Saturday, June 26, 2010
तमिल नरसंहार की खुलेेगी परत दर परत कहानी
संयुक्त राष्ट्रसंघ के सरकारी पैनल की दुरूह चुनौती
तमिल नरसंहार की खुलेगी परत दर परत कहानी
विष्णुगुप्त
श्रीलंका सरकार की बौैैखलाहट समझी जा सकती है। तमिल नरसंहार की परत दर परत कहानी बाहर आने की डर से श्रीलंका सरकार सकते में है और उसे चिंता में डाल दिया है। श्रीलंका के राष्ट्रपति महेन्द्रा राजपक्षे ने संयुक्त राष्ट्रसंघ को कोेसने की कोई सीमा न छोड़ते हुए कहा कि बान की मुन बाहरी व्यक्ति है फिर भी श्रीलंका की संप्रभुता पर हमला करने की ओछी हरकत करने से बाज नहीं आ रहे हैं। ऐसे देखा जाये तो महेन्द्रा राज पक्षे के सामने संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचित बान की मुन की आलोचना करने के अलावा और चारा भी तो नहीं था। संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव होने के नाते बान की मुन पर पूरी दुनिया में मानवाधिकार संरक्षण और शांति स्थापित करनेे की नैतिक ही नहीं बल्कि संहितापूर्ण जिम्मेदारी है। जाहिरतौर पर बानकी मुन ने अपनी जिम्मेेदारी का निर्वाहन करते हुए श्रीलंका में तमिल नरसंहार की परत दर परत कहानी खोलने की सक्रियता दिखायी है। श्रींलंका में तमिल टाइगरों के खिलाफ सैनिक अभियान के दौरान निर्दोष आबादी को निशाना बनायेे जाने के खिलाफ जांच के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ ने एक ‘सरकारी पैनल‘ बनाया है। इस सरकारी पैनल के अध्यक्ष इंडोनेशिया के पूर्व एंटर्नी जनरल मारकुजी दारूसमन होंगे। उनके साथ तीन और सदस्य होंगे। यह सरकारी पैनल न सिर्फ तमिलों पर हुए मानवाधिकार हनन औैर उनके जनसंहार की जांच पड़ताल करेगा बल्कि यह भी निष्कर्ष निकाल कर संयुक्त राष्ट्रसंध को सलाह देगा कि अराजक देशों और सरकारों को मानवाधिकार संरक्षण के लिए कैसे बाध्य किया जा सकता है। श्रीलंका ही नहीं बल्कि दुनिया भर में कई ऐसी सरकारी व्यवस्था हैं जो न केवल मानवाधिकार हनन की कब्र पर बैंठी हैं और उन्हें मानवाधिकार संरक्षण या फिर अपनी आबादी की आवाज भी खौफ और उत्पीड़न के लिए प्रेरित करती है। ऐसी स्थिति में हम आकलन कर सकते हैं कि सुयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा गठित सरकारी पैनल की श्रींलका में काम और सुझाव कितना कठिन है। सिर्फ श्रीलंका के हाथ खुन नहीं रंगे हुए हैं बल्कि तमिलों के नरसंहार के साथ चीन-पाकिस्तान जैसे देषों के हाथ भी खून से रंगे हुए हैं। जाफना में एक साथ तीन-तीन देशों की करतुतो की कहानी खोजनी पड़गी। श्रीलंका की वर्तमान सत्ता घोर अमानवीय है और उसके लिए अभी भी मानवाधिकार संरक्षण की प्रवृति का का कोई खास महत्व नहीं रखता है। राष्ट्रपति महेन्द्रा राजपक्षे घोर अराजक सत्ता व्यवस्था का नेतृत्व कर रहे हैं। महेन्द्रा राजपक्षे तानाशाही की ओर बढ़ रहे हैं। भारतीय महाद्वीप में एक और तानाशाही व्यवस्था के अस्तित्व मे आने के संकेत ही नहीं बल्कि खतरे की नींव भी मजबूत हो रही हैं। इस खतरे को चीन या