Thursday, January 16, 2025

सोनिया गांधी की वार रूम हुआ करती थी राज्यसभा टीवी

 

चीन और कांग्रेस पाल रही है सनातन विरोधी पत्रकारों को

सोनिया गांधी की वार रूम हुआ करती थी राज्यसभा टीवी


==================
आचार्य श्रीहरि
==================
राज्यसभा टीवी सोनिया गांधी की वार रूम हुआ करती थी। उर्मिलेश यादव, अखिलेश सुमन, अरविन्द सिंह और कुर्बान अली जैसों की नियुक्ति प्रतिभा के आधार पर नहीं बल्कि उनकी मुस्लिम, हामिद अंसारी और कांग्रेस भक्ति के आधार पर हुई थी। राज्य सभा टीवी में उन सभी लोगो को नियुक्तियां मिलती थी और अन्य जगह जैसे बहस, सीरियल निर्माण आदि में मिलती थी जो हिन्दू विरोधी होते थे, जो इंडियन स्टेट के खिलाफ लडने की मानसिकता रखते थे, जिनका समर्पण मुस्लिम परस्ती और हज मानसिकता से जुडी होती थी। उर्मिलेश यादव, अरविंद सिंह, अखिलेश समुन सहित दर्जनों लोगों का कोई टीवी बैकग्राउंड नहीं था फिर भी इन्हें राज्य सभा टीवी में जगह मिली थी। राज्य सभा टीवी संसदीय मामलों पर कम ही ध्यान देती थी, घोडे और खच्चर की रिर्पोिटंग पर ज्यादा ध्यान देती थी, राज्यसभा टीवी के रिपोर्टर मनोरंजन लूटते थे और पानी की तरह पैसा बहाते थे। राज्यसभा टीवी आशिकी की भी जगह बन गयी थी। बहुत सारी बाते सही थी फिर भी न लिखने योग्य थी।चुनावी रिपोर्टिंग में करोड़ों रूपये स्वाहा किये गये थे। सबसे बडी बात यह थी कि राज्य सभा टीवी भाजपा और सनातन की कब्र खोदती थी। कांग्रेस के खिलाफ सुनना भी नहीं चाहती थी। राज्यसभा टीवी ही नहीं बल्कि अन्य संवैधानिक संस्थाओं में भी कांग्रेसी हस्तियां नियुक्ति पाकर सनातन की कब्र खोदती थी।
राज्य सभा टीवी का पहला सीईए गुरदीप सप्पल को बनाया गया था। जो कांग्रेसी था। उसने कांग्रेसियों से राज्यसभा टीवी को भर दिया था। राज्यसभा टीवी के दफ्तर को कांग्रेस का दफ्तर बना दिया गया था। सोनिया गांधी और उसके बेटे और बेटियों का भाषण स्पीच लिखा जाता था, भाजपा के खिलाफ किस प्रकार से घृणा अभियान चलना चाहिए, उसकी नीतियां और व्यूह रचना तैयार होता था। राज्यसभा टीवी के पत्रकारों से संघ नेताओ की गुप्तचरी करायी जाती थी और संघ की रणनीतियों की जानकारी जुटाने के इस्तेमाल किया जाता था। चर्चा होती थी कि दंगारोधी विधेयक भी राज्यसभा टीवी के दफ्तर मंे तैयार हुआ था। दंगारोधी विधेयक हिन्दू अस्मित पर अंतिम कील ठोकने वाला था, दंगा होने पर सिर्फ हिन्दू ही जेल जायेगा, सिर्फ हिन्दू ही अपराधी होगा, ऐसा था। दंगा रोधी विधेयक का व्यापक विरोध हुआ था। अगर 2014 में कांग्रेस वापस आती तो फिर दंगा रोधी विधेयक लागू हो जाता। खासकर राज्यसभा के सभापति और उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी का दखल कुछ ज्यादा ही था। हामिद अंसारी के कारण राज्यसभा टीवी के पत्रकारों और गैर पत्रकारों की कांग्रेस भक्ति, पाकिस्तान भक्ति और मुस्लिम भक्ति सिर चढकर बोलती थी। आईएसआई का एजेंट ने खुलासा किया था कि हामिद अंसारी कैसे भारत की कब्र खोदने में उनकी मदद करता था। भारत की कब्र खोदने की इच्छा रखने वाला हामिद अंसारी राज्यसभा टीवी के पत्रकारों और गैर पत्रकरों को मुस्लिम परस्ती और पाकिस्तान परस्ती दिखाने के लिए कैसे नहीं प्रेरित किया होगा?
भाजपा सत्ता में आयी फिर भी सोनिया गांधी के लिए काम करने वाले पत्रकारों का कोई बाल बांका नहीं हुआ और न ही उन्हें राष्ट्रभक्ति का पाठ पढाया गया और न ही उन्हें भारतीय कानूनों का पाठ पढाया गया। हामिद अंसारी की पाकिस्तान परस्ती पर भी कोई संज्ञान नहीं लिया गया। कुछ परिवर्तन हुए। जैसे राज्यसभा टीवी और लोकसभा टीवी का एक कर दिया गया। बहुत सारे पत्रकारों ने अपनी सोनिया गांधी भक्ति छिपायी और भाजपाई बन गये, बहुत सारे पत्रकारों का टर्म पूरा हो गया और वे राज्यसभा टीवी से मुक्त हो गये। काग्रेस और सोनिया गांधी ने अपने पप्पू पत्रकारों को बेरोजगार नहीं होने दिया। राज्यसभा टीवी के पहले सीईओ गुरदीप सप्पल को सोनिया गांधी ने कांग्रेस का पदाधिकारी और प्रवक्ता बनवा दिया। जबकि अरविद सिंह ने कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष का सलाहकार स्टाप की नौकरी पायी। इसके साथ ही साथ राज्सभा टीवी के अन्य स्टापों का भी प्रबंधन कांग्र्रेस ने कर दिया। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि कई पत्रकारों को विदेशों से फंडिंग भी करायी है, नौकरियां भी दिलवायी। न्यूज क्लिक का प्रकरण आपने सुना होगा। भारत को अस्थिर करने और नरेन्द्र मोदी की छबि को खराब कराने के लिए चीन ने अपना हथकंडा न्यूज क्लिक के तौर पर खडा किया था। न्यूज क्लिक को चीनी फंडिंग मिली थी। न्यूज क्लिक से उर्मिलेश यादव को लाखों रूपये मिले हैं।
चोरी और सीनाजोरी। आज गोदी मीडिया कहने वाले कौन लोग हैं? वही हैं जो कांग्रेस के पैसे और पद पर पलते थे, बढते थे और राज्यसभा टीवी जैसी जगहों पर मनोरंजन करते थे। अब नरेन्द्र मोदी के राज मंें कांग्रेसी पत्रकारों को पैसे और पद नहीं मिल रहे हैं तो अंगूर खट्टे हैं की परिभाषा पर सवार हो गये। अभी-अभी राहुल गांधी ने इंडियन स्टेट से लडने की बात की थी। उसने कहा था कि सभी संवैधानिक संस्थाओं में बीजेपी के लोग भरे पडे हैं। पर सच्चाई यह है कि नरेन्द्र मोदी के राज में भी कांग्रेसी चमचे ही पत्रकार के रूप में मलाई खा रहे हैं। कांग्रेस ने संवैधानिक संस्थाओं को किस प्रकार से अपने चंगूल में कैद कर रखा था उसका राज्यसभा टीवी एक उदाहरण मात्र हैं, ऐसे उदाहरण भरे पडे हैं।
==================
प्रेषक -
आचार्य श्रीहरि
Mobile 9315206123
===================
All reactions:
7

Tuesday, December 24, 2024

मुल्लों को पुर्ननिर्माण के लिए पैसा कौन देगा \

 मुल्लों को पुर्ननिर्माण के लिए पैसा कौन देगा \

सीरिया के नये मुल्ला को पैसा चाहिए

 

           आचार्य श्रीहरि

 

 

