Friday, October 28, 2011

वोट के चश्मे से सेना को देखना बंद करो

राष्ट्र-चिंतन
      
  सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम पर राजनीति क्यों?
वोट के चश्मे से सेना को देखना बंद करो
विष्णुगुप्त


अमेरिका विदेशी राष्टों-कूटनीतिज्ञों के जांच से परे होने का अंतर्राष्टीय अधिकार का सम्मान नहीं करता। विदेशी राष्टाध्यक्षों और कूटनीतिज्ञों को लाइन में खड़ा कर सुरक्षा जांच होती है। विदेशी कूटनीतिज्ञों को कपड़े उतारवा कर भी जांच होती है। तत्कालीन भारतीय रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीस को अमेरिका के हवाई अड्डे पर कपड़े उतरवा कर सुरक्षा जांच हुई थी। अमेरिकी सेना कई विशेष अधिकार वाले कानूनों से लैश है। दुनिया भर में मानवाधिकारों के शोर के बाद भी अमेरिका की सुरक्षा नीति प्रभावित नहीं हुई। यही कारण है कि वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हुए अलकायदा के हमले के बाद आज तक अमेरिका में और कोई हमला नहीं हुआ है। आतंकवादियों और आतंकवादियों के संरक्षक संवर्ग के लिए मानवाधिकार का कवच क्यों? आतंकवादियों के हमले का शिकार होने वाले लोगों का कोई मानवाधिकार नहीं होता है क्या? हमारे देश में सेना और सेना के सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम को कोसने का एक ऐसा फैशन है जिसकी एक्सरसाइज कभी रूकती ही नहीं है।
दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है जहां पर सेना और देश की सुरक्षा को भी राजनीतिक वोट के नजरिये से देखा जाता हैं। इतना भर ही नहीं बल्कि वोट के नजरिये से सेना व देश की सुरक्षा को कोपभाजन बनाने और संकट में डालने की कोई कसर नहीं छोड़ी जाती है। राजनीतिक हमलों-साजिशों के बावजूद भी हमारी सेना न केवल अनुशासित है बल्कि दुनिया भर में शांति मिशनों की सफलता में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। संयुक्त राष्टसंघ के शांति अभियानों में भारतीय सेना की भूमिका अद्वितीय है। दुनिया के संकटग्रस्त-हिंसाग्रस्त और गृहयुद्ध जैसी स्थिति से निपटने में सभी पक्षों द्वारा भारतीय सैनिकों की मांग यह साबित करती है कि हमारी सेना दुनिया के सभी सेना संवर्ग में सबसे अधिक शील और मानवाधिकारों के प्रति जवाबदेह है। पक्षपात जैसी ग्रंथिया हमारी सेना ढोती नहीं। दुनिया भर में अपने लिए अनुशासन और मानवाधिकार के प्रति जवाबदेही हासिल करने वाली हमारी सेना अपने घर में ही आलोचना और राजनीतिक साजिशों का शिकार रही है। जबकि हमारी भगोलिक सीमा पर कैसी संकट है यह भी जगजाहिर है। पड़ोसी देशों के प्रत्यारोपित आतंकवाद से हमारी सेना न केवल जूझ रही है बल्कि अनगिनित कुर्बानियों देकर राष्ट की एकता और अखंडता का बोझ ढो रही है। सेना के दबाव के सामने प्रत्यारोपित व आउटसोर्सिंग आतंकवाद जब-जब दम तोड़ते दिखता है तब तब सेना के हाथ-पांव बांध देने की राजनीति चलती है। शांति प्रक्रिया के नाम पर सेना के आतंकवाद विरोधी अभियानों पर ब्रजपात होता है तो कभी दुर्दांत आतंकवादियों को छोड़ने व उनका सम्मान करने की सत्ता राजनीति चलती है। ऐसे में सेना का पूरा तंत्र जोश और होश क्यों नहीं खोयेगा? सुखद स्थिति यह है कि इतनी राजनीति और साजिश के बाद भी भारतीय सेना ने जोश और होश अभी तक नहीं खोयी है। संवैधानिक लोकतंत्र के दायरे में सेना अपने आप को अराजकता से दूर और जवाबदेही से पूर्ण है।
