Saturday, August 14, 2010

बायोमेट्रिक्स जनगणना पर विरोध का तर्क और साजिशों का जाल

राष्ट्र-चिंतन
बायोमेट्रिक्स जनगणना  पर विरोध का तर्क और साजिशों का जाल

विष्णुगुप्त



‘बायोमेट्रिक्स जनगणना‘ पिछड़ी आबादी के साथ एक बड़ी साजिश थी और जनगणना को लेकर चले पिछड़ी आबादी के विचार प्रवाह को दफन करने की रणनीति थी। जाहिरतौर पर यह साजिश और रणनीति वही कांग्रेस ने बुनी थी जो आजादी प्राप्ति के बाद से ही पिछड़ी राजनीति और पिछड़ी आबादी के भविष्य व उन्नति पर कील ठोकती रही है। केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने जब जातीय जनगणना के निर्णय की घोषणा की थी तब वैसे लोग भी भ्रम में पड़ गये थे जो जातीय जनगणना को लेकर वैचारिक व राजनीतिक विचार प्रवाह में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। इतना ही नहीं बल्कि केन्द्रीय मंत्रिमंडल और कांग्रेस के इस बायोमेट्रिक्स जनगणना के निर्णय से चमत्कृत होने और बधाई देने तक की प्रवृतियां भी हिलौर मारने लगी थी। ऐसी प्रवृतियो के साथ पिछड़ी राजनीति से जुड़ी पार्टियां भी शामिल थी। मेरे जैसे कुछ सक्रियतावादियों ने केन्द्रीय मंत्रिमंडल के बायोमेट्रिक्स जनगणना की थ्योरी की पड़ताल की तो साजिश की परतें खुलती चली गयी। यानी सांप भी मर जाये और लाटी भी न टूटे। जब इस साजिश की बातें राजनीतिक हलकों तक पहुंचायी गयी तब राजनीतिक हलकों में कांग्रेसी सरकार की असली नीतियां उजागर हुई और दूसरे दिन लोकसभा में शरद यादव/मुलायम सिंह यादव/ लालू यादव/ गोपीनाथ मुंडे सहित अन्य राजनीतिज्ञों ने हंगामा खड़ा किया और पिछड़ी आबादी के खिलाफ साजिश को दफन करने का काम किया। पिछड़ी आवाज से कांग्रेस का असली चेहरा भी उजागर हुआ और प्रणव मुखर्जी को यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा कि पिछड़ी आबादी की जनगणना की प्रक्रिया पर पूर्ण रूप से अंतिम निर्णय नहीं हुआ है। मंुड जनगणना ही एक मात्र रास्ता है जिससे जातियों की जनसंख्या विवादहीन और सटीक तय हो सकती है। जातीय जनगणना के विरोधी स्वर्णवादी मानसिकता से ग्रसित है और पिछड़ी आबादी के भविष्य-उन्नति के लूटेरे भी हैं।
बायोमेट्रिक्स जनगणना के खतरे-----------

अब यहां यह सवाल उठता है कि बायोमेट्रिक्स जनगणना के खतरे क्या है? क्या यह पद्धति जातीय जनगणना की चाकचौबंद और दबावहीन स्थितियां प्रदान कर सकती हैं। उत्तर कदापि नहीं। इसलिए कि बायोमेट्रिक्स जनगणना के रास्ते अभी तक तय नहीं हुए हैं और वर्तनाम में बायोमेट्रिक्स जनगणना की पूरी सूरत ही नहीं बनी है। चुनाव आयोग अभी तक पूरी वयस्क आबादी को वोटर आईडी कार्ड तक नहीं दे सका है। इतना ही नहीं बल्कि बायोमेट्रिक्स जनगणना या फिर नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर तैयार करने की भी पूरी संरचना अधुरी है। संरचना के लिए जो आधारभूत संसाधनों की जरूरत होगी, वह भी निर्धारित नहीं है। जिस यूनिक पहचान पत्र के माध्यम से जनगणना की बात कही जा रही है उसकी भी एक स्थिति को अवलोकन क्यों नहीं करना चाहिए। सभी नागरिकों को यूनिक आईकार्ड देने और नेशनल पोपुलेशन रजिस्टर में नागरिकों का पूरा खजाना भरने में सैकड़ों साल भी लग सकते हैं। अगले चार साल में मात्र 6 करोड़ नागरिकों को यूनिक आईकार्ड देने का सरकारी निर्धारण है। इस देश की जनसंख्या लगभग डेढ़ अरब है। चार साल में डेढ़ अरब की जनसंख्या में मात्र 6 करोड़ लोगों को ही यूनिक आईकार्ड दिया जायेगा। यानी कि अगले चार साल में सरकार सिर्फ 6 करोड़ नागरिकों की जातीय जनसंख्या दर्ज कर पायेगी। बायोमेट्रिक्स जनसंख्या के तहत जातीय जनणना घर-धर जाकर तय नहीं होगी बल्कि उन्हें कैम्पों में बुलाकर जाती पूछी जायेगी और दर्ज की जायेगी। कैम्पों में पिछड़ी आबादी के साथ उत्पीड़न और भय जैसी राजनीतिक प्रक्रिया क्यों नहीं चल सकती है। दबंग और स्वर्ण जातियां पिछड़ी आबादी को कैम्पों मे जाने और अपनी जाति दर्ज कराने में भय और दंड का सहारा लेगी इससे इनकार नहीं किया जा सकती है। इसके अलावा बायोमेटिक्स जनगणना में सिर्फ 15 वर्ष से उपर की आबादी की ही जनणना होगी। बायोमेटिक्स जनगनणा राष्ट्रीय पोपुलेशन रजिस्ट्रर बनाने के लिए विकसित की गयी है। राष्ट्रीय पोपुलेशन रजिस्टर गोपनीय होगी। ऐसे में सरकार ईमानदारी पूर्वक पिछड़ी आबादी की जनसंख्या बता सकती है। क्या सरकार के पास गलत आकंडे पेश करने की सहुलियत नहीं होगी।
मालसा गांव का उदाहरण देख लीजिये------------------