पाकिस्तान जैसा अराजक देश अपने लिए अनुकुल मान सकता है पर भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए एक बडे कूटनीतिक खतरे से कम नहीं है। भारत सरकार की कूटनीति में इस खतरे को लेकर केाई हलचल क्यों नहीं है। दुुनिया को तमिलों के मानवाधिकार और उनकी बेहतरी पर और भी गंभीर होकर सोचना होगा। इसलिए कि तमिलों के साथ अभी भी जानवरों जैसा व्यवहार हो रहा है। वे राहत शिविरों के नाम पर यातना शिविरो में रह रहे हैं। यातना शिविरों में उनके साथ ज्यातियां कम नहीं हो रही है। खासकर तमिल महिलाओं के साथ सैक्स उत्पीड़न की धटनाएं विश्व समुदाय की चिंता भी बढ़ायी है।
राहत शिविरों में तमिलों के साथ जानवरों जैसा व्यवहार हो रहा है। तमिल आबादी के नरसंहार में चीन और पाकिस्तान के हाथ भी खून से रंगे हुए है। श्रीलंका का सैनिक अभियान में निर्णायक भूमिका चीन और पाकिस्तान की थी। महेन्द्रा राजपक्षे पूरी तरह से अराजक है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाबंदियां लागू हैं। राजपक्षें की तानाशाही प्रवृति वैश्विक नियामकों के सामने संकट खड़ा किया है। कैसे रूकेगी राजपक्षे की तानाशाही प्रवृति
खौफनाक नरसंहार...............................................
श्रीलंका संयुक्त राष्ट्रसंघ का सदस्य देश है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के हर सदस्य देश संयुक्त राष्ट्रसंघ की संहिता से बंधा हुआ है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की संहिता के अनुसार प्रत्येक देश को मानवाधिकार संरक्षण की जिम्मेदारी निभानी है और जातीय या मूल-भाषा पर आधारित हिंसा-ज्यादतियां रोकना है। जाहिरतौर पर श्रीलंका की सरकार ने संयुक्त राष्ट्रसंघ की इस संहिता के प्रति जवाबदेही दिखायी नहीं। तमिलों की समस्याओं का शांतिपूर्ण्र समाधान खोेजने की जगह सैनिक अभियान की प्रक्रिया चलायी गयी। सैनिक अभियान के पहले तमिल टाइगरो ने वार्ता का प्रस्ताव दिया था लेकिन श्रीलंका के राष्ट्रपति महेन्द्रा राजपक्षे को यह प्रस्ताव मंजूर नहीं हुआ। इसलिए कि महेन्द्रा राजपक्षे घोर सिहली राष्ट्रवाद का प्रतिनिधि नायक हैं। उनके एजेन्डे में सिंहली राष्ट्रवाद की जगह अन्य राष्ट्रीयता की कोई जगह ही नहीं बचती है। यह बात प्रमाणिततौर पर इसलिए कही जा सकती है कि खुद महेन्द्रा राजपक्षे बार-बार यह कहते आये हैं कि वे सिंहली राष्ट्रवाद की कीमत पर कोई भी प्रक्रिया को मानने के लिए बाध्य नहीं है। यानी सिंहली राष्ट्रवाद की सवोच्च्ता। सिंहली राष्ट्रवाद की सवोच्चता ने ही महेन्द्रा राजपक्षे को तमिलों के नरसंहार के लिए प्रेरित किया। तमिल टाइगर के सुप्रीमो प्रभाकरण जरूर हिंसा पर आधारित समाधान खोजने के लिए प्ररित थे पर सही यह भी है कि तमिलों की पूरी आबादी हिंसा से जुड़ी नहीं थी। तमिल आबादी हिसाविहीन समाधान की इच्छा रखती थी। दुर्भाग्य से श्रीलंका की सरकार ने पूरी तमिल आबादी को तमिल टाइगर का समर्थक औैर लड़ाकू मान लिया। श्रीलंका का सैनिक अभियान पूरी तरह से तमिल