Wednesday, April 21, 2010

शशि थरूरो का यही हस्र होना चाहिए

शशि थरूरो का यही हस्र होना चाहिए

विष्णुगुप्त



शशि थारूर जैसी फैशनपरस्त, जनविरोधी और परसंप्रभुता को साधने वाली शख्सियत रातोरात राजनीति में स्टार क्यों बन जाते हैं। भारतीय राजनीति में फैशनपरस्त, अपराधी, चमचो और परहित साधने वालों की भूमिका बढ़ती जा रही है। जनता की बात करने की जगह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों सहित परसंप्रभुता की पक्षधारी राजनेताओं से संसद और विधान सभाएं भरी पड़ी है। कभी कोई सांसद और मंत्री कहते हैं कि महंगाई नहीं घटेगी। कभी कोई संासद और मंत्री जनता की परेशानियो को दूर करने की जगह तेल कीमतों को बढ़ाने में दिलचस्पी रखता है। क्या देश को आजाद कराने के लिए हमारे पूर्वजो ने इसी लिए कुर्बानियां दी थी? क्या हमारी राजनीति सही में शशि थरूर से कोई सबक लेगी।
                                    क्लर्कगिरी-बाबूगिरी और राजनीति मे फर्क नहीं समझने वालों का वही हस्र होता है जो शशि थरूर का हुआ है। शाशि थरूर संयुक्त राष्ट्रसंघ की चाकरी में थे। फाइल ढ़ोना और बॉस का हुक्म की मानसिकता का संतुष्ट करने भर की उनकी जिम्मेदारी थी। अचानक शशि थरूर साहब के भाग्य ने पलटी मारी और वह सब उन्हें हासिल हो गया जो वर्षो-वर्ष की राजनीतिक और कूटनीतिक तपस्या के बाद भी दूसरों को नहीं मिलती है। भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव के पद पर चुनाव लड़ने के लिए उन्हें नामित कर दिया। बानकी मुन के सामने शशि थरूर कोई चमत्कार नहीं कर सके। पर वे संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव के पद पर चुनाव लड़ने से विश्वविख्यात हो जरूर हो गये। भारतीय मीडिया और बुद्धीजीवी ने भी रातोरात शशि थरूर को अपना खैवनहार मान लिया। चर्चे और प्रशंसाएं ऐसी कि सही में शशि थरूर कूटनीतिक महारथी हैं और शशि थरूर के कूटनीतिक महारथ का भारत फायदा उठाकर विश्व में अपना धाक जमा सकता है। इसी चर्चे और प्रशंसाओं पर सवार होकर शशि थरूर न केवल कांग्रेस के लोकसभा चुनाव लड़ने का टिकट पाये बल्कि चुनाव जीतकर विदेश राज्य मंत्री जैसे जिम्मेवार पद पर विराजमान हो गये। अमेरिका ने शशि थरूर की जगह बानकी मुन को समर्थन क्यो दिया था, उसका भी परीक्षण-विश्लेषण भारतीय मीडिया और कांग्रेस ने करने की जरूरत नहीं समझी थी। शशि थरूर पर जार्ज बुश की टिप्पणी थी कि गैर कूटनीतिक और विश्व राजनीति की अनुभवहीन शख्सियत पर विश्वास कैसे किया जा सकता है। जार्ज बुश की वह टिप्पणी आज शशि थरूर पर सही साबित हो रही है।
                    शशि थरूर को मुर्ख कहा जाये या भ्रष्ट कहा जाये या फिर गैर राजनीतिज्ञ कहा जाये? शशि थरूर पर एक राय बनानी मुश्किल है। गैर जिम्मेदार और गैर राजनीतिज्ञ के साथ ही साथ मुर्ख कहना ज्यादा सटीक होगा। शशि थरूर किसके प्रतिनिधि थे? इनके ट्विटर पर रखे विचारों को गौर करें तो साफ स्पष्ट होता है कि वे विदेश राज्यमंत्री जैसे जिम्मेदार और कूटनीतिक दक्षता मांगने वाले पद पर बैठने के लायक कहीं से भी नहीं थे। विदेश राज्य मंत्री बनने के साथ ही साथ उनकी कारस्तानियां, फैशनपरस्ती और संसदीय राजनीति के प्रति अंगभीरता की कंडिया बननी शुरू हो गयी थी। विदेश मंत्रालय के पैसो पर ये फाइव स्टार होटलों में तीन महीने तक रहे। वह भी प्रतिदिन 50 हजार