Sunday, February 7, 2010

राहुल गांधी के पक्ष में जनमत बनाता मीडिया

राष्ट्र-चिंतन


राहुल गांधी के पक्ष में जनमत बनाता मीडिया

लड़कियों से हाथ मिलाने और हंसी-फुहार करने से देश की किस्मत नहीं बनायी जा सकती?



विष्णुगुप्त


क्या भारतीय मीडिया कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के पक्ष में जनमत बनाने में लगा हुआ है? क्या ‘पेड न्यूज‘ की तरह राहुल गांधी की हाथ मिलाने और चेहरे टू चेहरे से रूकरू होने की यात्राएं भी प्रायोजित हैं? अगर नही तो फिर राहुल गांधी को आईना दिखाने वाली घटनाएं मीडिया की सुर्खियां क्यों नहीं बनती हैं? मीडिया की सुर्खियों में राहुल गांधी की पक्षवाली खबरों की प्रमुखता ही क्यो होती? महंगाई, मजदूर-किसान के पक्ष में राहुल गांधी से पूछे गये प्रश्नों और विरोधों की घटनाएं मीडिया से नदारत क्यों होती हैं? कौन ऐसा दिन न होता जिसमें राहुल गांधी और उनकी इतालवी मां सोनिया गांधी की खबरों-तस्वीरों से अखबारों और टेलीविजन के पर्दे भरी नहीं होती है? क्या महंगाई की बझ़ती आंच और किसानों-मजदूरों की आत्महत्या पर अखबार और टेलीविजन वाले राहुल गांधी और सोनिया गांधी की प्रभावकारी खिंचायी करते है? आखिर राहुल गांधी और मीडिया का यह फ्रेडली मैच कब तक चलता रहेगा? क्या भारतीय मीडिया अब जनमुद्दों से हटकर सिलिब्रिटी सरोकार और चत्मकार के चंगुल से घिरा हुआ है? फिर मीडिया की स्वतंत्रता और लोकतंत्र के चैथे स्तंभ की पदवि का क्या होगा? ऐसी स्थिति मे ‘मीडिया‘ को लोकतंत्र का चैथा स्तंभ क्यों और किस आधार पर माना जाना चाहिए? राहुल के प्रोपगंडा पर एक तर्क यह भी हो सकता है कि राहुल गांधी और सोनया गाध्ंाी से जुड़ी खबरें बिकती है। यानी यह बाजार का खेल है। इस तर्क पर मीडिया को ‘मिशन‘ और लोकतंत्र के चैथे स्तंभ का आवरण भी हटाना होगा।
                 भारतीय मीडिया राहुल गांधी के प्रचार-प्रसार और उनके पक्ष मे जनमत बनाने में किस कदर संलग्न है, इसकी एक झलक हम आपको दिखाते हैं। राहुल गांधी के बिहार दौरे मे मीडिया की दोहरी और पक्षपाती भूमिका को भी देखिये। बिहार दौरे में मीडिया ने यह दिखाया कि ‘बिहारी लड़कियां‘ राहुल गांधी की एक झलक पाने के लिए किस तरह दौड़ रही हैं। टेलीविजनों और प्रिंट मीडिया में राहुल गांधी की एक झलक पाने के लिए दौड़ती बिहारी युवतियों की तस्वरें-समाचार दिखाने और छापने में होड़ पर होड़ रही। पर यह नहीं दिखाया गया या फिर छापा गया कि बिहार के ‘भितिहरवा ‘ में बिहारी युवक-युवतियों के सवालों के प्रहार से राहुल गांधी ऐसे तिलमिलाये कि हाथ मिलाने की सभा और फैशन परैड को छोड़कर भाग खड़े हुए। बिहारी युवक-युवतियों के सवालों को राहुल क्यों नहीं झेल पाये? कहां गयी राहुल गांधी की राजनीतिक चतुरायी? राहुल गांधी की राजनीति और जादू बिहार के युवक-युवतियो पर क्यों नहीं चला? कायदे से ये सभी धटनाएं मीडिया की सुर्खियां बननी चाहिए थी। ऐसा तो तब होता जब मीडिया स्वयं निष्पक्ष भूमिका में होती?