मालसा गांव का उदाहरण हमारे सामने है। कैसे स्वर्ण जातियां पिछड़ी-दलित जातियों की राजनीतिक और सामाजिक शक्ति को न सिर्फ अपने जुतों तले रौंदी बल्कि भारतीय लोकतंत्र को भी दागदार कर दिया है। मालसां गांव उत्तर प्रदेश मे है जहां पर दलित महिला मायावती मुख्यमंत्री है। मालसा गांव में पंचायत चुनाव पिछले कई वर्षो से लम्बित है। यह कहिये कि स्वर्ण जातियां ग्राम प्रधान का चुनाव ही नहीं होने देना चाहती है। इसके लिए भय और दंड का बाजार गर्म कर रखा है। मलसा गांव का प्रधान का पद दलित के लिए आरक्षित है। गांव के स्वर्ण जातियों को यह कबूल नहीं है कि कोई दलित गांव का सरपंच हो और उनके सामने जाकर उन्हें फिरयाद करने के लिए मजबूर होना पड़े। चुनाव आयोग ने सात बार प्रधान पद के चुनाव की अधिसूचना जारी की और नामांकन की तिथियां तय की पर कोई भी दलित नामांकन करने के लिए सामने नहीं आया। कारण स्वर्ण जातियों से दंड का भय। उत्तर प्रदेश का दलित मुख्यंमत्री भी स्वर्णो के सामने हार गयी और मालसा गांव के प्रधान का पद जनरल करने का प्रस्ताव कर दिया। जब एक दलित मुख्यमंत्री स्वर्णो के सामने झुक सकती है और दलित को आरक्षण का लाभ नही दिला सकती है तब यह कैसे संभव है कि बायोमेट्रिक्स जनगणना के लिए स्थापित कैम्पों में पिछड़ी आबादी के साथ कहर नहीं बरप सकता है? देश के दूर-दराज इलाकों में अभी भी पिछड़ी-दलित आबादी पुर्नजागरण दबंग और स्वर्ण जातियों के सामने कोई महत्व नहीं रखता है।
पिछड़ो के खिलाफ साजिशों की कहानी----------------
पिछड़ों के खिलाफ राजनीतिक साजिशें और उन्हें हासिये पर भेजने का गुनाहगार नेहरू थे। नेहरूकालीन यह नीति अभी तक चली आ रही है। साजिशों में स्वर्णवादी राजनीति के साथ मीडिया की बराबर की भागीदारी रही है। सही तो यह है कि सवर्णवाद के लिए भारतीय सत्ता, धर्म और मीडया एक उधोग है और आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक शक्ति-प्रभुत्व को बनाये ही रखने का ही नहीं बल्कि अपने संवर्ग को और शक्तिशाली, और समृद्ध करने का माध्यम भी है। इस उद्योग में उनका निवेश क्या? क्या श्रर्म है? अधिक बुद्धि है? समर्पण है? नहीं। इनका निवेश है-राजनीतिक प्रपंच, छल-कपट और समाज के निर्धन-वंचित समूहों को धोखेबाजी सहित प्रत्यारोपित तथ्य व आंकडों के भूल-भूलैये की जाल में कैद कर रखना। ंयकीन मानिये अगर 1977 मे राम मनोहर लोहिया की बर्चस्व वाली धारा सत्ता में नहंी पहुची होती तो न मंडल कमीशन का गठन होता और न ही पिछड़ों के आरक्षण की नीति बनती।मंडल आरक्षण व्यवस्था किसी की दया से नहीं निकली हुई है। संविधान प्रदत्त प्रक्रिया है। क्या अभी तक मंडल कमीशन की रिपोर्ट को पूर्ण रूप से लागू किया गया? क्या इसमें राजनीतिक बईमानी नहीं हुई? क्या पिछड़ों को अशिक्षित रहने और विकास प्रक्रिया से बाहर रखने की साजिश नहीं हुई? सरकारी नौकरियो में 27 प्रतिशत की आरक्षण लागू जरूर हुआ पर उच्च शिक्षण संस्थाओं में पिछड़ो की आरक्षण की व्यवस्था पर अभी भी चुनौतियां खड़ी हैं। उच्च शिक्षण संस्थाओं सहित अन्य सरकारी नौकरियों में पिछड़ों के सीटों को खाली बताकर अगड़ों को मौका देने का खेल क्या नहीं चल रहा है? साजिशें यह है कि अगर पिछड़ों की सही जनसंख्या सामने आ गयी तो निश्चित तौर पर भारतीय राजनीति/ सामाजिक/ आर्थिक व्यवस्था पर पिछड़ों की धमक बढ़ेगी। यह स्थिति स्वर्णवादी राजनीतिक/ सामाजिक / आर्थिक संस्कृति / वर्चस्व को स्वीकार कैसे हो सकता है?
मंुड जनगणना सर्वोत्तर पद्धति............