मुल्लों को शासन चलाने और पुर्ननिर्माण के लिए पैसा कौन देगामुस्लिम आबादी और मुस्लिम देश हथियार खरीदने और आतंकी हिंसा के लिए पैसा तो देते हैं पर शांति काल में शासन चलाने और पुर्ननिर्माण के लिए पैसा नहीं देते हैं। आप उदाहरण के तौर पर अफगानिस्तान को देख सकते हैंलेबनान को देख सकते हैं। अब आप सीरिया को भी देख सकते हैं। मुल्ले आतंक के विशेषज्ञ हो सकते हैंहिंसा फैलाने के विशेषज्ञ हो सकते हैंमहिलाओं के अधिकारों के दमन के विशेषज्ञ हो सकते हैंगैर मुस्लिमों के कत्लेआम के विशेषज्ञ हो सकते हैं पर शांति काल में विकास और उन्नति को गतिशील करने के लिए विशेषज्ञता उनके पास हो नहीं सकती हैंक्योंकि वे विनाश और संहार के सहचर होते हैं। सीरिया के नये शासक और मुल्ला अहमद अल-शरा की बचैनी और चिंता देख लीजिये।

                सीरिया का नया नेता मुल्ला अहमद अल-शरा ने एक महत्वपूर्ण बात कही है। उनकी बात यह है कि हम सीरिया को आधुनिक और भव्य जरूर बनाना चाहते हैं लेकिन सीरिया को आधुनिक और भव्य बनाने के लिए पैसा हमें कौन देगाहमारा खजाना खाली हैहमारे चारो तरफ तबाही ही तबाही हैचारों तरफ विनाश ही विनाश हैकहीं से भी कोई राहत भरी तस्वीर नहीं दिखायी देती है। सिर्फ इतना ही सतोष है कि हमने उस बशर अल असद को भगा दिया जिसने सीरिया वालों के सपनो को कब्र बनायासीरिया वालों के भविष्य की उम्मीदों पर पानी फेरा और यहां के लोगों को लूटकर अपने पैसे पश्चिमी देशों में जमा किये,रूस की अर्थव्यवस्था को मजबूत किये। मुल्ला अहमत अल-शरा की तारीफ इस बात की होनी चाहिए कि उन्होंने सच बोलने का साहस किया और परिस्थितियों को समझने की जरूर कोशिश की है। सच को स्वीकार किये बिनापरिस्थितियों का आकलन किये बिना कोई भी सफल शासक नहीं बन सकता है और न ही किसी विध्वंससंहार को प्राप्तखंडहर में तब्दील देश का पुर्ननिर्माण किया जा सकता है।

              सीरिया की अभी जरूरत क्या हैसीरिया की अभी जरूरत हिंसा और तबाही की कार्रवाइयों से बाहर निकलने की हैशिया-सुन्नी विवाद और हिंसा से बचने की हैइस्राइल के कोपभाजन बनने से बचने की हैविदेशी समर्थन जुटाने की हैविदेशी प्रतिबंधों की मार को समाप्त कराने की हैसंयुक्त राष्ट्रसंघ की मान्यता दिलाने की है। ऐसी चुनौतियों की मांद बहुत ही गहरी है। ऐसी खतरनाक चुनौतियों से लड़ने के लिए साहस की भी जरूरत होती है और चातुर्य की भी जरूरत होती हैएक कदम पीछे हटकर भी लक्ष्य साधना होता है। भूख से तड़पती हई जनता को देखकर शासक को नींद कैसे आयेगीइसी मर्म की समझ किसी शासक को महान बनाता है। पर इस्लाम के नाम पर पहले आतंक फैलाने वाले और बाद में सत्ता पर कब्जा जमाने वाले आतंकवादी सरगनाएं इस मर्म को समझते ही कहां हैं?

                सीरिया के पुर्ननिर्माण के लिए पैसा कौन देगामुस्लिम देश तो सीरिया को पैसा देंगे नहींमुस्लिम देश की जनता हथियार खरीदने और आतंक फैलाने के लिए पैसा तो जकात के रूप में जरूर देती है पर पुनर्निर्माण के लिए मुस्लिम आबादी पैसा देती नहीं है। यही कारण अफगानिस्तान में तालिबान अपनी सत्ता को प्रेरक नहीं बना पायाअपनी जनता की भलाई के लिए कोई अच्छा शासन नहीं दे सकापाकिस्तान जैसा इस्लामिक देश आतंकवाद के रास्ते पर चलकर कंगाल हो गयादुनिया पाकिस्तान को भीख देने के लिए तैयार नहीं हैंकर्ज देने के लिए तैयार नहीं है और उधार भी देने के लिए तैयार नहीं है। फिर सीरिया को कौन उधार देगाकौन कर्ज देगा और कौन भीख देगाधन चाहे भीख के रूप में,चाहे कर्ज के रूप में और चाहे उधार के रूप में उस देश को मिलता है जो शांति के रास्ते पर चल रहा होजो विफल देश के सिद्धांत से परे होजो हिंसा और आतंक से मुक्त हो। अभी सीरिया में शांति की उम्मीद बहुत ज्यादा नहीं हैअभी सीरिया में सर्वानुमति वाली सरकार के गठन और सक्रियता की उम्मीद नहीं है। सिर्फ यही कहा जा सकता है कि सीरिया में बशर अल असद की तानाशाही का पतन हो गया है और वहां पर हिंसक अहमद अल-शरा की सत्ता कायम हो गयी है। अहमद अल शरा की सरकार की मान्यता किसने दी हैसीरिया की जनता ने मान्यता दी है या फिर संयुक्त राष्टसंघ ने मान्यता दी हैमान्यता न तो सीरिया की जनता ने दी है और न ही संयुक्त राष्ट्रसंघ ने मान्यता दी है। अभी तक अमेरिका ने भी मान्यता नहीं दी है।

                मानवाधिकार के लिए मुस्लिम देशों में कोई जगह नहीं होती है। मानवाधिकार के नाम पर ये पैसा भी खर्च नहीं करते हैं। मानवाधिकार के नाम पर पश्चिम देश ही गंभीर रहते हैं और समर्थक होते हैं। मानवाधिकार पर पश्चिम देश ही पैसा खर्च कर सकते हैं। सीरिया में जब भूखमरी होगीजनता तड़प-तडप कर भूख से मेरेगी तब इसकी रिपोर्ट पढकर पश्चिम देशों की मानवता जागेगी। पश्चिम देश ही सीरिया को मानवाधिकार के नाम पर सहायता कर सकते हैं। पर पश्चिम देश भी अमेरिका द्वारा लगाये गये कई प्रतिबंधों के घेरे में हैं। अमेरिका का निजाम बदल गया। अमेरिका में नया निजाम की ताजपोशी हो गयी। डोनाल्ड ट्रम्प बहुत ही कठिन और भडकीले निजाम हैं। बेकार की दयाशीलता उन्हें पसंद नहीं हैखासकर आतंकी समूहों पर दया करना उन्हें स्वीकार नहीं है। अपने पूर्व के शासन में वे आतंकी समूहों को शांति का पाठ पढाने का काम किया था। सबसे बडी बात यह है कि डोनाल्ड ट्रम्प मुस्लिम देशों की यूनियनबाजी से भडके होते हैं और मुस्लिम आबादी के जिहाद और विखंडन की मानसिकता पर कडे प्रहार के लिए जाने जाते हैं। यह सही है कि अहमद अल-शरा रूस विरोधी हैंर्इ्ररान विरोधी हैं फिर उनका संगठन पूरी तरह से शांतिप्रिय नहीं है। अहमद अल शरा का आतंकी संगठन सत्ता में रहने के दौरान कैसा व्यवहार करेगादेखना भी जरूरी है।

            अहमद अल-शरा का संगठन हयात तहरीर अल शाम अभी भी आतंकवादी संगठन ही है। संयुक्त राष्ट्रसंध अमेरिकायूरोपीय यूनियन और ब्रिटेन ने हयात तहरीर अल शाम को आतंकवादी सूची में रखा है। यह गुट अलकायदा से निकल कर बना है। अलकायदा का कभी सरगना ओसामा बिन लादेन था। ओसामा बिन लादेन को अमेरिका ने मार गिराया था। हयात तहरीर अल शाम भी कभी ओसामा बिन लादेन का समर्थक था। अभी भी पूरे सीरिया पर हयात ए तहरीर अल शाम का कब्जा नहीं हैकई अन्य आतंकी गुट हैं जिन्हें भी सत्ता चाहिए। विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न आतंकी संगठनों का कब्जा है।

                   सीरिया के पुर्ननिर्माण में सबसे बडी बाधा इस्राइल की चिंता है। इस्राइल की चिंता को खारिज कर अगर अमेरिका और यूरोप सीरिया की मदद करता है तो फिर यह आत्मधाती कदम जैसा ही होगा। सीरिया और इस्राइल के बीच सीमा विवाद है। सीरिया के एक क्षेत्र पर इस्राइल का कब्जा है। बशर अल असद सरकार के पतन के बाद इस्राइल की चिंता बढी है। इस्राइल ने सीरिया के हथियारों को नष्ट करने के लिए कई घातक हमले भी किये हैं। इस्राइल का मानना यह है कि बशर अल असद के छोडे हुए हथियार कहीं आतंकवादी संगठनो के हाथ न लग जायेे। सीरिया के आतंकवादी संगठनों का हमास और हिजबुल्लाह से संपक है। ये तीनों का लक्ष्य एक ही है। लक्ष्य इस्लाम विरोधी इस्राइल का संहार करना और विध्वसं करना है। आज न कल सीरिया के आतंकवादी संगठन इस्राइल के खिलाफ मोर्चा खोलेंगे ही और हमास का साथ देंगे ही। ऐसी परिस्थिति में अमेरिका और यूरोपीय यूनियन सीरिया के पुर्ननिर्माण के लिए धन की वर्षा कैसे कर सकते हैं?