आबादी के विरूद्ध था। तमिल टाइगरों और प्रभाकरण के सफाये के साथ ही साथ तमिल आबादी के सफाये का मंशा भी राजपक्षे सरकार रखती थी। जैल में बंद श्रीलंका सेना के पूर्व अध्यक्ष और महेन्द्रा राजपक्षे का प्रतिद्वंद्वी फोनसेका ने बार-बार कहा है कि तमिलों का न केवल नरसंहार हुआ है बल्कि तमिल महिलाओं के साथ अमानवीय व्यवहार सहित अन्य मानवाधिकार हनने की घटनाएं हुई है। सेना पूरी तरह से अराजक थी और सिंहली राष्ट्रवाद की बहती खौफनाक प्रक्रिया में लिपटी हुई थी। श्रीलंका सरकार सेना को नरसंहार और अन्य प्रकार की ज्यातियों के लिए आदेश दे रखी थी। किसी भी तमिल टाइगरों को जिंदा नहीं छोड़ने का भी आदेश था। सैनिक अभियान के दौरान तमिल टाइगरों को समर्पन करने का लालच थमाया गया था। श्रीलंका सेना के सैनिक अभियान में समर्पण के लालच में आये तमिल टाइगरों के साथ भी खौफनाक मौत की प्रक्रिया चलायी गयी थी। सर्मपण करने वाले तमिल टाइगरों को मौत का घार उतार दिया गया था। तमिल टाइगरों के प्रमुख प्रभाकरण और उनके परिवार को जिंदा पकड़ने के बाद कई दिनो तक प्रताड़ित करने के बाद उन सबों को मौत की नींद सुलाया गया था। एक गैर सरकारी अनुमान के तहत पचास हजार से अधिक निर्दोष आबादी भी कत्लेआम की शिकार बनी थी। निर्दोष आबादी के कत्लेआम के सारी परिस्थितियां नष्ट की गयी और सबूत मिटाये गये हैं। हजारों लापाता तमिल टाइगरों की खोज नहीं हुई। लापाता आबादी केे बारे में यह कहा गया कि ये तमिल टाइगर थे जो श्रीलंका छोड़कर भाग गये। इनकी खोज की जिम्मेदारी श्रीलंका सरकार नहीं उठा सकती है?
चीन-पाक भी दोषी .............................
तमिल टाइगर दुनिया की सबसे प्रशिक्षित और ताकतवर लड़ाकू संगठन था। दुनिया में मानव बम की थ्योरी तमिल टाइगरों की ही देन है। मानव बम से ही प्र्रभारकण ने राजीव गांधी की हत्या करायी थी। करीब 40 सालों से अलग तमिल राष्ट्र के लिए तमिल टाइगर संधर्ष कर रहे थे। उनके पास न केवल थल लड़ाकू की बहुत बड़ी टूकड़ी थी बल्कि हवाई और समुद्री सैनिक ताकत थी। तमिल टाइगरों के हवाई और समुद्री हमलों ने दुनिया में काफी तहलका मचायी थी। थल-हवाई और समुद्री सामरिक ताकत होने के कारण लिट्टे की सैनिक ताकत कम नहीं थी। दुनिया भी लिट्टे की ताकत को मान चुकी थी। लिट्टे की इतनी बड़ी सामरिक ताकत को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि श्रीलंका द्वारा उनके खिलाफ अभियान छेड़ना मुश्किल नहीं तो कठिन जरूर था। कायदे की बात करें तो श्रीलंका सरकार की सैनिक ताकत इतनी बड़ी थी भी नहीं कि वह लिट्टे जैसे खूखांर संगठन से आमने-सामने की लड़ाई लड़ सके। अब यहां यह सवाल जरूर उठता है कि श्रीलंका सरकार तब लिट्टे का सफाया कैसे किया? वास्तव में इस सफलता की राज को भारतीय महाद्वीप में चीनी कूटनीति की घुसपैठ में खोजा जा सकता है। एक ओर तो अमेरिका-यूरोप के इस्लामिक आंतंकवाद के विरूद्ध लड़ाई और सोच ने लिट्टे को कमजोर किया। लिट्टे को तालिबान या अलकायदा के समकछ रखना वैश्विक कूटनीति