रूपये खर्च पर। मामला मीडिया में उठने और प्रणव मंत्री के डांट पड़ने पर इन्होंने फाइव स्टार होटल छोड़ी। विमानों में इक्नोनॉमी क्लास में सफर करने वाले देश के नागरिको को थरूरी ने भेंड़-बकरी क्लास कहकर खिल्ली उड़ायी। इतना तक तो बर्दाश्त किया जा सकता था। पर इनके तीन ऐसी नादानियां रहीं है जिससे भारत की कूटनीतिक संवर्ग को न केवल परेशानियां झेलनी पड़ी बल्कि भारतीय संप्रभुता पर भी आंच आने की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। पहली नादानी थी पाकिस्तान के नागरिकों के पक्ष में खड़ा होना। पाकिस्तान द्वारा आतंकवादियो को शरण देने और मुबंई आतंकवादी हमले में पाकिस्तानी मूल के अमेरिकी नागरिक हेडली के प्रमाणित आरोप उजागर होने के बाद भारत के विदेश मंत्रालय ने पाकिस्तानी मूल के नागरिकों की बीजा नीति बदली थी। पाकिस्तानी नागरिकों के बीजा मिलने के नियमों को कठोर बनाया गया था। इस पर शशि थरूर आग बबूला हो गये और गुस्से में ट्विटर पर विदेश मंत्रालय की इस नीति की खिल्लियां उड़ायी और पाकिस्तानी नागरिकों के पक्ष में बैंटिंग की।
                    दूसरी उनकी बड़ी नादानी थी कश्मीर पर सउदी अरब का मध्यस्थ बनाने की बात करना। कश्मीर हमारा अटूट अंग है। भारत ने कभी भी और किसी भी परिस्थिति मे कश्मीर पर तीसरे देश की मध्यस्थता की बात नहीं स्वीकारी है और न ही ऐसी किसी भी विचार प्रक्रिया को भारत ने गति दिया था। सउदी अरब सहित अन्य सभी मुस्लिम देश कश्मीर पर पाकिस्तान के पक्षगामी है। भारत के हितों के खिलाफ पाकिस्तान का पीठ थपथपाने की नीति मुस्लिम देशों के सिर पर चढ़कर बोलती है। सउदी अरब घोषित तौर पर पाकिस्ताने के पक्ष में खड़ा रहने वाला मुस्लिम देश है। उसने एक बार भी कश्मीर मे पाकिस्तान संरक्षित आतंकवाद की निंदा नहीं की है बल्कि अपप्रत्यक्षतौर पर वह कश्मीर में आतंकवादी मानसिकता का समर्थ्रन भी करता आया है। मुबंई के अंडरडॉन दाउद इ्रब्राहिम सहित अन्य मुस्लिम गंुडे क्या सउदी अरब में रह कर भारत विरोधी कार्यो में संलग्न नहीं है? क्या सउदी अरब ने भारतीय गंुडों के खिलाफ कभी भी कोई कार्रवाई की है। ऐसे दुश्मन सोच और मानसिकता रखने वाले देश को कश्मीर पर मध्यस्थ बनाने का पक्षधर होना आश्चर्य की ही बात नहीं है बल्कि भारतीय संप्रभुता के खिलाफ उठा कदम माना जाना चाहिए। उनकी तीसरी नादानी महात्ता गाधी से जुड़ी हुई है।महात्मा गांधी को देश ने बापू माना है। पूरी दुनिया महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानती है। उनके जन्मदिन दो अक्टूबर को देश में छुट्टी रहती है। छुट्टी का मतलब सिर्फ आराम नहीं होता है बल्कि भावी पीढ़ी को विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से महात्मा गांधी के विरासत से अवगत कराना भी एक ध्यैय है। पर दो अक्टूबर की महात्मा गांधी जयंती पर छुट्टी पर ही शशि थरूर ने सवाल उठा दिया। शशि थरूर जिस पाटी में हैं वह पार्टी नेहरू के विरासत से जुड़ी है और नेहरू की नीतियों पर चलती है। नेहरू की सोवियत संघ के पक्षधरी की भी शशि थरूर ने खिल्लियां उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
