Wednesday, February 17, 2010

सोनिया गांधी बताओ, अब तुम आजमगढ़ जाओगी या जर्मन बेकरी

राष्ट्र-चिंतन


                                     जर्मन बेकरी विस्फोट कांड
सोनिया गांधी बताओ, अब तुम आजमगढ़ जाओगी या जर्मन बेकरी

विष्णुगुप्त

सोनिया गांधी और राहुल गांधी अब आतंकवाद की नर्सरी ‘आजमगढ़‘ जायेगी या फिर साइबर सिटी पूणे की जर्मन बेकरी? आतंकवादियों ने पूणे स्थित जर्मन बेकरी के समीप विस्फोट कर एक बार फिर निर्दोष जिंदगियों का छीना है, लहुलूहान किया है। एक सबल और संप्रभुता सम्पन्न राष्ट्र की अस्मिता को दंग्ध किया है। यह भी अहसास कराया और चुनौती दी है कि भारत अब भी आतंकवादियों के चंगुल से मुक्त नहीं है। भविष्य में भी आतंकवादी संगठन इसी तरह का खेल खेल सकते हैं। आतंकवाद के फन को मरोड़ने को लेकर भारत सरकार की सभी घोषणाएं कागजी और बयानबाजी से कुछ ज्यादा नहीं रही है। अभी कुछ दिन पूर्व ही कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह आतंकवाद की नर्सरी आजमगढ़ जाकर बटला हाउस कांड के आतंकवादियों के परिवार से मिले थे और उन सभी परिजनों के प्रति सहानुभूति प्रकट की थी जिनके सदस्य आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न रहेे हैं और निर्दोष जिंदगियों को अपना निशाना बनाने जैसे आतंकवादी गतिविधियों मे संलग्न थे। दिग्विजय सिंह के बाद कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी आजमगढ़ जाकर आतंकवादियों के परिजनों से मिलने की इच्छा जतायी थी। सोनिया गांधी-राहुल गांधी अभी तक आजमगढ़ नहीं जा सकी है। अब वह आजमगढ़ जायेगी या जर्मन बेकरी? क्या वह जर्मन बेकरी विस्फोट कांड में संदिग्ध आतंकवादियों के परिजनों से मिलकर उनके साथ सहानुभूति प्रकट कर सकती है? जब कांग्रेस के महासिचव दिग्विजय सिंह आजमगढ़ जाकर बटला हाउस कांड के आतंकवादियों के परिजनों से मिलकर सहानुभूति प्रकट कर सकते हैं और बटला हाउस आतंकी घटना में पुलिस की कार्रवाई पर शक जाहिर कर सकते हैं और सोनिया गांधी-राहुल गांधी भी आजमगढ़ जाने की इच्छा प्रकट कर सकते हैं तब फिर जर्मन बेकरी कांड में शामिल आतंकवादियों के परिजनों से भी सोनिया गांधी-राहुल गांधी को क्यों नहीं मिलना चाहिए? कल अगर यह भी कहा जाने लगे कि जर्मन बेकरी विस्फोट कांड में शामिल आतंकवादी निर्दोष हैं और पुलिस मुसलमानों का उत्पीड़न कर रही है तो कोई आश्चर्य की बात नही मानी चाहिए। पुलिस और सैन्यतंत्र या फिर गुप्तचर एजेन्सियों की विफलता की कहानी प्रचारित करना तो सिर्फ एक परमपरा है, एक ढ़ाल है। आक्रोश और आलोचना से बचने व सरकारी खास को बचाये रखने की राजनीतिक प्रक्रिया है। आतंकवादियों को महिमामंडन करने की राजनीतिक प्रक्रिया हमारे देश में नहीं चलती है क्या? पुलिस पर कार्रवाई के दशा-दिशा भटकाने का राजनीतिक प्रपंच नहीं है क्या?
                                   यह हास-परिहास का विषय नहीं है? देश की राजनीति की यह बदनुमा और घातक सच्चाई है। इस बदनुमा और घातक सच्चाई के कारण ही आतंकवादियों के हौसले बढ़ते हैं और उनकी अंधेरगर्दी चलती है, खूनी राजनीतिक प्रक्रिया फलती-फूलती है। एक संप्रदाय विशेष की खूनी राजनीतक प्रक्रिया का सर्वद्धन होता है। इस दृष्टिकोण से भारत विश्व में अपने तरह का इकलौता जहां पर आतंकवाद जैसी वीभिषिका पर भी राजनीति होती है। आतंकवाद के उठे खतरनाक फन को मरोड़ने की जगह संरक्षण दिया जाता है। पर्दा डाला जाता है। संरक्षण देने और पर्दा डालने के लिए तरह-तरह के तथ्य और विचार गढ़े जाते हैं। आतंकवाद की घटनाएं होने और निर्दोष लोगों की जिंदगियां कुर्बान होने का दोषी पुलिस, अर्द्धसैनिक बलो, सेना और गुप्तचर एजेन्सियो को ठहरा दिया जाता है। बटल हाउस आतंकवादी