Thursday, December 9, 2010

राष्ट्र-चिंतन


बहिष्कार का तानाशाही अर्थ

विष्णुगुप्त

दो अंतर्राष्ट्रीय घटनाएं/ दो लोकतंत्र-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सेनानी। यानी जूलियन अंसाजे और लिउ शियाबाओ। अपने वेबसाइट विकीलीक्स पर अमेरिका की पोल खोलने वाले अभिव्यक्ति की सेनानी जूलियन अंसाजे की कथित बलात्कार के आरोप मे ब्रिटेन मे गिरफ्तारी हुई जबकि चीनी कम्युनिस्ट तानाशाही के विरोध और लोकतांत्रिक व्यवस्था के समर्थन में संषर्षरत लिउ शियाबाओ को दिये जा रहे नोबल पुरस्कार समारोह पर तानाशाही का ब्रजपात हुआ है। चीन ने नोबल पुरस्कार समारोह का न केवल बहिष्कार किया है बल्कि चीन के पक्ष में दुनिया के 20 से अधिक देशों ने भी नोबल पुरस्कार समारोह का बहिष्कार किया। बहिष्कार करने वाले वे देश है जहां पर किसी न किसी प्रकार की तानाशाही पसरी हुई है और जिनसे लोकतांत्रिक संवर्ग छुटकारा पाने के लिए संघर्षरत है। चीन के साथ खड़े होने वाले देशों में सूडान, ईरान, पाकिस्तान, कजाकिस्तान, रूस, ट्यूनेशिया, विएतनाम, वेनेजुएला, क्यूबा सर्बिया, सउदी अरब, मिस्र, लीबिया आदि है। चीन ने दुनिया भर में बहिष्कार को लेकर काफी समय से कूटनीतिक सक्रियता दिखायी थी। अपने समर्थक देशों पर दबाव भी बनाया था। मकसद सिर्फ और सिर्फ नोबेल कमेटी को सबक सीखाना था। ऐसी बहिष्कार की प्रक्रिया से दुनिया भर में लोकतंत्र के प्रति संघर्ष की दीवार और कड़ी होंगी। साथ ही साथ तानाशाही जैसी प्रक्रिया चलेगीं। चीन की अराजक कूटनीतिक-सामरिक शक्ति को नजरअंदाज कर नोबेल कमेटी ने लोकतांत्रिक दुनिया को ही समृद्ध किया है। लिउ शियाबाओ की रिहाई और दुनिया भर में तानाशाही की समाप्ति के लिए वैश्विक जनमत को और मजबूती के साथ वैचारिक दबाव की प्रक्रिया चलानी होगी।
                                            चीन लिउ शियाबाओं को किसी भी स्थिति में लोकतांत्रिक सेनानी नहीं मानता। चीन प्रचारित करता यह है कि लिउ शियाबाओ लोकतांत्रिक सेनानी नहीं बल्कि एक अपराधी है। वह भी खूंखार। लिउ शियाबाओ पर चीनी तानाशाही के खिलाफ आम लोगों को भड़काने का आरोप है। हिंसा फैलाने या फिर हिंसा के अन्य सभी प्रकार की प्रक्रियाओं से लिउ शियाबाओ का दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं है। पिछले ग्यारह साल से लिउ शियाबाओ चीनी जेलों में बंद है। लालच-प्रलोभन देने के सभी प्रकार के क्रियाओं के जाल मे लिउ फंसे नहीं। चीनी कम्युनिस्ट तानाशाही ने चीन छोड़ने की शर्त पर रिहाई का प्रलोभन दिया था। उस प्रलोभन को लिउ कैसे स्वीकार कर सकते थे। उनका एक मात्र घोषित लक्ष्य तो चीन की आबादी को तानाशाही से मुक्ति दिलाना है। थ्यैमैन चौक पर शांति पूर्ण प्रदर्शन करने वाले छात्रों पर जो तानाशाही टैंक चलवा सकती है और एक लाख से अधिक छात्रो को मौत का घाट उतार सकती है वह तानाशाही कम्युनिस्ट सत्ता लिउ शियाबाओं को लोकतांत्रिक सेनानी कैसे मान सकती है?सिर्फ लिउ की बात नहीं है। हजारो-हजार लोकतांत्रिक सेनानी चीनी जेलों में सड़ रहे हैं और उत्पीड़न की राजनीतिक प्रक्रिया झेल रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय नियामकों में चीन ने वायदे जरूर किये पर उन्होंने राजनीतिक बंदियों के साथ उदारता बरतने के साथ पेस आने के वायदे निभाये नहीं।
