Saturday, August 21, 2010

मीडिया की ऐसी समझ क्यों और जनप्रतिनिधियों की अहर्ताएं

राष्ट्र-चिंतन
                सांसदों के वेतन वृद्धि प्रंसग
मीडिया की ऐसी समझ क्यों और जनप्रतिनिधियों की अहर्ताएं

विष्णुगुप्त

मैं न तो सांसद हू और न विधायक। एक सक्रियतावादी/राजनीतिक टिप्पणीकार होने के नाते जनप्रतिनिधियों की जिंदगी और उनकी समस्याएं-चुनौतियों को नजदीक देखा है। इसीलिए सांसदों के वेतन व्द्धि को लेकर उठने वाली आवाज और वह भी मीडिया की तरफ से आक्रोशित करने के लिए प्रेरित करती है। सांसदों का वेतन तिगुना बढ़ने से भी उनकी चुनौतियां समाप्त नहीं होती है। सांसदो का वेतन पांच लाख से कम नहीं होना चाहिए। तभी हम उनसे ईमानदारी और समर्पण जैसी अर्हताएं हासिल कर सकते है। सांसदो के वेतन बृद्धि से पहले और बाद में अखबारों और टीवी चैनलों पर जिस तरह की चर्चा हुई और जिस तरह से जनप्रतिनिधियों के खिलाफ आवाज उठायी गयी उससे मीडिया और मीडिया में बैठे हुए बड़े मठाधीश पत्रकारों की समझ व सरोकार पर तरस क्यों नहीं आयेगा। निजी चर्चाओं में भी पत्रकारों की समझ थी कि राजनेता जनता की समस्याओं और महंगाई जैसी चुनौतियों से देश को मुक्ति दिलाने की जगह अपनी तिजोरी भरने के लिए एकजुट हैं। सांसदों के वेतन वृद्धि को लेकर वैसे-वैसे पत्रकार भी कॉलम लिख कर विरोध जताने की प्रक्रिया चलायी और टीवी चैनलों पर बैठकर जनप्रतिनिधियों की खिल्ली उड़ायी जिनका पूरा जिदंगी ही बिलासिता से भरी पड़ी हुई है और उनका एक पैर देश में तो दूसरा पैर विदेशों में होता है। दिल्ली में जितने भी बड़े अखबार निकलते हैं उनके संपादकों का वेतन का पैकेज लाखों रूपये से कदापि कम नहीं है। लाखों  रूपये व्यूरो के रिपोर्टरों का वेतन पैकेज भी होता है। टीवी चैनलों के बड़े पत्रकारों का पैकज लाखों में होता है। लाखों रूपये वेतन पाने वाले पत्रकारों को कौन सी सामाजिक जिंदगी अनिवार्य रूप से निभानी पड़ती है। क्या ये मजदूरों या आम आदमी के दुख-दर्द से जुड़े होते है? आमलोगों की बात छोड़ दीजिए ये संधर्षशील या फिर नवांगुत पत्रकारों के टेलीफोन उठाने तक से कतराते है, जवाब देने की बात तो दूर रही। लाखों रूपये का पैकज लेकर काम करने वाले और सामाजिक दायित्वो से दूर रहने वाले पत्रकार अगर सांसदों के वेतन वृद्धि को लेकर सवाल उठाते हैं तो मीडिया का पूरा चरित्र जनतांत्रिक विरोधी हो जाता है। मीडिया की समझ पर भी गंभीर विचारण के लिए बाध्य करता है। यहां दो महत्वपूर्ण प्रश्न सामने आते हैं। प्रथम प्रश्न यह कि क्या क्या सांसदों का वेतन वृद्धि सही में गैर जरूरी है या फिर सांसद अपनी तिजोरी भरने में जनता की समस्याओं से दूर हो रहे हैं और दूसरा प्रश्न यह है कि मीडिया की समझ और ऐसी प्रक्रिया निर्मित क्यों होती है जिसमें देश की राजनीति की संपूर्ण दायित्वों और उन दायित्वों के निर्वाह्न की संपूर्ण आधार संरचनाओं पर साफ और सकारात्मक प्रतिक्रियाओं से दूर की समझ विकसित हो जाता है।
कितना जरूरी था वेतन वृद्धि.................