                समस्या की जड़ में मुल्ला और आतंकवादी संगठन नहीं बल्कि मुस्लिम जनता ही होती है। मुस्लिम जनता ही आतंकवादियों और मुल्लों को शासक चुनती है और समर्थन देती है। अफगानिस्तान में तालिबान को छिपने के लिए जगह देने वाली मुस्लिम जनता ही थीओसामा बिन लादेन की हिंसा के राह पर चलने वाली मुस्लिम जनता ही थी। सीरिया की जनता इस मर्म को समझ सकती है और उदारता पर सवार होगी तो फिर परिणाम सकारात्मक होगाअन्यथा अफगानिस्तान और लेबनान की तरह सीरिया में भी मानवता लहूलुहान हाती रहेगी और भूखबेकारीहिंसा में तडप-तडप कर दम तोडती रहेगी।

 

संपर्क

आचार्य श्रीहरि

मोबाइल   9315206123

Sunday, December 22, 2024

आबादी बोझ और विनाशकारी अवरोधक नहीं बनने देंगे भारत को विश्व शक्ति

 आबादी बोझ और विनाशकारी अवरोधक नहीं बनने देंगे भारत को विश्व शक्ति

       आचार्य श्रीहरि

 

लखनउ जाने में मुझे लगे 19 घंटे। ये 19 घंटे की चुनौती मेरे लिए बहुत ही खास थीदुरूह थी और भविष्य के कई सपनों को कब्र बनाने वाली थी। वह कैसेइस पर विचार करने से पूर्व 19 घंटे क्यों लगेकैसे लगेक्या यह अविश्वसनीय नहीं हैनहींयह अविश्वसनीय कदापि नहीं है। विश्वसनीय है। इसकी विश्वसनीयता भी चाकचौबंद है। पूरी कहानी इस प्रकार है। मुझे एक अर्जेंट निमंत्रण पर लखनउ जाना था। मैंने पूरी कोशिश की लेकिन किसी टेªन में रिजर्वेशन नहीं मिला। मेरे सामने निमत्रण को अस्वीकार करने का भी विकल्प था। पर मेरे एक सहयोगी ने दावे के साथ कह दिया कि आप वोल्वों बस से चले जाइयेबहुत ही लगजरी होती हैथकावट नहीं होगीसमय पर लखनउ पहुंच जाइयेगा। मैंने अपने सहयोगी के अनुसार लखनउ जाने के लिए दिल्ली के अंर्तराज्यीय बस अड्डा पर नौ बजे रात को पहुंच गया। वहां पर सारी वोल्वो बसें पहले से ही भरी हुई थी। पता करने पर मालूम हुआ कि पहले से बसे ओवर फूल हैंदिल्ली से लखनउ जाने के लिए चार-चार हजार रूपये देने पर भी सीटें नहीं मिल रही हैंजुगाड का विकल्प दिया जा रहा है। यात्रियों की अफरातफरी थी। मैंने फिर सरकारी बस का विकल्प तलाशा पर मिली नहींइस दौरान बस अड्डे के चारो तरफ कई चक्कर लगा दिये। हारकर मुझे आनन्द बिहार बस अड्डा जाना पडा और वहां से मुझे लखनउ तो नहीं बल्कि कानपुर की बस मिल गयी। बस प्राइवेट थीउसके स्टॉप मनमर्जी के थे। सुबह ग्यारह बजे कानपुर पहुंची। कानपुर से फिर बस पकडी तो चार बजे लखनउ पहुंचा। नौ बजे रात्रि का दिल्ली से चला और दूसरे दिन चार बजे लखनउ पहुंचा। यात्रा का पूर्ण विवरण यह है कि जान बची और लाखों पायें।

                    दिल्ली और लखनउ की दूरी छह सौ किलोमीटर है। इस दूरी को तय करने में हमें लग गये 19 घंटे। छह सौ किलोमीटर की दूरी निजी वाहन से अमेरिका में तीन घंटे और यूरोप में चार घंटे का समय लगता है। ऐसा इसलिए कि उनकी सड़कों की क्वालिटी अव्वल दर्जे की होती हैठोकरों और अवरोधकों से उनकी सडके मुक्त होती हैंसड़कों पर उनकी आबादी भी बहुत ही कम होती हैआबादी होती है भी तो वह आबादी सड़कों को अतिक्रमण कर बैठी नहीं होती हैसडके अतिक्रमण मुक्त होती है। सबसे बड़ी बात यह है कि उनके वाहन डग्गामार नहीं होते हैंसभी कलपूर्जे ढीले और बाजा बजने जैसे नहीं होते हैंसरकारी मापदंडों को पूरा करने वाले होते हैं। हमारे यहां तो वाहनों का फिटनेस तो आश्चर्यजनक बात होती हैफिटनेस तो अपवाद होती है। अतिक्रमित सडकों पर जब ऐसी बसे चलती हैं तो फिर स्पीड जानेलवा बन जाती हैजिस कारण सडक दुर्घटनाएं भी आम बात बन जाती है। सडक दुर्घटनाओं के मामले में भारत इसी कारण अव्वल है।

                 आधुनिकता के इस दौर में ऐसी स्थितियां चिंताजन है। आधुनिकता के इस दौर मे सभी कुछ स्मार्ट होने की अनिवार्यता है। यानी कि सड़के भी अनिवार्य तौर पर स्मार्ट होनी चाहिएबसे भी अनिवार्य तौर स्मार्ट होनी चाहिए। टेक्नोलॉजी भी अनिवार्य तौर पर रूमार्ट होनी चाहिए। यहां तक की आदमी के जीवन की क्रियाएं भी अनिवार्य तौर पर स्मार्ट होनी चाहिए है। लेकिन इस स्मार्ट की कसौटी पर हम कहां हैंहमारी स्थिति कहां हैंआबादी के अनुपात में उपयोगी और रक्षक संसाधनों की कमी क्यों हैंआवागम सुगम क्यों नहीं हैयात्रा की जरूरतों को रेलवेहवाई जहाजबसे क्यों नहीं पूरी कर कर पा रहे हैंइन सभी दुश्वारियों का विश्लेषण करने पर हम पिछडे हुए और एक थके-हारे हुए सभ्यता के लोग ही नजर आयेेंगे। अमेरिका और यूरोप की सभ्यता और सस्कृति का हम चाहे जितना भी आलोचना कर लेंजितनी भी खिल्ली उड़ा ले फिर भी वे हमसे काफी उपर हैंहम उनकी तुलना में कहीं भी नहीं ठहरते हैंकिसी भी क्षेत्र में हम उनसे आगे नहीं है। उन्होंने टेक्नोलॉजी को सुलभ बनायाअपनी नैतिकता और दयाशीलता को समृद्ध किया। हमने क्या किया। हमने जाति बढायीगुंहागर्दी बढायीअनैतिकता बढायीअराजकता पसारीहर बुरे काम को राजनीतिक चश्में से सही करार देने का काम किया। आबादी इतनी बढायी कि दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश भारत बन गया,  किसी के अधिकार को कुचल कर अपना हित समृद्ध करने की नीति बनायी गयीअतिक्रमण कर लो,चाहे इससे सामूहिकता ही क्यों न दफन हो जायेसामूहिकता ही क्यों न कराहने लगे। इसी सोच से उत्तर प्रदेश जैसा राज्य भी विकास की दौड़ में पिछड गया। भारत का मैनचेस्टर कहे जाने वाला कानपुर इसी मानसिकता की कब्र मे दफन हो गयासोने की चिड़ियां कहे जाने वाले भारत में गरीबीभुखमरी आदि दुश्वारियां मनुष्यता को चिढाने लगी और मनुष्यता पर प्रश्नचिन्ह खड़ी करने लगी।