की सबसे बड़ी भूल थी। चीन इस वैश्विक कूटनीति की परिस्थितियों का लाभ उठाया। दूसरी सबसे बड़ी बात यह है कि चीन की नजर भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था-सामरिक शक्ति और वैश्विक कूटनीति के बढ़ते दौर से पर था। वह पहले से ही भारत की पड़ोसियों को वह अपने पक्ष में करने की कूटनीतिक प्रक्रिया चलाता रहता है। नेपाल में उसने माओवादियों को खड़ा करने की सफलता खिची है। पाकिस्तान उसके चुगुल मे अपने स्थापना काल से ही है। म्यांमार के साथ चीन की सामरिक गठजोड़ है। श्रीलंका चीनी कूटनीति से चुंगुल से बाहर था। चीनी कूटनीति ने श्रीलंका को सैनिक ताकत बढ़ाने में मदद का लालच दिया। राजपक्षे अपनी सत्ता लम्बे काल तक चलाने के लिए लिट्टे जैसी शक्ति को समाप्त करना चाहता था। चीन ने पाकिस्तान के साथ मिलकर गोपनीय ढ़ग से श्रीलंका सैनिकों को प्रशिक्षित करने का काम किया। भारत के खिलाफ पाकिस्तान की कूटनीतिक अर्थ को भी नजरअंदाज नही किया जा सकता है। चीन और पाकिस्तान ने श्रीलंका सैनिकों को न केवल प्रषिक्षित किया बल्कि हथियार भी दिये। पाकिस्तान ने जहां छोटे हथियार दियें वहीं चीन ने श्रीलंका सैना को बड़े हथियार मुहैया कराये। इन बड़े हथियरों में टैंक सहित लड़ाकू हैलिकाप्टर तक शामिल थे। लिट्े के खिलाफ सैनिक अभियान का नेतृत्व चीनी और पाकिस्तान जनरल कर रहे थे। ऐसी खबरें तमिल मीडिया की है। अतंराष्ट्रीय समुदाय अब यह मान लिया है कि तमिलों के खिलाफ सैनिक अभियान में निर्णायक भूमिका चीन और पाकिस्तान की सामरिक-कूटनीति की थी। अब यहां सवाल यह उठता है कि क्या संयुक्त राष्ट्रसंघ चीन और पाकिस्तान की करतुतों और तमिलों के नरसंहार में शामिल होने की बात बाहर करने और चीन-पाकिस्तान को इन करतूतों के खिलाफ सजा देने जैसा साहस दिखा सकता है।
राहत नहीं यातना शिविर....................................
यह जानकर वैश्विक समाज को आक्रोषित होना चाहिए कि राहत शिविरों को यातना शिवरों में बदल दिया गया है। पांच लाख से अधिक आबादी अभी भी जाफना के आस-पास राहत शिविरों में रहने के लिए बाध्य हैं। राहत शिविरों में रहने वाली तमिल आबादी के साथ श्रीलंका के सुरक्षा प्रकिया जानवरों जैसा व्यवहार करती है। राहत शिविरों में रहने वाली तमिल आबादी को मानवीय सहायता जैसी जरूरी तत्व से वंचित है। खाने-पीने जैसी सुविधाएं चाकचौबंद नहीं है। गंभीर रूप से बीमार लोगों के लिए उचित चिकित्सा व्यवस्था तक नहीं है।उत्पीड़न और ज्यादतियां जैसी प्रक्रिया राहत शिविरों में चलती रहती है। खासकर महिला तमिल आबादी के साथ व्यवहार अमानवीय ही नहीं है बल्कि खौफनाक भी है। छोटी-छोटी बच्चियो के साथ श्रीलंका के सुरक्षा बल के जवान बलात्कार करने से भी नहीं चुकते है। छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार की प्रक्रिया रूकती नहीं है। विश्व मीडिया में कुछ दिन पूर्व एक तस्वीर काफी तहलका मचायी थी। वह तस्वीर भयानक थी और कूरता को पार करने वाली थी। उस तस्वीर में सुरक्षा बलो द्वारा एक