Thursday, March 25, 2010

इस्रायल पर अमेरिकी तुष्टिकरण की मार

राष्ट्र-चिंतन


इस्रायल,भारत पर अमेरिकी मुस्लिम तुष्टिकरण की मार
                          
                          विष्णुगुप्त

बराक ओबामा मुस्लिम तुष्टिकरण पर उतर आये हैं। अमेरिकी दबाव के कारण ही भारत आतंकवादी पाकिस्तान से कश्मीर पर वार्ता करने के लिए बाध्य हुआ है। इस्रायल को हमास के सामने झुकाने के लिए बराक ओबामा कूटनीति बुन रहे है। इस्रायल को अपनी सुरक्षा के प्रति अराजक कौन बनाता है? इस्रायल को भड़काता कौन है? इस्रायल को क्या आत्मरक्षा का अधिकार नहीं है? जब ईरान का राष्ट्रपति अहमदी नेजाद और मलेशिया के प्रधानमंत्री खुलेआम यह एलान करते हैं कि इस्रायल का अस्तित्व मिटाने के लिए मुस्लिम दुनिया को एकजुट होकर सैनिक अभियान चलाना चाहिए तब विश्व कूटनीति क्यों खामोश रहती है?

                                  यह पहला अवसर है जब इस्रायली सत्ता को अमेरिका में बेरूखी और नाराजगी का सामना करना पड़ा। इसके पहले इस्रायली सत्ता संस्थान को अमेरिका में आदर-सम्मान के साथ ही साथ उसकी फिलिस्तीन नीति का भी व्यापक तौर पर समर्थन मिलता था। द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्ति के बाद अमेरिका ने ही अपने अतिरिक्त प्रयासों से यहूदियों को फिलिस्तीन के विवादित क्षेत्रों में बसाया और इस्रायल अलग देश बनवाया था। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति काल से लेकर अब तक अमेरिकियों ने इस्रायल के प्रति समर्थन जताने और संरक्षण देने में कोई कोताही नहीं बरती। यहूदी समुदाय अमेरिकी सत्ता और प्रशासन में उच्चे पदों पर बैठाये गये। अमेरिकी नीतियों के निर्धारण में भी इस्रायलियों की दखल रही है। अमेरिका ने इसके लिए मुस्लिम देशों से रार खरीदी और अपने हितों की कुर्बानियां चढ़ायी। पर अब यह सब बीते दिनो की बात हो गयी है। अमेरिका की वर्तमान सत्ता ने इस्रायल नीति बदल डाली है। अमेरिका अब अपने हितों की कुर्बानी की कीमत पर इस्रायल को न तो समर्थन दे सकता है और न ही कोई सहायता। इतना ही नहीं बल्कि अमेरिका की मंशा यह है कि इस्रायल फिलिस्तीन में हमास जैसे आतंकवादी संगठन के सामने सिर झुकाये और हमास की फिलिस्तीन आकांक्षा की पूर्ति करे। हमास फिलिस्तीन समस्या का समाधान नहीं बल्कि इस्रायल का दुनिया के नक्शे से विध्वंस चाहता है। जाहिरतौर पर इस्रायल इस समय अपने आप को अकेला और संकट मे खड़ा है। मुस्लिम देशों और आतंकवादी मानसिकता अमेरिका की नीति से संतुष्ट होगी। पर विश्व की राजनीति और कूटनीति में इसके गहरे निष्कर्ष और प्रभाव होंगे।