               भारत नॅालेज हब हैं। नॉलेज की कसौटी पर हम चैम्पियन है। हमारे नॉलेज का डंका पूरी दुनिया में बज रहा है। आदि-आदि शोर है। गर्व के साथ ऐसी अनुभूति प्रवाह में है। पर हम क्या सच में नॉलेज हब हैंसूचना क्रांति में हमने अपनी उपियोगिता जरूर साबित की है। सूचना क्रांति के अवसर को हमनें जरूर भूनाया है। सूचना क्रांति ने दुनिया के जीवन को बदल दिया है और दुनिया में समृद्धि के नये अवसर उत्पन्न किये हैं। हमनें अवसर को पकड़ा और दुनिया में हमारे सूचना क्रांति के वीर छा गये। आज हर बंडी कंपनी में शीर्ष पर भारतीय टेक्नोक्रेट हैंदुनिया के हर बडी कंपनियों का सीओ भारतीय हैं। वैज्ञानिक संस्थानों में काम करने वाले भी भारतीय हैं। पर हमारी शिक्षण संस्थाओं की क्या स्थिति हैयह किसी से छिपी हुई बात नहीं हैहमारे यहां पढाई और शोध का स्तर बहुत ही खतरनाक हैंनिम्न स्तर का है। जबकि अमेरिका और यूरोप में पढाई और शोध का स्तर बहुत ही उपर है। दुनिया कें टॉप 10 विश्वविद्यालयों में भारत के एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। अगर हम नॉलेज हब हैं तो फिर हमारे विश्वविद्यालयो का स्तर भी अमेरिका और यूरोप के टॉप विश्वविद्यालयों के समकक्ष होना चाहिए। सिर्फ योग के भरोसे हम विश्व शक्ति नहीं बन सकते हैं।

                   हमारी अर्थव्यवस्था कृषिसनातन और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर निर्भर है। ये तीनों क्षेत्रों में प्रगति और प्रचुरता के कारण हम अर्थव्यवस्था के विकास और समृद्धि की कसौटी पर चीन को टक्कर दे रहे हैं और दुनिया को आश्चर्यचकित कर रहे हैं। पर हमें सोचना चाहिए कि ये तीनों कसौटियों की आयु भी कालजयी नहीं है। कृषि में सुधार की उम्मीद नहीं हैलागत अधिक होने से कृषि क्षेत्र में परेशानियां बढ रही हैकिसान की स्थिति खुद जर्जर है। सनातन के भगवान-दर्शनमंदिर भ्रमण और सनातन पर्व त्यौहारों से रोजगार और समृद्धि के अवसर विकसित होते हैं पर सनातन संस्कृति पर कुठराघात और सेक्युलर राजनीति का बुलडोजर चल रहा है। प्राकृतिक संसाधनों की भी एक सीमा हैप्राकृतिक संसाधनों का अतिरिक्त दोहन भी देश को खंडहर में तब्दील कर सकता है। अमेरिका खुद अपने प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करता हैअतिरिक्त दोहन करने से बचता है।

                         लोकतंत्र में कोई भी शासक बहुत कुछ कर नही सकता है। एक सीमा से आगे बढकर कोई सुधार नहीं कर सकता है। सड़कों पर अतिक्रमण हटाने के लिए कोई शासक अगर दुकानों को तोडता हैघरों पर बुलडोजर चलाता हैसरकारी जमीनों से अवैध कब्जा हटाना चाहता है, भ्रष्टाचार मिटाना चाहता हैसरकारी कर्मचारियों को ईमानदारी और कर्मठशीलता का पाठ पढाना चाहता है तो फिर वह समूहबाजी का शिकार हो जायेगागिरोहबाजी का शिकार हो जायेगायूनियनबाजी का शिकार हो जायेगाअलोकप्रियता का शिकार हो जायेगा। सभी अवैध कब्जेधारीअनैतिकभ्रष्ट और यूनियनबाज लोग उसकी सत्ता का संहार कर देंगे। आबादी नियंत्रण पर मजहब संहार की कूटनीति और राजनीति खडी हो जायेगी । ईमानदारी होनी चाहिएनैतिकता होनी चाहिए पर इसका पालन हम नहीं करेंगेऐसी मानसिकता हमारे देश से गायब नहीं होने वाली है। फिर कोई भी शासक भारत को विश्वशक्ति कदापि नहीं बना सकता है।


