Saturday, July 17, 2010

बुर्का प्रतिबंध और विरोध की इस्लामिक रुढ़ियां

राष्ट्र-चिंतन


बुर्का प्रतिबंध और विरोध की इस्लामिक रुढ़ियां

विष्णुगुप्त

फ्रांस में बुर्के पर प्रतिबंध की चर्चा थोड़ा बाद में। पहले मैं अपना तीस साल पुराना अनुव बताना चाहता हूं। 1980 की घटना है। जनता पार्टी सरकार के पतन के बाद हुए लोकसा चुनाव से जुड़ा प्रसंग है। तब मैं एक प्रतिबद्ध राजनीतिक कार्यकर्ता था और बूथ पर अपने संबंधित दल का बूथ एजेंट था। बुर्के की आड़ में तब चार-पांच महिलाओं ने ही पूरी मुस्लिम महिलाओं के बोगस वोट डाल दिये। विरोध दर्ज कराने पर सांप्रदायिक स्थितियां उत्पन्न हो गयी। मतदानकर्मी लाचार थे। लोकतंत्र का कबाड़ा निकल चुका था। लोकतंत्र का यह कबाड़ा न सिर्फ हमारे बूथ पर निकला था बल्कि अन्य बूथों का ी यही हाल था। उस समय पहचान पत्र जैसी बाध्यता ी नहीं थी। ताकि चेहरा न सही पहचान पत्र को देख कर ही, सही-गलत मतदान का अनुमान लगाया जा सके। इसलिए बुर्का सिर्फ महिलाओं का आवरण र न होकर बल्कि कई मजहबी हिंसाओं, रुढ़ियों और विचार प्रवाहों को गति देने का ढ़ाल समझा जाना चाहिए। समानता के अधिकार का हनन तो होता ही है, इसके अलावा दुनिया में सुरक्षा के नये-नये संकटों को और गंीर बनाता है। सुरक्षा के दृष्टिकोण पर ी बुर्का की मजहबी नीति खतरनाक मानी जानी चाहिए। ांस को इस समस्या के समाधान के लिए और मुस्लिम महिलओं को गुलामी का स्थायी प्रक्रिया से निकालने के लिए साधुबाद।
               मुस्लिम महिलाओं के हक में अच्छी खबर मानी जानी चाहिए कि फ्रांस ने अपने यहां बुर्का पर प्रतिबंध लगा दिया है। बुर्का पर न केवल प्रतिबंध लगाया गया है बल्कि बुर्का पहने और पहनाने वाले लोगों को दंड विधान का दोषी ठहराया गया है। दंड विधान के तहत बुर्का पहने वाली महिलाओं पर 150 यूरो और बुर्का पहनने के लिए बाध्य करने वाले पुरुषों को 30 हजार यूरो का दंड लगेगा। एक साल की सजा ी होगी। फ्रांस के इस कदम पर वैश्विक प्रतिक्रिया काफी गहरी है और विवाद का कूटनीतिक स्वरूप तेजी से विकसित होगा। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जहां इस पर असहमति दर्शायी है वही इस्लामिक दुनिया ने इसे इस्लाम के प्रति अनादर घोषित किया है। इस्लामिक दुनिया ने फ्रांस पर सीधा आरोप लगाते हुए कहा है कि बुर्का पर प्रतिबंध से मुस्लिमों की आवाज व व्यक्तिगत आजादी पर ताला लगेगा। दुनिया के कई मानवाधिकार संगठनों की राय