धनखड़ की वीरता, निडरता और सक्रियता आईकाॅन बनने चाहिए
आचार्य श्रीहरि
जगदीप धनखड़ का इस्तीफा एक पहले बन गयी है। मिजाज से हटकर उनका इस्तीफा। मीडिया भी इस्तीफे की पहेली को भेदने में नाकामी हासिल की है, राजनीति भी इसके बंद पर्दे को खोलने में नाकाम रही है। मीडिया और राजनीति के लिए यह प्रसंग भी अटकलबाजियों जैसा रहा। जबकि सच्चाई यह है कि मीडिया और राजनीति ग्यारह सालों में नरेन्द्र मोदी के किसी भी नीति और कदम का राज न जान सकी और न ही उनके कदम का कोई चाकचैबंद अनुमान लगा सकी इस्तीफा देकर भागना उनका स्वभाव नहीं था। अचानक घटी अदृश्य घटनाएं इस्तीफा का कारण बनी हैं। लेकिन जितना आश्चर्यचकित करना वाला धनखड़ का इस्तीफा है उससे भी बढकर कांगेस और अन्य विपक्षी दलों का उमड़ा धनखड़ प्रेम है। धनखड को हटाने के लिए महाभियोग लाने वाली कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने धनखड के प्रति सहानुभूति जतायी है, उनके इस्तीफे के कारणों को लेकर आशंकाए भी जतायी है, पर्दे के पीछे घटी घटनाओं को जाहिर करने की मांग की है।
जगदीप धनखड के इस्तीफे के दो पक्ष हैं जिनके पास रहस्य-पहली का राज है। पहला पक्ष खुद धनखड हैं जिनके पास वह सच्चाई है जिसके कारण उन्होंने इस्तीफा दिया या फिर इस्तीफा लिया गया। जबकि दूसरा पक्ष नरेन्द्र मोदी की सरकार है, नरेन्द्र मोदी का थींक टैंक ही जानती है कि धनखड से इस्तीफा क्यों लिया गया। हमारे जैसे स्वतत्र विचारकों का ख्याल और निष्कर्ष है कि यह स्वतंत्र और निष्पक्ष प्रक्रिया-कदम किसी भी परिस्थिति में नहीं है, स्वाभाविक तो माना ही नहीं जा सकता है। पर्दे के पीछे का कारण बहुत ही कठिन है, आश्चर्यचकित करने वाले कभी नहीं हैं, क्योकि नरेन्द्र मोदी ने अपने ग्यारह साल की सरकार की अवधि में किसी मंत्री को भी इस तरह से इस्तीफा देने के लिए नहीं कहा और न ही इस्तीफा देने के लिए बाध्य किया। मंत्रिमंडल विस्तार और कहीं अन्य जगहों पर उपयोग को ध्यान में ही रखकर किसी मंत्री से जगह खाली करायी गयी। धनखड़ का यह प्रकरण भविष्य मे अपना कमाल दिखा भी सकता है और राजनीति को प्रभावित भी कर सकता है।
धनखड़ की पहचान क्या थी? धनखड की उपलब्धियां क्या थी? धनखड़ को भविष्य में किस रूप में देखा जाना जा सकता है या फिर याद किया जा सकता है? नरेन्द्र मोदी के लिए धनखड कितना लाभ और कितना घाटे का दांव रहा है? इन सभी प्रश्नों का उत्तर तलाशना मुश्किल नहीं है। धनखड को जिन जिम्मेदारियों के लिए कहा गया या सौंपी गयी उन जिम्मेदारियों का निर्वाहन में उन्होंने हीलाहवाली नहीं की थी, अकर्मण्यता नहीं दिखायी थी, अयाोग्यता नहीं दिखायी थी। रणछोड़ दास नहीं बने थे। निडरता दिखायी थी, वीरता दिखायी थी, आमने-सामने की लड़ाई लडी थी, संविधान और परमपरा को अपना हथ्यिार बनाया था और अपने इसी हथियार से अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों का निर्वाह्ण भी किया था। याद कीजिये उनकी राज्यपाल की जिम्मेदारी को, राज्यपाल की भूमिका को। राज्यपाल के रूप में उनकी जिम्मेदारी और भूमिका कोई असक्रिय नहीं थी, कोई ओझल नहीं थी, कोई रबर स्टाम्प वाली नहीं थी। वे एक सक्रिय और परिणामदायी भूमिका निभायी थी। राज्यपाल को ऐसे रबर स्टाम्प कहा जाता है, एक ऐसा मजबूर पद जो सिर्फ हस्ताक्षर कर सकता है, प्रस्तावित नियम-कानूनों पर वह निर्णायक कैंची नहीं चला सकता है। सबसे बडी बात पश्चिम बंगाल की राजनीतिक परिस्थितियों को लेकर है। ममता बनर्जी की अराजक और निरंकुश भूमिका कौन नहीं जानता है। नियम कानूनों को तोड़ना और संवैधानिक जिम्मेदारियों पर उदासीनता बरतना उसकी शख्सियत भी शामिल है। पश्चिम बंगाल में कई घोटोले हुए, घोटाले कुख्यात थे और लोमहर्षक भी थे, उसमें ममता बनर्जी के मंत्रिमंडल मे शामिल लोगों की भूमिका थी। अन्य घोटालों में ममता बनर्जी तक नाम आया। सीबीआई की टीम पर टीएमसी के लोगों ने हमले पर हमले किये। ममता बनर्जी सीबीआई के खिलाफ खुद धरने पर बैठ गयी थी। ममता बनर्जी के