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मुल्लों को पुर्ननिर्माण के लिए पैसा कौन देगा \
सीरिया के नये मुल्ला को पैसा चाहिए
आचार्य श्रीहरि
मुल्लों को शासन चलाने और पुर्ननिर्माण के लिए पैसा कौन देगा? मुस्लिम आबादी और मुस्लिम देश हथियार खरीदने और आतंकी हिंसा के लिए पैसा तो देते हैं पर शांति काल में शासन चलाने और पुर्ननिर्माण के लिए पैसा नहीं देते हैं। आप उदाहरण के तौर पर अफगानिस्तान को देख सकते हैं, लेबनान को देख सकते हैं। अब आप सीरिया को भी देख सकते हैं। मुल्ले आतंक के विशेषज्ञ हो सकते हैं, हिंसा फैलाने के विशेषज्ञ हो सकते हैं, महिलाओं के अधिकारों के दमन के विशेषज्ञ हो सकते हैं, गैर मुस्लिमों के कत्लेआम के विशेषज्ञ हो सकते हैं पर शांति काल में विकास और उन्नति को गतिशील करने के लिए विशेषज्ञता उनके पास हो नहीं सकती हैं, क्योंकि वे विनाश और संहार के सहचर होते हैं। सीरिया के नये शासक और मुल्ला अहमद अल-शरा की बचैनी और चिंता देख लीजिये।
सीरिया का नया नेता मुल्ला अहमद अल-शरा ने एक महत्वपूर्ण बात कही है। उनकी बात यह है कि हम सीरिया को आधुनिक और भव्य जरूर बनाना चाहते हैं लेकिन सीरिया को आधुनिक और भव्य बनाने के लिए पैसा हमें कौन देगा? हमारा खजाना खाली है, हमारे चारो तरफ तबाही ही तबाही है, चारों तरफ विनाश ही विनाश है, कहीं से भी कोई राहत भरी तस्वीर नहीं दिखायी देती है। सिर्फ इतना ही सतोष है कि हमने उस बशर अल असद को भगा दिया जिसने सीरिया वालों के सपनो को कब्र बनाया, सीरिया वालों के भविष्य की उम्मीदों पर पानी फेरा और यहां के लोगों को लूटकर अपने पैसे पश्चिमी देशों में जमा किये,रूस की अर्थव्यवस्था को मजबूत किये। मुल्ला अहमत अल-शरा की तारीफ इस बात की होनी चाहिए कि उन्होंने सच बोलने का साहस किया और परिस्थितियों को समझने की जरूर कोशिश की है। सच को स्वीकार किये बिना, परिस्थितियों का आकलन किये बिना कोई भी सफल शासक नहीं बन सकता है और न ही किसी विध्वंस, संहार को प्राप्त, खंडहर में तब्दील देश का पुर्ननिर्माण किया जा सकता है।
सीरिया की अभी जरूरत क्या है? सीरिया की अभी जरूरत हिंसा और तबाही की कार्रवाइयों से बाहर निकलने की है, शिया-सुन्नी विवाद और हिंसा से बचने की है, इस्राइल के कोपभाजन बनने से बचने की है, विदेशी समर्थन जुटाने की है, विदेशी प्रतिबंधों की मार को समाप्त कराने की है, संयुक्त राष्ट्रसंघ की मान्यता दिलाने की है। ऐसी चुनौतियों की मांद बहुत ही गहरी है। ऐसी खतरनाक चुनौतियों से लड़ने के लिए साहस की भी जरूरत होती है और चातुर्य की भी जरूरत होती है, एक कदम पीछे हटकर भी लक्ष्य साधना होता है। भूख से तड़पती हई जनता को देखकर शासक को नींद कैसे आयेगी? इसी मर्म की समझ किसी शासक को महान बनाता है। पर इस्लाम के नाम पर पहले आतंक फैलाने वाले और बाद में सत्ता पर कब्जा जमाने वाले आतंकवादी सरगनाएं इस मर्म को समझते ही कहां हैं?
