Tuesday, July 20, 2010

बोल ममता......... और कितनी रेल यात्रियों की जान लोगी

राष्ट्र-चिंतन


बोल ममता...और कितनी रेल यात्रियों की जान लोगी

विष्णुगुप्त

पश्चिम बंगाल के वीरभूम के समीप में हुए रेल दुर्घटना के एक दिन पूर्व ही लोकसभा के उपाध्यक्ष कड़िया मुंडा ने इस टिप्पणीकार से बातचीत में कहा था कि सांसदों की सिफारिश को छोड़ दीजिए, सांसदों को स्वयं के लिए भारतीय रेल मंत्रालय से ‘बर्थ आरक्षण‘ के लिए जुझना पड़ता है। कड़िया मुंडा जी संवैधानिक पद पर बैठे हैं, इसलिए रेल मंत्रालय में ‘खुला खेल फारूखाबाजी‘ जैसी स्थिति की सीधी आलोचना और रेल मंत्री की उदासीनता-कर्तव्यहीनता पर प्रत्यक्ष टिप्पणी नहीं कर सकते थे। पर उन्होंने सांसदों को भी अपने बर्थ आरक्षण के लिए जुझने की बात कहकर यह जाहिर ही कर दिया कि रेल मंत्रालय में पूर्णकालिक मंत्री का अभाव और ममता बनती के एजेन्डे में पश्चिम बंगाल के होने से रेल मंत्रालय का महकमा कितना अराजक और बेलगाम हो गया है। इसकी कीमत रेल यात्रियों की जान चुका रही है। ममता बनर्जी ऐसी पहली रेल मंत्री हैं जिनके कार्यकाल में एक पर एक रेल दुर्घटनाएं हो रही हैं, नक्सलियों द्वारा रेल गाड़ियों को विस्फोटों और पटरियों को उखाड़ कर निर्दोष रेल यात्रियों की हत्याएं हो रही हैं, इसके बावजूद भी ममता बनर्जी न तो रेल यात्रियों की जानमाल की सुरक्षा के प्रति गंभीर हो रही हैं और न ही रेल मंत्रालय को अलविदा कहकर रही हैं।
                                  रेल मंत्री की पहली प्राथमिकतां पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे की सरकार को उखाड़ फेंकना है। पर इसकी कीमत निर्दोष यात्री अपनी जान देकर क्यों चुकाये? यात्रियों की जान-माल की सुरक्षा की जिम्मेदारी रेलवे की है। अगर रेलवे अपनी जिम्मेदारी को निभाने में विफल है तो क्या रेल मंत्रालय के अधिकारियों-कर्मचारियों सहित रेल मंत्री ममता बनर्जी दोषी नहीं है? क्या इन पर यात्रियों की हत्या जैसे अपराधो तहत मुकदमा नहीं चलना चाहिए। अगर ममता बनर्जी किसी यूरोप या अमेरिका में रेल मंत्री होती तो निश्चित मानिये की उनका मंत्री पद कबका छिन्न गया होता या फिर ममता को सिविल सोसाइटी न्यायालयों में घसीटकर जेलों में सड़ने के लिए भेजवा देता । अपने देश में भी लाल बहादुर शास्त्री का उदाहरण मौजूद है। दुर्भाग्य यह है कि आज के नेता अपने निजी स्वार्थो के लिए कुर्सी छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं होते हैं। गठबंधन राजमीति की मजबूरी भी कहा जा सकता है जिसमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी जैसे केन्द्रीय सत्ता के सर्वोच्च नियामक भी भारतीय रेल यात्रियों की हत्याओं पर खामोश और लाचार है। आखिर यात्रियों की जान की कीमत पर ममता बनर्जी का बोझ कब तक हम ढोयेंगे। देश की जनता को यह सब जानने का क्या अधिकार नहीं है?