इस्लामिक दुनिया से मेल खाती है। इस्लामिक दुनिया और मानवाधिकार संगठनों की जुगलबंदी से यह जरूर आास होता है कि इस सूचना क्रांति के विस्फोट के दौर में ी मजहबी रुढ़ियों के खिलाफ आवाज उठाना या फिर उसे समाप्त करने की संवैधानिक संघर्ण और निर्णय करने के बाद ी कैसी कूटनीतिक-मजहबी प्रक्रिया चलेगी और सामना करना पड़ेगा। जिसकी आग से बचना मुश्किल है। जबकि बुर्के पर प्रतिबंध को लेकर कई सालों तक वाद-विवाद की लम्बी प्रक्रिया चली। बहसे हुई। सर्वेक्षणों में प्रतिबंध पर बहुमत रायशुमारी थी।
बुर्के पर प्रतिबंध की परिस्थितियां अचानक उत्पन्न हुई है क्या? सही में इस्लामिक आबादी की व्यक्तिगत आजादी को कुचलने की नीयत से बुर्के पर प्रतिबंध जैसी संवैधानिक प्रक्रिया चलायी गयी है? अब फ्रांस का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप खंडित हो जायेगा क्या? क्या इसे मुस्लिम समाज की आधी आबादी को उत्पीड़न और गुलामी जैसी मानसिकता से निजात दिलाने का सत्यकर्म माना जाना चाहिए? ये सी प्रश्न अति महत्वपूर्ण हैं। फ्रांसीसी समाज में बुर्के के खिलाफ परिस्थितियां अचानक नहीं बनी है। पिछले एक दशक से फ्रांस में बुर्के को लेकर राजनीतिक गर्मी उत्पन्न हो रही थी। कई मजहबी विचार प्रक्रियाओं से जुड़कर बुर्के का प्रश्न खतरनाक माना गया। फ्रांस के धर्मनिरपेक्ष समाज में बुर्का कांटे की तरह चु रहा था। फ्रांस के वर्तमान राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी से पहले तत्कालीन राष्ट्रपति जाक शिराक ने बुर्के को गंीरता से लिया था। जॉक शिराक ने महसूस किया था कि फ्रांस की धर्मनिरपेक्ष समाज में बुर्के की मजहबी नीति ने केवल कट्टरता का विस्तार कर रहा है बल्कि आधी आबादी को मजहबी मानसिकता के आ़ड लेकर शोषण और उत्पीड़न का माध्यम ी बना रहा है। प्राथमिक विद्यालयों से लेकर कार्यस्थलों व सुरक्षा नियामकों तक बुर्का के कारण असुविधा उत्पन्न हो रही थी। हेड स्कार्फ से स्कूलों में गैर मुस्लिम बच्चों और मुस्लिम बच्चों में ेदाव और घृणा की दीवार खतरनाक ढंग से चौड़ी हो रही थी। मुस्लिम मदरसों में हेड स्कार्फ को लेकर समस्या थी नहीं पर सामान्य स्कूलों में हेड स्कार्फ से सीधेतौर पर मजहबी पहचान रेखांकित होती थी। फ्रांस की राजनीतिक इकाई ने 2004 में संसद में प्रस्ताव पारित कर स्कूलों और कालेजों में हेड स्कार्फ पर प्रतिबंध लगा दिया था। फ्रांस के स्कूल कालेज आज मजहबी पहचान से परे हैं।

