Friday, September 3, 2010

17 भारतीयों की जान लेने पर तुली इस्लामिक न्याय संस्कृति

राष्ट्र-चिंतन


17 भारतीयों की जान लेने पर तुली इस्लामिक न्याय संस्कृति


विष्णुगुप्त

                                             
                                 इस्लामिक संस्कृति में सत्ता/न्याय/मीडिया/पुुलिस/ जैसे जरूरी खंभों की सोच/सरोकार/ यर्थाथ पूरी तरह से रूढ़ियों और मानवता के खिलाफ उठने वाली क्रियाओं से परिपूर्ण होती है। खासकर गैर इस्लामिक आबादी या फिर मुद्दों पर इस्लामिक संस्कृति/ सत्ता की ईमानदारी की कल्पना तक नहीं जा सकती है। मीडिया तक की भूमिका इस्लामिक रंगों में रंग जाती है। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। ईरानी मीडिया द्वारा कार्ला ब्रुनी को ‘ वेश्या‘ बताने की घटना क्या दुनिया के लोकतात्रिक जनमत से ओझल है। सउदी अरब में 17 भारतीयों की जान लेने पर तुली हुई इस्लामिक संस्कृति की करतूत कम खतरनाक नहीं है। इस्लामिक संस्कृति के सभी खंभों ने मजहबी रूढ़ियों से ग्रसित होकर भारतीयों के खिलाफ हत्या के आरोप तैयार कराये/प्रायोजित कराये/ स्थापित कराये। भारतीयों को अपने पक्ष को मजबूती के साथ रखने के लिए जरूरी न्यायिक सहायता भी उपलब्ध नहीं करायी गयी। जबकि दुनिया भर में न्यायिक प्रस्थावना है कि आरोपी अगर असहाय है और दूसरे देश से संबंधित है तो उसे अपने बचाव में सहायता के लिए न्यायिक सेवा देने की जिम्मेदारी सत्ता की होगी। मुबंई हमले के दोषी कसाब को भारत ने पूरी और चाकचौबंद न्यायिक सहायता उपलब्ध करायी। इसके बाद ही कसाब को भारतीय न्यायिक व्यवस्था से सजा मिली। सउदी अरब की इस्लामिक सत्ताने अपनी जिम्मेदारी निभायी नहीं और 17 भारतीयों को इस्लामिक कानूनों के तहत सुली पर चढ़ाने की सजा दिलवा दी। अपीलय इस्लामिक न्यायालय से भी भारतीय को पूर्वाग्रह रहित और निष्पक्ष न्याय की उम्मीद नहीं है। परराष्ट्र में अपने नागरिकों की सुरक्षा की जिम्मेदारी भारत सरकार की है। भारत सरकार ने आरोपित भारतीयों के परिजनों की हाहाकार पर भी सउदी अरब से खरी-खरी बात करने की हिम्मत जुटायी नहीं। आरोपित अगर अमेरिकी/यूरोप के नागरिक होते सउदी अरब की इस्लामिक सत्ता इतनी मनमानी कर पाती?
                   जिस मामले में 17 भारतीयों को मौत की सजा हुई है वह मामाला काफी दिलचस्प है। सउदी अरब में एक शराब व्यापारी की हत्या हुई थी। शराब व्यापारी पाकिस्तानी था और मुस्लिम था। शराब के धंधे मे आधिपत्य को लेकर हुए झगड़ों में उसकी जान गयी थी। तीन अन्य पाकिस्तानी नागरिक घायल हुए थे। पहली बात यह है कि इस्लामिक संस्कृति में शराब की विक्री की मनाही है। सउदी अरब में भी सरेआम और सार्वजनिक जगहों में शराब की विक्री की सरकारी इजाजत नहीं है। विशेष अनुमति वाले बार या होटलों मे ही शराब परोसी जाती है। शराब को लेकर उक्त झगड़ा कोई बार या होटल मे नहीं हुई थी। गैंगवार का सीधा अर्थ है कि सउदी अरब में शराब का यह धंधा जोर-शोर चल रहा था। धंधे मे पुलिस-प्रशासन और सत्ता की अनदेखी होगी। सच तो यह था कि शराब के धंधे में लगे पाकिस्तानियों और सउदी अरब के नागरिको के बीच संघर्ष हुआ था। संघर्ष में पाकिस्तानी नागरिक की मौत के लिए सउदी अरब के नागरिक ही जिम्मेदार थे। सउदी अरब की इस्लामिक पुलिस ने पाकिस्तानी नागरिक की हत्या मे 50 से अधिक लोगो को आरोपी बनाया था। इस्लामिक न्यायालय में 17 भारतीय को गुनाहगार माना गया और 2009 में उन्हें मौत की सजा सुनायी गयी । तब से सभी 17 भारतीय सउदी अरब की जेल में कैद है जहां पर उन्हें यातना-प्रताड़ना के साथ ही साथ उन्हें मजहबी घृणा का भी सामना करना पड़ रहा है।
                        इस्लामिक न्याय व्यवस्था का न्याय परिस्थितिजन्य के विपरीत तो रहा ही है, इसके अलावा इस्लाम की रूढ़ियों से भी कम ग्रसित नहीं रहा है। सर्वप्रथम तो शराब का बड़े पैमाने पर धंधे में सउदी अरब की पुलिस-प्रशासन की मिलीभगत से कैसे इनकार किया जा सकता है। जिन पुलिस-प्रशासन ने शराब के धंधे में पाकिस्तानी नागरिक के साझेदार थे उन्ही पुलिस-प्रशासन ने हत्या के आरोपों की जांच की थी। जांच में सीधेतौर पर सउदी अरब के नागरिकों को बचाया गया। भारतीय मजदूर सउदी अरब की पुलिस का आसान शिकार बन गये। शराब की अवैध विक्री के गैंगवार में 50 अधिक भारतीय शामिल थे तो पाकिस्तानी मूल की आबादी की भी बड़ी संख्या होगी। शराब का बडे स्तर पर धंधा एक-दो के सहारे से तो चल नहीं सकती है। शराब के धंधे में और संघर्ष मे कितने पाकिस्तानी नागरिक थे? इसका खुलासा हुआ ही नहीं। जबकि संघर्ष में बड़ी संख्या में पाकिस्तानी शामिल होंगे।