                                        इस्रायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहु की अभी-अभी हुई अमेरिकी यात्रा ने विश्व की कूटनीति में नये समीकरण की नींव डाली है। बराक ओबामा ने बेंजामिन नेतन्याहु को डराने-धमकाने की कोई कसर नहीं छोड़ी और गुस्सा इतना कि बेंजामिन नेतन्याहु से अपनी नीति मनवाने में असफल बराक ओबामा ने बैठक ही समाप्त कर डाली। दुबारा हुई बैठक में भी कोई निष्कर्ष न निकला। बराक ओबामा की बेरूखी और गुस्से से आजीज आकर बेंजामिन नेतन्याहु ने अपनी अमेरिकी यात्रा बीच में ही छोड़कर इस्रायल लौट गये। बराक ओबामा की नाराजगी की मुख्य वजह पूर्व यरूशलम में इस्रायल द्वारा बस्तियां बसाने की योजना है। पूर्व यरूशलम मे इस्रायल की लगभग सौ बस्तिायां है और इसमें लगभग छह लाख यहूदी रहते हैं। पूर्वी यरूशलम पर इस्रायल ने 1967 में कब्जा किया था। इस्रायल का तर्क है कि हमास जैसे आतंकवादी संगठन के हमलों से बचाने के लिए पूर्वी यरूशलम में सुरक्षा बलों के लिए छावनियां बनाना जरूरी है। पूर्वी यरूशलम मे छह लाख यहूदी आबादी है जिसे सुरक्षा प्रदान करने की नीयत से ही नयी बस्तियां बसायी जा रही है। इस्रायल का यह भी कहना है कि पूवी यरूशलम पर हमारा दावा निर्विवाद है और वह किसी भी कीमत पर हम पूर्वी यरूशलम पर दावा नहीं छोड़ेंगे। पूर्वी यरूशलम में नई बस्तियां बसाने की इस्रायली योजना पर मुस्लिम देशों से आवाज उठी थी। अमेरिका नहीं चाहता कि पूर्वी यरूशलम में इस्रायल नई बस्तियां बसाये।
                                               पूर्वी यरूशलम में इस्रायल की नई बस्तियां बसाने की योजना जरूर विवादित ही नहीं है बल्कि पश्चिम एशिया में आग को और भड़काने वाला भी है। पर हमें एकतरफा सोच से बचना होगा। अतिरंजित और इस्लामिक सोच और मानसिकता से उफनने वाले मुस्लिम देशों और हमास जैसे आतंकवादी संगठनों की हिंसक और विध्वंसक मजहबी राजनीति पर ध्यान देना होगा। इस्रायल चारो तरफ से मुस्लिम देशों से धिरा हुआ है। मुस्लिम देश इस्रायल के घोषित और स्थायी शत्रू हैं। कई लड़ाइयां भी इस्रायल और मुस्लिम देशों के बीच हो चुकी है। इस्रायल की अदम्य साहस और इच्छा के सामने पूरी मुस्लिम दुनिया एकजुट होकर भी इस्रायल का कुछ नहीं बिगाड़ सके। इधर इस्रायल के सोच में भी परिवर्तन आया है। सैनिक अभियान की जगह वह भी बातचीत से फिलिस्तिीन समस्या का समाधान चाहता है। फिलिस्तीन की स्वायतता इस्रायल की बदली हुई सोच का परिणाम था। यासित अराफात ने हिंसा छोड़कर इस्रायल के साथ बातचीत का रास्ता निकाला था। यासित अराफात के मौत के बाद फिलिस्तीन में अराजकता पसर गया। फिलिस्तीन में यासित अराफात जैसी एक भी शख्सियत नहीं हैं जो फिलिस्तिनियों में शांति वार्ता के लिए शांति का वातावरण बना सके। संसदीय चुनावों में हमास की जीत से भी स्थितियां नाजुक हुई हैं। हमास एक राजनीतिक संगठन नहीं है बल्कि आतंकवादी संगठन है। हमास इस्रायल के साथ किसी भी प्रकार के बातचीत का विरोधी है। आतंकवाद और खूनी हिंसा के बल पर हमास इस्रायल का विध्वंस चाहता है। हमास का कहना है कि वह इस्रायल का अस्तित्व विश्व के नक्शे से हटा कर ही वह दम लेगा।
