजनीतिक समझ नहीं होने के कारण स्मृति ईरानी खुद साजिश का शिकार हो गयी। अनुशासन की धजियां उठाने पर स्मृति ईरानी को भाजपा से बाहर करना चाहिए था पर कार्यसमिति से वह अब भाजपा की सचिव बन गयी है। हेमा मालिनी उपाध्यक्ष बनी हैं पर राज्यसभा में वह किसी भी गंभीर विषय पर तकरार की नायिका रही है? शत्रुघन सिन्हा अपने बयानों से हमेशा बगावत की रेखा खीचते रहें हैं। उनके बयानो से लगता ही नहीं है कि वे भाजपा में हैं या नहीं है
                                      खून-पसीना से सिंच कर भाजपा को सत्ता में लाने वाले कार्यकर्ताओं और संधर्ष के प्रतीक शख्सियत आज जरूर अपनी कूर्बानी को कोस रहे होंगे। क्या ऐसी ही राजनीतिक संस्कृति के लिए समर्पित निष्ठावान और संघर्ष के प्रतीक कार्यकर्ताओ और नेताओं ने अपनी कुर्बानी दी थी। भाजपा पर धनपशुओं, दलालों और रीढ़विहीन-जमीर विहीन शख्सियतों का पूरी तरह से कब्जा हो गया है। कार्यकारिणी में कई ऐसे लोगों को जगह मिली है जिनकी छवि ठीक नहीं है। सिर्फ चमचेबाजी, और धनबाजी की बदौलत उनकी राजनीतिक उन्नति होती रहती है। राजनाथ सिंह के कार्यकाल में ऐसे लोगो की धारा जोर से बही थी। गडकरी ने भी राजनाथ सिंह का ही अनुसरन किया है। कई ऐसे राजनीतिज्ञ हैं जिनकी छुट्टी होने की उम्मीद की जा रही थी लेकिन उनकी छुट्टी तो हुई नहीं पर पदोन्नति जरूर हो गयी। राजीव प्रताप रूढी और रविशंकर प्रसाद जैसे लोगों को प्रदोन्नति हुई है। ये दोनो नेता हवा-हवाई हैं। राजीव प्रताप रूढी का तो कई खिस्से आम हैं। एनडीए सरकार में राजीव प्रताप रूढी मंत्री थे। मंत्री रहने के दौरान रूढ़ी ने भाजपा की खूब किरकिरी करायी थी। एक होटल में दो दिन में दो लाख का बिल उठाने वाले रूढी ने बिल पैमेंट की मांग करने पर होटल बंद कराने की धमकी पिलायी थीं। मीडिया में बात उठने पर होटल को बिल पैमेंट हुआ था। ऐसी शख्सियत होने के बाद भी राजीव प्रताप रूढी गडकरी का आईडियल है।
                                                        भाजपा ने सत्ता में आने के लिए दलित, पिछले और आदिवासियों की जनमत का लाभ उठाया। दलित, पिछडे और आदिवासियों ने भाजपा पर विश्वास जताया। लेकिन इसके बदले में उन्हें अनुपातिक हक नहीं मिला। वाजपेयी सरकार में उनकी उपेक्षा हुई। यही कारण था कि 2004 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को दलित, पिछडे और आदिवासियो ने पाठ पढ़ाया और भाजपा सत्ता से बेदखल हो गयीं। कल्याण सिंह और उमा भारती जैसे नेता भाजपा से बाहर होने के लिए बाध्य हुए। गडकरी ने भी ईमानदारी नहीं दिखायी। अर्जुन मुंडा और धमेन्द्र प्रधान जैसे लोगो को पार्टी पद पर बैठाकर सिर्फ खानापूर्ति ही की गयी है। अल्पसंख्यक समुदाय में सही संदेश देने मेंू भी गडकरी विफल रहे हैं। मुख्तार अब्बास नकवी और शहनवाज हुसैन मुस्लिम समाज पकड़ नही रखते हैं। इसलिए नयी रेखा खींचने की जरूरत थी। आरिफ बेग जैसे पुराने और समर्पित नेता अल्पसंख्यक समुदाय में भाजपा के प्रति अच्छी तस्वीर बना सकते थे। लेकिन गडकरी चूक गये। वरूण गांधी, किरण महेश्वरी, विनय कटियार, थावर सिंह गहलौत और जगत प्रकाश नड्डा जैसे लोगों से गडकरी उम्मीद जरूर कर सकते हैं।