हाल के दिनों में सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम के खिलाफ गंभीर चर्चा हो रही है। खासकर बुद्धीजीवी संवर्ग का निशाना है कि सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम मानवाधिकार हनन का हथकंडा बन गया है। सेना इस अधिनियम का दुरूपयोग करती है और निर्दोष नागरिकों के मानवाधिकार का हनन करती है। इसलिए इस अधिनियम को समाप्त कर देना ही सर्वोत्तम विकल्प है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुला के बयानों से सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम को लेकर सेना और गृहमंत्रालय परेशानी में है। उमर अब्दुला ने कश्मीर के कुछ जिलों से सेना का यह विशेषाधिकार समाप्त करना चाहते हैं और इसकों लेकर उनका सार्वजनिक बयानबाजी कुछ ज्यादा ही तेज है। उमर अब्दुला ने सेना को आलोचना को शिकार भी बनाया। सेना के आपत्ति के बाद उमर अब्दुला सेना के पक्ष में बयानबाजी करने और आतंकवाद से लड़ने में सेना की भूमिका की प्रशंसा करने की नीति पर चलने को बाध्य हुए हैं। फिर भी उमर अब्दुला का सेना के इस विशेषाधिकार के खिलाफ अभियान जारी है। सेनाध्यक्ष वीके सिंह ने साफतौर पर कहा है कि सशस्त्र बल विशेष अधिनियम हटा लेने के बाद सीमा चैकियों और आतंकवाद ग्रस्त भूभागों की समस्याएं विकराल होगी। आतंकवाद ग्रस्त भूभागों में सेना की तैनाती का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। दम तोड़ता प्रत्यारोपित आतंकवाद फिर से सिर उठा कर देश की एकता को खंडित करने के लिए शक्ति हासिल करेगा। राजनीतिक संवर्ग को इस सच्चाई से अवगत कयों नहीं होना चाहिए? फिलहाल सेना अध्यक्ष वीके सिंह संतुति गृहमंत्रालय के पास विचाराधीन है। गृहमंत्रालय को यह निर्णय लेना है कि सेना के पास यह विशेषाधिकार रहना चाहिए या नहीं।
सर्वोत्तम स्थिति यह है कि सेना को हमेशा बैरकों में ही रहना चाहिए। आबादी वाले इलाकों में सेना की सक्रियता खतरनाक मानी जानी चाहिए? पर सवाल यहां यह है कि क्या हमारे देश की आतंरिक व वाह्य स्थितियां ऐसी है कि सेना और अन्य सुरक्षा बलों को उनके बैरकों तक ही सक्रियता सुनिश्चित रखी जानी चाहिए। ऐसा सभ्य समाज या आतंरिक-वाह्य चुनौतियों से दूर रहने वाले देशों में ही हो सकता है कि सेना सिर्फ बैरकों में ही अपनी गतिविधियां-सक्रियता सुनिश्चित रख सके। भारत जैसे हिंसाग्रस्त और आतंकवाद से घायल देश में यह संभव ही नहीं है कि सेना को बैरकों तक सीमित रख छोड़ा जाये। वाह्य -आतंरिक सुरक्षा की चुनौतियां हमारे सामने किस प्रकार की विकट है यह भी जगजाहिर है। जम्मू-कश्मीर में हम जहां पाकिस्तान प्रायोजित और आउटसोर्सिंग आतंकवाद के शिकार हैं वहीं पूर्वोत्तर का पूरा इलाका चीन जैसे खतरनाक पड़ोसियों की साजिशों के चक्रव्यूव में हमारी सुरक्षा नीति है। जम्मू-कश्मीर में सेना के अथक प्रयासों और बेहिसाब कुर्बानियों के बदौलत ही हम आतंकवाद पर अंकुश लगाने में कामयाब हुए हैं। आतंकवादियों की पूरी रणनीति सेना के दबाव मेें दम तोड़ रही है। जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों के हमले और आतंकवादियों की धुसपैठ में आयी कम इस बात का प्रमाण है कि सेना का चाकचैबंद कार्रवाइयां पड़ोसी देश के नापाक इरादों को कुचल रही हैं। यह स्थितियां कोई राजनीतिक पहल या कठोरता से नहीं बनी हुई हैं बल्कि सेना के सीमा की सुरक्षा और देश की सुरक्षा के प्रति समर्पण से बनी हुई हैं।