देश में बड़ी रेल दुर्घटनाएं---


1.              ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस पर नक्सली हमला
2.              16 जनवरी 2010 उतर प्रदेश के फिरोजाबाद में श्रमीजवी और कालिदी
                  एक्सप्रेस मे टक्क्र/ तीन की मौत / 16 घायल
3.               14 नवम्बर 2009 को राजस्थान के जोधपुर में मंडौल एक्सप्रेस दुर्धटनाग्रस्त
                   / सात लोग मारे गये/ कई घायल
4.                एक नवम्बर 2009 में गोरखपुर रेल खंड के पास पैसेंजर और टक के भिड़त
                     में 14 यात्रियों की मौत
5.                21 अक्टूबर 2009 में मथुरा के पास गोवा और मेवाड़ एक्सप्रेस में टक्कर में 
                   22 लोग की मृत्यु और सैकड़ों घायल
6.                 24 फरवरी 2009 में उड़ीसा के धनगौड़ा स्टेशन पर हुई वैन और रेल गाड़ी की
                     टक्कर में 14 लोगों    की मौत/ दर्जनों घायल
7.                  14 फरवरी 2009 को कोरोमंडल एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त/ 16 मरे
8.                  अगस्त 2008 को गौतमी एक्सप्रेस मे लगी आग /32 लोग आग में स्वाहा हुए
9. -                21 अप्रैल 2005 साबामती एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त/ 17 मरे/ सैकड़ो घायल
10. -               22 जून 2003 में महाराष्ट में रेल दुर्घटना में 51 यात्रियों की मौत/
                        दो सौ से अधिक घायल