घटना इसका उदाहरण है। बटला हाउस आतंकवादी घटना ने देश भर में कैसी राजनीतिक प्रक्रिया चलायी है, यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। दिल्ली पुलिस ने बहादुरी दिखाते हुए बटला हाउस मे छिपे हुए आतंकवादियों को पकड़ा था। इसमें दिल्ली पुलिस का एक बहादुर अधिकारी मोहन लाल शर्मा शहीद हुए थे। प्रचारित यह हुआ कि पुलिस ने अपने अधिकारी मोहन लाल शर्मा को गोली मारी थी। पुलिस के हाथों मारे गये और पकड़े गये लड़के आतंकवादी नहीं थे। ये छात्र थे। राजनीतिक दलों, बुद्धीजीवियों के साथ ही साथ जामिया इस्लामिया विश्वविद्यालय आतंकवादियों के पक्ष में खड़े हो गये। इतना ही नहीं बल्कि आतंकवादियों की रिहाई के लिए धन की उगाही भी हुई। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने बटला हाउस कांड की जांच की और उसने पाया कि बटला हाउस कांड फर्जी नहीं था। सुप्रीम कोर्ट ने भी मानवाधिकार आयोग की जांच रिपोर्ट को सही माना। फिर भीं बटला हाउस कांड के पक्ष में खडंा होने वाले बुद्धीजिवयों, राजनीतिक दलों और जामिया इस्लामिया विश्वविद्यालय की बेशर्मी नहीं गयी और उनकी आतंकवाद का महिमामंडल की प्रक्रिया समाप्त नहीं हुई।
                      जर्मन बेकरी विस्फोट कांड के कुछ दिन पूर्व ही कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह आजमगढ जाकर आतंकवादियों के परिजनों से मिले थे और दिल्ली पुलिस की कार्रवाई पर सवाल उठाये थे। कांग्रेस का कहना था कि मुसलमानों के बीच में भय का वातावरण है,उनके विश्वास को जीतना लोकतंत्र के लिए जरूरी है। विश्वासबहाली के लिए दिग्विजय सिंह आजमगढ गये थे। आजमगढ़ के मुसलमान बहुत गुस्से मे हैं। इसलिए उन्हें मनाने और उनकी शिकायत दूर करने के लिए सोनिया गांधी-राहुल गांधी आजमगढ़ जायेंगे? मुसलमानों की शिकायते दूर करने की राजनीतिक प्रक्रिया पर किसी को भी न तो शिकायत होनी चाहिए और न ही नाराजगी? पर अगर आतंकवादियों के परिजनों के प्रति सहानुभूमि प्रकट की जाये और उनका तुष्टीकरण किया जाये तो सवाल क्यों नहीं उठेंगे? इसके पीछे का रहस्य या खेल भी छीपा हुआ नहीं है। कांग्रेस के इस खेल में कहीं से भी स्वच्छ राजनीतिक प्रक्रिया नहीं मानी जा सकती है। स्वार्थ और सत्ता प्राप्ति की राजनीति है। कांग्रेस ने सत्ता प्राप्ति का मूल मंत्र तुष्टीकरण मानती है और तुष्टीकरण की राजनीतिक खेल खेलती रहती है। कांग्रेस का यह पुरानी और खानदानी पेशा है। जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गाध्ंाी ने तुष्टीकरण का खेल-खेला था। अब सोनिया गांधी-राहुल गाध्ंाी इस खेल को खेल रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में मुसलमानों ने कांग्रेस की सरकार बनाने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। कांग्रेस अब थोक के भाव में मुसलमानो का वोट खरीदना चाहती है। कांग्रेस के उभार के बाद मुसलमान वोट के अन्य खरीददार लालू-मुलायम और कम्युनिस्ट पार्टियां खुद हासिये पर खड़ी हैं। इसलिए कांग्रेस को इस खेल में चुनौती मिलने की उम्मीद ही नहीं है। इसीलिए सोनिया गाधी और राहुल गांधी आतंकवादियों के परिजनों से सहानुभूति प्रकट कर रही है और सहायता का आश्वासन जैसे घातक कार्रवाई करने से भी इन्हें परहेज नहीं है।