संपर्क

आचार्य श्रीहरि

मोबाइल  9315206123

Monday, February 22, 2021

अडानी-अंबानी प्रेम में सब पागल हैं

 राष्ट्र-चिंतन

 अडानी-अंबानी प्रेम में सब पागल हैं

         विष्णुगुप्त

भारतीय राजनीति के केन्द्र में जब से नरेन्द्र मोदी का उदय हुआ है तब से अडानी-अंबानी का जूमला भी सरेआम हुआ है, नरेन्द्र मोदी के विरोधियों के मुंह से बोला जाने वाला सर्वाधिक प्रिय जूमला है। नरेन्द्र मोदी के विरोधी अडानी और अंबानी के जूमले से जनता को आकर्षित करना चाहते हैं, उनकी समझ यह भी है कि इस जूमले से नरेन्द्र मोदी की राजनीतिक छवि को घूमिल किया जा सकता है, उनकी केन्द्रीय सत्ता को पराजित किया जा सकता है। इसी उद्देश्य से विरोधी देश की राजनीति के केन्द्र में अडानी-अंबानी का विरोध हमेशा रखते है, प्रमुखता के साथ उठाते हैं। अभी-अभी किसान आंदोलन और तीन कृषि कानूनों को लेकर भी अडानी-अंबानी का जूमला विरोध के केन्द्र में हैं। कृषि कानूनों के विरोधी किसान संगठनों और विपक्षी राजनीतिक पार्टियां यह कह रही हैं कि देश की जमीन अडानी और अंबानी को देने की साजिश है, किसानों की किस्मत पर अडानी-अंबानी की बूरी और टेढी नजर है, अब खेती भी अडानी-अंबानी जैसे कारपोरेट घराने करेंगे, किसान सिर्फ मजदूर बन कर रह जायेंगे। संसद के अंदर में राहुल गांधी ने एक भाषण दिया था जिसमें न केवल नरेन्द्र मोदी-अमित शाह को घेरा था बल्कि अडानी और अंबानी को भी घेरा था। राहुल गांधी ने संसद के अंदर कहा था कि हम दो और हमारे दो की सरकार चल रही है, यही देश के गरीबों को लूटना चाहते हैं, किसानों की किस्मत लूटना चाहते हैं। राहुल गांधी के इस वाक्य का अर्थ राजनीति में खूब चर्चित हुआ। हम दो का मतलब नरेन्द्र मोदी और अमित शाह था और  हमारे दो का मतलब अडानी-अंबानी से था। जहां तक राहुल गांधी का प्रश्न है तो वह अपने हर भाषण में, हर कार्यक्रम में अडानी-अंबानी की आलोचना का कोई अवसर नहीं गंवाते हैं। राहुल गांधी और अन्य विपक्षी नेताओं के अडानी-अंबानी जूमले का प्रतिकार नरेन्द्र मोदी यह कह कर करते रहे हैं कि विकास और उन्नति के लिए निजी क्षेत्र का भी सम्मान जरूरी है, निजी क्षेत्र की सहभागिता के बिना देश का विकास और उन्नति संभव नहीं है।
                                 अडानी-अंबानी से संबंधित एक ऐसी खबर सामने आयी है और खबर भी पूरी तरह से सच है जिसमें खुद राहुल गांधी ही नहीं बल्कि अन्य विपक्षी पार्टियां भी प्रश्नों के घेरे में कैद हैं। खासकर राहुल गांधी की कांग्रेस पार्टी का चेहरा बेनकाब होता है, कांग्रेस का भी अडानी-अ्रबानी प्रेम की कहानी उजागर होती है। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि अडानी-अंबानी और कांग्रेस से जुडी हुई खबर क्या है? खबर यह है कि कांग्रेस की राजस्थान सरकार और कांग्रेस गठबंधित महाराष्ट सरकार ने जोरदार अडानी प्रेम दिखाया है, सिर्फ प्रेम ही नहीं दिखाया है बल्कि इन दोनों सरकारों ने अपने-अपने यहां अडानी के बडे ठेके भी दिये हैं। राजस्थान के कांग्रेसी गहलौत सरकार ने अडानी ग्रुप को सोलर पावर प्रोजेक्टस और महाराष्ट सरकार ने दिघी पोेर्ट के ठेके दिये हैं। राजस्थान की कांग्रेसी सरकार की इच्छा के अनुसार अडानी ग्रुप राजस्थान में 8700 मेगावाॅट से सोलर हाईब्रिड और विंड एनर्जी पार्क विकसित करेगा। कुल पांच सोलर पावर प्रोजेक्ट में अडानी ग्रुप कोई 50 हजार करोड का निवेश करेगा। राजस्थान सरकार का मानना है कि इन पांचों सोलर प्रोजेक्टों के माध्यम से दो काम होंगे एक तो स्थानीय लोगों को भी रोजगार मिलेगा और दूसरा कार्य यह होगा कि राजस्थान उर्जा के मामले में आत्मनिर्भर हो जायेगा। उधर महाराष्ट सरकार ने भी अडानी पर कृपा बरसायी है। महाराष्ट सरकार ने अपना दिघी पोर्ट को अडानी ग्रंुप को सौंप दिया है। अडानी ग्रुप ने 705 करोंड़ रूपयों में दिघी पोर्ट की सभी हिस्सेदारियां खरीद ली है। दिघी पोर्ट में 10 हजार करोंड रूपये का निवेश करने की योजना अडानी ग्रुप की है। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि मुबई स्थित जवाहरलाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट के लिए वैकल्पित गेटवे तैयार करने जा रहा है अडानी ग्रुप। महाराष्ट सरकार के अडानी प्रेम का ठिकरा कांग्रेस शिव सेना के सिर पर नहीं फोड सकती है। इसलिए कि पोर्ट मंत्रालय कांग्रेस के पास ही है। इसलिए महाराष्ट की शिव सेना नेतृत्व वाली सरकार कांग्रेस की अवहेलना कर पोर्ट के ठेके और विकास की जिम्मेदारी अडानी ग्रुप को दे ही नहीं सकती है।?
                            राजस्थान और महाराष्ट सरकारों के अडानी प्रेम को देखने के बाद यह मान लेना चाहिए कि अडानी-अंबानी के हमाम में कौन नहीं नंगा है, सभी नंगे हैं, भाजपा भी नंगी है, कांग्रेस भी नहीं नगंी है, शिव सेना भी नंगी है,अन्य विपक्षी पार्टियां भी नंगी है। सिर्फ राजनीतिक पार्टियों के इतिहास को देखने और निष्पक्ष रह कर विश्लेषण करने की जरूरत होनी चाहिए। सिर्फ नरेन्द्र मोदी या भाजपा के लिए ही अंडानी-अंबानी जैसे उद्योगपति और कारापोरेट घराने प्रिय नही है बल्कि ंकांग्रेस के लिए, चन्दबाबू नायडू, जगन रेड्डी, मूलायम-अखिलेश यादव, लालू यादव या फिर सोरेन परिवार, बादल परिवार, करूणानिधि परिवार सभी अडानी-अंबानी जैसे उद्योगपतियों और कारपोरेट घरानों के प्रेम में कैद रहे हैं।
                       अडानी-अंबानी का इतिहास देख लीजिये। अडानी और अंबानी का इतिहास कोई आज का नहीं है। जब नरेन्द्र मोदी का सत्ता राजनीति में उदय तक नहीं हुआ था तब से अडानी-अंबानी का अस्तित्व है। अडानी ग्रुप 1980 के दौरान अस्तित्व में आया था जबकि अंबानी के रिलायंस ग्रुप का अस्तित्व 1980 के पूर्व से है। जब इन दोनों कंपनियों का उदय 1980 से पूर्व का है तब इनके संबंध केन्दीय और राज्य सरकारों से कैसे नहीं होंगे। उस काल में तो केन्द्रीय सत्त और राज्य सत्ता में कांग्रेस ही होती थी। यह भी एक तथ्य है कि कोई भी उद्योगपति और कारपोरेट घराना बिना सत्ता के सहयोग का आगे नहीं बढता है, इस कसौटी पर अडानी-अंबानी जैसे उद्योगपतियों और कारपोरेट घरानों को कांग्रेस की तत्कालीन कांग्रेस की केन्द्रीय और राज्य सरकारों से सहयोग कैसे नहीं मिला होगा।
                             रिलायंस ग्रुप के संस्थापक धीरू भाई अंबानी थे। धीरू भाई अंबानी के इन्दिरा गांधी के अच्छे संबंध थे। इन्दिरा गांधी के कार्यकाल में ही धीरू भाई अंबानी की किस्मत चमकी थी, धीरू भाई अंबानी देश के अग्रणी टाटा-विडला जैसे उद्योगपतियों की श्रेणी में खड़ा हुआ था। दिल्ली की राजनीति में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी और धीरू भाई अंबानी के कई आर्थिक किस्से अभी भी कुख्यात रूप से चर्चा के केन्द्र में रहते हैं। इन्दिरा गांधी की सत्ता कार्यकाल में खास कर कम्युनिस्ट पार्टिया हल्ला करती थी कि देश में टाटा-बिडला की सरकार चल रही है। उस काल मेें टाटा-बिड़ला की तूती बोलती थी, देश के सिरमौर औद्योगिक घराने टाटा और बिडला ही थी। मूलायम सिंह यादव का अंबानी प्रेम कौन नहीं जानता है। मुलयाम सिंह यादव ने अनिल अंबानी को राज्य सभा में भेजा था और कहा था कि अनिल अंबानी यूपी का विकास करेंगे। गरीबों की बात करने वाले लालू प्रसाद यादव भी किंग महेन्द्रा जैसे उद्योगपतियों के मददगार रहे हैं। बसपा की राजनीति में कभी संजय डालमियां और अखिलेश दास जैसे उद्योगपति नामित रहे हैं। कम्युनिस्ट पार्टियां भी इससे अलग नहीं रही हैं। पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टियों ने यूनियनबाजी में पश्चिम बंगाल का कबाडा किया और फिर टाटा प्रेम में पागल हो गयी थी। सिंदुर प्रकरण में कम्युनिस्ट पार्टियों की सरकार गयी थी। ममता बनर्जी भी बार-बार निवेशक सम्मेलन कर औद्योगिर घरानों की बांट जोहती रही। इतिहास और तथ्य राजनीतिज्ञों का औद्योगिक घराना प्रेम बहुत ही लम्बा-चैडा है।
                          निजी क्षेत्र का विकल्प क्या है? यह प्रश्न अब तक अधूरा है। सरकारी क्षेत्र से विकास और उन्नति की बात अब बईमानी हो गयी है। सरकारी क्षेत्र में सक्रियता और समर्पण की कमजोरी है। सरकारी क्षेत्र प्रशिक्षित ढंग से काम नहीं करता है। सरकारी क्षेत्र में एक बार नौकरी पाने के बाद 60 साल की उम्र तक वह शंहशाह बन जाता है, उसे नौकरी जाने का डर नहीं होता है, नौकरी गयी भी तो महंगे वकील और अन्य हथकंडों से न्याय लूट लेता है। सरकारी क्षेत्र की कंपनियां दिन प्रतिदिन अवसान की ओर लुढक रही है उनकी शेयर बाजार कीमत मिट्टी में मिल रही हैं। इसलिए निजी क्षेत्र का डंका बज रहा है।
                                काला घन सोधन भी बडा प्रश्न है। राजनीतिक पार्टियों और राजनीतिज्ञों के काला धन का संरक्षण अडानी और अंबानी जैसे ही उद्योगपति घराने ही करते हैं। राजनीतिक पार्टियां और राजनीतिज्ञ चुनावों में अपने कालेधन का ही इस्तेमाल करते हैं।यही कारण है कि सभी पार्टियों और नेताओं के अपने-अपने अडानी-अंबानी जैसे उद्योगपति हैं। इसलिए अडानी-अंबानी के प्रेम सभी पार्टियां, सभी नेता पागल हैं। यही कारण है कि मोदी के खिलाफ राहुल गांधी और पूरे विपक्ष का अडानी-अंबानी जूमले पर जनता कोई खास रूचि नहीं दिखाती है।




संपर्क .....
विष्णुगुप्त
मोबाइल नंबर ...    9315206123


-

Monday, February 15, 2021

‘ सीएए ‘ बनेगा चुनावी हथियार ?

  राष्ट्र-चिंतन

‘ सीएए ‘ बनेगा चुनावी हथियार ?