सीरिया के पुर्ननिर्माण के लिए पैसा कौन देगा? मुस्लिम देश तो सीरिया को पैसा देंगे नहीं? मुस्लिम देश की जनता हथियार खरीदने और आतंक फैलाने के लिए पैसा तो जकात के रूप में जरूर देती है पर पुनर्निर्माण के लिए मुस्लिम आबादी पैसा देती नहीं है। यही कारण अफगानिस्तान में तालिबान अपनी सत्ता को प्रेरक नहीं बना पाया, अपनी जनता की भलाई के लिए कोई अच्छा शासन नहीं दे सका, पाकिस्तान जैसा इस्लामिक देश आतंकवाद के रास्ते पर चलकर कंगाल हो गया, दुनिया पाकिस्तान को भीख देने के लिए तैयार नहीं हैं, कर्ज देने के लिए तैयार नहीं है और उधार भी देने के लिए तैयार नहीं है। फिर सीरिया को कौन उधार देगा, कौन कर्ज देगा और कौन भीख देगा? धन चाहे भीख के रूप में,चाहे कर्ज के रूप में और चाहे उधार के रूप में उस देश को मिलता है जो शांति के रास्ते पर चल रहा हो, जो विफल देश के सिद्धांत से परे हो, जो हिंसा और आतंक से मुक्त हो। अभी सीरिया में शांति की उम्मीद बहुत ज्यादा नहीं है, अभी सीरिया में सर्वानुमति वाली सरकार के गठन और सक्रियता की उम्मीद नहीं है। सिर्फ यही कहा जा सकता है कि सीरिया में बशर अल असद की तानाशाही का पतन हो गया है और वहां पर हिंसक अहमद अल-शरा की सत्ता कायम हो गयी है। अहमद अल शरा की सरकार की मान्यता किसने दी है? सीरिया की जनता ने मान्यता दी है या फिर संयुक्त राष्टसंघ ने मान्यता दी है? मान्यता न तो सीरिया की जनता ने दी है और न ही संयुक्त राष्ट्रसंघ ने मान्यता दी है। अभी तक अमेरिका ने भी मान्यता नहीं दी है।
मानवाधिकार के लिए मुस्लिम देशों में कोई जगह नहीं होती है। मानवाधिकार के नाम पर ये पैसा भी खर्च नहीं करते हैं। मानवाधिकार के नाम पर पश्चिम देश ही गंभीर रहते हैं और समर्थक होते हैं। मानवाधिकार पर पश्चिम देश ही पैसा खर्च कर सकते हैं। सीरिया में जब भूखमरी होगी, जनता तड़प-तडप कर भूख से मेरेगी तब इसकी रिपोर्ट पढकर पश्चिम देशों की मानवता जागेगी। पश्चिम देश ही सीरिया को मानवाधिकार के नाम पर सहायता कर सकते हैं। पर पश्चिम देश भी अमेरिका द्वारा लगाये गये कई प्रतिबंधों के घेरे में हैं। अमेरिका का निजाम बदल गया। अमेरिका में नया निजाम की ताजपोशी हो गयी। डोनाल्ड ट्रम्प बहुत ही कठिन और भडकीले निजाम हैं। बेकार की दयाशीलता उन्हें पसंद नहीं है, खासकर आतंकी समूहों पर दया करना उन्हें स्वीकार नहीं है। अपने पूर्व के शासन में वे आतंकी समूहों को शांति का पाठ पढाने का काम किया था। सबसे बडी बात यह है कि डोनाल्ड ट्रम्प मुस्लिम देशों की यूनियनबाजी से भडके होते हैं और मुस्लिम आबादी के जिहाद और विखंडन की मानसिकता पर कडे प्रहार के लिए जाने जाते हैं। यह सही है कि अहमद अल-शरा रूस विरोधी हैं, र्इ्ररान विरोधी हैं फिर उनका संगठन पूरी तरह से शांतिप्रिय नहीं है। अहमद अल शरा का आतंकी संगठन सत्ता में रहने के दौरान कैसा व्यवहार करेगा, देखना भी जरूरी है।
अहमद अल-शरा का संगठन हयात तहरीर अल शाम अभी भी आतंकवादी संगठन ही है। संयुक्त राष्ट्रसंध , अमेरिका, यूरोपीय यूनियन और ब्रिटेन ने हयात तहरीर अल शाम को आतंकवादी सूची में रखा है। यह गुट अलकायदा से निकल कर बना है। अलकायदा का कभी सरगना ओसामा बिन लादेन था। ओसामा बिन लादेन को अमेरिका ने मार गिराया था। हयात तहरीर अल शाम भी कभी ओसामा बिन लादेन का समर्थक था। अभी भी पूरे सीरिया पर हयात ए तहरीर अल शाम का कब्जा नहीं है, कई अन्य आतंकी गुट हैं जिन्हें भी सत्ता चाहिए। विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न आतंकी संगठनों का कब्जा है।
सीरिया के पुर्ननिर्माण में सबसे बडी बाधा इस्राइल की चिंता है। इस्राइल की चिंता को खारिज कर अगर अमेरिका और यूरोप सीरिया की मदद करता है तो फिर यह आत्मधाती कदम जैसा ही होगा। सीरिया और इस्राइल के बीच सीमा विवाद है। सीरिया के एक क्षेत्र पर इस्राइल का कब्जा है। बशर अल असद सरकार के पतन के बाद इस्राइल की चिंता बढी है। इस्राइल ने सीरिया के हथियारों को नष्ट करने के लिए कई घातक हमले भी किये हैं। इस्राइल का मानना यह है कि बशर अल असद के छोडे हुए हथियार कहीं आतंकवादी संगठनो के हाथ न लग जायेे। सीरिया के आतंकवादी संगठनों का हमास और हिजबुल्लाह से संपक है। ये तीनों का लक्ष्य एक ही है। लक्ष्य इस्लाम विरोधी इस्राइल का संहार करना और विध्वसं करना है। आज न कल सीरिया के आतंकवादी संगठन इस्राइल के खिलाफ मोर्चा खोलेंगे ही और हमास का साथ देंगे ही। ऐसी परिस्थिति में अमेरिका और यूरोपीय यूनियन सीरिया के पुर्ननिर्माण के लिए धन की वर्षा कैसे कर सकते हैं?
