राष्ट्र-चिंतन
तालिबान द्वारा दो सिखो का सिर कलम
इस्लाम स्वीकारो या फिर ‘सिर कलम‘
विष्णुगुप्त
‘हत्या‘ शव्द अपने आप में क्रूरतम और जघन्य होती है। प्रत्येक हत्याओं में हत्यारे की क्रूरता तथा हैवानियत ही होती है। पर कुछ हत्याएं ऐसी होती है जो क्रूरता और हैवानियत को भी मात दे देती हैं। पाकिस्तान में तालिबान द्वारा दो सिखों की हत्या जघन्य और हैवानियत को भी पार करने वाली है। सिखों का न केवल ‘सर कलम‘ किया बल्कि गुरूद्वारे में उन दोनों सिखों के शवों को भेजवा भी दिया गया। एक-दो दिन नहीं बल्कि दो महीने से दोनों सिख तालिबान के कब्जे में थे। इस दौरान उनके परिवारवालों और सिख समुदाय से करोड़ों की जजिया टैक्स मांगी गयी और इस्लाम स्वीकार करने का फरमान था। पहली बात तो यह कि गरीब और फटेहाल सिख समुदाय करोड़ा का जजिया टैक्स देता भी तो कैसे? पूरे सिख समुदाय द्वारा इस्लाम स्वीकार करना मंजूर होता तो कैसे? यह भी समझना मुर्खता होगी कि तालिबान की यह अकेली और आखिरी क्रूरता है, हैवानियत है। सिख, हिन्दुओं और ईसाईयों पर तालिबान का कहर टूटता ही रहता है। तालिबान के खिलाफ पूरी दुनिया में आक्रोश पनपा है। भारत सरकार भी बयानबाजी की परमपरा की भूमिका पेश की और विदेश मंत्री एस एम कृष्णा ने कहा कि सिखों की हत्या पर पाकिस्तान से बातचीत होगी। बातचीत उस पाकिस्तान से करेंगे जिसने अपहृत सिखों की रिहाई के लिए कोई भी कदम उठाना मुनासिब नहीं समझा था। इतना ही नहीं बल्कि सिखों की हत्या जिस गुट ने की है उस गुट को पाकिस्तान ‘गुड तालिबान‘ कहता है।
जजिया टैक्स‘ की मजहबी अर्थ पर कभी चर्चा होती ही नहीं है। इसके उद्देश्य पर भी घालमेल होता है। ‘जजिया टैक्स‘ सीधेतौर पर इस्लाम की अनुदारता का प्रतीक है। इस्लाम स्वीकार नहीं करने वाले गैर इस्लामिक धार्मिक समुदाय से जजिया टैक्स वसूली जाती है। भारत में मुगल शासक औरेंगजेब ने हिन्दुओं पर ‘जजिया टैक्स‘ लगाया था। एक प्रकार से यह इस्लाम स्वीकार कराने का हथकंडा है। तालिबान या अलकायदा अमेरिकी-यूरोपीय का आधुनिक उपनिवेशवाद के खिलाफ जंग नहीं लड़ रहे हैं। तालिबान-अलकायदा का एकनिष्ठ उद्देश्य पूरी दुनिया को इस्लाम स्वीकार कराना है। तालिबान-अलकायदा बार-बार अपने बयानों में दुनिया से इस्लाम स्वीकार करने या फिर परिणाम भुगतने की धमकी पिलाते रहे है। पाकिस्तान में तालिबान की यह इच्छा किसी से छिपी हुई है क्या? तालिबान को यह मान्य नहीं है कि हिन्दू,सिख और ईसाई पाकिस्तान में रहें। उनका सीधा फरमान होता है कि अगर यहां रहना है तो उन्हें इस्लाम स्वीकार करना ही होगा। सिखों, हिन्दुओं और ईसाइयों के धर्म अनुष्ठानों और पद्धतियों को ये गैरइस्लामी मानते हैं। यह घृणा तालिबान उदय के पहले से चली आ रही है। पाकिस्तान का निर्माण इस्लाम के नाम पर हुआ और उसके गठन के तुरंत बाद ही यह मजहबी घृणा गैर इस्लामिक धार्मिक समुदाय के सिर पर काल के समान नाची। 1947 में विभाजन के बाद पाकिस्तान में करीब 30 प्रतिशत हिन्दुओं, सिखों और ईसाइयों की आबादी थी जो आज इनकी पांच प्रतिशत आबादी भी नही ंबची हैं। अधिकांश हिन्दुओं, सिखों और ईसाइयों को इस्लाम स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