                                     शशि थरूर प्रकरण में कांग्रेस पार्टी भी आलोचना और निंदा की पात्र मानी जानी चाहिए। सिद्धांतवादी राजनीति के मूलमंत्र में शशि थरूर की बिदाई उसी दिन हो जानी चाहिए थी जिस दिन उन्होंने विमानों के इकोनॉमी क्लास में सफर करने वाले देशवासियों को भेड-बकरी क्लास से नवाजा था। अगर उस समय शशि थरूर पर कड़े निर्णय आ जाते तो आपीएल जैसी पटकथा बनती ही नहीं। आईपीएल में कोच्चि टीम को लेकर जिस तरह से शशि थरूर ने अपने पद का दुरूपयोग किया है उससे भारतीय राजनीति में साफ-सूथरे चरित्र पर आक्षेप क्यों नहीं माना जाना चाहिए। अपने होने वाली बीबी सुनंदा को उन्होंने कोच्चि टीम के शेयर दिलाये। सुनंदा इतने बड़ी शेयर प्रापर्टी खरीदने की कुबत रखती थी ही नहीं। सभी तथ्य सामने आ जाने के बाद भी इस्तीफे नहीं देने की बात करना भी शशि थरूर के लिए भारी पड़ गया। अपने बचाव में केरल की भावनात्मक नीतियां भी उठायी। कांग्रेस को यह मालूम था कि शशि थरूर ने अपने पद का दुरूपयोग किया है। आयकर विभाग और आईबी की रिपोर्ट में शशि थरूर और उनकी बीबी सुनंदा पुस्कर सीधेतौर पर दोषी पाये गये। सुनंदा पर दाउद कम्पनी के लिए काम करने की बात भी उठी। ऐसी परिस्थति में कांग्रेस के लिए शशि थरूर परेशानी के सबब बन सकते थे। कांग्रेस के लिए शशि थरूर को विदेश राज्य मंत्री के पद से बिदा करना ही उचित था।
                शशि थरूर का प्रकरण भारतीय राजनीति के लिए एक सबक है। राजनीति में जवाबदेही जनता के प्रति होती है। जनता की इच्छाओं का सम्मान करना जरूरी होता है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि शशि थरूर जैसी शख्सियत रातोरात राजनीति में स्टार क्यों बन जाते हैं। सही तो यह है कि भारतीय राजनीति में फैशनपरस्त, अपराधी, चमचो और परहित साधने वालों की भूमिका बढ़ती जा रही है। जनता की बात करने की जगह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों सहित पर संप्रभुता की पक्षधारी राजनेताओं से संसद और विधान सभाएं भरी पड़ी है। कभी कोई सांसद और मंत्री कहते हैं कि महंगाई नहीं घटेगी। कभी कोई संासद और मंत्री जनता की परेशानियो को दूर करने की जगह तेल कीमतों को बढ़ाने में दिलचस्पी रखता है। क्या देश को आजाद कराने के लिए हमारे पूर्वजो ने इसी लिए कुर्बानियां दी थी? क्या हमारी राजनीति सही में शशि थरूर से कोई सबक लेगी?


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Friday, April 9, 2010

वैटिकन सेक्स स्कैंडल

पादरी बनिये,  बलात्कार कीजिए,   पहुंच जाइये      ‘पोप‘  की शरण में  -  बच जायेंगे


विष्णुगुप्त



                                                                                अब आयी वैटिकन सिटी की असली कहानी। मानवता और कल्याण के नाम पर क्रूरता और लोमहर्षक खेल का यह है संरक्षणवादी नीति। पोप बेनेडिक्ट सोलहवें और कैथलिक चर्च की दया, शांति और कल्याण की असलियत दुनिया के सामने उजागर ही हो गयी। जब पोप बेनेडिक्ट सोलहवें और कथौलिक चर्च का क्रूर-अमानवीय चेहरा सामने आया तब ‘विशाषाधिकार‘ का कवच उठाया गया। कैथ लिक चर्च ने नयी परिभाषा गढ़ दी कि उनके धर्मगुरू पोप बेनेडिक्ट सोलहवें पर न तो मुकदमा चल सकताा है और न ही उनकी गिरफ्तारी संभव हो सकती है। इसलिए कि पोप बेनेडिक्ट न केवल ईसाइयों के धर्मगुरू हैं बल्कि वेटिकन सिटी राष्ट्र के राष्ट्राध्यक्ष भी हैं। एक राष्ट्रध्यक्ष के तौर पर पोप बेनेडिक्ट सोलहवें की गिरफ्तारी हो ही नहीं सकती है। जबकि अमेरिका और यूरोप में कैथलिक चर्च और