शासन काल में बांग्लादेशी घुसपैठियों की पौबारह थी, संरक्षण प्राप्त था। टीएमसी के गंुडे हिन्दुओं का संहार पर संहार कर रहे थे। ऐसी विकट परिस्थितियों में प्रभावित लोगों के लिए धनखड एक आशा की किरण के तौर पर स्थापित हुए थे। पश्चिम बंगाल सरकार के विरोध और अड़चनों और धमकियों की भी परवाह नहीं की थी और अपना कर्तव्य का निर्वाह्न उन्होंने चाकचैबंद ढंग से की थी। यही कारण था कि ममता बनर्जी ने एक बार नहीं बल्कि बार-बार धनखड की आलोचना की थी और संवैधानिक लक्ष्मण रेखा पार की थी। फिर भी केन्द्रीय सरकार के संरक्षक के तौर पर उनकी भूमिका शानदार थी और आईकाॅन की तरह थी।
न्यायापलिका की स्वच्छंदता ही नहीं बल्कि तानाशाही चरम पर पहुंच गयी। न्यायपालिका एकाएक संविधान का तख्तापलट दिया और तानाशाही हो गयी। कह दिया कि मैं ही सर्वश्रेष्ठ हू, मेरे सामने विधायिका और कार्यपालिका का कोई भूमिका नहीं है, कोई हैसियत नहीं है, हमसे पूछे बिना किये गये विधायिका और कार्यपालिका के हर काम और नीति की हम समीक्षा करेगे। हम स्वयं ही नियुक्ति का अधिकार धारण करेंगे, इसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं होगी, सरकार हमारी सिफारिशों पर सिर्फ मुहर लगायेगी। न्यायपालिका के लोग नेता की तरह काम करने लगे, वे भाषण देने जैसे काम करने लगे। ये झूठ और आधारहीन फैसले देंगे पर भी सत्यवादी बनते रहे हैं और इन पर कोई अंकुश नहीं होगा। कोई आलोचना नहीं करेगा, आलोचना करने वाले जेल की हवा खायेंगे। इस डर से कौन बोलेगा? यही कारण है कि नेता और अन्य संस्कृति के लोग न्यायपालिका के खिलाफ बोलने से भागते हैं। लेकिन धनखड ने गजब की निडरता दिखायी और गजब की वीरता दिखायी। न्यायपालिका को आलोचना का वाजिब शिकार बनाया, उनकी तानाशाही को चुनौती दी, उनकी रिश्वतखोरी की मानसिकता को चुनौती दी और आईना भी दिखाया। संसद ही सर्वश्रेष्ठ है। जब संविधान को संसद ने स्वीकृति दी है तो फिर संविधान को बदलने का अधिकार भी संसद को है। धनखड तो यही बात कह रहे थे। यशवंत वर्मा के घर पर करोड़ों रूपये पकडे गये, पुलिस और सुप्रीम कोर्ट की जांच में भी यह सच साबित हुआ फिर भी यशवंत वर्मा के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं हुई, सुप्रीम कोर्ट ने अपने संरक्षण से यशवंत वर्मा का बचाव किया है। संसद में महाभियोग लाना था। महाभियोग की प्रक्रिया चल रही थी। महाभियोग को लेकर धनखड की सक्रियता कुछ ज्यादा ही थी। धनखड की सक्रियता को कुछ लोग अति मान रहे थे। लेकिन न्यायपालिका की तानाशाही और निरंकुशता के खिलाफ किसी न किसी को आगे आकर बोलने का साहस करना ही पडेगा।
मानवीय स्वभाव की समस्या और चुनौतियां कई अहर्ताओं को प्रभावित करती है। अति उत्साह का दांव उल्टा पड जाता है, कभी-कभी अति सक्रियता और उत्साह में कई लक्ष्मण रेखांए टूट जाती हैं, उदासीनता की शिकार हो जाती हैं, चुनौती और वर्चस्व स्थापित करने का खेल साबित हो जाती हैं। नरेन्द्र मोदी सरकार की न्यायिक चुनौतियां और धनखड की अति सक्रियता के बीच टकराव हुआ होगा। न्यायपालिका के सामने नरेन्द्र मोदी ने पहले ही हथियार डाल चुके हैं। न्यायधीशों की नियुक्ति और न्यायालय से जुडे प्रबंधन विधेयक को सुप्रीम कोर्ट ने मनमाने ढंग से खारिज कर दिया था। जबकि संसद के दोनो सदनों ने और कई राज्यों के विधान सभाओं नेे उक्त विधेयक को पास किया था। सुप्रीम कोर्ट सरकार की सभी नीतियों और कार्यक्रमों की समीक्षा करती है, मनमाने फैसले देती है। सुप्रीम कोर्ट से लडने की राजनीतिक शक्ति नरेन्द्र मोदी के पास नहीं है। गलत और संविधान विरोधी, कानून विरोधी फैसले देने के खिलाफ भी केन्द्रीय सरकार कोई कार्रवाई नही कर सकती है। ऐसी मजबूरी में नरेन्द्र मोदी न्यायपालिका से लडने की जगह समझौतावादी रूख और राजनीति के सहचर बन गये। लेकिन हम धनखड की वीरिता, निडरता को अस्वीकार नहीं कर सकते हैं। धनखड की वीरता और निडरता हमेशा याद रहेगी।
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