राष्ट्र - चिंतन
‘बंदे मातरम‘ पर मजहबी कहर
विष्णुगुप्त
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के पूर्व आजादी के दिवानों के लिए ‘ बंदे मातरम ‘ गीत प्रेरणास्त्रोत बन गयी थी। बांग्ला मानुष और संस्कृत के प्रंवड विद्वान बंकिम चंद चटोपध्याय ने 1876 में आनन्दमठ पुस्तक लिखी थी। इसी पुस्तक में ‘ बंदे मातरम ‘ गीत थी जो संस्कृत में थी। संस्कृत जन भाषा नहीं थी, फिर भी ‘बंदे मातरम गीत‘ की लोकप्रियता अल्पावधि में ही चरमोत्कर्ष पर पहुंच गयी। बंगाल की परिधि से निकल कर यह गीत पूरे देश के जन के दिलों में राज करने लगी। ऐसे ही यह गीत लोकप्रियता की सीढ़ीयां नहीं लांधी थी। देशज स्वाभिमान को जागृत करने के साथ ही साथ गुलामी की जंजीरों को तोड़ने और फिरंगी मानसिकता से धृणा करने की तंरगें निकलती थीं ‘बंदे मातरम‘ गीत से। स्वाधीनता शक्ति का प्रतीक भी। 1885 में कांग्रेस की स्थापना के साथ ही साथ उठी आजादी की लहरों को लहराने मे ‘बंदे मातरम‘ की भूमिका नायक की थी। बंग भंग आंदोलन का यह क्रांतिकारी स्लोगन था। बंग भंग आंदोलन में बंदे मातरम के उदघोष ने अंग्रेजों की अपनी अंग्रेजी शिक्षा और शासन को बेनामी बना दिया था। ऐसी देशज सोच और स्वाभिमान के साथ-साथ क्रांति की तरंगे उठाने वाली गीत की लोकप्रियता और जरूरत को क्या नजरअंदाज किया जा सकता था। कदापि नहीं। कांग्रेस ने 1905 के अपने वाराणसी अधिवेशन में बंदे मातरम गीत को सम्मान के साथ गाया था और स्वाधीनता के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया था। सरदार भगत सिंह, सुभाषचंद बोस, चन्द्रशेखर आजाद अशफाक उल्ला खान सहित आजादी के दिवानों ने हमेशा इस गीत को अपनी जुबान पर रखी। जाहिरतौर पर इस गीत ने अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने और देशज स्वाभिमान को जगाने में नायक की भूमिका निभायी थी। पर इस गीत पर मजहबी कहर ऐसी टूटी की बंदे मातरम की भूमिका खलनायक की हो गयी। इसे हिन्दू धर्म के प्रतीक के रूप में प्रत्यारोपित कर अछुत बना दिया गया। बंदे मातरम के खिलाफ अभी हाल में देवबंद में जमीयत उलेमा हिंद ने अपने राष्ट्रीय अधिवेशन में फतवा का जारी करना इसका प्रमाण है। दुर्भाग्य यह है कि जीमयत उलेमा हिंद ने केन्द्रय गृहमंत्री पी चितबंरम के मौजूदगी मे बंदे मातरम के खिलाफ फतवा जारी कियां।
धर्म के आधार पर देश का विभाजन हुआ। मुसलमानों ने अपने लिए अलग देश पाकिस्तान बना लिया। इसके बाद यह मान लिया गया था कि भारत की मुस्लिम समस्या और आबादी का भी प्रबंधन हो गया। लेकिन यह हुआ नहीं। आजादी के बाद ही इस वीभीषिका ग्रस्त हमारा संविधान और कानूनी व्यवस्था हो गयी। मुस्लिम धार्मिकता का पहला कहर उस बंदे मातरम गीत पर टूटा जिसने देश की आजादी की अलख जगाने में अपनी अतुलनीय भूमिका निभायी थी। देश का बहुमत बंदे मातरम को राष्ट्रगान बनाने की थी। लेकिन मुस्लिम वर्ग ने आपत्ति खड़ी कर दी। इतना ही नहीं बल्कि बंदे मातरम गीत के खिलाफ धार्मिक धृणा