सभी सांसद न तो अमर सिंह/ राहुल बजाज/ जिंदल हैं और न ही मनमोहन सिंह जैसे नौकरशाह या विश्व बैंक मुद्रा कोष को नुमाइंदे। बहरहाल सासदों का वेतन तीन गुणा हो चुका है। क्षेत्र भत्ता और अन्य भत्ताओं में भी बढ़ोतरी हो चुकी है। पहले सांसदों का वेतन 16 हजार था। जूनियर कलर्क से भी नीचे का वेतन था। कई भत्ताएं और सुविधाएं जरूर थी। सबसे ज्यादा निशाना यही भत्ताएं और सुविधाएं ही बनी हैं। लेकिन यह भी समझ लेना चाहिए कि सांसदों को जो सुविधाएं हैं लगभग वह सुविधाएं सरकारी कर्मचारियोें-अधिकारियों को भी हैं। केन्द्र सरकार के सचिचों का वेतन देख लीजिये। इनका वेतन 80 हजार रूपये और आवास सहित अन्य सुविधाएं उन्हें मिली हुई है। जबकि एक सांसद को जिन प्रकार की चुनौतियां होती हैं और जिन प्रकार की समस्याओं से ये घिरे होते हैं क्या वैसी ही समस्याओं से अधिकारी घिरे होते हैं। जन प्रतिनिधि जनता के सेवक हैं। इसलिए उनकी समस्याएं विकराल हैं। सैकड़ों लोग सांसदों से मिलने और अपनी समस्याएं सुनाने प्रतिदिन आते हैं। प्रतिदिन आनेवाले सैकड़ों लोगों को चाय पिलाने/खाना खिलाने/ आर्थिक रूप से तंगहाल फरियादियों को घर भेजने और उनकी समस्याओं के समाधान के लिए अधिकारियों-कर्मचारियों को पत्र लिखने जैसी प्रक्रिया कितनी दुरूह होगी और उस प्रक्रिया को पूरा करने में कितनी आर्थिक शक्ति लगती होगी उसका अनुमान लगाना मुश्किल है। दिल्ली जैसे शहरों में एयरकंडिश्न में बैठकर चर्चा करने वाले और चिंता जताने वाले तथाकथित बुद्धीजीवी कभी कल्पना तक की है कि सांसदों का क्षेत्र कितना लम्बा/चौड़ा होता है? सांसदों का क्षेत्र 100 किलोमीटर से भी ज्यादा लम्बा-चौड़ा होता है। क्षेत्र ने केवल लम्बा-चौड़ा होता है बल्कि जगलों और पहाड़ो से घिरा होता है। गांवों में जाने के लिए सड़कों तक नहीं होती है। यानी की दुरूह क्षेत्रों में घुमने और जनता की समस्याओं को जानने के लिए जनप्रतिनिधियों को पहाड़ जैसी समस्याओं से दो चार होना पड़ता है। दिल्ली में इलाज कराने या अन्य कामों के लिए आने वाली क्षेत्र आबादी को सांसदो को न केवल खातिरदारी करनी पड़ती है बल्कि इलाज कराने व वापसी के लिए आर्थिक मदद भी उपलब्ध करानी पड़ती है।
अमेरिका-यूरोप के सांसदों से तुलना...............
अमेरिका-यूरोप की तुलना में हमारे सांसदों का जो वेतन और सुविधाएं मिलती हैं वह बहुत ही कम है। सुवधिाओं के नाम पर सिर्फ यात्रा/क्षेत्र और दूरभाष आदि ही हैं। जबकि अमेरिका-यूरोप के सांसदों को भारी-भरकम सुविधाओं के साथ ही साथ वेतन भी कम नही है। खासियत यह भी है कि अमेरिका-यूरोप के सांसदों के पास विशेषज्ञों की टीम रखने की सुविधाएं उपलब्ध है। विभिन्न समस्याओं पर शोध करने और संबंधित जानकारी उपलब्ध कराने के लिए टीम होती है जिसका भुगतान सांसदों को नहीं बल्कि सरकार को करनी पड़ती है। इसका लाभ यह होता है कि जनप्रतिनिधि किसी भी समस्या और चुनौतियों पर साफ और संपूर्ण समझ व जानकारी हासिल कर लेता है। इजरायल का उदाहरण भी जानना जरूरी है। इजरायल में प्रत्येक स्नातक को सांसदों के अधीन छह माह तक काम करना पड़ता है। इसका लाभ यह होता है कि प्रत्येक छात्र अपने देश की राजनीतिक चरित्र और सरोकार सहित चुनौतियों को न केवल समझ लेता है बल्कि उसका उपयोग वह भविष्य के जिंदगी को समृद्ध बनाने और देश की चुनौतियों का सामना करने के लिए करता है। यही कारण है कि चारो तरफ से अराजक और हिंसक मुस्लिम राष्ट्रों से घिरे होने के बाद भी इजरायल चटान के समान खड़ा है और वैश्विक नियामकों की चुनौतियों को भी इजरायल आसानी से अपने पक्ष में करने मे समझदार और सफल है।