                        जर्मन बेकरी विस्फोट कांड में गुप्तचर एजेन्’िसयों की विफलता नहीं मानी जा रही है। केन्द्रीय गृहमंत्री पी चिदम्बरम का कहना है कि भारतीय गुप्तचर एजेसिंया विफल नही हुई है। यानी कि भारतीय गुप्तचर एजेन्सियो के पास जर्मन बेकरी विस्फोट कांड की पूरी और चाकचौबंद जानकारी थी। निश्चिततौर पर भारतीय गुप्तचर एजेन्सियां यह जानकारी भारत सरकार को उपलब्ध करायी होंगी। फिर सवाल यह उठता है कि जर्मन बेकारी विस्फोट कांड को रोका क्यो नही गया। उन आतंकवादियों को गर्दन क्यों नहीं मरोड़े गये जिन्होंने जर्मन बेकरी के पास निर्दोष लोगों की जिंदगियां उड़ायी, एक संप्रभुता सम्पन्न राज्य की सुरक्षा व्यवस्था की खिल्ली उड़ायी। क्या इन सभी निर्दोष लोगों की जिंदगियां जाने का दोषी भारत सरकार और महाराष्ट्र सरकार को नहीं माना जाना चाहिए। आतंकवादी घटना घटने की जानकारी होने के बाद भी आतंकवादियों का न पकड़ा जाने सीधेतौर पर भारत सरकार और महाराष्ट्र सरकार अपराधी के तौर पर खड़ी है। नियम कानून के अनुसार तो भारत सरकारर और महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ मुकदमा चलना चाहिए। नागरिकों की सुरक्षा की संवैधानिक जिम्मेदारी से सरकारें बधी होती है। संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं निभानेवाली सरकारों को क्या सत्ता मे बना रहना चाहिए?
                     हम आखिर कबतक पुलिस और गुप्तचर एजेन्सियों की साख के साथ समझौता करते रहेंगे। आखिर हम कबतक पुलिस और गुप्तचर एजेन्सियों को बदनाम करते रहेंगे? पुलिस और गुप्तचर एजेन्सियों के हाथ बांधने वाले कौन लोग हैं? क्या यह सब जगजाहिर नहीं है? जाहिर तो सबकुछ है। गुप्तचर एजेंिसयां सटीक जानकारी देती जरूर हैं पर कार्रवाई की जिम्मेदारी तो पुलिस के उपर ही होती है। पुलिस की भी अपनी मजबूरी है। पुलिस के हाथ बंधे होते हैं। सत्ता संस्थान गुप्तचर एजेन्सियों की जानकारी पर कार्रवाई के लिए पुलिस के हाथ बांध देती हैं। यही काम जर्मन बेकरी में हुआ है। महाराष्ट्र सरकार अपना पूरा ध्यान बाल ठाकरे को औकाता दिखाने और शाहरूख खान की फिल्म प्रदर्शित कराने में लगायी थी। गुप्तचर एजेन्सियों की जानकारी पर ध्यान ही नहीं दिया गया। अब जर्मन बेकरी कांड में जिन आतंकवादियों के नाम सरकार उजागर कर रही है, क्या उन्हें नहीं पकड़ा जा सकता था? यह भी कहा जा रहा है कि अमेरिकी नागरिक हेडली ने जर्मन बेकरी की रैकी की थी। दुर्भाग्य यह है कि अभी तक हेडली के सम्पर्को को खंगाला तक नहीं गया है। हेडली को भारत भ्रमण कराने वाले फिल्म निर्माता महेश भट्ट के बेटे राहुल भट सहित अन्य हीरो-हिरोइनों को पकड़ा तक नहीं गया है। वही महेश भट्ट आतंकवाद और राजनीतिक सुधार पर भारत में भाषण पिलाता है।
सत्ता संस्थान मुस्लिम परस्त नीति से अलग नहीं हो सकता है। कांग्रेस की धमनियों में यह रक्त दौड़ता रहता है। ऐसी स्थिति में हम क्या आतंकवादी घटनाओं को रोक सकते हैं। कदापि नहीं। पाकिस्तान के साथ सख्ती के साथ पेश आने की जगह उसके साथ समर्ग वार्ता चल रही है। आतंकवाद का जबतक सत्ता संस्थान द्वारा महिमामंडल का यह खेल चलता रहेगा तबतक हम आतंकवाद को पराजित करने की बात तक नहीं सोच सकते है। सत्ता संस्थान के खिलाफ जनज्वार पनपेगा तभी सत्ता संस्थान की मर्दानगी जागेगी और वह आतंकवाद के फन को कुचलने के लिए बाध्य होगा।

मोबाइल- 09968997060

3 comments:

  1. ये किसी ऐसी जगह नहीं जायेंगे जहा जवाबदेही करनी पड़े ! सिर्फ ढोंग कर ट्रेन में चलेंगे २००० का पुलिस बल लेकर और दलित के घर एक रोटी तोड़ लेंगे ,एक फावड़ा मिटटी प्लास्टिक के तसले में भर पैर में रीबोक पहन मूर्खो का वोट बैंक पक्का समझेंगे !!!

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  2. अगर ये इनामी सवाल है तो.....तो आजमगढ

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  3. एक और बेहतरीन और सटीक लेख विष्णु गुप्ता जी , मगर अफ़सोस की लालच में अंधी इस देश की गुलाम मानसिकता वाली पीढी आपका यह मेहनत से लिखा लेख नहीं पढेगी, यह मेरा अपना खुद का तजुर्बा है !

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