       विष्णुगुप्त



नागरिकता संशोधन अधिनियम यानी सीएए फिर से राजनीति के केन्द्र मे आ गयी है और राजनीति को उथल-पुथल कर रही है। पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में एक मजबूत हथकंडा नागरिक संशोधन अधिनियम भी बनने जा रही है। केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने घोषणा की है कि कोरोना के खिलाफ टिकाकरण पूरा होते ही सीएए को लागू कर दिया जायेगा, वंचितों को नागरिकता देने का कार्य पूरा होगा।
                     केन्द्र की सत्ता पर राज करने वाली भाजपा पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में सीएए को लेकर उथल-पुथल मचाने और मतदाताओं को आकर्षित करने की राजनीतिक योजना पर न केवल कार्य कर रही है बल्कि सीएए को अपनी चुनावी राजनीति का प्रमुख हथियार भी बना रही है। भाजपा को यह उम्मीद है कि पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में नागरिकता संशोधन अधिनियम का उसका यह चुनावी हथियार मतदाताओं के सिर पर चढ कर बोलेगा और मतदाताओं को आकर्षित कर उसकी सत्ता किस्मत को चमकायेगी।
                        प्रतिकिया में विपक्ष भी सकिय है। विपक्षी भी सीएए को लेकर विरोध की आग को भड़काने में कहां पीछे रहने वाला है। खासकर कांग्रेस सीएए के विरोध में अपनी चुनावी गतिविधियां भी शुरू कर दी है। असम में राहुल गांधी ने सीएए विरोधी गमछा ओढ कर यह दर्शा दिया है कि भाजपा अगर समर्थन में मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने का खेल-खेल रही है तो फिर कांग्रेस भी इसके काट के लिए पीछे नहीं रहेगी और कांग्रेस भी सीएए के विरोध में मतदाताओं को आकर्षित कर अपनी चुनावी राजनीति को चमकाने की कोशिश करेगी। जबकि पश्चिम बंगाल और केरल में कम्युनिस्ट पार्टियां यह पहले ही जाहिर कर चुकी हैं कि किसी भी राजनीतिक परिस्थति में सीएए को लागू नहीं होने देगी। केरल के कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने साफ कहा है कि भाजपा को सीएए का लाभ नहीं लेने दिया जायेगा, सीएए के खिलाफ मे भाजपा की पूरी घेराबंदी होगी, विजयन का यह भी कहना है कि धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियों के सामने भाजपा का यह सीएए का दांव बेमौत मरेगा। उपर्युक्त चुनावी राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए यह मानना ही होगा कि सीएए अब चुनावी शक्ति हासिल करने का हथियार बन गया है।
                                  सीएए को भाजपा क्यों चुनावी राजनीतिक हथियार बना रही है? इसमें भाजपा को कौन सी मजबूरी है? क्या भाजपा के सामने अन्य सभी चुनावी हथियार चूक गये हैं? निश्चित तौर पर भाजपा के सामने यह एक मजबूरी भी है। भाजपा के पास जो स्थायी चुनावी हथियार होते थे वे सभी चुनावी हथियार अब असरदार नहीं रहे, सामयिक नहीं रहे, कारगर नहीं रहे, इन हथियारों का एक्सपायरी देट समाप्त हो चुके हैं। जैसे कश्मीर और धारा 370 तथा रामजन्म भूमि मंदिर निर्माण का चुनावी हथियार। भाजपा ने अपनी कश्मीर समस्या का समाधान कर चुकी है और अपने चुनावी वायदे धारा 370 को भी समाप्त कर पूरा कर चुकी है। रामजन्म भूमि मंदिर निर्माण का राजनीतिक एजेंडा पूरा हो चुका है, रामजन्म भूमि मंदिर निर्माण की सभी न्यायिक प्रक्रियाएं पूरी हो गयी हैं और कुछ सालों में ही अयोध्या में भव्य रामजन्म भूमि मंदिर का निर्माण होना निश्चित है। इसलिए इन प्रश्नों और हथियारों की एक्सपायरी देट समाप्त हो चुके हैं। भाजपा अपने इन पुराने चुनावी हथियारों को लेकर अपनी चुनावी किस्मत नहीं चमका सकती है, मतदाताओं को लुभाने का कार्य नहीं कर सकती है।  भाजपा को नये राजनीतिक हथियार की जरूरत थी, नये हथियार से ही वह अपनी विरोधी राजनीतिक पार्टियों का शिकार कर सकती है। नये राजनीतिक हथियारों की खोज सीएए तक पहुंच कर ही समाप्त होती है। सीएए से बड़ा राजनीतिक चुनावी हथियार भाजपा के पास और कोई हो ही नहीं सकता है। यह एक ऐसा राजनीतिक हथियार है जिसकी चर्चा मात्र से ही समर्थन और विरोध की राजनीतिक गोलबंदी शुरू हो जाती है, सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि राजनीतिक सवर्ग को उथल-पुथल मचा देने की शक्ति रखता है।
                          सीएए को लेकर भारतीय राजनीति अभिशप्त रही है। भारतीय राजनीति में सीएए ने किस प्रकार से उथल-पुथल मचाया, किस प्रकार से विश्वास और घृणा दोनों प्रकार की राजनीतिक संवेदनाएं उत्पन्न की है,यह भी जगजाहिर है। जब पाकिस्तानी हिन्दू शरणार्थी अपने बच्चों के जन्म पर उनका नामंांकरण ‘नागरिक ‘ के तौर पर करता है, यानी अपने बच्चे का नाम नागरिक रखता है तब यह जाहिर होता है कि सीएए को लेकर विश्वास भी है, समर्थन भी है, आशा भी है और संवेदनाएं भी हैं। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि सीएए को लेकर समर्थन, संवेदनाएं और विश्वास क्यों हैं? समर्थन, संवेदनाएं और विश्वास इसलिए है कि 1947 के बाद ऐसे कई समूह और वर्ग हैं जो मजहबी आधार पर पीड़ित होकर, उत्पीड़ित होकर अपने जीवन को बचाने के लिए भारत में शरणार्थी बनना स्वीकार किया था और भारत सरकार ने जिन्हें शरणार्थी के रूप में स्वीकार किया था को आज तक भारत की नागरिकता नहीं मिली। ऐसे संवर्ग के जिन समूहों के नाम सबसे आगे हैं उनमें कश्मीर में पाकिस्तान से पीड़ित होकर आने वाले शरणार्थी, असम में बांग्लादेश से आये शरणार्थी और पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश से आये शरणार्थी शामिल हैं और अरूणाचल प्रदेश, मणिपुर आदि प्रदेशों में चकमा आदिवासी समूह हैं। इसके अलावा इधर पाकिस्तान से मजहबी आधार पर पीडित होकर आये हिन्दू समूह भी हैं। इन सभी समूहों को सीएए के माध्यम से नागरिकता मिलने की उम्मीद है।