समस्या की जड़ में मुल्ला और आतंकवादी संगठन नहीं बल्कि मुस्लिम जनता ही होती है। मुस्लिम जनता ही आतंकवादियों और मुल्लों को शासक चुनती है और समर्थन देती है। अफगानिस्तान में तालिबान को छिपने के लिए जगह देने वाली मुस्लिम जनता ही थी, ओसामा बिन लादेन की हिंसा के राह पर चलने वाली मुस्लिम जनता ही थी। सीरिया की जनता इस मर्म को समझ सकती है और उदारता पर सवार होगी तो फिर परिणाम सकारात्मक होगा, अन्यथा अफगानिस्तान और लेबनान की तरह सीरिया में भी मानवता लहूलुहान हाती रहेगी और भूख, बेकारी, हिंसा में तडप-तडप कर दम तोडती रहेगी।
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आचार्य श्रीहरि
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आबादी बोझ और विनाशकारी अवरोधक नहीं बनने देंगे भारत को विश्व शक्ति
आचार्य श्रीहरि
लखनउ जाने में मुझे लगे 19 घंटे। ये 19 घंटे की चुनौती मेरे लिए बहुत ही खास थी, दुरूह थी और भविष्य के कई सपनों को कब्र बनाने वाली थी। वह कैसे? इस पर विचार करने से पूर्व 19 घंटे क्यों लगे, कैसे लगे? क्या यह अविश्वसनीय नहीं है? नहीं, यह अविश्वसनीय कदापि नहीं है। विश्वसनीय है। इसकी विश्वसनीयता भी चाकचौबंद है। पूरी कहानी इस प्रकार है। मुझे एक अर्जेंट निमंत्रण पर लखनउ जाना था। मैंने पूरी कोशिश की लेकिन किसी टेªन में रिजर्वेशन नहीं मिला। मेरे सामने निमत्रण को अस्वीकार करने का भी विकल्प था। पर मेरे एक सहयोगी ने दावे के साथ कह दिया कि आप वोल्वों बस से चले जाइये, बहुत ही लगजरी होती है, थकावट नहीं होगी, समय पर लखनउ पहुंच जाइयेगा। मैंने अपने सहयोगी के अनुसार लखनउ जाने के लिए दिल्ली के अंर्तराज्यीय बस अड्डा पर नौ बजे रात को पहुंच गया। वहां पर सारी वोल्वो बसें पहले से ही भरी हुई थी। पता करने पर मालूम हुआ कि पहले से बसे ओवर फूल हैं, दिल्ली से लखनउ जाने के लिए चार-चार हजार रूपये देने पर भी सीटें नहीं मिल रही हैं, जुगाड का विकल्प दिया जा रहा है। यात्रियों की अफरातफरी थी। मैंने फिर सरकारी बस का विकल्प तलाशा पर मिली नहीं, इस दौरान बस अड्डे के चारो तरफ कई चक्कर लगा दिये। हारकर मुझे आनन्द बिहार बस अड्डा जाना पडा और वहां से मुझे लखनउ तो नहीं बल्कि कानपुर की बस मिल गयी। बस प्राइवेट थी, उसके स्टॉप मनमर्जी के थे। सुबह ग्यारह बजे कानपुर पहुंची। कानपुर से फिर बस पकडी तो चार बजे लखनउ पहुंचा। नौ बजे रात्रि का दिल्ली से चला और दूसरे दिन चार बजे लखनउ पहुंचा। यात्रा का पूर्ण विवरण यह है कि जान बची और लाखों पायें।