पोप बेनेडिक्ट सोलहवें की गिरफ्तारी को लेकर जोरदार मुहिम चल रही है। न्यायालयों में दर्जनों मुकदमें तक दर्ज करा दिये गये हैं और न्याायलयों में उपस्थिति होकर पोप बेनेडिक्ट सोलहवें को आरोपों का जवाब देने के लिए कहा जा रहा है। यह सही है कि पोप बेनेडिक्ट सोलहवें के पास वेटिकन सिटी के राष्ट्राध्यक्ष का कवच है, इसलिए वे न्यायालयों में उपस्थित होने या फिर पापों के परिणाम भुगतने से बच जायेंगे पर कैथलिक चर्च और पोप की छवि तो घूल में मिली ही है इसके अलावा चर्च में दया, शांति और कल्याण की भावना जागृत करने की जगह कुकर्मों की पाठशाला कायम हुई है, इसकी भी पोल खूल चुकी है। चर्च पादरियों द्वारा यौन शोषण के शिकार बच्चों के उत्थान के लिए कुछ भी नहीं किया और न ही यौन शोषण के आरोपी पादरियो के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई है। इस पूरे घटनाक्रम को अमेरिका-यूरोप की मीडिया ने वैटिकन सेक्स स्कैंडल का नाम दिया हैं। कुछ दिन पूर्व ही पोप बेनेडिक्ट सोलहवें ने आयरलैंड में चर्च पादरियों द्वारा बच्चों के यौन शोषण के मामले प्रकाश मे आने पर इस कुकृत्य के लिए माफी मांगी थी।
                                  पोप बेनेडिक्ट सोलहवें पर कोई सतही नहीं बल्कि गंभीर और प्रमाणित आरोप हैं जो उनकी एक धर्माचार्य और राष्ट्राध्यक्ष की छवि को तार-तार करते हैं। अब यहां यह सवाल है कि पोप बेनेडिक्ट सोलहवें पर आरोप हैं क्या? पोप बेनेडिक्ट सोलहवें पर कुकर्मी पादरियों को संरक्षण देने और कुकर्मी पादरियों को कानूनी प्रक्रिया से छुटकारा दिलाने का आरोप हैं। पोप बेनेडिक्ट सोलहवें ने कई पादरियों को यौन शोषण के अपराधों से बचाने जैसे कुकृत्य किये हैं पर सर्वाधिक अमानवीय, लोमहर्षक व चर्चित पादरी लारेंस मर्फी का प्रकरण है। लारंेंस मर्फी 1990 के दशक में अमेरिका के एक कैथलिक चर्च में पादरी थे। उस कैथलिक चर्च में अनाथ, विकलांग और मानसिक रूप से बीमार बच्चों के लिए एक आश्रम भी था। पादरी लारेंस मर्फी पर 230 से अधिक बच्चों का यौन शोषण का अरोप है। सभी 230 बच्चे अपाहिज औेर मानसिक रूप से विकलांग थे। इनमें से अधिकतर बच्चे बहरे भी थे। मानिसक रूप से बीमार और अपाहिज बच्चों के साथ यौन उत्पीड़न की धटना सामने आने पर अमेरिका में तहलका मच गया था। कैथलिक चर्च की छवि के साथ ही साख पर संकट खड़ा हो गया था। कैथलिक चर्च में विश्वास करने वाली आबादी इस घिनौने कृत्य से न केवल आका्रेशित थी बल्कि कैथलिक चर्च से उनका विश्वास भी डोल रहा था। कैथलिक चर्च को बच्चों के यौन उत्पीड़न पर संज्ञान लेना चाहिए था और सच्चाई उजागर कर आरोपित पादरी पर अपराधिक दंड संहिता चलाने में मदद करनी चाहिए थी। लेकिन कैथलिक चर्च ने ऐसा किया नहीं। यौन उत्पीड़न की घटना को कैथलिक चर्च द्वारा दबाने की ही कोशिश हुई। कैथलिक चर्च को इसमें अमेरिकी सत्ता का सहायता मिली। विवाद के पांव लम्बे होने से कैथलिक चर्च की नींद उड़ी और उसने आरोपित पादरी लारेंस मर्फी पर कार्रवाई के लिए वेटिकन सिटी और पोप को अग्रसारित किया था।