                       सीएए का विरोध घृणा, हिंसा और प्रतिहिंसा में तब्दील हुआ है। विरोध में खडी शाहिन बाग की धारा भी उल्लेखनीय है। शाहीन बाग की विरोध धारा ने देश के अंदर में कैसी राजनीतिक संकट उत्पन्न की थी, यह भी जगजाहिर है। महीनों तक शाहीन बाग की विरोध धारा जलती रही। देश-विदेश तक शाहीन बाग विरोध की धारा की आग पहुंचती रही। धीरे-धीरे शाहीन बाग विरोध धारा की आग पूरे देश में फैल गयी। जगह-जगह पर शाहीन बाग बन गये। देश की राजधानी दिल्ली तो दंगों की भेंट भी चढ गयी। जैसे ही शाहीन बाग की विरोध धारा दिल्ली के अन्य जगहों पर फैली वैसी इसके विरोध की राजनीतिक प्रकियाएं भी तेज हुई। फलस्वरूप राजनीतिक टकराहट का जन्म हुआ। राजनीतिक टकराहट कभी-कभी हिंसक रूप धारण कर लेता है। दिल्ली में सीएए का विरोध और समर्थन का खेल राजनीतिक हिंसा में बदल गया। दिल्ली में भयानक दंगे हुए। इन दंगों में हिन्दुओं को बडा नुकसान पहुंचाया गया। दंगों में मारे जाने वाले सबसे ज्यादा हिन्दू थे। नरेन्द्र मोदी की सरकार पर यह प्रश्न खड़ा हुआ था कि दिल्ली दंगों में हिन्दुओं की जानमाल की सुरक्षा क्यों नहीं कर पायी? दिल्ली दंगों के कारण शाहिन बाग की विरोध धारा कमजोर हुई, शक्तिहीन हुई। कोरोना शुरू होने के साथ ही साथ शाहीन बाग की विरोध धारा को भी समाप्त होना पड़ा।
                  सीएए का प्रश्न हिन्दू-मुस्लिम में विभाजन रेखा बनाता है। समर्थन में हिन्दू हैं और विरोध में मुसलमान हैं, ऐसा राजनीतिक संदेश दिया गया है और यह राजनीतिक संदेश गहरी पैठ बना चुका है। ऐसा संदेश भाजपा के लिए प्राण वायु होता है। ऐसी ही विभाजन रेखा भाजपा चाहती है। ऐसी ही विभाजन रेखा भाजपा की किस्मत चमकाती है। कश्मीर, धारा 370 और रामजन्म भूमि मंदिर के प्रश्न पर भी भाजपा ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच खाई उत्पन्न की थी, विभाजन रेखा बनायी थी और इसी विभाजन रेखा के माध्यम से भाजपा केन्द्रीय सत्ता तक भी पहुंची। सीएए के विरोध में अतिरंजित राजनीतिक प्रक्रियाएं जो अपनायी गयी उससे हिन्दू मतों में उफान पैदा हुआ है, कट्टर हिन्दुओं के बीच में अपनी अस्मिता लेकर चिंता पसरी है। कई जिहादी मुस्लिम संगठनों की सक्रियता भी जगजाहिर हुई। विदेशों से मिली सहायता भी एक चिंताजनक विषय वस्तु है। इसलिए भाजपा के पक्ष में सीएए का प्रश्न रहा है।
                            यक्ष प्रश्न यह है कि सीएए का हथियार भाजपा को कितना लाभ देगा? जिन पांच राज्यों में विधान सभा का चुनाव हैं उनमें सिर्फ असम में भी भाजपा सत्तासीन है जबकि पांडेचरी, पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु में भाजपा विपक्ष में है। तमिलनाडु में भाजपा सहयोगी  के रूप में चुनाव लडेगी। तमिलनाडु मे अनाद्रमुक भाजपा की बडी सहयोगी होगी। इसलिए तमिलनाडु में सीएए को लेकर भाजपा बहुत ज्यादा गंभीर नहीं होगी। पर दो राज्य ऐसे हैं जहां पर भाजपा सीएए के प्रश्न पर ही सत्ता हासिल करेगी। असम में भाजपा सीएए को लेकर विपक्ष का शिकार करेगी, सीएए को लेकर असम में तेज आंदोलन हुआ है। भाजपा को उम्मीद है कि सीएए को चुनावी हथियार बनाने से असम में उसकी सरकार फिर से बनेगी। सबसे बड़ा दांव तो भाजपा पश्चिम बंगाल में खेली है। केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने पश्चिम बंगाल में साफ तौर पर घोषणा की है कि सीएए हर परिस्थिति में लागू होगा, कोई शक्ति सीएए को लागू करने से नहीं रोक सकती है। कोरोना के खिलाफ टिकाकरण पूरा होते ही सीएए को लागू कर दिया जायेगा। पश्चिम बंगाल में सीएए के प्रश्न पर ममता बनर्जी हलकान है, उसकी सत्ता पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। खास कर मतुआ समूह को लेकर ममता बनर्जी की चिंता बढी है। मतुआ समूह सीएए से आश लगाये बैठा हुआ है और उस समूह को भारत की नागरिकता मिलने की उम्मीद बनी है। जानना यह भी जरूरी है कि जिस प्रकार से बिहार और उत्तर प्रदेश में यादव अपनी संख्या बल पर सत्ता बनाने और गिराने का खेल खेलते हैं उसी प्रकार की राजनीतिक शक्ति पश्चिम बंगाल के अंदर में मतुआ जाति रखती है। मतुआ जाति दलित जाति है। पश्चिम बंगाल में मतुआ जाति की संख्या 17 प्रतिशत बतायी जाती है। पिछले लोकसभा चुनावों में पश्चिम बंगाल के अंदर में भाजपा की जीत और उपलब्धि के केन्द्र में मतुआ जाति का समर्थन ही माना जा रहा था। मतुआ जाति अभी भी भाजपा के पक्ष में खडी है। मतुआ जाति के लाखों की सभा को अमित शाह ने संबोधित कर उन्हें नागरिकता प्रदान करने का आश्वासन दिया है। केरल में भी सीएए के प्रश्न पर भाजपा हिन्दू मतों की गोलबंदी सुनिश्चित करेगी। हिन्दू मतों की गोलबंदी से नुकसान तो सीएए विरोधी कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों को ही होगा।