बुर्का पहनना या न पहनना महिलाओं का व्यक्तिगत अधिकार है। मुस्लिम महिलाएं अपनी मर्जी से बुर्का पहनती है क्या? क्या बुर्का पहनने या फिर अन्य मजहबी रुढ़ियों के शिकार बनने के लिए मजहबी ठेकेदार औरतों को बाध्य नहीं करते है। फ्रांस की तरह हमारे देश में बुर्का सहित अन्य मजहबी पहचान एक संकट के तौर पर खड़ा है। साख कर आतंकवाद जैसी वीीषिका के दौर में। जांच एजेंसियों को बुर्का जैसी समस्या से हमेशा दो-चार होना पड़ता है। फ्रांस ने बुर्के पर प्रतिबंध लगाकर राजनीतिक शक्ति दिखायी है। फ्रांस के इस कदम का कूटनीतिक और राजनीतिक समर्थन की जरूरत है। मुस्लिम महिलाओं की आजादी के तौर पर ही इसे देखा जाना चाहिए। सही तो यह है कि देश के बुद्धिजीवी और धर्मनिरपेक्ष तबका हमेशा से मुस्लिम सवाल का हितरक्षक के तौर पर खड़े होते हैं।

ब़ुर्का की आड़ में यह खेल......
फ्रास में 65 लाख से अधिक मुस्लिम आबादी है। मुस्लिम आबादी न केवल फ्रांस के वििन्न बड़े शहरों में बसी है बल्कि ग्रामीण पृष्ठूमि और व्यवस्था में ी मुस्लिम आबादी का दबदबा गहरा है। फ्रांस में एशिया और अफ्रीका मूल की मुस्लिम आबादी है जो दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद ांस में जाकर बसी थी। ांस ही नहीं बल्कि पूरे यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अतिरिक्त मानव संसाधन की आवश्यकता थी। अतएव सहित पूरे यूरोप ने मुस्लिम आबादी का स्वागत अपने यहां पूरे मनोाव से किया था। यूरोप का खुल्ला समाज ने मुस्लिम आबादी को पलने-बढ़ने का अवसर दिया। की श्रमिकों और कारीगरों के तौर पर गयी मुस्लिम आबादी आज गोरी आबादी के समकक्ष खड़ी हो गयी। फ्रांस का समाज पूरे यूरोप ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में अपने तरह का अकेला है जहां पर धर्मनिरपेक्षता और समान व्यवहार की धारा बहती है। धार्मिक और व्यक्तिगत आजादी की ी धारा की बाधित नहीं होती है। पर मुस्लिम आबादी अब कट्टरता का खेल-खेल रही है। मजहबी कट्टरता का खतरनाक प्राव तो पत्रडा ही है इसके अलावा अपने लिए अलग कानून व्यवस्था की मांग ी मुस्लिम आबादी कर रही है। मुस्लिम आबादी की यह राजनीतिक प्रक्रिया यूरोप को मजहबी खाई में त्रढकेल रही है। बुर्का सहित अन्य रुत्रिढयों को बनाये रखने के पीछे का राजनीतिक खेल यही है।

म़ुस्लिम देशों की प्रतिक्रिया क्यों?......
मुस्लिम देशों का खुद का आईना कितना खतरनाक है, यह बात किसी से छुपी हुई है क्या? मुस्लिम दुनिया ने बुर्के को इस्लाम से जोड़कर मजहबी व व्यक्तिगत आजादी का कुठराधात करार दिया है। खुद मुस्लिम दुनिया औरतों के प्रति कितना सहिष्णुता रखता है, यह  बताना पड़ेगा क्या? अी हाल ही में सउदी अरब का एक प्रसंग की चर्चा करना जरूरी जान पड़ता है। एक जोड़ा एक रेस्टोरेंट में एक-दूसरे के हाथ पकड़े हुए बैठा था। उस विदेशी जोड़े को हाथ पर हाथ धरे बैठना मंहगा पड़ा और उसे इस्लामिक कानूनों के खिलाफ मान लिया गया। कई दिनों तक उस जोड़ों को जेलों में गुजारना पत्रडा। उसके बाद जाकर रिहाई सुुनिश्चित हुई। मुस्लिम दुनिया यूरोप और अन्य गैर मुस्लिम देशों में इस्लामिक मूल्यों का सम्मान चाहता है। इसमें कोई अचरज की बात नहीं होनी चाहिए। पर हमें यह ी देखना होगा कि मुस्लिम दुनिया का खुद का चेहरा कितना निरापद है? टीबी देखना, एडल्ट फिल्म देखना और इंटरनेट की संपूर्ण प्रक्रिया से जुड़ना गैर इस्लामिक माना जाता है। कई मुस्लिम देशों में इंटरनेट की सोशल व पोर्न साइटों पर पूर्ण प्रतिबंध है। इन सी गैर इस्लामिक प्रक्रियाओं का ग्राह गैर इस्लामिक आबादी पर क्यों लादा जाता है। क्या बुर्का पर सवाल उठाने वाले मुस्लिम देश इसका जवाब देंगे? मुस्लिम देशों में गैर मुस्लिम आबादी का टीवी देखना, पोर्न साइट देखना आदि क्या व्यक्तिगत आजादी नहीं है। फिर क्यों गैर मुस्लिम आबादी को इस्लामिक कानूनों का ग्राह बनाया जाता है।

म़जहबी रूढ़ियां और महिलाएं.......