                       वास्तव में राहुल गांधी और उनके चाटूकार मंडली को यह पता नहीं होगा कि वह भूमि पर आंदोलनों और वैचारिक संम्पन्नता के साथ ही साथ दृढ़ता के लिए जानी जाती है। ‘भितिहरवा‘ वह भूमि थी जहां से राष्टपित महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ धतुंगा फंूका था। ‘निलहे‘ किसानों की दुर्दशा और ‘निलहे किसानों‘ के पक्ष मंें महात्मा गांधी के आंदोलन ने अंगेंजों के जड़ों में माठा डाला था। बिहारी युवक-युवतियों ने राहुल गांधी से राजनीति की जगह किसान-मजदूरों के उत्थान की बात पूछी थी, उनकी सरकार महंगायी की आंच क्यो बढ़ा रही है? इस पर राहुल गांधी ने गुजरात का सवाल उठा दिया और इतना ही नहीं बल्कि उन्होने यह भी कह दिया कि बिहार को गुजरात मत बनाइये। बिहार की तुलना गुजरात से करने पर राहुल गांधी के खिलाफ युवक-युवतियों में गुस्सा फूटना स्वाभाविक था। पिछले बीस साल में बिहार में कोई दंगा-फसाद नहीं हुआ है। फिर राहुल गांधी ने किस आधार पर बिहार की तुलना गुजरात से की थी। प्रतिप्रश्न पर राहुल गांधी के पास जवाब था नहीं। अपनी फजीहत होते देख राहुल गांधी ‘भितिहरवा‘ छोड़कर भागना ही अच्छा समझा। जबकि ‘भितिहरवा‘ में एक घंटा का उनका कार्यक्रम था। मात्र 15 मिनट में ही राहुल गाध्ंाी की पूरी ज्ञानसंसार न जाने कहां खो गया।
                      किसी कलावती के यहां भोजन कर लेने मात्र से देश की गरीबी समाप्त हो जायेगी? राहुल गांधी और उनकी चाटूकार मंडली के साथ ही साथ मीडिया संवर्ग ने यह मान िलया कि राहुल गांधी के किसी कलावती या फिर दलितों-आदिवासियों के घरों मे भोजन करने और रात गुजारने से सही में उनका भला हो जायेगा। राहुल गांधी ने कलावती के यहंा भोजन किया, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, सहित कई राज्यों में दलितों-आदिवासियों के घरों में रात गुजारी और मीडिया में बड़ी-बड़ी तस्वरें खिंचवायी-प्रसारित करायी। सोहरत बटोरी। पर क्या सही में देश भर के दलितों-आदिवासियों की गरीबी दूर हो गयी। उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याएं समाप्त हो गयी या फिर उनकी राजनीतिक भूमिका सुनिश्चित हो गयी। देश में अधिकतर समय में कांग्रेस की सत्ता रही है। आजादी के इतने दिनों के बाद भी दलितों-आदिवासियों की दुर्दशा खराब है तो इसके लिए कांग्रेस पार्टी ही तो जिम्मेदार मानी जायेगी। कोई अम्बेडकर, कोई काशी राम, कोई मायावती, कोई शिबू सोरेन आदि कांग्रेस की दलित-आदिवासी विरोधी नीतियो से ही भारतीय राजनीति में स्थापित होते रहे हैं। राहुल गांधी की पार्टी की सरकार ने किस कदर देश के गरीबों के पेट पर डाका डाल रहा है, यह किसी से छिपा हुआ है क्या? महंगाई की आंच से झुलसने वाले सर्वाधिक संवर्ग दलित-आदिवासियों और अन्य निर्धण समुदाय नहीं है?