                                      सतत संघर्ष की कसौटी पर लिउ शियाबाओं शांति के नोबेल के हकदार थे। नोबेल समिति ने सतत संघर्ष की कसौटी पर ही लिउ शियाबाओ को चुना था। नेल्सन मंडेला, सू ची की तरह लिउ शियाबाओ ने तानाशाही व्यवस्था को चुनौती दी है। जिस समय शियाबाओं का चयन हो रहा था उस समय भी चीन ने नोबेल समिति को प्रभावित करने और कूटनीतिक दबाव की प्रक्रिया चलाने को लेकर भयभीत किया था। नोबेल समिति ने जैसे ही यह घोषणा किया कि लिउ शियाबाओ को शांति का नोबेल दिया जायेगा, वैसे ही चीन आग बबुला हो गया। अपना गुस्सा शियाबाओ और उनके परिजनों पर उतारा। दुनिया भर में नोबेल समिति के खिलाफ अभियान चलाने की कूटनीतिक नीति अपनायी। अपने समर्थक देशों से नोबेल समिति और पुरस्कार समिति का बहिष्कार करने के लिए दबाव बनाया। यह भी स्थापित किया कि इस प्रकार की नोबेल नीति अंदरूणी हस्तक्षेप है जिससे उनकी संप्रभुता पर आधात पहुंचा है। भविष्य में यह आंच अन्य देशों पर भी बाल बनेगी।
                    यह मानने में हर्ज नहीं होनी चाहिए कि चीन के पास अराजक वीटो का अधिकार है और वह अराजक सामरिक शक्ति वाला देश है। दुनिया भर में सभी प्रकार की तानाशाही वाले देशों को चीन पहले से ही अपने पाले में कर छोड़ा है। संयुक्त राष्ट्रसंध में जब कभी तानाशाही देशों के खिलाफ प्रतिबंधों के प्रस्ताव आते हैं या फिर अन्य कार्रवाईयों की बात होती है चीन बीटो के अधिकार का प्रयोग कर देता है। ईरान, सूडान, म्यांमार जैसी तानाशाही व्यवस्था के खिलाफ इसी कारण संयुक्त राष्ट्रसंघ वेबस रहता है। नोबल पुरस्कार समारोह का जितने देश बहिष्कार किये हैं वे सभी किसी न किसी प्रकार तानाशाही सत्ता से लगाव रखते हैं और ये चीन के गोद में बैठे हुए हैं जिनका एकमात्र मकसद दुनिया भर में तानाशाही प्रक्रिया की शक्ति बढ़ाना और लोकतांत्रिक-अभिव्यक्ति की आवाज को कुंद करना है।
दुनिया के जनमत को और संघर्ष करना होगा। लोकतांत्रिक विचार प्रवाह की कसौटी को और मजबूत करना होगा। अंतर्राष्ट्रीय नियामकों की दोमंुही नीति चलती है। एक तो गरीब और कमजोर देशों के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय नियामकों का सौंटा जोर चलता है पर दूसरी ओर प्रसंग चीनी तानाशाही से जुड़ा होता है तब अंतर्राष्ट्रीय नियामकों को साप सुंध जाता है। इनकी हैंकड़ी गुम हो चुकी होती है। मानावाधिकार के धोर उल्लंधन और लोकतंत्र की प्रक्रिया पर उत्पीड़न की नीति अपनाने पर भी आज तक चीन को दंडित करने का साहस अंतर्राष्ट्रीय नियामकों में रही है? स्थिति तो यह रहती है कि चीन अंतर्राष्टीय नियामकों को ब्लैकमैलिंग कर अपना हिता साध जाता है। जैसा कि पिछला बीजिंग ओलम्पिक के आयोजन का अधिकार लेते समय चीन ने किया था। लिउ जियाबाओ की रिहाई तुरत सुनिश्चित होनी चाहिए। तिब्बत में चीनी अत्याचार बंद कराने के साथ ही साथ राजनीतिक बंदियों पर उदारता बरतने के लिए चीन पर दबाव बनाना चाहिए। नोबेल पुरस्कार समिति को लिउ शियाबाओं जैसे लोकतांत्रिक सेनानी को शांति का नोबेल देने के लिए सलाम।



सम्पर्क्र-

मोबाइल - 09968997060

1 comment:

  1. नोबेल पुरस्कार समिति को लिउ शियाबाओं जैसे लोकतांत्रिक सेनानी को शांति का नोबेल देने के लिए सलाम।
    मेरी तरफ से भी..

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