                       गडकरी की टीम को देखने के बाद यह नहीं कहा जा सकता है कि भाजपा एक नये युग में प्रवेश किया है या फिर भाजपा का पुराना जनाधार लौट आयेगा। इसलिए कि भाजपा को अतिरिक्त समर्थन जरूरत है। अतिरिक्त समर्थन की खान दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक राजनीति है। नितिन गडकरी को दलित, पिछडे और आदिवासी राजनीति के प्रबंधन के लिए ठोस कार्यक्रम चलाना होगा। नही ंतो फिर राजनाथ सिंह की तरह गडकरी भी फिसड्डी साबित होंगे।
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Thursday, March 18, 2010

इंडियन मुजाहिदीन की खतरनाक मजहबी राजनीति को कुचलना जरूरी

इंडियन मुजाहिदीन की खतरनाक मजहबी राजनीति को कुचलना जरूरी


विष्णुगुप्त

आयातित आतंकवाद की चुनौतियां उतनी खतरनाक नहीं है जितनी आतंरिक आतंकवाद की चुनौतियां। हम बाहरी और आयातित आतंकवाद का तो सफाया करने में सफल हो सकते हैं और उनके खतरनाक मंसूबों को भी कुचला जा सकता है। पाकिस्तान संरक्षित और आयातित आतंकवाद को कुचलने में काफी हद तक हमें सफलता भी मिली है और कष्मीर को हड़पने के उसके नापाक इरादे सफल नहीं हुए हैं। पर आतंरिक आतंकवाद की जड़ों को कुचलना आसान नहीं होता है। इसलिए नहीं कि आंतरिक आतंकवाद की वीभिषीका कोई अपराजय होती है। इसलिए कि आंतरिक आतंकवाद की जड़ों को कुचलने की राह में कई अटकलें और रोड़ें होते है जो आंतरिक राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक विसंगतियों पर आधारित होती हैं। इंडियन मुजाहिदीन नामक आतंकवादी संगठन आतंरिक आतंकवाद का ही प्रतिनिधित्व करता है। यह सही है कि इंडियन मुजाहिदीन भी पाकिस्तान की आतंकवादी मानसिकता से निकला मजहबी संगठन है पर वह अपने आप को ‘इंडियन‘ परिधि की नीति में बांध रखा है। बटला हाउस कांड में इंडियन मुजाहिदीन की संलिप्तता उजागर हो चुकी है और उसके खतरनाक मंसुबों की क्रमवध सच्चाइयां बाहर आ रही हैं। दिल्ली में सिलसिलेवार बम विस्फोटों, जयपुर बम विस्फोट कांड और उत्तर प्रदेष में हुए अधिकतर बम विस्फोटों में इंडियन मुजाहिदीन के प्रमाणित संलिप्तता रही है। हाल के दिनों में इुंडियन मुजाहिदीन के कई खतरनाक आतंकवादी पकड़े गये हैं। इसमें दिल्ली पुलिस की भूमिका की तारीफ होनी चाहिए। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि इंडियन मंुजाहिदीन की जड़े सही में उखड़ गयी हैं। इंडियन मुजाहिदीन बांग्लादेष, पाकिस्तान और नेपाल में अपनी जड़े मजबूत कर रखी है और इन्ही देशों से भारत में आतंकवादी हमले कराने की साजिष चलती रहती है।