धार्मिक समूहों में परस्पर विचार की प्रक्रिया चलाने और समानता का आधार विकसित करने में इस्लाम की रुढियां खलनायक साबित होती है। इस्लाम को छोत्रडकर अन्य धार्मिक समूहों में रुत्रिढयों के खिलाफ सतत संघर्ष चलता है और अधिकतर रुढ़िया दम ी तोड़ चुकी है। पर जहां इस्लाम की बात आती है तो बर्बरकालीन रुढ़ियां अी ी खतरनाक ढंग से चली आ रही हैं। खासकर महिलाओं के खिलाफ इस्लामिक रुढ़िया सर चत्रढकर बोलती हैं। पुरुष गैर इस्लामिक हरकत कर सकता है। शराब पी सकता है, गलत ढंग से दौलत अर्जित कर सकता है, परóी पर गलत नजर डाल सकता है, पर उस पर इस्लामिक रुढ़िया काल नहीं बनती। आखिर महिलाओं को ही रुढ़ियों का शिकार क्यों बनाया जाता है। बुर्का पहना कर चाहारदीवारी में कैद रखना, आधुनिक तो क्या बल्कि प्राथमिक शिक्षा से ी दूर रखना और बात-बात पर तलाक दे देना क्या आधुनिक समाज व्यवस्था की आदर्श स्थिति है? पाकिस्तान-अफगानिस्तान तालिबान ने लड़कियों के सैकडों स्कूलों को जला कर राख करने का काम किया है। स्कूल जाने वाली लड़कियों पर तेजाब फैंक कर मारने जैसी मजहबी प्रक्रिया इस्लामिक रुढ़ियां से ही निकलती हैं। आखिर कब तक महिलाओं को मजहबी रुढ़ियों का शिकार बनाया जाता रहेगा?

द़ेशी बुद्धिजीवियिो को सन्निपात........
बुर्के पर प्रतिबंध फ्रांस में लगा है पर आोशित हमारे देश के तथाकथित बुद्धिजीवी और धर्मनिरपेक्ष समाज है। मुस्लिम धर्म संस्थानों की प्रतिक्रिया तो बुर्के पर प्रतिबंध के खिलाफ होगी ही। बुद्धिजीवी और धर्मनिरपेक्ष तबका लाल-पीला क्यों हो रहा है? इस पर इनका स्वार्थ क्या हो सकता है। बुद्धिजीवी और धर्मनिरपेक्ष तबका कहता है कि बुर्के पर प्रतिबंध लगा कर फ्रांस ने व्यक्ति की धार्मिक आजादी को तोड़ा है। धर्मनिरपेक्ष तबका का मुस्लिम परस्त नीति सामने आयी थी। गुड़िया प्रकरण में भी बुद्धीजीवियों और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष तबके का मुस्लिम परस्त चेहरा सामने आया था।
बुर्का पहनना या न पहनना महिलाओं का व्यक्तिगत अधिकार है। मुस्लिम महिलाएं अपनी मर्जी से बुर्का पहनती है क्या? क्या बुर्का पहनने या फिर अन्य मजहबी रुढ़ियों के शिकार बनने के लिए मजहबी ठेकेदार औरतों को बाध्य नहीं करते है। फ्रांस की तरह हमारे देश में बुर्का सहित अन्य मजहबी पहचान एक संकट के तौर पर खड़ा है। साख कर आतंकवाद जैसी वीीषिका के दौर में। जांच एजेंसियों को बुर्का जैसी समस्या से हमेशा दो-चार होना पड़ता है। फ्रांस ने बुर्के पर प्रतिबंध लगाकर राजनीतिक शक्ति दिखायी है। फ्रांस के इस कदम का कूटनीतिक और राजनीतिक समर्थन की जरूरत है। मुस्लिम महिलाओं की आजादी के तौर पर ही इसे देखा जाना चाहिए। सही तो यह है कि देश के बुद्धिजीवी और धर्मनिरपेक्ष तबका हमेशा से मुस्लिम सवाल का हितरक्षक के तौर पर खड़े होते हैं।


सम्पर्क

मोबाइल- 09968997060

2 comments:

  1. शानदार पोस्ट

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  2. बिलकुल दुरुस्त. एक विश्लेष्णात्मक सटीक आलेख.

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