गैर इस्लामिक धार्मिक समुदाय के उत्पीड़न, दमन के लिए सिर्फ तालिबान को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। यह एक नियमित और स्थायी प्रक्रिया है। आखिर तालिबानी विचार पनपता कैसे है? और इस्लामिक बहुलतावाली संस्कृति में ही गैर इस्लामिक धार्मिक समुदाय उत्पीडित क्यों होता है। अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय की संस्कृति की रक्षा की राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक धारा क्यों नहीं बहती है? यह विचारणीय विषय है। सिर्फ तालिबानी उपस्थ्तिि वाली अंधेरगर्दी क्षेत्रों की ही बात नहीं है। जहां भी इस्लाम की बहुलता है वहां तालिबान जैसे हजारों मजहबी संगठन होते हैं जिनका एक मात्र मकसद इस्लाम स्वीकार कराना ही होता है। जहां तक पाकिस्तान की बात है तो निश्चिततौर पर पाकिस्तान समाज से ही तालिबानी विचारों को खाद-पानी मिलता है। तालिबान-अलकायदा का पाकिस्तानी मजहबी समाज में पैठ गहरी है और उसे पाकिस्तानी समाज से संरक्षण व सहयोग भी मिलता रहता है। कबायली इलाकों में ही नहंी बल्कि पंजाब के लाहौर और सिंघ के करांची जैसे क्षेत्रों में भी हिन्दुओं, सिखों और ईसाइयों को मजहबी ंिहसा का शिकार होना पड़ता है। आपसी दुश्मनी निकालने के लिए मजहबी काूननों का सहारा लिया जाता हैं। पाकिस्तान में एक काूनन है ईशनिंदा। ईशनिंदा कानून के तहत अब तक गैर इस्लामिक धार्मिक समुदाय के सैकड़ों लोग जान गंवा चुके हैं। ईशनिंदा कानून में पैगम्बर मुहम्मद की आलोचना करने पर सीधे मौत की सजा है।इसके लिए सिर्फ एक गवाह की गवाही ही काफी होती है। कई मामलों में ऐसा देखा गया है कि हत्या कर देने के बाद बचाव में ईशनिंदा कानून का सहारा लिया गया। यह काूनन तानाशाह जियाउल हक ने बनायी थी। ईशनिंदा कानून का समाप्त होना भी एक जटिल प्रश्न है?
तालिबानी विचारों की खेती लहराती जायेगी। तालिबान विचारों का उद्योग फलता-फूलता रहेगा। इसमें कोई शक की बात नहीं है। पाकिस्तान में तालिबानी विचारों की खेती और उद्योग ही तो है जिसने पाकिस्तान की आवाम का चुल्हा जला रहा है। अर्थव्यवस्था का एक मात्र आधार तालिबानी विचारों की खेती और उद्योग नहीं हैं क्या? आखिर अमेरिका या यूरोप का पैसा देने के आधार को देख लीजिए। तालिबान और अलकायदा के खिलाफ सैनिक अभियान के लिए अमेरिका-यूरोप से करोड़ों डालर मिलते हैं। आज अमेरिकी-यूरोपीय सहायता बंद हुई और कल पाकिस्तान की पूरी अर्थव्यवस्था दिवालिया हो जायेगी? पूरी जीवन रेखा ठहर जायेगी। क्या इस खेती और उद्योग को पाकिस्तान कभी भी बंद करना चाहेगा? पाकिस्तान को मालूम है कि जबतक उनके यहां तालिबान हैं और अलकायदा है, तभी तक अमेरिका-यूरोप की करोड़ों-करोड़ डालर की सहायता मिलेगी? यही लालसा तालिबान-अलकायदा के सफाये में रोड़ा है। पहले तानाशाह मुशर्रफ ने अमेरिका को मूर्ख बनाया और अब पाकिस्तान की वर्तमान सत्ता सिर्फ खानापूर्ति के नाम पर अमेरिका-यूरोप से सहायता लूट रही है। तालिबान-अलकायदा को सैनिक कार्रवाई से पहले ही सूचना क्यों और कैसे मिल जाती है?