                                     आर्थिक या फिर राजनीतिक प्रश्न कदापि नहीं हैं। यह निष्चित प्रश्न मजहबी है। मजहबी आईने में ही इस प्रश्न को देखा जाना चाहिए। पर अबतक कथित उदारवादी परमपराएं और मानसिकताएं यह मानने के लिए तैयार ही नहीं होती कि यह मानसिकता मजहबी है। कथिततौर पर उदारवादी परमपराएं और मानसिकताएं यह मानती है कि आर्थिक विसमता और राजनीतिक-सामाजिक बईमानी के कारण ही ऐसी मानसिकता और परमपराएं बढ़ती हैं और खतरनाक परिणाम के लिए दोषी है। हिन्दू सांप्रदायिकता और हिन्दू कट्टवादी भी ऐसी मानसिकता के लिए खाद और पानी होती हैं। यानी कि इंडियन मुजाहिदीन की आतंकवादी मानसिकता के लिए हिन्दू संवर्ग जिम्मेदार हैं। यह समानता से परिपूर्ण सोच ही नहीं सकती है। बल्कि इस तरह संरक्षणवादी नीति से आतंकवादी मानसिकता बढ़ती है। हमारे देश में जो आतंकवाद की फसल लहरा रही है और प्रत्येक वर्ष बड़ी संख्या में निर्दोष जिंदगियां शहीद होती हैं, इसके लिए जिम्मेदार कथिततौर पर उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष तबका भी है। सच तो यह है कि हिन्दुत्व की आलोचना करना एक फैशन हो गया है। यह स्थापित हो गया है कि जो शख्सियत हिन्दुत्व को जितना गाली देगा, जितनी आलोचनाएं करेगा वह शख्सियत उतना ही धर्मनिरपेक्ष समझा जायेगा। दुकानदारी भी इसे कह सकते हैं। बडी-बड़ी शख्सियतों की जिंदगी भी इसी दुकानदारी से चलती है। बटला हाउस कांड पर धर्मनिरपेक्ष मानसिकता ने कैसी दुकानदारी चलायी थी , यह सब जाहिर है। दिल्ली पुलिस की बहादुरी की खिल्ली उड़ायी गयी। फर्जी मुठभेड बताकर कहानियां पर कहानियां गढ़ी गयी। बटला कांड पर सुप्रीम कोर्ट ने भी दिल्ली पुलिस को क्लीनचिट दे चुका है फिर भी कथित धर्मनिरपेक्षता की मुस्लिम परस्त राजनीति समाप्त नहीं हो रही है।
                             इंडियन मुजाहिदीन की मुख्य मजहबी नीति है क्या? खुद इंडियन मुजाहिदीन के सरगनाओं के बयान हैं कि वे भारत में मुसलमानों के साथ हो रहे आर्थिक या फिर राजनीतिक बेईमानी के खिलाफ लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं बल्कि उनकी लड़ाई तो भारत में इस्लामिक सत्ता व्यवस्था कायम करने को लेकर है। इंडियन मुजाहिदीन कहता है कि उसे भारत में इस्लामिक व्यवस्था कायम करने के लिए एक और मुहम्मद गोरी चाहिए। उन्हे वही मुहम्मद गोरी चाहिए जिसने भारत 16 बार आक्रमण किया था और भारत की अस्मिता को रौंदा था। इतना ही नहीं बल्कि मुस्लिम सत्ता भी मुहम्मद गोरी ने स्थापित किया था। अंग्रेेजों के आने के बाद भारत में मुस्लिम सत्ता का अवसान हुआ और आजादी मिलने के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम हुई। वर्तमान भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था धर्मनिरपेक्ष है। सभी धर्मो को आगे बढ़ने और अपनी संस्कृति को संरक्षित करने या फिर विकसित करने की छूट है। भारत में इस्लाम फला-फुला। इस्लाम के विकास में कहीं से कोई रूकावटें भी नहीं हुई। फिर भी वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था की जगह इस्लामिक व्यवस्थाएं की मांग का अर्थ क्या हो सकता है? इसके पीछे की मानसिकता कैसी होगी? इसके दुष्परिणाम क्या होंगे? सबसे बड़ी बात तो यह है कि क्या हम इंडियन मुजाहिदीन जैसे विभाजनकारी और खूनी चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार हैं? उत्तर कदापि नहीं। इंडियन मुजाहिदीन की खतरनाक मंसुबों को कुचलने में हमारी राजनीतिक-सामजिक और मजहबी विसंगतियां हैं जिसे तोड़ने की कहीं से कोई उम्मीद भी तो नहीं दिखती है।