छोटी उम्र की लड़की के साथ बलात्कार की बात थी। उस तस्वीर के प्रकाशन के बाद दुनिया भर में श्रीलंका सरकार के खिलाफ कार्रवाई करने की बात भी उठी थी। दुनिया में अपनी छवि खराब होते देख राजपक्षे ने झूठ और फैरब का सहारा लिया। राजपक्षे ने उस तस्वीर को झूठी करार देते हुए कहा कि यह तमिल टाइगरो का समर्थन करने वाले मीडिया द्वारा बनायी गयी तस्वीर है। जबकि सही तो यह था कि एक पत्रकार ने गोपनीय ढ़ग से वह तस्वीर खींची थी। इसके बाद महेन्द्रा राजपक्षे ने अपना गुस्सा मीडिया पर उतारा। उसने मीडिया को कई सेंशरशिप से प्रतिबंधित किया। कई पत्रकारो को उसने जेलों में डाल दिया। कई पर झूठे मुकदमे दर्ज किये गये। इसके बाद मीडिया पूरी तरह से रक्षात्मक हो गयी और राहत शिविरों से संबंधित खबरें नहीं के बराबर आने लगी। राहत शिविरों से बाहर रहने वाली आबादी के साथ भी घोर अन्याय हो रहा है। उनके मानवाधिकार को सुरक्षा बलो के जबूटों तले रोंदा जा रहा है। राहत शिविरों से बाहर रहने वाली तमिल आबादी को उनके धरों से निकलने और बाहर जाने के कारण बताने के लिए बाध्य होना पड़ता है। कारण नहीं बताने पर लिट्टे समर्थक मानकर उन्हे जेलों में ठुस दिया जाता है। तमिल आबादी जेलों में जलालत की जिंदगी जीने के लिए विवश है। जेलो में उन्हें सिंहली राष्टवादियों द्वारा अपमानित होने के साथ ही साथ उत्पीड़न का शिकार भी होना पड़ता है। श्रीलंका की जेलों में कितनी आबादी बंद है यह आकंडा भी श्रीलंका सरकार देने के लिए तैयार नहीं है।
तानाशाही की ओर बढ़ते पंख...................................
हम एक और तानाशाही व्यवस्था से धिर सकते हैं। चीन, म्यामार, नेपाल और पाकिस्तान जैसे अराजक देशों से हमारी संप्रभुता पहले से ही धिरी हुई है। अब हम श्रीलंका में भी अराजकता और तानाशाही जैसे खेल से अभिशप्त होे सकते है। महेन्द्रा राजपक्षे घोर सिंहली राष्टवाद के पक्षधर हैं। लिटटे के सफायेे का करिशमा राजपक्षे के साथ जुड़ी हुई है। सिंहली आबादी राजपक्षे का अपना नायक मानती है। पिछला राष्टपति चुुनाव इसका उदाहरण है। सिंहली राष्टवाद पर सवार होकर ह राजपक्षे ने पिछला राष्टपति चुनाव जीता था। चुनाव जीतने के बाद राजपक्षे अराजक हो गये है। उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी पूर्व सेनाध्यक्ष फोनेंसका को जेलों में डाल दिया और उनके उपर तख्ता पलट करने और अपनी हत्या की साजिश में शामिल होने के आरोप लगाये। फोनेसंका काफी दिनों से जेलों में बंद है। राष्टद्रोह का आरोप येन-केन-प्रकारेन साबित कर फोनसेंका को फांसी पर लटकाने की उनकी योजना है। फोनसंका की जेल-उत्पीड़न पर संयुक्त राष्टसंघ और अमेरिका ने नाखुशी दिखायी पर राजपक्षे की दिमाग सातवें आसमान में ही तैरता रहा है। सत्ता की गंुडई के सामने विरोधियों की आवाज काफी दब गयी है। पहले श्रीलंका में भंडारनायके परिवार की तूती बोलती थी। भंडारनायके परिवार और लोकतंत्र का रिस्ता गहरा था। लेकिन राजपक्षे ने भंडारनायके परिवार की हासिये पर डाल दिया