 मीडिया की ऐसी समझ क्यों?............
मीडिया की ऐसी समझ क्यों है? मीडिया भारतीय लोकतंत्र की साफ/सही समझ क्यों नहीं रखता है? लोकतंत्र को स्वच्छ और समृद्ध बनाने के लिए जरूरी संसाधनों पर सकरात्मक सोच रखने की जगह नकरात्मक प्रतिक्रिया के प्रवाह में क्यों मीडिया बहने लगता है? असली चिंता की बात यह है कि मीडिया अब उतना देशज सरोकारी रहा नहीं जितना उम्मीद की जा रही है या फिर उसकी जिम्मदारी थी। लोकतंत्र/राजनीति मे जिस तरह से अपराधियों का बोलबला विकसित हो रहा है उसी तरह से मीडिया में दलालों और धनपशुओं का बोलबला बढ़ा है। पहले मीडिया में जो लोग आते थे उनका एकमेव सरोकार समाज सेवा होता था। येन-केन-प्रकारेण धन कमाना उद्देश्य कदापि नही होता था। नये-नये अखबारों और चैनलों के आज मालिक कौन लोग है? किसी का विल्डिर तो किसी का व्यापारी। इनका एक ही एजेंडा होता है दबाव बनाकर अपना व्यवसाय बढ़ाना। एक और बात महत्वपूर्ण है। आज पत्रकार कारखाने में पैदा किये जा रहे हैं। कुकुरमुत्ते की तरह आज पत्रकारिता कालेज खुले हुए है। लाखों रूपये लेकर पत्रकारिता का पढ़ाई पढ़ रहे हैं। पत्रकारिता शिक्षण संस्थानों में न तो उत्कृष्ट पत्रकार होते हैं और न ही अच्छे टीचर। देश की समस्याओं और चुनौतियों से भी उन्हें ठीक ढंग से प्रशिक्षित नहीं किया जाता है। सिर्फ पत्रकारिता की कानूनी अर्हताएं पूरी कर इन्हें पत्रकारिता की प्रक्रिया में ढंकेल दिया जाता है। कारखाने से निकलने वाले पत्रकारों की समझ कितनी हो सकती है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। यही कारण है कि मीडिया में सांसदों के वेतन वृद्धि को लेकर सवाल खड़े किये जाते हैं।
पूंजी का खेल.......................
पूंजी के खेल को क्यों नहीं समझना चाहिए। पूंजी का खेल है लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर करना/ छवि को दागदार बनाना और विश्वसनीयता का कबाड़ा निकालना। भूंमंडलीकरण के साथ ही साथ हमारे देश में जनप्रतिनिधियों को दागदार बनाने और विश्वसनीयता से दूर करने का खेल शुरू हो गया था। इसीलिए मीडिया सहित अन्य बुद्धीजीवियों के तबके से लगातार जनप्रतिनिधियों की ईमानदारी पर सवाल उठाने की प्रक्रिया चलती रहती है। लोकतंत्र पर आज संपूर्ण राजनीतिक चरित्र वाले शख्सियतों की जगह नौकरशाही जैसी शख्यितो को बैठने का मार्ग क्या नहीं बनाया जा रहा है। मनमोहन सिंह जैसी शख्सियत किस श्रेणी के देन है। अगर ऐसी शख्यित नहीं बैठगी तो फिर पूंजी का खेल और भंूमंडलीकरण की लूटवाली नीतियां लागू कैसे होगी। नौकरशाही मजबूत कैसे होगी? ऐसे खेल में जाने-अनजाने मीडिया भी शामिल हो जाता है। एक तरफ तो जनप्रतिनिधियों से ईमानादारी की उम्मीद की जाती है और दूसरी तरफ जनता की समस्याओं और चुनौतियों से भी जुझने की वकालत जाती है पर आर्थिक संसाधन उपलब्ध कराने पर सवाल भी खड़ा किया जाता है। ये दोहरापन क्यों? इसे दुर्भाय ही कहा जा सकता है कि सांसदों को अपने वेतन वृद्धि के लिए जुझना पड़ता है। तिगुना वृद्धि जरूर हुई है पर यह भी कम है। कमसे कम पांच लाख वेतन होना चाहिए। सासंदों के सामने चुनौतियांें को देखते हुए यह राशि भी बहुत ज्यादा नहीं है।
    
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