                    ममता बनर्जी के पास इस बार कोई बहाना भी नहीं है। नक्सलियों का ढ़ाल भी वह नहीं ले सकती है। दिल्ली में रेलवे स्टेशन पर हुई दुर्घटना में यात्रियों को ही दोषी ठहराये जाने जैसी मुर्खतापूर्ण और बेहायी प्रक्रिया भी ममता नहीं चला सकती हैं। नक्सलियों द्वारा पटरियों को उखाड़ने और अन्य विस्फोटों के माध्यम से रेल दुर्घटनाएं कराने पर ममता बनर्जी के पास अपने बचाव के लिए तर्क होते थे। उनके पास यह भी तर्क होता था कि सुरक्षा की जिम्मेदारी राज्यो की होती है, इसलिए नक्सलियो के कारनामों से निपटना उनकी नहीं बल्कि राज्य सरकारों की है। वीरभूम में हुई रेल दुर्घटना में न तो नक्सलियों का हाथ है और न ही कोई प्राकृतिक आपदा से उत्पन्न रेल दुर्घटना है। यह सीधेतौर पर परिचालन में हीलाहवाली और उदासीनता ही नहीं बल्कि घोर लापरवाही का प्रसंग है। दुर्घटना कोई बीहड़ जंगली या दुरूह क्षेत्रों में भी नहीं घटी है। दुर्घटना रेल स्टेशन पर ही घटी है और रेल स्टेशन पर खड़ी रेल यात्रि गाड़ी को पीछे से आने वाली रेल यात्री गाड़ी ने जोरदार टक्कर दे मारी। वीरभूम जिले के सेतिया रेल स्टेशन पर पहले से वनांचल एक्सप्रेस खड़ी थी। पीछे से आ रही उत्तरबंगा एक्सप्रेस ने टक्कर मारी। यह सिंगल फेल होने या रेल ड्राइवर द्वारा सिंगल को नजरअंदाज करने का भी मामला नहीं है। अब सवाल यह उठता है कि जब वनांचल एक्सप्रसे सेतिया रेल स्टेशन पर खड़ी थी तब उसी लाइन पर उत्तरबंगा एक्सप्रेस को आने की तकनीकि इजाजत कैसे मिली? यह सीधेतौर परिचालन में अपराधिक चूक का मुकदमा है। रेल परिचालन में लगे कर्मचारियों और रेल अधिकारियों का दोष है। टक्कर कितनी भयानक थी, इसका अंदाजा तो इसी से लगता है कि तीन रेल बोगी पूर्ण रूप से चकनाचुर हो गयी।
                      रेल मंत्रालय की असली चिंता रेल यात्रियो की जान की रक्षा होती ही नहीं है। उनकी असली चिंता रेल अधिकारियों और कर्मचारियों को बचाने में होती है। इस काम में ममता बनर्जी ही नहीं आगे रही हैं बल्कि लालू, पासवान, नीतिस और जाफर शरीफ जैसे अन्य रेल मंत्रियों की भी यही कहानी है। आज तक जितनी भी रेल दुर्घटनाएं हुई हैं उनमें अधिकतर रेल दुर्घटनाओं के लिए रेल अधिकारी और कर्मचारी सीधेतौर पर दोषी रहे हैं। रेल अधिकारियों -कर्मचारियों को रेल दुर्घटना का दोषी मानकर उन पर गंभीर संहिताओं के तहत मुकदमा चलाने की बात तो दूर रही बल्कि विभागीय कार्रवाई तक नहीं होती है। मानवीय भूल इनकी सबसे बड़ी ढाल होती है। मानवीय भूल कहकर दुर्घटनाओं पर पर्दा डाला जाता है। जनाक्रोश को जांच आयोग बनाकर दबाने की कोशिश होती है। अधिकतर बड़ी दुर्घटनाओं पर जांच आयोग बैठाये गये हैं। जांच आयोगो के रिपोर्ट का क्या होता है, यह जाहिर ही नहीं होता है। रेल मंत्रालय जांच रिपोर्टों को दबाने का काम ही करता है। जनता और राजनीतिज्ञ भी बड़ी दुर्घटनाओं और जांच आयोगों को बाद में भूल जाते हैं और रेल अधिकारी-कर्मचारी अपनी-अपनी उन्नति की सीढ़ीययां नापते रहते हैं। कुछ समय पूर्व दिल्ली में रेलवे स्टेशन पर बड़ी दुर्घटना हुई थी। बिहार जाने वाली गाड़ी पर चढ़ने के लिए प्रतिस्पर्द्धा में हुई भगदड़ में कई लोगो की जानें गयी थी। नियमानुसार रेल स्टेशनों पर भीड़ का प्रबंधन करना रेल मंत्रालय का दायित्व है। रेल मंत्रालय ने अपना दायित्व तो निभाया नहीं पर दुर्घटना का दोष रेल यात्रियों पर ही मढ़ दिया था। ममता बनर्जी ने खुद मुर्खताभरी हुंकार भरी थी। बिहारी मजदूरों को निशाना बनाने की कोशिश की थी। उस दुर्घटना की जांच के लिए जांच कमेटी भी बैठी थी। कितने रेल अधिकारी दंडित हुए। लापरवाही के आरोप मे कितने अधिकारियों और कर्मचारियों पर मुकदमा चलाने की कार्यवाही हुई? ममता बनर्जी और रेल मंत्रालय क्या इस पर अपनी सफाई पेश करेगी? नहीं। क्योंकि रेल मंत्रालय और रेल मंत्री की कलई खुल जायेगी?