इधर पाकिस्तान ने ‘गुड तालिबान‘ की थ्योरी निकाली है। तालिबान के एक गुट को गुड तालिबान की पदवि मिली है। गुड तालिबान गुट की पैरबी पाकिस्तान अमेरिका से करता रहा है। पाकिस्तान का कहना है कि गुड तालिबान से सुलह-समझौता कर अफगानिस्तान में शांति लायी जा सकती है। जानना यह भी जरूरी है कि पाकिस्तान का गुड तालिबान गुट ने ही सिखो का अपहरण किया, करोड़ो का जजिया टैक्स मांगा और उनका सिर कलम किया। इस गुड तालिबान की हैवानियत पर अब पाकिस्तान क्या कहेगा?
हिन्दुओं, सिंखों और ईसाइयो के पास विकल्प क्या है? विकल्प सिर्फ इस्लाम स्वीकार करने का ही है। पाकिस्तान सरकार इन्हें सुरक्षा दे ही नहीं सकती है। तालिबान-अलकायदा की अंधेरगर्दी और मजहबी हैवानियत भी रूकने वाली नहीं है। ऐसी स्थिति में सिखों, हिन्दुओं और ईसाइयों के पास पाकिस्तान छोड़ने या फिर उन्हें अपने मूल धर्म को छोड़कर इस्लाम स्वीकार करने का ही विकल्प बचते है। भारत ही नहीं अपितु दुनिया भर में इस हैवानियत के खिलाफ आक्रोश पनपा है। पाकिस्तान पर दबाव डालने और अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करने की बात उठी है। सतही तौर पर ये सभी बातें सुनने और देखने में अच्छी लगती है। पाकिसतन पर अभी तक दुनिया कोई ठोस पहल करने या फिर उसके आतंकवाद को संरक्षण देने के खेल को बंद कराने में नाकाम रही है। आगे भी दुनिया की यह मजबूरी रूकेगी नहीं। पाकिस्तान की सेना और आईएसआई संकट की असली जड़ है। पाकिस्तान की सेना और आईएसआई बातचीत की भाषा सुनने वाली नहीं है? ये बल प्रयोग की भाषा ही सुन सकते हैं। फिलहाल सिखो, हिन्दुओं और ईसाइयों को तालिबानी हैवानियत से बचाने की जरूरत है।
मोबाइल- 09968997060
Tuesday, February 23, 2010
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इन मुर्दा सरकारों के किये कुछ न होगा. अब हिन्दुओं और सिखों को अपनी जान-माल, इज्जत और धर्म की हिफाजत के लिए खुद हथियार उठाना होगा.
ReplyDeleteऔर जहां इनकी चल नहीं पा रही, वहाँ डेमोक्रेसी और सेक्युलारिस्म के चैम्पियन बने फिरते है ! या यूँ कहूँ वहां उस तरह सर कलम कर रहे है , चोर उच्चकों को वोट देकर !
ReplyDeleteयह बात सही है कि जनता मे इस बात को ले कर आक्रोश है लेकिन सरकारो पर कोई असर हुआ है यह दिखाई नही देता....सिर्फ औपचारिक ब्यानबाजी कर के वे चुप्पी साध कर बैठ जाएगीं...यह सब आज नही होता अगर समय रहता उचित फैसले लिए होते...
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