Thursday, December 16, 2010

राष्ट्र-चिंतन

  देश पर मौन का राज/ टकराव का नया दौर


मनमोहन-सोनिया गांधी की यह कैसी ईमानदारी?
                      

                          विष्णुगुप्त


                                           देश पर ‘मौन‘ का राज है। विपक्षी दलों की इस उक्ति से असहमति नहीं हो सकती है। विपक्ष की बार-बार मांगों के बाद भी भारतीय प्रधानमंत्री का मौन टूटता नहीं और न ही उनकी भ्रष्ट नौकरशाही,मंत्रिमंडल के सदस्यों के प्रति चुप्पी टूटती है। देश के संसदीय इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब पूरा का पूरा सत्र वह भी 21 दिनों तक ठप रहा और विधायी कार्य पूरी तरह से बाधित हुए। संसद का शीतकालीन सत्र का सत्रावासन हो चुका है। ऐसे में प्रधानमंत्री मनमोहन, सोनिया गांधी और कांग्रेस यह मानकर खुश होंगे कि ‘संसद कार्यवाही‘ की बला टली। यह सिर्फ और सिर्फ खुशफहमी हो सकती है। ऐसा सोचना ही कांग्रेस की सबसे बड़ी भूल होगी। कांग्रेस की साख मिट्टी में मिल रही है, मनमोहन सिह-सोनिया गांधी की कथित ईमानदारी की चमक सवाल उठ रहा है। इसकी जगह आक्रोश और अविश्वास पसर रहा है। विपक्ष की एकता को तोड़ने के लिए कांग्रेस सत्ता के चाणक्य सूत्र साम,दंड,भय आदि बेअसर साबित हुए हैं। लालू-मुलायम और मायावती जैसे दल बार-बार कांग्रेस की ब्लैंकमैलिंग और अविश्वास से आजिज आकर आर-पार के संघर्ष के लिए तैयार हैं। भाजपा गठबंधित दल भ्रष्टाचार को जन-जन तक ले जाने के लिए तैयार हैं और कम्युनिस्ट पार्टियां भी मनमोहन सिंह को कोई राहत देने के लिए तैयार नहीं है। ये परिस्थितियां क्या संदेश देती हैं? बजट सत्र में संसद में टकराव का नया अध्याय शुरू होगा जो संधर्ष संसद से बाहर और तीखा-कटूता से बजबजाता हुआ होगा। बजट सत्र में उदासीनता या मनमानी की कीमत विपक्ष नहीं बल्कि कांग्रेस को ही चुकानी होगी। कांग्रेस अधिनायक वाला रवैया लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता है।
                     भारतीय संसदीय इतिहास का यह काला अध्याय है। इतने लाचार/प्रशासनिक-राजननीतिक प्रबंधन की दृष्टि से कमजोर प्रधानमंत्री की कीमत देश चुका रहा है। मनमोहन सिंह के संबंध में कई धारणाएं हैं। एक धारणा तो यह है कि वे अव्वल दर्जे के अर्थशास़्त्री हैं और अर्थशास़्त्री के गुण के कारण ही वे भारतीय राजनीति में स्थापित हुए/चमके/ और प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। ये बातें सौ प्रतिशत सही है। दूसरी धारणा यह है कि जवाहर लाल नेहरू के बाद वे पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने लगातार आठ बार लाल किले के प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित किया है। तीसरी अवधारणा यह है कि वे खुद बेहद ईमानदार हैं। जहां तक पहली अवधारणा की बात है तो यह अवधारणा वैश्विक लूटरे और मानसिकता से निकली हुई बुराई है जिसमें यह प्रस्थापित करने की प्रक्रिया चली थी कि सत्ता का संचालन राजनीतिज्ञ के हाथों में नहीं बल्कि अर्थशास्त्री के हाथों में होना चाहिए क्योंकि अर्थव्यवस्था की समझ वह भी वैश्विक दौर में एक अच्छे अर्थशास्त्री को ही हो सकती है। मनमोहन सिह विश्व बैंक की चाकरी में थे। इसलिए उनकी अर्थशास्त्र की समझदारी भारतीय राजनीति में ऐसी स्थापित हुई कि बड़े से बड़े राजनीतिज्ञ बैठे रहे और ये प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गये। यह भी सत्य है कि आज भारतीय अर्थव्यवस्था चट्टान की तरह खड़ी है उसमें मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री के नेतृत्व के कारण नहीं बल्कि भारत के कृषि प्रधान व्यवस्था के कारण। भारतीय कृषि व्यवस्था का सहारा नहीं होता तो हमारी अर्थव्यवस्था कब का चरमरा जाती। औद्योगिक घराने और सत्ता की हेकड़ी गुम हो जाती।