दिल्ली और लखनउ की दूरी छह सौ किलोमीटर है। इस दूरी को तय करने में हमें लग गये 19 घंटे। छह सौ किलोमीटर की दूरी निजी वाहन से अमेरिका में तीन घंटे और यूरोप में चार घंटे का समय लगता है। ऐसा इसलिए कि उनकी सड़कों की क्वालिटी अव्वल दर्जे की होती है, ठोकरों और अवरोधकों से उनकी सडके मुक्त होती हैं, सड़कों पर उनकी आबादी भी बहुत ही कम होती है, आबादी होती है भी तो वह आबादी सड़कों को अतिक्रमण कर बैठी नहीं होती है, सडके अतिक्रमण मुक्त होती है। सबसे बड़ी बात यह है कि उनके वाहन डग्गामार नहीं होते हैं, सभी कलपूर्जे ढीले और बाजा बजने जैसे नहीं होते हैं, सरकारी मापदंडों को पूरा करने वाले होते हैं। हमारे यहां तो वाहनों का फिटनेस तो आश्चर्यजनक बात होती है, फिटनेस तो अपवाद होती है। अतिक्रमित सडकों पर जब ऐसी बसे चलती हैं तो फिर स्पीड जानेलवा बन जाती है, जिस कारण सडक दुर्घटनाएं भी आम बात बन जाती है। सडक दुर्घटनाओं के मामले में भारत इसी कारण अव्वल है।
आधुनिकता के इस दौर में ऐसी स्थितियां चिंताजन है। आधुनिकता के इस दौर मे सभी कुछ स्मार्ट होने की अनिवार्यता है। यानी कि सड़के भी अनिवार्य तौर पर स्मार्ट होनी चाहिए, बसे भी अनिवार्य तौर स्मार्ट होनी चाहिए। टेक्नोलॉजी भी अनिवार्य तौर पर रूमार्ट होनी चाहिए। यहां तक की आदमी के जीवन की क्रियाएं भी अनिवार्य तौर पर स्मार्ट होनी चाहिए है। लेकिन इस स्मार्ट की कसौटी पर हम कहां हैं? हमारी स्थिति कहां हैं? आबादी के अनुपात में उपयोगी और रक्षक संसाधनों की कमी क्यों हैं? आवागम सुगम क्यों नहीं है? यात्रा की जरूरतों को रेलवे, हवाई जहाज, बसे क्यों नहीं पूरी कर कर पा रहे हैं? इन सभी दुश्वारियों का विश्लेषण करने पर हम पिछडे हुए और एक थके-हारे हुए सभ्यता के लोग ही नजर आयेेंगे। अमेरिका और यूरोप की सभ्यता और सस्कृति का हम चाहे जितना भी आलोचना कर लें, जितनी भी खिल्ली उड़ा ले फिर भी वे हमसे काफी उपर हैं, हम उनकी तुलना में कहीं भी नहीं ठहरते हैं, किसी भी क्षेत्र में हम उनसे आगे नहीं है। उन्होंने टेक्नोलॉजी को सुलभ बनाया, अपनी नैतिकता और दयाशीलता को समृद्ध किया। हमने क्या किया। हमने जाति बढायी, गुंहागर्दी बढायी, अनैतिकता बढायी, अराजकता पसारी, हर बुरे काम को राजनीतिक चश्में से सही करार देने का काम किया। आबादी इतनी बढायी कि दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश भारत बन गया, किसी के अधिकार को कुचल कर अपना हित समृद्ध करने की नीति बनायी गयी, अतिक्रमण कर लो,चाहे इससे सामूहिकता ही क्यों न दफन हो जाये, सामूहिकता ही क्यों न कराहने लगे। इसी सोच से उत्तर प्रदेश जैसा राज्य भी विकास की दौड़ में पिछड गया। भारत का मैनचेस्टर कहे जाने वाला कानपुर इसी मानसिकता की कब्र मे दफन हो गया, सोने की चिड़ियां कहे जाने वाले भारत में गरीबी, भुखमरी आदि दुश्वारियां मनुष्यता को चिढाने लगी और मनुष्यता पर प्रश्नचिन्ह खड़ी करने लगी।