                  राहुल गांधी के युवा सरोकारों से चमत्कृत मीडिया और बुद्धीजीवियों को इसकी सच्चाई भी जान लेना चाहिए। युवा कौन हैं। क्या सोनिया गाध्ंाी-राजीव गांधी के बेटा राहुल गाध्ंाी, जीतेन्द्र्र प्रसाद का बेटा जतिन प्रसाद, राजेश पायलट का बेटा सचिन पायलट, शीला दीक्षित का बेटा संदीप दीक्षित,माधवराज सिंघियां का बेटा ज्योतिरादित्य राज सीधियां जैसे लोग ही युवा हैं? कांग्रेस में जिन युवाओ की पौबारह है या आगे लाने का श्रेय लूटा जा रहा है वे क्या सही में आमलोग के बीच से उपर उठकर आगे आये हैं? ये सभी युवा परिवारवाद की वैशाखी पर राजनीतिक में चमके हैं। दिल्ली, मुबंई, चैन्नई, बंगलूर, हैदराबाद, अहमदाबाद गांधीनगर और कोलकात्ता में रहने वाले महानगरीय युवाओ की ही बात क्यों होती है। देश के दूरदराज क्षेत्रों के युवा संवर्ग को आज देखने वाला कौन है? सही तो यह है कि देश में युवाओ की बैरोजगार खड़ी हो रही है। शिक्षा का महंगीकरण किया गया। व्यवसायियों और उद्योगपतियो को शिक्षा की दुकानदारी सजाने और लूट कर अपनी तिजोरी भरने की पूरी छूट दे दी गयी। क्या आम आदमी सूचना तकनीकी की शिक्षा अपने बच्चों को दिला सकता है। कदापि नहीं।कम से कम पांच से दस लाख रूपये के पैकेज पर सूचना तकनीकि की शिक्षा सुलभ होती है। ऐसे में आम आदमी का बेटा क्या आज के दौर में आगे बढ़ सकता है? ऐसे युवा संवर्ग के लिए राहुल गांधी के पास कौन सा कार्यक्रम और उनकी अपनी सरकार कौन सा कदम उठा रही है?
                      हंसी-फूहारे से देश की किस्मत बदली जा सकती है? सात साल से राहुल गांधी संसद में हैं। सात सालों में संसद में सिर्फ एक बार ही अपनी जबान खोली है। वह भी लिखित भाषण पढ़ने का काम किया है। बडी सभाओ में बोलने से अभी भी राहुल का परहेज है। वे कालेज की लड़के-लड़कियों से हाथ मिलने और थोड़ी हंसी-फूंहारे से देश की किस्मत बदलना चाहते हैं। राजनीतिक-सामाजिक समझ से अभी भी राहुल कोसो दूर हैं। पिछले उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में राहुल गांधी ने अपनी राजनीतिक जगहंसाई कराने की कड़ियां फोड रहे थे। तब उन्होने कहा था कि अगर मैं चाहता तो अपने पिता की हत्या के समय ही प्रधानमंत्री बन जाता। उस समय राहुल गांधी की उम्र सांसद बनने की भी नहीं थी। फिर वे प्रधानमंत्री कैसे बन जाते?राहुल गाध्ंाी, उनकी माता सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह कमजोर विपक्ष का राजनीतिक लाभ उठा रहे हैं।
            मीडिया का राहुल गांधी के प्रति अतिप्रेम कई सवाल खड़े कर दिये हैं। मीडिया अगर अपने साख के प्रति सचेत है तो क्या उसे राहुल गांधी के प्रति अतिप्रेम दिखाना चाहिए? मीडिया की स्वतंत्रता ही नहीं बल्कि निस्पक्षता भी जरूरी है।
 - 09968997060