                       प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बेहद ईमानदार है। देश में इस बात की चर्चा बहुत होती है। खासकर कांग्रेसी और मीडिया में बरखा दत्त/ वीर संघवी जैसे सत्ता-कारपोरेट लॉबिस्ट बु़द्धीजीवियों द्वारा मनमोहन सिंह की ईमानादारी की खूब ढिढोरा पिटा जाता है। ऐसी र्इ्रमानदारी की क्या जरूरत जिसके नीचे बेईमानों का राज और भ्रष्टचार के राजाओं की असली सत्ता स्थापित हो। जिनके अंदर में बेईमानों और भ्रष्ट लोगों पर कार्रवाई का साहस नहीं हो और जो शख्सियत भ्रष्ट-बईमान तंत्र पर नकेल डालने की जगह भ्रष्ट-बेईमान तंत्र के संरक्षण मे खड़ा हों। इतना ही नहीं बल्कि सर्वोच्च न्यायिक संस्थान से झाड़ खाने के बाद भी बचाव में कानून की दलीलें पेश करना। ए राजा को मंत्री बनाने के लिए दबाव था पर थॉमस को सीएजी का चीफ बनाने की कौन सी गठंबधन की मजबूरी थी। थॉमस किस गठबंधित पार्टी के उम्मीदवार थे? उस स्थिति में जब विपक्ष के नेता ने साफ तो पर थॉमस की नियुक्ति की मना कर दी हो। आधार कानून सम्मत था। इसलिए की थॉमस दागी अधिकारी थे। उन पर भ्रष्टाचार के आरोप थें। संहितानुसार भ्रष्टाचार के आरोपी अधिकारी की पदोन्नति नहीं हो सकती है। फिर मनमोहन सिंह ने भ्रष्टचार के आरोपी अधिकारी को सीएजी का चीफ कैसे बनाये। भ्रष्टाचार के अरोपी क्या भ्रष्टाचार की जांच निष्पक्षता से कर सकता है। थॉमस की इन परिस्थितियों में भी नियुक्ति करने की कौन सी मजबूरी थी। यह जानकारी हासिल करना भारतीय जनता का अधिकार कैसे नहीं हो सकता है। देश का सर्वोच्च न्यायिक पीठ ने थॉमस प्रकरण पर यही सवाल तो उठायी है।
                         गठबधन राजनीति की बहुत सारी मजबूरियां होती है। यह माना। पर देश में मनमोहन सिंह की सत्ता अकेली गठबंधित सत्ता नहीं थी। देश में गठबंधन सत्ता की राजनीति 1977 से शुरू होती है। इंदिरा गांधी की अधिनायकवाद की परिणति से गठबंधित राजनीति की शुरूआत हुई थी। मोरार जी देशाई चाहते तो उनकी सत्ता नहीं जाती। आदर्शो से समझौता करना मोरार जी देशाई को स्वीकार नहीं था। पीवी नरसिंहा राव अपने दम पर पांच साल तक गठंबधित सत्ता चलायी। अटल बिहारी वाजपेयी सात सालों तक गठबंधित सत्ता चलायी। अटल बिहारी वाजपेयी की सत्ता में राजा की पार्टी द्रुमक खुद भागीदार थी। पर क्या अटल बिहारी वाजपेयी की सत्ता मनमोहन सिंह की सत्ता जैसी असहाय सत्ता थी/कमजोर सत्ता थी/ भ्रष्ट-बेईमान बहुल सत्ता थी? कदापि नहीं। ऐसा इसलिए संभव हुआ था कि अटल सत्ता ने गठबंधन धर्म का न केवल खुद सुक्षमता के साथ पालन किया था बल्कि गठबंधित दलों को भी गठबंधन धर्म को पालन करने की सीख दी थी। अटल/राव और मोरार जी देशाई पूर्णरूप से राजनीतिज्ञ थे और ये आदर्शो-विचारों की राजनीतिक-सामाजिक प्रक्रिया से आगे बढ़े थे। इसलिए इन्हें सत्ता की बुराइयों का भी अहसास था। इसके विपरीत मनमोहन सिंह राजनीतिज्ञ नहीं नौकरशाह रहे हैं। राजनीतिक प्रबंधन इनके बस की बात नहीं है। इनकी सत्ता की असली कुंजी सोनिया गांधी हैं। सोनिया गांधी की कृपा के बोझ से मनमोहन सिंह दबे हुए हैं।
                           बोफोर्स की आंधी ने राजीव गांधी की सत्ता उड़ायी थी। मनमोहन सिंह/सोनिया गांधी को बोफोर्स का उदाहरण या फिर सबक क्यो नहीं मालूम है। सत्ता के चमचों ने राजीव गांधी को ऐसी सलाह दी कि वे बोफोर्स का गर्त जितना छुपाते रहे उतना ही वे बोफोर्स के दलदल में फंसते चले गये। इसी प्रकार से मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी भ्रष्टाचार के राजा को जितना बचाने का प्रयास कर रहे हैं उतना ही विपक्ष का आक्रोश बढ रहा है। सिर्फ विपक्ष का ही आक्रोश नहीं बढ रहा है बल्कि जनाक्रोश भी बढ़ रहा है। जनता के बीच यही संदेश जा रहा है कि आखिर मनमोहन-सोनिया गांधी भ्रष्टाचार के राजा को बचाने के लिए इतने आतुर क्यो ंहैं? विपक्ष का माखौल उड़ाकर कांग्रेस अपना बचाव करना चाहती है। यह रास्ता कांग्रेस का और खतरनाक है। इसलिए कि राजा के भ्रष्टाचार पर सीएजी ने मुहर लगा दी है। सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार राजा के भ्रष्टाचार पर उंगली उठायी है। ऐसे में कांग्रेस ही नंगी खड़ी है। पूरा का पूरा शीतकालीन सत्र भ्रष्टचार के राजा प्रसंग पर कुर्बान हो गयी। कांग्रेस थोड़े समय के लिए राहत का सांस ले रही होगी। बजट सत्र नजदीक है। ऐसे में यह राहत सिर्फ और सिर्फ खुशफहमी वाली हो सकती है। विपक्ष पूरी तैयारी के साथ खड़ा है। बजट सत्र मनमोहन सत्ता कैसी चलायेगी? विपक्ष एकजुट होकर बजट सत्र बाधित करने पर अडिग हैं। विपक्ष को तोड़ने की कांग्रेसी नीति पहली ही दम तोड़ चुकी है। राजग ने इस प्रसंग को जनता के बीच ले जाने की नीति बनायी है। बोफोर्स जैसी आंधी उठाने की नीति चल रही है। ऐसी स्थिति में देश की राजनीति में टकराव का नया दौर शुरू होने वाला है। यह देश और लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।