                                             आखिर इंडियन मुजाहिदीन जैसे सभी आतंकवादी संगठनों के खूनी पंजों को मरोड़नें में राजनीतिक, सामाजिक विसंगतियां क्या है। वास्तव हमारे देश में वोट की राजनीति के कारण राष्ट की अस्मिता के साथ खिलवाड़ होता रहा है और मुस्लिम आतंकवाद का संरक्षण मिलता रहा है। बटला हाउस कांड में उत्तर प्रदेष के आजमगढ़ जिले के मुस्लिमों की संलिप्तता जाहिर हुई। आजमगढ आतंकवाद की ष्षरणस्थली ही नहीं बल्कि कारखाना है। आजमगढ में आतंकवाद की जड़ों को खंगालने और उसे नेस्तनाबुद करने की जगह संरक्षण दिया जा रहा है। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह का आजमगढ़ की वोट यात्रा क्या किसी से छिपी हुई बात है? आजमगढ़ में दिग्विजय सिंह ने जिस तरह की तान छेड़ी उससे क्या हम आतंकवाद से लड़ सकते हैं। कांग्रेस आज सत्ता में है। कांग्रेस को यह मालूम है कि उसकी सत्ता का स्थायीकरण तभी संभव है जब मुस्लिम समुदाय का एकपक्षीय रूझान उनके पक्ष में जाये। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की यह नीति सफल रही है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट से मुस्लिम समुदाय की नाराजगी भी दूर हुई है। पिछड़ी और दलित जातीय राजनीतिक पार्टियां कभी मुस्लिम वोटों की खरीददार थी। अब वे खुद हासिये पर खड़ी हैं या फिर आज की राजनीतिक सत्ता संतुलन की परिधि से बाहर है। आज की तारीख में कांग्रेस मुस्लिम वोट बैंक का थोकखरीदार है और मुस्लिम समुदाय भी कांग्रेस के साथ खड़ी है। ऐसी स्थिति में आतंकवाद पर अकुश लग ही नहीं सकता है?
                     राष्ट्र सर्वोपरी है। राष्ट्र की अस्मिता के साथ खिलवाड़ होना ही नहीं चाहिए। वोट की राजनीति पर राष्ट्र की अस्मिता के साथ समझौता करना खतरनाक राजनीति है। कालांतर मे हम इसके परिणाम से दो-चार हो चुके है। इंडियन मुजाहिदीन की आतंकवादी चुनौती को गंभीरता से क्यो नहीं लिया जा रहा है? इंडियन मुजाहिदीन भारत में इस्लामिक व्यवस्था कायम करना चाहता है। इसलिए उसके साथ किसी भी प्र्रकार का नरमी बरतने के मतलब क्या है? यह सही है कि राजनीतिक बंदिषों के बाद भी इंडियन मुजाहिदीन के बड़े-बड़े सरगना पकड़े गये हैं और वे जेलों में कानूनी बंधन में कैद है। लेकिन उसकी जड़े न तो समाप्त हुई है और न ही कमजोर हुई है। नेपाल, पाकिस्तान और बांग्लादेष में बैठकर इंडियन मुजाहिदीन के सरगना भारत मे आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने की साजिशें रचने में लगे रहते हैं। इंडियन मुजाहिदीन के खिलाफ कठोर राजनीतिक नीति की जरूरत होगीं। गुप्तचर व्यवस्थाओं को मजबूत करने के साथ ही साथ कानूनी घेरेबंदी को भी मजबूत करना होगा, तभी इंडियन मुजाहिदीन की खतरनाक शरीयत चुनौतियों को नेस्तनाबुत किया जा सकेगा।


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