है। सबसे बड़ी बात यह है कि राजपक्षे ने अपने कुनबे को स्थापित करने की राह लम्बी-चौड़ी बनायी है। अपने परिजनों को सेना के साथ ही साथ अपनी सरकार के महत्पपूर्ण पदों पर बैैठाया है। ऐसा इसलिए कि कहीं से भी कोई चुनौती नहीं मिल सके। यह लक्ष्ण और प्रक्रिया तानाशाही अराजक व्यवस्था के ही प्रतीक हैं। तानाशाही और अराजक व्यवस्था का समर्थक सत्तासीन ही अपने परिजनों और कुनबों को सेना और सरकार के महत्वपूर्ण पदों पर बैठाते है। मीडिया पर सेेंशरशिप पहले से ही लागू है। वर्तमान सिस्थि यह है कि जो भी राजपक्षे के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश करेगा उसकी जगह जेल होगी। राजपक्षेे को मालूम है कि वर्तनाम कूटनीतिक माहौल में उसे किसी से भी खतरा नहीं है और न ही वैश्विक नियामक उसके खिलाफ निर्णायक कारवाई करने की साहस कर सकता है। चीन उसके पूरी तरह से साथ है। भारत भी अपने रक्षात्मक कूटनीति से कोई विवाद या संकट खड़ा नहीं कर सकता है। भारत एक तरह से राजपक्षे की तानाशाही की ओर बढ़ते कदम का मुकदर्शक है। अभी हाल ही में भारत ने राजपक्षे को अपने यहां बुलाकार सम्मानित करने का काम किया है। ऐसी स्थिति में राजपक्षे को डर किस बात की है। उसके कदम तानाशाही की ओर बढ़ेगी ही।
सरकारी कमेटी की दुरूह चुनौती......................................
संयुक्त राष्टसंघ ने तमिलों के पक्ष में खड़ा होने की जिम्मेदारी जरूर निभायी है। नरसहार पर एक सरकारी पैनल भी बनाया है। सरकारी कमेटी के अध्यक्ष मारूजुकी दारूसमन वैश्विक कूटनीति और कानून के बड़े जानकार है। इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि वे तमिल आबादी का हुआ नरसंहार और उत्पीड़न-ज्यादतियों की परत दर परत कहानी खोलने मे कामयाब होगे। पर उन्हें कई कठिनाइयों से भी सामना करना पड़ेगा। श्रीलंका सरकार उन्हें सहयोग करने वाली नहीं है। तमिल आबादी डरी हुई है। उन्हें अपने भविष्य की चिंता है। इसलिए वे अपने मुंह बंद रखना ही बेहतर समझेगे। चीन और पाकिस्तान के खिलाफ सबूत जुटाना भी दुरूह चुनौती है। सरकारी कमेटी को यह भी सलाह देना है कि अराजक और तानाशाही सरकारों से मानवाधिकार संरक्षण कैसे कराया जा सकता है। इसलिए तमिलों के नरसंहार की खौफनाक कार्रवाइयो को आधार मानकर ‘सरकारी पैनल‘ यह भी सलाह दे सकता है कि संघर्षरत संगठनों से कैसे निपटा जा सकता है, उनकी मांगों का प्रबंधन का तरीका क्या हो सकता है। सबसे बड़ी बात तो संयुुक्त राष्टसंघ और सभी वैश्विक नियामकों को यह तय करना होगा कि अराजक और तानाशाही व्यवस्था का किसी भी प्रकार से सहायता या समर्थन देने की प्रवृति को रोका जाये। फिलहाल चुनौती राजपक्षे की अराजक नीतियां है।
सम्पर्क.....
मोबाइल- 09968997060
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बिल्कुल सही लिख रहे हैं. श्रीलंका में तमिलों का नरसंहार हुआ है... और प्रजातन्त्र के नाम पर निरंकुशता की ओर बढ़ रही है श्रीलंका...
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