जहां तक पूर्वोतर का सवाल है तो पूरा पूर्वोतर ही उग्रवाद के शिकंजे मे कैद है। जहां पर चीन की टेढी नजरें हमेशा सेना की चुनौतियां विकराल करती रही हैं।
हमनें नरम नीति या फिर पड़ोसियों पर भरोसा कर देख लिया है और इसके दुष्परिणामों को भी राष्ट ने भुगता है। जब-जब आतंकवाद दम तोड़ता दिखता है और पड़ौसियों के नापाक इरादे कैद में होते हैं तब-तब नरम नीति या फिर आतंकवादियों से शांति प्रक्रिया की समझ विकसित होती है। नरम नीति या फिर शांति की प्रक्रिया से आतंकवाद और मजबूत होकर खड़ा होता है। पड़ोसी देशों का कुचक्र और तेज होता है। अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान से दोस्ती की आस में सेना के हाथ बाध दिये थे। आतंकवादियों और आतंकवाद के आउटसोर्सिंग करने वाले देश के साथ शांति प्रक्रिया चलायी गयी। सीमा पर सेना के हाथ बांध कर रखे गये थे। फलस्वरूप राष्ट ने कारगिल जैसे हमले भुगते। कारगिल को मुक्त कराने के लिए सैकड़ो सैनिकों को कुर्बानियां देनी पड़ी थी। विकास के अरबों डालर रूपये कारगिल को पाकिस्तान सैनिकों से मुक्त कराने के लिए लगाये गये। दुनिया भर में आतंकवाद के खिलाफ आवाज तेज हो रही है और पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा कर किया जा रहा है पर भारत पाकिस्तान के आतंकवाद के आउटसोर्सिंंग पर खामोश क्यों है?
    साखकर कश्मीर में सेना को किन विकट परिस्थितियों में काम करना पड़ता है उस पर भी गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। पत्थर फेंकने वाली बलवायी भीड़ सरेआम सरकारी प्रतिष्ठानों और सैनिकों के बैरकों में आग लगाती है। पड़ोसी देशों के झंडेु फहराये जाते हैं। सीमा पार कर आने वाले आतंकवादी आबादी में शरण लेकर अपनी खूनी कारवाइयों को अंजाम देते हैं। ऐसी स्थिति में सेना पर अतिरिक्त दबाव आना स्वाभाविक है। मानवीय भूल से कुछ निर्दोष लोग भी उत्पीड़न का शिकार होते हैं। यह सही है। फिर भी जिन स्थितियों में भारतीय सेना आतंकवाद से जूझ रही है उस स्थिति के मद्देनजर हमारी सेना सबसे अधिक शील और मानवाधिकारों के प्रति सचेत-समर्पित है।
हमारे राजनीतिक संवर्ग और सत्ता संस्थान को दुनिया के उन देशों से सबक लेना चाहिए जिन्होंने आतंकवाद से लड़ने के लिए अपने कानूनों को कठोर बनाया। पुलिस -सेना को विशेष अधिकारों से लैश किया। अमेरिका -ब्रिटेन आज अपने विशेष कानूनों के बल पर ही आतंकवादियों के नापाक इरादों से मुक्त है। अमेरिका में विदेशी राष्टाध्यक्षों को लाइन में खड़ा कर तलाशी ली जाती है। भारत को आतंकवाद और देश की सुरक्षा की कसौटी पर ही सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम को देखना चाहिए।

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