Thursday, December 10, 2009

तेलंगाना राज्य का उदय

राष्ट्र-चिंतन संपादकीय लेख




तेलंगाना राज्य का उदय
विष्णुगुप्त

अब ‘तेलंगाना‘ भारतीय गणराज्य का 29 राज्य होगा। यूपीए सरकार ने तेलंगाना राज्य निर्माण की बात मान ली है। आंध्र प्रदेश विधान सभा में तेलंगाना राज्य निर्माण से संबंधित विधेयक जल्द लाया जायेगा। तेलंगाना के प्रश्न पर आंध्र प्रदेश की कांग्रेस राजनीति में उफान आना स्वाभाविक है। तेलंगाना के विरोधी भी सक्रिय जरूर हैं पर तेलंगाना राष्ट्र समिति की जनविद्रोह के आगे विरोधियों की सभी कोशिशें बेकार ही साबित होंगी। आंध्र प्रदेश में अलग तेलंगाना राज्य की मांग के साथ जन जुड़ाव व तेलगांना राष्ट्र समिति के नेतृत्व में जिस प्रकार से राजनीतिक उफान उठा था उसे दबाना मुश्किल था। संसद में भी कांग्रेस इस मुद्दे पर विपक्षियों से धिरी हुई थी और तेलंगाना राष्ट्र समिति के प्रमुख चन्द्रशेखर राव के अनशन से गिरते स्वास्थ्य की भी चिंता पसरी थी। पिछले दो दशक से भारतीय गणराज्य में भाषा, क्षेत्रीयता और मूल के नाम पर अलग राज्य की मांग ही नहीं बढ़ी हैं बल्कि आंदोलन भी तेज हुए हैं। आदिवासी मूल के नाम पर झारखंड बना तो क्षेत्रीयता और अन्य मुद्दो को लेकर छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड बना। पूर्वोत्तर में मूल, भाषा के नाम पर छोटे-छोटे राज्य बने। धारणा विकसित यह रही है कि बड़े राज्यों से सभी मूल या क्षेत्र के लोगों का विकास अवरूद्ध हो जाता है, प्रशासन की जटिलताएं बड़ी-दुरूह जाती हैं। इसलिए छोटे राज्यों की परिकल्पना जरूरी है। पर देखा यह गया है कि नये बने छोटे राज्यों में वही राजनीतिक बुराइयां घर कर गयीं जिन बुराइयों की छुटकारा के नाम पर छोटे राज्य बने थे। झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में विकास के सौपान बनाने की जगह भ्रष्टाचार, हिंसा-प्रतिहिंसा की आग जल-जलायी जा रही है। ऐसे में छोटे राज्य की परिकल्पना का सार्थक परिणाम नहीं निकलना भी स्वाभाविक परिणति है।
तेलंगाना अलग राज्य पर कांग्रेस ने बईमानी की थी। तेलंगाना के जनकांक्षा और तेलंगाना राष्ट्रसमिति के साथ वायदा खिलाफी ही नहीं बल्कि इनकी भावनाओं के साथ भी कांग्रेस ने खिलवाड़ की थी। 2004 के आंध्र प्रदेश विधान सभा चुनाव में कांग्रेस की नीति को याद कीजिए। चन्द्रबाबू नायडू के शासन के खिलाफ कांग्रेस ने दो महत्वपूर्ण शक्तियों के साथ राजनीतिक गठजोड़ किया था। पहली राजनीतिक शक्ति थी यही तेलंगाना राष्ट्र समिति और दूसरी शक्ति थी नक्सली ग्रुप। कांग्रेस ने जहां अलग तेलंगाना राज्य बनाने का आश्वासन देकर तेलंगाना राष्ट्र समिति को अपने साथ किया था वहीं नक्सली ग्रुपों को वार्ता और जनमत निर्माण की छूट का आश्वासन देने का काम किया था। तेलंगाना राष्ट्र समिति और नक्सली संगठनों के