                                           इस्रायल को अपनी सुरक्षा के प्रति अराजक कौन बनाता है? इस्रायल को भड़काता कौन है? इस्रायल को क्या आत्मरक्षा का अधिकार नहीं है? विश्व कूटनीति में इस प्रश्न पर भी विचार क्यों नहीं होता? जब ईरान का राष्ट्रपति अहमदी नेजाद और मलेशिया के प्रधानमंत्री खुलेआम यह एलान करते हैं कि इस्रायल का अस्तित्व मिटाने के लिए मुस्लिम दुनिया को एकजुट होकर सैनिक अभियान चलाना चाहिए तब विश्व कूटनीति क्यों खामोश रहती है। ईरान, मलेशिया, सउदी अरब, सीरिया, क्युबा जैसे देश इस्रायल पर हमला करने के लिए हमास को आर्थिक मदद देेते हैं सैनिक सहायता देते है। मुस्लिम देशों या फिर हमास के रूख से क्या फिलिस्तीन समस्या का समाधान संभव हो सकता है? कदापि नहीं। मुस्लिम देश और हमास इस्रायल का अस्तित्व विध्वंस चाहते हैं। ऐसी स्थिति में इस्रायल का वार्ता के मैज पर बैठना संभव हो सकता है क्या? द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से आज तक क्या इस्रायल का अस्तित्व मिटाने का ख्वाब मुस्लिम दुनिया पूरा कर सकी? नहीं। सीरिया, लेबनान और मिश्र जैसे मुस्लिम देशों ने इस्रायल से युद्ध किये और पराजित हुए। सीरिया, लेबनान और मिश्र ने बाध्य होकर इस्रायल से समझौते कर साथ-साथ जीने और युद्ध की राजनीति छोड़ने पर बाध्य हुए। इस उदाहरण को मुस्लिम देशों और हमास को क्यो नहीं देखना चाहिए। इस्रायल के साथ वार्ता की प्रक्रिया चले बिना फिलिस्तीन समस्या का समाधान संभव कैसे हो सकता है।
                            इस्रायल पर अमेरिकी नीति में आये परिवर्तन की मुख्य वजह मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति है। बराक ओबामा मुस्लिम तुष्टिकरण पर उतर आये हैं। मुस्लिम दुनिया में अमेरिका की छवि सुधारने के लिए बराक ने फिलिस्तीन और कश्मीर पर विशेष ध्यान देने की पहले ही घोषणा की थी। वास्तव में अमेरिका पाकिस्तान, अफगानिस्तान और इराक से निकलना चाहता है। इसके लिए अमेरिका तालिबान से समझौता करने के पक्ष में भी है। तालिबान से अमेरिका की अप्रत्यक्ष वार्ता भी चल रही है। मुस्लिम दुनिया के खुश करने के लिए उसने फिलिस्तीन और कश्मीर पर दबाव की राजनीति अपनायी है। भारत पहले से ही अमेरिकी दबाव महसूस कर रहा है। अमेरिकी दबाव के कारण ही भारत आतंकवादी पाकिस्तान से कश्मीर पर वार्ता करने के लिए बाध्य हुआ है। अब दबाव की राजनीति और कूटनीति के तहत इस्रायल को हमास के सामने झुकाने के लिए बराक ओबामा कूटनीति बुन रहे है। इसीलिए बराक ओबामा ने पूवी यरूशलम में इस्रायली बस्तियां अस्वीकार ही नहीं की है बल्कि पूरे पूवी यरूशलम को खाली करने के लिए भी इस्रायल को अपना फरमान सुना दिया है। इस्रायल इस अमेरिकी दबाव के सामने संकट में खड़ा है और उसके सामने अपने अस्तित्व और स्वाभिमान की रक्षा करने की भी चुनौती गंभीर है। अब सवाल उठता है कि बराक ओबामा की इस बदली हुई नीति का प्रभाव क्या पड़ेगा। फिलहाल अराजक और इस्लामिक मानसिकता से ग्रसित देशो और हमास जैसे आतंकवादी संगठनों की मनमानी बढ़ेगी और दुनिया इस्लामिक अराजकता और असहिष्णुता की चपेट से और ग्रसित होगा।