सम्पर्क......
विष्णुगुप्त
मोबाइल - 09968997060

2 comments:

  1. भारतीय अर्थव्यवस्था चट्टान की तरह खड़ी है उसमें मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री के नेतृत्व के कारण नहीं बल्कि भारत के कृषि प्रधान व्यवस्था के कारण। ऐसी र्इ्रमानदारी की क्या जरूरत जिसके नीचे बेईमानों का राज और भ्रष्टचार के राजाओं की असली सत्ता स्थापित हो। जिनके अंदर में बेईमानों और भ्रष्ट लोगों पर कार्रवाई का साहस नहीं हो और जो शख्सियत भ्रष्ट-बईमान तंत्र पर नकेल डालने की जगह भ्रष्ट-बेईमान तंत्र के संरक्षण मे खड़ा हों।मनमोहन सिंह राजनीतिज्ञ नहीं नौकरशाह रहे हैं। राजनीतिक प्रबंधन इनके बस की बात नहीं है। इनकी सत्ता की असली कुंजी सोनिया गांधी हैं। सोनिया गांधी की कृपा के बोझ से मनमोहन सिंह दबे हुए हैं। मनमोहन-सोनिया गांधी भ्रष्टाचार के राजा को बचाने के लिए इतने आतुर क्यो ंहैं? विपक्ष का माखौल उड़ाकर कांग्रेस अपना बचाव करना चाहती है। यह रास्ता कांग्रेस का और खतरनाक है।

    एक एक शब्द सही है..

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  2. इतना सब कुछ देख सुन कर भी यदि जनता और सरकारो पर कोई प्रभाव ना पड़ा तो समझो इस देश का बंटाधार होना निश्चित है।

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