समर्थन-सहयोग से कांग्रेस ने 2004 के प्रदेश विधान सभा चुनावों में चन्द्रबाबू नायडू को पराजित करने में सफलता पायी थी। तेलंगाना राज्य और नक्सलियों से वात्र्ता के जनक राज शेखर रेड्््््््््््डी आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। सत्ता आते के साथ कांग्रेस ने पलटी मारी। नक्सली संगठन के साथ दोस्ती सत्ता के मूल सिद्धांतों के विपरीत थी। पर तेलंगाना राष्ट्र समिति के साथ कांग्रेस ने सीधेतौर बेईमानी पर उतर आयी। तेलंगाना अलग राज्य का सवाल कांग्रेस को चूभने लगा। स्वर्गीय राजशेखर रेड्डी राजनीति के चतुर खिलाड़ी थे। उन्होंने तेलंगाना के मुद्दे से निपटने के लिए तेलंगाना राष्ट्र समिति को ही निपटाने में शामिल हो गये। तेलंगाना राष्ट्र समिति के विधायको को लालच देकर कांग्रेस में मिलाया गया। चन्द्रशेखर राव की राजनीतिक शक्ति कमजोर करने की कोशिश हुई। पिछले विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने तेलंगाना राष्ट्र समिति के विरोध के बाद भी सत्ता हासिल की थी। चन्द्रशेखर राव खुद लोकसभा चुनाव हार गये थे।
तेलंगाना मुद्दे पर कांग्रेस की बईमानी और पलटी से जनभावना आहत हुई थी। इसका उदाहरण तेलंगाना मुद्दे पर आंध्र प्रदेश में हुई हिंसा और उठा तूफान है। आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद ही नहीं बल्कि अन्य शहरो में भी व्यापक जन जुड़ाव आंदोलन के साथ था। यही आंदोलन और जन जुड़ाव चन्द्रशेखर राव की राजनीतिक शक्ति थी। चूंकि अलग राज्य के सवाल पर जनता की गोलबंदी थी। इसलिए यह कहा जा सकता है कि तेलंगाना राष्ट्र समिति कांग्रेस की बईमानी और कल-छपट से कमजोर जरूर थी पर उसे जनता का समर्थन जरूर प्राप्त था। जरूरत थी जनता को विश्वास दिलाने की। इधर सबसे बड़ी बात आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की राजनीति में उठा तूफान और शह-मात का खेल। हवाई दुर्घटना में राज शेखर रेड्डी की मौत के बाद कांग्रेस के अंदर वर्चस्व की लड़ाई शुरू हुई हैं। राजशेखर रेड़डी के बेटे मगन को मुख्यमंत्री बनाने की ताल ठोकी गयी। आंध्र प्रदेश का मौजूदा मुख्यमंत्री अपनी राजनीतिक-जनादेशिक वैसी शक्ति हासिल नहीं कर सके जैसी राजशेखर रेड्डी के साथ शक्ति जुड़ी थी। कमजोर राजनीतिक नेतृत्व का बड़े मुददो पर उठे जनज्वार को थामना मुश्किल है। यही आंध्र प्रदेश में हुआ। तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष चन्द्रशेखर राव भी राजनीति के चतुर खिलाड़ी हैं। उन्हें यह अवसर सबसे उचित लगा। उन्हें मालूम था कि कांग्रेस की वर्तमान कमजोरी का लाभ उठाकर अलग तेलंगाना आंदोलन को धार दिया जा सकता है। चन्द्रशेखर राव की यह रणनीति काम कर गयी। इसलिए भी कि संसद में भाजपा जैसी विपक्षी पार्टी भी अलग तेलंगाना राज्य के पक्ष में थी। कालांतर में चन्द्रशेखर राव और अन्य तेलंगाना राष्ट्र समिति के वरिष्ठ रणनीतिकार भाजपा से निकले हुए नेता रहे हैं।