          सजा पाये भारतीय हिन्दू-सिख हैं। अगर ये भारतीय मुस्लिम होते तो निश्चित मानिये इस्लामिक न्याय व्यवस्था का फैसला और कुछ होता। सबसे उल्लेखनीय और आक्रोश वाली बात यह है कि सजा पाये भारतीयों को अपने बचाव का उचित और न्यायपूर्ण अवसर दिया ही नहीं गया। उत्पीड़न और प्रताड़ना के बल पर गुनाह कबूल कराया गया। सादे कागजों पर हस्ताक्षर लिये गये और मनचाही स्थितियां दर्ज कराकर सजा सुनिश्चित करायी गयी। सजा पाये सभी भारतीय सउदी अरब की भाषा भी ठीक ढंग से समझ नहीं पाते हैं पर वे लिखा हुआ मंतब्य समझ नहीं सकते। लिपी फारसी है। फारिसी लिपी में क्या लिखा हुआ, यह भी उन्हें जानकारी नहीं होती है। इस्लामिक न्यायिक सुनवाई के दौरान सभी आरोपी अपने बचाव में ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकते थे। इसलिए कि वे सभी हिन्दी या फिर पंजाबी में अपने बचाव में तर्क और अपनी बेगुनाही की बात रखते थे। इस्लामिक न्यायालय हिन्दी और पंजाबी मे रखे गये बेगुनाही की बात अनसुनी कर दी। होना तो यह चाहिए था कि इस्लामिक न्यायालय स्वच्छ और घृणाहीन न्याय के लिए द्विभाषीय की सहायता लेता। लेकिन इस्लामिक न्यायालय ने द्विभाषीय की सहायता क्यो नहीं ली? इस पर सवाल खड़ा किया जाना चाहिए?
            अंतर्राष्ट्रीय मान्यता और कानून के अनुसार परनागरिक को अपने बचाव के लिए न्यायिक सहायता हासिल करने का अधिकार है। कसाब प्रसंग को आप देख सकते हैं। कसाब ने मुबंई में हमले कर दर्जनों लोगो को मौत की नींद सुलायी। कसाब के गुनाह की सारे प्रमाण मौजूद थे। इसके बाद भी सरकार ने कसाब को बचाव के लिए वकील उपलब्ध कराया गया। सारी न्यायिक प्रकिया चाकचौबंद और स्वच्छ थी। सउदी अरब ने अंतर्राष्ट्रीय पंरमपराओं और कानूनों का पालन किया होता तो आरोपी भारतीय मौत की सजा से बच सकते थे और सउदी अरब भी न्याय की हत्या करने और मजहबी घृणा की दृष्टि रखने जैसे आरोपों से मुक्त होता। ऐसे भी इस्लामिक राष्ट्र संस्कृति से आप यह उम्मीद नहीं कर सकते हैं वे रूढ़ियों से ग्रसित नहीं होगे या फिर वे अतंर्राष्ट्रीय नियम-कानूनो के पालन कर सकते है। ऐसी सत्ता व्यवस्था के लिए अंतर्राष्ट्रीय परमपराओं और कानूनों का कोई अर्थ ही नही होता है। इनकी सोच इस्लामी रूढियों में कैद रहती है।
               सबसे अधिक रोष और दुर्भाग्यपूर्ण रूख भारतीय सरकार का है। मौत की सजा पाये भारतीयों के परिजनों ने सउदी अरब की इस्लामिक न्याय व्यवस्था के इस अन्यायपूर्ण फैसले के खिलाफ भारत सरकार से गुजारिश की थी। अधिकतर आरोपी पंजाब के निवासी हैं। पंजाब से आये परिजनों ने प्रधानमत्री के साथ ही साथ विदेश मंत्री से भी न्याय की उम्मीद में गुहार लगा चुके हैं। पर मनमोहन सरकार का रवैया उदासीन है। सउदी अरब सरकार से खरी-खरी बात करने की जरूरत थी। इसलिए कि निष्पक्ष सुनवाई हो और निर्दोष भारतीयों की सजा से छुटकारा मिले। विदेशों में भारतीय नागरिको की सुरक्षा उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी दूतावासो की होती है। भारतीय दूतावासा ने यह जिम्मेदारी भी नहीं निभायी। अगर सजा किसी अमेरिकी या फिर यूरोपीय देशों के नागरिको की हुई होती तो निश्चित मानिये कि सउदी अरब को कई मुश्किलों को सामना करना पड़ सकता है। बिल क्लिंटन खुद उत्तर कोरिया जाकर अपने नागरिकों की रिहाई सुनिश्चित कराने की घटना हमारे सामने हैं। क्या बिल क्लिंटन और अमेरिकी सराकार जैसा उदाहरण मनमोहन सिंह सरकार प्रस्तुत कर सकती है? ना उम्मीदी ही लगती है।


मोबाइल - 09968997060

2 comments:

  1. इन जंगली लोगों से और उमीद भी क्या कर सकते हैं? दुनिया के हर कोने में मारकाट मचाय हुए हैं ये राक्षस

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  2. aap ne puri bebaki se es mamale ko uthaya hai. meri kamana hogi ki. ese padhakar BHARAT SArkar jage aor BHARTIYo ko bachaye

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