भारत नॅालेज हब हैं। नॉलेज की कसौटी पर हम चैम्पियन है। हमारे नॉलेज का डंका पूरी दुनिया में बज रहा है। आदि-आदि शोर है। गर्व के साथ ऐसी अनुभूति प्रवाह में है। पर हम क्या सच में नॉलेज हब हैं? सूचना क्रांति में हमने अपनी उपियोगिता जरूर साबित की है। सूचना क्रांति के अवसर को हमनें जरूर भूनाया है। सूचना क्रांति ने दुनिया के जीवन को बदल दिया है और दुनिया में समृद्धि के नये अवसर उत्पन्न किये हैं। हमनें अवसर को पकड़ा और दुनिया में हमारे सूचना क्रांति के वीर छा गये। आज हर बंडी कंपनी में शीर्ष पर भारतीय टेक्नोक्रेट हैं, दुनिया के हर बडी कंपनियों का सीओ भारतीय हैं। वैज्ञानिक संस्थानों में काम करने वाले भी भारतीय हैं। पर हमारी शिक्षण संस्थाओं की क्या स्थिति है? यह किसी से छिपी हुई बात नहीं है? हमारे यहां पढाई और शोध का स्तर बहुत ही खतरनाक हैं, निम्न स्तर का है। जबकि अमेरिका और यूरोप में पढाई और शोध का स्तर बहुत ही उपर है। दुनिया कें टॉप 10 विश्वविद्यालयों में भारत के एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। अगर हम नॉलेज हब हैं तो फिर हमारे विश्वविद्यालयो का स्तर भी अमेरिका और यूरोप के टॉप विश्वविद्यालयों के समकक्ष होना चाहिए। सिर्फ योग के भरोसे हम विश्व शक्ति नहीं बन सकते हैं।
हमारी अर्थव्यवस्था कृषि, सनातन और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर निर्भर है। ये तीनों क्षेत्रों में प्रगति और प्रचुरता के कारण हम अर्थव्यवस्था के विकास और समृद्धि की कसौटी पर चीन को टक्कर दे रहे हैं और दुनिया को आश्चर्यचकित कर रहे हैं। पर हमें सोचना चाहिए कि ये तीनों कसौटियों की आयु भी कालजयी नहीं है। कृषि में सुधार की उम्मीद नहीं है, लागत अधिक होने से कृषि क्षेत्र में परेशानियां बढ रही है, किसान की स्थिति खुद जर्जर है। सनातन के भगवान-दर्शन, मंदिर भ्रमण और सनातन पर्व त्यौहारों से रोजगार और समृद्धि के अवसर विकसित होते हैं पर सनातन संस्कृति पर कुठराघात और सेक्युलर राजनीति का बुलडोजर चल रहा है। प्राकृतिक संसाधनों की भी एक सीमा है, प्राकृतिक संसाधनों का अतिरिक्त दोहन भी देश को खंडहर में तब्दील कर सकता है। अमेरिका खुद अपने प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करता है, अतिरिक्त दोहन करने से बचता है।
लोकतंत्र में कोई भी शासक बहुत कुछ कर नही सकता है। एक सीमा से आगे बढकर कोई सुधार नहीं कर सकता है। सड़कों पर अतिक्रमण हटाने के लिए कोई शासक अगर दुकानों को तोडता है, घरों पर बुलडोजर चलाता है, सरकारी जमीनों से अवैध कब्जा हटाना चाहता है, भ्रष्टाचार मिटाना चाहता है, सरकारी कर्मचारियों को ईमानदारी और कर्मठशीलता का पाठ पढाना चाहता है तो फिर वह समूहबाजी का शिकार हो जायेगा, गिरोहबाजी का शिकार हो जायेगा, यूनियनबाजी का शिकार हो जायेगा, अलोकप्रियता का शिकार हो जायेगा। सभी अवैध कब्जेधारी, अनैतिक, भ्रष्ट और यूनियनबाज लोग उसकी सत्ता का संहार कर देंगे। आबादी नियंत्रण पर मजहब संहार की कूटनीति और राजनीति खडी हो जायेगी । ईमानदारी होनी चाहिए, नैतिकता होनी चाहिए पर इसका पालन हम नहीं करेंगे, ऐसी मानसिकता हमारे देश से गायब नहीं होने वाली है। फिर कोई भी शासक भारत को विश्वशक्ति कदापि नहीं बना सकता है।
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‘ सीएए ‘ बनेगा चुनावी हथियार ?