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91- 09968997060

5 comments:

  1. आपका आलेख सम-सामयिक और एक ज्वलंत समस्या कि ओर इंगित करता है...
    इसमें कोई शक की गुइंजाइश नहीं कि अमेरिकन वेदेशी नीतियों ने कई समस्याओं को जन्म दिया है और उनमें से ही एक इस्रायल और फिलिस्तीनी सम्बन्ध की समस्या है...
    इस्रायल के प्रति उनका खुल्लम-खुल्ला समर्थन हमेशा से रहा है ....इस समर्थन के पीछे वेटीगन का भी बहुत बड़ा हाथ है....और वेटीगन तो अमेरिकी प्रशासन नज़र अंदाज़ नहीं कर सकता....बहरहाल इस्रायल को इतनी आत्मीयता दिखाने के बाद इस तरह बीच मझधार में छोड़ देना सर्वथा अनुचित है और वो भी ऐसे समय में जब इस्लामी कट्टरपंथी इस्रायल को नेस्तनाबूत करने के लिए मौके की तलाश में हैं....इस्रायल का विध्वंस एक धर्म की धार्मिक धरोहार का विध्वंस होगा.... जिसे किसी भी कीमत पर नहीं होना चाहिए...वर्ना अन्य नुकसानों के साथ साथ यह भी एक दूसरा अफगानिस्तान बन जाएगा....
    का इस्रायल की तरफ से नज़र फेरने के कारण कई होसकते हैं...
    १. वो इस्लामी कट्टरवादियों से इस्रायल के लिए कोई पंगा नहीं लेना चाहते
    २. उनके रक्त में मुस्लिम अंश ने जोर मारा हो.
    ३. या फिर वो अमेरिकी इतिहास से कुछ अलग हट कर करना चाहते हों.
    वजह जो भी हो आपने बहुत ही प्रशंसनीय काम किया है...
    हृदय से धन्यवाद...

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  2. आपका आलेख सम-सामयिक और एक ज्वलंत समस्या की ओर इंगित करता है...
    इसमें कोई शक की गुइंजाइश नहीं कि अमेरिकन वेदेशी नीतियों ने कई समस्याओं को जन्म दिया है और उनमें से ही एक इस्रायल और फिलिस्तीनी सम्बन्ध की समस्या है...
    इस्रायल के प्रति उनका खुल्लम-खुल्ला समर्थन हमेशा से रहा है ....इस समर्थन के पीछे वेटीगन का भी बहुत बड़ा हाथ है....और वेटीगन तो अमेरिकी प्रशासन नज़र अंदाज़ नहीं कर सकता....बहरहाल इस्रायल को इतनी आत्मीयता दिखाने के बाद इस तरह बीच मझधार में छोड़ देना सर्वथा अनुचित है और वो भी ऐसे समय में जब इस्लामी कट्टरपंथी इस्रायल को नेस्तनाबूत करने के लिए मौके की तलाश में हैं....इस्रायल का विध्वंस एक धर्म की धार्मिक धरोहार का विध्वंस होगा.... जिसे किसी भी कीमत पर नहीं होना चाहिए...वर्ना अन्य नुकसानों के साथ साथ यह भी एक दूसरा अफगानिस्तान बन जाएगा....
    ओबामा का इस्रायल की तरफ से नज़र फेरने के कारण कई होसकते हैं...
    १. वो इस्लामी कट्टरवादियों से इस्रायल के लिए कोई पंगा नहीं लेना चाहते
    २. उनके रक्त में मुस्लिम अंश ने जोर मारा हो.
    ३. या फिर वो अमेरिकी इतिहास से कुछ अलग हट कर करना चाहते हों.
    वजह जो भी हो आपने बहुत ही प्रशंसनीय काम किया है...
    हृदय से धन्यवाद...

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  3. bahut hi sashakt dhang se aapne is samasyaa ko sabke samaksh rakha hai

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  4. आतंकवाद और खूनी हिंसा को बल देणे का (बराक हुसेन ओबामा आपने बहुत ही प्रशंसनीय काम किया है)इस के लिये अरबो तरफ से नोबेल पारितोषिक पेश किया जाएगा

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  5. bahut badhiya lekh hai, par ashchary hota hai hamare desh ki videsh neeti par ye bina maange hi filisteen ko UN me apna samarthan de rahen hain jab ki Israyal se hamare raksha sambandh hain.....

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