कांग्रेस अपनी पीठ नहीं थपथपा सकती है। कोई फायदा भी उसे नहीं मिलेगा। कांग्रेस के लिए दोहरी मुश्किलें खड़ी होंगी। एक तो पूर्व में तेलंगाना के प्रश्न पर राजनीतिक बेईमानी की कीमत उसे चुकानी होगी और दूसरे में अलग तेलंगाना राज्य के विरोधी मानसिकता का कोपभाजन भी कांग्रेस को बनना पड़ेगा। आंध्र प्रदेश की राजनीतिक स्थिति विकट हो सकती है। मनमोहन सिंह सरकार द्वारा अलग तेलंगाना राज्य की बात मानने के साथ ही साथ इसके विरोध में भी कांग्रेस के अंदर लकीरें खतरनाक हुई हैं। कांग्रेस के विपक्ष में आवाज तेज हुई है। कांग्रेस विरोधी चन्द्रबाबू नायडू इस राजनीतिक परिस्थिति का लाभ उठाने की कोशिश करेंगे। ऐसी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। ऐसे भी चन्द्रबाबू नायडू घोर तेलंगाना विरोधी रहे हैं। वे किसी भी परिस्थिति में तेलंगाना राज्य के उदय के खिलाफ थे। तेलंगाना राष्ट्र समिति के आंदोलन और सक्रियता दबाने के लिए चन्द्रबाबू नायडू ने अपने शासनकाल में पुलिस दमन का सहयोग भी लिया था। जिसकी कीमत उन्होंने तेलंगाना क्षेत्र में चुकायी थी। जन सक्रियता उनके खिलाफ गयी थी। इसी कारण भी 2004 में चन्द्रबाबू नायडू की सत्ता गयी थीं।
तेलंगाना का अलग राज्य अब कुछ ही दिनों की बात रह गयी है। तेलंगाना क्षेत्र में खुशियां मनायी जा रही है। वैसी ही खुशियां मनायी जा रही है जैसी खुशी खासकर अलग झारखंड राज्य बनने पर आदिवासियों ने मनायी थी। झारखंड देश का सर्वाधिक खनिज सम्पदा वाला राज्य है। वन सम्पदा, जल सम्पदा, भूमि सम्पदा सहित कई सम्पदाओं से झारखंड की धरती पटी है। लेकिन झारखंड राजनीतिक चक्रव्यूह में फंस गया। आर्थिक दृष्टिकोण से सर्वाधिक सम्पन्न होने के बाद भी झारखंड की मूल जनता अपने आप को ठगी और हासियें पर खड़ी महसूस कर रही है। राजनेताओं का भ्रष्टाचार ने शर्मशार कर दिया। मधु कोड़ा प्रकरण ने झारखड़ियों की कैसी पीड़ा पहुचायी है, यह जगजाहिर ही है। झारखंड जैसी स्थिति तेलंगाना का न हों। तेलंगाना की जनता ने बेहिसाब कुर्बानियां दी है। उनका संधर्ष उनकी सबसे बड़ी पूंजी है। संघर्ष की अवधारणाएं अलग तेलंगाना राज्य में साकार हों। तेलंगाना राष्ट्र समिति के पास ही तेलगाना अलग राज्य की विरासत है। इसलिए तेलंगाना राष्ट्र समिति को संघर्ष की अवधारणाएं पूरी करनी होगी। राजनीतिक शुचिता और नैतिकता दिखानी होगी। विकास व उत्थान की नयी मंजिलें तय करनी होगी। अगर ऐसा नहीं हुआ तो जन समुदाय को अलग राज्य का लाभ भी तो नहीं मिलेगा। फिर छोटे राज्य बनाने का फायदा क्या होगा। उम्मीद होनी चाहिए कि अलग तेलंगाना राज्य के मुद्दे स्थान ग्रहण करेंगे और जनभावनाएं पूरी होंगी।

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