का वीजारोपन भी कर दिया गया। प्रत्यारोपित यह किया गया कि यह गीत हिन्दू धर्म की महिमा करण करता है, इससे भारत का हिन्दूकरण हो जायेंगा। इत्यादि-इत्यादि। परिणाम यह हुआ कि बहुमत के जनमत की आशाएं धरी की धरी रह गयीं और ‘बंदे मातरम‘ गीत को राष्ट्र्रगान का सम्मान देने से इनकार कर दिया गया। बंदे मातरम की जगह रविन्द नाथ टैगोर द्वारा रचित जन-गन-मन को राष्ट्रगीत बना डाला गया। आज हमारा जन-गन-मन राष्ट्रगीत है। जिस पर हम गर्व करते हैं। लेकिन जन-गन-मन की सच्चाई जगजाहिर है। जार्ज पंचम के भारत आगमन के समय स्वागत भाषण के लिए जन-गन-मन लिखा और गाया गया था। जार्ज पंचम को भारत भाग्य विधाता कहा गया है। इस राष्ट्र्रगान की यह पक्ति ‘जच हो भारत भाग्य विधाता‘ क्या कहीं से भी एक स्वतंत्र और संप्रभुता सम्पन्न राष्ट्र के गौरव-स्वाभिमान का प्रतीक माना जा सकता है। जार्ज पंचम हमारा भाग्य विधाता नहीं बल्कि गुलामी के जजीरों में कैद करने वाला उपनिवेशक था, जिसकी आवाभगत में हमनें अपना भाग्य विधाता मान लिया था। आजादी के बाद ऐसे सभी प्रतीको से हमें किनारा कर लेना चाहिए था लेकिन हमने किनारा उस प्रेरणास्रोत और स्वाभिमान को जगाने वाली गीत बंदे मातरम से किया।
2005 में बदे मातरम गीत की शताब्दी वर्ष थी। 2005 में ही कांग्रेस की वाराणसी अधिवेशक के सौ वर्ष पूरे हुए थे। इसके साथ ही साथ बंदे मातरम गीत को आंगीकार करने के सौ वर्ष पूरे हुए थे। 2005 के वाराणसी अधिवेशन में ही कांग्रेस ने पहली बार बंदे मातरम गीत को सम्मान के साथ गाया था और इसे आजादी के उदधोष के रूप में स्वीकार किया था। सत्तासीन कांग्रेस ने अपने वाराणसी अधिवेशन और बंदे मातरम गीत की शताब्दी मनाने का निश्चय किया था। इसके लिए पूरे वर्ष कार्यक्रम करने के साथ ही साथ आजादी के दिवानों और उन्हें तंरगित और शक्ति प्रदान करने वाले सभी प्रकार के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक प्रतीकों पर सम्मान प्रदर्शित करने की नीति कांग्रेस ने बनायी थी। खासकर बंदे मातरम गीत को लेकर कुछ संजीदापूर्ण कार्यक्रम करने का कांग्रेस पर दबाव था। इसलिए कि राष्ट्र की चिंतनधारा का दबाव कांग्रेस के उपर था। कांग्रेस ने एलान किया कि सभी सरकारी और प्राइवेट स्कूलों में बंदे मातरम गीत को गाने और इससे संबधित कार्यक्रम किये जायेगे। इसके लिए सरकारी फरमान भी जारी कर दिया गया। कांग्रेस शायद यह भूल गयी थी कि वह तुष्टीकरण की नीति पर चलती है और उसके लिए मुस्लिम धर्मावलम्बी सत्ता कब्जाने के हथियार हैं। बंदे मातरम गीत गाने के फरमान जारी होते ही बंवडर मच गया। मुस्लिम वर्ग से पहले तथाकथित धर्मनिरपेक्ष तबके और कम्युनिस्टों ने मुस्लिमपरस्ती का झंडा उठा लिया। इससे मौलानाओं और कट्टरपंथियों को सह मिली। धमकी और नसीहतें पिलाने की प्रक्रिया चली। बंदे मातरम गीत नहीं गाने और कांग्रेस को परिणाम भुगतने जैसे निर्णय सुना दिये गये। कांग्रेस में इतनी शक्ति-राष्ट्रहित चेतना है नहीं कि वह अपने निर्णय पर अडिग रहती। उसने बंदे मातरम गीत गाने की अनिवार्यता को फौरन वापस ले लिया। बंदे मातरम गाने या न गाने का निर्णय शिक्षण संस्थानों पर छोड़ दिया। यानी एच्छिक बना दिया गया।