मुंड जनगणना ही सर्वोत्तर पद्धति हो सकती है। जिसके माध्यम से देश की जातीय जनसंख्या की सही तस्वीर हासिल हो सकती है। मुंड जनगणना के माध्यम से देश की 24 प्रतिशत की आबादी की जातीय जनगणना हो चुकी है। दलित और आदिवासी जनसंख्या की 2001 गणना में हो चुकी है। मनमोहन सिंह सरकार का मत है कि जातीय जनगणना एक दुरूह कार्य है। मनमोहन सरकार का यह तर्क समझ से परे है। जब 2001 में देश की 24 प्रतिशत आबादी की जातीय जनगणना हो चुकी है तब मौजूदा जनगणना में जातीय गणना कैसे दुरूह कार्य हो सकती है। यह भी कहा जा रहा है कि समय कम है और जनगणना का टाइम निर्धारित है। क्या जनगणना कार्य की अवधि बढ़ाना भी कोई संवैधानिक संकट के अंदर आता है? सिर्फ और सिर्फ यह एक बहाना ही नहीं बल्कि साजिश है। जातीय जनगणना के विचार प्रवाह को दफन करने की साजिश है। सरकार के सामने न तो कोई चुनौती है और न ही कोई बाधा। सरकार जनगणना की समय अवधि बढ़ा सकती है। अगले साल के फरवरी में सरकार जातीय जनगणना करा सकती है। मुड जनगणना से पिछड़ी आबादी भय मुक्त होकर अपनी पहचान बता सकती है। क्योंकि उनके सामने बायोमेट्रिक्स कैम्पों में जाने जैसी बाध्यता होगी नहीं। घर-घर जाकर जनगणनाकर्मी जातीय संख्या दर्ज करेंगे। ऐसा तब होगा जब सही में मनमोहन सरकार पिछड़ी आबादी के प्रति ईमानदार होगी।
सशक्त आवाज की जरूरत...........................
अभी भी जरूरत सशक्त आवाज की है। जब तक पिछड़ी राजनीति/ सामाजिक संवर्ग दबाव की प्रक्रिया को चाकचौबंद नहीं बनायेंगे और बाध्यकारी विचार प्रवाह को गति नहीं देंगे तबतक मनमोहन सरकार की ईमानदारी न तो सामने आ सकती है और न ही बायोमेटिक्स पद्धति जैसी साजिशों का जाल आगे भी सामने आने से रूकेगा रहेगा । पिछड़ी आबादी की संख्या की जनगणना को टालने का खेल जारी रहेगा। देश में ऐसी कई राजनीतिक पार्टियां हैं जिनका आधार ही पिछड़ी आबादी रही है। जद यू, सपा, राजद, द्रुमक जैसी पार्टियो ने पिछड़ी आबादी के सहारे ही राजनीतिक कामयाबियां हासिल की है। भाजपा और कांग्रेस भी पिछड़ों का समर्थन लेने का खेल खेलती है। पर पिछड़ो के अनुपातिक प्रतिनिधित्व पर ईमानदारी दिखाने में राजनीतिक पार्टियां पीछे रह जाती हैं। सकारात्मक पहलू यह है कि पिछड़ी आबादी के लिए पिछड़ी संवर्ग वाली राजनीतिक पार्टियां सक्रिय हैं। पर पिछड़ी आबादी को भी अपना महत्व दिखाना होगा, राजनीतिक ताकत दिखानी होगी और जातीय जनगणना को लेकर साजिशों पर सक्रियता दिखानी होगी।

सम्पर्क

मोबाइल- 09968997060
 
 

No comments:

Post a Comment