Wednesday, December 2, 2009

अपनी ही लगाई आग में झुलसती आईएसआई

अपनी ही लगाई आग में झुलसती आईएसआई




मुद्दा:

विष्रुगुप्त


आईएसआई दोहरे संकट में है। एक आ॓र जिन आतंकवादी संगठनों को पाल-पोसकर उसने विश्वभर में आउटसोर्सिंग की वही अब उसके दुश्मन बन गये हैं। कुछ समय पहले पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ यह कहकर खलबली मचा चुके हैं कि सभी आतंकवादी संगठनों में आईएसआई की घुसपैठ है और आईएसआई के अधिकारियों की कमान से ही आतंकवादी संगठनों की सक्रियता चलती है। पहली बार पाकिस्तान की सत्ता पर बैठे किसी शख्स ने आईएसआई के आतंकवादी संगठनों से जुड़े तार उजागर किये। आईएसआई मुशर्रफ के बयान से उबर भी नहीं पायी थी कि आतंकी संगठनों ने उसके ही ठिकानों पर हमला कर जता दिया कि अब खुद की लगायी आग में खुद झुलसे? बहरहाल आईएसआई के खूनी खेल को बंद करने का उचित समय आ गया है। अमेरिका नयी रणनीति-कूटनीति से यह काम कर सकता है। तानाशाही या गैर तानाशाही शासन व्यवस्था में आईएसआई को कभी चुनौती मिली ही नहीं। यह माना जाता है कि जुल्फीकार अली भुट्टो की दूरगामी नीति से आईएसआई ने खूनी-हिंसक भूमिका बनायी थी पर उसकी आतंकवादी भूमिका जियाउल हक के समय तय हुई थी। असल में भारत के साथ तीन युद्धों में मिली घोर पराजय ने सीधे तौर पर कश्मीर हपड़ने के पाकिस्तानी शासकों के सपने तोड़ दिये थे। जियाउल हक के कार्यकाल में ही अफगानिस्तान में सोवियत संघ का कब्जा हुआ और अमेरिका ने सोवियत संघ के विरूद्ध आतंकवाद का बीजारोपण किया। कश्मीर और अफगानिस्तान के रूप में आईएसआई को दोहरी भूमिका मिली। उसने कश्मीर और अफगानिस्तान में न केवल आतंकवाद बढ़ाया बल्कि दुनिया भर में आतंकवाद की आउटसोर्सिग भी की। नतीजे में भारत जहां खूनी आतकवाद का शिकार हुआ, वहीं अमेरिका के वर्ल्ड टेड सेंटर पर भी हमला हुआ। इन हमलों से दुनिया में आईएसआई का असली चेहरा और भूमिका उजागर हुई। आईएसआई की दो भूमिकाएं- आतंकवाद और इस्लाम का विस्तार खुद पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए उसके ताबूत की अंतिम कील साबित हुईं। वहां सत्ता और विकास केन्द्रों का इस्लामीकरण हुआ। विकासोन्मुख शिक्षा की जगह आतंकवाद की खेती पनपी। इसलिए उदारवाद और लोकतंत्र की जड़ें पनप ही न सकीं। कभी यह सोचने-समझने की प्रक्रिया ही नहीं चली कि आईएसआई की खूनी भूमिका का दूरगामी प्रभाव क्या होगा? अमेरिकी वर्ल्ड टेड सेंटर पर अलकायदा के हमले और अफगानिस्तान में तालिबानी सत्ता समाप्त होने के बाद आईएसआई पर शिकंजा कसना शुरू हुआ। आईएसआई पर अलकायदा जैसे इस्लामी आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई करने और उन्हें नेस्तनाबूत करने के लिए दबाव पड़ा। आतंकवाद के कारखानों और आउटसोर्सिंग पर न चाहते हुए पर्दा डालना पड़ा। मुशर्रफ के जाने के बाद नागरिक सरकार ने आईएसआई की भूमिका सीमित करने की कोशिश जरूर की पर सेना के समर्थन के चलते कामयाबी नहीं मिली। मुबंई हमले के बाद आईएसआई की भूमिका को लेकर एक बार फिर मुहिम चली। अमेरिका सहित पूरी दुनिया ने मान लिया कि मुबंई हमले मे आईएसआई की भूमिका थी। मुबंई हमलावरों को आईएसआई के अधिकारियों ने ही प्रशिक्षित किया था। उधर अफगानिस्तान की करजई सरकार ने तालिबान की सहायता को लेकर आईएसआई पर निशाना साधा। अमेरिका ने पाकिस्तान की संप्रभुता की परवाह किये बिना कबायली इलाकों में हमले शुरू कर दिये। इन हमलों में पाकिस्तानी सेना और आईएसआई को बेमन से शामिल होना पड़ा। बहरहाल जिस आतंकवाद की आग आईएसआई ने लगायी थी, आज वह खुद उसमें झुलस रही है। आईएसआई के पंजों को मरोड़ने के लिए राजनीतिक-कूटनीतिक नीति की जरूरत है। यह काम दो व्यवस्थाओं से पूरा हो सकता है। एक पाकिस्तान की नागरिक सरकार और दूसरा अमेरिका। सेना की जगह नागरिक सरकार की सर्वश्रेष्ठता जरूरी है। आतंकवाद पर तभी अंकुश लगेगा जब आईएसआई की भूमिका एक जिम्मेदार संगठन के तौर पर होगी। अमेरिका अब तक आईएसआई को नियंत्रित करने में सक्षम नहीं हुआ है। उसने आंख मूंदकर उसे आर्थिक सहायता दी है। अमेरिका पाकिस्तान की नागरिक सरकार पर दबाव बना सकता है कि जब तक सेना और आईएसआई की भूमिका नियंत्रित नहीं होगी तब तक उसे आर्थिक और अन्य सहायताएं नहीं मिल सकतीं। भारत के दृष्टिकोण से भी आईएसआई की भूमिका नियंत्रित होना जरूरी है। भारत को भी अपनी कूटनीति एक्सरसाइज जारी रखनी चाहिए।

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