7 comments:

  1. युवराज प्रोजेक्ट करना मीडिया की मजबूरी है. अब क्यों है ये तो मीडिया ही जाने. वैसे चिकने-चुपड़े चेहरे दिखाने से हो सकता है कि भूख लगना बन्द हो जाती हो, हारी-बीमारी दूर हो जाती हो. यहां कोई भी आजाद नहीं हो सका. मन अभी भी गुलाम है. एक कृत्रिम आभामंडल तैयार कर भविष्य का शासक लोगों के मन में घुसेड़ा जा रहा है.

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  2. आप की पोस्ट पढ़ कर आँखे खुल गई।आपने बहुत बेबाकी से अपनी बात व विचार प्रकट किए हैं...आम आदमी तो वही देखता है जो मीडिया उन्हें दिखाता है....लेकिन जो बातें वह किसी दबाव या किसी भी कारण से छुपा जाता है.उस से आम जनता के सामने इन का असली चेहरा छिपा रहता है....जिस कारण जनता गुमराह होती है...आप ने बहुत कुछ उजागर कर दिया....बधाई।

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  3. vastvikta ko vykt krne ke liye sadhuvad
    dr.vedvyathit@gmail.com

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  4. विष्णु जी, आपसे पूर्णतयः सहमत हूँ. वास्तव में देखा जाये तो लालू यादव और कांग्रेसी युवराज में सिर्फ क्लास का फर्क है. लालू गँवाई अंदाज में वही सब करते थे जो आज राहुल बाबा राजसी अंदाज में अभिजात्य रूप से कर रहे हैं. दोनों को सत्ता की मलाई मिल गयी लेकिन इनसे जनता का कोई भला नहीं होना है. मीडिया तो पूरी तरह से उन्ही पूंजीपतियों के चंगुल में है जो अपने हितों को साधने के लिए इन्हें सत्ता सिंहासन तक पंहुचाता है, फिर मीडिया आखिर भडैती क्यूँ न करेगा? एक सोचे -समझे प्लान के तहत यह सब कुछ हो रहा है. अगर आप मीडिया में बैठे लोगों को पत्रकार कहते हैं तो यह पत्रकारिता के पेशे को गाली देना है. वे सिर्फ मीडिया घरानों की चाकरी करने वाले मजदूर हैं. वे सामाजिक सरोकारों के लिए नहीं बल्कि अपने घर के चूल्हे को जिन्दा रखने के लिए कलम घिसते हैं या फिर आलीशन घर, मंहगी गाड़ी की किश्तों के जुगाड़ में टेलीविजन पर चीख-चीखकर इनके पक्ष में चारण पाठ करते है.

    जनता को अपनी कारगुजारियों से अनभिज्ञ रखने के लिए न सिर्फ मीडिया को मैनेज किया जा रहा है बल्कि कृत्रिम मंहगाई के द्वारा उसे लूटने और फिर से राशन की कतारों में खड़ा होने को मजबूर किया जा रहा है. ये जनता को इतनी फुर्सत ही नहीं देना चाहते कि वह रोजी-रोटी, चूल्हे-चौके की उलझनों से फारिग होकर इनकी कारगुजारियों पर ध्यान दे सके. यह कांग्रेसी साजिश आज से नहीं आजादी के समय से ही चली आ रही है. दुर्भाग्य है इस देश का कि वह इसे भोगने को अभिशप्त है...........

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  5. @ Indian Citizen ji मैं बताऊ मालिक निहित स्वार्थी चाटुकार है, कर्मियों को हिदायत दिए रखे होंगे कि भैया को सुशु भी आये तो उस पर भी नजर रखो, और आप तो जानते ही है कि हम लोग मालिक को खुश करने के लिए जान तक की बाजी लगा देते है (दूसरों की ) :)

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  6. राहुल गाँधी एक "प्रोडक्ट" की तरह मार्केटिंग से पेश किये जा रहे हैं, लेकिन जब तक प्रोडक्ट में दम ना हो वह बाजार में एंट्री तो धूमधाम से कर जाता है, लेकिन उसकी कलई जल्दी ही खुल जाती है। पोल तो खुल रही है उनकी, रही बात राहुल बाबा के ज्ञान की, तो एक बार वे नेपाल को भारत का हिस्सा बता चुके हैं… :)

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  7. ‘भितिहरवा‘ जैसा ही कुछ इंदौर में हुआ था. किसी ने पूछा की राजनीती में भर्ष्टाचार क्यों इतना ज्यादा है? जवाब आया 'क्या मैं आपको भ्रष्ट दिखाई देता हूँ?!!!

    यह भोंदू युवराज chhote shaharon के कॉलेज के आम छात्रों के सवालों पर ही लाजवाब हो जाता है. अगर इसे कभी प्रधानमंत्री बना दिया गया तो दुनिया भर के घाघ राजनेता और चालाक कूटनीतिज्ञ इसकी तो सरेआम पैंट ही उतार कर बेच देंगे!

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