                                          पोप बेनेडिक्ट सोलहवें का उस समय नाम कार्डिनल जोसेफ था और वैटिकन सिटी के उस विभाग के अध्यक्ष थे जिनके पास पादरियों द्वारा बच्चों के साथ यौन उत्पीड़न किये जाने की जांच का जिम्मा था। पोप बेनेडिक्ट ने पादरी लारेंस मर्फी को सजा दिलाने में कोई रूचि नहीं दिखलायी। बात इतनी भर थी नहीं। बात इससे आगे की थी। मामले को रफा-दफा करने की पूरी कोशिश हुई। लारेंस मर्फी को अमेरिकी काूननों के तहत गिरफ्तारी और दंड की सजा में रूकावटें डाली गयी। वेटिकन सिटी का कहना था कि पादरी लारेंस मर्फी भले आदमी हैं और उन पर दुर्भावनावश यौन शोषण के आरोप लगाये गये हैं। इसमें कैथलिक चर्च विरोधी लोगों का हाथ है। जबकि लारेंस मर्फी पर लगे आरोपों की जांच कैथलिक चर्च के दो वरिष्ठ आर्चविशपों ने की थी। सिर्फ अमेरिका तक ही कैथलिक चर्च में यौन शोषण का मामला चर्चा में नहीं है। अपितु वैटिकन सिटी में भी यौन शोषण के कई किस्से चर्चे में रहे हैं। पुरूष वेश्यावृति के मामले में भी वेटिकन सिटी घिरी हुई है। वैटिकन सिटी में पादरियों द्वारा पुरूष वैश्यावृति के राज पुलिस ने खोले थे। वैटिकन धार्मिक संगीत मंडली के मुख्य गायक टॉमस हीमेह और पोप बेनेडिक्ट के निजी सहायक एंजलों बालडोची पर पुरूष वैश्या के साथ संबंध बनाने के आरोप लगे थे। पोप के निजी सहायत एंजलों बालडोची का वैटिकन में तूती बोलती थी। विदेशी राष्टाध्यक्षों और बड़ी-बड़ी हस्तियों के वैटिकन आने पर एंजलों बालडोची ही स्वागत करते थे और पोप के साथ वर्ताओं में वे साथ भी रहते थे।
                           यौन शोषण के आरोपित पादरियों के नाम बदले गये। उन्हें अमेरिका-’युरोप से बाहर भेजकर छिपाया गया। तकि वे अपराधिक कानूनों के जद मे आने से बच सकें। खासकर अफ्रीका और एशिया में ऐसे दर्जनों पादरियों को अमेरिका-यूरोप से निकाल कर भेजा गया जिन पर बच्चों के साथ यौन उत्पीड़न के आरोप थे। एक ऐसे ही पादरी भारत में कई सालों से रह रहा है। रेवरेंड जोसेफ फ्लानिवेल जयपॉल नामक पादरी भारत में कार्यरत है। जयपॉल पर एक चौदह वर्षीय किशोरी के साथ बलात्कार करने सहित बलात्कार के दो अन्य आरेप है। अमेरिका के एक चर्च में जयपॉल ने 2004 में एक अन्य ग्रामीण युवती के साथ बलात्कार किया था। वैटिकन और पोप की कृपा से जयपॉल भाग कर भारत आ गया। इसलिए कि बलात्कार की सजा से छुटकारा पाया जा सके। अमेरिकी प्रशासन को जयपॉल का अता-पता ढुढने में काफी मशक्कत करनी पड़ी। अमेरिकी प्रशासन के दबाव में वैटिकन ने जयपॉल का पत्ता जाहिर किया। वैटिकन ने मामला आगे बढ़ता देख कर जयपॉल को कैथलिक चर्च से बाहर निकालने की सिफारिश की थी। लेकिन भारत स्थित आर्चविशप परिषद ने जयपॉल की बर्खास्ती रोक दी। अमेरिकी प्रशासन जयपॉल को प्रत्यार्पन की कोशिश कर रहा है। क्योंकि अमेरिकी प्रशासन पर मानवाधिकार वादियों का भारी दबाव है। पर जयपॉल अमेरिका जाकर यौन अपराधो का सामना करने से इनकार कर दिया है। जयपॉल पर बलात्कार जैसे अति गंभीर आरोप होने के बाद भी भारतीय मीडिया में जयपॉल काक प्रकरण प्रमुखता के साथ नहीं उछलना गंभीर बात है। कैथलिक चर्च के भारतीय आर्चविशपो द्वारा बलात्कारी पादरी जयपॉल का संरक्षण देना क्या उचित ठहराया जा सकता है? क्या इसमें भारतीय आर्चविशपों की सरंक्षणवादी नीति की आलोचना नहीं होनी चाहिए। अगर जयपॉल हिन्दू धर्म से जुड़ा हुआ बलात्कारी होता तो निश्चित मानिये कि भारतीय मीडिया कई-कई दिनों तक पानी पी पी कर हिन्दू धर्म और धर्माचार्यो को कोसती और खिल्ली उड़़ाती। कथित तौर पर कुकुरमुत्ते की तरह फैले मानवाधिकारियों के लिए भी जयपॉल कोई मुद्दा क्यों नहीं बना?
                                    अमेरिका-यूरोप में पोप बेनेडिक्ट सोलहवें के इस्तीफे की मांग जोर से उठ रही है। जगह-जगह प्रदर्शन भी हुए है। इंगलैंड सहित अन्य यूरोपीय देशों में पोप बेनेडिक्ट सोलहवें की यात्राओं में भारी विरोध हुआ है। लोमहर्षक-आमनवीय कृत्य को संरक्षण देने के लिए पोप से इस्तीफा देकर पश्चताप करने का जनमत तेजी से बन रहा है। पोप के खिलाफ जनमत की इच्छा शायद ही कामयाब होगी। पोप के इस्तीफे का कोई निश्चित संविधान नहीं है। पर इस्तीफे जुड़ंे कुछ तथ्य हैं पर तथ्य स्पष्ट नहीं हैं। 1943 में पोप पायस बारहवें ने एक लिखित संविधान बनाया था। जिसका मसौदा था कि अगर पोप का अपहरण नाजियों ने कर लिया तो माना जाना चाहिए कि पोप ने त्यागपत्र दे दिया है और नये पोप के चयन प्रक्रिया शुरू की जा सकती है। नाजियों और न ही किसी अन्य किसी पोप का अब तक अपहरण किया है। इसलिए पोप पायस बारहवें के सिद्धांत का अमल में नहीं लाया जा सका है। पोप द्वारा इस्तीफे के दो ही उदाहरण सामने हैं। एक उदाहरण है पोप ग्रेगरी बारहवें का। कोई पांच सौ साल पहले कैथलिक संप्रदाय में विभाजन की स्थिति को रोकने के लिए पोप ग्रेंगरी बारहवे ने त्याग पत्र दिया था। पोप ग्रेगरी ने वैटिकन चर्च परिषद का सम्मेलन बुलाकर खुद पोप चयन का अधिकार दिया था। पोप ग्रेगरी 1406 से लेकर 1415 तक वैटिकन सिटी के राष्टाध्यक्ष और पोप रहे थे। उनकी मृत्यु के बाद ग्रेगरी को वैटिकन सिटी ने संत घोषित किया था। दूसरा उदाहरण है स्टेलस्टीन का। 1294 में पोप स्टेस्लटीन पंचम ने एक आदेश जारी किया था जिसमें उन्होंने कहा था कि पोप को भी त्यागपत्र देने का अधिकर है। पोप स्टेलस्टीन ने खुद पोप के पद से त्यागपत्र दे दिया था।
                                               पोप बेनेडिक्ट सोलहवें पर यह निर्भर करता है कि वे त्याग पत्र देंगे या नहीं। पर वैटिकन सिटी के विभिन्न इंकाइयों और विभिन्न देशों के कैथलिक चर्च इंकाइयों में अंदर ही अंदर आग धधक रही है। कैथलिक चर्च की छवि बचाने के लिए कुर्बानी देने की सिद्धांत पर जोर दिया जा रहा है। जर्मन रोमन चर्च ने भी पोप बेनेडिक्ट सोलहवें के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। जर्मन रोमन चर्च का कहना है कि वैटिकन सिटी और पोप बेनेडिक्ट ने यौन उत्पीड़न के शिकार बच्चों और उनके परिजनो के लिए कुछ नहीं किया है। वैटिकन सिटी में भी यौन शोषण के शिकार बच्चों के परिजनों ने प्रदर्शन और प्रेसवार्ता कर पोप बेनेडिक्ट के आचरणों की निंदा करने के साथ ही साथ न्याय का सामना करने के लिए ललकारा है।
               कालांतर में ईसाइय का अमेरिका-यूरोप में क्रूर चेहरा चर्चित रहा है। सत्ता से लेकर समाज तक ईसाइयत ने अपने स्वार्थ में प्रभावित किया है। मानवता, शांति, कल्याण जैसे संदेश दिखावा मात्र रहा है। मानवता और कल्याण जैसे हथियारों से ईसाइयत ने दुनिया भर में धर्मातंरण के लोमहर्षक खेल-खेले हैं। अपने देश में ईसाइयत का चेहरा कोई दुध का धुला हुआ नहीं है। ईसाई मिशनरियों में यौन उत्पीड़नों की चर्चा भी आम रही है।


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