                              ऐसी स्थिति क्यों आई कि रेल मंत्रालय पूरी तरह से अराजक हो गया है। रेल अधिकारी और कर्मचारी बेलगाम हैं। रेल मंत्रालय के आला अधिकारी अपने निजी स्वार्थो की पूति में लगे हुए हैं। उन पर नियंत्रण का अभाव है। देश के दुरदराज की स्थिति क्या होगी यह नहीं कहा जा सकता है। पर दिल्ली में रेल मंत्रालय का नजारा जाकर आप देख सकते हैं। दलाल और पहुंच वाले व्यक्ति पास लेकर सीधे उपर चले जाते हैं। पर शिकायत लिये आम आदमी स्वागत काउंटर से ही वापस चला जाता है। आम आदमी को रेल अधिकारियो से मिलने या फिर अपनी शिकायत प्रत्यक्षतौर पर देने की इजाजत मिलती ही नहीं है। स्वागत काउंटर पर यह कहा जाता है कि आप टेलीफोन से मिलने की इजाजत लीजिए। टेलीफोन हमेशा व्यस्त मिलता है। रेल अधिकारी और कर्मचारी हमेशा निजी बातों में मशगुल रहकर टेलीफोन लाइन खाली रखते ही नहीं हैं। लाचार होकर आम आदमी वापस हो जाता है। यह स्थिति आम आदमी के साथ ही नहीं है। बल्कि पत्रकारो, सांसदों और अन्य प्रमुख लोगों के साथ भी उपस्थित होती है। पत्रकारों को रेलवे के पीआर डाइरेक्टर से बात करने में लोहे के चने चबाने पड़ते हैं। पीआर डाइरेक्टर का दूरभाष अनवरण और अनिश्चितकाल के लिए अति व्यस्त की स्थिति मे होता है। हां अगर पीआर डाइरेक्टर या फिर अन्य बड़े रेल अधिकारियों को यह मालूम है कि आप ममता बनर्जी तक पहुंच रखते हैं तब आपकी शिकायते या फिर अन्य सुविधाएं मिनटो मे मिल जायेंगी। सांसदों की सिफारिश पत्रों को भी फाड़कर फेंक दिया जाता है। बर्थ आरक्षण तो पूरी तरह दलालो के शिकंजे मे हैं। दलालों से रेल अधिकारी कर्मचारी अपनी जेबें गर्म करते हैं। इसीलिए सांसदों और पत्रकारों के रिर्जब कोटे दलालो के काम आते हैं।
                           यह निश्चित हो गया है कि ममता बनर्जी के पास रेल मंत्रालय के लिए समय नहीं है। रेल मंत्रालय उनकी पहली प्राथमिकता में है भी नहीं। उनकी पहली प्राथमिकता पश्चिम बंगाल की वाममोर्चे सरकार को उखाड़ फेंकना है। ममता बनर्जी दिल्ली में बैठने की जगह कोलकोता मे बैठती है। जब उनके पास रेल मंत्रालय के लिए समय नहीं है तब फिर वे अपने को अलविदा क्यों नहीं कह रही हैं। आखिर कब तक वे यात्रियों की जान से खेलती रहेंगी। भारतीय रेल भारतीय लोकतंत्र का मजबूत पहिया है। करोड़ो लोग प्रतिदिन सफर करते हैं। सबसे बड़ी बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की ममता के प्रति अतिरिक्त संरक्षण वादी नीति है। यह सही है कि मनमोहन सिह और सोनिया गांधी के पास गठबंधन राजनीति की मजबूरी है। लोकतंत्र में पूर्ण जिम्मेदारी प्रधानमंत्री के पास होता है। आखिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ममता बनर्जी की जिद और कर्तव्यहीनता पर कब तक खामोश रहेंगे। क्या इसी तरह यात्रियों को मौत की मुंह जाने की खामोशी पूर्ण नीति आगे भी जारी रहेगी?

सम्पर्क-


मोबाइल - 09968997060

1 comment:

  1. आम का नसीब है चुसना. सब गांधी जी के बन्दरों के सिद्धान्तों पर चलते हुये आंख, कान, मुंह बन्द कर बैठे हैं. अच्छे कर्मचारी के ऊपर ही काम बढ़ा दिया जाता है, निकम्मों को कुछ नहीं कहा जाता. कर्मचारी कम हैं और काम बहुत ज्यादा. नेता सब मस्त हैं. उनके वोटों की फसल सुरक्षित रहे.

    ReplyDelete