संपर्क .....
विष्णुगुप्त
मोबाइल नंबर ...    9315206123

Monday, February 1, 2021

बजट में किसानों की खुशहाली का सपना ?

 


 

         राष्ट्र-चिंतन

       ऐसे में कैसे होगी किसानों की आय दोगुनी ?

बजट में किसानों की खुशहाली का सपना ?

        विष्णुगुप्त




इस बार का केन्द्रीय बजट छह स्तंभों पर आधारित है। पहला स्तंभ है स्वास्थ्य और कल्याण, दूसरा भौतिक-वित्तीय पूंजी, तीसरा समावैशी विकास, चैथा मानव पूंजी का संचार करना , पाचवां नवाचार व अनुंसंधान और छठा न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन। किसानों की खुशहाली की व्यवस्था को केन्द्रीय सरकार अपनी बजट की विशेषताएं बता रही है। केन्द्रीय बजट में किसानों की खुशहाली और उनकी हितसाधक नीतियां कहीं से भी अअपेक्षित नहीं कही जा सकती थी, यह तो अपेक्षित ही है। केन्द्रीय सरकार किसानों के बीच अपनी विश्वसनीयता और साख को बनाये रखने के लिए एक संदेश देना चाहती थी, क्योंकि पिछले दिनों के घटनाक्रम से केन्द्रीय सरकार की नीतियां किसानों के बीच अविश्वसनीयता उत्पन्न कर रही थी, केन्द्रीय सरकार की साख को घून की तरह चाट रही थी, हालांकि इसके आयाम भी नकरात्मक थे। वर्तमान केन्दी्रय सरकार की यह कोशिश जरूर रही है कि हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ अन्नदाता किसानों की आमदनी बढें और लागत से उपर मूल्य मिले। इस कोशिश में केन्द्रीय सरकार ने कई नीतियां लायी और किसानों के बीच साख उत्पन्न करने के लिए कई योजनाओं का श्रीगणेश किया है। किसानों के खातों में प्रतिवर्ष छह हजार रूपये देने और खाद पर सब्सिडी जारी रखने के साथ ही साथ किसानों के विभिन्न उत्पादन पर समर्थन मूल्य घोषित करना और समर्थन मूल्य पर किसानों के उत्पादन का क्रय करना भी शामिल है। यह कहना गलत नहीं होगा कि समर्थन मूल्य पर सरकार द्वारा क्रय के कारण किसानों का बहुत बड़ी राहत मिली है। फिर भी किसानो की मांगें और उनकी इच्छाएं अभी तक पूरी नहीं हुई हैं। खासकर छोटे किसान जो सरकारी झंझटों से पार नहीं पाते हैं, नौकरशाही की जाल और उनकी रिश्वतखोरी की आदतों को संतुष्ट नहीं कर पाते हैं को अभी भी केन्द्रीय सरकार की नीतियों और योजनाएं एक छलावा से कम नहीं हैं। केन्द्रीय सरकार ही क्यों बल्कि राज्य सरकारों जब तक सरकारी झंझटों और नोकरशाही की रिश्वतखोरी की जाल को समाप्त नहीं कर पाती हैं तब तक उनकी कोई भी नीति और कोई भी योजनाएं लघुतम किसानों के लिए कोई अर्थ नहीं रखती हैं। इसलिए बजट में किसानों की बातें करने से या फिर किसानों के लिए खुशहाली और हितसाधक घोषणाएं करने या फिर व्यवस्थाएं करने का कोई खास अर्थ नहीं रखते हैं। कृषि टेक्नोलाॅजी को सस्ता करने की घोषनाएं नहीं होने से किसानों की समस्याएं कम नहीं होगी।
                                                   अब हमें गौर करना चाहिए कि वर्तमान केन्द्रीय सरकार ने बजट में ऐसी कौन सी घोषणाएं की है, बजट में ऐसी कौन सी व्यवस्थाएं की है जिसे हम किसान के हित साधक मानने के लिए बाध्य हुए हैं और इस घोषनाओं और व्यवस्थाओं के माध्यम से केन्द्रीय सरकार अपनी विश्वसनीयता और साख किसानों के बीच बढाना चाहती हैं? क्या सही में केन्द्रीय सरकार की यह घोषणा और व्यवस्था से किसानों की आर्थिक स्थिति सुधरेगी, किसानों की आय में वृद्धि होगी? किसानों की कृषि जरूरतों को पूरा करेंगी? जो किसान लागत मूल्य भी नहीं मिलने के बाद किसानी छोडने के लिए बाध्य हुए हैं या फिर किसानी छोडने के लिए अग्रसर हो रहे हैं वैसे किसानों को किसानी या कृषि कार्य के लिए प्रेरित करेगी? किसान क्या सही में महाजनी कर्ज से मुक्त होंगे? सरकारी बैंकों की नीतियां और व्यवहार किसानों के हित में होंगी? सरकारी बैंक क्या छोटे किसानों को कर्ज देने के लिए अपनी पूर्वाग्रह छोडने के लिए प्ररेति होंगे? क्या सरकारी बैंक कर्ज देने के लिए छोटे किसानों के द्वार तक दस्तक देंगे? जानना यह भी जरूरी है कि केन्द्रीय सरकार खुद किसानों को कर्ज उपलब्ध नहीं कराती है, केन्द्रीय और राज्य सरकारों की इसमें कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती है, केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकारों की अप्रत्यक्ष भूमिका ही होती है। केन्द्रीय सरकार बैकों के माध्यम से ही किसानों को कर्ज उपलब्ध कराती हैं। छोटे किसानों के बीच सरकारी बैंकों की भूमिका कैसी है, यह कौन नहीं जानता है। किसानों के बीच सरकारी बैंकों की भूमिका साक्षात यमराज के तौर पर होती है छोटे किसानों का शोषण करने, उन्हे उपेक्षित रखने में सरकारी बैंक कोई कसर नहीं छोड़ते हैं।
                                                 केन्दी्रय बजट में किसानों के लिए कई विशेषताएं हैं, उनमें एक सबसे बडी विशेषता है जिसकी पड़ताल करने की जरूरत होगी, जिस पर देश के अंदर चर्चा जरूरी है, गंभीरता के साथ मूल्यांकन करने की जरूरत है। केन्द्रीय बजट में किसानों के लिए 16: 5 लाख करोड़ कृषि लोन की व्यवस्था की गयी है। केन्द्रीय बजट प्रस्तुत करते हुए वित मंत्री निर्मला सीतारमन ने कहा कि केन्द्रीय बजट में किसानों के लिए 16: 5 लाख करोड़ कृषि लोन की व्यवस्था कर सरकार ने एक महत्ती कार्य किया है, किसानों की इच्छाओं का पंख लगाया है, इस व्यवस्था से किसानों की जिंदगी में खुशहाली आयेगी, किसानों की आर्थिक आय बढेगी और किसानों का कृषि कार्य से पलायन रूकेगा, इसके साथ ही साथ किसानों को महाजनी लूट से रक्षा करेगी। ऐसे देखा जाये तो वित मंत्री निर्मला सीतारमन की बातें कोई अलग या फिर अहम की श्रेणी मे नहीं रखी जा सकती है, आखिर क्यों? यह तो एक सरकारी परमपरा है, सरकारी खानापूर्ति है। केन्द्रीय बजट की योजनाओं, नीतियों या फिर व्यवस्थाओं की ही बात नहीं है बल्कि राज्य सरकारों की कोई भी योजना, कोई भी नीतियां और कोई भी व्यवस्थाएं सामने आती हैं या फिर इस तरह की घोषणाएं होती है तो फिर सरकार द्वारा इसके पक्ष में गुणगान करने का विचार प्रवाह जन्म लेता ही है, सरकार प्रशंसा में लम्बी-चैडी बात ही करती है, सफलता की लम्बी-चैडी रेखा दिखाने की कोशिश होती है। यह अलग बात है कि पूर्व में इसके हस्र भी कैसा हुआ है, यह भी हमें मालूम है। आज तक न तो देश में गरीबी हटी और न ही बैरोजगारी हटी जबकि पूर्व की केन्द्रीय सरकारों ने गरीबी हटाओ, बैरोजगारी हटाओं के नाम पर दर्जनों योजनाओं, नीतियों और व्यवस्थाओं को जन्म दिया था, इन योजनाओं, घोषनाओं और व्यवस्थाओं के पक्ष में भी लंबी-चैडी बातें हुई थी, बड़े-बडे सपने दिखाये गये थे।
                                                     कृषि लोन के कुछ नये आयाम तय किये गये हैं, कुछ नयी प्राथमिकताएं तय की गयी है, कुछ परमपराएं तोडी गयी है। अब तक की परमपराएं थी कि सिर्फ अन्न उत्पादन को ही कृषि कार्य माना जाता था। वह भी अन्न में दाल, चावल , गेंहू आदि। बागवानी या फिर सब्जी उत्पादन पहले कृषि कार्य नहीं माना जाता था। फिर बागवानी और सब्जी उत्पादन को कृषि कार्य माना गया। यह कहने में हर्ज नहीं है कि बागवानी और सब्जी उत्पादन के क्षेत्र में विकास होने और किसानों की रूचि बढने से एक तरह से क्रांति हुई और किसानों को इसका लाभ भी मिला, किसानों की आय बढी, किसानों के सामने अतिरिक्त विकल्प भी मिला। अतिरिक्त विकल्प का अर्थ यह था कि चावल, दाल, गन्ना और गेहूं का उत्पादन जो महंगा था और कम लाभकारी था उसकी जगह बागवानी और सब्जी का उत्पादन लाभकारी साबित हुआ। अब कृषि कार्य में दो नये आयाम तय किये गये हैं, प्राथमिकताओं में रखे गये हैं। ये दो नये आयाम और प्राथमिकताएं मछली उत्पादन और दूघ उत्पादन को लेकर है। वर्तमान केन्द्रीय सरकार की अपनी मान्यताएं हैं कि देश में मछली उत्पादन बढा कर और दूध उत्पादन बढा कर नयी क्रांति लायी जा सकती है, हरित क्रांति जो अब मृत प्राय है, उसमें जान फूंकी जा सकती है।यह सही है कि देश के अंदर में मछली उत्पादन और दूध उत्पादन में बढोतरी हुई है, किसानों को नये विकल्प भी मिले हैं। दूध उत्पादन और मछली उत्पादन में छोटे किसान भी आसानी के साथ सक्रियता दिखाने में सक्षम है, इसमें लागत भी कम है। खासकर दूध उत्पादन के लाभ असीमित है। सिर्फ दूध ही क्यों बल्कि गाय का गोबर और गाय के मूत्र का कारोबार बढा है, गाय के मूत्र से दवाइयां बन रही हैं, गाय के गोबर से दीवाल पेंट बनाया जा रहा है, गाय के गोबर से मोमबतियां बनायी जा रही है। इसके अलावा गाय के गोबर से प्राकृतिक खेती होती है, इसलिए गाय के गोबर का मूल्य भी बढा है। सबसे बडी बात मछली उत्पादन को लेकर है। गांव में छोटे-छोटे किसान भी छोटे-छोटे तलाबों में भी मछली उत्पादन आसानी से कर सकते हैं। केन्द्रीय वित मंत्री का कहना है कि केन्द्रीय बजट में 16: 5 लाख करोड का जो कृषि कर्ज घोषित किया गया है उसमें से अधिकतर हिस्सा मछली और दुग्ध उत्पादन करने वालों को मिलेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि मछली और दुग्ध उत्पादक किसानों को कर्ज उपलव्ध कराने की प्राथमिकता होगी।
                                             हमें सिर्फ बजट में भारी-भरकम राशि रखने से चमत्कृत होने की आवश्यकता नहीं है। हम तब चमत्कृत होंगे जब बजट की घोषणाओं को जमीन पर सही ढंग से लागू करने की वीरता टिखायी जायेगी। देखा यह जाता है कि बडे किसान तो सरकारी बैंकों से अपनी पहुंच के बल पर कर्ज ले लेते हैं पर रघुतम किसान सरकारी बैंकों के तिरस्कार का शिकार हो जाते हैं। अतः लघु किसान महाजनी लूट का शिकार हो जाते हैं। हमें तो छोटे किसानों के हित संरक्षण की चिंता है। क्या केन्द्रीय सरकार छोटे किसानों को भी आसान कर्ज उपलब्ध कराकर उनकी आमदनी बढाने की वीरता दिखा पायेगी?




संपर्क .....
विष्णुगुप्त
मोबाइल नंबर ...    9315206123