‘हिन्दू‘ इस भूभाग की मूल संस्कृति है और संस्कृत इस भूभाग के देवों की भाषा है। आधुनिक खोजों से यह प्रमाणित हो चुकी है कि संस्कृति विश्व की तमाम भाषाओं और जीवन पद्धति प्रक्रिया को संचालित करने की स्रोत भी रही है। इस्लाम आयातित संस्कृति है। हिन्दू संस्कृति घृणा, अलगाव और कट्टरता में विश्वास नहीं करती है। सबको अपने में समेटने में विश्वास रखती है। यही वह स्थिति है जिसमें इस्लाम के आयातित संस्कृति होने के बाद भी फलने-फुलने का मौका दिया। मुगल शासनकाल में जबरदस्ती धर्म परिवर्तन कराने, जजिया टैक्स लगाने जैसी राजनीतिक-धार्मिक प्रक्रिया के बाद भी हिन्दू संस्कृति ने इस्लाम से बदला लेने की प्रक्रिचा नहीं चलायी। संस्कृत में लिखे जाने मात्र से ‘बंदे मातरम‘ के खिलाफ धार्मिकता का कहर बरपाने जैसी प्रक्रिया अचरज में डालने वाली ही नहीं है बल्कि इस भूभाग की मूल संस्कृति के खिलाफ उठा हुआ कदम भी माना जा सकता है। इस भूभाग के मूल हिन्दू संस्कृति की उदारता के कारण ही देवबंद जैसे धार्मिकता का जहर फैलाने वाले संस्थानों की अंधेरगर्दी चलती है। क्या मुस्लिम बहुल आबादी में कोई अन्य अल्पंसंख्यक समुदाय इस्लामिक संस्कृति से जुड़े अध्यायों को नहीं मानने की हिम्मत तक दिखा सकता है। दुनिया में 62 मुस्लिम देश है जहां पर पूर्ण इस्लामिक व्यवस्था है। वहां पर गैर मुस्लिम धर्मो को भी इस्लामिक व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए विवश होना पड़ता है। पाकिस्तान, सउदी अरब, ईरान में तो ईशनिंदा की सजा सिर्फ और सिर्फ मौत है। एक मात्र गवाह की गवाही चाहिए। झूठी या सच्ची। सुविधा और अंधेरगर्दी मचाने के लिए इस्लाम को ढ़ाल के रूप में प्रदशर््िात करने की यह वैश्विक समस्या है। इस समस्या से भारत ही नहीं बल्कि उदार धार्मिक व्यवस्था के लिए जाना जाने वाला यूरोपीय देश भी जुझ रहे हैं। यूरोप में भी इस्लाम अरब और अप्रीका जैसी अंधेरगर्दी मचाने की मानसिकता को आगे बढ़ा रहा है। भारत तो पूरी तरह से इस्लामिक धार्मिकता के चंगुल में फंसा हुआ है। देवबंद में जमीयत उलेमा हिंद के ‘बंदे मातरम‘ के खिलाफ फतवा देने के खिलाफ राजनीतिक प्रतिक्रिया का शून्य होना तुष्टीकरण व वोट की राजनीति का ही परिणाम माना जाना चाहिए। तुष्टीकरण और वोट की राजनीति के कारण बंदे मातरत गीत को अधिकारिक तौर पर राष्ट्रगान नहीं बनने दिया गया पर इससे ‘बदे मातरम‘ गीत की लोकप्रियता कम नहीं होती है। ‘बंदे मातरम‘ गीत आज भी देश के स्वाभिमान पर गर्व करने वालों लोगों के दिलों में विराजमान है। बंकिम चंद चटोपध्याय और उनका क्रांति के उदघोष का प्रतीक गीत ‘बदे मातरम‘ अमर है और रहेगा।
मोबाइल- 09968997060
Sunday, December 13, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment